Mar 21, 2011

जैसी दृष्टि : वैसी सृष्टि . सन्दर्भ - पुस्तक 'एटीट्यूड शिफ्ट'


किसी भी व्यक्ति की जीवन दृष्टि का निर्माण उसकी संस्कृति के द्वारा होता है | भारत की जीवन दृष्टि के निर्माण का मूल स्रोत है संस्कृत | भले ही आज पश्चिम का दुष्प्रचार और भारतीय शिक्षा की तथाकथित नवीन दृष्टि संस्कृत को कर्मकांड की वाहिका और यहाँ तक कि एक मृत भाषा मानती है मगर संस्कृत का विवेकपूर्वक अध्ययन करनेवाले जानते हैं कि संस्कृत में जीवन-अनुभवों का एक विशाल और व्यावहारिक खजाना छुपा है |


यही खोज शशिकांत जोशी ने अपनी नवीनतम पुस्तक 'एटीट्यूड शिफ्ट' (Attitude Shift - Sanskrit Maxims for Contemporary Life and Leadership) नामक पुस्तक में बखूबी की है | इस पुस्तक में लेखक ने संस्कृत साहित्य की विभिन्न 'कहावतों' का संकलन किया है जिसे संस्कृत में 'न्याय' कहा जाता है जिसमें उन्होंने बताया है कि किस प्रकार ये कहावतें जीवन के प्रबंधन (management) और सामान्य व्यावहारिक बुद्धि को अपने में छुपाए हैं | यह पुस्तक सरल अंग्रेजी में है और किशोरों से लेकर बड़े-बड़े प्रबंधकों (managers) तक की जीवन-दृष्टि में परिवर्तन लाने में सक्षम है | 

शशिकान्त जोशी आई.आई.टी. खडगपुर के कम्प्यूटर विज्ञान में स्नातक, मिनिसोटा (USA) से कम्प्यूटर विज्ञान में परास्नातक हैं | सत्रह वर्ष तक अमरीका में सोफ्टवेयर कंसल्टेंट रहने के बाद इस समय बैंगलोर में रहते हैं | यदि आप थोड़ी भी अंग्रेजी जानते हैं तो इस पुस्तक को सरलता से समझ सकते हैं |

एक अवश्य पठनीय पुस्तक | यह पुस्तक बुकस्टोर में नहीं उपलब्ध है, वरन वेबसाइट से बिना डाक खर्च के मंगाई जा सकती है |

अधिक जानकारी के लिए देखें - http://thinkingheartsonline.com/attitudeshift



(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Mar 16, 2011

होली - काम से राम तक : एक अद्भुत भारतीय प्रतीक-परम्परा का चरमबिंदु



समस्त भारतीय संस्कृति अपने प्रतीकों की पौराणिक परंपरा में गुँथे एक अद्भुत और संश्लिष्ट महाकाव्य के समान है जो कई सहस्राब्दियों में फैला हुआ है; जिसे आजकल समझ में न आ सकने के कारण हम महत्त्व नहीं देते और पश्चिमी विचारक उन्हें झूठ और कपोल-कल्पनाओं का पिटारा बताते हैं । वास्तव में भारतीय चिंतन एक काव्य है जो रूढ़ियों और वर्जनाओं से परे जाकर कवि-हृदय के बिना नहीं समझा जा सकता ।

बसंत पंचमी से रामनवमी तक सृजनात्मक बसंत ऋतु अपना खेल रचाती है । जीवन की एक उच्छल-उद्दाम गंगा, सृजन के गोमुख से निकलकर, लिंग के रूप में पूजित, परम विरागी और नारी को अर्धांगिनी का दर्जा देने वाले अर्धनारीश्वर भगवान शिव की काशी-जटाओं में मंथर होती हुई पुरुषोत्तम-राम रूपी मर्यादा के गंगासागर में जाकर विलीन होती है । और वहीं से कर्त्तव्यों की ऊष्मा से वाष्पित होकर पुनः जीवन की प्रक्रिया शुरु करने के लिए गोमुख की यात्रा पर चल पड़ती है । बीच में आता है होली का पर्व- काम और मदन का महोत्सव ।

इस प्रतीक परंपरा और उसके क्रम को यदि विश्लेषित किया जाए तो सभी वर्जनाओं को नकारती हुई जीवन की एक सम्यक दृष्टि हमें मिलती है जो सम्पूर्ण और मर्यादित है ।

