Jul 23, 2009

माया ही माया

भैन जी,
जय हो । भले ही कुछ लोग 'जय हो' के गाने गाकर, कुछ देर जय की खुशी मना लें पर सच्ची जय तो साहस करनेवालों की होती है । आपने निरंतर साहस दिखाया तो आज इस पद पर हैं तथा और भी आगे बढ़ती जायेंगी । डर-डरकर राजनीति नहीं होती । जनता का स्वभाव तो स्त्री जैसा होता है । वह साहसी को ही जयमाला पहनाती है ।भले ही विरोधी जानबूझकर सहमत न होने का नाटक करें पर अन्दर से वे भी इंदिरा गाँधी को उनके साहस के कारण ही मानते हैं । हेनरी किसिंगर और निक्सन भले ही कुढ़कर अकेले में इंदिरा गाँधी को गाली निकालते थे पर अन्दर से उनके साहस के कायल थे । इसी गुण के कारण अटल जी ने उन्हें दुर्गा कहा था । आज लोग भले ही आपकी नुक्ता-चीनी करें पर अन्दर से आपसे खौफ खाते हैं । किसलिए- आपके साहस के कारण । पिछले चुनावों में कई लोगों के मन में प्रधानमंत्री बनने की हूक उठी हो पर अपनी इच्छा साफ़-साफ़ ज़ाहिर करने का साहस केवल आपने ही दिखाया । वोट बैंक बनाया तो डंके की चोट पर, लोगों को चार-चार जूते मारकर । यह नहीं कि रिरियाते रहे ।

आज लोग अपनी मूर्तियाँ लगवाने के लिए अपनी आलोचना करते हैं पर अन्दर-अन्दर अपनी ख़ुद की मूर्तियाँ लगवाने के लिए तरसते हैं । अरे. अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, धर्मेन्द्र, वसुंधरा के मन्दिर बन गए ।लालू, राबड़ी के चालीसा लिखे गए तो आप क्या इनसे कम हैं । लालू ने अपना चालीसा लिखनेवाले को साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बना दिया तो क्या यह अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना नहीं है ? लोग बिना बात का नाटक करते हैं । मन-मन भावे, मूण्ड हिलावे ।

कबीर जी ने कहा है - काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । सो जो मूर्ति कल लगनी है, वह आज क्यों न लग जाए । शुभस्य शीघ्रम् । बाद में पता नहीं पीछे वाले मूर्ति लगवाएँ या नहीं और लगवाए भी तो पता नहीं कैसी । और किसे पता मूर्ति लगवाए बिना ही सारा पैसा खा जाएँ । बिहार में न भैंसें आयीं, न चारा चरा पर बिल सारे पूरे बन गए । अपने यहाँ तो यदि वृद्ध माता-पिता को यह शंका हो कि सुपुत्र मरने के बाद उनका खर्च-द्वादशा ढंग से करेगा या नहीं तो वे अपना जीवित खर्च कर जाते हैं । हमारे गाँव में एक पंडित जी के साथ यही स्थिति थी सो जब उनका सुपुत्र जब किसी गाँव गया तो पीछे से उन्होंने अपना खर्च करने का प्लान बनाया । पर पता नही, सुपुत्र को कैसे ख़बर लग गई सो उसने जीमने आए ब्राह्मणों को गाली निकाल कर भगा दिया । इस प्रकार पिता का अपने सामने ही खर्च बिगड़ गया । बाद में ख़ुद ही सबके घर-घर जाकर परोसा दे-देकर आए । सो अपना हाथ जगन्नाथ ।

भई, निर्गुण, निराकार, निष्काम, सच्चा तटस्थ तो ब्रह्म ही है । बाकी जो नज़र आता है वह तो माया ही माया है । जिसके भी मन में झाँकोगे उस में न राम होगा न रहीम, न माँ होगी न बाप, न भाई न बहन, न यार न दोस्त, सबके मन मन्दिर में माया की ही मूर्ति विराजमान मिलेगी । इसलिए यदि संसार में आगए हैं तो ब्रह्म का झूठा नाटक नहीं करना चाहिए । ठीक है गाँधी जी महान थे, देश को आजाद करने में उनका बड़ा योगदान है पर क्या वे पूरी तरह से माया-मोह से परे थे ? जब उनके उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया हार गए तो गाँधीजी बर्दाश्त नहीं कर पाये । रही बात गाँधी जी की सादगी की । सो क्या उनके लिए ही देश में कपड़े की कमी थी । तभी तो अंग्रेजों को उनको डंडे मारने का साहस हो गया । सादगी के कारण कलाम साहब का क्या हाल कर दीया कोंटीनेंटल एयर लाइन वालों ने । अगर दस-बीस बंदूक वाले साथ होते तो किसकी मजाल थी कि आँख भी उठा लेता । और अगर आप होतीं और साथ में मुकुट और सिंहासन होता तो एक बार तो ऊपरवाला भी हट कर खड़ा हो जाता । अरे, अगर भगवान ने पद और रुतबा दिया है तो उसके अनुसार तो रहो । यह क्या कि भिखारियों जैसा भेस बना रखा है । न अपनी इज्ज़त का ख्याल है और न एक सौ बीस करोड़ की जनसंख्या वाले महान लोकतंत्र का ।

ब्रह्म के अलावा जब सब कुछ नाटक ही है तो फिर नाटक को ढंग से करने में क्या बुराई है । एक कवि ने कहा है- जिंदगी एक नाटक है, हम नाटक में काम करते हैं । हमारे हिसाब से इस दुनिया में सब नाटकबाज़ हैं । तो फिर नाटक न करने का नाटक करने से क्या फायदा । नाटक करें, जम कर करें । भले ही औरत को आदमी का और आदमी को औरत का पार्ट करना पड़े या फिर जियो-जियो रे लला वाला ।

