Apr 30, 2022

नीयत हो तो काम की क्या कमी है


नीयत हो तो काम की क्या कमी है


भारत में हर मनुष्य एक अर्थशात्री, दार्शनिक, विचारक न जाने क्या क्या है. हो सकता है कि यहाँ के पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़े तक भी इसी तरह अलौकिक हों.  

आज जैसे ही तोताराम आया, हमने कहा- तोताराम, मोदी जी पहले चार घंटे सोते थे और बीस-बीस घंटे काम किया करते थे अब महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल ने बताया है कि मोदी जी आजकल केवल दो घंटे सोते हैं. उनके अनुसार वे अब इससे आगे भी प्रयोग कर रहे हैं जिससे सोने की ज़रूरत ही न पड़े और वे दिन में चौबीस घंटे काम करते रहें.

बोला- तभी तो भागवत जी का १५ साल में अखंड भारत बनाने, अर्थव्यवस्था को ५ ट्रिलियन का बनाने, देश को कांग्रेस मुक्त बनाने और भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का काम पूरा हो सकेगा. 

हमने कहा- लेकिन तोताराम, इस प्रकार के हठयोग के अपने खतरे भी हैं. नींद न लेने से हो सकता है कि आदमी एक ऐसी तन्द्रा जैसी स्थिति में चला जाए कि उसे बहुत सी सामान्य बातों तक पर विचार करने तक का होश न रहे. यह भी हो सकता है कि किसी दिन ऐसी नींद आ जाए कि बहुत ज़रूरी काम के समय भी जागना संभव न हो. 

बोला- लेकिन अकेले मोदी जी पर ही आ पड़ा है सारा भार. क्या-क्या करें. जनता चाहती तो सब कुछ है लेकिन सहयोग बिलकुल नहीं करती. 

हमने पूछा- बता जनता क्या करे ? बेचारी जब कहो तब ताली-थाली बजा देती है, जब कहो दीये जला देती है, हर जुलूस में अधिकाधिक संख्या में जाती है, भगवा झंडे लहराती है, जय श्री राम का जयघोष करती है, हलाल-झटका, बुरका विरोध करती है. और क्या कर, वह भी बता दे. 

बोला- सब कुछ मोदी जी ही बताएँगे क्या ? प्रज्ञा, नरसिन्हानंद यती, साक्षी महाराज, तोगड़िया, ऋतंभरा आदि भी तो उसी महान संस्कृति के उद्गाता हैं. उसी एजेंडे के अभिकर्ता हैं.

हमने पूछा- विकास के लिए उनके नीति-आयोग की क्या सिफारिशें हैं ? 

बोला- सरल-सा एजेंडा है. अधिकाधिक बच्चे पैदा करो. इससे राष्ट्र के मुस्लिम राष्ट्र बन जाने खतरा टलता रहेगा. मुसलमानों को देखो, चार-चार बीवियां रखते हैं और बच्चे पैदा करने के अलावा और क्या करते हैं.

हमने कहा- लेकिन तोताराम हमने तो यह अनुभव किया है कि रोजगार के लिए आन्दोलन-जुलूसबाज़ी करने वालों में मुसलमान सबसे कम और हिन्दू अधिक होते हैं. वयस्क होने से पहले ही उनके बच्चे कुछ न कुछ करने के लिए निकल पड़ते हैं.

बोला- काम करने की नीयत हो तो कामों की क्या कमी है. अब इससे ही समझ. सभी हिन्दू महिलाओं को नौकरियां छुड़वाकर दड़बों में बंद कर दो और साल में कम से कम एक बच्चा पैदा करो. 

हमने कहा- क्या औरतें कोई मुर्गी है जिसका काम केवल अंडे देना है ? 

बोला- यह काम मर्द तो कर नहीं सकते और जनसंख्या के बल पर ही राष्ट्र बनता है, धर्म की रक्षा होती है. 

हमने कहा- लेकिन जब लोगों के खुद के खाने का ही जुगाड़ नहीं है तो इतने बच्चों को कौन खिलाएगा ?

बोला- साध्वी ऋतंभरा ने आज ही कहा तो है चार में से दो विश्व हिन्दू परिषद् और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सौंप देना. 

हमने पूछा- देखो, जब आदमी तन-मन से राष्ट्र सेवा में लग जाता है तो फिर दो-चार और दस-बीस का ठिकाना नहीं रहता. सोच ले.

बोला- सोचना क्या है. बहुत स्कोप है. अभी तो हर मस्जिद और हर मुसलमान, हर नकली हिन्दू और हमसे असहमत हर भारतीय के घर सामने लाउड स्पीकर लगाकर, हर नमाज से १५ मिनट पहले और १५ मिनट बाद तक  फुल वोल्यूम में हनुमान चालीसा का पाठ करना है, उसकी धुन पर हाड़-तोड़ और सर-फोड़ नृत्य भी करना है. सारे देश में कांवड़, गंगाजल,एकता और भी जाने कौन कौन सी शोभा यात्राएं निकालनी हैं.अभी तो सेवकों की बहुत डिमांड है. 

तुम लोग लगो तो सही  'हिन्दू राष्ट्रीय-प्रजनन-महायज्ञ' में.   

प्रज्ञा, नरसिन्हानंद यती, साक्षी महाराज, तोगड़िया, ऋतंभरा कुछ न भी करें तो परवाह नहीं. उनका काम तो मन्त्र पढ़ना है, साँप के बिल में तो हाथ राष्ट्र-प्रेमी हिन्दू जनता को ही डालना है. उठो, जागो और जब तक पांच-सात अरब न हो जाओ तब तक सांस मत लो. 

आत्मनिर्भर भारत का मतलब इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? यदि हिन्दू नहीं जागेंगे तो बजरंग मुनि जैसों को मुस्लिम महिलाओं पर पराक्रम दिखाना पड़ेगा.



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Apr 27, 2022

नुक़ता और नुक़ताचीं


नुक़ता और नुक़ताचीं  


हमने अपने शायर मित्र नदीम भाई को अपना एक आलेख भेजा- 'गुजरात दा ज़वाब नहीं' . उसमें ज़वाब के नीचे इसी तरह नुक़ता लगा हुआ था जिसकी ओर इशारा करते हुए उन्होंने हमारे भाषा-ज्ञान की हवा खिसका दी. 

हमने 'ज़वाब' के 'नुक़ते' की बात करते हुए उन्हें एक और आलेख लिख भेजा- 'अब भगवान उर्दू नहीं समझता'. अगर समझता होता तो अपने भक्तों को बता देता कि सभी धर्मों की प्रार्थनाएं भाषा की भिन्नता के कारण हमें भिन्न लगती हैं अन्यथा प्रार्थना तो प्रार्थना ही होती है.

हुक्म और प्रार्थना की भाषा; सब दिखावटी अनुशासनप्रिय, आज्ञाकारी, अंधभक्तों को पता है. हम सब जानते हैं कि शराब के नशे की आड़ में, सड़क या नाली में गिरा शराबी किसी भले आदमी को गाली देता है तो तथाकथित शांतिप्रिय लोग भले आदमी को ही कहते है- भाई साहब, यह तो पिए हुए है इसके क्या मुंह लगाना. जबकि वह शराबी उसी रास्ते से गुजरने वाले थानेदार को पहचानकर बड़े अदब से सेल्यूट करता है.  हुक्म मानने वाले ये आज्ञाकारी भक्त, राष्ट्र और धर्म प्रेमी गौरवान्वित होकर, सुधरने की चेतावनी के बाद भी, न सुधरने वाले किसानों पर जीप चढ़वा देने वाले किसी मंत्री के घर के सामने डी.जे. या लाउड स्पीकर पर हनुमान चालीसा नहीं बजाते. 

अमरावती शहर के दशहरा मैदान परिसर स्थित संकटमोचन विजय हनुमान मंदिर एवं नृसिंह धाम मंदिर में विगत 32 सालों से अखंड रामायण का पाठ जारी है। क्या ऐसा पुण्य कार्य किसी माननीय, महामहिम, सामान्य या विशिष्ट सेवक जी के घर आसपास किया जाएगा ? 

ये सब किसी कमजोर के लोक-परलोक सुधारते हैं.

वैसे जहां तक वास्तविक भगवान और सच्चे भक्त की बात है तो वहाँ सारे शब्द और कर्मकांड लापता हो जाते हैं. जैसे मीरा और कृष्ण के बीच से हवा तक गायब हो चुकी थी. जब चंदन-पानी की तरह मिल गए तो फिर क्या भाषा, क्या हुक्म, क्या प्रार्थना, कैसा लाउड स्पीकर और कहाँ की विशेष प्रकार की पहचान वाली वेशभूषा !भाषा के खेल तो तेल-पानी के बीच चलते हैं. जो मिलना नहीं चाहते, मिलने का तमाशा करते हैं.

खैर, बात क्या चल रही थी, पहुँच कहाँ गए. हमने नदीम भाई को लिखा था कि इस समय यहाँ लोकतंत्र बहुत 'मज़बूत' हो गया है. इतना कि हम आलेख लिखते समय भी हैलमेट लगा लेते हैं, यह सोचकर कि पता नहीं किस गर्व और गौरव से भरे युवक के हाथ से प्रक्षेपित होकर कोई पत्थर कहाँ पहुँच जाए. 

आज फिर उनका मेल आ गया- मास्टर जी, आज आपने 'मज़बूत' में नुक़ता लगा दिया. 'मजबूत' में नुक़ता नहीं लगता. 

क्या बताएं, क्या हालत हो गई हमारी. इतनी भी क्या 'नुक़ताचीनी'. तभी तो 'ग़ालिब की बात' ज़िन्दगी भर नहीं बनी-

नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाए न बने 

क्या   बने   बात   जहां   बात   बनाए  न   बने 

हद हो गई, रेख्ता वाली साईट से लिए इस शे'र में नुक्ता में नुक्ता नहीं जबकि शब्दकोष में नुक्ता में नुक्ता था. क्या करें ? सिर पर हाथ में आ सकने जितने बाल ही नहीं बचे अन्यथा नोचने का अभिनय तो किया ही जा सकता था. वैसे हमारे लिए यह भूमिका सरकार तरह-तरह से निभा रही है.हमारा एक पुराना दोहा पढ़ें-

प्रभु, क्यों तोड़ा अपने भाषा का कानून

गंजा करके 'लोक' को दिए 'तंत्र' नाखून  

आज जैसे ही तोताराम आया, हमने कहा- सब बेकार है, तोताराम,यहीं  सब कुछ लुटाना है. बही लिख-लिख के क्या होगा ?

बोला- 'लुटाना' नहीं, मूल गीत में 'चुकाना' है. वैसे किसी भी रूप में बही-खाते की बात ही मत कर. यदि ई. डी. पीछे लगा दिया जाएगा तो वह भूख से मरने वाले को भी फँसा सकता है. पूछेगा- हमारी सभी कोशिशों के बावजूद तू इतने दिन जिंदा कैसे रह पाया ? अब तक की इसी आमदनी का हिसाब दे. फिर चाहे वह बेचारा लाख कहता रहे कि तरह-तरह की सेना बनाकर, जगह-जगह जुलूस और शोभायात्राएं निकाल रहे हैं, मोबाइल कान से लगाए, नए-नए कुरते-पायजामे पहने मोटर साइकिलें दौड़ाते फिर रहे, कोई नौकरी या व्यापार न करने वाले इन भक्तों की आमदनी का क्या सोर्स है ? इनसे क्यों नहीं पूछते ?

