Dec 31, 2008

दरवाजे पर पड़ा हैप्पी न्यू ईयर



हमारा कमरा बाहर की तरफ़ दरवाजे के पास है । चूँकि हमारी नींद कुछ खुल जाती है सो दूध भी हमीं लेते हैं । अख़बार भी लगभग इसी समय आ जाता है । चाय के साथ अखबार के सेवन से दिनचर्या शुरू होती है । प्रायः अख़बारवाला थोड़ा पहले आ जाता है पर वह न तो दरवाजा खटखटाता है और न ही आवाज़ लगाता है । बस दरवाजे के नीचे से अखबार सरका देता है । आज उसने अख़बार डालने के बाद दरवाजा खटखटाया और आवाज़ भी लगाई- मास्टर जी,दरवाजे पर कोई हैप्पी न्यू ईयर पड़ा है, ज़रा संभाल लीजियेगा ।

'दरवाजे पर हैप्पी न्यू ईयर पड़ा है'- बड़ा अजीब-सा संदेश था । हम उत्सुकतावश उठे । दरवाजा खोला पर तब तक अख़बारवाला जा चुका था । देखा एक सज्जन सीढ़ियों के पास गिरे पड़े थे । हमने उसे हिला कर पूछा- क्यों भई क्या बात है? बोला- थोड़ा सहारा दीजिये । ज़्यादा चोट तो नहीं आई पर लगता है उछलने से पैर में मोच आ गई है । हमने उसे सहारा देकर उठाया, सीढ़ियों पर बैठाया और पूछा- कौन हो? बोला- हैप्पी न्यू ईयर हूँ । हमने कहा- हैप्पी हो तो मुस्कराते हुए आते, यह क्या ?

उसने विस्तार से बताया- मास्टर जी, क्या हैप्पी और क्या सेड । ३१ दिसम्बर को रात के ठीक १२ बजे तारीख़ बदलती है सो मुझे आना पड़ता है वरना फ़र्क तो क्या पड़ने वाला है- ३१दिसम्बर और १ जनवरी में । दोनों दिन वही ठण्ड ,वही गए साल का रोना, वही सूखी-सतही शुभकामनाओं का आदान-प्रदान, वे ही घिसे-पिटे जुमले । हमने कहा- ज़रा संभल कर चला करो । कोई बी.एम.डब्लू. कारवाले टक्कर तो नहीं मार गए? बोला- टक्कर तो मार ही जाते । पैसेवालों के ठलुए छोरे चला रहे थे गाड़ी, बड़ी तेज़ । यह तो मैं उछल कर एक तरफ़ हो गया वरना तो टक्कर मार ही जाते । वैसे उनकी भी क्या गलती । पिए हुए थे बेचारे और फिर कार और पेट्रोल भी कौन से अपनी कमाई के थे जो सोचते । बाप की कमाई है । और बाप भी कौन-सी दसों नाखूनों की कमाई करता है । वह तो भी दो नंबर का धंधा ही तो करता है। सो सपूत भी ऐसे ही होंगें । वे धन की चकाचौंध में थे और मैं भी तेज़ रोशनी से घबरा गया था । पर खैर जान बची और लाखों पाये ।

हमने 'हैप्पी न्यू ईयर' को अन्दर लिया, बैठने को कुर्सी दी और कहा- चाय का पानी चढाते हैं। जब तक दूध आए तब तक ज़रा अख़बार देख लेते हैं । हमने पूछा- जिस कार से तुम्हें टक्कर लगने वाली थी वह काले रंग की तो नहीं थी ?बोला- हाँ जी, काली ही थी । हमने उसके सामने अख़बार पटकते हुए कहा- लो, देख लो यह वही कार लगती है। खंभे से टकराकर उलट गई और उसमें सवार तीनों युवक अस्पताल में हैं । तीनों ही पिए हुए थे ।

३१ दिसम्बर २००८

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तोताराम के तर्क - चार सौ करोड़ की नाव बनाम गूंगे का गुड़



Anil Ambani's bought his wife a Rs 400-cr yacht as a gift


आज जैसे ही तोताराम आया, हमने पूछा- तोताराम, एक छोटी-मोटी नाव कितनेक की आ सकती है ? तोताराम हँसा और बोला- क्या भांग तो नहीं खा रखी मास्टर, अपन राजस्थान के निवासी हैं जहाँ पीने को तो पानी मिलता नहीं और तू नाव की बात करता है । कहाँ चलाएगा नाव ? टीलों पर ? नाव बरामदे में स्कूटर की तरह खड़ी नहीं की जा सकती । रेल के लिए पटरियाँ चाहियें, कार के लिए गेरेज़, हवाई जहाज़ खड़ा करने के लिए हवाई अड्डा चाहिए । नाव या जहाज़ को किसी समुद्र या नदी में ही पार्क किया जा सकता है । कहाँ बाँधेगा नाव ? और फिर अपने महाकवि निराला जी ने पहले ही मना कर दिया है-
बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु ।
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु ।

हमने कहा- तोताराम! यदि हँसी नहीं उड़ाये और किसी को नहीं बताये तो तुझे दिल की बात बताना चाहते हैं । बात ऐसी है कि पिछली दिवाली को मुकेश अम्बानी ने अपनी पत्नी की २५० करोड़ का हवाई जहाज़ और अब अनिल अम्बानी ने अपनी पत्नी को ४०० करोड़ की नाव भेंट देकर हमें भयंकर हीन- भावना से भर दिया है , सोचते है हम भी तुम्हारी भाभी को कोई छोटी-मोटी नाव उपहार में दे दें ।

तोताराम गंभीर हो गया और हमारी तरफ़ ताकने लगा । कुछ देर के मौन के बाद बोला- मास्टर अब तो हमारी उमर उस नाव को तलाशने की आगई है जिससे भवसागर पार किया जा सके । दुनियावी नावें तो अब छूटने का समय है । जिस पर भाग्य मेहरबान होता है उसे धन मिल सकता है पर सद्बुद्धि तो उसे ही मिल सकती जिस पर वास्तव में भगवान मेहरबान होता है । आजकल के जिन रईसों के चक्कर में तू पड़ गया है वे ईर्ष्या नहीं वरन दया के पात्र हैं । भाग्य ने इन्हें धन दिया है लेकिन भगवान ने उसका सदुपयोग करने की सद्बुद्धि नहीं दी । दुनिया की देखा-देखी ये लोग तमाशे में फँस गए हैं । भगवान सद्बुद्धि देता तो इस पैसे का सदुपयोग करते और आत्मसंतोष व यश प्राप्त करते । धन और सद्बुद्धि एक साथ किसी-किसी को ही मिलते हैं । ऐसे धनवानों से किसी को कोई मतलब नहीं है । लोग मनोरंजन करते हैं और भूल जाते हैं । इन उपहारों से न प्रेम पर कोई खास फर्क पड़ता है, न नींद और भूख में, न चिंताएं दूर होती हैं न ही मृत्यु का भय दूर होता है । ऐसी समृद्धि से तो एक बूँद पानी और घास की एक पत्ती का जीवन अधिक सार्थक है । जिस पेड़ के फल किसी की भूख नहीं मिटाते उस पेड़ का क्या फलना और क्या फूलना । मानव के सभी प्रयत्नों की परिणति सार्थकता में होना ही धन्यता है वरना तो क्या जीना और क्या मरना ।

तभी पत्नी चाय ले आई । तोताराम अपनी प्रतिज्ञा पर कायम नहीं रहा और बीच में ही बोल पड़ा- सुना भाभी! यह बूढ़ा तुझे अनिल अम्बानी की तरह नाव भेंट देना चाहता है । पत्नी को भी हँसी आ गयी और चाय उसकी शाल पर गिरते-गिरते बची, बोली- देवर जी, कहाँ से लायेंगें ये नाव ? पहले सारी तनखा और अब सारी पेंशन तो हमें लाकर दे देते हैं । हम तो इनके साथ पचास साल से नाव पर ही तो सवार हैं जो हिचकोले खाती-खाती अब किनारे लगने वाली है । कह दो इनसे, ज़्यादा परेशान होने की ज़रूरत नहीं है । प्यार न तो उपहारों का मोहताज़ है और न ही प्रदर्शन का । वह तो गूँगे का गुड़ है ।

हमें लगा, हम पूरी तरह से सामान्य हो गए हैं ।

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३१ दिसम्बर २००८



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Dec 30, 2008

तोताराम के तर्क: आतंकवाद का अंतुले-सिद्धांत



वैसे तो राजनीति में आने और पद पाने के बाद अंतुले ही क्या, कुत्ता भी जय जैवन्ती गाने लग जाता है, सूअर भी डायरिया होने के डर से बोतलबंद पानी पीने लग जाता है, गधा भी अंगूर छील कर खाने लग जाता है । हम तो अपनी 'आधी और रूखी' में ही खुश हैं पर जब अंतुले ने मुम्बई कांड के बाद संसद में आतंकवाद के विरुद्ध कठोर कानून बनाए जाने के दौरान १७ दिसम्बर को जो अप्रासंगिक बात निकाली उससे बड़ी कोफ़्त हुई । अगले दिन जैसे ही तोताराम आया, हम चालू हो गए- यह क्या तोताराम, सभ्य समाज में चार आदमियों के बीच बैठा आदमी छींकते समय नाक के आगे रूमाल रख लेता है, उबासी लेते समय मुँह के आगे हाथ कर लेता है, आदमी सड़क की तरफ़ पीठ करके पेशाब करता है, कुत्ता भी सड़क के बीच पेशाब नहीं करता बल्कि एक किनारे कहीं झाडी-कूड़े पर जाकर टाँग उठाता है, खाना खाते समय आदमी सोचता है कि ज़्यादा आवाज़ न हो, भले आदमियों के बीच साला पादने का भी एक सलीका होता है पर इस अंतुले को देखो, अस्सी साल की उमर हो गई पर इतना होश नहीं कि संसद में बैठ कर क्या बोल रहे हैं । सारी दुनिया देख-सुन रही है और ये महाशय कितनी खतरनाक और अनर्गल बात मुँह से निकल गए । अगर उचित-अनुचित का होश नहीं है तो आदमी चुप बैठे, बोलना क्या ज़रूरी है ? कहा भी है, -
बोली एक अमोल है, जो कोई बोले जानि ।
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि ॥

तोताराम मुस्कराया, बोला- मास्टर, यह राजनीति है, इसमें उचित-अनुचित, समय-असमय कुछ नहीं होता । राजनीति में कभी-कभी असम्बद्ध लगने वाली बात भी बड़ी सोची समझी होती है और उसके भी बड़े दूरगामी परिणाम निकलते हैं । यह तो तुझे मालूम ही होगा कि विचार और शब्द कभी नष्ट नहीं होते । वे सृष्टि के सर्वर में ई-मेल की तरह सुरक्षित रहते हैं और कम्प्यूटर खोलते ही प्रकट हो जाते हैं । इसलिए अपने मतलब की बात वक्त-बेवक्त छोड़ते रहना चाहिए । यह राजनीति का 'अंतुले-सिद्धांत' है । अंतुले -सिद्धांत के अनुसार हेमंत करकरे को मरवाने के लिए किसी संघ समर्थक ने उसे ताज होटल की बजाय हॉस्पिटल भिजवा दिया जहाँ आतंकवादियों ने नहीं वरन किसी और (?) ने उसकी हत्या कर दी । इस 'और' का मतलब तो तू समझता ही है । मतलब की करकरे की हत्या के लिए पाकिस्तान से आए आतंकवादी नहीं बल्कि मालेगाँव बम-काण्ड के आरोपी लोग ज़िम्मेदार हैं ।

हमें बड़ी कोफ़्त हुई, कहा- इस अंतुले-सिद्धांत के अनुसार तो हिटलर को बदनाम कराने के लिए यहूदियों ने स्वयं को गैस चेम्बरों में बंद करके आत्महत्या करली, बुश ने आतंकवाद से लड़ने के बहाने दो टर्म तक अपनी कुर्सी पक्की करने के लिए ख़ुद ही ९/११ वाली घटना करवा दी, हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए नरेन्द्र मोदी ने स्वयं ही गोधरा कांड करवा दिया और कांग्रेस ने मुस्लिम वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने लिए मुसलमानों को मरवा दिया, भा.जा.पा. ने चुनावी मुद्दा खड़ा करने के लिए मुम्बई-कांड करवा दिया । छी, क्या घटिया सोच-विचार है!

तोताराम बोला- सौ प्रतिशत इसी तरह न हो तो भी राजनीति हमेशा अपना ही हित देखती है । कौए की दृष्टि हमेशा गंदगी पर ही रहती है । मुम्बई कांड से ज़्यादा लोग तो रोजाना भूख से मर जाते होंगे । बात जनता का मरना नहीं है, जनता तो मरती ही रहती है । जनता को तो मरना ही है । आतंकवादी नहीं मारेंगें तो किसी नेता के जन्म-दिन के लिए फंड जुटाने वाले कार्यकर्ता मारेंगे । अब चाहे अंतुले माफी माँग लें पर उनके सिद्धांत ने चुनाव से पहले संकेत तो भेज ही दिया अपने वोट बैंक के पास । शक के कीटाणु एक बार दिमाग में घुसने के बाद कभी समाप्त नहीं होते ।

याद रख बन्दर कितना ही बूढ़ा हो जाए गुलाटी मारना कभी भूलता । यह कुत्ते वाली पूँछ है । कहा भी है, 'राखो मेलि कपूर में हींग न होए सुगंध ।'

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२७ दिसम्बर २००८



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Dec 26, 2008

मौलाना संत और राष्ट्र-धर्म-हीन आतंक



मौलाना मसूद अज़हर,
बिना आदाब के ही बात शुरू कर रहे हैं । आदाब की ज़रूरत ही नहीं । आप तो बिना आदाब के ही दाब लेते हैं । उर्दू-हिन्दी शब्दकोश देखकर पत्र लिख रहे हैं क्योंकि आप ठहरे मौलाना । पता नहीं किस गलती की क्या सज़ा दे दें । हमें शब्दकोश में अज़हर और मसूद के मायने नहीं मिले, पता नहीं कैसे शब्दकोश हैं । नेपोलियन को भी अपने शब्दकोश में असंभव शब्द नहीं मिला था । हाँ, मौलाना का अर्थ ज़रूर मिल गया - वह व्यक्ति जिसे आलिम लोगों ने उसकी योग्यता देखकर मौलाना की उपाधि दी हो । मतलब कि यह एक मानद उपाधि है । सच्ची उपाधि तो मानद ही होती है । विश्वविद्यालय की पी.एच.डी. तो कोई भी दस बीस हज़ार में लिखवा लेता है । अभिनव बिंद्रा को केवल दस मीटर दूर से निशाना लगाने पर ही मद्रास विश्वविद्यालय ने पी.एच.डी. की मानद डिग्री दे दी फिर आप तो पाकिस्तान में बैठकर दिल्ली में निशाना लगा देते हैं आपको तो एक साथ दस-पाँच डी.लिट मिल जानी चाहियें थीं । मौलाना का एक अर्थ और मिला- दुखदायी । पर आप जैसे धर्म-प्राण व्यक्ति को 'दुखदायी' कहकर हम अपने प्राणों को संकट में नहीं डालना चाहते । धर्म- प्राण के भी दो अर्थ होते हैं- एक वह जो धर्म के लिए अपने प्राण दे दे और एक वह धर्म के लिए दूसरे के प्राण ले ले । प्राण देने से कोई फायदा नहीं है क्योंकि कहा है- 'शरीरमद्यं खलु धर्म साधनम्' । यदि शरीर ही नहीं रहेगा तो धर्म का क्या खाक पालन करेंगें । इसीलिए आपने अपने शरीर का पर्याप्त ध्यान रखा है । आपके प्यार से पाले पोषे शरीर के कारण ही आपके भक्त आपको 'हाथी का बच्चा' कहते हैं । ईसा, मूसा, बुद्ध, महावीर, कबीर, गाँधी आधी पसली के आदमी थे । तभी आज उन्हें कौन पूछता है । जब कि आपकी चर्चा से अख़बार भरे पड़े हैं । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि आप, लोगों के द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से मान्यता प्राप्त विद्वान और धर्म-प्राण व्यक्ति हैं ।