२२-७-२००९

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Jhootha Sach

Jul 22, 2009

तोताराम के तर्क - कलाम साहब की सुरक्षा तलाशी


आज हमें बड़ा क्षोभ हो रहा था । आते ही तोताराम का कोर्ट मार्शल कर दिया- हद हो गई तोताराम, ये अमरीका वाले अपने आप को समझते क्या हैं । सब धान बाईस पंसेरी । न आदमी देखते हैं, न मौका । यहाँ हम हिलेरी के स्वागत को लेकर हिले जा रहे थे और इन्होंने हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान को ही हिला कर रख दिया । आतंकवादी तो सँभाले नहीं जाते और कलाम जैसे भले आदमी का जुलूस निकाल दिया । अरे, और कुछ नहीं तो कम से कम उनकी उम्र का तो ख्याल किया होता । छोटे-मोटे राजदूत के साथ भी ऐसा नहीं किया जाता । ये तो भारत के पूर्व राष्ट्रपति और संसार के आदरणीय वैज्ञानिक भी हैं ।

तोताराम बोला- ज़्यादा उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं है । तूने तो ख़बर आज पढ़ी है पर यह घटना तो ठीक तीन महीने पुरानी है । तिस पर साहब ने कोई शिकायत भी नहीं की ।

हमने कहा- यह तो कलाम साहब की सज्जनता है । वे उस दो पैसे के आदमी के क्या मुँह लगते । पर नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल को तो यह सूचना मिल गई थी कि एयर लाइन के अदने से कर्मचारी ने और वह भी कलाम साहब का परिचय मिलने पर भी उनकी तलाशी ली है फिर भी उन्होंने कार्यावाही नहीं की । इसका क्या मतलब है ?

तोताराम ने हमें समझाया- देखो। ज़ल्दी का काम शैतान का होता है और अपने पटेल जी शैतान थोड़े ही हैं तिस पर प्रफुल्ल भी, इसलिए छोटी-मोटी घटनाओं से अपनी प्रफुल्लता को क्यों त्यागते । मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि गुस्सा आए तो कोई कार्यवाही करने से पहले एक गिलास ठंडा पानी धीरे-धीरे पीओ या फिर दस तक गिनो । तलाक़ के मामले में भी कहा गया है कि तीन महीने का ब्रेक लगाओ, हो सकता है कि तुम्हारा निर्णय जल्दबाजी में हो और इस अवधि में तुम्हारा विचार बदल जाए । हो सकता है, पटेल साहब दस तक गिन रहे हों ।

हमने कहा- क्या दस गिनने में तीन महीने लग जाते हैं ?

तोताराम बोला- तीन महीने क्या तीस साल लग सकते हैं, देखते नहीं, पाकिस्तान को जवाब देने के लिए भारत की अब तक दस तक की गिनती कहाँ पूरी हुई । और फिर उस समय चुनाव भी तो चल रहे थे । बिना बात स्टेटमेंट देकर क्यों रिस्क लेते । क्या पता ऊँट किस करवट बैठता । यह तो मरे हिन्दी के एक अख़बार ने ख़बर उछाल दी वरना अब भी मामला दबा ही पड़ा था ।

हमने कहा- लेकिन बात थी तो महत्वपूर्ण तभी तो सारा सदन एक साथ बोल पड़ा ।

तोताराम ने कहा- सदन कोई एकमत नहीं है । यह तो एक प्रकार से संप्रग को लताड़ने का मौका मिल गया वरना जब अडवाणीजी और फर्नांडीज के कपड़े उतरवाए थे तब इनकी मर्दानगी कहाँ गई थी । अरे, जब लन्दन में गाँधी जी को कहा गया कि उन्हें ब्रिटेन के सम्राट से मिलने के लिए विशेष दरबारी पोशाक पहननी पड़ेगी तो गाँधी जी ने कहा कि यदि सम्राट इसी पोशाक में मिलना चाहते हैं तो ठीक है वरना मुझे मिलने में कोई रूचि नहीं है । और गाँधीजी अपनी उसी आधी धोती में सम्राट से मिले ।

तोताराम बोलता चला गया - तेरी बात ठीक हो सकती है पर समय पर कोई कुछ बोले तो सही । सोमनाथ दादा ही अच्छे जिन्होंने आस्ट्रेलिया जाना छोड़ दिया पर तलाशी नहीं दी । और फिर भइया, अमरीकावाले बुश पर चलने के बाद सबसे ज़्यादा जूतों से ही डरे हुए हैं । अमरीका एक और जूते चलानेवाले अनेक - क्या ईराक, क्या अफगानिस्तान, क्या ईरान, क्या तालिबान ।

और फिर कोंटीनेंटल एयर लाइन वाले ने माफ़ी माँग तो ली । वैसे आल इंडिया रेडियो ने तो इस माफ़ी का समाचार तक नहीं दिया और तू वैसे ही हलकान हुआ जा रहा है ।

२२-७-२००९

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Jul 15, 2009

तोताराम के तर्क - जय हो


आज तोताराम आया तो उसकी सजधज कुछ निराली ही थी । सिर पर चूनड़ी का साफ़ा, धुला प्रेस किया कुरता पायजामा, माथे पर टीका और कलाई पर मोटा सा कलावा बँधा था । हम कुछ समझ नहीं पाये । आते ही तोताराम उछल कर चबूतरे पर चढ़ गया और देश में लोकतंत्र की दुर्दशा और उसकी रक्षा के बारे में जोशीला भाषण झाड़कर ज़ोर से चिल्लाया- भारत माता की .... ।

आगे हमें बोलना था पर हम चुप रहे । तोताराम को गुस्सा आया, बोला- जिस भारत माता ने तुझे पाल पोसकर बड़ा किया, नौकरी दी और अब पेंशन दे रही है उसकी जय बोलते हुए तेरी जुबान घिस रही है, लानत है ।

हमने कहा तोताराम बात ऐसी नहीं है पर तुझे पता है कि 'जय हो' का कापीराईट कांग्रेस ने खरीद लिया है । कोई गैरकांग्रेसी अगर उसका उपयोग करे तो पता नहीं कोई चक्कर डाल दे । मैं तो इसलिए चुप था वरना भारत माता की जय तो सारे जीवन बोली है । और फिर भइया, जब से डंकल प्रपोज़ल लागू हुआ है मैंने तो नीम की दातुन करना भी छोड़ दिया है । पता नहीं , कब कोई शिकायत करदे और बुढ़ापे में कोर्ट कचहरी का चक्कर चल निकले । और फिर आजकल भारत माता कि जय कौन चाहता है । सबको चुनावों में अपनी-अपनी जीत चाहिए । अपने बच्चों की जय चाहिए । और अब तो 'जय हो' के साथ 'भय हो' भी चल निकला है । सो 'जय हो' दूसरों की, अपने को तो सदा की तरह भयभीत ही रहना है । डरोगे तो बचोगे । जनसेवकों से डरो, धर्म के ठेकेदारों से डरो । डरोगे तो बचोगे । बस कोई भी वोट मँगाने आए तो उसमे सामने हें-हें करके गरदन हिलाते रहो ।