यदि हम चार-पाँच दशक पीछे तक अपनी स्मृति को ले जा सकें तो हम पाएँगे कि बसंत-पंचमी के दिन से ही होली पर्व शुरु हो जाता था । चंग, ढप पर फाग गाना शुरु हो जाता था । पलाश से बनाए रंग में रँगे पीले वस्त्र दिखाई देने लग जाते थे । अबीर उड़ने लग जाता था । यह बात और है कि आज मल्टीनेशनल-पैकेज के बँधुआ-मज़दूर धुलेंडी और होली भी अपने कम्प्यूटर के साथ मनाने को विवश हैं ।

बसंत ऋतु वनस्पति के साथ-साथ समस्त जीव-जगत में सृजन-जीवन की ऊर्जा का पल्लवन है जो जीव को काम के उद्दाम उद्वेग से भर देता है । शिव-लिंग की पूजा जीवन की इसी सृजन-कामना का रूप है । सृजन के प्रतीक शिव उसी 'काम' का दहन करते हैं । जीवन के प्रतीक शिव, संहार के प्रतीक भी हैं- महाकाल । शिव सच्चे प्रेम के प्रतीक भी हैं । भले ही लक्ष्मी विष्णु के पैर दबाती हैं मगर सती या गिरिजा सदा शिव के वाम भाग में विराजती हैं । शिव स्त्री-विमर्श के साक्षात् प्रमाण हैं । होली उस उद्वेग का चरमोत्कर्ष है । उस होली की परिणति भी भस्म होने में होती है । सती के यज्ञ में भस्म हो जाने पर वे पागल की भाँति उनके शव को कंधे पर लादे-लादे घूमते हैं, परम-प्रेमी शिव । होलिका-दहन समस्त वर्जनाओं, कामेच्छाओं के अतिरेक और विकृतियों का दहन भी है । इसी होलिका की राख से कुँवारी कन्याएँ गौरी पूजन की सामग्री जुटाती हैं और सत्रह-अठारह दिनों तक अपने लिए शिव के समान पति-प्राप्ति का अनुष्ठान करती हैं जिसे राजस्थान में गणगौर-पूजन भी कहा जाता है । इसी दौरान शीतलाष्टमी आती है । और फिर आते हैं- दुर्गा पूजा और राम नवमी । औघड़ प्रेमी और काम को भस्म कर देने वाले हैं शिव । यही है शिव के विरोधाभाषी सौंदर्य का चमत्कार जिसे प्रतीकों का संयमित विश्लेषण किए बिना नहीं समझा जा सकता ।

उत्सवों की इस लंबी कड़ी और उसके प्रतीकों का विश्लेषण करें तो बात स्पष्ट हो जाती है । बसंत के रूप में जीवन की सर्जना-शक्ति का सम्मान है । शिव 'काम' को उसकी उच्छृंखलता के लिए भस्म कर देते हैं । यहाँ उनका उद्देश्य काम की समाप्ति करना नहीं है वरन काम का अनुशासन है । होली में भी समस्त वर्जनाओं का टूटना स्वाभाविक माना गया है और जिसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है मगर उन सब कुंठाओं और वर्जनाओं को होली की ज्वाला में और दूसरे कूड़े-करकट के साथ भस्म कर दिया जाता है । इसके बाद गौरी पूजन अर्थात सभी कामातिरेकों को अनुशासित करके शिव-पार्वती के समान एक आदर्श पति-पत्नी बनने की आराधना या तपस्या । इस बीच शीतलाष्टमी आती है तो वह भी सारे दिन ठंडा भोजन करने का नहीं वरन अपने अतिरेकों को शीतल रखने का विधान है । इसके बाद शक्ति की आराधना, नारी के सम्मान का पर्व नवरात्रे आते हैं और फिर बसंत के अंत में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्म अर्थात बसंत पंचमी को शुरु हुए यौवन, कामना और आकर्षण के उद्दाम उत्सव का समापन राम की गरिमापूर्ण मर्यादा के साथ ।