हमने कहा- जिसे देखो, गलतियाँ निकालने में लगा हुआ है.और अब तू भी. और कुछ नहीं तो गाने में पकड़ लिया. चुकाना और लुटाना दोनों में स्थितियों में कहीं ले तो गए ही नहीं. अब हम कोई नुक्ता नहीं लगायेंगे. बर्नाड शॉ लिखते समय कोमा, फुल स्टॉप आदि नहीं लगाते थे. इससे प्रकाशक को परेशानी होती थी. (वैसे भाषा वास्तव में बोलने-सुनने के लिए होती है.लिखित होना तो उसकी विवशता है.)जब प्रकाशक ने बर्नार्ड शॉ को अपनी परेशानी बताई तो उन्होंने एक कागज पर सभी विरामादि चिह्न लिख कर दे दिए और कहा- जहां जरूरत हो लगा लेना. 

बोला- ये नुक्ते और नुक्ताचीनियाँ सभी भाषाओं और धर्मों में हैं. उर्दू में नुक्ता नहीं लगाएगा, तो हिंदी में अनुस्वार लगाएगा, नहीं तो संस्कृत में विसर्ग लगायेगा. नीचे नहीं तो ऊपर, ऊपर नहीं तो अगल-बगल. नुक्ता, बिंदी जो कह, लगाना तो आवश्यक है. 

हमने कहा- अशिक्षित, अनपढ़ लोग और मानवेतर जीव कैसे काम चलाते होंगे ?

बोला- भाषा और उसके नाटक- आदरणीय, मान्यवर, निवेदन इत्यादि सब झूठ की दुनिया में चलते हैं. प्यार, संवेदना, सहानुभूति हो तो अपने आप संवाद हो जाता है. आपका पालतू आपसे किस भाषा में बात करता है ? पशु-पक्षी जगत में बहुत बार कुतिया द्वारा बिल्ली के बच्चों को दूध पिलाने जैसी घटनाएँ क्या किसी 'सबका साथ : सबका विकास' के नारों के तहत होती हैं ? क्या जानवर भोजन के लिए लड़ते समय किसी 'अजान' या 'हनुमान चालीसा'  का बहाना बनाते हैं ? क्या कभी किसी कोयल की कूक से या किसी कौव्वे की काँव काँव से 'जंगल राष्ट्र' की एकता या शांति खतरे में पड़ जाती है ? क्या बसंत में फूल खिलने या खुश्बू फैलने से दंगे की संभावना या कानून व्यवस्था को खतरा भांपते हुए पुलिस जाब्ता लगाया जाता है ? 

ये सब स्वाभाविक जीवन नहीं है.  मुफ्तखोरों द्वारा जनता को बेवकूफ बनाकर, बिना कुछ किये-धरे सब सुख भोगने की कुटिल व्यवस्था है.  

हमने कहा- तो क्या करें ?

बोला- करना क्या है ? मौज कर, मस्त रह. जो जस करहिं सो तस फल चाखा.

हमने कहा- लेकिन अभी जो जितना बदमाश है वह उतने की मज़े कर रहा है. 

बोला- अंत भला सो भला. समय सबका हिसाब करता है. क्या किसी को कंस, हिरण्यकश्यप, हिटलर आदि का सहज भाव से समर्थन करने का साहस करते देखा है ? यह ठीक है बेशर्म लोग ग्वालियर में गोडसे के नाम से 'भारत रत्न' स्थापित करके किसी को यह सम्मान दे दें लेकिन क्या वे दुनिया के किसी मंच पर खड़े होकर यह कह सकते हैं कि हाँ, हमने गाँधी की हत्या की. यह एक उचित काम था. हमें उसकी हत्या करने पर गर्व है. भविष्य में भी हम गाँधी जैसे लोगों की हत्या करेंगे.

भाषा को छोड़, भाव की बात कर. सबके बीच संवेदना, सहानुभूति और समझ का भाव जगा अपने मन में. 

कवि कहता है-

चतुराई रीझे नहीं, रीझे मन के भाव.



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Apr 23, 2022

मोदी जी का 'बोल बम' भाव


मोदी जी का 'बोल बम' भाव 


हम और तोताराम बरामदे में बैठे हैं. तोताराम ने चाय का गिलास उठाते हुए पूछा- क्या सोच रहा है ? उठा गिलास और बोल,  थ्री चियर्स फॉर मोदी जी.

हमने कहा- किस बात की थ्री चीयर्स ?

बोला- उनके बढ़ते भाव के लिए.

हमने कहा- क्या मोदी जी कोई वस्तु हैं, किसी कंपनी के शेयर हैं, तेल-डीज़ल-गैस हैं के भाव हैं ?

बोला- मेरा मतलब मोदी जी के 'प्रभाव' से था. और फिर यदि तू इस तरह वस्तुरूप में समझता है तो भी जिस तरह देश में तेल-डीजल के भाव कभी कम नहीं होते वैसे ही मोदी जी के 'भाव' कभी डाउन नहीं होते. 

हमने पूछा- जब भाव तय करने वाले खुद ही हैं तो डाउन होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. वैसे कैसा प्रभाव ? कब, कैसे, किस क्षेत्र में बढ़ा ? और तुझे पता कैसे चला ? बाज़ार भाव में तो गेहूँ, गुड़, सरसों तेल आदि की तरह छपते नहीं नेताओं के भाव. फिर पता कैसे चला ?

बोला- फिलहाल तो 'ऑपरेशन गंगा' के कारण प्रभाव बढ़ा है. उन्होंने खुद ही पुणे में सिम्बायोसिस विश्वविद्यालय के स्वर्णजयंती समारोह में बोलते हुए बताया है कि  'ऐसे समय में जब यूक्रेन से अन्य देशों को अपने नागरिकों को निकालना मुश्किल हो रहा है, हम अपने लोगों को बाहर निकालने में कामयाब रहे। यह दुनिया में भारत के बढ़ते प्रभाव को साबित करता है।'

हमने कहा- हमें तो पता चला है कि शक्तिशाली और समझदार देशों ने तो समय रहते अपने नागरिकों को बहुत पहले ही निकाल लिया था. हमारे दूतावासों ने तो निर्देश ही बहुत देर से दिए और जहां छात्र फंसे थे वहाँ तो कोई गया भी नहीं. छात्र अपनी समझ और जोखिम के बल पर यूक्रेन से निकले हैं. सुना है जब यूक्रेन में छात्र बंकरों में भूखे-प्यासे मौत के साए में थे तब मोदी जी बाबा विश्वनाथ के वहाँ किंग साइज़ डमरू बजा रहे थे. 

बोला- तो बहत्तर साल की उम्र में इतना बड़ा डमरू क्या अपने लिए बजा रहे थे ? वह भी तो उन छात्रों की सुरक्षा  के लिए ही तो बजा रहे थे. 

हमने कहा- इससे छात्रों  सुरक्षा कैसे हो रही थी ?

बोला- जब ताली-थाली से कोरोना को भगाया जा सकता है तो यह तो शिव का डमरू है. तुझे पता होना चाहिए बम का आविष्कार अमरीका ने नहीं बल्कि हमारे बोले बाबा ने सृष्टि के प्रारंभ में ही कर दिया था. इसलिए छात्रों को किसी भी 'बम' हमले से बमभोले के अलावा और कौन बचा सकता है ? 'बोल बम'.  



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गुजरात दा ज़वाब नहीं


गुजरात दा ज़वाब नहीं 


 कोरोना काल में मोदी जी का एक मन्त्र या मुहावरा, जो भी कहें, खूब चला- आपदा में अवसर. हमारा मानना है कि आपदा तो सब पर कभी न कभी आती ही है लेकिन उसे अवसर में वे ही बदल पाते हैं जिनमें अक्ल होती है. इस मामले में हम राजस्थान के व्यापारी वर्ग को बहुत मानते रहे हैं.

हम अपने गाँव के जिस इंटर कॉलेज में पढ़ते थे उसमें दसवीं-बारहवीं में शायद ही कोई बच्चा फेल होता था क्योंकि जिसको लेकर ज़रा सी भी शंका होती थी प्रिंसिपल साहब उसे नौवीं में ही रोक देते थे. अब बच्चा क्या करे ? इनमें जो बच्चे वैश्य वर्ग से होते थे उन्हें उनके पिता कलकत्ता भेज देते थे. कलकत्ता पुराना और सस्ता शहर है. शेखावाटी के बहुत से सेठ लोग हैं.कोई कहीं भी जी कड़ा करके टिक सकता था. और कुछ न कुछ कर-कराके हीले से लग ही जाता था. 

जब कभी वह युवक गाँव आता और लोग पूछते तो कोई अपने को कपड़े का व्यापारी बताता तो कोई टिम्बर का. बाद में जब हमें कलकत्ता जाने का अवसर मिला तो हमने देखा कि गाँव के कई युवा बड़ा बाज़ार में उलटे छाते में रखकर रूमाल और मोज़े बेच रहे हैं, कंधे पर रखकर साड़ियाँ इधर-उधर पहुंचा रहे हैं. दातुन बेच रहे हैं. ये सब गाँव जाकर अपने को क्लोथ या टिम्बर मर्चेंट बताएँगे. ऐसे ही युवकों के कारण हमें अपने पिताजी के व्यंग्य-बाण झेलने पड़ते. वे इन युवकों की बातें सुनकर समझते ये नौवीं फेल होकर भी कलकत्ता में कपडे का व्यापार कर रहे हैं और हम अच्छे नंबरों से ग्रेज्युएट होकर भी मास्टरी में ही घुटने रगड़ रहे हैं.

लेकिन जब ५० साल पहले गुजरात में रहना हुआ तो हमारा अभिमान कम हुआ. अक्ल के मामले में गुजराती भाई राजस्थानियों से भी बहुत आगे हैं. हर व्यक्ति कम से कम दो काम करता है. एक नौकरी जैसा मुख्य काम और उसी के दौरान कोई न कोई साइड बिजनेस. किसी से भी पंद्रह बीस मिनट बात करते ही वह आपको कोई स्कीम, प्रोडक्ट टिका देगा. हमने वहाँ महिला अध्यापिकाओं को भी स्कूल में साबुन, वाशिंग पाउडर, ब्लाउज पीस आदि बेचते देखा है. 

जैसे ही तोताराम आया, हमने कहा- तोताराम, गुजरात दा ज़वाब नहीं.