आजकल आपके धर्म और राष्ट्रीयता को लेकर कई सवाल उठाये जा रहें हैं । अब इनको कौन समझाये । आप तो पहले ही कह चुके हैं कि आप राष्ट्र की अवधारणा को ही नहीं मानते । फिर आपकी क्या राष्ट्रीयता ? ज़रदारी ने भी आपकी बात का समर्थन ही किया है कि आतंकवादी का कोई देश नहीं होता । अब या तो आपका पाकिस्तान क्या कोई भी देश नहीं हैं और यदि आपका देश पाकिस्तान हैं तो आप आतंकवादी नहीं हैं । सीधा सा गणित हैं । पता नहीं लोग क्यों नहीं समझते । रही बात धर्म की तो उसके लिए भी कह दिया गया है कि सच्चा मुसलमान आतंकवादी नहीँ हो सकता इसलिए या तो आप सच्चे मुसलमान नहीं हैं या फिर आतंकवादी नहीं हैं । आपको सच्चा मुसलमान न मान कर क्या किसी को अपना सिर फुड़वाना है ? इस प्रकार आप सच्चे मुसलमान हैं और आतंकवादी कभी नहीं हो सकते जो आपको आतंकवादी मानते हैं वे धर्म को नहीं जानते ।

अब रहा प्रश्न आपके नज़रबंद होने या जेल में होने या पाकिस्तान में होने का तो इस बारे में पहले कहा गया कि आप जेल में हैं फिर कहा गया कि नज़रबंद हैं और अब कहा जा रहा है कि पता नहीं आप कहां हैं । आप ठहरे सच्चे संत । संत तो सबके होते हैं । हवा का, पानी का, सच्चे संतों का, फकीरों का, खुशबू का कोई घर या ठिकाना होता है क्या ? जब, जहाँ, जिसको आपकी दया की ज़रूरत होती है आप पहुँच जाते हैं । १९९४ से १९९९ तक भारत की जेल की भी शोभा बढ़ा चुके हैं । जब आपको गिरफ्तार किया गया था तो आपके पास ७० हज़ार डालर नक़द मिले थे । हमें तो चालीस साल की नौकरी के बाद भी इतने पैसे नहीं मिले । पर हमने काम भी क्या किया था । बच्चों को दो अक्षर सिखाये थे । आपकी बात अलग है आप ने तो अपने चेलों को अपना लोक और दूसरों का परलोक सुधारना सिखाया है । आपकी और हमारी क्या तुलना ।

आपका दर्शन है कि सारे संसार को इस्लाम के शासन के नीचे लाना । ठीक भी है, जब इस्लाम नहीं था तो सारी दुनिया दुखी थी और जब, जहाँ-जहाँ इस्लाम आ गया वहाँ -वहाँ दुनिया सुखी हो गई । इस लिए सारी दुनिया को सुखी बनने के लिए आपको कुछ भी कर के सारी दुनिया में इस्लाम लाना है । वैसे दो हज़ार साल में सारी दुनिया ईसाई नहीं हो सकी और डेढ़ हज़ार साल में आधी दुनिया भी मुसलमान नहीं हो सकी । हो सकता है आप अब तक के सबसे काबिल मौलाना हुए हों ।

वो क्या कहते हैं कि - कुतिया समझे कि गाड़ी उसके बल पर चलती है ।

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२० दिसम्बर २००८



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Dec 24, 2008

संता क्लाज़ थप्पड़ मारकर चला गया


कोई आधी रात ही बीती होगी कि हमारी तो तीन चौथाई नींद पूरी हो गई । लघु शंका के लिए उठे तो लगा जैसे दरवाजे के पास कुछ खट-पट हो रही है । दरवाजा खोलकर देता तो लाल कपडे पहने, सफ़ेद दाढ़ी वाले कोई सज्जन बड़ी सी गठरी लिए खड़े थे । सर्दी से काँप रहे थे । हमने पूछा- कौन हो बाबा? वेश-भूषा से तो सान्ताक्लाज़ लगते हो । उसने उत्तर दिया- मास्टर जी मैं असली सान्ताक्लाज़ ही हूँ । हमने पूछा- असली मतलब ? क्या सान्ताक्लाज़ नकली भी होते हैं ? वे बोले- आज का युग व्यापार का युग है । इसलिए लाखों लोग क्रिसमस पर दो पैसे कमाने के लिए सान्ताक्लाज़ का वेश बनाकर दुकानों पर सामान बेचते हैं । कुछ सड़कों के किनारे पिज्जा और नूडल्स बेचते हैं । आज के दिन खूब खरीददारी होती है और सान्ताक्लाज़ के रूप में सेल्समैन को देखकर बच्चे बहुत आकर्षित होते हैं । इस प्रकार व्यापार के साथ-साथ संस्कृति की रक्षा भी हो जाती है । आश्चर्य नहीं कि आज की रात तो चोर भी सान्ताक्ल्ज़ के रूप में घूम रहे हों । और कुछ नहीं मिलेगा तो गटर का ढक्कन ही उठा ले जायेंगे या पोल पर से ट्यूब लाइट ही उतार कर ले जायेंगे । वह समय दूर नहीं जब आतंकवादी भी सान्ताक्लाज़ के रूप में आने लग जायेंगे । पर हम असली सान्ताक्लाज़ हैं । देखो, यह है उपहारों की गठरी ।

हमने पूछा- तो बाँट क्यों नहीं आए इनको? इतने सारे ज़रूरतमंद बच्चे हैं इस दुनिया में । उनका ज़वाब था- आजकल बच्चों को खिलौने नहीं चाहिये । उन्हें तो वीडियो गेम, नई फ़िल्म की सी.डी., हीरोइनों की फोटो, मोबाईल फोन आदि चाहियें । कुछ बच्चे तो बीयर की बोतल भी माँग लेते हैं पर मेरे पास तो मुलायम खिलौने, फूल और टाफी हैं । इनकी आजकल के बच्चों को ज़रूरत नहीं है । खिलौने भी चाहियें तो चिनगारी निकालने वाली पिस्तौल, डाकू, आतंकवादी या कमांडो की ड्रेस । ये मेरे पास नहीं हैं । इस गठरी में प्यार, संवेदना, वात्सल्य करुणा आदि हैं । बरसों से लिए फिर रहा हूँ पर कोई लेने वाला ही नहीं मिलता । सब दूसरों से अपने लिए ये अच्छे भाव चाहते हैं पर कोई दूसरों में ये भाव नहीं बाँटना चाहता । ये चीजें तो बाँटने से ही मिलती हैं । कुछ लोग प्यार, संवेदना, करुणा बाँटने का नाटक करते हैं तो केवल अपने नाम के लिए । फिर इस नाम को चुनाव में सत्ता प्राप्त करने किए भुनाते हैं जिससे और मनमानी करने के अधिकार प्राप्त हो सकें । मेरी तो इस गठरी को ढोते-ढोते कमर टूट गयी । आप कहें तो मैं इस गठरी को लेकर अन्दर आ जाऊँ ?

हमने सान्ताक्लाज़ को अन्दर ले लिया । चाय पिलाई । रजाई का एक कोना उसके भी पैरों पर डाल दिया । कुछ देर बाद उसकी जान में जान आयी । पर ठण्ड में घूमते-घूमते जुकाम खा गया और आख़िर उसे बुखार हो ही गया । बुखार की हालत में कैसे विदा करते । ऐसे ही चार-पाँच दिन निकल गए और ३१ दिसम्बर का दिन आ गया ।

रात को खाना खाकर बतिया रहे थे, खबरें सुन रहे थे । बस यूँ ही ग्यारह बज गए । सान्ताक्लाज़ बोला- मास्टर जी दरवाजा अच्छी तरह बंद कर लो । अभी नया साल दारू पी रहा है, डांस कर रहा है । ठीक बारह बजे पटाखे छोड़ेगा, चिल्लाएगा और बाहर निकल भागेगा, जिसका भी दरवाजा खुला मिलेगा, घुस जाएगा । अब पहले वाली बात नहीं रही, अब तो माँस, मदिरा और मनचलेपन के बिना नया साल आता ही नहीं । दारू न पीने वालों का तो समझ लो दिसम्बर ही बना रहता है ।

हमने पूछा- बन्धु, यह नया साल इतनी सर्दी में और वह भी रात के बारह बजे ही क्यों आता है? होली के बाद चैत्र के महीने में क्यों नहीं आता ? तब लोग सवेरे-सवेरे उठ जाते हैं । ब्रह्म मुहूर्त में आए तो हम सब उसका स्वागत कर सकेंगे । सूर्य की पहली किरण, बसंत के पहले झोंके, आम के नए पत्ते और हरसिंगार की खुशबू के साथ नए वर्ष का स्वागत- कितना बढ़िया आइडिया है ।

सान्ताक्लाज़ ने एक लम्बी साँस छोडी और बोला- मास्टर जी, पहले योरप ही क्या सारे संसार में ही नया वर्ष बसंत ऋतु के साथ शुरू होता था । एक अप्रेल को वित्तीय वर्ष शुरू होता है, यह उसी का अवशेष है । विश्व की प्राचीन सभ्यताएँ प्रकृति और प्रकृति पूजन से जुड़ी थीं । उनमें वृक्षों, पञ्चतत्वों व प्रकृति के उपादानों की पूजा का ही विधान था । पर बाद में लोगों ने अपने साम्राज्य फैलाने के लिए धर्मों का सहारा लिया और संसार की सभी प्रकृति से जुड़ी हुई सभ्यताओं का विनाश कर दिया । बस अब तो जब उनकी आज्ञा होती है तभी नया वर्ष आता है । कैसा भी मौसम हो, कितनी भी सर्दी हो- नव वर्ष को उनकी आज्ञा माननी पड़ती है ।

हमने जिज्ञासा की- पर अब भी बहुत से समाज और देश हैं -एक जनवरी वाले नव वर्ष से भी पहले के- वे तो अपना नव वर्ष अपने हिसाब से, प्रकृति के अनुसार बसंत पंचमी या चैत्र की प्रतिपदा को मना सकते हैं ।

कौन करे साहस ? सांता बोले- एक महाद्वीप उपनिवेशवादियों की जन्म-भूमि, तीन महाद्वीप इन्होंने खोजे, और वहाँ के मूल निवासियों को लगभग ख़त्म करके उन पर कब्ज़ा कर लिया, बाकी दो पर उनका शासन रहा । अब कौन करे साहस लम्बी गुलामी साहस को खा जाती है । जन्म से पिंजड़े में रहा पक्षी उड़ना भूल जाता है ।

हमने उत्तर दिया- अमरीका को देखिये । मात्र पाँच सौ साल पुराना है पर अपनी संस्कृति बनाने के लिए, पहचान स्थापित कराने के लिए उल्टे-सीधे काम ही सही, पर कुछ किया तो ? वहाँ ब्रिटेन की गुलामीवाला क्रिकेट नहीं बेसबाल चलता है, स्विच ऊपर की ओर चालू होते हैं, वाहन दाहिनी तरफ़ चलते हैं । सारे संसार में लीटर, मीटर, ग्राम चलते हैं पर वहाँ गज, फुट, इंच, गेलन, पाइंट, औंस और पौंड चलते हैं । और तो और, बिजली के उपकरण भी अमरीका के लिए विशेष रूप से बनवाए जाते हैं जो अन्यत्र काम नहीं करते । दुनिया अपनी मातृभाषा छोड़ने के लिए फिर रही है पर उन्होंने अपनी 'अमरीकन इंगलिश' बना ली ।

सान्ताक्लाज़ बोर हो गए, बोले- केवल बातें बनाते हो । इकसठ साल हो गए आजाद हुए पर स्वतंत्र सोच बनाने की बजाय और गुलाम होते जा रहे हो । इतने पिछलग्गू और कायर तो तुम आज़ादी से पहले भी नहीं थे । लगता है तुमने गुलाम बने रहने के लिए आज़ादी हासिल की है । कौन मना करता है ? करो न कुछ, अपनी अस्मिता के लिए, पहचान बनाने के लिए । तब मैं तुम्हारे लिए एक अच्छा सा 'गिफ़्ट' नहीं, उपहार लाऊँगा । और हमारे गाल पर एक हलकी सी थपकी देकर सान्ताक्लाज़ चला गया उस ठिठुरती रात में ।

हम सोचते ही रह गए कि यह थपकी थी या थप्पड़ ?

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२३ दिसम्बर २००८



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जूता प्रक्षेपक के प्रति श्रद्धा का सच



संस्कृत में एक श्लोक है- 'येन-केन-प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषः भवेत' अर्थात पुरुष को किसी भी प्रकार प्रसिद्ध होना चाहिए । प्रसिद्ध होने पर कई प्रकार के फायदे मिलने लग जाते हैं । और कुछ नहीं तो कोई न कोई पार्टी चुनाव में टिकट ही दे देती है । पत्रकारिता तो गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, बेचन शर्मा 'उग्र' आदि ने भी की पर हमेशा ही 'हैण्ड टू माउथ' रहे । और आज देखिये एक निहायत गुमनाम सा पत्रकार मुन्तज़र अल जैदी सारे संसार में चर्चित हो गया । उसे एक मुस्लिम उद्योगपति ने मर्सडीज कार तोहफे में देने की पेशकश की है, मिस्र के एक पिता ने निकाह के लिए अपनी बेटी प्रस्तुत की है । कंपनियों में उस जूते को अपनी कम्पनी का बताने की होड़ लग गई है । उन कंपनियों ने तो उस जूते को आरामदायक और मज़बूत कहकर बेचा था । उन्हें अपने जूते की मारक क्षमता का पता ही नहीं था । बुश को भी ईराक में व्यापक विनाश के हथियार नहीं मिले और व्यापक विनाश की वह क्षमता पता नहीं इस गंदे और पुराने जूते में कहाँ से प्रकट हो गई । उन जूतों को नष्ट कर दिया गया है पर पता नहीं ऐसे ही और कितने जूते ईराक में छुपे होंगे । इसलिए अमरीका को अपनी सेना ईराक में २०१० तक ही नहीं वरन तब तक रखनी चाहिए जब तक कि वहाँ एक भी जूता कम्पनी, एक भी जूता और यहाँ तक कि एक भी जूता पहनने लायक पैर बाकी है ।

तो बात चर्चित हुए मुन्तज़र की । वास्तव में कई बरसों से ईराक का आहत स्वाभिमान फिर गर्व से सिर उठाने के लिए एक मौके का मुन्तज़र था सो वह मौका पत्रकार मुन्तज़र ने उपलब्ध करवा दिया । उस बन्दे के वे जूते लगभग ५० करोड़ रुपये में खरीदने की बोली लग गयी है । कहते हैं उन्हें नष्ट कर दिया गया है । अच्छा हुआ जो नष्ट कर दिया वरना कोई न कोई उसे खरीदता, उसका स्मारक बनवाता, और फिर कोई पंथ खड़ा हो जाता । मतलब कि विवादास्पद श्रद्धा का एक और अखाड़ा तैयार हो जाता । कट्टर, अतार्किक और कर्महीन केन्द्र ही खुराफातों की जड़ बनते हैं । सभ्यताओं की इस तथाकथित लड़ाई में संसार अन्ध-श्रद्धा की इस विडंबना को भली भाँति अनुभव कर रहा है ।

तो ईराकी, मुस्लिम और अमरीका-विरोधी गौरव के इस केन्द्र मुन्तज़र की चर्चा पूरी होने से पहले ही इस दीवाने ने माफी माँग ली । पटाखा फुस्स्स हो गया । इसका मतलब है कि यह कृत्य किसी महान दर्शन या विचार से सम्बंधित नहीं था । मुम्बई कांड में गिरफ़्तार कासब भी आतंकवादी वीरता दिखाने के बाद प्राणों की भीख माँग रहा है । भगत सिंह, आजाद, अशफाकुल्ला, राजगुरु, बिस्मिल ने तो माफ़ी तो दूर की बात है, जिस दृढ़ता और गर्व से जेल में रहे उससे अंग्रेज़ प्रभावित ही नहीं भयभीत तक थे । उन्होंने ऐसे अलौकिक संकल्प की कल्पना भी नहीं की थी । असेम्बली में बम विस्फोट के बाद भगतसिंह आसानी से भाग सकते थे पर वे भागने के लिए नहीं जान देने के लिए आए थे । वे चाहते थे कि मुक़दमा चले और वे ब्रिटिश सरकार ही नहीं वरन सारे संसार को बता सकें कि भारत क्या है, क्या चाहता है ? अंग्रेज़ तो चाहते थे कि भगत सिंह ज़रा सा माफी का संकेत दें और वे उन्हें छोड़ दें । जब भगत सिंह को फाँसी के लिए लेने आए तो वे शांत भाव से एक पुस्तक पढ़ रहे थे । हालाँकि अँग्रेजों ने उन्हें आतंकवादी बताने की कोशिश की पर क्या ऐसी शान्ति और दृढ़ता आतंकवादियों में हो सकती है? ऊधम सिंह ने लन्दन जाकर जालियाँवाला बाग के अपराधी को गोली मारी और भागने की बजाय गिरफ्तार हो गए, बोले मैं जो काम करने आया था वह कर दिया, अब तुम्हें जो करना है कर लो । यह है शहादत और वीरता । मुन्तज़र और कसाब के बहाने अपनी कुंठा को सहलाने वालों को अपना गर्व और श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए कोई सकारात्मक सोच और मार्ग अपनाने चाहिए ।