इसके बाद ग्रीष्म ऋतु आती है । मतलब कि विवाह के बाद गृहस्थ के लिए अनुशासन, कर्त्तव्य और गरिमा की आँच में तपना है तभी वह अगली पीढ़ी के स्वस्थ संस्कार देने और उसके लिए आदर्श स्थापित करने के योग्य बन सकेगा । क्योंकि वानप्रस्थ लेने से पूर्व अगली पीढ़ी को आदर्शों की एक स्वस्थ परंपरा को आगे बढ़ाने के संस्कार देने के लिए यह तपस्या आवश्यक है । यही जीवन की पूर्णता है । बसंत के फूल को एक दिन अपना रंग, रूप, गंध और मादकता विसर्जित करके फल बनने की तपस्या भी करनी ही पड़ेगी क्योंकि केवल फूल से सृष्टि नहीं चलती ।

कामना करें कि हम जीवन के बसंत का आनन्द लेते हुए अगली पीढ़ी के लिए एक सुस्वादु और पोषक फल बनने की सार्थकता प्राप्त करेंगे ताकि फिर नए फूल खिलें, फिर मदनोत्सव मनें, फिर वर्जनाओं की होलिका जले, शिव-पार्वती के आदर्श विवाहों का विधान हो और मर्यादा पुरुषोत्तम राम की परंपरा आगे बढ़ती रहे ।

समस्त सृष्टि के लिए एक प्यार भरी गुलाल की चुटकी और शुभकामनाएँ ।

६-३-२०११

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Mar 9, 2011

तोताराम की इच्छा-मृत्यु


आज सुबह-सुबह जब हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरुणा शानबाग के लिए इच्छा-मृत्यु की प्रार्थना अस्वीकार कर दिए जाने की खबर पढ़ रहे थे कि तोताराम भी आ बैठा । कुछ गंभीर लग रहा था । बहुत पूछने पर कहने लगा- मुझे भी इच्छा मृत्यु चाहिए ।

हमने कहा- बंधु, यह कोई साधारण बात नहीं है । इच्छा-मृत्यु तो केवल पितामह भीष्म हुए हैं । और उन्हें भी शुभ लग्न की प्रतीक्षा में कई दिनों तक शर-शैया पर पड़ा रहना पड़ा था । तू भी महँगाई रूपी शर-शैया पर तो पड़ा ही है, जब शुभ मुहूर्त में ऊपर वाले का कॉल लेटर आ जाए तो चले जाना । हो गई इच्छा मृत्यु । वैसे यहाँ तो सब की ही इच्छा मृत्यु होती है । जब किसी आतंकवादी की इच्छा हुई तो निकाल दी गोली और हो गई इच्छा मृत्यु । जब किसी वीर वाहन चालक की मर्जी हुई तो चढ़ा दी गाड़ी और हो गई किसी राह चलते की इच्छा मृत्यु । जब किसी फिदायीन की फ़िदा होने की इच्छा हुई तो कर दिया कहीं भी आत्मघाती हमला और हो गई दस-बीस की इच्छा मृत्यु । सब मृत्युएँ किसी न किसी की इच्छानुसार ही होती हैं ।

कहने लगा- मेरा मतलब वह नहीं था । मेरा मतलब था कि यदि मेरे जीवन की कोई संभावना नहीं है तो सरकार मुझे इच्छा-मृत्यु प्रदान करे । मतलब कि सरकार मेरे लिए मरने का कोई गरिमापूर्ण तरीका तय करे ।

हमने कहा- सरकार को खुद अपने लिए तो डूब मरने का समय मिल नहीं रहा है । खुद तो अपनी गरिमा बचा नहीं पा रही है और अब तेरे लिए मरने की गरिमापूर्ण व्यवस्था करे । सरकार के पास और कोई काम नहीं है क्या ? वैसे क्या ओफिसियली घोषणा या फैसला देकर ही कुछ होगा क्या ? सारे इंतज़ाम कर तो रखे हैं सरकार ने, तेरे ही क्या सभी गरीब लोगों के मरने के लिए । प्रदूषित पानी पीकर मर जा, सरस डेयरी में मिल रहा यूरिया और सर्फ़ से बना दूध पीकर मर जा, ट्रेन की छत पर यात्रा करके मर जा, अवैध शराब पीकर मर जा । खुद भी तो कुछ प्रयत्न कर । यह क्या कि तेरे मरने के लिए भी सरकार ही इंतज़ाम करे । सरकार ऐसे कीटनाशकों का तो इंतजाम कर नहीं पा रही है कि कीट मर सकें और तू अपने मरने का काम और सरकार को सौंप रहा है । कहते है कि कोकाकोला में भी कई मारक तत्त्व होते हैं सो थोड़ा खर्च कर और कोकाकोला पीकर मर जा । यदि बहुत ही शान से मरना है तो व्हिस्की पीकर मर जा । और मरना भी चाहता है और धार्मिक भी कहलाना चाहता है तो संथारा कर ले ।