बोला- वैसे तो हिंदुत्व और हिंदी की बात करता है लेकिन नारे, मुहावरे और जुमले सब अंग्रेजी में रीमिक्स करके बनाता है. यह दाढ़ी बनाने की क्रीम पामोलिव के विज्ञापन में कपिल देव द्वारा बोला गया वाक्य है. मोदी जी और अमित जी दोनों को ही ढंग से दाढ़ी बनाने तक का समय नहीं मिलता तो क्रीम-फ्रीम लगाने का सवाल कहाँ उठता है. उनके लिए तो बोल- गुजरात नो कोई विकल्प नथी. अद्भुत छे गुजरात. 

हमने कहा- अद्भुत तो है. गाँधी जी अफ्रीका गए तो थे किसी वकील के साथ काम करने के लिए लेकिन जब नेतागीरी का स्कोप देखा तो फ़टाफ़ट ट्रेक चेंज कर लिया. और यहाँ आकर बन गए राष्ट्रपिता. 

बोला- लेकिन अब गुजरात में ऐसा क्या है जिसका ज़वाब नहीं. 

हमने कहा- अब जो भी नेता बाहर से आता है उसे दिल्ली की बजाय गुजरात ले जाते हैं. आठ साल में ट्रंप (अमरीका), सिंजो आबे (जापान ), नेतनयाहू (इज़राइल), त्रूदो (कनाडा),शी जिन पिंग (चीन ), एंटोनियो कोस्टा (पुर्तगाल), फ्रेंक वाल्टर (जर्मनी), बोरिस जोन्सन (इंग्लैण्ड)आदि जो भी आया उसे साबरमती आश्रम ज़रूर ले गए. किसी को अहमदाबाद में पतंग उडवाते हैं. 

बोला- यह तो अच्छी बात है. इससे गांधीवाद का प्रचार होता है. 

हमने कहा- हाँ, साबरमती आश्रम में चरखा चलाने के बाद से ही ट्रंप, नेतनयाहू सही जिन पिंग आदि का ह्रदय परिवर्तन हो गया. सब सत्य, अहिंसा के पुजारी बन गए. 

बोला- फिर भी कभी न कभी, कुछ न कुछ फर्क तो पड़ेगा.

हमने कहा- आगे आगे देखना जब चरखे की चर्चा दुनिया में हो जायेगी तो लोग पैसे देकर साबरमती में चरखा चलाने आया करेंगे. जब तक नंबर आएगा तब तक अत्याधुनिक पर्यटन स्थल की सुविधाओं से युक्त साबरमती आश्रम के पास ही फाइव स्टार होटलों में लोग रुकेंगे. अचानक चरखों की बिक्री बढ़ जायेगी और चरखा निर्माण  उद्योग से देश के करोड़ों बढइयों को काम मिलेगा. जब और डिमांड बढ़ेगी तो मोबाइल चरखा यूनिटें दुनिया में यात्राएं करती फिरेंगी और लोगों को उनके घरों में ही चरखे पर हाथ आजमाने और गाँधी जी की तरह चरखा चलाते हुए फोटो खिंचवाने की सुविधा उपलब्ध करवाई जायेगी. 

बोला-  लेकिन गाँधी जी का चरखा तो एक ही है. इतने लोगों को एक साथ कैसे एडजस्ट किया जा सकता है ?  कैसे संभव हो सकता है ? 

हमने कहा- जिसमें अक्ल होती वह किसी भी तरह काम कर ले जाता है. एक म्यूजियम के एक गाइड ने एक पर्यटक को बताया कि यह अमुक राजा की खोपड़ी है. कुछ देर आगे-आगे चलते-चलते वह भूल गया और पर्यटक से बोला- यह अमुक राजा की खोपड़ी है. 

पर्यटक ने कहा- तुम गेट के पास रखी खोपड़ी को भी इसी राजा की बता चुके हो. एक ही आदमी की दो खोपड़ियां कैसे हो सकती हैं ? 

गाइड दा ज़वाब नहीं. आपदा में अवसर बनाने में माहिर था. बोला- वह उसके बचपन की थी और यह जवानी की है. 

अब तो तोताराम की बहुत हाइपर हो गया, बोला- यह रिस्की काम है. और फिर क्या गाँधी का चरखा मदारी के बन्दर की तरह दुनिया में घुमाने से गाँधी जी का अपमान नहीं होगा ? 

हमने कहा- गाँधी जी क्या भगवान से बड़े हैं ?  कुछ वर्षों पहले तिरुपति के बालाजी का रिप्लिका अमरीका में घुमा घुमाकर भक्तों का परलोक सुधारते पुजारीगण हमने देखे हैं. कुछ वर्षों पहले बालाजी दिल्ली से तिरुपति लौटते हुए अपने जयपुर से होकर नहीं गुजरे थे ? अब पहले वाला ज़माना नहीं रहा. भगवान् तक की मार्केटिंग में बहुत कड़ी प्रतियोगिता हो गई है.    

बोला- मास्टर, आजकल वे तीर्थयात्री रहे ही कहाँ हैं जो पैदल जाते थे और भगवान की कृपा हुई तो साल छह महिने में घर लौटते थे.  आजकल के तीर्थयात्री तो पर्यटकों की तरह तीर्थों में भी मौज-मज़ा करने के लिए जाते हैं. तीर्थ स्थलों के होटलों और धर्मशालाओं में सफाई के दौरान कंडोम और शराब की बोतलें पाई जाती हैं. हो सकता है कल को कमाई के चक्कर में लोग हनीमून मनाने के लिए तीर्थों में जाने लग जाएँ हो सकता है कि कल को तीर्थस्थल बड़े-बड़े सेलेब्रिटीज के मैरीज डेस्टीनेशन भी बन जाएँ. 

गांधी से प्रेम हो तो आदमी गाँधी बनना चाहता है. लेकिन ऐसे पर्यटक जब गाँधी जी के आश्रम में आयेंगे तो उन्हें मौज मस्ती के साधन भी दरकार होंगे. लेकिन गुजरात में तो मज़े की मिनिमम वस्तु दारू भी नहीं मिलती तो मुझे नहीं लगता कि सैंकड़ों करोड़ रुपये खर्च करके साबरमती आश्रम को एक फाइव स्टार आश्रम का रूप देने से कोई आर्थिक लाभ होगा.  

हमने कहा- हमें आज से ५० वर्ष पहले का अनुभव है तब भी हमने देसी और विदेशी सब प्रकार की दारू की बहुत व्यवस्थित व्यवस्था देखी है. और अब तो गुजरात में शराब की एक कानून सम्मत और अद्भुत व्यवस्था कर दी गई है. 

बोला- जब दारूबंदी है तो दारू-सेवा कैसे कानून सम्मत हो सकती है. 

हमने कहा- जब राजा हरिश्चंद्र ने सारी पृथ्वी विश्वामित्र को दान दे दी तो समस्या आई कि हरिश्चंद्र जाएँ कहाँ ? उसका रास्ता निकाला 'काशी' के विशेष स्टेटस ने. काशी के बारे में कहा जाता है कि वह इस पृथ्वी से अलग है. वह शिव के त्रिशूल पर स्थित है. आज भी मोदी जी के त्रिशूल पर स्थित होने के कारण काशी, बनारस या वाराणसी जो भी कहें उसका एक ख़ास स्टेटस है. 

इसी सिद्धांत के आधार पर मोदीजी ने गुजरात के गांधीनगर रेलवे स्टेशन को एक विशेष स्टेटस प्रदान किया है. वहाँ रेल की पटरियों पर ओवर ब्रिज की तरह एक होटल बना है.यह होटल गांधीनगर की सबसे ऊंची बिल्डिंग है. इस बिल्डिंग से आप 'महात्मा मंदिर', दांडी कुटीर' और विधानसभा को देख पाएंगे. इतना ही नहीं यहां से वहाँ बने .. नमक के टीले जैसे शिल्प वाला म्यूजियम भी देखा जा सकता है.  

इस होटल में पर्यटकों को शराब सेवन की सुविधा होगी. पैसे के लिए फिसलने में कोई बुराई नहीं. आखिर इस बहाने गांधीवाद को ही तो प्रचार-प्रसार मिलेगा. 

और फिर पर्यटक के लिए उस गाँधी के आश्रम को देखते हुए शराब पीना कितना रोमांचक अनुभव होगा, जिसने कहा था कि यदि मुझे एक दिन के लिए ही तानाशाह बनने का मौका मिल जाए तो मैं पूरे देश में शराब बंद करवा दूंगा.

ले डोकरे. देख आँखों सुख. तेरे ही प्रान्त में, तेरे ही नाम से बने स्टेशन पर, तेरे ही आश्रम के पास.  

बोला- अपने राजस्थान में क्या ऐसा कोई 'राजस्थान दा ज़वाब नहीं' जैसा कुछ किया जा सकता है ?

हमने कहा- यहाँ है क्या ? या तो मीरा की तरह विषपान कर लो या फिर पद्मावती की तरह जौहर. 




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Apr 21, 2022

भाई साहब, शक ठीक नहीं

भाई साहब, शक ठीक नहीं 


आज तोताराम ने आते ही कहा- भाई साहब, शक ठीक नहीं.

हमने कहा- इसमें क्या शक है. शक बिलकुल ठीक नहीं. शक अर्थात शंका, संशय. भगवान कृष्ण ने भी गीता में कहा है- संशयात्मा विनष्यति. इसीलिए वे सबसे पहले अर्जुन के दिमाग से शक निकालते हैं. उसके दिमाग में फिट कर देते हैं कि बस, लड़ना है. हर हालत में मरने-मारने तक लड़ते रहना है. दुविधा में कुछ नहीं होता. दुविधा की समाप्ति ज्ञान से कम, अज्ञान से अधिक होती है. इसीलिए अज्ञानी कभी शक नहीं करते हैं. अपने विचारों को पत्थर की लकीर की तरह पक्का रखते हैं. तभी ऐसे लोगों को तुलसीदास ने 'सबसे भले' अर्थात सबसे सुखी कहा है-

सबतें भले विमूढ़ जिन्हें न व्यापे जगत मति.

तू तो सब शक-शंकाएं छोड़, विमूढ़ बन जा. ज्ञान में तो कबीर जैसी हालत हो जायेगी. जागेगा और रोयेगा. अगर शंका छोड़ देगा तो सुख पायेगा वैसे ही जैसे ध्वनि-प्रदूषण के प्रति अतिरिक्त जागरूकता दिखाने वाला राष्ट्रवादी युवक अजान के तीन मिनट के ध्वनि प्रदूषण के विरुद्ध उससे चार गुना वोल्यूम पर बीस गुना अधिक समय तक  हनुमान चालीसा का केसेट बजाएगा क्योंकि मूढ़ता में सोचने विचारने की शक्ति तो रहती नहीं. विमूढ़ता की एक मरणान्तक प्रतिस्पर्धा चल निकलती है.इसका भी अपना एक आनंद है, नशा है. और नशे में सब कुछ सुहावना लगता है. जैसे शराब पीकर नाली में गिर जाना, किसी भी अपने से कमजोर को गाली देना या मस्ती में आकर 'हर्ष फायरिंग' कर देना नशे की चरम और अनुकरणीय उपलब्धियां मानी जाती हैं. उन्हें धर्म, देश और जातीय गौरव के इतिहास में गर्व से सुना-सुनाया जाता है. 