तोताराम बोला- तुझे पता नहीं ए. आर. रहमान ने ख़ुद कह दिया है कि 'जय हो' पर किसीका एकाधिकार नहीं है ।

हमने कहा- ए. आर. रहमान के कहने से क्या होता है । क़ानून तो उसके हाथ है जिसके हाथ में ताक़त होती है । लोकतंत्र में ताक़त वोटर के हाथ में होती है । वह चाहे तो सरकारों को उलट-पलट सकता है । वोट का राज है । मैं लोगों को जगाऊँगा । बताऊँगा कि भ्रष्ट, रिश्वतखोर, अपराधियों को वोट मत देना ।

हमने कहा- ऐसा प्रचार तो अखबारों में हो रहा है । लोग संपादक के नाम पत्र लिख रहे हैं पर वास्तव में धन, दारू और बंदूक का सहारा लेने वालों को क्या कोई रोक पा रहा है ? यदि लोकतंत्र के सेवकों को पता लग गया कि तू इस प्रकार का अलोकतांत्रिक कृत्य कर रहा है तो तेरे बूथ पर पहुँचने से पहले कोई बूथ लेवल का कार्यकर्ता तेरा वोट तो डाल ही जाएगा । हो सकता है कोई अतिउत्साही तेरे हाथ-पाँव ही न तोड़ दे । फिर धरी रह जायेगी तेरी 'जय हो'। तू पलस्तर बँधाए अस्पताल में होगा और उधर लोकप्रिय सरकार बन जायेगी ।

बनी-बनाई चाय छोड़ कर तोताराम 'जय हो' चिल्लाता चला गया । हम जानते है कि जय होगी तो लल्लू पहलवान की या फिर कल्लू पहलवान की । तोताराम के तो हाथ-पैर बचे रहें यही बहुत है ।

(भय हो का वीडियो देखें)

२१-४-२००९

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Jul 14, 2009

तोताराम के तर्क - ब्रह्मचारी जी का आशीर्वाद


आज तोताराम आया तो उसने अपने सिर पर गमछा डाल रखा था । हमने सोचा लू से बचने के लिए ऐसा किया होगा । पर जब उसने कई देर तक गमछा नहीं उतारा तो हमने पूछ ही लिया- यार, अब तक इस खोपड़ी को क्यों कस रखा है ? क्या यहाँ कमरे के अन्दर भी लू लग रही है ?

तो बोला- इसके नीचे मैनें ब्रह्मचारी जी का आशीर्वाद छुपा रखा है । हमने उत्सुकतावश उसका गमछा खींच लिया तो पाया कि उसके सिर पर ब्राडगेज की तरह दो समानांतर पटरियाँ उभरी हुई हैं । पूछा- चोट कहाँ लगी ? कहीं लोकतंत्र की रक्षा के लिए सिर तो नहीं फुड़वा बैठे ? बोला- नहीं, यह तो ब्रह्मचारी जी के मारे हुए चिमटे का निशान है । वे जिस पर प्रसन्न होते हैं उसके सिर पर चिमटा फटकार देते हैं । और जिस पर चिमटा पड़ जाता है वह यदि प्रधानमंत्री नहीं तो कम से कम राज्य सभा का सदस्य तो बन ही जाता है ।

हमें बड़ा गुस्सा आया । आशीर्वाद देने का यह कौनसा तरीका है ! हनुमानजी से बड़ा ब्रह्मचारी कौन होगा पर वे तो किसी को आशीर्वाद के रूप में गदा नहीं मारते । बल्कि भक्त के संकट का मोचन ही करते हैं । विवेकानंद जी भी ब्रह्मचारी ही थे पर उन्होंने तो प्रेम और कर्म का संदेश दिया । यह कैसा ब्रह्मचारी है ?

पूछा- यह वही तो नहीं है जो बुज़ुर्ग महिलाओं को हिकारत से डोकरी और युवतियों को छोकरी कहता है ? तोताराम ने हामी भरी तो हमने कहा- देखो, जो सच्चे ब्रह्मचारी होते हैं वे महिलाओं को माता-बहिन कहते हैं ,बुढ़िया या गुड़िया नहीं कहते ।

तोताराम ने सफाई दी- फक्कड़ संत ऐसे ही होते हैं । वे अपने व्रत को निभाने के लिए महिलाओं से कोई रिश्ता नहीं जोड़ते । इस प्रकार के संबोधनों से वे महिलाओं से एक दूरी बना कर रखना चाहते हैं ।

हमने कहा- हमें तो ऐसा ब्रह्मचर्यव्रत आरोपित और हठयोग जैसा लगता है । यदि व्यक्ति ब्रह्मचर्य धारण करके सहज नहीं रह सके तो उसे फिर गृहस्थ बन जन चाहिए । तब व्यक्ति सहज हो जाता है। और कई ऐसी ही ब्रह्मचारिणियों को देख ले । वे कौनसी इससे कम हैं । वे भी ऐसे ही बोलती हैं जैसे कि सामने वाले को अभी झाड़ू मार देंगीं । कई लोग बड़े-बड़े सपनों के चक्कर में टाइम निकल देते हैं, बाद में कोई जुगाड़ नहीं बैठता तो ब्रह्मचर्य का नाटक करने लग जाते हैं । तुझे इन चक्करों की क्या ज़रूरत है ? आराम से पेंशन ला, शान्ति से घर में बैठ और राम-राम कर ।

पर तोताराम ने सीधे-सीधे हमारी बात नहीं मानी । बोला- चुनाव परिणाम आने तक तो इस आशीर्वाद को कायम रखता हूँ । इसके बाद जैसी परिस्थिति होगी कर लेंगे । क्या पता चांस लग ही जाए ।