हमारी बात का उत्तर न देकर तोताराम ने एक बहुत ही मौलिक प्रश्न उठाया- यार, एक तरफ सरकार जनसंख्या कम करने की बात कहती है, महँगाई के बारे में हाथ खड़े कर रही है तो थोड़ा सा प्रेक्टिकल हो जाए और थोड़ा सा खर्चा करके विदेशों से कोई फटाफट और कम कष्ट से मृत्यु देने वाली तकनीक मँगवा कर लोगों को इच्छा-मृत्यु प्रदान कर दे । सरकार की भी समस्याएँ दूर हो जाएगी और लोगों को भी भव-सागर के इन कष्टों से छुटकारा मिलेगा ।

हमने कहा- भैया, इसमें भी कई लोचे हैं । मारने की दवा मँगवाएँगे तो उसमें भी कोई मंत्री गठबंधन करके घोटाला कर देगा, पैसे भी लग जाएँगे और लोग मरेंगे भी नहीं । प्रदूषण और गंदगी में जीने वाले भारतीयों पर कोई साधारण ज़हर असर भी तो नहीं करेगा । तब फिर तुम गठबंधन सरकार को बदनाम करोगे । और फिर तू चाहे कितनी भी अपनी सरकार की अलोचना कर मगर अपनी यह सरकार इतनी दयालु है कि जनता को किसी भी हालत में मरने नहीं देना चाहती ।

तोताराम बोला- मरने नहीं देना चाहती तो जीने लायक स्थितियाँ प्रदान करे । यह क्या - न दवा, न खाना, न सुरक्षा और मरने पर भी पाबन्दी ।

हमने कहा- सरकार दोनों ही बातें चाहती है ।

तोताराम ने आश्चर्यचकित होकर कहा- यह क्या विरोधाभाषी बात हुई ?

हमने कहा- यह इस प्रकार कि यदि गरीब जनता मर गई तो किसके नाम से नरेगा, बी.पी.एल., सब्सीडी, वृद्धावस्था पेंशन आदि योजनाएँ और बजट बना कर पैसे खा पाएँगे ? और जीने लायक स्थितियाँ बन जाएँगी तो बजट किस बहाने से बनाएँगे ? पैसे वालों को सस्ते नौकर, उद्योगपतियों को सस्ते मज़दूर और सरकार को सस्ते वोट कैसे मिलेंगे ?

तोताराम कहने लगा- तो अब समझले कि सरकार की इस दयालुता से रोमांचित होकर मैं मर गया हूँ ।

हमने कहा- तो फिर बोल कैसे रहा है ?

तो कहने लगा- अभी ताज़ा-ताज़ा ही मरा हूँ ना । थोड़ी देर में बोलती भी बन्द हो जाएगी ।

८-३-२०११

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Mar 7, 2011

कुड़क मुर्गियों का लोकतंत्र


(बिहार के कोसी जिले के ५० किसानों ने शिकायत की है कि कृषि तकनीक और प्रबंधन एजेंसी के माध्यम से सरकार द्वारा सब्सीडी पर दी गई मुर्गियाँ खाकर मोटी हो गईं मगर अंडे नहीं दिए । इसी तरह पहले सरकार द्वारा दिए गए मक्का और गेहूँ के बीजों से उगाए गए पौधों में बालियों में दाने नहीं बने – २३-१-२०११)

आज तोताराम आया तो बड़ा परेशान था । कई देर तक पूछने पर बोला- यार, हद हो गई । मुर्गियाँ खाकर मोटी तो हो गईं मगर अंडा एक ने भी नहीं दिया । क्या ज़माना आ गया है ?

हमने उत्सुकता से पूछा- क्या तुमने अब मुर्गियाँ भी पालनी शुरु कर दीं ?

