Aug 4, 2011

सफेदपोश घसियारों का सौंदर्यबोध (जन्नत की हकीकत - अमरीका यात्रा के अनुभव)


सफेदपोश घसियारों का सौंदर्यबोध

 (जन्नत की हकीकत - अमरीका यात्रा के अनुभव)

२३ जून २०११ को स्थानीय समय के अनुसार रात के कोई दस बजे अमरीका के कनाडा की सीमा से लगते राज्य ओहायो के स्टो कस्बे में पहुँचा । भारत में इस समय सुबह के कोई साढ़े सात बज रहे थे । यह सब इसलिए कि भारत पूर्वी गोलार्द्ध में है तो अमरीका का यह स्थान पश्चिमी गोलार्द्ध में । शरीर को अपने को नई स्थिति में ढालने में दो-चार दिन का समय लगता है और तब तक होने वाली शारीरिक अव्यवस्था और बेचैनी को तकनीकी भाषा में 'जेट-लेग' कहते हैं । आदतन इस समय भारत में तो नित्य कर्म निबटा रहा होता सो नींद नहीं आ रही थी । समय बिताने के लिए इंटरनेट पर अखबार पढ़ने की अन्त्याक्षरी शुरु कर दी ।


जिन दो-चार अखबारों की साईट मुझे पता थी उन्हें पढ़ लेने के बाद भी जब नींद नहीं आई तो यहाँ के न्यूज साईट ए.बी.सी. ( अमरीकन ब्रोडकास्टिंग कोरपोरेशन ) को खोल कर पढ़ने लगा । एक समाचार पर निगाह पड़ी कि कनाडा की सीमा से लगे मिशिगन राज्य की 'ओक पार्क' नामक टाउनशिप में रहने वाली जूली बाश के घर के सामने नगरपालिका के सीवर ठीक करने वाले लोगों ने कुछ हिस्से की खुदाई की और मजे की बात यह कि उस मिट्टी को यथास्थान भरने की बजाय भारतीय स्टाइल में उसी तरह छोड़ गए । मिट्टी को दुबारा उसी स्थान में भरने की परेशानी से बचने के लिए उस महिला ने उस मिट्टी को वहीं फैला कर एक ऊँची उठी हुई क्यारी बना दी और उसमें कुछ सब्जियों के बीज डाल दिए ।

यहाँ पिछले कोई पचास वर्षों से 'टाउनशिप' का फैशन चला है । शहरों की घनी आबादी, कोलाहल और आपराधिक वातावरण से दूर खुले, शांत और एकांत वातावरण में रहने के इच्छुक, अपना वाहन रखने वाले और रोजाना घर से काम पर आने-जाने का खर्चा उठ सकने और नया मकान बना सकने की हैसियत वाले लोगों ने ऐसी ही टाउनशिपों में रहना शुरु कर दिया । जब किसी टाउनशिप के आसपास व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ने लगती हैं तो वहाँ के मकानों की कीमत गिरने लगती है क्योंकि व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ने से सभी तरह के लोगो की आवाजाही से अपराधों का बढ़ना स्वाभाविक है । इसी बात को ध्यान में रखकर ऐसी टाउनशिपों में किसी भी प्रकार की व्यापारिक गतिविधि नहीं हो सकती । आपके पास कार होना अनिवार्य है क्योंकि छोटी-मोटी चीजें खरीदने के लिए भी आपको दो-तीन किलोमीटर तो जाना ही पड़ेगा जो कि सामान्य रूप से किसी के लिए भी संभव नहीं है । इस प्रकार ऐसे इलाकों के निवासियों में कुछ विशेष प्रकार की सफेदपोशी की भावना पैदा हो जाती है ।