जहाँ तक मुन्तज़र के लिए उचित सलाह की बात है- उसे सबसे पहले जूता-कंपनियों से टेंडर आमंत्रित करने चाहियें कि जो कम्पनी ज़्यादा पैसे देगी वह अपने प्रक्षेपित जूतों को उसी कम्पनी का बता देगा । दूसरे, कार देने की पेशकश करने वाले भक्त को बैंक खाते में मर्सडीज़ की राशिः बैंक में जमा करवाने के लिए पत्र लिख दे । यद्यपि असली जूते नष्ट कर दिए गए हैं तो भी उसे यह प्रचारित करना चाहिए कि उसके पास वैसे जूतों का एक पुराना जोड़ा और है । जब अक्ल का अंधा और गाँठ का पूरा कोई भक्त संपर्क करे तो तत्काल बेच देना चाहिए क्योंकि ऐसी दीवानगी का नशा बहुत ज़ल्दी उतर जाता है । और उस मिस्री लड़की को जेल से छूट कर आने तक इंतजार करने के लिए लिख दे बशर्ते कि वह इंतजार कर सके । ऐसे मामलों में ज़ल्दी करनी चाहिए जैसे मोनिका लेवेंस्की और क्लिंटन ने अपने अपने सत्कर्मों का रोमांच तत्काल बेच लिया । समय निकल जाने के बाद तो पालक की गड्डी की तरह फेंकना ही पड़ता है ।

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१९ दिसम्बर २००८




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Dec 22, 2008

जूते की नोक पर


(फरवरी २००८ में मायावती जी की आत्मकथा प्रकाशित हुई थी जिस के लिए हमने उन्हें बधाई देते हुए पुस्तक की काल्पनिक समीक्षा 'जूते की नोक पर' शीर्षक से की थी । वही संतों के रसास्वादन के लिए यहाँ प्रस्तुत है । )

मायावती जी,
बधाई हो । हमारी पेंशन में से पैसा बिल्कुल नहीं बचता वरना हम अखबारों में पूरे पृष्ठ का विज्ञापन छपवा कर आपको बधाई देते । आप हमारी मज़बूरी समझती होंगी । मात्र एक पत्र लिख कर ही काम चला रहे हैं । आशा है आप इसे सुदामा के चावल, शबरी के बेर, विदुर पत्नी का शाक और करमा बाई की खिचड़ी मान कर स्वीकार करेंगी । बधाई के दो कारण हैं- एक तो आपकी आत्मकथा का प्रकाशन और आपकी साफगोई । नरसिंह राव ने एक उपन्यास पंद्रह साल में पूरा किया । अपने इतने व्यस्त जीवन में से समय निकलकर लिखा जो आने वाले समय में लेखकों को, और राजनीति में उच्च मूल्यों को अपनाने के लिए भावी नेताओं को, प्रेरणा देगा । अज्ञेय जी ने पचास पृष्ठों की एक पुस्तक- 'कितनी नावों में कितनी बार' लिखी । उस पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया । हम जानते हैं कि आपकी इस एक हज़ार पृष्ठ की पुस्तक पर ये मनुवादी ज्ञानपीठ पुरस्कार तो दूर की बात है, अकादमी अवार्ड भी नहीं देंगें । पर कोई बात नहीं, प्रेमचंद और निराला को भी कोई पुरस्कार नहीं मिला था । सच्चा पुरस्कार तो जनता का प्यार होता है ।

गाँधी जी की आत्मकथा संसार की सर्वश्रेष्ठ आत्मकथाओं में से एक मानी जाती है क्योंकि उन्होंने इसमें ईमानदारी का परिचय दिया है । हमें तो आपकी आत्मकथा में गाँधी जी से भी ज़्यादा ईमानदारी और साफगोई लगी । आजकल के राजनीतिज्ञ बड़े घाघ, ढोंगी और झूठे होते हैं । एक दूसरे को देख कर ऊपर से हाथ मिलायेंगें, मुस्करायेंगे और अन्दर से गला दबाने की सोचेंगे । आपने ऐसा झूठ नहीं बोला । आपने तो साफ कहा है कि मैंने भारतीय जनता पार्टी को हमेशा जूते की नोक पर रखा है । वैसे जब कल्याण सिंह के साथ छः-छः महीने का समझौता हुआ था तब भी हमने उसी दिन लिख दिया था कि जब कल्याण सिंह का बैटिंग करने का नंबर आएगा तो आप पारी डिक्लेयर कर देंगी । और वही हुआ ।

हिट जोडी है ओपनर, माया-कांसीराम ।
पेवेलियन में जप रही, बी.जे.पी. श्रीराम ।
बी.जे.पी. श्रीराम, आयगी जब तक बारी ।
तब तक ये दोनों, घोषित कर देंगे पारी ।
कह जोशी कविराय, मारती माया छक्के ।
औ कल्याण गली में, ताकें हक्के-बक्के ॥

लोकतंत्र की शक्ति का, कैसा ठोस प्रमाण ।
क्रमशः कुर्सी पर रहें, माया और कल्याण ।
माया औ कल्याण, आज माया की बारी ।
छः महीने में उभर, आयगी फिर बीमारी ।
कह जोशी कविराय, हमें होती आशंका ।
सूर्पनखा फुँकवा ना दे, भाई की लंका ।
(संसदीय इतिहास का अनूठा प्रयोग । माया व कल्याण बारी-बारी से मुख्यमन्त्री होंगे । एक समाचार-२० मार्च १९९७ )


वास्तव में सच ही कहा है- 'ग्रेट मेन थिंक अलाइक' बस फर्क इतना ही हैं कि आपकी एक हज़ार पेज की पुस्तक छप गई और हमारे कुण्डलिया छंद 'संपादक के नाम पत्र' तक ही पहुँच पाए । वैसे कल्याण सिंह आपके राखीबन्द भाई हैं । उन्होंने आपको मुलायम सिंह के गेस्ट हाउस कांड से बचाया था पर इसके लिए अपने आभार प्रकट कर तो दिया और क्या चाहिए । आभार अपनी जगह और राजनीति अपनी जगह । प्रारंभिक दिनों में 'तिलक, तराजू और तलवार...' काव्य पंक्तियों में भी आपने स्पष्टता का परिचय दिया था । आशा करें कि वर्तमान में ब्राह्मणों पर दिखाया जा रहा प्रेम राजनीति नहीं बल्कि वास्तविक होगा ।

बात जूतों की । पहले राजपूत नुकीले जूते पहना करते थे कि यदि कभी हथियार उठाने का समय नहीं मिले तो जूतों की नोक पर, नहीं तो जूतों की नोक से ही शत्रु को घायल कर दें । शोले फ़िल्म में संजीव कुमार गब्बर सिंह को एक साथ दोनों जूतों से मारते हैं पर हमें यह फ़ोटोग्राफ़ी का करिश्मा ही अधिक लगता है । एक साथ दोनों जूतों से मारने से बेलेंस बिगड़ने का खतरा रहता है । ठोकर मारने या किक मारने में भी एक बार में एक ही पैर काम में आता है जिसका जो भी पैर चलता हो । सभी के दोनों पैर सामान भाव से नहीं चलते । बच्चा जब रास्ते में पत्थरों को ठोकर मारता चलता है तो माता-पिता उसे मना करते हैं क्योंकि इससे जूते टूटते हैं और जूते आपको पता है कि बहुत मँहगे आते हैं । आजकल जूते होते भी बहुत कोमल हैं । जूते की नोक पर मारने के लिए चमरौधे के जूते ठीक रहते हैं । वज़नदार, मज़बूत, खुरदरे और सस्ते भी । हमारे यहाँ अब भी गावों में चमरौधे के जूते बनते हैं जिनको पहन कर लोग काँटों की बाड़ पर भी चल लेते हैं । कहें तो भिजवायें दस-बीस जोड़ियाँ क्योंकि जब आप प्रधान मंत्री बन जायेंगी तो जूतों का कंज़म्पशन और भी बढ़ जाएगा ।

भारतीय राजनीति में इस कला को जयललिता ने भी काफी ऊँचाई प्रदान की है । उन्होंने इस कला से कभी कांग्रेस, कभी भा.जा.पा., कभी करूणानिधि सबको सम्मानित किया है । यहाँ तक कि शंकराचार्य को भी नहीं बख्शा । सुना हैं उनके पास दस हज़ार जोड़ी सेंडिल और चप्पलें हैं । आपके पास कितने जोड़ी हैं ? हमारे पास तो बस हवाई चप्पलों की एक जोड़ी है जो फट-फट तो बहुत करती पर उसमें मारक क्षमता बिल्कुल नहीं है ।

हमने जूतों के बारे में एक लेख लिखा था जो कादम्बिनी में छपा भी था । उसमें हमने जूतों के माहात्म्य का वर्णन किया था- बिना जूतों के सुदामा से लेकर मधु सप्रे और मिलिंद सोमण के जूतों के विज्ञापन तक का । उसमें हमने जूतों को अस्त्र और शस्त्र दोनों माना है- हाथ में लेकर मारो तो शस्त्र और फ़ेंक कर मारो तो अस्त्र । चाँदी का जूता ब्रह्मास्त्र होता है । दम लगाने पर भी 'जूते की नोकपर मारने' वाली बात उसमें छूट ही गई । वैसे जूता विवाद और संवाद, संधि और विग्रह- दोनों में काम आता है फ़र्क बस इतना है कि संधि और संवाद में जूतों में दाल बँटती है और विग्रह और विवाद में चाँद गंजी होती है । दूल्हे के जूतों को राजस्थानी में बिनोटा कहते हैं और गरीब के जीर्ण-शीर्ण जूतों को खूँसड़ा कहते हैं । जैसे कि उल्टी-सीधी हरकतें करने वाले बड़े आदमी को परमहंस कहते हैं और यदि वे ही हरकतें कोई गरीब आदमी करे तो उसे पागल कहा जाता है ।

हम आपके साहस और स्टाइल की दाद देते हैं लेकिन कामना भी करते हैं कि सब जगह से उपेक्षित ब्राह्मणों को अपनाने के बाद आप भाजपा की तरह से उनको भी जूतों की नोक पर नहीं मारेंगीं ।

आपका प्रशंसक,
रमेश जोशी

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Dec 18, 2008

चौथा जूता - भाग १


(बुश पर जूता प्रक्षेपण प्रकरण के बाद से सर्वत्र जूते ही जूते चलते दिखाई दे रहे हैं । जूतों की इस हवा में हमारा २२ दिसम्बर २००६ को सृजित यह चौथा जूता आपकी सेवा में प्रस्तुत है । )



परम आदरणीया मायावती बहिन जी,

जय भीम, जय दलित । इस संसार में जूते का बड़ा महत्त्व है । जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब भगवान किसी न किसी रूप में जूता हाथ में लेकर इस धरा पर अवतरित होते हैं और अधर्मियों को जूता मार-मार कर ठीक कर देते हैं । वैसे हमने देवताओं को प्रायः नंगे पैरों ही देखा है । इसके कई कारण हो सकते हैं । एक तो यह कि उनको धरती पर पाँव नहीं रखने पड़ते । आप जैसे जनसेवकों की तरह वे भी अपने-अपने वाहनों में उड़ते रहते हैं । साधारण आदमी की तरह यदि बस या ट्रेन की सवारी करनी पड़े तो धूल कीचड़ से गुजरना पड़ता है । भीड़ में पैरों का स्वरूप बनाये रखने के लिए भी पैरों में जूतों का होना ज़रूरी है । पर विडंबना देखिये कि उनके पास ही जूते नहीं होते । टूटी-फूटी हवाई चप्पलों से काम चलाते हैं । देवताओं के जूते न पहनने का एक कारण यह भी हो सकता है कि जूते मौजे पहने-पहने पैरों में बदबू आने लगती है और उस बदबू से भक्तों के भाग जाने का खतरा रहता है । वैसे तो सच्चे भक्त को अपने आराध्य के पैरों ही क्या पाद में भी चंदन की गंध आती है ।

भगवान जब-जब मानव के रूप में अवतार लेते हैं तो जूते भी पहनते हैं । पहले जूतों की जगह पादुकाओं का फैशन था । वन में राम-भरत मिलन के समय भरत ने भगवान राम से और कुछ न माँगकर पादुकाएँ ही माँगीं । इससे जूतों के महत्त्व का पता चलता है । कभी-कभी छोटे आदमी बड़े आदमी के जूतों में पैर डालने की कोशिश करते हैं । बड़े आदमियों के जूते बड़े मँहगे होते हैं इसलिए बड़े आदमियों के जूतों में पैर डालने के चक्कर में छोटे आदमियों के कपड़े तक उतर जाते हैं । विकासशील देशों के कपड़े उतरने का कारण अमरीका की नक़ल ही है । अभी भगवान का कल्कि अवतार होना बाकी बताया जाता है । हमें लगता है कि वह हो चुका । भगवान ने मछली, कछुआ, सूअर, नृसिंह अदि रूपों में अवतार लिया- अबकी बार वे जूते के रूप में अवतरित हुए हैं, तभी आजकल चाँदी का जूता, सिफारिश का जूता, सत्ता का जूता, जाति का जूता, भाषा का जूता, रंग का जूता आदि खूब चल रहे हैं । पुलिस, प्रशासन, पर्यटन आदि सभी इन जूतों को नत मस्तक होकर स्वीकार कर रहे हैं । यदि जूता चाँदी का हो तो पूरी पार्टी की पार्टी ही सरेंडर होने को तैयार हो जाती है जैसे भजन लाल जी की पार्टी, फिर झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सांसदों का हृदय परिवर्तन । पर हम तो साक्षात् देशी चमरौधे जूतों के उपासक हैं । ठीक है कि गाँधीजी ने जनता को अंग्रेजों के विरुद्ध जागृत किया पर इसमें क्रांतिकारियों के सीधे सादे जूतों का योगदान भी कम नहीं है । चीन, वियतनाम, क्यूबा आदि ने जूतों के बल पर ही आजादी प्राप्त की । आज भी सब तालिबान, लश्करे तैयबा, नक्सली, ईरान आदि की तरफ़ जूते की ताक़त के कारण ही ध्यान दे रहे हैं ।

... अभी शेष है ...