झुंझुलाकर कहने लगा- अरे भले आदमी, मैंने नहीं । मैं तो बिहार का एक समाचार बता रहा हूँ ।

हमने कहा- तो क्या हुआ ? मुर्गियाँ भी तो कभी-कभी छुट्टी लेती हैं । क्या सारे साल ही अंडे देती रहेंगी ? कोई भी मुर्गी साल में ३६५ अंडे नहीं देतीं । एक आध महिने कुड़क रह कर फिर अंडे देना शुरु कर देंगी ।

तोताराम ने उत्तर दिया- अब क्या अंडे देंगी ? तीन-चार महिने से दाना खाकर मोटी हो गई हैं मगर अंडे देने का नाम ही नहीं ले रही हैं ।

हमने कहा- इतना भड़क क्यों रहा है ? सारी बात खोल कर बता ।

कहने लगा- बिहार के कोसी जिले में ५० किसानों को किसी एक 'कृषि तकनीक और प्रबंधन संस्थान' ने सरकारी सब्सीडी पर मुर्गियाँ दी थीं । वे कई महिनों तक दाना खाकर मोटी तो हो गईं हैं मगर अंडे नहीं दे रही हैं ।

हमने कहा- भैया, इन सरकारी और तकनीकी मुर्गियों का यही हाल होता है । इसमें यह हुआ होगा कि २५% नेता जी ने खा लिया होगा, २५% संस्थान वालों ने, २५% नई प्रकार की मुर्गियाँ बनाने वाले किसी विदेशी संस्थान ने और २५% किसान को सब्सीडी दी गई दिखा दी । हो गया १००% का हिसाब । अब मुर्गियाँ कहाँ से अंडे देती ? इससे पहले भी यह हो चुका है कि आन्ध्र प्रदेश के किसानों ने कपास का विदेशी बीज इस्तेमाल किया मगर उसमें टिंडे ही नहीं बने । विदेशी कीटनाशक उपयोग किया तो कीड़े तो मरे नहीं पर बची-खुची फसल ज़रूर मर गई । मज़बूर होकर किसानों ने आत्महत्या कर ली ।
अरे, पहले जब अपने बीज और अपने कीटनाशक और अपनी मुर्गियों के अण्डों से मुर्गियाँ तैयार करते थे तो कभी यह नौबत नहीं आती थी । अब भुगतो नई विदेशी तकनीक का परिणाम । कमीशन खाने वालों ने तो कमीशन खा लिया । अब अंडे नहीं देतीं तो मुर्गी पालक इन मुर्गियों को ज़ल्दी से ज़ल्दी काट कर खा लें वरना तो और खर्चा बढ़ता जाएगा । मुर्गियों को तो अंडा न कल देना था और न आज । तुझे पता है इस देश में तीन साल पहले बर्ड फ्लू के नाम पर ४०-५० लाख मुर्गियाँ मार दी गई थीं । अब ब्रिटेन वाले कह रहे हैं कि उन्होंने ऐसी मुर्गी विकसित कर ली है कि उसे बर्ड फ्लू नहीं होगा । अब मँगवाओ वहीं से नई तरह की मुर्गियाँ । बीज बाहर के, कीटनाशक बाहर के, चूजे बाहर के- लगता है हम अब इतना करने के काबिल भी नहीं रहे ।

वैसे लोकतंत्र में नेता ही नहीं मुर्गियाँ भी बदमाश हो गई हैं । नेता हराम का खूब खाते हैं मगर सेवा के नाम पर घोटालों के अलावा कुछ नहीं । इससे पहले भी तो बिहार में लालू जी के ज़माने में आठ सौ रुपए दिन का दाना खाने वाली मुर्गियाँ हुआ करती थीं । उन्होंने भी कई महिनों तक खाना खाया, मोटी हो गईं और जब अंडा देने का समय आया तो फटाक से मर गईं । अंडा देना तो दूर की बात उन्हें फिंकवाई के पैसे और लगे । अब नीतीश जी की बारी है तो भले ही मुर्गी आठ सौ रुपया रोज का न खाए मगर अंडा देने से तो मना कर ही सकती हैं । लोकतंत्र में जब आतंकवादियों तक के मानवाधिकार हैं तो क्या मुर्गियों को इतना भी अधिकार नहीं कि इस स्मार्ट युग में अंडे न देकर अपनी फिगर सलामत रख सकें ।