तोताराम हमारे चरणों पर गिर पड़ा, बोला- हे प्रभु, हे वाक्वीर, हे रोंग नंबर पर भी आधे घंटे तक बात कर सकने वाले, ज्ञान-गैस से पीड़ित, आदरणीय ! मैं शंका वाले शक की बात नहीं कर रहा था. मैं तो उज्जैन में २२-२३ अप्रैल २०२२ को आयोजित गुलामी के प्रतीक शक संवत के स्थान पर विक्रम संवत को लागू करने के लिए ज्योतिषियों, पुरोहितों के सम्मेलन के सन्दर्भ में बात कर रहा था. 

हमने कहा- शक संवत ईस्वी सन से ७८ वर्ष पुराना है जबकि विक्रम संवत ईस्वी सन से ५७ वर्ष पुराना है. आज भी पंडित संकल्प में 'शाके' का प्रयोग करते हैं. बहुत से ज्योतिषियों और इतिहासकारों ने शक संवत के अनुसार गणना की है. शेष कामों में क्रिश्चियन एरा चलता है. सबका एक ही सूरज है, एक ही चन्द्रमा, एक ही पृथ्वी और एक ही आकाश गंगा है.  सब कालों, समाजों में लोग किसी न किसी प्रकार इनके आधार पर कालगणना करते ही रहे हैं.  वैसे भी इन सबके बिना भी जब-जहां जो ऋतुएँ होनी हैं होती हैं. बिना कालगणना किये भी पूर्णिमा-अमावस्या होती हैं. मौलवी ईद की घोषणा पत्रा देखकर करता है या चाँद को देखकर ? समुद्र में ज्वार क्या किसी पंडित से तिथि पूछकर आता है ? सुबह पक्षी चहचहाने लगते हैं, बिना पंचांग देखे ही पेड़ों में नए पत्ते-फल-फूल आ जाते हैं. मकर संक्रांति योरप, अमरीका और भारत सब जगह  १४ जनवरी को ही आती है. परेशानी क्या है ?

बोला- मास्टर, तुझे पता नहीं है, इस महान देश के विरुद्ध वैश्विक षड्यंत्र चल रहा है.  तूने लव जिहाद, यूपीएससी जिहाद, मार्क्स जिहाद, नौकरी जिहाद आदि ज़िहदों के नाम तो सुने होंगे. अब इन लोगों ने एक और जिहाद शुरू कर दिया है- उत्सव जिहाद.

हमने कहा- यह कौन सा जिहाद आ गया. 

बोला- पिछले कई वर्षों से चल रहा है. कभी दीवाली के दिन ईद आ जाती है तो कभी संवत्सर मतलब विक्रम संवत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को रमजान आ जाता है. कभी दुर्गा पूजा में रोजे घुस आते हैं. हमारे पवित्र और शुद्ध शाकाहारी पर्व और वे मांस खाने-बेचने लग जाते हैं. 

हमने कहा- किसी ख़ास उत्सव और दिन की पवित्रता आदि तो हम नहीं जानते लेकिन इतना तो पता है कि राम-कृष्ण आदि सभी मांस तो खाते थे, दुर्गा के भक्त भी उन्हें मांस का भोग लगते ही हैं. वैसे भी भारत मांस का सबसे बड़ा निर्यातक है और यहाँ आंकड़ों के अनुसार अधिसंख्य लोग मांस खाते हैं. रामचरित मानस के बालकाण्ड में राजा प्रताप भानु का किस्सा आता है जिसमें वे लाखों ब्राह्मणों को भोजन के लिए न्यौतते हैं जिसमें तुलसी कहते हैं- 

'विविध मृगन का आमिष राँधा',मतलब ब्राह्मण मांस खाते थे. 

बोला- छोड़ यह सब. संवत की बात कर. हमारे संविधान में तारीख़ विक्रम संवत से अनुसार लगाई गई है 26 नवम्बर 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) लेकिन बाद में शक संवत को राष्ट्रीय संवत घोषित कर दिया. यह सब नेहरू का षड्यंत्र था. 

हमने कहा- लेकिन 26 नवंबर २०२१ को संविधान दिवस  मनाया गया.। मुख्य आयोजन संसद भवन के सेंट्रल हॉल में हुआ। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कार्यक्रमों का नेतृत्व किया। आयोजन में उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू , प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, केंद्रीय मंत्री, सांसद और अन्य गणमान्य शामिल हुए। राष्ट्रपति ने जनता से अपने अपने घर से कोविड 19 प्रोटोकॉल का पालन करते हुए उनके साथ-साथ संविधान की प्रस्तावना पढ़ने का अनुरोध किया था। 

अब तो नेहरू जी नहीं है. कंगना रानावत के अनुसार मोदी जी के प्रधानमंत्री बनते ही देश वास्तव में स्वतंत्र हो गया.  फिर यह कार्यक्रम गुलामी के प्रतीक  क्रिश्चियन सन २०२१ के २६ नवम्बर को क्यों मनाया गया ? २६ नवम्बर २०२१ को तो संविधान वाली विक्रमी संवत तिथि मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की सप्तमी नहीं थी.   

और मोदी जी का जन्म दिन कब मनायेगा ? विक्रम संवत के हिसाब से तो उनकी जन्म तिथि भक्त कंगना रानावत को भी मालूम नहीं होगी. अच्छा बता, १५ अगस्त १९४७ को विक्रम संवत के किस माह के, किस पक्ष की, कौन सी तिथि थी ?

बोला- ये सब तो बदलती रहती हैं. तेरा जन्म विक्रम संवत १९९९ के श्रवण शुक्ल सप्तमी को तदनुसार १८ अगस्त १९४२ को हुआ था लेकिन इनका एक्जेक्ट मेल कभी दोबारा हुआ या नहीं, पता नहीं.

हमने कहा- तो हमारी विक्रम संवत की गणना की एक कमी तो तुझे पता चली. १५ अगस्त १९४७ को विक्रम संवत के अनुसार श्रावण कृष्ण त्रयोदशी थी. विक्रम संवत में कभी कभी पंडित अपनी गणना के हिसाब से एक तिथि तोड़ भी देते हैं. मान ले उन्होंने श्रवण कृष्ण त्रयोदशी तोड़ दी तो क्या स्वतंत्रता दिवस नहीं मनाओगे ?

किसी भी काल गणना के हिसाब से पंडित लोग राम-कृष्ण का जन्म दिन तो बता देते हैं लेकिन सन या शक या संवत नहीं बताते. कोई बात नहीं. इससे क्या राम की मर्यादा कम हो जाती है. राम की मर्यादा कम होती है उसके नाम पर दंगे और कूटनीति करने से. राम ने तो कैकेयी को भड़काकर वनवास दिलवाने वाली मंथरा पर भी यूएपीए नहीं लगवाया. सीता पर आरोप लगाने वाले धोबी के घर पर भी बुलडोज़र नहीं चलवाया.

क्या जिस साल में विक्रम संवत में अधिक मास होगा उस साल तेरह महीने की तनख्वाह मिलेगी ? 

हाँ, विक्रम संवत लागू होने से  पंडितों की कुछ न कुछ पूछ अवश्य हो सकती है. पहले लोग रोज पंडित जी को तिथि पूछने आते थे, अब कोई नहीं पूछता.

के. एम. मुंशी ने संविधान की प्रस्तावना को राजनीतिक कुंडली का नाम दिया था. तुम्हारे इस विक्रम संवत की गणना से तो उसकी कुंडली की हालत तीन कृषि कानूनों जैसी हो जायेगी ? क्या हैं, अच्छे बुरे कैसे हैं, किस रूप में गुप्त या प्रकट लागू होंगे कुछ पता नहीं. कौन आन्दोलनजीवी खालिस्तानी है, धनपतियों का दलाल है; सब कुछ अस्पष्ट. कश्मीर फाइल्स की तरह एकांगी, अर्द्धसत्य. 

 बोला- तो बता तेरे अनुसार भारत में कौनसा संवत होना चाहिए जो त्रुटिहीन हो और जिससे सहस्राब्दियों से  हीनभावना ग्रस्त इस देश का स्वाभिमान, गर्व, गौरव पुनः स्थापित हो सके ? जिसमें किसी भी हिन्दू त्यौहार के एक महिने आगे पीछे कोई भी गैर हिन्दू त्यौहार न आ सके. 

हमने कहा- इसके लिए नया संवत्सर शुरू किया जाना चाहिए. जिसके लिए चार बेहतर दिन हैं.

पहला- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्थापना दिवस, दूसरा- भाजपा का स्थापना दिवस, तीसरा- मोदी जी का जन्मदिन, चौथा- मोदी जी का प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण का दिन. 

सारे शक, सारी कुंठाएं सब एक ही झटके में समाप्त. आल न्यू अखंड आर्यावर्त जगद्गुरु. 

वैसे सबसे बढ़िया और फूलप्रूफ उपाय तो यह है कि सभी धर्म वाले अपने अलग-अलग सूरज, चाँद, पृथ्वी, गृह-नक्षत्र, आकाश गंगा बना लें. जब जो तिथि, ग्रहण, अभिजित मुहूर्त आदि सुविधा से तय करें. जब चाहें सूरज उगायें, जब चाहें छुपायें. 




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Apr 20, 2022

हनुमान जी की हैप्पी वेडिंग एनिवर्सरी

हनुमान जी की हैप्पी वेडिंग एनिवर्सरी 


आज हनुमान जयंती है. हनुमान सामान्य साधनहीन लोगों के प्रिय देवता हैं. जहां तक विष्णु की बात है तो वे लक्ष्मी के पति हैं. लक्ष्मी के बारे में यहाँ कहा जाता है कि

'पर्यो अपावन ठौर पे कंचन ताजे न कोय' 

लेकिन हनुमान जी के पास क्या है जो पैसे वाले उनकी पूजा करें. हाथ में गदा, न कोई पैर दबाने वाली, न कोई खाना बनाकर खिलाने वाला, न कोई सुविधाजनक आवास व्यवस्था. किसी को कुछ देने के लिए 'हनुमान केयर' जैसा कोई बिना हिसाब वाला 'फंड' भी नहीं. ऊपर से किसी को भूत पिशाच का डर लगा नहीं कि हुई हनुमान जी की पुकार. न जाएँ तो मुश्किल. कोई नेता तो हैं नहीं कि सबके खाते में १५-१५ लाख का वचन देकर गद्दी हथिया लें. कोई फरियाद करे तो अदालत उनके पक्ष  कह दे कि इस झूठ का कोई दंड विधान नहीं है. तो फिर किसी महिला को शादी का झांसा देकर शोषण करने वाले ने ही क्या गलत किया ? 

सो जाना पड़ता है हर भूतपिशाच पीड़ित की पुकार पर. और जहां तक भूतों पिशाचों की बात है तो आजकल तो देश के हर कोने में, गली-गली में पिशाच ही भरे पड़े हैं.