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सपना सच होना चाहिए






एक औरत को सपना आया कि उसका पति मर गया । उसने सबको बताया । कुछ दिन बाद उसका पति मर गया । जब पड़ोस की औरतें दुःख व्यक्त करने आयीं तो उस औरत ने उत्तर दिया- खसम मरे का दुःख नहीं, सपना सच होना चाहिए । सो एक बार बुश साहब को सपना आया कि ईराक के पास विनाश के व्यापक हथियार हैं । लोग कहते रहे, संयुक्त राष्ट्र संघ के दल ने भी कहा पर बुश साहब को अपने सपने पर विश्वास था कि ईराक के पास व्यापक विनाश के हथियार हैं ।

बुश साहब के तो अब जाने के दिन हैं । २० जनवरी को तो सरकारी मकान खाली कर ही देना है । यह समय कोई घूमने का थोड़े ही होता है । अब तो सरकारी मकान के सोफ़े, पंखे, परदे, ट्यूब लाइट, गमले आदि अपने निजी मकान में पहुँचाने का मौका देखने है । पर बुश साहब ने इस महत्त्वपूर्ण समय का उपयोग सत्य के अनुसन्धान के लिए किया । वे अंत समय तक अपने सपने के सच होने का विश्वास लिए घूमते रहे और रविवार १४ दिसम्बर को यह साबित हो ही गया कि ईराक के पास व्यापक विनाश के हथियार हैं । यह व्यापक विनाश कर सकने वाला प्रक्षेपास्त्र निशाने पर लगा नहीं तो भी विश्व के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र की इज्ज़त का कचरा कर दिया । अगर निशाने पर लग गया होता तो । ये तो प्रत्युत्पन्नमति महामहिम संभल गए वरना... ।

ये एशिया, अफ्रीका के पिछड़े हुए लोग पता नहीं कहाँ से आदिम टेक्नोलोजी उठा कर ले आते हैं कि दुनिया देखती रह जाती है । अब किसे पता था कि बिना धातु और बारूद के बनी इस गंदी सी चीज से भी इतना व्यापक विनाश किया जा सकता है । अब लोग पत्रकारों को सम्मलेन में बुलाते समय हो सकता है उनके मुँह पर टेप ही बाँध दें क्या पता कोई सिरफिरा थूक का ही प्रक्षेपास्त्र चला दे । क्या पता कोई सुन्दरी पत्रकारनी अँखियों से ही गोली मार दे । लगता है अब लोग पत्रकारों को नंगा करके ही अन्दर घुसायेंगे । हवाई जहाज में तो अपने साथ कोई भी नेता नहीं ले जाएगा । हे ईराक के जैदी मियां ! तू कोई और रूप धारण करके अपना काम कर लेता पर कम से कम पत्रकारों को तो बदनाम नहीं करता ।

बुश साहब के कार्य काल में तीन घटनाएँ हुईं और तीनों ने ही इस संसार को कूट नीति की तीन महत्वपूर्ण बातें बतायीं हैं-

१. अविश्वसनीय लोगों की मदद कभी मत लो चाहे अपने शत्रु का ही विनाश क्यों न करना हो क्योंकि ग़लत आदमी ग़लत ही होता है ।
२. फिजूल खर्ची ज़्यादा मत करो नहीं तो अच्छे-अच्छों का बजा बज जाएगा ।
३. व्यापक विनाश ही नहीं, किसी भी विनाश का हथियार भी, बाहर नहीं बल्कि आदमी के दिमाग में होता है ।

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१७ दिसम्बर २००८



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Dec 17, 2008

जूता प्रक्षेपण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता




१४ दिसम्बर को ईराक में एक पत्रकार सम्मलेन में एक पत्रकार मंजूर अल जैदी ने बुश को कुत्ता संबोधित करते हुए एक-एक कर के अपने दोनों जूते उन पर प्रक्षेपित कर दिए । अगर हम उसकी जगह होते और यदि निहायत ही ज़रूरी होता तो पत्थर फेंकते । अब दोनों जूते फ़ेंक कर पछता रहा होगा, बच्चू । अरे, ज़्यादा नहीं तो हज़ार डेढ़ हज़ार के तो होंगे ही । ठीक है दो-चार दिन अख़बार में चर्चा होगी पर कोई उसके लिए जूतों का इंतज़ाम करने के लिए चंदा नहीं देगा । ठीक है, अमेरिका विरोधी ईराकियों का सीना गर्व से फूल रहा होगा पर जैदी के पैर तो जेल में ठण्ड के मारे सिकुड़ रहे होंगे । भले आदमी ने दोनों ही जूते फ़ेंक दिए । अगर एक ही फेंका होता तो देर-सबेर दूसरे के आने की भी उम्मीद रहती पर अब तो दोनों ही दूसरे पक्ष के पास चले गए अब वह उनका सदुपयोग करने के लिए स्वतंत्र है ।

एक बार एक सेल्समैन ने एक अनजान आदमी को जूते उधार दे दिए । पता चला तो मालिक बड़ा नाराज़ हुआ, बोला- बेवकूफ, क्या तू सोचता है कि वह पैसे देने वापिस आएगा । ऐसा सतयुग नहीं है । नौकर बोला- साहब, वह ज़रूर आयेगा क्योंकि मैंने उसे दोनों जूते एक ही पैर के दिए हैं । समझदारी से काम करने से आगे भी इसी तरह व्यवहार बने रहने की संभावना रहती है । एक ही फेंका होता तो या तो अपना जूता माँगने जैदी जाता या दूसरा माँगने बुश आते ।

अब आगे से पत्रकार सम्मेलन में घुसने से पहले बाहर ही जूते उतरवा लिए जायेंगे । फिर कल को कोई थूक देगा तो फिर पत्रकारों के मुँह पर टेप लगा कर अन्दर घुसायेंगे । आदमी की खुराफ़ात का कुछ पता नहीं, अच्छा हो टेलेकान्फ़्रेन्सिन्ग से ही पत्रकार सम्मेलन कर लें । वैसे इस लोकतांत्रिक नाटक की कोई ज़रूरत भी नहीं क्योंकि पंचों के कहने के बावजूद पतनाला तो वहीं गिरना है । भविष्य में ध्यान रखेंगे । पर अब तो जो होना था सो हो गया।

जिस टी.वी.का वह पत्रकार था उसके प्रबंधकों ने कहा है कि बुश ने ईराक के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वादा किया था सो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है इसलिए जैदी को तुंरत छोड़ दिया जाना चाहिए । सभी मनुष्य एक जैसे नहीं होते इसलिए उनके अभिव्यक्ति के रूप भी अलग अलग होंगे । ९/११ अलकायदा की अभिव्यक्ति थी तो इराक पर हमला अमरीका की । भारत में मूर्तियाँ और मन्दिर तोड़ना आतताइयों की अभिव्यक्ति थी तो गांधार (कंधार) में बुद्ध की मूर्तियाँ तोड़ना तालिबानों का अभिव्यक्ति का तरीका । गधा दुलत्ती से अपने आप को अभिव्यक्त करता है तो कुत्ते के पास पूँछ हिलाने, टांगों के बीच पूँछ दबाने, गुर्राने या टाँग उठाकर पेशाब कर देने के अलावा अभिव्यक्ति का और कोई तरीका नहीं है ।

गांधी, बुद्ध और ईसा ने भी अपने को व्यक्त किया था और लोगों को समझ भी आगया था पर पता नहीं आज आदमी की भाषा क्यों बदल गयी है । हमें तो इस मामले में कुत्ते के अवमूल्यन का दुःख है । अपमान करने के लिए कुत्ते शब्द का प्रयोग किया गया जबकि किसी घटिया आदमी के लिए कुत्ते शब्द का प्रयोग करने से कुत्ते का अपमान होता है ।

कबीर ने अपने को राम का कुत्ता कहकर गर्व का अनुभव किया था । और एक ये हैं जो कभी अमरीका के कुत्ते बनते हैं तो कभी किसी अज़हर के तो कभी किसी लखवी के । तो फिर ऐसे ही करम करेंगे ।भक्त भगवान को समर्पित होता है पर कुत्ता किसी आदमी को समर्पित होता है और यह नहीं देख पाता कि वह आदमी उसे जो रोटी खिलाता है वह कैसी कमाई की है या वह उसके इशारे पर किसे काट रहा है ? इन कुत्तों के लिए कुत्तों वाली ही भाषा काम आएगी । डंडा ।

यह भाषा आपद्धर्म हो सकता है पर कामना तो यही है कि आदमी आदमी से आदमी की बोली में बात करे ।

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१६ दिसम्बर २००८



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Dec 10, 2008

वसुंधरा-किंकर



( यूँ तो भारत की राजनीति में चारण-काल कभी समाप्त नहीं हुआ पर लोकतंत्र में इसके नए नए रूप मिलते हैं । अटल चालीसा से लेकर राबड़ी चालीसा तक आ चुके हैं । राजस्थान में वसुंधरा राजे को चमचों ने महारानी ही नहीं बल्कि देवी, दुर्गा तक के रूप में चित्रित किया । एक मंत्री तो बाकायदा दुर्गा रूप में फोटो रखकर धूप बत्ती और पूजा आरती किया करते थे । वसुंधरा ने कभी इस नाटक को नकारना तो दूर वरन उसका आनंद लिया । एक महंत हनुमान दास जी ने तो एक सौ दोहों की एक पुस्तक ही जून २००४ वसुंधरा की स्तुति में लिख मारी । उसीकी प्रतिक्रिया में हमारा जून २००४ में ही एक लेख प्रकाशित हुआ था । पाठकों के कल्याणार्थ उसे फिर से प्रस्तुत कर रहें हैं । )

श्री हनुमानदास वैष्णव उर्फ़ हनुमान किन्करजी महाराज, जय श्रीराम ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक बार किसी सांसारिक व्यक्ति की प्रशंसा में कुछ लिख दिया था पर इस भूल के लिए वे जीवन भर पछताते रहे और इसीलिए रामचरित मानस में लिखा है-
कीन्हे प्राकृत जन गुन गाना ।
सिर धुनि गिरा लागि पछिताना ।


आपने तो एक सौ दोहों का एक संकलन ही राजस्थान की मुख्य-मंत्री वसुंधरा राजे की स्तुति में लिख डाला । यदि आपने नाम के अनुरूप सच्चे हनुमान भक्त हैं, और सच्चे कवि भी तो अगर कभी आत्मा जग गई तो वास्तव में बहुत पछताना पड़ेगा । एक और संत थे । अकबर की राजधानी फतेहपुर सीकरी के पास रहते थे । अकबर ने सुना कि वे अच्छा गाते हैं तो बुला लिया, दरबार में गाना गाने के लिए । संतजी दुखी । रास्ते भर सोचते जा रहे थे । अच्छे कवि भी थे । दरबार में सुनाया :-
संतन को सीकरी सों का काम ।
आवत जात पनहियाँ टूटें, बिसर जात हरि नाम ।


अकबर की अक्ल ठिकाने आगयी । क्षमा माँग कर विदा लिया । आपके नाम के साथ संत लगा हुआ है । यदि आप महंत होते तो कोई बात नहीं थी । महंतों की बड़ी लम्बी चौड़ी जागीर होती है । बंदूक भी रखते हैं । हाथी-घोड़े - पूरा ठाठ होता है । उन्हें यदि सत्ता का सरंक्षण चाहिए तो कोई बात नहीं । उनका सत्ता गुण-गान उचित है । पर आप तो संत हैं । संत तो भगवान के संरक्षण में रहते हैं । उन्हें कुर्सी- अर्चना की क्या आवश्यकता ? वैसे आप की उम्र भी वानप्रस्थ के करीब होगी फिर क्यों अगले लोक की फिक्र नहीं करते ?

आप कहेंगें कि हम परेशान क्यों हो रहे हैं । और लोग भी तो नेताओं की प्रशंसा और स्तुति करते हैं । ग्वालियर के एक वकीलजी ने तो अटलजी का मन्दिर बनाने का ही प्रचार कर दिया । तेरह मई को अटलजी के शपथ ग्रहण की तिथि से एक दो दिन पहले अटलजी की प्रतिमा को नदी में स्नान करवाते हुए लोगों का फोटो भी हमने अखबार में देखा था । इसके बाद फील गुड उल्टा हो गया तो पता नहीं वकीलजी की मन्दिर की योजना चालू है या बंद हो गई ? उधर बिहार में भी लालू चालीसा लिखा गया । दिल्ली के एक मुसलमान कवि हैं जो अटल जी के प्रधानमन्त्रित्व काल में रोज़ अटलजी पर एक कविता लिखा करते थे । अब पता नहीं बंद कर दी या मनमोहन जी पर लिखने लगे क्या ?

राजाओं के दरबार में भी ऐसे कवि हुआ करते थे जो राजाओं से बख्शीश पाने के लिए उनकी झूठी प्रशंसा किया करते थे । गधे को बाप और मतलब न होने पर बाप को भी गधा मानने वाली महान संवेदनशील संस्कृति से तो आप परिचित होंगे ही ? वैसे आपको कब पता चला कि वसुंधरा राजे के रूप में अम्बा और चंडी का अवतार हो चुका है ? वैसे उनका जन्म तो आधी सदी पूर्व ही हो चुका था पर उनके अम्बा रूप का पता आपको शायद उनके मुख्य मंत्री बनने के बाद लगा ? शिवजी को तो राम का अवतार होते ही पता चल गया था और वे उनके दर्शन करने अयोध्या भी पहुँच गए । महान प्रगतिवादी लेखक राजेंद्र यादव को भी अपने यादव होने का पता तब चला जब लालू यादव और मुलायम सिंह यादव भारत की राजनीति में स्थापित हो गए ।

मैं किसी साधारण व्यक्ति द्वारा फायदेवाले व्यक्ति का गुणगान करने के खिलाफ नहीं हूँ । पर आपके लिए मैं विशेष रूप से इसलिए सोच रहा हूँ कि हम भी हनुमान जी के भक्त हैं और आप भी हनुमान किंकर अर्थात हनुमान जी के चाकर हैं अतः हम धर्म भाई हो गए और एक भाई के पतन पर दूसरे भाई का दुखी होना उचित ही है ।

राजतिलक के समय हनुमान जी को सीता जी ने मोतियों की एक माला दी । हनुमान जी उन मोतियों को तोड़ कर उनमें राम और सीता की छवि तलाशने लगे पर आप तो भक्ति में भगवान के स्थान पर मोतियों की माला तलाशने लगे । यह क्या कर रहे हैं भक्तराज ! वैसे वसुंधरा का अर्थ पृथ्वी भी होता है । तभी ऋषि ने कहा है- माता पृथिव्या, पुत्रोहम । पृथ्वी से हम सबका माता और पुत्र का नाता है । इस सम्बन्ध को और दृढ़ करें और इस पृथ्वी को और अधिक सुंदर बनने का प्रयत्न करें । आपके नाम के साथ वैष्णव भी जुड़ा हुआ है । 'वैष्णव जन' पद के रचयिता भक्त कवि नरसी मेहता गुजरात के थे । उन्होंने घोर दरिद्रता में भी भगवान से कुछ नहीं माँगा । भगवान तो स्वयं उनका भात भरने आए थे । सो भगवान पर भरोसा रखिये । वे आवश्यकता होने पर अवश्य आपकी सहायता करेंगे ।

आपने पुस्तक का प्रकाशन स्वयं किया । अच्छी बात है । वरना आपकी इस महान और कमाऊ कृति को कोई भी प्रकाशक आराम से मिल सकता था । संसद और विधायकों के शुभकामना संदेश तो मिलने ही थे वे तो तैयार रहते हैं कि कोई संदेश माँगे और वे भेजें । वैसे आपकी यह कृति बिकेगी अवश्य, हो सकता है सरकारी खरीद भी हो जाए ।

यदि आप हमें समीक्षा लिखने के योग्य समझते हैं तो कृपया दो प्रतियाँ भिजवादें । वो धाँसू समीक्षा लिखेंगें कि क्या बात है । हमारे देश में सरकारें बदलते ही सड़क, जिला, और पाठ्य पुस्तकें तक बदलने लग जाते हैं क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है । सरकार बदलने से पहले ही इस महान, लोक कल्याणकारी, शिक्षाप्रद और जन्म सुधारने वाली कृति को किसी बी.ए., एम.ए. के कोर्स में लगवा लीजिये ।

आपका धर्मभाई,
रमेश जोशी

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१० दिसम्बर २००८



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Dec 9, 2008

बसंती की इज्ज़त तो बच गयी मगर ....