और जब एक पंच से लेकर प्रधान मंत्री तक अपने वेतन भत्तों और कुर्सी के लिए ही चिंतित हैं तो फिर इन बेचारी मुर्गियों के ही पीछे क्यों पड़ा है ? हो सकता है, इन्होंने भी मुक्त बाज़ार में किसी से गठबंधन कर लिया हो । और फिर गठबंधन की मज़बूरी तो तू जानता ही है । गठबंधन के सामने यह मुर्गी तो क्या, प्रधान मंत्री तक मज़बूर हैं ।

जिसको अपने जीवन, रोजगार, भले-बुरे की चिंता है उसे खुद ही सोचना और समझदार बनना होगा । न तो इन नेताओं से कुछ होने वाला है और न ही इस मुक्त बाज़ार से । इन्हें 'दुनिया मुट्ठी में' करनी है तो बस अपने लिए । और लोग हैं कि समझते हैं कि दुनिया उनकी मुट्ठी में आने वाली है । बेचारे भोले लोग ।

समझ ले मोटी मुर्गियाँ अंडे देने के लिए होती ही नहीं हैं । वे तो केवल देखने-दिखाने के लिए होती हैं । दुबली-पतली मुर्गियाँ ही अंडे देती हैं । नेताओं को देखा नहीं ? खा-खाकर मोटे हुए रहते हैं मगर किसी के ज़रा से भी काम आने के नाम पर जी निकलता है । दुबला-पतला गरीब आदमी तो फिर भी किसी के लिए कुछ करने के लिए तैयार हो जाता है । यही हाल इन मोटी मुर्गियों का है । हजारों नेताओं पर केस चले, क्या किसी का कुछ बिगड़ा ? क्या किसी से घोटाले का एक रुपया भी निकलवाया जा सका ? तो इन मुर्गियों से भी कोई अंडा निकलने वाला नहीं है । मुर्गीपालकों को चाहिए कि इन्हें काट-कूट लें ।

तोताराम कहने लगा- बंधु , मुर्गियों का और किसानों का तो पता नहीं कुछ होगा या नहीं मगर मैं तुम्हारे भाषण से ज़रूर हलाल हो जाऊँगा । हो सके तो 'लोकतंत्र का कुड़क मुर्गी पुराण' बंद कर और दो घूँट चाय पिलवा दे ।

२४-१-२०११

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Mar 4, 2011

कहाँ नहीं है लीद उठाने वाले ?


( सन्दर्भ- गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल जानवरों के पीछे-पीछे कुछ लीद उठाने वाले भी चलते हैं । कई पत्रकारों ने प्रश्न उठाया- क्या वे भी गर्व की अनुभूति करते है ? २५-१-२०११ )

सबसे पहले हम स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस के समाचार अगले दिन अखबारों में पढ़ा करते थे । उसके बाद जब १९६२ में रेडियो ख़रीदा तो रेडियो पर आँखों-देखा हाल सुना करते थे और उसके बाद कुछ वर्षों टी.वी. पर भी देखा । अब पता नहीं, क्यों यह प्रोग्राम बोर लगने लगा है ? पर इतने वर्षों तक इन कार्यक्रमों को देखने-सुनने के दौरान न तो कभी कमेंट्री देने वालों ने बताया और न ही कभी हमें टी.वी. में जुलूस में चलते हाथी, घोड़े और ऊँट मल-त्याग करते नज़र आए और न ही कभी उनके पीछे सफाई करने वाले चलते नज़र आए । अब चूँकि मीडिया कुछ ज्यादा ही लोकोन्मुख और सूक्ष्मदर्शी हो गया है कि उसे ऐसी महत्त्वपूर्ण चीजों के अलावा और कुछ नज़र ही नहीं आ रहा है । कई अखबारों का तो यह हाल है कि वे यही देखते और दिखाते हैं कि किस फैशन शो में किस माडल की ड्रेस खिसक गई । और किसी अभिनेत्रियों का जनरंजन में इतना व्यस्त हो जाना भी आश्चर्यचकित करता है कि वह पेंटी पहनना ही भूल जाती हैं । और खोजी पत्रकार भी यही खोजबीन करते रहते हैं कि कौन क्या पहन कर आया है या कौन क्या नहीं पहन कर आया है ?