सो मिशिगन राज्य के ओकपार्क की जूली बाश इसी सफेदपोशी सौंदर्यबोध की कुंठा का शिकार हो गई । किसी सौंदर्य प्रेमी ने स्थानीय निकाय को शिकायत कर दी कि टाउनशिप के नियमों के अनुसार घर के सामने सब्जी नहीं लगाई जा सकती और उसे घर के सामने सब्जियाँ लगी देखकर भद्दा लगता है । खबर के विस्तार में जाने पर पता चला कि यदि किसी कानून के अंधे ने नियमों को उनके शाब्दिक अर्थों में लागू कर दिया तो शायद जूली को तीन महिने की सज़ा हो सकती है ।

कोई दस-ग्यारह वर्ष पहले जब अमरीका आया था तो एक समाचार पढ़ा था कि किसी चीनी प्रवासी के पिताजी यहाँ आए । चीन और भारत के सामान्य लोग स्वभावतः आज भी कृषिकालीन समाज के मूल्यों और संवेदनाओं से जुड़े हैं । उस चीनी के पिता के पास तो समय पर्याप्त था ही । उसने देखा कि अपार्टमेंट्स के आसपास खाली जमीन पड़ी है सो उसने बिना किसी व्यक्तिगत फायदे की कामना के टमाटर के कुछ पौधे लगा दिए । सेवा और देखभाल से शीघ्र ही उन पौधों पर टमाटर भी लगने लगे । मगर जैसे ही एक सौन्दर्यबोधी की नज़र उस पर पड़ी तो उसने ऐतराज़ किया और उस आवासीय परिसर की सुंदरता की रक्षा के लिए टमाटर के उन पौधों को उखड़वा दिया गया ।



अमरीका की ऐसी ही टाउनशिपों में से जिस एक में मैं रह रहा हूँ उसमें कोई २५० मकान हैं । हर मकान को औसतन कोई १०००-१५०० सौ वर्ग गज ज़मीन मिली हुई है जिस पर निर्मित क्षेत्र तो कोई तीन-साढ़े तीन सौ गज ही होगा; नीचे बेसमेंट; उस पर रसोई, बैठने का कमरा, खाना खाने का स्थान और लिविंग रूम तथा सबसे ऊपर सोने के तीन-चार कमरे । बाकी १००० वर्ग गज मतलब कि कोई एक बीघा ज़मीन खाली जिसमें कई बड़े-छोटे पेड़ और घास । एक भी काम की वनस्पति नहीं । अनुमान लगाया गया है कि अमरीका में बनी इस प्रकार की टाउनशिपों में बने मकानों के चारों तरफ छूटी ज़मीनें अमरीका के इलेनोय राज्य की कुल ज़मीन के बराबर है अर्थात कोई डेढ़ लाख वर्ग किलोमीटर । इन ज़मीनों पर लगी घास और पेड़ों को हरा-भरा और सुरक्षित रखने के लिए पानी, खाद, कीटनाशक और कटाई-छँटाई करने के लिए चलाई जाने वाली मशीनों में फुँकता पेट्रोल मतलब कि अरबों डालर का खर्चा और प्राप्ति कुछ नहीं । घर के मालिक को इसके अलावा रोज एक-दो घंटे का समय भी इस सौंदर्यबोध के लिए देना पड़ता है । २२ जुलाई २०११ को इस राज्य ओहायो वाले इस इलाके में राजस्थान की तरह तापमान ४२ डिग्री पहुँच गया जिससे अपने लान की घास काटते हुए दो बुजुर्ग मर भी गए । सफेदपोश पड़ोस के सौंदर्य के साथ कदम मिला कर चलना ज़रूरी जो था क्योंकि दोपहर में किसी नीम या खेजड़ी के पेड़ के नीचे बैठकर बतियाना, सुस्ताना और सत्तू खाना तो निहायत पिछड़ापन है ।

जो बातें मेरे दिमाग में उस दिन आ रही थीं वे ही आज भी आ रही हैं मगर मैंने उन्हें उस समय नहीं लिखा क्योंकि मुझे २६ जुलाई २०११ का इंतज़ार था जिस दिन इस मामले का फैसला आना था । मुझे विश्वास था कि जूली बाश को सज़ा नहीं होगी और हुआ भी ऐसा ही कि अदालत ने उस केस को खारिज कर दिया क्योंकि सौंदर्यबोध की कुंठा से ग्रस्त सफेदपोश घसियारों की तरह शेष समाज का विवेक खत्म नहीं हुआ है ।