हाँ, साधारण लोग हनुमान जी सेबहुत प्रेम करते हैं. कारण एक नहीं अनेक हैं. हनुमान जी के लिए हर रोज दिन में दो बार भोजन की व्यवस्था की ज़रूरत नहीं. जब, जो आगे रख दिया उसी में बाबा प्रसन्न. पूजा भी करो या नहीं, कोई बंधन नहीं. न कृष्ण या विष्णु की तरह सुबह-सुबह स्नान, चन्दन, पुष्प आदि का नाटक. न ऋतु  के अनुसार वस्त्र और भोजन. कभी मन हुआ तो तेल में मिलाकर सिंदूर लेप दिया. नहीं तो उसके बिना भी काम चलेगा. राम की तरह दस-बीस हजार करोड़ का मंदिर भी दरकार नहीं. सौ-पचास ईंटों में बन जाता है बाबा का मंदिर. 

हम हनुमान-चिंतन में व्यस्त थे कि तोताराम ने व्यवधान डाला, बोला- चल, आज तो मंदिर चले चलें. बाबा का जन्म दिन है. 

हमने कहा- याद नहीं, राम नवमी का जुलूस. अपना सीकर कोई महानगर नहीं है, दुनिया के नक़्शे में कोई गिनती नहीं है, फिर भी ११०० जवान कानून व्यवस्था संभालने में लगे मानों किसी बड़े आक्रमण के खतरे से निबटना था . १०० डी जे,  ५० झांकियां, हेलिकोप्टर से पुष्प वर्षा. 

यहाँ तो खैर, जनता इतनी मूर्ख नहीं है लेकिन इस दिन देश में क्या क्या हुआ ? पता है ?आज धर्म, भक्ति और संस्कृति की आड़ में हनुमान भक्तों का अखाड़ा जमेगा. पता नहीं क्या हो जाए. सुरक्षा की दृष्टि से हम तो घर पर रहना ही ठीक समझते हैं. और फिर १०० डी जे की आवाज़ में क्या तो हनुमान से कहेंगे और क्या हनुमान जी की सुन पायेंगे. वैसे भी बाहर के शोर में भक्ति कैसे हो सकती है. डी जे के शोर में तो देखा-देखी हल्ला गुल्ला, नारे और मार पीट ही हो सकती है. हो सकता है कोई ज्यादा भक्ति के जोश में आ जाए तो 'फायर' भी कर सकता है. तुझे पता है- आजकल एक सांस्कृतिक कार्यक्रम चला है, नशे में, अहंकार में, महाबलित्त्व दिखाने के लिए फायर कर देना,  'हर्ष फायरिंग'. 

हाँ, यदि तुझे हनुमान जी की वेडिंग एनिवर्सरी मालूम हो तो बता देना, एक मेसेज कर देंगे, ट्वीट कर देंगे, ज्यादा कहेगा तो मंदिर में चलकर एक गुलाब दे आयेंगे. 

बोला- यह क्या अनर्थ भाखता है. हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी हैं. सच्चा भक्त होने के लिए ब्रह्मचारी होना बहुत ज़रूरी. हमारे भारतीय चिंतन का तो यही मानना है कि महान होने के लिए ब्रह्मचर्य बहुत महत्त्वपूर्ण क्वालिफिकेशन है. ब्रह्मचर्य पवित्रता का स्पष्ट मापदंड है. ईसाई चर्चों में सभी धार्मिक स्त्री-पुरुषों से कानूनी ब्रह्मचर्य की अपेक्षा की जाती हैं.नौकरी के चक्कर में शादी नहीं करते लेकिन वास्तव उनमें से अधिकतर कैसे होते हैं और क्या करते हैं, यह सब दुनिया जानती है. अपने अन्तकाल में बुद्ध भी बौद्ध विहार जहां भिक्षु-भिक्षुणियाँ साथ रहते थे, भंग करने की सलाह दी थी. उन्हें अनसुना कर दिया गया वह बात और है. 

हमने कहा- रामायण में जब हनुमान जी पाताल लोक में राम-लक्षमण को छुड़ाने के लिए जाते हैं तो वहाँ का सिक्योरिटी ऑफिसर मकरध्वज उन्हें जाने नहीं देता और अपना परिचय हनुमान-पुत्र के रूप में देता है. बाद में स्पष्ट होता है कि जब हनुमान जी लंका जलाकर पसीने से लथपथ होकर समुद्र में अपनी पूंछ बुझाने गए तो उनके पसीने को एक मछली पी गई और गर्भवती हो गई. इस प्रकार मकरध्वज हनुमान जी का पुत्र हुआ. 

बोला- ये सब तो पौराणिक गप्प हैं. और कोई ठोस बात हो तो बता. 

हमने कहा- हनुमान साउथ के थे. अब भी उनका हैडक्वार्टर कर्नाटक में माना जाता है. तेलंगाना के खम्मम जिले में हनुमान और उनकी पत्नी सुवर्चला का मंदिर है. 

बोला- शिव परिवार की तरह क्या उस मंदिर में हनुमान जी के बाल बच्चे भी स्थापित हैं ?

हमने कहा- नहीं. सुवर्चला सूर्य की पुत्री थी. हनुमान जी सूर्य के शोध छात्र थे. शोध छात्रों की मजबूरी तुम जानते ही हो. हनुमान जी ब्रह्मचारी रहना चाहते थे लेकिन कुछ विद्याएँ अविवाहितों को नहीं दी जा सकती थीं इसलिए विवाह ज़रूरी था. इसका रास्ता निकाला खुद सूर्य ने. उनकी पुत्री सुवर्चला सदा तपस्या में लीन रहती थी. विवाह के लिए उसे जगाया गया, हनुमान जी का विवाह हुआ और वह तत्काल फिर तपस्या में लीन हो गई. इस प्रकार विवाह भी हो गया, ज्ञान भी प्राप्त हो गया, ब्रह्मचर्य भी बना रहा. 

बोला- ढके भरम रह गए. वास्तव में शादी हो गई होती, बाल-बच्चे हो गए होते तो हो गई होती राम की सेवा. भक्त भूत पिशाच से बचाने की गुहार लगाते रह जाते और हनुमान जी कहीं बच्चों को कोरोना का टीका लगवाने के लिए लाइन में लगे हुए होते. 

हमने कहा- सुना है, हनुमान जी के इस सपत्नीक मंदिर की बड़ी मान्यता है. जो भी वहाँ जाता है उसके घर में शांति बनी रहती है. 

बोला- जब शादी करते ही पत्नी समाधि में चली जाए तो अशांति होने का प्रश्न ही कहाँ उठता है.अगर आज बुद्ध आदि पत्नियों को त्यागकर सेवा करने वालों की पत्नियां किसी दिन उनकी किसी रैली, रोड़ शो या प्रवचन में पहुँच जाएँ तो बोलती बंद हो जाए.  तन-मन की सारी बात भूल जाएँ.

लेकिन अब तो राम कार्ड की तरह हनुमना कार्ड चल चुका है. देश के चारों कोनों में रक्षा की व्यवस्था करने के लिए चार धामों की तरह हनुमान जी की चार विशाल प्रतिमाएं लगाई जा रही हैं.आज ही मोरबी में १०८ फुट ऊंची हनुमान प्रतिमा का मोदी जी रिमोट से उद्घाटन कर रहे हैं. 

हमने कहा- तोताराम, एक बात तो है, बड़ी प्रतिमाएं आराध्य के धर्य की बड़ी कठिन परीक्षा लेती हैं. छोटी प्रतिमा हो और ऊपर छाजन हो तो धूप, वर्षा, ठण्ड से बचाव हो जाता है. कुछ भक्त अपने आराध्य को कम्बल, हीटर, थ्री पीस सूट भी उपलब्ध करवा देते हैं लेकिन १०८ फुट की प्रतिमा के लिए यह कैसे संभव हो सकता है. भक्त तो रजाई में घुस कर, कूलर चलाकर सर्द-गरम मौसम झेल जाते हैं लेकिन मूर्तिमंत भगवान के कष्ट के बारे में सोचकर भी कलेजा मुंह को आ जाता है. हो सकता है इससे भक्तों तथा धर्म का धंधा और राजनीति करने वालों का हित साधन हो जाता हो लेकिन प्रभु को तो कष्ट झेलना ही पड़ता है. यदि ऐसी मूर्तियाँ पहाड़ों पर स्थापित कर दी जाएँ तो प्रभु किसी गुफा में घुसकर ही शायद अपना बचाव कर सकें लेकिन खुले में तो वह सुविधा भी नहीं. 

बोला- तुझे पता है अब तो अपने यहाँ भी पलसाना रोड़ खंडेला में ७५ लाख रूपए की लागत से गदावाले हनुमान जी के एक मंदिर का आज ही उद्घाटन हो रहा है जिसके गेट पर २८ फुट लम्बी और ३२ फुट गोलाई वाली गदा रखी हुई है. 

हमने कहा- चलो हर समय कंधे पर गदा धारण किये रहने से थोड़ी देर के लिए तो मुक्ति मिलेगी. 

बोला- लेकिन गदा के बिना से भूत पिशाचों का नाश कैसे करेंगे. 

हमने कहा- उसके लिए अब हनुमान जी की कोई ज़रूरत नहीं रह गई है. गली गली में बेरोजगार युवक धर्म की रक्षा के लिए भगवा झंडा लहराते हुए मोटर साइकिलों पर सवार होकर जोशीले नारे लगाते हुए निकल पड़े हैं. अब भूत पिशाच तो दूर भले आदमी भी घरों से निकलने में घबराने लगे हैं.  और अगर कभी संयोग से गेट वाली गदा मंदिर प्रवेश करने वालों पर गिर पड़ी तो पांच-सात की तो वैसे ही मोक्ष को जायेगी.




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Apr 19, 2022

अखंड भारत का स्वागत

अखंड भारत का  स्वागत  


आज तोताराम के आने से पहले ही हम बरामदे में अनुलोम-विलोम प्राणायाम करने बैठ गए.

जैसे ही तोताराम आया, बरामदे के पास खड़ा-खड़ा मंत्रमुग्ध हमें देखता रहा. कुछ देर देखते-देखते जब बोर हो गया तो बोला- अब बस भी कर. बहुत खींच ली गली की गन्दी हवा. अरे, प्राणायाम वहाँ किया जाता है जहां साँस लेने लायक हवा हो. इस हवा में क्या है ? वाहनों का धुआँ और मंडी में सड़ते कूड़े की बदबू. कभी दिल्ली जाए तो ७. लोक कल्याण मार्ग के आसपास बैठकर कर आना अनुलोम विलोम. यहाँ तो जितना कुम्भक (सांस रोकना) करेगा उतना ही सुरक्षित रहेगा. वैसे आज इस आमूल-चूल परिवर्तन का कारण क्या है ? क्यों आत्मा को भटकाता है. शतायु हो गया तो भी निर्देशक मंडल को अब इस देश में कोई पूछने वाला नहीं है. 

हमने कहा- सुनते आये हैं कि प्राचीन काल में जब भारत अखंड था तब सब कुछ ठीक था. घी दूध की नदियाँ बहती थीं,सामान्य लोग भी सौ-सौ बरस स्वस्थ रहते हुए जीते थे. ऋषि मुनि तो हजारों साल तक तपस्या करते थे. राम जी के राज में तो- 

माँगे वारिद देयँ जल रामचंद्र के राज.