हम लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ के विकास के बारे में सोच ही रहे थे कि तोताराम आ गया । हमने पूछा- तोताराम, क्या तुझे गणतंत्र दिवस के सीधे प्रसारण में हाथी, ऊँट और घोड़े राजपथ पर लीद करते नज़र आए और क्या उनके पीछे उनका मल उठाने वाले भी चल रहे थे ? कुछ पत्रकार ऐसे समाचार लाए हैं और उन्होंने प्रश्न उठाए हैं कि क्या इन लीद उठाने वालों को भी देश के लोकतंत्र-दिवस पर गर्व की अनुभूति हो रही थी ?

तोताराम कुछ दार्शनिक हो गया, कहने लगा- इस संसार में सब कुछ है । और सब यथासमय सब कुछ करते ही हैं । अब जिसको जो देखना है उसे वही दिखाई देगा । और जो वह देखना चाहता है, वह यदि नहीं भी होगा तो वह उसे देखा लेगा । अरे भई! हाथी, ऊँट या घोड़ा कोई भी हो, जब खाएगा तो उसे, यदि कब्ज की बीमारी नहीं है तो, सवेरे मल-त्याग की ज़रूरत तो पड़ेगी ही । इसमें नई बात क्या है ? जब तुम सवेरे पाँच बजे ही इन जानवरों को परेड के लिए उठा लाओगे और राजपथ पर घुमाते रहोगे तो ये कब तक खुद को रोके रखेंगे । लीद-मींगणे कुछ तो करेंगे ही । इसमें क्या नई और विचित्र बात है । पत्रकार कौन-सा तीर मार लाए ? और सभी पशु पालक सवेरे-सवेरे पशुओं के ठाण की सफाई भी करते ही हैं । अब यदि ये पशु राजपथ पर चल रहे हैं और वहाँ सफ़ाई की जरूरत है तो उसी समय नहीं करेंगे तो दोपहर को करेंगे । सफाई तो करनी ही है ।

हमने कहा- वह बात नहीं है ? हम तो पत्रकारों द्वारा उठाए गए उस प्रश्न के बारे में सोच रहे थे कि लोकतंत्र के साठ बरस बाद भी क्या कुछ लोग लीद ही उठाते रहेंगे ?

तोताराम बोला- साठ क्या, साठ हजार बरस हो जाएँ, सभी लोग तो प्रधान मंत्री बन नहीं सकते । किसी भी जाति का, कोई भी व्यक्ति उठाए इससे क्या फर्क पड़ता है ? कूड़ा, गंदगी उठना ही है । हाँ, यह कहा जा सकता है कि देश में कोई भी, कुछ भी काम करने वाला हो उसके जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य होनी चाहिए और उसे भी एक मानवीय-गरिमापूर्ण जीवन मिलना चाहिए । यदि तुझे या तेरे इन पत्रकारों को ज्यादा ही इस देश की फ़िक्र है तो देश के उस नेतृत्त्व से मुक्त होने के बारे में सोचो जो योरप-अमरीका रूपी नवाबों का पीकदान सँभाले हुए है और उनके पीछे टोकरा लेकर उनकी लीद बीन कर धन्य हो रहा है ।

हमने कहा- तोताराम, इतनी तो बेइज्ज़ती मत कर । देखो, फ़ोर्ब्स की सूची में हमारे कितने सेठों के नाम आते हैं । हमारी अर्थव्यवस्था नौ प्रतिशत वृद्धि को छूने वाली है ।

तोताराम कहने लगा- लीद का शाब्दिक अर्थ मत ले । इसकी व्यंजना को समझ । इस देश का पिछले पाँच हजार वर्ष का इतिहास पढ़ेगा तो पता चलेगा कि हमने चिंतन, मनन और ज्ञान के क्षेत्र में कितनी ऊँचाई हासिल की थी ? और अब हाल यह है कि यदि हमारी नाक बह रही हो तो कई अधिकारी और मंत्री यह पूछने अमरीका जाएँगे कि इस नाक को ऐसे ही बहने दें या पोंछें या यदि मुँह में जा रही हो तो जाने दें ? और फिर वहाँ से मोटी फीस लेकर विशेषज्ञ आएँगे और हमें सही तरीका बताएँगे ।