हमने कहा- तेरी मर्जी । पर याद रख, तुझे कोई घास डालने वाला नहीं । बोली लगेगी भी तो जीते हुए एम.पी.यों की । ये जो अमरीका के राजदूत दिल्ली और हैदराबाद के चक्कर लगा रहे हैं, ये जो कारपोरेट जगत सक्रिय हो रहा है, ये जो काले धन वाले कवायद कर रहे हैं ये तोताराम के लिए नहीं वरन जीते हुए जनसेवकों की बिकाऊ आत्माओं के लिए कर रहे हैं । तुझ जैसे लोग केवल चिमटा खाने के लिए ही होते हैं । रही बात ड्रेसिंग करवाने की सो आज नहीं तो दो चार दिन बाद करवा लेना । पर अच्छा हो, कोई एंटीबायोटिक ही ले ले वरना यदि सेप्टिक हो गई तो तेरा सिर ही काटना पड़ेगा ।

१४-५-२००९

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Jul 12, 2009

तोताराम की क्षमा-याचना

तोताराम के साथ कल की मीटिंग चबूतरे पर ही हुई थी । पत्नी के घुटनों में दर्द था । हमने चबूतरे पर से ही आवाज़ लगाई थी- चिक्की की दादी, ज़रा दो कप चाय तो दे जाना । पर उत्तर नहीं आया । उसका इन्फ़्रास्ट्रकचर भी अब पैंसठ साल पुराना हो चुका है सो हमारी आवाज़ उसके एंटीना ने नहीं पकड़ी । फिर थोड़ा ज़ोर से आवाज़ लगाई तो उत्तर आया- आप ख़ुद ही आकर ले जाओ । तभी तोताराम को जाने क्या दौरा पड़ा, बोला- तू इस घर के मंत्री मंडल का सबसे कमजोर सदस्य है । तेरा इतना भी पावर नहीं कि तेरी एक आवाज़ पर दो कप चाय भी आ जाए । और उठकर चला गया ।

तोताराम के साथ हमारा कम से कम साठ साल पुराना रिश्ता तो है ही । हँसी मजाक भी चलते रहते हैं । आज जाने उसे क्या हो गया कि इतनी घटिया बात कह गया । इसकी तो रसोई तक पहुँच है, ख़ुद जाकर भी तो चाय ला सकता था । न हम प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह हैं और न यह प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग लाल कृष्ण अडवानी है । कौन सी हमारी जायदाद बँट रही थी । रात भर मन बैचैन रहा । ठीक से नींद भी नहीं आई ।

सवेरे अख़बार पासमें रखे चबूतरे पर बैठे, पढ़ने का मन ही नहीं हो रहा था । तभी पास से आवाज़ आई- भाई साहब, अगर मेरी बात से आपको कष्ट हुआ हो तो मैं क्षमा माँगता हूँ । हम तो भरे बैठे ही थे, उबल पड़े- दो मिनट इंतज़ार नहीं कर सकता था या अन्दर जाकर ख़ुद चाय नहीं ला सकता था? तेरी भाभी के घुटनों में परसों से दर्द है । रसोई में आकर चाय ले जाने को कह दिया तो कौन सी आफ़त आगई ? कुछ कहने से पहले सोच तो लेता ।

और फिर क्षमा माँगने का यह कौन सा कूटनीतिक स्टाइल चुना है ? 'अगर कष्ट हुआ हो तो..... । क्षमा माँगने वाला अपनी भूल समझकर जब दुखी होता है तो स्वयं अपनी आत्मा की शान्ति के लिए प्रायश्चित स्वरुप क्षमा माँगता है । इसलिए क्षमा कभी अगर-मगर के साथ नहीं होती । क्षमा याचना आत्मविश्लेषण के बाद पश्चाताप-विगलित मन का गंगा-स्नान है तो धन्यवाद कृतज्ञ मन की पुण्य-प्रणति । वैसे यदि कोई व्यक्ति अभिमानी है तो उसकी क्षमा तभी पूर्ण होती है जब वह अपने अभिमान को व्यक्त और अव्यक्त रूप से मार नहीं देता ।

इसके लिए अंगद द्वारा रावण को सुझाये गए क्षमा के तरीके से समझा जा सकता है । अंगद कहता है-
दसन गहहु तृण कंठ कुठारी । परिजन सहित संग निज नारी ॥
सादर जनक सुता करि आगे । एहि विधि चलहु सकल भय त्यागे ॥

प्रणतपाल रघुवंस-मणि त्राहि-त्राहि अब मोहि ।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि ॥

अब आज के प्रसंग में रावण कौन है और राम कौन ? तू जाने ।

राजनीति के 'बांकों" की बातें अलग है । ये न तो लड़ते हैं, न मरते हैं, न मारते हैं । केवल नाटकबाजी करते हैं । आज स्वार्थ के लिए टुच्ची बातें करके कल क्षमा माँग कर फिर दूध के धुले बन जाते हैं । तुझे कुछ बोलना ही नहीं चाहिए था । अपनों को स्पष्टीकरण की ज़रूरत नहीं होती और दूसरे स्पष्टीकरण पर विश्वास नहीं करते । सो चुप ही रह । साइलेंस इज गोल्ड ।

तोताराम चाय लेने अपनी भाभी के पास चला गया । लौटा तो हाथों में चाय के दो गिलास और आँखों में वही सहज चमक । हम दोनों का कल्मष धुल चुका था ।

१९-६-२००९

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Jul 11, 2009

तोताराम के तर्क - कहो जी तुम क्या क्या खरीदोगे!