आज की तरह नहीं कि या तो सूखा पड़े या बाढ़ आये. लोग पीने के पानी के लिए भी नल या टेंकरों के सामने लाइन लगाएं. 

बोला- तभी लगता है लोग राम नवमी को इतने आक्रामक जुलूस निकाल कर फ़टाफ़ट देश को राममय बना देना चाहते हैं कि सभी समस्याएं जल्दी से जल्दी हल हो जाएँ.

लेकिन बात तो तेरे इस अनुलोम-विलोम प्राणायाम से शुरू हुई थी. 

हमने कहा- हमें तो भागवत जी के बयान के बाद लगा कि किसी तरह १५ साल और निकाल दें तो सुखमय अखंड भारत में रहने की साध पूरी हो जाए.

बोला- रामलीला में दिखाते हैं कि रावण के अंतिम समय जब राम के कहने पर लक्ष्मण जी उससे ज्ञान लेने गए तो रावण ने कहा- किसी भी काम को टालना नहीं चाहिए. मैं भी तीन काम करना चाहता था एक- चाँद-सूरज तक सीढियां बनवाना, दूसरा-सोने को सुगन्धित और तीसरा- आग को धुंआ रहित बनाना. लेकिन नहीं कर सका.

आज तक किसके वचन सच हुए हैं, किसके मन की साध पूरी हुई है ?

हमने कहा- लेकिन हमें भागवत जी के कथन पर पूरा विश्वास है. उन्होंने कहा है कि यदि सबका सहयोग मिले तो १५ साल में भारत फिर से 'अखंड भारत' बन जाएगा और यह सब हम अपनी आँखों से देखेंगे.और जब 'हाथ में डंडा' हो तो कौन सी साध है जो पूरी नहीं करवाई जा सके.

बोला- भागवत जी अभी मात्र ७०-७१ वर्ष के हैं, स्वस्थ हैं, ब्रह्मचारी हैं, शांत चित्त और सकारात्मक सोच वाले संत हैं, ऋषि हैं, वे ज़रूर देखेंगे. ऋषि सैंकड़ों साल सक्रिय जीते थे. लेकिन हम तो ८० के हो चले, हड्डियां हरि-कीर्तन कर रही हैं पता नहीं, कब रघुपति राघव राजा राम हो जाए ?  

हमने कहा- इस भजन की अगली लाइन मत बोलना. उसमें 'ईश्वर अल्ला तेरे नाम' आता है और वह अखंड भारत से मेल नहीं खाती. अखंड भारत में सभी आर्यपुत्र थे, कोई यवन, म्लेच्छ और विधर्मी नहीं था. सभी अमृत संतान.

हम इसीलिए तो प्राणायाम कर रहे थे कि कुछ भी हो जाय, मोहन भागवत जी के अखंड भारत को देखने के लिए कुछ भी करके अगले १५-२० साल तो जमे ही रहेंगे.

बोला- खाली प्राणायाम से काम नहीं चलता, कुछ पेट में भी जाना चाहिए. तुझे पता नहीं कि हर समय फिट रह कर सब को हिट करते रहने वाले, बुढ़ापे में भी स्वस्थ रहने वाले जनता के सेवक क्या-क्या गिज़ा खाते हैं ? 

हमने कहा- याद रखो, आशा सारे अभावों के बावजूद जीव को जीवित रहने की शक्ति प्रदान करती है जैसे कि आज डी जे की धुन पर नाचते, उत्तेजक नारे लगाते, कहीं भी चढ़ कर झंडा गाड़ देने को लालायित, किसी को भी गरियाने और हड़काने वाले १५ से ३० साल की आयु के इन राम सैनिकों को 'अखंड भारत और राम-राज' की आशा के कारण ही तो अच्छी शिक्षा, भोजन, नौकरी और स्वास्थ्य कोई चिंता नहीं सता रही है. 

बोला- मास्टर, भ्रम में मत रह. ऐसे राम राज नहीं आता. राम जब वनवास से लौटे थे तब वे सेना के साथ नहीं लौटे थे.रावण से युद्ध करने के लिए बन्दर-भालुओं की जो सेना बनाई थी, युद्ध के बाद उसे भंग कर दिया था. उनसे कहा था-

अब तुम सब निज-निज घर जाहू

सुमिरेहु मोहि डरपहिं जनि काहू 

मतलब अपने-अपने घर जाओ और ज़िम्मेदार नागरिक बनो, युद्ध स्थायी भाव नहीं है, 'सुमिरेहु मोहि'  मतलब मेरी मर्यादाओं को याद रखना. 

अब तू ही बता राम के जन्म दिन पर , राम के नाम पर किसी का घर गिरा देना या किसी के तरबूज फेंक देना कौन सी राम की मर्यादा है ?  

ऐसे कोई देश अखंड नहीं बनता. यह देश तो अब भी अन्दर से अखंड ही है. और अखंड है तो बुद्ध, कबीर, नानक जैसे संतों के कारण. यदि उन संतों की वाणी नहीं सुनी तो याद रखना यह देश इतने टुकड़ों में बंट जाएगा कि समेटते नहीं बनेगा.  





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Apr 12, 2022

फाइल देखी क्या ?


फाइल देखी क्या ?


तोताराम ने आते ही पूछा- फाइल देखी क्या ?

हमने कहा- हमें फाइल कौन दिखाता है ? हमारा प्रमोशन तीन साल देर से हुआ क्योंकि प्रिंसिपल ने हमारी फाइल बिना किसी कारण के तीन साल तक ऊपर भेजी ही नहीं. हमें कौन फाइल दिखाएगा ?और तो और, हमारी गली में पता नहीं कब-किसी विकास की योजना बन जाती है और चुपके से विकास हो जाता है ? हमें तो पता तब चलता है जब बिना बात अचानक घर के सामने खुदाई कर दी जाती है और फिर कई दिन तक कुछ नहीं होता. धीरे-धीरे लोगों के आने-जाने से और हवा-बरसात से वह मिट्टी जैसे तैसे फिर सड़क पर बेतरतीब फ़ैल जाती है. दो साल पहले गली में सीमेंटेड सड़क बनी लेकिन पता नहीं किस सिद्धांत के तहत कुछ हिस्से में बिना सीमेंटेड छोड़ दी गई. कई बार प्रार्थना पत्र दिए लेकिन कोई उत्तर नहीं. और तू कहता है- फाइल देखी क्या ? आज तक किसी को पीएम केयर फंड की फाइल देखने को मिली ?.

बोला- मैं किसी सरकारी फाइल की नहीं बल्कि विवेक अग्निहोत्री की राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ाने वाले विवेक से पूर्ण फिल्म 'कश्मीर फाइल' की बात कर रहा था लेकिन तू किसी को बोलने दे तब ना. कई राज्यों में सरकार ने फिल्म टेक्स फ्री कर दी है. फिल्म देखने के लिए आधे दिन की छुट्टी भी दी जा रही है.

हमने कहा- टेक्स फ्री के बाद भी सिनेमा हॉल तक जाने-आने के ऑटो के पैसे, कुछ कम सही लेकिन टिकट के पैसे भी लगेंगे ही और अगर वहाँ पानी भी पी लिया तो दस-बीस रुपए और जोड़ ले. छुट्टी से हमें क्या मतलब ? हमारी  तो छुट्टी ही छुट्टी है. अब तो दुनिया से छुट्टी का इंतज़ार है. 

बोला- थोड़ा सब्र कर, मोदी जी राष्ट्रीय एकता और सद्भाव बढ़ाने वाली यह फिल्म कुछ दिन बाद बिलकुल फ्री भी करवा देंगे.

हमने कहा- लेकिन इससे फिल्म बनाने वाले को नुकसान नहीं होगा ? अभी हरियाणा के एक भाजपा नेता के फ्री में यह फिल्म दिखाने पर विवेक अग्निहोत्री ने ऐतराज़ किया था.

बोला- ऐसी सामाजिक सद्भाव बढ़ाने वाली फिल्म के निर्माता को सरकार कभी घाटा नहीं होने देगी. सरकार के हाथ लम्बे हैं, किसी भी तरह से भरपाई कर देगी. 

हमने कहा- तोताराम, केवल फ्री से काम नहीं चलेगा.आजकल जुलूस और रैली में जाने वाले कम से कम तीन-चार  सौ रुपए लेते हैं. हम क्या उनसे भी सस्ते हैं ? कम से कम दो सौ रुपए लिए बिना हम जाने वाले नहीं. 

बोला- ज्यादा भाव खाने की ज़रूरत नहीं है. अभी तो देशभक्त लोग शांत हैं. प्रेरित कर रहे हैं. कल को जब घर-घर जाकर जांच करेंगे कि किसने फिल्म देखी और किसने नहीं देखी तब बहुत चक्कर पड़ जाएगा. अगर सरकार ने कह दिया कि जब तक फिल्म देखने के टिकट को आधार कार्ड से नहीं जोड़ोगे तब तक पेंशन नहीं मिलेगी, तब ? 

हमने कहा- कह देंगे देखी है. 

बोला- केवल इतने से काम नहीं चलेगा.  वे पूछेंगे- जोश आया या नहीं ? आँखों में खून उतरा या नहीं ? नारे लगाए या नहीं ? मरने-मारने का मन हुआ या नहीं ? तब क्या कहेगा ? 

हमने कहा- कह देंगे सब कुछ किया. कहें तो अब दीवार से सिर भिड़ा लें. कहें तो किसी आतंकवादी से लगने वाले मुसलमान का खून पी जाएँ. 

बोला- अब ठीक है ? 

हमने कहा- पता नहीं, इस फिल्म में क्या है लेकिन यह पहला मौका है जब सरकार किसी फिल्म का इस तरह प्रमोशन कर रही है. हो सकता है, भाजपा समर्थित वी पी सिंह के कार्यकाल में, उसके बाद अटल जी के छह साल और तत्पश्चात मोदी जी के आठ साल में विस्थापित और पीड़ित कश्मीरी पंडितों के लिए किये गए बहुत से राहत कार्य भी दिखाए गए होंगे. 

बोला- इसमें राहत कार्यों का कोई विवरण नहीं है. भाजपा ने तो खैर, कुछ किया ही नहीं लेकिन मनमोहन सरकार ने जो राहत पॅकेज दिए, मासिक भत्ता और माकन बनाने के लिए दी गई एकमुश्त राशि का भी ज़िक्र नहीं है. 

हमने कहा- तो फिर क्या केवल खून खच्चर दिखाने के लिए ही फिल्म बनाई है ? जब कोई मरहम ही नहीं लगाना है तो बिना बात घाव को कुरेदने से क्या फायदा ? अब उस पर केवल चुनावी ध्रुवीकरण की राजनीति की मक्खियाँ बैठेंगी. हमें तो ऐसी फिल्म बनाने, उसकी सिफारिश करने में कोई कुटिल मंतव्य ही नज़र आता है. ऐसी फिल्म का क्या उद्देश्य हो सकता है ? कश्मीर से विस्थापित कार्यकर्ता सुनील पंडित ने भी इस फिल्म को इकतरफा बताया  तो भाजपा कार्यकर्ताओं ने उनका उत्पीडन किया. उनके घर के बाहर अपमानजनक नारे लगाए जिससे भयभीत उनकी पत्नी बेहोश भी हो गई. 