महात्मा गाँधी तो स्वराज्य प्राप्त करने का तरीका मालूम करने के लिए हार्वर्ड नहीं गए । लाल बहादुर शास्त्री जी ने तो देश में अनाज की कमी दूर के लिए किसी कोंडोलीज़ा राइस से राय नहीं माँगी । नेहरू जी ने तो आइजनहावर से नहीं पूछा कि हमारे देश में गेहूँ की कमी है तो क्या उपाय करें ? सरदार पटेल ने तो देसी रियासतों की समस्या से निबटने किसी महाशक्ति का मुँह नहीं ताका । अन्ना हजारे, बाबा आमटे, बाबा आठवले, सुन्दरलाल बहुगुणा ने अपने मार्ग स्वयं तलाशे हैं । किसी के पीछे चलने वाले अधिक से अधिक किसी बड़ी कंपनी में बड़ी तनख्वाह की नौकरी पा सकते हैं मगर किसी को कोई रास्ता नहीं दिखा सकते । वे पैकेज रूपी लीद बटोरते रह सकते हैं । और यह भी तय है कि पीछे चलने वाले हमेशा तनाव में रहते हैं कि वह गधा या घोड़ा जिसके पीछे वे चल रहे हैं पता नहीं, कब लात मार दे । ऐसे लीद बटोरने वाले प्याज भी खाते हैं और जूते भी खाते हैं ।


अमरीका में जिस कोकाकोला को हानिकारक माना जाता है हम उसे बड़ी शान से दूध से भी ज्यादा पैसा देकर पीते हैं और स्वास्थ्यप्रद छाछ, शिकंजी को हिकारत की नज़र से देखते हैं । फास्ट फूड के नाम पर पिज्जा, बर्गर, ब्रेड खाते हैं जब कि सत्तू से बढ़कर कोई पौष्टिक फास्ट फूड नहीं है । छः दशक के बाद भी हमारे पास ऐसी एक भाषा नहीं है जिसको सारा देश समझ सके औए आपस में संवाद कर सके । आज भी यह देश भाषा और संस्कृति के नाम पर मैकाले की लीद ही तो बटोर रहा है । पश्चिम की विकृतियों की देखादेखी यहाँ भी समलैंगिकता, लिव-इन-रिलेशनशिप, तलाक, देह-प्रदर्शन, अश्लीलता आदि का मीडिया, सिनेमा आदि में बढ़ता प्रचार - लीद उठाने से ज्यादा और क्या है ? अपनी गायों, अपने बीजों, अपनी तकनीकी को विकसित नहीं करना और अमरीका और योरप की पुरानी तकनीकी का यहाँ आयात करना और परिणामस्वरूप पिछड़ते जाना और हमेशा उन पर निर्भर बने रहना- मैं तो कहता हूँ लीद उठाना क्या, लीद खाने से भी बुरा है ।

अरे मास्टर, हाथी, ऊँट और घोड़े की लीद तो फिर भी किसी न किसी काम की होती है मगर यह बाहर से आ रही वैचारिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक लीद तो बेकार ही नहीं बल्कि हानिकारक भी है । पता नहीं, इसमें उनका कौनसा खतरनाक वैज्ञानिक परीक्षण हो सकता है, कोई षडयंत्र हो सकता है । पर बंधु, जब किसी देश में मानसिक रूप से दिवालिया, नपुंसक और बिका हुआ नेतृत्त्व होता है तो यही होता है ।

हमने झेंप मिटाने के लिए कहा- कुछ भी हो तोताराम, पर इस देश में लोकतंत्र तो है ही ।

तोताराम बोला- यदि यही लोकतंत्र है कि गुंडे चुने जाते रहें, चोर, डाकू, बलात्कारी सब निर्भय हों, नेता जनता का पैसा खाकर स्विस बैंक में जमा कराते रहें, साधारण लोग जाति- धर्म के नाम पर लड़ते रहें, बच्चों को पौष्टिक भोजन तो दूर दाल-रोटी भी न मिले तो तुम्हीं को मुबारक हो । यदि पति भले ही धेला न कमाए, नपुंसक हो, शराबी हो, पत्नी को पीटता भी हो फिर भी पत्नी उसके जीवित रहने मात्र से अपने को सौभाग्यवती मान कर खुश होती रहे तो फिर कुछ कहने-सोचने की ज़रूरत ही क्या है ? लीद उठाओ, लीद खाओ और डर के मारे लीद करते रहो ।

हमारे पास कोई उत्तर नहीं था ।

२७-१-२०११

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