यदि 'बढ़े सो पावे' (नीलामी) वाली स्थिति होती तो हमें न तो मानव देह मिलती और न ही इस भारत भूमि में जन्म जिसमें जन्म लेने के लिए देवता तरसते रहते हैं । यह तो भगवान की फ्री गिफ्ट है जो जीव को मानव पुराने वस्त्र की तरह शरीर त्यागते ही तत्काल पुनः प्राप्त हो जाती है । शरीर भी फ्री मिला और उसके साथ दूसरे स्पेयर पार्ट्स भी फ्री में ही मिले जैसे आँख, नाक, कान, दाँत, कमर, पेट आदि ।

कमर - जिसे मुहल्ले के दादा से लेकर वित्त मंत्री तक कोई भी तोड़ सकता है, पेट - जो कभी भरता ही नहीं , आँखें - जिन्हें ज्योति कलश छलकते रहने के बावजूद अँधेरा ही अँधेरा दिखता है । दांत भी फ्री ही मिले मगर एक ही सेट । शक्तिशाली लोगों की तरह दो सेट नहीं- एक खाने का और एक दिखाने का । एक ही सेट को दिखाते रहे और उसी से लोहे के चने भी चबाते रहे । कभी-कभी नाक से भी चने चबाने पड़े । पर आज हालत ख़राब थी । दाहिने तरफ़ की ऊपर-नीचे की दोनों दाढ़ों में भयंकर दर्द । सवेरे-सवेरे बैठे कनपटी पर सेक कर रहे थे कि तोताराम आ गया ।

हमारी मुद्रा देख कर बोला- क्या अडवाणी जी तरह मुँह फुला कर बैठा है । न सही असली प्रधान मंत्री , हमारे छाया मंत्री मंडल का प्रधान मंत्री तो है ही तू । आज हमें उसकी चुहल में कोई रूचि नहीं थी । हमने धीरे से कहा- तोताराम, दाढ़ में भयंकर दर्द है ।

तत्काल तोताराम ने हमारा हाथ पकड़कर उठाया, बोला- बस इतनी सी बात? चल अभी चलकर निकलवा आते हैं । हमने कहा- तोताराम, आजकल कर्नाटक, तमिलनाडु और न जाने कहाँ-कहाँ मेडिकल की सीटें नीलाम हो रही हैं । क्या पता ऐसे ही पैसे देकर बना हुआ कोई नकली डाक्टर पल्ले पड़ गया तो दाढ़ की जगह प्राण ही निकाल लेगा । मृत्यु अटल सत्य है । कब तक बचेंगे उससे । पर पैसे खर्च करके असमय मरने की बजाय अच्छा है कि घर में बैठे-बैठे शांतिपूर्वक निशुल्क ही मृत्यु को प्राप्त हों ।

तोताराम ने हमें कई सन्दर्भ दिए, बोला- खरीद, फरोख्त और नीलामी हर युग में होती रही हैं । सतयुग में सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र ने अपने पत्नी-बच्चों को बेच दिया और ख़ुद नीलम हो गया पर उस सतयुग में भी किसी ने 'बिना गिव एंड टेक' के ज़रा सी भी मदद नहीं की । राहुल गाँधी की तरह निःस्वार्थ भाव से कलावती का कष्ट दूर करने वाला कोई भी नहीं मिला । नरसिंह राव के ज़माने में लोकतंत्र को बचाने के लिए झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सांसदों ने स्वयं को एक-एक करोड़ में नीलाम कर दिया । मारग्रेट अल्वा अपने बेटे के लिए चुनावों में पार्टी का टिकट नहीं खरीद पाई तो बेटे को देश सेवा का अवसर नहीं मिल सका । अब बेचारा घर में बैठा बोर हो रहा होगा । क्रिकेट की मंडी में खिलाड़ी नीलाम होते हैं ।

अगर एकलव्य के पास बोरी भरकर नोट होते तो द्रोणाचार्य की क्या मजाल थी कि एडमीशन से मना कर देता । अरे द्रोणाचार्य क्या, स्वयं धृतराष्ट्र उसे मनेजमेंट कोटे से प्रवेश दे देते । कर्ण अगर किसी मंत्री का पुत्र होता तो परशुराम उसे डिग्री दिए बिना ही भगा सकते थे ? लन्दन में एक लड़की ने इंटरनेट पर अपना कौमार्य नीलाम कर दिया । अमरीका में एक लड़की ने कालेज की फीस चुकाने के लिए इंटरनेट पर अपनी देह नीलाम कर दी । प्रसिद्ध ब्रिटिश माडल केट विंसलेट ने एक अस्पताल के लिए फंड जुटाने के लिए अपना 'किस' नीलाम कर दिया । अगर कांग्रेस को दस बीस सीटें कम मिलती और भा.ज.पा. को बीस-तीस ज़्यादा सीटें मिल जातीं तो संसद के सामने 'घोड़ा मंडी' का नज़ारा देखने को मिलता ।

तोताराम हमारे दर्द की चिंता किए बिना चालू रहा । हम सोच रहे थे कि इसके भाषण से होने वाले कष्ट से अच्छा तो दाढ़ का दर्द ही था । तोताराम ने आगे कहा- तू चिंता मत कर । ये घूस देकर एडमीशन लेने वाले इलाज नहीं करते । ये सब पैसे वालों के सपूत हैं । मेडिकल कालेज खोलेंगे । इलाज तो ठीक तरह से पढ़े हुए डाक्टर ही करेंगे । वोट और नोट की राजनीति करने वाले नेता भी भले इन से रिश्ता रखें पर इलाज तो ये भी वास्तविक डाक्टरों से ही करवाते हैं ।

हम भगवान का नाम लेकर तोताराम के साथ चल दिए ।

५-६-२००९

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Jul 10, 2009

तोताराम के तर्क - मास्टर की


गाँव के बीच में बरगद का एक पेड़ था जिसके नीचे गर्मियों में बैठे गाँव के बुज़ुर्ग दुनिया जहान की बातें किया करते थे । पालतू पशु भी दोपहर में इसी के नीचे बैठे सुस्ताया करते थे । पास के कुँए से लोग पानी भरा करते थे । वहीं दो चार घड़े रखे रहते-सार्वजनिक प्याऊ के रूप में । कुएँ की खेळ में जानवर पानी पी लिया करते ।

समय बदला । कुएँ बेकार हो गए । अगर कभी नल में पानी आता तो जितना लोग भरते उतना ही टोंटी न होने के कारण रास्ते में फैल कर कीचड़ फैलाता जिसमें मक्खी मच्छर संरक्षण पाते । पशु गलियों में धक्के खाने लगे । कुए की खेळ में कचरा और पोलीथिन भर गए । कुएँ के चबूतरे पर आवारा लोगों की चंडाल चौकडी दारू के पाउच पीने लगी । बरगद पर राजनीति के प्रेत लटक गए ।

शाम को तोताराम इसी रास्ते से स्कूल से घर लौटते थे । जब भी धुंधलके में इधर से गुजरते तो आवाज़ आती-मास्टर की चाहिए । तोताराम परेशान । किससे पूछे, किसको बताये । मन ही मन चिंतित । रात को अच्छी तरह नींद नहीं आती । अब तो बरगद के पास से निकलते हुए डर लगाने लगा । वाक्य अधूरा । मास्टर की.... क्या ? सोचकर थक जाते । मास्टर की क्या चाहिए ? मास्टर की जान चाहिए, मास्टर की खोपड़ी चाहिए, मास्टर की नौकरी चाहिए । क्या चाहिए मास्टर की ?