राजस्थान के चुनावों के विस्तृत परिणाम अखबार में पढ़ ही रहे थे कि तोताराम प्रकट हुआ, बोला- भाई साहब, चाय मँगवाइए, आपका लघु भ्राता बसंती की इज्ज़त बचा कर सकुशल लौट आया है । हमने कहा- तोताराम, राज्य में ३२ जिले हैं और दिगंबर सिंह उर्फ़ बसंती की इज्ज़त ३५२४ वोटों से बच गयी । हर जिले से समझ ले कि तेरे जैसे ५-५ मर्द भी डीग-कुम्हेर गए होंगे तो हर एक ने २०-२२ वोटों का योगदान दिया होगा । अगर अपने जिले से ५ आदमी न भी जाते तो भी दिगंबर सिंह उर्फ़ बसंती की इज्ज़त आराम से बच जाती । वैसे दिगंबर का अर्थ निर्वस्त्र भी होता है सो अगर कुछ ऐसा वैसा हो भी जाता तो भी क्या फ़र्क पड़ता था पर देख यहाँ तो ज़रा से सहारे के अभाव में चीर-हरण ही हो गया -भरी सभा में । कांग्रेस अध्यक्ष सी.पी. जोशी मात्र एक वोट से इज्ज़त उतरवा बैठे । यदि तू ही नाथद्वारा चला जाता तो दिगंबर का तो कुछ बिगड़ता नहीं पर हाँ, जोशीजी की यूँ मिट्टी पलीद नहीं होती । नीरज ने जो कहा वही हो गया- एक तार की दूरी है बस दामन और कफ़न में । और फिर एक दूसरे जोशीजी और हैं लक्षमण गढ़ वाले, जो मात्र ३४ वोटों से मात खा गए । दो आदमी इधर भी चले जाते तो इस पंछी की नैया भी पार हो जाती ।

तोताराम बोला- देख मास्टर! मुझे राजनीति में कोई रुचि नहीं है । और फिर तुम्हारे कांग्रेस अध्यक्ष के घर में ही तो थे श्रीनाथजी । सारे राज्य में घूमते फिरे मगर श्रीनाथ जी के एक बार से ज्यादा धोक नहीं लगाई वरना एक वोट का क्या श्रीनाथजी ख़ुद ही डाल आते एक वोट तो । वैसे ठीक भी रहा, सबको पता चल जाएगा कि एक वोट की भी कीमत होती है । इससे यह भी शिक्षा मिलती है कि अपने एक वोट को पटाने की बजाय दूसरे के दो वोट बिगाड़ना अधिक महत्वपूर्ण है । इस सिद्धांत को ख़ुद की नाक कटवाकर दूसरे के सगुन बिगाड़ना कहते हैं । और फिर जोशीजी ओवर कोंफिडेंस में भी तो मार खा गए । एक बार पुकारा भी तो नहीं हमें । यदि पुकारते तो क्या हम नहीं जाते ? डूबते गजराज को बचाने के लिए तो भगवान नंगे पैरों दौड़े चले गए थे ।

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८ दिसम्बर २००८




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Dec 7, 2008

आपके साथ हमारी पूरी सहानुभूति है मियाँ ज़रदारी



मियाँ ज़रदारी,
भगवान आपको सद्बुद्धिप्रदान करे । भले ही लोग आपकी आलोचना करें पर हमें आप से सहानुभूति है । वैसे आप खानदानी जागीरदार और ज़रदार हैं, तभी तो बेनज़ीर ने आपको चुना । जैसे डॉक्टर की पत्नी डॉक्टरनी और मास्टर की पत्नी बिना किसी डिग्री के ही मास्टरनी बन जाती है वैसे ही आप भी बिना चुनाव लड़े ही प्रधान मंत्री क्या, प्रधान मंत्री पति बन गए । हमारे यहाँ महिलाओं को आरक्षण मिलने के बाद महिला सरपंच चुनी जाने लगी हैं और उनका सारा काम उनके पति महोदय चलाते हैं, सील और लेटर पेड उन्ही की जेब में होते हैं । यहाँ तक कि वे सरपंच पति के नाम से जाने भी जाते हैं । नेतागिरी करते घूमते रहते हैं । आपने भी प्रधान मंत्री पति होने का बड़ा सुख लिया है । सेंट पर सेंट खा जाने पर भी आपको कौन पूछ सकता था पर हम आपके संतोष और पारदर्शिता की दाद देते हैं कि आपने केवल दस प्रतिशत ही खाया और पूरी पारदर्शिता से खाया कि लोग आपको मिस्टर दस परसेंट के नाम से ही जानने लगे । अब मिस राईस ने मुम्बई मामले की जाँच पूरी पारदर्शिता से करवाने के लिए कहा है, पर आप ही क्या पूरे पाकिस्तान का ही इतिहास कपड़ों के बावजूद पूरा पारदर्शी रहा है यह अमरीका से ज़्यादा और कौन जानता है? जब आप नवाज़ से गठबंधन कर रहे थे तब भले ही नवाज़ मूर्ख बन रहे थे या मज़बूरी में थे पर हमें तो सब कुछ पूरा साफ-साफ दिख रहा था ।

अगर बेनज़ीर वाला हादसा न होता और वे चुनी जाती तो फिर टेन परसेंट वाला मामला चल निकलता । पर अब क्या किया जाए पूरी हंड्रेड परसेंट की जिम्मेदारी आ गयी । आतंकवादियों को पकड़ें या नहीं पर हिसाब तो पूरा बना कर दिखाना पड़ेगा । और अब बुश की जगह यह ओबामा आ गया । यह हिसाब किताब का कुछ पक्का लगता है । आपसे ज़्यादा अनुभव नवाज़ को है । अच्छा होता आप उनको प्रधान मंत्री बना देते । पर यह साली कुर्सी होती ही बड़ी कुत्ती चीज । अच्छे अच्छों का दिल डोल जाता है । और दिल का क्या ? पालिन को देखते ही जूते खाने वाले डायलाग बोलने लगा । आपने कुर्सी सँभालते ही अच्छी अच्छी बातें बोलना शुरू किया तभी से हमारा माथा ठनकने लगा था । कवियों ने कहा भी है-
बुरो बुराई जो तजे, तो चित खरो सकात ।
ज्यों निकलंक मयंक लखि, गनें लोग उत्पात ॥

अर्थात यदि बुरा आदमी बुराई छोड़ने की बात करता है, तो मन में शंका होती है । जैसे यदि चन्द्रमा में दाग न दिखे तो लोग इसे किसी दुर्घटना की शंका के रूप में देखते हैं ।

अब देख लो मुम्बई वाला मामला हो गया ना ।

अब आप भारत द्वारा वांछित बीस आतंकवादियों के बारे में जो कुछ कह रहें हैं यदि वह आपकी बात है तो दुःख की बात है और यदि आई.एस.आई., कट्टरपंथियों और सेना के दबाव के कारण कह रहे हैं तो और भी भयंकर बात है । फिर क्या फ़ायदा हुआ, ऐसा लोकतंत्र तो पहले भी पाकिस्तान में चल ही रहा था । हमें आपकी हालत पर तरस आता है । कठपुतली राजा की हालत तो गुलाम से भी बुरी होती है । अगर और आतंकवादियों की बात छोड़ भी दें तो दाऊद इब्राहीम तो भारत का नागरिक है उसे सरंक्षण देने का क्या मतलब है ? यदि निर्दोष व्यक्ति को प्राणों का भय हो तो उसको शरण देना शरणागत वत्सलता हो सकती है जैसे राम ने विभीषण को शरण दी थी या राजा शिवि ने कबूतर को शरण दी थी या हम्मीर अलाउद्दीन के एक सेना अधिकारी को शरण दी थी । पर दाऊद इब्राहीम तो मुम्बई बम कांड का अपराधी है । उसे शरण देना तो शत्रुता है जैसे ब्रिटेन का फिजो, जगजीत सिंह चौहान या लाल डेन्गा को शरण देना था ।

आपकी वर्तमान स्थिति के बारे में हम आपको एक कहानी सुनाते हैं । एक बार एक गीदड़ ने देखा कि एक शेर दहाड़ा, उसकी पूँछ खड़ी हो गई, आँखें लाल हो गईं फिर वह शिकार पर टूट पड़ा और जानवर को मार लिया । गीदड़ को यह तरीका बड़ा सरल लगा । घर आकर उसने अपनी पत्नी से कहा अब मैं शिकार करूँगा । उसने ज़ोर से हुआं-हुआं की आवाज़ निकाली और पत्नी से पूछा- बता मेरी आँखें लाल हुई कि नहीं, पूँछ खडी हुई कि नहीं । पत्नीके मना करने पर उसने डाँट पिलायी । पत्नी ने डरकर हाँ कर दी । उत्साहित होकर गीदड़ पास ही एक छोटी झाड़ी में से पत्तियाँ खा रहे ऊँट की गर्दन पर टूट पड़ा । ज्यों ही ऊँट ने गरदन ऊँची उठाई, गीदड़ ज़मीन से आठ फुट ऊँचा उठ गया । गीदड़ी ने डर कर कहा- हे हठीले! शिकार करने का हठ छोड़ दे । तो गीदड़ ने एक दोहा कहा-
सुंदर का बोल मेरे मन भावे ।
पर धरती पर पैर मंडण नहीं पावे ॥

अर्थात हे सुन्दरी ! मुझे तुम्हारी बात अच्छी लगती है पर क्या करूँ मेरे पैर ही धरती पर नहीं टिक पा रहे हैं ।

यदि आप वास्तव में ही पाकिस्तान में लोकतंत्र को बचाना और मज़बूत करना चाहते हैं तो नवाज़ के साथ मिलकर
ईमानदारी से काम करिए । शुरू में इन आतंकवादियों को पालने वाला अमरीका ही है पर अब अपनी फटी में ही सही, मदद करने के लिए तैयार है सो अच्छा मौका है पाकिस्तान को कट्टरपंथियों से मुक्त कराने का । इतिहास में नाम दर्ज करवाने के मौके बहुत ही कम लोगों के जीवन में आते हैं । अब मौका है हिम्मत करने का वरना इतिहास का कूड़ेदान बहुत बड़ा है उसमें आप जैसे जाने कितने पड़े होंगे ।

आपका शुभचिंतक ,
रमेश जोशी

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४ दिसम्बर २००८



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Dec 4, 2008

चिदंबरम का मार्ग-दर्शन और गृह मंत्री की भाषा




चिदंबरम जी ,
वणक्कम । आप गृह मंत्री बन गए । दुविधा में हैं कि आपको बधाई दें या संवेदना प्रकट करें ? वित्त मंत्रालय अच्छा था । आराम से वातानुकूलित संसद में चार घंटे अंग्रेज़ी में सुन्दरकाण्ड का पाठ कर दिया और पाँच साल की छुट्टी । आधे से ज़्यादा सांसदों को अंग्रेजी समझ में नहीं आती । जिनको टेक्स चोरी करनी है उनकी सेवा में अंग्रेज़ी जानने वाले चार्टर्ड अकौन्टेन्ट मौजूद हैं और जो टेक्स से बच नहीं सकते उन्हें समझ कर करना ही क्या है ।

अब यह गृह मंत्रालय मिल गया । बड़ा सूगला विभाग है । जब शान्ति हो तो कोई धन्यवाद नहीं देता पर जब कोई दुष्ट चुपके से कहीं कुछ कर जाता है तो गृहमंत्री की गर्दन पकड़ो । चाय की रहदी लगाने वाला भी इस्तीफा माँगने लग जाता है । वित्त मंत्रालय में तो आराम से गाड़ी पर बैठे, कान में कलम घुसेड़े करते रहो कागज़ काले । सेंसेक्स, मुद्रास्फीति, रिसेशन, मेल्ट-डाउन किसी के समझ में नहीं आता तो बोलेगा कौन? खैर! अपने गृह मंत्री बनते ही अपने वक्तव्य में सबसे सहायता की अपेक्षा की थी सो हम आपकी सहायता के लिए ही यह पत्र लिख रहे हैं ।

वित्त मंत्रालय, विदेश मंत्रालय या किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में तो केवल अच्छी अंग्रेज़ी जानने मात्र से ही नौकरी और पदोन्नति मिल सकती पर इस भारत में हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों जाने बिना न तो प्रधान मंत्री और न ही गृह मंत्री मंत्री के रूप में सफल हुआ जा सकता है । अगर देवीलालजी अंग्रेज़ी जानते होते या देवेगौड़ा जी हिन्दी जानते होते तो टर्म पूरा कर जाते । आप तमिल और अंग्रेजी तो बढ़िया जानते हैं , हिंदी भी थोड़ी-थोड़ी समझ लेते हैं पर गृहमंत्री के लायक नहीं । अगर ग़लत सन्दर्भ में नानी याद दिला दी तो लोग और सब बातें छोड़ कर केवल भाषा की टाँग तोड़ने लग जायेंगे ।

गृह मंत्रालय के अन्दर में मुख्य रूप से पुलिस आती है और पुलिस की भाषा सबसे अलग होती है । पुलिस की भाषा किसी स्कूल में नहीं सीखी जा सकती है यह तो पुलिस और आम जनता के बीच सार्थक संवाद में चौकियों और थानों में विकसित होती है । इसे सीखने के लिए आपको ८ पी.एम. के बाद किसी पुलिस चौकी के पिछवाड़े छुप कर खड़े होना होगा । पर सावधान रहिएगा कि कहीं आम आदमी समझ कर कोई कानून का रखवाला आपका स्टेटमेंट न ले ले ।

गृह मंत्री खैर ! मंच पर तो पुलिस वाली संसदीय भाषा नहीं बोल सकता पर यह तो तय है कि उसका काम वित्तमंत्री वाली भाषा से भी नहीं चल सकता । और मनमोहन सिंह और शिवराज पाटिल वाली भाषा से तो बिल्कुल भी नहीं । इनकी भाषा इतनी करुण होती है कि सुनकर आदमी का दिल मेल्ट डाउन हो जाए और बन्दूक चलाने की बजाय अपना सर पीटने लग जाए पर क्या किया जाए आतंकवादियों के दिल होता ही नहीं । सो हम गृह मंत्री के लिए उपयुक्त हिन्दी भाषण के बारे में आपको कुछ जानकारी देना चाहते हैं ।

संकट के समय गृह मंत्री को माइक सामने होते हुए भी चिल्ला-चिल्ला कर बोलना चाहिए भले ही आवाज़ फट जाए या मुँह से झाग नकलने लग जायें । आपको धीरे-धीरे स्टाइल वाली अंग्रेजी बोलने की आदत है , पर चिल्लाते-चिल्लाते अभ्यास हो जाएगा जैसे माँगते-माँगते आदमी एक अच्छा फकीर हो जाता है । प्रत्येक भाषा में कुछ शब्द और मुहावरे ऐसे हटे हैं जिन से जोश, बहादुरी और दृढ़ता टपकती है । इनका बीच-बीच में प्रयोग करने से सुनने वालों को लगता है कि बन्दा ज़रूर कुछ न कुछ करेगा । जैसे ईंट से ईंट बजा देंगे, नानी याद दिला देंगे, नाकों चने चबवा देंगे, धूल चटा देंगे, दाँत खट्टे कर देंगे, छठी का दूध याद करा देंगे, खून की नदियाँ बहा देंगे, मर जायेंगे, मिट जायेंगे आदि-आदि ।

यदि अंग्रेजी बोलनी ही तो 'नो स्टोन अन टर्न्ड' जैसे मुहावरों का ही प्रयोग करें । अंग्रेजी का छौंक लगाने से हिन्दी का स्वाद और बढ़ जाता है । बीच-बीच में 'भारत माता की जय' चिल्लाते रहना चाहिए । यदि वोट बैंक को खतरा नहीं हो तो 'वन्दे मातरम' भी चिल्लाया जा सकता है ।

आप सोच रहेंगे होंगे कि क्या इस तरह भाषण देने या चिल्लाने से आतंकवादी डरकर भाग जायेंगे या आने का साहस नहीं करेंगे । ऐसी बात नहीं है । पर हाँ, इससे जनता का गुस्सा निकल जाएगा । मनोवैज्ञानिकों का मत है कि चिल्लाने से हीन भावना दूर होती है । वैसे जनता कब तक निराश और हताश रह सकती है । आखिर तो झख मार कर पेट के लिए दिहाड़ी पर जाना ही पड़ेगा । थोड़े दिनों में भूल जायेगी । बस अगले चुनावों तक माहौल बनाकर रखिये । और अगर अगले बरस जनता ने पाटिया पलट ही दिया फिर अडवानी जी जानें या तोगडिया जी जानें या आतंकवादी जी जानें ।

आपका शुभचिंतक,
रमेश जोशी

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२ दिसम्बर २००८




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Jhootha Sach

Dec 1, 2008

अब तो पड़ गयी ठण्ड ? पाटिल का इस्तीफा



गृह मंत्री का पद क्या हो गया, आफ़त हो गई । घर में एक मंत्री होती है घर वाली । सब उस पर सवार । चाय अभी तक क्यों नहीं बनी, क्या झाड़ू लगाती हो, यहाँ कूड़ा पड़ा है, दाल में नमक ज़्यादा क्यों पड़ गया, बच्चा क्यों रो रहा है, मेरे मोजे कहाँ हैं, चुन्नू आज लंच-बोक्स भूल गया । गृहिणी एक और प्राण खाने वाले हज़ार । सास, ननद, ससुर, देवर, पति सबके अपने-अपने नखरे । अगर यही अपना चंडी वाला रूप दिखा दे तो सबकी जूँएं सो जायें । पाटिल बेचारे भले आदमी । किसी की जेब कट गई तो पाटिल की गलती, लल्लू की मुर्गी कल्लू का कुत्ता ले भगा तो पाटिल पर गुस्सा, किसी के घर में मच्छर घुस गया तो पाटिल को पकड़ो, किसी की दाल में मक्खी गिर गई तो पाटिल की लापरवाही । गृह मंत्री क्या बन गए सारे देश के गुलाम हो गए! अरे इतना बड़ा देश, हजारों किलोमीटर की स्थल और जल सीमा, रखवाली करने वाला एक आदमी और घुसने वाले अरबों लोग । लोगों को ख़ुद को तो अपने दो बच्चों की पूरी सी ख़बर नहीं रहती कि होम वर्क किया नहीं, स्कूल का नाम लेकर होटल में दारू तो नहीं पी रहा । करोड़ों बंगालादेसी आ घुसे तो क्या अकेले पाटिल के ही टाइम में ही आ घुसे? चालीस साल में और भी तो गृह मंत्री हुए है । पर ठीकरा पाटिल के सर । जिसे देखो पाटिल पर पिला पड़ रहा है ।