यह तो वैसे ही है जैसे 'विभाजन विभीषिका दिवस' मनाना.   


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Apr 10, 2022

न भूतो न भविष्यति


न भूतो न भविष्यति 

तोताराम की ऊंचाई कम है मतलब लाल बहादुर शास्त्री जी जितनी. हालांकि तोताराम शास्त्री जी जितना महान नहीं है फिर भी नीच और कमीना भी नहीं है. जबकि बहुत से लोग ऊंचे क़द के होने पर भी नीयत से बहुत घटिया होते है. ५० इंच का सीना होने पर भी अन्दर से बहुत बुजदिल होते हैं.तोताराम को अपने ठिगने क़द को लेकर कोई कुंठा नहीं है इसलिए आसमान देखता नहीं चलता. सामने देखकर सीधा चलता है. कमर और गर्दन ९० डिग्री के कोण पर.

पिछले कुछ दिनों से तोताराम की गर्दन और कमर ९० से क्रमशः ८०-८५  के कोण की तरफ झुकने लगी है. पहले पूछा तो बोला- मोदी जी की कृपा से मुफ्त का टीका लगवाकर आभार व्यक्त कर रहा हूँ. फिर जब ७५ के कोण पर आगया तो कारण बताया- मोदी जी ने १०० करोड़ टीके लगवा दिए  तो इतना झुकाव तो बनता ही है.

आज तोताराम की कमर ७० के कोण पर आ पहुंची. हमने टोका- तोताराम, इस हिसाब से तो तू २०२४ तक  'कनक दंडवत' की मुद्रा में आ जायेगा. 

बोला- वैसे तो सारा देश ही मोदी जी के आभार में झुका जा रहा है फिर भी यह 'कनक दंडवत' क्या होती है ?
 
हमने कहा- जब कोई भक्त अपने आराध्य की ओर सामान्य रूप से चलने की बजाय साष्टांग दंडवत करता चलता  है उसे 'कनक दंडवत' कहते हैं. साष्टांग दंडवत होकर जहां तक उसके हाथ पहुंचते हैं, पुनः वहाँ खड़ा हो जाता है. वहां से फिर साष्टांग किया जाता है. इस प्रकार समस्त दूरी भूमि से शरीर का अष्टांग स्पर्श कराते हुए नापी जाती है. बहुत कठिन हठयोग है. 

बोला- क्या करूं ? उधर मोदी जी उपचुनावों में पटखनी खाने के बाद अपनी दयालुता का परिचय देने को मज़बूर हो गए हैं. उत्तर प्रदेश के बाद लोकसभा चुनाव आते भी कौन सी देर लगती है. सो ५० रु. बढाकर ५ रु. की ऐतिहासिक राहत दे दी. ऐसे में अपनी राजस्थान सरकार को भी ५ रु. की राहत देनी पड़ी. सो समझ ले, पांच डिग्री मोदी जी के आभार में और पांच डिग्री गहलोत जी के आभार में कमर झुक गई. और पहुँच गई ७० के कोण पर.

हमने कहा- पांच साल में किसानों की आमदनी दुगुनी हुई हो या नहीं लेकिन कुकिंग गैस के दाम ज़रूर दो गुना बढ़ गए हैं. अब सुना है मोदी जी फटी में  'गोगा जी को धोकने वाले'  हैं. 

बोला- क्या मतलब ?

हमने कहा- सुना है, गैस पर सौ-दो सौ रुपए की एक मुश्त रियायत की घोषणा करने वाले हैं.
 
बोला- क्यों, क्या अब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के नियम लागू नहीं हो रहे ? 

हमने कहा- आपत काले मर्यादा नास्ति. 

बोला- मास्टर, राजनीति तो अब हर हालत में डराती है.सरकार दाम बढाए तो हमारा बजट खराब और घटाए तो लगता है कोई बड़ी ठगी का इरादा है, १५ लाख के जुमले की तरह. 

हमने कहा- इसी बात पर एक कहानी सुन.

एक किसान था.  मोदी जी से भी बड़ा प्रेक्टिकल. उसकी बकरी ब्याने वाली थी. संयोग ऐसा हो रहा था कि कभी बच्चे के पैर थोड़े  बाहर आयें और जैसे ही किसान उन्हें खींचने वाला हो तो पैर फिर अन्दर. परेशान किसान कभी सौ का, कभी पांच सौ का प्रसाद बोलने लगा. बढ़ते-बढ़ते वह पांच हजार रुपए के प्रसाद तक आ गया. उसकी पत्नी बोली- मरे, तेरी यह बकरी तो चार हजार की भी नहीं है और तू प्रसाद बोल रहा है पांच हजार का. सही सलामत ब्या गई तो घाटे में रहेगा. 

किसान बोला-  एक बार खुरिया (पैर) हाथ आ जाने दे फिर तो हनुमान जी ही क्या, रामजी तक को समझ लूंगा. 

तोताराम बोला- समझ गया. इसका मतलब २०२४ का चुनाव जीतने के बाद एक ही झटके में पेट्रोल ५०० रु. और गैस २००० रु. 

हमने कहा- और क्या. मछली फँस जाने के बाद कांटे में चारा कौन लगाता है ?  

बोला- लेकिन उसके बाद कोई चुनाव नहीं आएगा क्या ? २०२९ में समझ लेंगे. 

हमने कहा- तो क्या हम तब तक बैठे रहेंगे ? और तब तक मोदी जी भी तो अपने बनाए नियम के अनुसार स्वेच्छा से  'निर्देशक मंडल' में नहीं चले जायेंगे ? 

बोला- मोदी जी नियमातीत, तर्कातीत और अनुमानातीत हैं.

हमने कहा- लेकिन यह भी तो हो सकता है कि वे २०२४ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष में, एक बार भाजपा को फिर तीन चौथाई बहुमत दिलाकर, संविधान बदलकर, देश को हिन्दू राष्ट्र बनाकर,  अचानक त्यागपत्र देकर हिमालय में चले जाएँ और गाँधी से भी बड़े होकर 'देश के पितामह' के रूप में स्थापित होकर अलौकिक सिद्ध हो जाएँ. 

न भूतो न भविष्यति प्रधानमंत्री. 

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Apr 9, 2022

फॉर्म और यूनीफॉर्म


फॉर्म और यूनीफॉर्म  


हम आज़ादी से पहले के विद्यार्थी हैं जब सभी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते थे . यूनीफॉर्म, स्कूल बैग, टिफिन, शूज़ एंड सॉक्स, टाई और स्कूल-बस जैसे शब्द हमारे शब्दकोश में नहीं थे. दो-चार बार मोहल्ले में लगने वाली शाखा में भी गए लेकिन वहाँ भी कोई निश्चित वेशभूषा नहीं हुआ करती थी. होती भी होगी तो किसी विशेष अवसर के लिए. हमें पता नहीं क्योंकि हम इतना अधिक और लम्बे समय तक शाखा से जुड़े नहीं रहे. बहुत बाद में पता चला कि वे अपनी ड्रेस को 'गणवेश' कहते हैं. 

जहां तक स्कूल की बात है तो हम पांचवीं क्लास तक पट्टे वाली चड्डी, कमीज और गाँव के मोची द्वारा बनाई गई चमरौधे की जूतियाँ पहनकर स्कूल जाते थे. छठी क्लास में आये तो खाकी रंग का निक्कर मिला. शाखा में भी गणवेश में निक्कर ही हुआ करता था लेकिन वे उसे हाफ पेंट कहते थे. उसकी बनावट और डिजाइन पुलिस के सिपाही के निक्कर जैसी होती थी. शायद पुलिस या सेना जैसा अनुशासन शाखा के स्वयंसेवकों से अभिप्रेत था. वे लाठियां, लेजियम और तलवार उसी जोश से सीखते थे जिस जोश से सैनिक बंदूक चलाना सीखते हैं. हमें छठी क्लास में पहली बार प्राप्त हुए निक्कर के खाकी होने का अनुशासनात्मक कारण नहीं था. यह रंग तो इसलिए चुना गया था कि गन्दा कम दिखता था. गन्दा होना इतना मायने नहीं रखता था जितना गन्दा दिखना.

ये बातें उस समय की हैं जब संविधान नया-नया लागू हुआ था. १९२० में जब प्रथम विश्व युद्ध में सैनिकों की ज़रूरत बढ़ी तो एन सी सी जैसा कुछ शुरू किया गया जिससे सेना के लिए नर्सरी तैयार की जा सके. स्वतंत्रता के बाद बच्चों में अनुशासन पैदा करने के लिए १९५० में नवीं कक्षा से एन सी सी शुरु की गई. इसके बाद १९५२ में इसकी जूनियर विंग के रूप में ए सी सी शुरु की गई. हम उसके प्रारंभिक बैच वालों में थे. परेड वाले दिन खाकी निक्कर और सफ़ेद कमीज़ पहननी होती थी. सब बच्चों के एक जैसे कपड़े, जूते. तब पता चला कि इसे ड्रेस कहते हैं. वही हिंदी में शाखा वाला 'गणवेश'.अब जब सभी निजी स्कूलों में तीन साल के बच्चों को जो अपनी बहती नाक तक को नहीं संभाल सकते, फुल पेंट पहना दी जाती है. अंग्रेजों के ज़माने की पुलिस भी निक्कर से फुल पेंट पर आ गई है तो फिर हमारे शाखा वाले साथी ९० साल बाद निक्कर से फुल पेंट में आ गए तो क्या आश्चर्य ! 

पुलिस और सेना वाले अपने 'गणवेश' को यूनीफॉर्म कहते हैं. 

जब हमने तोताराम को बताया कि अंग्रेजों के ज़माने की यूनीफ़ॉर्म १९६२ में बदली. उसके बाद १९७१ में कुछ परिवर्तन हुए, इसके बाद १९९० में ऐसा हुआ. सुना है कि अब फिर कोम्बैट यूनीफ़ॉर्म में परिवर्तन होने वाला है तो बोला- यह तो २०१४ में जब देश वास्तव में आज़ाद हुआ तभी हो जाना चाहिए था. सात साल तक गुलामी की यूनीफ़ॉर्म को ढोने का क्या तुक था ? 

हमने कहा- लेकिन यूनीफ़ॉर्म का एक पहचान के अतिरिक्त क्या कार्यक्षमता से भी कोई संबंध होता है ?

बोला- क्यों नहीं. सफ़ेद यूनीफ़ॉर्म में शांति, अहिंसा और संधि की भावना पैदा होती है. केसरिया रंग की यूनीफ़ॉर्म में मरने मारने का मन होता है. यदि कोई और न मिले तो आदमी अपना सिर फोड़ने पर ही उतारू हो जाता है. हरे रंग की यूनीफ़ॉर्म में व्यक्ति के देशद्रोही बन जाने की पूरी-पूरी संभावना बन जाती है. बिना मूंछ वाली दाढ़ी गद्दारी और उठी हुई मूंछें देशभक्ति का प्रतीक होती हैं.