एक दिन देश, समाज की सेवा करनेवाले एक महाप्राण से पूछा तो बोले -मास्टर जी, यह 'की' हिन्दी का कारक चिह्न नहीं है जिसके आगे की संज्ञा आप ढूँढ़ रहे हैं । यह 'की' अंग्रेज़ी संज्ञा है 'चाबी' वाली । बरगद से आवाज़ लगाने वाली वह पुण्यात्मा किसी चाबी के बारे में पूछ रही है । सो उसे चाबी देकर पीछा छुड़ाओ ।


मास्टर तोताराम घर आकर सोचने लगे । उनके पास न साइकल, न स्कूटर, न गोदरेज की अलमारी, न कार, न सूटकेस , न ट्रंक । कोई चाबी नहीं । दो ड्रेसें हैं जिनमें से एक अलगनी पर या खूँटी पर और दूसरी इस नश्वर शरीर पर । घर में मात्र दो पुराने ताले पड़े थे जंग लगे जिनकी कभी साल छः महीने में ज़रूरत पड़ती थी तो घर के मेन पर लटका जाते थे । सो एक दिन -एक छेदवाली और एक चपटी दोनों चाबियाँ चुपचाप तालों समेत बरगद के पेड़ के नीचे रख आए जिन्हें कबाड़ी उठा ले गया । आवाज़ का आना फिर भी चालू रहा । मास्टर तोताराम परेशान ।

अब उन्होंने समस्या सुलझाने के लिए किसी पत्रिका के मनो-विश्लेषक को पत्र लिखा । वह विशेषज्ञ थोड़ा जनरल नालेज भी रखता था । उसने उत्तर दिया - हमारे पास आपकी बीमारी का कोई इलाज नहीं है । हाँ, 'मास्टर की' एक ऐसी चाबी को कहते हैं जिससे सभी ताले खुल जाते हैं । मास्टर तोताराम फिर चिंतित । तोताराम के पास जो दो ताले और चाबी थे उनका यह हाल कि कभी-कभी वे ताले अपनी चाबी से ख़ुद तोताराम से भी नहीं खुलते थे । फिर उन चाबियों से किसी और के ताले खुलने का तो प्रश्न ही नहीं था ।

एक दिन मास्टर तोताराम को अचानक याद आया कि उन्होंने कभी एक फ़िल्म देखी थी जिसमें हीरो एक चाबी रखता था जिससे घुमा फिरा कर वह सारे ताले खोल लेता था । तोताराम को हँसी आगई । ऐसी चाबी तो अलादीन के चिराग से भी ज़्यादा बड़ी चीज होती है । कोई भी ताला खोल लो । पर किसी और का ताला खोलना तो चोरी है । तोताराम ने घबरा कर यह विचार छोड़ दिया ।

एक दिन गाँव में बड़ी चहल-पहल थी । चुनाव आगए थे । मंच बना बरगद के पेड़ के नीचे । नेता जी कह रहे थे- हमें 'मास्टर की' चाहिए । जब 'मास्टर की' हमारे पास होगी तो कोई भी पार्टी हमारे बिना सरकार नहीं बना सकेगी । हम चाहेंगें तो किसी भी सरकार को कभी भी गिरा सकेंगे । मास्टर को लगा वही बरगद के पेड़ वाला प्रेत प्रकट हो गया है । अब उसे विश्वास हो गया कि 'मास्टर की' उसके पास नहीं है । वह निश्चिंत हो गया । बरगद के पेड़ के पास से गुज़रने पर वह आवाज़ अब भी आती पर तोताराम को डर नहीं लगता । उसे लोकतंत्र के सार तत्व का पता चल गया था ।

एक दिन जब तोताराम स्कूल से घर लौट रहा था तो अचानक ठोकर लगी । ठोकर खाकर उठते समय उसे अपनी छेद वाली चाबी मिल गयी । पर अब समस्या यह थी कि ताला कोई उठा ले गया था । अब मास्टर बिना ताले की चाबी लेकर घूम रहा है । उसे तो ताला नहीं मिल रहा है पर लगता है लोकतंत्र के प्रेतों को जरूर 'मास्टर की' मिल गई है ।

अब उसे ख़ुद से ज़्यादा लोकतंत्र की चिंता सता रही है ।

१०-५-२००९

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Jul 9, 2009

तोताराम के तर्क - पासिंग द पार्सल


जैसे पीनेवालों को पीने का बहाना चाहिए वैसे ही जुआ खेलनेवालों और शर्त लगानेवालों के लिए भी बहानों की कमी नहीं है । बरसात होगी या नहीं, कौनसी टीम जीतेगी, इस मैच में कितने छक्के लगेंगे, सचिन की सेंचुरी बनेगी या नहीं आदि-आदि । ये तो बड़े मोटे सट्टे हैं । दो आदमी यदि हों तो वे कहीं भी सट्टा खेल सकते हैं और कुछ नहीं तो यही कि चलो जूती उछालते हैं । सीधी पड़े तो यह भाव और उलटी पड़े तो यह । लोग तो यहाँ तक सट्टा खेलते हैं कि यह जो मक्खी उड़ रही है, जब यह बैठेगी तो कहाँ बैठेगी या बिना कहीं बैठे ही चली जायेगी ? ऐसों पर कौन प्रतिबन्ध लगा सकता है । जहाँ मनुष्य के मन में उत्सुकता, अनिश्चितता, उतावली है, अनुमान है, विकल्प है वहाँ सब जगह सट्टे की संभावनाएँ बनती हैं ।