और आरोपों का आधार देखिये? बन्दे के सूट । उनका समयानुकूल साफ-सुथरे कपड़े पहनना । जिनके पास एक निक्कर और कमीज़ के अलावा और कुछ नहीं वे भुने जा रहे हैं । पाटिल दिन में तीन-तीन सूट बदलते हैं । अरे भाई जब हैं तो क्या ट्रंक में बंद करके रखने के लिए हैं क्या? क्या चड्डी-बनियान पहने ही किसी जेबकतरे के पीछे भाग लें? तब इनकी आत्मा को शान्ति मिलेगी । विष्णुजी के पास तो एरिया कम था । एक हाथी को बचाने के लिए नंगे पाँव दौड़ पड़े तो उसके चर्चे आज तक गाये जा रहे हैं । अगर पूरे भारत का चार्ज दे दिया जाए तो पता चले । फिल्मों में एक नाचने वाली तीन मिनट में तीस ड्रेसें बदल लेती है तो किसी को कोई एतराज़ नहीं । ये तो चाहते हैं कि गृह मंत्री पाँच साल तक न तो नहाये, न कपड़े बदले, न बाल ठीक करे । हो सकता है आतंकवादी गृह मंत्री के पसीने की बदबू से भागते हों ।

इन आम आदमियों को क्या पता कि कपड़े अवसर के अनुकूल पहनने चाहियें । अगर मान लीजिये पहन रखा है हरा सूट और जाने की ज़रूरत पड़ गयी गमी में तो सोचिये क्या अच्छा लगेगा? मौका देखना पड़ता है उसके अनुसार रंग चुनना पड़ता है । भले मरने वाले को लोग जला कर आ जायें और आप काला या सफ़ेद सूट खोजते रह जायें, कोई बात नहीं । डेकोरम भी तो कोई चीज़ होती है । पत्रकारों से क्या लालू जी की तरह लुंगी में ही मिललें?

भगवान की कृपा से मंत्री बन गए तो कपड़े पहनने का मौका मिला है वरना तो वकील थे तो वही काला कोट, सरदी, गरमी बरसात सभी मौसमों में । लोग समझते है कि भाडू (वकील) के पास एक ही कोट है । और ये मंत्री कोई ज़बरदस्ती बन गए क्या? बना दिया तो बन गए, हटा दिया तो हट गए । 'लायी हयात आए, कजा ले चली चले । न अपनी खुशी से आये, न अपनी खुशी चले ।' अब किसी और को बनाया तो वह बन गया । अब आप सोचते होंगे कि नया गृह मंत्री चड्डी बनियान और जूते पहन कर खड़ा रहेगा और सीटी बजाते ही दौड़ पड़ेगा । यह हो सकता है कि ये पेंट पहनते और वह लुंगी बाँधेगा पर थोड़ा बहुत टाइम तो उसमे भी लगेगा ही । लुंगी में दौड़ना थोड़ा मुश्किल तो होता ।

वैस हमें तो इस बात पर आश्चर्य है कि जब लोगों को आतंकवाद समाप्त करने इतना सरल उपाय मालूम था तो समय रहते बताया क्यों नहीं? पाटिल को हटा देते, मुम्बई पर हमला होता ही नहीं । अच्छा हो, पाटिल को हटवाने वाले ख़ुद ही गृहमंत्री बन जायें और दो चार दिन में हटा दें आतंकवाद को । हम उसके नाम की सिफ़ारिश कर देंगें । पर फिर भी न मिटा तो?

पंडित होने के नाते हम पाटिल साहब को ग्रह शान्ति का एक नुस्खा बताते हैं- वे अपने उन काले, सफ़ेद और हरे रंग वाले कुख्यात सूटों को किसी विपक्षी पार्टी वाले या पत्रकार को दान में दे दें और हर मंगलवार को ब्रह्म मुहूर्त में कच्छा बनियान पहन कर नंगे पैर कनाट प्लेस वाले हनुमान जी के दर्शन करने जाएँ । अवश्य दिन फिरेंगे । रही बात चिदंबरम की तो उनके पास तो सीधा सा उपाय है कि आतंकवादियों के आयात पर इतना टेक्स लगा देंगे कि बच्चू को लाख बार सोचना पड़ेगा कि आतंकवाद के धंधे में रहूँ या कोई और धंधा करूँ?

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१ दिसम्बर २००८




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डरता कौन है - ईश्वर या ठेकेदार ?



१९६५ में मेकार्टनी नामक बीटल गायक के इजराइल में होने वाले कार्यक्रम पर यह कह कर प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि इससे युवकों के भ्रष्ट हो जाने का भय है । लेबनान में रह रहे एक इस्लामी उपदेशक उमर बकरी मोहम्मद ने घोषित कर दिया कि मेकार्टनी सब मुसलमानों का शत्रु है । अक्टूबर २००८ में अमरीका में न्यूयार्क के मेसेना सेन्ट्रल हाई स्कूल के अभिभावकों ने वहाँ चलने वाली योग कक्षाओं को यह कह कर बंद करवा दिया कि उनके अनुसार इससे उनके बच्चों को हिंदू कर्म कांडों में दीक्षित किया जा रहा है । अभी नवम्बर २००८ में मलेशिया में एक इस्लामी संगठन ने योग करने पर यह कह कर फतवा ज़ारी कर दिया कि यह प्राचीन व्यायाम वर्जित है और इस्लाम के अनुसार हराम है । उनकी राय में योग करने से लोगों का इस्लाम में विश्वास ख़त्म हो जाएगा ।

इस विचार पर तो शायद संसार के सारे धर्म एकमत हैं कि ईश्वर एक है । जब ईश्वर एक है तो वह सनातन धर्म, यहूदी, बौद्ध, जैन, ईसाई और इस्लाम धर्म से पहले भी एक ही था और भविष्य में भी एक ही रहेगा । इन धर्मों के उदय से पूर्व भी, उन क्षेत्रों में जहाँ इन धर्मों का जन्म हुआ, कोई न कोई धर्म प्रचलित रहा होगा और नए धर्म के अनुयायी पूर्व में किसी अन्य धर्म के अनुयायी रहे होंगे । जब ये धर्म पुराने धर्म के स्थान पर नए धर्म की स्थापना कर सकते हैं तो फिर धर्मों में परिवर्तन या नए धर्मों के प्रवर्तन की संभावनाएँ हमेशा बनी रहेंगी । अर्थात् न कोई धर्म अन्तिम है और न कोई धर्म अपरिवर्तनीय । इसीलिए तो नए धर्म बनते रहते हैं या पुराने धर्मों में विभाजन होते हैं और होते रहेंगे । किसी को किसी भी धर्म में ज़बरदस्ती बाँधे रखना या अपने विश्वास के अनुसार ईश्वर की कल्पना व आराधना से वंचित करना उचित नहीं है । यही धार्मिक स्वतंत्रता है । इसी शाश्वत सत्य को ध्यान में रखकर गाँधी जी के कहा था कि संसार में जितने मनुष्य हैं उतने ही धर्म हैं । इसीलिए गाँधी जी किसी के भी धर्म परिवर्तन करने या करवाने के ख़िलाफ़ थे ।

यहाँ यह उल्लेख करना ग़लत नहीं होगा कि एक पाकिस्तानी जर्मनी चला गया वहाँ वह ईसाई बन गया । जब वह लौट कर पाकिस्तान आया तो उसे बताया गया कि यदि वह पाकिस्तान में जीवित रहना चाहता है तो उसे इस्लाम में वापिस आना पड़ेगा । इसके बाद जर्मनी ने हस्तक्षेप किया तो वह किसी तरह वापिस जर्मनी जा सका । अपने धर्म के एक आदमी के लिए इतनी हायतौबा । ध्यान रहे कि भारत में मुसलमानों या यूरोपियन के आने से पहले एक भी ईसाई या मुसलमान नहीं था । सबको भय या लालच से धर्म परिवर्तन करवाया गया । अभी दो दिन पहले ही जापान के उन १८८ लोगों को रोमन केथोलिक चर्च ने संत का दर्जा दिया है जिन्होंने १६०३ से १६३९ के बीच धर्म छोड़ने की बजाय मौत की सज़ा को पसंद किया । नागासाकी में पॉप बेनेडिक्ट १६ वें की तरफ़ से होज़े सारिवा मार्टिन ने ब्लेसिंग की रस्म अदा की । यदि धर्म इतना ही महत्वपूर्ण है तो फिर सेवा के बहाने संसार के दूरस्थ आदिवासी इलाकों में जाकर भोले-भले आदिवासियों का ज़रा सी सेवा के बदले धर्म परिवर्तन करवाने की क्या ज़रूरत है । क्या धर्म बदलवाए बिना सेवा नहीं की जा सकती? बड़ा क्रूर और महँगा सौदा है । यह सेवा नहीं बल्कि धर्म, धन और राजनीति का कुटिल षडयंत्र है । जब कहीं भी थोड़ा सा भी विरोध होता है तो मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता की दुहाई दी जाती है । यह धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में धर्म परिवर्तन करवाने की चाल है । धर्म बदलने से ही अगर कल्याण होना होता तो आज अफ्रीकी ईसाई भूखे क्यों मर रहे हैं? स्वतंत्रता के काबे अमरीका में ईसाई ओबामा में अफ्रीकी मूल दीखने लगा । मतलब कि ईसाई बनकर भी ओबामा पूरी तरह अपना नहीं बन पाया ।

ईश्वर को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई उसे पूजता है या नहीं या कैसे पूजता है । ईश्वर और व्यक्ति का रिश्ता नितांत व्यक्तिगत है । उनके बीच में कोई तीसरी शक्ति नहीं है और न उनके बीच में किसी को टाँग फँसाने का अधिकार है । आज सारे संसार में स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की बात होती है पर कोई भी शक्ति चाहे वह राजनीति हो या धर्म, उसे मुक्त नहीं होने देना चाहती क्योंकि अपने अनुयायियों के बल पर ही वे अपनी व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि के लिए शक्ति प्राप्त करते हैं । धर्म से लाभ कमाने वाले ये लोग आदमी और भगवान के बीच एजेंट, दलाल, गेटकीपर या दादा बने हुए हैं । धर्म के नाम पे कोई भी अनुचित काम कर और करवा सकते हैं । ये ही कभी तलवार और कभी सेवा का स्वांग लेकर दूसरे धर्म की भेड़ों के गले में अपना पट्टा बाँधने के लिए निकलते हैं । उन्हें मानव के कल्याण और स्वतंत्रता की कोई चिंता नहीं है । तहाँ तक कि अपने धर्मानुयायियों का कल्याण भी उनका लक्ष्य नहीं है । उन्हें भी वे भय, अज्ञान, लोभ-किसी भी प्रकार अपने पीछे खड़े रखना चाहते हैं क्योंकि इन्हीं के तन, मन और धन के बल पर इनके ठाठ कायम हैं । धर्म एक नितांत व्यक्तिगत भाव, आस्था, शान्ति प्राप्त करने का विधान है । जब व्यक्ति समाज में आता है तो समाज का भला, अपने साथ समाज का विकास अनुशासन, व्यवस्था ही उससे अपेक्षित हैं । इसलिए समाज में सबके लिए समान नियम, कानून होनें चाहियें जिससे सबको मानव होने के नाते समानता का अनुभव हो ।

सच्चा धर्म व्यक्ति और समष्टि के सामंजस्य का विधान है । व्यष्टि समष्टि से अलग नहीं है । दोनों एक दूसरे से पुष्टि प्राप्त करते हैं । ऐसे धर्म का किसी नाम, जाती, नस्ल, भाषा, खान-पान, पूजा पद्धति से कोई संघर्ष नहीं है । संघर्ष तो धर्म की ठेकेदारी करके शक्ति-संचय और स्वार्थ सिद्धि करने वाले भड़काते हैं । सामान्य व्यक्ति तो अपनी मेहनत करके, शान्ति से दो रोटी खाकर, परिवार-पड़ोस में सुख-दुःख बाँटकर खुश है । वह मन से न कट्टर है और न स्वार्थी । उसका तो धर्म के स्वार्थी ठेकेदार डराकर, बहकाकर दुरुपयोग करते हैं । सामान्य जीवन में तो संकट के समय, दंगों के दौरान हिंदू-मुसलमान अपनी जान पर खेल कर एक दूसरे की जान बचाते हैं ।

किसी व्यक्ति धर्म, पूजा-पद्धति, पूजा-स्थल, आस्था, गाने, बजाने, पहनावे अदि से भगवान को न तो कोई फ़र्क पड़ता है और न उसे कोई डर लगता है । डर तो धर्म का धंधा करने वालों को लगता है । इसलिए वे अपने धर्म वालों को भड़का कर अपनी रक्षा करते हैं । इसमें सहायक होते हैं धर्म के शक्ति केन्द्रों के धन से पलने वाले गुंडे जो जघन्य से जघन्य अपराध कर सकते हैं । ये ही लालच या भय से धर्मपरिवर्तन करवाते और लड़वाते हैं ।

मानव की सच्ची स्वतंत्रता का समर्थक कोई कबीर ही हिन्दू और मुसलमान दोनों को उनकी कमियों के लिए डाँट सकता है, गांधी ही ईश्वर अल्लाह तेरे नाम गा सकता है,कोई सच्चा शायर ही कह सकता है-
भगवान भी उर्दू समझता है ।
अल्लाह भी हिन्दी जानता है ।

नहीं तो लोग नोट और वोट के लिए लोगों के घर, मन्दिर, मस्जिद और चर्च फूँकने के लिए घूम ही रहे हैं ।

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Nov 27, 2008

तोताराम के तर्क - बसंती की इज्ज़त का सवाल



जब हेमा मालिनी ने अपनी किशोरावस्था में ड्रीम गर्ल के रूप में सपनों का सौदागर की नायिका की भूमिका में फिल्मी दुनिया में प्रवेश किया था उस समय हमारी और तोताराम की उम्र आश्रम-व्यवस्था के अनुसार गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की थी । यह बात और है कि तब तक बालविवाह के कारण हम दोनों के दो-दो बच्चे हो चुके थे । हेमाजी का जादू कुछ ऐसा चला था कि किशोरों से लेकर वृद्ध तक दोषपूर्ण सपने लेने लगे थे । सपने तो सपने हैं । कोई भी हजारों लोगों के सपने में एक साथ आ सकती है । वास्तविक जीवन में तो यह सौभाग्य केवल एक को ही मिल सकता है । सो यह सौभाग्य अपने समय के ही मैन धर्मेन्द्र को मिला । दोनों की सर्वाधिक प्रसिद्व फ़िल्म थी- शोले जिसमें हेमा जी बसंती बनी थीं और धर्मेन्द्र वीरू । गंगा-जमुना में नायिका का नाम था धन्नो पर शोले तक आते-आते धन्नो घोड़ी हो गई । पर रुतबे की बात है, ३०-३२ वर्षों बाद भी किसी ने घोड़ी का नाम बसंती रखने की हिम्मत नहीं की ।

आज जब तोताराम आया तो दौड़ने वाले जूते पहने हुए था और हाथ में थी एक लाठी । बैठने को कहा तो बैठा भी नहीं । बोला- जल्दी तैयार हो जा, डीग-कुम्हेर चलेंगे, बसंतीकी इज्ज़त खतरे में है । हमने कहा- गब्बर सिंह तो मर चुका । अब कौन नया गब्बर सिंह पैदा हो गया? वैसे असल बात यह है कि ज़िम्मेदारी वीरू की है । हम कहानी को नहीं बदल सकते । कहानी के अनुसार इज्ज़त ज़रूर बचेगी और बीरू ही बचायेगा ।