हमने कहा- लेकिन जब हमारे देश में ही अब जब तीसरी चौथी बार यूनीफोर्म बदल रही है तो लोग अपने ही पुराने  'वार हीरोज' को कैसे पहचानेंगे ?

बोला- इसीलिए तो इस बार के गणतंत्र दिवस पर देश की अब तक की सभी यूनीफोर्मों में दस्ते मार्च करेंगे जिससे जनता अपने सैनिकों को पहचान सकेगी. 

हमने कहा- लेकिन तोताराम, यूनी का मतलब होता है सबके समान. फिर इसे यूनी ड्रेस क्यों नहीं कहते ?

बोला- किसी भी तरह के कपड़े ड्रेस ही होते हैं लेकिन उन्हें पहनकर आदमी 'फॉर्म' में नहीं आता. लेकिन जब कोई पुलिस की वर्दी पहनता है तो 'फॉर्म' में आने लगता है. जैसे कुरता पायजामा और माइक सामने होते ही जिसमें भी  नेतागीरी के कीटाणु होते हैं उसका 'मन की बात' करने का मन करने लगता है.  ऐसे ही फौजी की वर्दी पहनने पर कमांड देने और किधर भी गोली चलाने का मन करता है. 

हमने कहा- यह तो सच है. हमारे एक मित्र थे जो प्राध्यापकी छोड़कर पुलिस में अफसर बन गए. बहुत शालीन और  तहजीब याफ्ता. एक बार जब हम उनसे मिलने गए तो वे अपने किसी मातहत को संसदीय भाषा में लताड़ रहे थे. उस मातहत के जाने के बाद हमने उससे पूछा- यह क्या तमाशा है ? तो बोले- क्या बताऊँ यार, वर्दी पहनते ही 'फॉर्म' में आ जाता हूँ.

बोला- जैसे कोई सामान्य आदमी 'माननीय' बनते ही 'फॉर्म' में आ जाता है और 'संसदीय भाषा' बोलने लगता है जिसमें किसान का अर्थ 'खालिस्तानी' होता है, मानवाधिकारवादी का अर्थ 'अन्दोलनजीवी' होता है. 



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Apr 6, 2022

लगा दिया धंधे से


लगा दिया धंधे से 


वैसे तो महानायक अब भी धड़ल्ले से चल रहे हैं लेकिन हमारी हालत उनकी एक फिल्म नटवरलाल के एक गीत की अंतिम पंक्ति जैसी हो रही है- यह जीना भी कोई जीना है लल्लू. 

जीना कैसा भी हो लेकिन पेंशन पाने वाले को अपने जीवित होने का प्रमाण हर वर्ष नवम्बर में सरकार को देना होता है. हो सकता है कि सरकार यह समझती हो कि विकास की इस आँधी में एक पेंशनयाफ्ता का जीवित रहना आसान नहीं है इसलिए बार बार पता करते रहना चाहिए कि डोकरा लुढ़क गया हो और घर वाले पेंशन पेले जा रहे हों. 

हम इस मामले में बहुत नियमित हैं और बड़ी श्रद्धा और तत्परता से एक या दो नवम्बर को अपने जीवित होने का प्रमाण सरकार को दे आते हैं. कल हुआ यूं कि संबंधित क्लर्क ने कहा- मास्टर जी, फोटो लगाकर यह फॉर्म एक दो दिन में भरकर दे जाएँ. 

हमने कहा- तो क्या अब तक बिना किसी रिकार्ड और जानकारी के ही हमें पेंशन देते रहे ? पेंशन शुरू होने से पहले हमने सब जानकारी दे दी थी. उसके बाद में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. बिना बात हमें दौड़ाने की ज़रूरत नहीं है. 

मैनेजर भला लड़का था, बोला- गुरूजी, हम आपको क्यों परेशान करेंगे ? अब ऊपर से आदेश हैं तो हम क्या करें ? 

हमने कहा- ऊपर तो अब मोदी जी ही हैं. भगवान के लिए तो अब उन्होंने कुछ छोड़ा है नहीं. हर मर्ज़ की दवा, हर समस्या का हल उनकी 'लाल किताब' में है. लेकिन उनका हल बहुत संश्लिष्ट और इतना तकनीकी है कि फरियादी के लिए पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाए.  प्रवेश भले ही फ्री हो लेकिन बाहर निकलने की भारी फीस लगती है. अगर कोई उन्हें नमस्ते भी कर ले तो वे उसे नेहरू जी की कमियाँ बताते हुए एक नई योजना बता देंगे, जिसमें दस फॉर्म भरने का विधान होगा और आपकी छींक तथा उबासी को भी आधार कार्ड से लिंक करने की बाध्यता लाद देंगे. नहीं तो नागरिकता और नौकरी पर संकट की धमकी, विकास में रुकावट का तमगा. 

रो-झींक कर फॉर्म भरने बैठे ही थे कि तोताराम आ गया, बोला- पहले चाय बनवा ले. मुझे भी जीवित होने का नया फॉर्म सभी जानकारियों के साथ भरना है. 

हमने कहा- क्या ख़ाक भरेंगे. फॉर्म इतना धुंधला छपा है कि कुछ समझ में ही नहीं आता. 

बोला- ये सब कागजी कार्यवाहियां हैं जिन्हें कोई देखता-पढ़ता नहीं. बस, लोगों को धंधे से लगाकर रखना है जिससे जनता समझे कि सरकार है और कुछ न कुछ कर रही है.

हमने कहा- लगता है मोदी जी ने हमें ही नहीं, सारी दुनिया को धंधे से लगाने का इंतज़ाम कर दिया है. 

बोला- कैसे ?

हमने कहा- मोदी जी ने संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में एक नया मन्त्र दिया है- एक सूर्य : एक विश्व : एक ग्रिड. कहा है-‘'जब से धरती पर जीवन है, सभी जीवों का जीवन चक्र, प्रतिदिन की दिनचर्या सूर्योदय और सूर्यास्त से जुड़े हुए हैं. जब तक प्रकृति के साथ इस संबंध को कायम रखा जाएगा, धरती सुरक्षित और स्वस्थ रहेगी'. 

इसी क्रम में उन्होंने 'सूर्योपनिषद' का भी ज़िक्र किया. 

बोला- यह सूर्योपनिषद कौन सा उपनिषद है ?

हमने कहा- जिस प्रकार भारत में राजनीतिक पार्टियों और मोदी जी के जैकेट-कुर्तों की संख्या अनगिनत है वैसे ही उपनिषदों की संख्या भी सीमित नहीं है. कल को कोई नरेंद्रोपनिषद भी लिख मार सकता है.

बोला- फिर भी जिस तरह मोदी जी ने भारत की जनता को तरह-तरह की योजनाओं और फॉर्म्स  में उलझा रखा है वैसे अब दूसरे देशों को भी धंधे से लगा दिया है. देखना अब सूर्योपनिषद के लिए विदेशी विद्वान भारत के चक्कर लगाते नज़र आयेंगे.

भारतीय युवाओं के लिए भी संस्कृत सीख कर उपनिषदों से सौर ऊर्जा निकालकर रोजगार के अवसरों के लिए एक नया मंत्रालय और योजना घोषित होने ही वाली है.  

 



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Apr 4, 2022

मास्टर की चड्डी और केजरीवाल का मफलर


मास्टर की चड्डी और केजरीवाल का मफलर 


जब से कोरोना के एमिक्रोन नामक वेरिएंट के लक्षणों के बारे में अखबारों में सूचनाएँ आनी शुरू हुई हैं, हमने अतिरिक्त सावधानी बरतना शुरू कर दिया है. सुनते हैं इस नए वेरिएंट से गले में खराश होती है. सर्दी-जुकाम का भी यही सामान्य लक्षण होता है. 

कोई भी, चाहे मौसम हो या अधिकारी, जब नया-नया आता है तो अतिरिक्त औपचारिकता, अपेक्षा, उपेक्षा, अंदाज़ और ठसके से आता है. जैसे कहते हैं जो नया-नया मुल्ला बनता है ज्यादा प्याज खाता है. बाद में तो दोनों का भय निकल जाता है और चिड़ियाघर के शेर और बकरी की तरह एक ही घाट पानी पीने लग जाते हैं. ऐसे ही जब कोई अधिकारी जाने लगता है तब या तो अपनी गलतियाँ सुधार कर जाता है या फिर ऑफिस के परदे तक उतार कर ले जाता है. इसलिए हम आती और जाती सर्दी दोनों को गंभीरता से लेते रहे हैं. 

दो दिन पहले तक हम सुबह बरामदे में भी कमीज पहनकर बैठते थे लेकिन आज ज़रूरत अनुभव नहीं हुई. सो अपने समर अटायर में बरामदे में बैठे थे. समर अटायर मतलब पट्टे वाली चड्डी, बस.

तोताराम ने आते ही कहा- आज से गरमी की ऋतु शुरू.

हमने पूछा- क्या भारत सरकार ने घोषणा ही है ?

बोला- नहीं. 

हमने पूछा- तो तुझे कैसे पता चला ?

बोला- जब तू केवल पट्टे वाली चड्डी में आ जाए तो समझ लेना चाहिए कि गरमी की ऋतु शुरू हो गई है. 

हमने पूछा- और सर्दी की शुरुआत कब मानें ?

बोला- जब केजरीवाल मफलर लगा ले. 

हमने कहा- लेकिन इस बार गरमी अनुमान से ज्यादा और समय से पहले नहीं आ गई ? हो सकता है इस बार बरसात कम होने से ऐसा हुआ हो.

बोला- नहीं, इसका दूसरा कारण भी है. मार्च में 'द कश्मीर फाइल्स' फिल्म भी तो रिलीज़ हो गई. उसमें जो हिंसा दिखाई गई है उससे लोग उबल रहे हैं तो गरमी तो बढ़नी ही थी. 

हमने कहा- लेकिन क्या हमेशा से साथ रहने वाले कश्मीर के किसी भी मुसलमान ने पंडितों की कोई मदद नहीं की ?

बोला- पता नहीं लेकिन फिल्म में तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखाया गया. वैसे भी फिल्म का एजेंडा ही जब कुछ और था तो उसमें सद्भाव के लिए जगह ही कहाँ थी. 

हमने कहा- वैसे दिल्ली में तेज गरमी का एक और कारण भी हमारी समझ में आ रहा है.

बोला- क्या ?

हमने कहा-  'द कश्मीर फाइल्स' को लेकर केजरीवाल की केंद्र सरकार पर टिप्पणी का उत्तर देने के लिए तेजस्वी सूर्या बंगलुरु से दिल्ली पधारे हुए हैं. ऐसे में दिल्ली में गरमी नहीं बढ़ेगी तो क्या होगा ?

अगर तेजस्वी सूर्या कश्मीर, लद्दाख की तरफ निकल गये तो हो सकता है हिमालय के ग्लेशियर न पिघलने लग जाएँ.   



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