इसी तरह खेल भी मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है । जिनके खून में जोश है वे ताकतवाले खेल खेलते हैं । कुछ आलसी लोग ताश, चौपड़, चर-भर जैसे खेल खेलते हैं । कुछ लोग तो इतने खेल प्रेमी होते हैं कि अकेले ही दो खिलाड़ियों के पत्ते बाँट देते है और फिर ख़ुद ही बारी-बारी से रोल बदल-बदल कर खेलते रहते हैं ।

कल शाम जब घूम कर हम और तोताराम लौट रहे थे, रास्ते में एक मकान दिखाई दिया जिस पर लिखा था पार्टी कार्यालय । पार्टी का नाम कुछ धुंधला पड़ गया था इसलिए समझ में नहीं आया । मकान की खिड़की में से अन्दर नज़र गई तो देखा कि लोग एक गोल घेरे में बैठे हैं, सबके चहरे लटके हुए हैं । मातम का सा माहौल है । उनके पास एक डिब्बा है जिसे वे एक दूसरे को पकड़ा रहे हैं । संगीत बज रहा है । जैसे ही संगीत रुका तो डिब्बा नीचे गिर पड़ा । लोग एक दूसरे पर डिब्बा गिराने का दोष लगाने लगे । अंत में फाउल मानकर फिर खेल शुरू हुआ । संगीत बजने लगा । संगीत रुका । डिब्बा किसी के हाथ में नहीं । फिर नीचे गिर पड़ा । फिर फाउल । यही तमाशा चलता रहा ।

अंत में तोताराम से रहा नहीं गया और वह दरवाज़ा खोल कर अन्दर चला गया और ऊँची आवाज़ में कहने लगा - यह क्या तमाशा है ? खेलते हो तो ढंग से खेलो । जानबूझ कर पार्सल गिरा रहे हो । अरे, जिसके पास भी पार्सल रुकता है, खोलो और उसके अनुसार करो ।

पर किसी ने नहीं सुनी । बार बार पार्सल ही गिरता रहा । अंत में तोताराम को गुस्सा आगया । उसने लपक कर पार्सल ख़ुद ले लिया । सब लोगों ने राहत की साँस ली और भाग कर तोताराम को घेर लिया । जल्दी से पार्सल खोला तभी एक ठीकरा तोताराम के सिर पर आकर गिरा । सिर पर बड़ा सा गूमड़ उभर आया ।

पार्सल में लिखा था- जिसके पास भी यह पार्सल रुकेगा उसी के सिर पर हार का ठीकरा फोड़ा जाएगा ।

तोताराम फटे में टाँग फंसाने की अपनी आदत के कारण चोट खा बैठा ।

थोड़ा आगे चले होंगे कि फिर एक कार्यालय दिखाई दिया पर वहाँ मायूसी का माहौल नही था । सबके चेहरों पर जीत की खुशी चमक रही थी । तोताराम अपने गूमड़ को भूल कर फिर अन्दर झाँकने लगा पर हमने रोक लिया । कहा- न तो दरवाजे के अन्दर चलेंगे और न ही बीच में टाँग फँसायेंगे, दूर से ही समझने की कोशिश करेंगे । अन्दर झाँक कर देखा तो यहाँ भी वही पासिंग द पार्सल वाला खेल चल रहा था । उसी तरह लोग जान बूझकर पार्सल गिरा रहे थे ।

तभी अन्दर से एक पत्रकार टाइप आदमी निकला । हमने पूछा - भाई साहब , क्या यहाँ भी हार के कारणों का ठीकरा फोड़ने का चक्कर है ? उसने कहा- नहीं, यहाँ तो ये लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जीत तो गए पर जीते किस कारण से ?

१५-६-२००९

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Jul 8, 2009

तोताराम के तर्क - फिर बसंती की इज्ज़त का सवाल


८ मई २००९ की दोपहर, भयंकर गरमी, लू चल रही है, पारा पैंतालीस के पार, कूलर भी प्रभावहीन, तिस पर बुढ़ापा । बुढ़ापे में न सर्दी सहन हो न गरमी । अपनी जान लिए पड़े थे कि तोताराम ने दरवाजा भड़भड़ाया- 'मास्टर ज़ल्दी से उठ, वोट डालने चलना है । बसंती की इज्ज़त का सवाल है । सुन नहीं रहा, दाँता रामगढ़ (जिला सीकर) से उठी गुहार अब तक वातावरण में गूँज रही है ।'

सबसे पहले 'शोले' में रामगढ़ में गब्बर सिंह के हाथों बसंती की इज्ज़त खतरे में पड़ी थी पर तब मौके पर 'बीरू' पहुँच गए थे । सो इज्ज़त बच गई और बात आई-गई भी हो गई थी । तब मीडिया भी इतना सक्रिय नही था ।

अब समय बदल गया है । अब जब गत दिसम्बर में डीग-भरतपुर में दूसरी बार बसंती की इज्ज़त खतरे में पड़ी तो दूसरे ही दिन अख़बार में चीत्कार सुनाई पड़ गई ।

तोताराम हमारे साथ बैठा चाय पी रहा था । जैसे विष्णु भगवान ग्राह-ग्रसित गजराज की करुण पुकार सुन कर नंगे पाँव दौड़ पड़े थे वैसे ही तोताराम ने चाय बीच में ही छोड़ दी । कुर्ते-पायजामें में ही डिपो की तरफ़ दौड़ पडा और डीग की बस में बैठ गया । वहाँ जाकर ठण्ड खा गया सो अब तक खाँस रहा है ।

वहाँ बसंती की इज्ज़त बचने के चक्कर में बोगस वोट डालते पकड़ा गया । अधिकारी ने उसकी उम्र और स्वास्थ्य को देखते हुए डाँट कर भगा दिया वरना कैद भी हो सकती थी । जैसे अनुशासनहीनता के लिए किसी को पार्टी से छः साल के लिए निकाल दिया जाता है वैसे ही तोताराम को छः साल के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया गया । यह बात और है कि ज़रूरत पड़ने पर अगले दिन ही ऐसे अनुशासनहीन सिपाही की घर वापसी भी हो सकती है ।

हम तो घुटने के दर्द का बहाना बना कर डीग जाना टाल गए । डीग में बसंती की इज्ज़त बच गई मतलब कि दिगंबर सिंह जीत गए । वैसे जो दिगंबर हो जाए उसे कौन बेइज़्ज़त कर सकता है ? और ऊपर से सिंह, किसकी हिम्मत हो सकती है ।