ऐसे में मुझे १९६५ में तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी द्वारा किया गया आह्वान- 'यदि सारा देश सप्ताह में एक शाम को उपवास करे तो इस खाद्य समस्या से निबटा जा सकता है' याद आ रहा था जो उन्होंने अमरीका द्वारा अपने पाकिस्तान प्रेम के कारण भारत को अनाज का निर्यात रोकने की धमकी के बाद किया था । देश ने बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से इसे अपनाया था और खाली पड़ी ज़मीन के हर टुकड़े पर कुछ न कुछ खाद्य उगाना शुरु कर दिया था । और हम उस समस्या से निबटाने में समर्थ हो गए थे । वैसे भी देखा जाए तो यह कोई कष्ट नहीं है बल्कि सप्ताह के एक समय का उपवास एक उपचार है जो आदमी को मितव्ययिता ही नहीं बल्कि अनुशासन भी सिखाता है और उसे स्वस्थ भी बनाता है ।

अमरीका में भले ही खाद्य पदार्थो की कमी का रोना नहीं रोया जाता मगर यह तय है कि शाकाहार यहाँ माँसाहार से अधिक महँगा है । गरीब लोग तो शाकाहार कर सकने की आर्थिक स्थिति में ही नहीं हैं और अन्य बहुत से लोग अपने अभ्यासवश माँसाहार किए जा रहे हैं । आजकल दुनिया में जो माँसाहार है वह परंपरागत माँसाहार से नितांत भिन्न है । पहले जंगल में रहने वाले स्वस्थ पशुओं का शिकार किया जाता था और उन्हें तत्काल खा लिया जाता था । आजकल पशुओं को माँस के लिए पालने को अमरीका द्वारा खोजी गई शब्दावली में 'फार्मिंग' कहते हैं मतलब कि गाय, मुर्गियाँ, सूअर, टर्की आदि सब एक फसल हैं । क्या आप सब्जी काटने, छीलने, पकाने, खाने की तरह इन जानवरों का तड़पना, और इनके रक्त, माँस, मज्जा का बहना आदि सब सहज भाव से देख सकते हैं ? आप ही क्या माँस खाने वाले अधिकतर लोग भी नहीं देख सकेंगे । बहुत कम ऐसे लोग है जो खुद किसी जानवर को मारते, काटते, पकाते और खाते हैं बल्कि अधिकतर लोग तो डिब्बों में पैक ऐसा माँसाहार लाते हैं जिन्हें खाने वाले को केवल डिब्बे पर लिखे निर्देशों और सूचनाओं से ही पता चलता है कि इसमें क्या है ? यदि जानवरों को मारने और माँसाहार तैयार करने की सारी प्रक्रिया सबको दिखा दी जाए तो शायद अमरीका के भी करोड़ों लोग माँसाहार छोड़ देंगे ।

आजकल के इस प्रकार के माँसाहार और उसके उत्पादन में जो तरीके अपनाए जाते है वे भी स्वाभाविक और स्वास्थ्यकर नहीं हैं । माँसाहार के लिए पाले जाने वाले जीवों का वज़न जल्दी बढ़ाने के लिए तरह-तरह के 'ग्रोथ होरमोन' दिए जाते है जिससे उनकी बहुत जल्दी वृद्धि तो हो जाती है मगर ये हार्मोन उसे खाने वाले व्यक्तियों में भी पहुँच जाते है जिससे उनकी भी अस्वाभाविक और असंतुलित वृद्धि हो जाती है क्योंकि मन और मष्तिष्क तो केवल आहार से फटाफट नहीं बढाए जा सकते । वे तो अनुभव, अनुशासन, श्रम और साधना से अपने समय पर परिपक्व होते हैं । इसीलिए आजकल माँसाहार करने वाले बच्च्चों में शरीर अपेक्षाकृत जल्दी बढ़ रहा है मगर उसके अनुपात में मानसिक विकास नहीं हो रहा है । माँसाहार करने वाले बच्चों में जो हाइप ( शारीरिक और बाह्य उत्तेजना ) दिखाई देती है वह इसी असुंतलन के कारण है ।