तोताराम को गुस्सा आ गया, बोला- यह कुतर्क करने का समय नहीं है, कर्म करने का समय है । डीग-कुम्हेर में चुनाव हो रहे हैं । हेमा जी ने कहा है- मेरी इज्ज़त के लिए दिगंबर सिंह को जिताओ । सो चल हेमा जी इज्ज़त के लिए चाहे लाठी चलानी पड़े, चाहे नकली वोट डालना पड़े पर दिगंबर सिंह को ज़रूर जिताएँगे । हमने कहा- तुझे पता है सामने कौन है? राजा विश्वेन्द्र सिंह हैं । बंदूक रखते हैं । जँच गई तो टपका देंगे । धरी रह जायेगी सारी मर्दानगी । फिर छठे वेतन आयोग के पेंशन का एरियर कोई और ही लेगा । और फिर हम कहाँ-कहाँ जायेंगे? आज बसंती की इज्ज़त दाँव पर लगी है, कल जयाप्रदा की दाँव पर लगेगी, परसों मायावती, नरसों जय ललिता । किस-किस के लिए सर फुड़वाते फिरेंगे? ये जानें इनका काम । और पहले भी तो इसी इलाके से पुकार आ रही थी- भरतपुर लुट गया हाय मेरी अम्मा । तब किसीने क्या कर लिया? गरम पानी थैली भर रखी है, आ घुटने सेंक ले । खड़े-खड़े दुखने लगे होंगे ।

तोताराम झल्ला गया, बोला- लानत है तेरी मर्दानगी पर! और दौड़ता हुआ डीग-कुम्हेर की तरफ भाग लिया । हमें उसकी सकुशल वापसी का इंतज़ार है ।

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२५ नवम्बर २००८



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Nov 26, 2008

बंधुआ मज़दूरी के लिए विधवा-विक्रय


आंध्र और कर्नाटक की सीमा पर की ढाणियों (हेमलेट्स) में सूअर पालने वाले कंचालू कोरचा या हंडी कोरचा नामक समुदाय में आज भी एक पुराना स्त्री-विरोधी, अन्यायपूर्ण रिवाज 'रुका' कायम है । इसमें विधवा स्त्री को उसकी ससुराल वाले किसीको भी बंधुवा मज़दूरी के लिए उसके बच्चों समेत बेच देते हैं जहाँ वे सूअर पालती हैं, झाड़ू बनाती हैं और घर के अन्य काम भी करती हैं और जो भी अन्याय, यंत्रनाएँ और शोषण हो सकते हैं उन्हें भोगती हैं ।

चार वर्ष पूर्व सोदगु वेंकटेश नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा नागम्मा नामक एक ३६ वर्षीया की त्रासदी तत्कालीन मंत्री बी.डी.ललिता नायक के सामने रखी तो मंत्री ने नागम्मा के लिए एक घर, सूअर पालन के लिए ऋण एवं अन्य लाभों का वादा किया । किंतु जैसा कि होता है, अभी तक कुछ नहीं हुआ । अब जब यह मामला पुनः समाज कल्याण मंत्री डी. सुधाकर के सामने लाया गया तो फिर घर, ऋण और बच्चों की मुफ्त शिक्षा का वादा किया गया है जो पता नहीं कब पूरा होगा या होगा भी कि नहीं ।

आज ४० बरस की हो चुकी नागम्मा की १४ वर्ष की उमर में नारायणप्पा से शादी हुई जिससे नागम्मा को चार बच्चे हैं । चार बरस पूर्व नारायणप्पा की मृत्यु हो गई । इसके बाद ससुराल वालों ने नागम्मा को सम्पत्ति में कोई हिस्सा नहीं दिया और उसे बच्चों सहित ३२ हज़ार रुपयों में मद्दलेती नामक सम्पन्न सूअर पालक को बेच दिया । घटना प्रकाश में आने पर मद्दलेत्ती और उसके रिश्तेदारों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया जिन्हें छुड़ाने के लिए नागम्मा को १२ हज़ार का इकरारनामा भरना पड़ा । नागम्मा को अपने आप को बंधन से छुड़ाने के लिए अपने नए मालिक द्वारा ससुराल वालों को दी गई ३२ हज़ार की राशिः भी उधार लेकर चुकानी पड़ी । इस प्रकार नागम्मा पर ४४ हज़ार का कर्जा हो गया । जिसे वह आज भी चुका रही है ।

नागम्मा को रहने के लिए झोंपड़ी बनाने के लिए एक किसान ने बंजर भूमि का एक टुकड़ा दे रखा है । जहाँ नागम्मा झाड़ू बनाती है । चार रुपये की एक झाड़ू बिकती है । चार बच्चों का पालन पोषण । कब तक चुकेगा नागम्मा का कर्ज़ा? घर में न पानी है और न बिजली । नागम्मा ने किसी तरह दो बेटियों का विवाह कर दिया है । सबसे छोटी ने पढ़ना छोड़ दिया है, एक बेटी दसवीं में पढ़ रही है जिसे सरकार से एक साईकिल मिली हुई है ।

नागम्मा के जीवन, संघर्षों और कष्ट की क्या हम कल्पना करना चाहेंगे? क्या रोजाना हजारों रुपये दारू में बहा देने वाले और नए साल के स्वागत में लाखों रुपये नाच गान में फूँक देने वाले इस पर विचार करेंगे? क्या राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश की दलित महिला कलावती की तरह नागम्मा के घर पधारेंगे? क्या विन्धेश्वर पाठक अब भी कलावती के मामले जैसी उदारता दिखाएँगे?

अभी तो सभी सेवक लोकतंत्र की रक्षा के लिए खून, पसीना और पैसा बहने में व्यस्त हैं ।

एक शे'र सुनिए-
बंधुआ है मज़दूर अभी तक
मगर मुक्त व्यापार हो गया ।

पाप बहुत बढ़ गए धरा पर,
पर मुश्किल अवतार हो गया ।

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२३ नवम्बर २००८



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Nov 23, 2008

तोताराम के तर्क - ओबामा की प्राथमिकता और अपने अपने लादेन


ओबामा के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति बनने की घटना को व्यापार जगत भुना रहा है । प्रकाशक ओबामा की किताबें मँहगे दामों में बेच रहे हैं तो वस्त्र व्यापारी ओबामा के फोटो वाली टी शर्ट । व्यापारी दाह संस्कार में भी व्यापार कर लेता है तो यह तो एक अभूतपूर्व घटना है । पर हम कोई व्यापारी तो हैं नहीं जो धंधा करें । हम तो निस्वार्थ शुभचिंतक हैं और तिस पर ओबामा हमारे बेटे की उम्र का । उसे सही मार्गदर्शन देना हमारा कर्तव्य है । सो आज जैसे ही तोताराम आया हमने उसके सामने स्थिति रखी । देखा, बालक फँस गया न बुशवाले चक्कर में? अच्छा होता इस अवसर का सदुपयोग कालों के शैक्षणिक और सामाजिक विकास के लिए करता, नस्लीय भेदभाव को मिटा कर सद्भाव बढ़ाता, देश को मितव्ययिता की सीख देकर अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करता पर यह तो पड़ गया ओसामा के पीछे बुश की तरह । कहता है ओसामा को जिंदा या मुर्दा पकड़ना मेरी पहली प्राथमिकता होगी । सोचते हैं एक पत्र उसे समझाने के लिए लिख ही दें ।

तोताराम हँसा, बोला- बच्चा ओबामा नहीं तू है । उम्र भले कम हो पर है पक्का घाघ । राज करने के लिए ओसामा ज़रूरी है । ओसामा का डर दिखा कर बुश आठ साल राज कर गये और अब यह इसी मुद्दे पर आराम से चार साल राज करेगा और अगर इस मुद्दे को आगे भी जिंदा रख सका तो एक टर्म और पेल जाएगा । ओसामा न पकड़ा गया और न पकड़ा जाएगा । जैसे समझदार डाक्टर न तो मरीज़ को मरने देता है और न ठीक ही होने देता है । बस जीवन भर कमाई करता रहता है । चतुर ट्यूटर कभी परीक्षा से पहले कोर्स पूरा नहीं करवाता है । राजनीति में सबके अपने-अपने ओसामा होते हैं जिन्हें सत्ता के लिए जिंदा रखना ज़रूरी होता है । पाकिस्तान के लिए कश्मीर एक ओसामा है तो भाजपा के लिए समान नागरिक संहिता, धारा ३७० और राम मन्दिर मुद्दा एक ओसामा है । तभी तो सत्ता मिलने पर भी इन मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया । अब जब लोकसभा चुनाव आएगा तो फिर इन मुद्दों को बाँस पर टाँग कर घूमेंगे । कांग्रेस के पास धर्मनिरपेक्षता और गरीबी हटाओ के ओसामा हैं भले ही वोट के लिए अल्पसंख्यक तुष्टीकरण करें । मायावती के ओसामा सवर्ण मनुवादी है । जयललिता और करूणानिधि एक दूसरे के ओसामा हैं ।

हमने पूछा- तो फिर ओबामा के जीतने से अमरीका में कोई परिवर्तन नहीं आएगा? तोताराम ने उत्तर दिया- यह भ्रम तुझे और संसार के सारे मतदाताओं को अपने मन से निकल देना चाहिए कि सरकारें उनका उद्धार करेंगी । चुनाव लड़ना ,सरकारें बनाना भी अन्य व्यवसायों की तरह एक व्यवसाय है और कौन व्यवसायी चाहेगा कि उसका ग्राहक समझदार हो या ग्राहक का भला हो । उसे तो अधिक से अधिक लाभ कमाना है । इसलिए भइया, अगर सुख शान्ति चाहते हो तो जाति, धर्म,नस्ल के झगड़े भुला कर प्रेम से रहो और टी.वी.और बाज़ार के बहकावे में मत आओ।

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१८ नवम्बर २००८

इंडियन एक्सप्रेस बीबीसी


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तोताराम के तर्क - वे देश चलाते हैं


सवेरे-सवेरे अखबार में कपिल सिब्बल का वक्तव्य पढ़ा तो बड़ी कोफ़्त हुई । जनाब ने फ़रमाया- सरकार का काम देश चलाना है । हमें किसी विमानन कम्पनी के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देना है ।

जैसे ही तोताराम आया,हम उसी पर पिल पड़े- देख लिया अपने जन सेवकों का दायित्व-बोध! शेयर बाज़ार के जुआरियों को बचाने के लिए तो जनता के टेक्स के हजारों रुपये लुटा रहे हैं और महँगाई और कर्मचारियों की छटनी पर जुबान नहीं खुलती । तोताराम ने हमारी बात का उत्तर नहीं देकर उल्टा हमें ही लपेटना शुरू कर दिया- तुझसे चालीस बच्चों की क्लास नहीं संभलती थी । पाँच-सात पोते-पोतियाँ तुझे नचा देते हैं और भाभी तो खैर पचास वर्षों से तुझे नचा ही रही है । तू आज तक किसी को भी चला सका? ये लोग देश को चलाते हैं । हमने कहा- देश तो अपने आप चलता है । वह बोला- यह देश अपने आप चलने वाला नहीं है । सबसे बड़ा देश फिर लोकतंत्र ऊपर से । कभी किसी सांसद को खरीदो, कभी किसी को मुख्यमन्त्री का पद देकर पटाओ, कभी इन अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करो, कभी उन अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करो । यह तो इन्ही का जिगर है जो देश को चला रहें हैं । ये न होते तो यह देश कभी का बैठ गया होता ।

हमने कहा- तोताराम, दखल तो देते हैं । शाहबानो वाले मामले में सर्वोच्च न्यायालय की मिट्टी कूटी थी या नहीं? तोताराम बोला- एक आध मामले की बात छोड़, इतिहास उठा कर देख कि कब देश चलाने वालों ने दखल दिया । पंचशील के अनुयायी हैं- कोई यहाँ घुस आए, कोई धर्म परिवर्तन करवाले, कोई अतिक्रमण कर ले, कोई आतंक फैला दे, कोई कानून को अपने हाथ में ले ले - ये सुशील बने रहते हैं । कितने उदाहरण चाहियें? शक, हूण, तुर्क, मंगोल, मुग़ल आए, अंग्रेज, फ्रांसीसी, पुर्तगाली आए, करोड़ों बंगलादेशी-पाकिस्तानी घुस आए, क्या किसीसे कुछ कहा? कोई दखल दिया? कश्मीर से पंडित भगाए गए, अमरनाथ यात्रियों को मारा गया, कश्मीर में पाकिस्तानी झंडा लहराया गया, शंकराचार्य को गिरफ्तार किया गया, क्या इन्होंने कोई अड़चन डाली? योरप-अमरीका यहाँ के बीज, संस्कृति, खान-पान, भाषा को खदेड़ रहे हैं तो क्या ये कुछ रुकावट दाल रहें हैं ? सो भइया, यदि तुझे कोई तक़लीफ़ है तो अपनी निबेड़ । इनके पास देश चलाने से ही फुर्सत नहीं है ।

हमें लगा- ख़ुद मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलाता । बहुओं के हाथ चोर नहीं मरवाए जाते ।

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१६अक्टूबर २००८



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मधुशाला पर फ़तवा और मोबाइल मैखाने


मौलाना कादरी जी,
अस्सलाम वालेकुम । हम आपको केवल मौलाना कादरी के नम से ही संबोधन कर रहे हैं । वैसे आपका पूरा नाम जो अंग्रेज़ी के अखबार में छ्पा था वह था- मौलाना मुफ़्ती अबुल इरफ़ान अहमद जैमुल अलीम कादरी । हमें लगा मौलाना शब्द सब के साथ कॉमन है और बाकी छः आपके सप्त ऋषि मंडल के सदस्य हैं । यदि ऐसा है तो ठीक है वरना हमें क्षमा करना । यदि यह सारा आप ही का नाम है तो गज़ब है साहब! इतने लंबे नाम तो अरब के शाहों के भी नहीं होते । ठीक भी है जितना बड़ा आदमी, उतना बड़ा नाम । हमारे यहाँ तो राम, शिव जैसे छोटे-छोटे नाम होते हैं ।

१० नवम्बर २००८ को मध्य प्रदेश के एक मुस्लिम संगठन ने आपकी अदालत में, हरिबंश राय बच्चन की मधुशाला की एक प्रति के साथ विचारार्थ एक मामला रखा । मधुशाला जैसी कृति का मूल्यांकन करने के लिए आपसे बेहतर साहित्य प्रेमी और हो भी कौन सकता था । आपने इस पुस्तक को इस्लाम विरोधी पाया और शैक्षणिक संस्थाओं के पाठ्यक्रम में रखे जाने के अनुपयुक्त पाया । वैसे यह कोई धार्मिक पुस्तक नहीं है । गुजरात को छोड़ कर भारत के सभी राज्यों में शराब का व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है । मिलाने को तो सब तरह की शराबें गुजरात में भी खूब मिलती हैं पर शराब-बंदी होने के कारण थोड़े दाम ज़्यादा देने पड़ते हैं । इतिहास पर नज़र डालें तो महान न्यायप्रिय बादशाह जहाँगीर रोजाना एक बोतल शराब पीता था । ऐसा संतोषी संत कैसा न्याय करता होगा ये तो अनुमान ही लगाया जा सकता है । बाबर जब राणा सांगा के साथ युद्ध में हारने लगा तो उसने मन्नत माँगी कि यदि वह युद्ध में जीत गया तो वह शराब पीना छोड़ देगा । इसका मतलब की वह पहले पीता था । बाद में उसने छोड़ी कि नहीं पता नहीं । अपने यहाँ नवाबी युग में तो शराब की नदियाँ बहती थीं । यहाँ के राजाओं, नवाबों ने शासन चलाने का काम तो अंग्रेज़ों को सौंप दिया था तो शराब पीने के अलावा और काम ही क्या रह गया था ।

स्थिति यह है कि न तो आप देश में शराब बनानेवालों को रोक सकते हैं और न बेचने वालों को । हमारे हिसाब से तो करनेवाले की बजाय किसी काम की प्रेरणा देनेवाला ज़्यादा बड़ा गुनाहगार होता है । एक युद्ध में कुछ सैनिकों को बंदी बना लिया गया । सबकी पेशी हुई और पूछताछ की गई । अंत में जिसका नंबर आया उसके पास कोई हथियार नहीं था । थी तो मात्र एक ढोलक थी । पूछा गया कि तू सेना में क्या काम करता था तो बोला- हुज़ूर मैं तो ढोलक बजा कर गाता था उससे जोश में आकर सैनिक लड़ते थे । पूछताछ करनेवाले अधिकारी ने कहा- सैनिकों को छोड़ दो और इस ढोलक बजाने वाले को फाँसी दे दो । यही सारी खुराफ़ात की जड़ है । सो बनाने, पीने, पिलाने और बेचनेवालों को छोड़ कर आपने इस सारी खुराफात की जड़ को धर दबोचा, अच्छा किया ।