हमने कहा -'तोताराम, अगर चालीस साल पहले यह पुकार आती तो साहस किया जा सकता था । अब तो यह काम नए-नए मतदाता बने युवा को किसी कैटरीना कैफ के लिए करने दे । अब तो बसंती की भी षष्ठी-पूर्ति हो चुकी है और अपन भी वरिष्ठ नागरिक बन चुके हैं ।'

पर तोताराम ने बचने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा। ऑटो लेकर आया था । हमें ऑटो में धकेल कर मतदान केन्द्र की तरफ़ चल पडा । जैसी कि संभावना थी, हमें लू लग गई । सो नीम्बू पानी पी रहे हैं और सिर पर भीगा गमछा लपेटे पड़े हैं । बैचैनी में पता नहीं कौनसा बटन दब गया । अब आगे बसंती जाने और उसकी इज्ज़त ।


हमने कहा - 'तोताराम, आगे से किसी 'बसंती की इज्ज़त', 'किसी चूनड़ी की लाज', या किसी 'पसीने के क़र्ज़' के नाम पर हमें ब्लेकमेल मत करना । सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं । काम निकलने के बाद कोई हाल-चाल पूछने भी नहीं आता । घोड़ा खाए घोड़े के धणी को । ढेरी में सारे बैंगन काने हैं । उलटा-पुलटी करने से कोई फायदा नहीं । और इज्ज़त बार-बार राजस्थान में ही क्यों खतरे में पड़ती है ? यदि राजस्थान में इतना ही खतरा है तो इतना बड़ा देश पड़ा है कहीं और लगायें मज़मा । ऐसे लोकतंत्र के लिए शहीद होने से तो अच्छा है किसी ट्रक के नीचे आ जाएँ । कम से कम कलेक्टर दस हज़ार का पैकेज तो तत्काल घोषित कर देगा । यहाँ न कोई जनकनन्दिनी है और न अपन जटायु । पहले भी कई बीरू राजस्थान में आकर, टंकी पर चढ़ कर उल्लू बना कर चले गए ।'

तोताराम ने कान पकड़ कर तौबा की । तब तक पत्नी शिकंजी ले आई ।

९-५-२००९

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Jul 7, 2009

तोताराम का आत्मसमर्पण


आज तोताराम कुछ जल्दी में था, बोला- जल्दी उठाकर मेरे साथ थाने चलो । मुझे पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करना है ।

हमने चुटकी ली- "तू अपने आप में था ही कब? पहले माता-पिता, फिर पत्नी के सामने समर्पित रहा । इसके बाद चालीस साल सरकारी नौकरी में सरकार के प्रति समर्पित रहा । अब तो भगवान के सामने आत्मसमर्पण बाकी है । और फिर आत्मसमर्पण कोई ढिंढोरा पीट कर थोड़े किया जाता है? वह तो मन का एक भाव है ।

इस तरह आत्मसमर्पण तो आतंकवादी और बूढ़े डाकू करते हैं । वे भी पहले मुख्यमन्त्री से पुनर्स्थापन के नाम पर दस-पाँच लाख रुपये, दस बीघा ज़मीन और बाद में चुनाव में पार्टी के टिकट का वादा करवा लेते हैं । या फिर बड़े नेता आत्मसमर्पण करते हैं या गिरफ़्तारी देते हैं । इस दौरान उनके हजारों समर्थक इकट्ठे हो जाते हैं और कानून को अपने हाथ में ले लेते हैं । थानेदार उनको बैठा कर चाय पिलाता है । इसके बाद वह मीडिया वालों की उपस्थिति में गिरफ़्तारी देता है और फिर 'वी' का चिह्न बनाता हुआ जेल की बस में सवार होता है ।

सारा काम एक अद्भुत अनुष्ठान की तरह होता है । तुझे कौन पूछने वाला है ? सरकार पर वैसे ही महँगाई और चुनावों का भार है । मुझे नहीं लगता की कोई थानेदार तुझे उपकृत करेगा ।"

तोताराम का चेहरा लटक गया, बोला- मैं जब भी कोई क्रांतिकारी काम करना चाहता हूँ तो तू मेरा मनोबल तोड़ देता है । तूने बताया था कि एक पुलिसवाला तेरा परिचित है । एक गोष्ठी में मिला था । उसी के पास चलते हैं ।


हमें तोताराम पर दया आगई । हम उसे लेकर थानेदार के पास पहुँचे । वे चाय पी रहे थे । हमारे लिए भी चाय मँगवाई । जब हमने उन्हें तोताराम के कार्यक्रम के बारे में बताया तो उन्हें बेसाख्ता हँसी आगई । चाय उनकी वर्दी पर गिरते-गिरते बची ।

बाद में उन्होंने बताया- 'मास्टर जी, आत्मसमर्पण या गिरफ़्तारी इस देश में जनसेवा का सर्वोच्च अलंकरण है जो सभी के भाग्य में नहीं है । आपने जिंदगी भर मास्टरी की है । अब अगर घर में बोर हो रहें हैं तो एक आध ट्यूशन कर लें । यह जनसेवा का क्षेत्र आपके बस का नहीं है । आज तो फोटोग्राफी के बहुत से कमाल चल रहे हैं । किसी नेता के आत्मसमर्पण की सीडी लेकर उस पर अपना चेहरा फिट करवा लीजिये ।'

तोताराम का चेहरा और लटक गया ।

थानेदार को दया आ गई । बोला- 'यदि आप नहीं मानते तो घुस जाइए इस आठ गुणा आठ के कमरे में । पर याद रखिये अगर मच्छर उठा कर ले गए या और कुछ उन्नीस-बीस हो गया तो तो ज़िम्मेदारी इन कवि महाशय की होगी । खाना हम नहीं खिलानेवाले । खाना लायेंगें मास्टर जी ।'

एक और काम आ पड़ा । पर क्या करें, जिसे देश-सेवा की लगन लग जाती है वह किसी की सुनता थोड़े ही है ।

हमें कल के अख़बार में तोताराम के आत्मसमर्पण के कवरेज़ की प्रतीक्षा है ।

३०-३-२००९

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