महँगे शाकाहार की समस्या को खाली पड़ी इस ज़मीन के सदुपयोग से किया जा सकता है । एक हज़ार वर्ग गज के प्लाट पर इतनी सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं कि एक परिवार मज़े से घर की ताज़ा और पूर्णतः प्राकृतिक सब्जियाँ खा सकता है और एक-दो बकरियाँ भी पाली जा सकती है जो दूध भी उपलब्ध करवा देंगी मगर इसके लिए सफेदपोशों के इस तथाकथित सौंदर्यबोध की दिशा का बदलना ज़रूरी है जो केक्टस और घास की बजाय सब्जी और घरेलू पशुओं में भी सौंदर्य देख सके ।

टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए सेक्स, हिंसा, घोटालों और ऐसे ही अन्य सनसनीपूर्ण समाचारों की जुगाली करते रहने वाले मीडिया के लिए यह कोई बड़ी खबर नहीं हो सकती थी मगर मेरे लिए तो यह खबर और फिर जूली बाश का मामला खारिज कर दिया जाना किसी परमाणु समझौते की खबर से कम नहीं है । बकरी तो नहीं मगर मैनें यहाँ घर के पीछे मूली, धनिया, टमाटर, आलू, खीरा, बैंगन, पालक, तरह-तरह की फलियाँ, मिर्च आदि सरलता से लग सकने वाली सब्जियाँ लगाने के लिए क्यारियाँ खोदना शुरु कर दिया है । और भी कई सब्जियों के बारे में जानकारी करूँगा । इस इलाके में सेव, अखरोट, आलूबुखारा, नाशपाती, अंगूर, खरबूजा, तरबूज, आड़ू, स्ट्राबेरी आदि फल भी बिना अधिक मेहनत के बहुतायत से उगते हैं । वे भी उगाने की योजना है । बड़ी ज़रखेज़ धरती है यहाँ की ।

जीवनदायिनी माँ वसुंधरा को प्रणाम । उसका पयः पान वात्सल्य भाव के बिना संभव नहीं है ।
रमेश जोशी
३१ जुलाई २०११

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)



(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

4 comments:

  1. आपकी ये पोस्ट पढी तीन-तीन बार, फ़िर सोचा कि अपने देश में ऐसा कभी होगा कि नहीं?

    ReplyDelete
  2. घर के पिछवाड़े सबकुछ उगाया जा सकता है। लेकिन वहाँ की जीवन पद्धति मुझे भी कम ही पसन्‍द आती है। बहुत अच्‍छा आलेख। अपने अनुभव जारी रखिए।

    ReplyDelete
  3. एक बात तो कहनी पड़ेगी कि अमेरिका ने जो प्रणाली विकसित की वह अच्छी है. हम लोग उनकी बुराइयों को न ग्रहण करें और अच्छाइयों को अपनायें तो कितना अच्छा हो..

    ReplyDelete
  4. आपकी अमरीका-यात्रा पर शुभकामनायें ! बहुत कम लोग हैं जो दुनिया के प्रभु-देश का भ्रमण कर पाते हैं,आप उनमें से एक खुशनसीब हैं !
    हर देश का,मिटटी का अपना मिजाज और कल्चर है.हमारे यहाँ ही गाँव और शहर की जीवन-शैली में जमीन-आसमान का फर्क है.देश उनका है,वो जैसा चाहें बनाएं मगर आप ध्यान रखना,कहीं आपकी सब्जी उगाने वाली खबर ओबामाजी तक न पहुँच जाए !

    ReplyDelete