Aug 29, 2015

अच्छे दिनों की आस

  अच्छे दिनों की आस

पाँच-सात दिनों से इंद्रदेव  ने कृपा  कर रखी है , नहीं तो हफ़्तों से साँस ही नहीं लेने दे रहे थे |ठीक है, पीने के पानी की कमी है, गली में कीचड़ की कमी तो बिना बरसात के भी कभी नहीं रही | अब सुबह-सुबह का तापमान भी सहनीय ही नहीं सुहावना भी हो जाता है | रात को बिजली चली गई थी और सुबह तक नहीं आई सो अलसाए हुए से बरामदे में बैठे बादे सबा का लुत्फ़ ले रहे थे कि तोताराम आ गया |पूछने लगा- क्यों, अब भी अच्छे दिनों का इंतज़ार कर रहा है क्या ? 

हमने कहा- तोताराम, अच्छे दिनों का किसे इंतज़ार नहीं रहता ? अंत भला सो भला- मरता हुआ आदमी भी कुछ अच्छा देख-सुनकर इस दुनिया से जाना चाहता है |सो यदि मान ले, हम अच्छे दिनों का इंतज़ार कर रहे हैं तो तुझे क्या तकलीफ है ? 

बोला- तकलीफ मुझे क्यों होगी ? तू शबरी की तरह राम के आने का इंतज़ार करते हुए उनके आने का रास्ता बुहार या अहल्या की तरह शापग्रस्त होकर पड़ा रह मुझे क्या ? लेकिन तुझसे ज़िन्दगी भर का वास्ता रहा है इसलिए बताने आया हूँ कि बीजेपी ने कभी अच्छे दिन लाने का वादा नहीं किया |

हमने कहा- क्यों, क्या अमित शाह ने जिस तरह काले धन के १५ लाख रुपए हर भारतीय के खाते में आने वाली बात को चुनावी जुमला बता कर मामला रफा-दफा कर दिया था उसी तरह किसी ने अच्छे दिनों की भी हवा निकाल दी क्या ?

बोला- और क्या ? हर बात के लिए मोदी जी हो सफाई दें यह तो संभव नहीं है लेकिन केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर साहब ने कह दिया है कि बीजेपी ने कभी 'अच्छे दिन' लाने का वादा नहीं किया था |

हमने कहा- लाने का वादा तो नहीं किया था सिर्फ यही कहा गया था कि अच्छे दिन आने वाले हैं |तो फिर जनता की क्या गलती, वह भी इंतज़ार करने लगी |हम कौन सा किसी पर मुक़दमा करने जा रहे हैं | ज्योतिषी और तांत्रिक के कहने पर दुखी आदमी अनुष्ठान का खर्चा तो पेट काटकर भी कर ही देता है |सो हमने भी वोट दे दिया | वैसे अब भी यह थोड़े ही कह दिया है कि अच्छे दिन आएँगे ही नहीं | उम्मीद अब भी बाकी है और उम्मीद पर दुनिया कायम है | वैसे हम  तो थोड़ी ठंडी हवा का मज़ा लेने के लिए बरामदे में बैठे हैं |

हमें इतना बेवकूफ मत समझ |हमें १९५२ से अब तक के सारे वादों की असलियत मालूम है |यदि इन पर ऐतबार होता तो बकौल ग़ालिब-

तेरे वादे पे जिए हम तो ऐ जान झूठ जाना 
कि खुशी से मर न जाते 'गर ऐतबार होता |

बोला- तो फिर कोई बात नहीं |मैं तो यह सोचकर चिंतित हो रहा था कि कहीं ज़फर साहब की तरह चार दिन की ज़िन्दगी - दो आरजू में और दो इंतज़ार में- न काट दे |
चल, अब इस भ्रम-भंजन के उपलक्ष्य में एक बढ़िया सी चाय पिलवा दे, मठरी के साथ | 
 

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