वैसे दंड तो पीनेवालों को भी मिलना चाहिए । अरब में एक ख़लीफा हुए हैं । वे शराब को बहुत बुरा मानते थे । शराब पीने वालों को एक सौ कोड़ों की सज़ा तय कर रखी थी । शराबियों की आफ़त । उन्होंने एक योजना बनी । किसी तरह उन्हीं के बेटे को शराब पिला दी, गिरफ़्तार भी करवा दिया और अंत में सिफ़ारिश भी करने पहुँच गए- हुज़ूर बच्चा है, माफ़ कर दीजिये । पर ख़लीफा उनकी चाल समझ गए । बोले- नहीं, कोड़े लगेंगे और पूरे एक सौ । और कोड़े भी हम लगायेंगे । पचास कोड़ों में ही साहबजादे बफ़ात पा गए । उसी दिन दफ़ना भी दिया गया । अगले दिन ख़लीफा को ख्याल आया कि कोड़े पचास ही लगाये थे । सो लाश को कब्र से निकलवाया गया और पचास कोड़े और लगाये ।

सो कादरी साहब, फ़तवा हो तो ऐसा, सज़ा हो तो ऐसी और क्रियान्वयन हो तो भी ऐसा ही । वैसे मधुशाला लिखनेवाले बच्चन साहब तो इस दुनिया में हैं नहीं । यदि आप कोड़े लगाने कि सज़ा देते भी तो किसे, वे तो पंचतत्त्व में विलीन हो चुके । यह सुविधा तो दफ़नाने वाले समाजों में ही है । सैंकडों साल बाद भी चाहो तो कब्र में से कंकाल निकलवा कर उसकी मिट्टी पलीद कर दो । अब देखिये ना, पॉप साहब ने केरल की एक नन को संत का दर्जा दिया तो उसकी मिट्टी खुदवा कर वेटिकन में मँगवा ली । किसी हिंदू को मृत देह के अभाव में संत का दर्जा नहीं दिया जा सकता है कि भारत में कोई हिंदू संत बनने के काबिल है ही नहीं ।

आप इन साहित्य वालों की एक मत सुनना । ये कुछ कह देते हैं और फिर कहते हैं यह तो प्रतीक था या यह तो रूपक था । हम आपको कुछ उदहारण देते हैं आप इन पर भी विचार करके बैक डेट से फ़तवे सुना दीजियेगा । कबीर का एक पद है- पीले ना प्याला, हो मतवाला । उमर खैयाम ने तो जो रुबाइयाँ लिखी हैं उनसे तो आप वाकिफ़ होंगे ही । दारू के अलावा कुछ नहीं । गुरु नानक जी जब एक बार मक्का-मदीना की यात्रा पर जा रहे थे तो रस्ते में उनको एक रईस ने शराब पेश की तो गुरु बोले- हम ने तो ऐसी शराब पी रखी है जिसका नशा कभी उतरता ही नहीं । अब आपको और क्या प्रमाण चाहिए । ग़ालिब तो पक्का शराबी था ही । एक बार ग़ालिब दरी बिछा कर नमाज़ पढ़ने की तैयारी कर रहा था । लोगों को आश्चर्य । ग़ालिब और नमाज़? तभी ग़ालिब ने दरी समेटी और चल दिये । लोगों ने पूछा- मियाँ यह क्या? ग़ालिब बोले- जिसके लिए नमाज़ पढ़ रहा था वह तो ख़ुदा ने अता फरमा ही दी तो नमाज़ पढ़ कर क्या करना । लोगों ने देखा की गली के नुक्कड़ पर ग़ालिब का दोस्त शराब की बोतल हिला-हिला कर ग़ालिब को बुला रहा था । लाहौल विला कुव्वत! उसी ग़ालिब की कब्र दिल्ली में है । खुदवा कर उसकी मिट्टी पलीद करें । हम आपके साथ हैं । यदि आधुनिक युग में सुधार करना चाहें तो बड़े-बड़े सूफियों का खून टेस्ट करवाएँ । अल्ला कसम! सबके खून में लाल परी दौड़ती मेलेगी । वैसे ये शराब का धंधा करने वाले, पीने और पिलाने वाले हैं बड़े जालिम । शरबती आँखों से ही पी पिवा लेते हैं । ऐसे मोबाइल मैखानों को कहाँ तक कंट्रोल करेंगे? अच्छा हो कि अपन भी एक-एक पैग दबा लें । फिर दुनिया जाए भाड़ में ।

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मधुशाला की जिन पंक्तियों पर एतराज़ जताया गया है वो इस प्रकार हैं —

शेख कहाँ तुलना हो सकती मस्ज़िद की मदिरालय से,
चिर विधवा है मस्ज़िद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला ।

बजी नफीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीने वाला ।

शेख बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को,
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला ।

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१७ नवम्बर २००८

बी-बी-सी की ख़बर - कराची में तो शराब पीने वालों में अधिकतर मुसलमान हैं, पत्रिका की ख़बर


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तोताराम के तर्क - दीदी का चांटा


आज जब तोताराम आया तो उसने शाल से सिर और चेहरा ढक रखे थे । हमने हँस कर पूछा- तोताराम अभी तो नवम्बर का पहला सप्ताह ही है और तूने शाल ओढ़ना शुरू कर दिया, दिसम्बर-जनवरी में क्या करेगा । तोताराम ने कोई उत्तर नहीं दिया । बस हूँ हाँ करके ही कम चलाता रहा । तोताराम सामने हो और चर्चा न हो, यह कैसे हो सकता है । अजीब बात है ना? इसके बाद जब चाय आई तो भी वह चेहरा ढके-ढके ही चाय पीने की कोशिश करने लगा । हमने उसकी शाल खींच ली और कहा- यह क्या नव वधू की तरह लजा रहा है? पर यह क्या? आँख के पास से तोताराम का चेहरा सूजा हुआ था । हमें कुछ चुहल करने की सूझी,पूछा- क्या ओबामा की जीत के कारण खुशी से फूल रहा है या फिर बंटी की दादी ने तेरा नागरिक अभिन्दन कर दिया? तोताराम ने धीरे से कहा- नहीं, अभी उसका इतना सशक्तीकरण नहीं हुआ है । और जहाँ तक ओबामा के जीतने बात है तो उसमें क्या खुशी की बात है । उसके जीतने से कौनसी भारत में महँगाई कम हो जायेगी । मैं तो भैया दूज पर दीदी के यहाँ गया था, पता नहीं बात-बात में क्या हुआ कि दीदी ने कसकर एक चाँटा मार दिया । बस उसी से आँख के पास थोडा नील पड़ गया । हमने कहा- तूने कोई गलती की होगी । बोला- नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं थी पर हो सकता है दीदी को कुछ ज़्यादा ही प्यार आ गया हो । जब दीदी को ज़्यादा प्यार आता है तो अक्सर ऐसा हो जाता है । अब भई, जो दीदी इतना प्यार करती है उसे चाँटा मारने का भी तो अधिकार हो ही जाता है । खैर कोई बात नहीं ।

हमें बड़ा अजीब लगा, कहा- फिर भी भई, तुम इतने छोटे बच्चे थोड़े ही हो कि जो चाँटा ही मार दें । तोताराम बोला- मास्टर, यह तो खैरियत है कि दीदी को ज़्यादा गुस्सा नहीं आया वरना तुझे पता है उनके पास रिवाल्वर भी है । यदि गोली मार देती तो कौन, क्या कर लेता ।

हम तय नहीं कर पाये कि जब उमा भरती ने अपनी पार्टी के महामंत्री अरुण राय को सबके सामने चाँटा मार दिया तो वे बहिन के वात्सल्य के कारण चुप रहे या रिवाल्वर के डर से । हमारे कोई बहिन नहीं है । पहले हम इस बात को लेकर दुःखी रहा करते थे पर आज लगा कि बहिन नहीं तो कोई बात नहीं, थोबड़ा तो सलामत है ।

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६ नवम्बर २००८

जागरण लिंक

( लेख पहले ही लिख दिया था, पाठकों के समक्ष पहले नहीं रख पाया, उसके लिए क्षमार्थी हूँ )


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अमरीका के अगले राष्ट्रपति के नाम


सारा पालिन मैडम,

जय सियाराम ।
आप सोच रही होंगी कि पिछली बार राम-राम लिखा था और अबकी बार जय सियाराम क्यों? बात यह है कि आज भले ही हमारे यहाँ कन्या भ्रूण हत्या या दहेज़ हत्याएं होती हों पर हमारी परम्परा में नारी का बड़ा सम्मान है । सो नारी का नाम पहले है जैसे कि सीताराम, गौरी शंकर, राधेश्याम आदि । धन, ज्ञान और शक्ति की देवियाँ भी लक्ष्मी, सरस्वती और काली भी स्त्रियाँ हैं । हमारे यहाँ राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, पार्टी अध्यक्ष, राज्यपाल, मुख्यमन्त्री, एम. एल.ए., जिलाप्रमुख, कलक्टर सब महिलायें हैं । आपके यहाँ महिलाओं को मताधिकार भी आजादी के सैंकडों साल बाद मिला ।

वैसे तो अब आप अलास्का पहुँचकर बाल बच्चों को संभाल रही होंगी । अब अखबार वालों ने भी आपका चेप्टर बंद कर दिया है । चढ़ते सूरज को सब नमस्कार करते हैं । अब ओबामा के खाँसने-थूकने की खबरों से अखबार लिथड़े होंगे । पर हम कुर्सी नहीं, गुणों की कदर करते हैं । हम आपमें अमरीका का अगला राष्ट्रपति देख रहे हैं । कनाडा के मसखरों ने तो आपको सरकोजी की आवाज में वास्तव में मूर्ख बनाया । हमारे यहाँ भी अब कई ज्योतिषी मुँह निकाल रहें हैं कि उन्होंने ओबामा के जीतने की भविष्यवाणी कर दी थी । अब सबूत क्या है? पर हम तो आपको लिख कर दे रहे हैं । जिस दिन आप राष्ट्रपति बन जाएँ उस दिन हमें याद कर लीजियेगा । अब उन मँहगे कपड़ों को धोकर, प्रेस करके रख दीजियेगा । चार साल बाद काम आयेंगे ।

पहले हमने ओबामा के जीतने के बारे में नहीं सोचा था क्योंकि अमरीका में काले राष्ट्रपति की परम्परा ही नहीं है । जब एक परम्परा टूट गयी तो दूसरी भी टूटेगी । मतलब कि महिला भी राष्ट्रपति भी होगी । तब आपसे बेहतर कौन है इस पद के लिए । बस अभी से भिड़ जाइए ।

आपकी एक बात हमें बहुत पसंद है कि आप तलाक़ के चक्कर में नहीं पडीं, बच्चों के उत्पादन में गंभीरता से योगदान दिया । अमरीका में लोगों को तलाक़ से फुरसत नहीं है तो बच्चे कब पैदा करें । अगर यही हाल रहा तो विद्वानों का मानना है कि २०४२ तक अमरीका में गोरे लोग अल्पमत में आ जायेंगे । हमारी तो सलाह है कि आप लोगों को अपना उदाहरण देकर अधिक से अधिक बच्चे पैदा कराने के लिए प्रेरणा दें । अन्यथा एक दिन अमरीका पर रंगीन लोंगो का राज हो जायेगा । हमारे यहाँ के एक महान विचारक तोगडिया जी ने इसीलिए हिन्दुओं को आठ-आठ बच्चे पैदा कराने की सलाह दी थी पर इन नासमझ हिन्दुओं ने कोई ध्यान नहीं दिया । कहते हैं आठ-आठ बच्चों को खाना कौन खिलायेगा ।

इतना भी नहीं समझते कि जिसने चोंच दी है वह चुग्गा भी देगा । आप के यहाँ तो वैसे भी अनाज की क्या कमी है । सूअरों तक को अनाज खिलाया जाता है । फिर भी बच जाता है तो उससे बिजली बना ली ज़ाती है । इसलिए पाप को प्रणाम करके इस पुण्य काम में लग जाइए और भविष्य के लिए गोरा राष्ट्रपति ही सुरक्षित करें ।

अमरीका की सभी गोरी महिलाओं के लिए दूधों नहाने और पूतों फलने का आशीर्वाद और आपके लिए राष्ट्रपति बनने की अग्रिम शुभकामनाएँ ।

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७ नवम्बर २००८



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Nov 18, 2008

तोताराम के तर्क - कलावती के कारण



एन गाना था- 'ये जो तन मन में हो रहा है, ये तो होना ही था।' लोग बताते हैं कि बड़ा मादक और उल्लासपूर्ण गाना था। वैसे हमको इसका कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है क्योंकि पिताजी ने इस महामारी से हमें बचाने के लिए सत्रह साल पूरे होने से पहले ही शादी कर दी थी। अब सड़सठ पार कर गए हैं सो घुटने में दर्द रहने लग गया है। और कुछ हो न हो पर ये तो होना ही था। जब प्रधानमंत्री के घुटनों में दर्द रहने लग गया हो तो हम तो एक साधारण रिटायर्ड मास्टर हैं। घुटनों में दर्द होने से उठते बैठते समय भले आदमियों के मुँह से हे राम निकलता है पर हमारे मुँह से निकालता है- ये तो होना ही था।

आज सवेरे जब तोताराम आया तो पोते पोतियाँ स्कूल जा चुके थे। पत्नी रसोई में थी, बोली- चाय ले जाओ। हम घुटनों पर हाथ रखकर उठने लगे तो मुँह से निकल गया- ये तो होना ही था। पर तोताराम ने न तो सहानुभूति कटाई और न ही ख़ुद चाय लेने के लिए उठा। उलटे बड़े व्यंगपूर्ण लहजे में बोला- ये तो होना ही था ! जैसे कोई बाढ़ ,सूखे या बम विस्फोट की तरह अपने आप हो गया है। अरे, इसके लिए बुश, मनमोहन, श्यामशरण, प्रणवमुखर्जी, राईस, मेनन, नारायणन ने दिन रात एक कर दिए। बुश ने तो आर्थिक संकट के समय भी रात-रात भर भाग-भाग कर किसी तरह सीनेट में पास करवा ही लिया। मनमोहन जी ने तो अपनी सरकार तक दाँव पर लगा दी। अमर सिंह ने तो सारी बेइज़्ज़ती भूल कर संप्रग को सहयोग दिया।

हमने कहा- कोई नेता देश और जनता के लिए कष्ट नहीं उठाता। सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं। बुश अमरीका की डूबती अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए और भारतीय विशेषज्ञों द्बारा अमरीका में कमाए गए डालरों को वापस लेने के लिए कोई न कोई फायदे का सौदा जाते-जाते कर जाना चाहते थे। अगर मनमोहन जी थोडा इंतज़ार करते तो बुश ख़ुद दिल्ली में आकर डेरा डाल देते और सौदा करके ही जाते। जब हजारों करोड़ की मेहंदी बट रही हो तो कौन हाथ पीले नहीं करना चाहेगा। पर भैया, जब दूल्हे को ही लार टपक रही हो तो कोई क्या कर सकता है। अमरसिंह तो मायावती से डरकर संप्रग के साथ आए हैं। मनमोहनजी को भी चुनाव से पहले कुछ कर दिखाना था। वैसे यह कोई उपलब्धि नहीं है बल्कि चौथाये उठाये खर्चे में ही हम सौर ऊर्जा का उपयोग करके भारत को ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बना सकते हैं। और यदि तू किसी को श्रेय ही देना चाहता है तो अटलजी को इसका श्रेय दे जिनके कार्यकाल में इस समझौते की योजना बनी थी। यदि थोड़ा समय और मिल जाता तो वे यह समझौता कर भी जाते। हाँ, आज राजनीति के कारण भाजपा विरोध कर रही है तो उस स्थिति में कांग्रेस भी ऐसे ही विरोध करती।

तोताराम बोला- यदि एक ही व्यक्ति को श्रेय देना हो तो मैं इसका श्रेय राहुल बाबा को देना चाहूँगा। जैसे सत्यनारायण की कथा में सत्यनारायण भगवान ने कलावती के दुःख दूर किए वैसे ही राहुल बाबा ने भी कलावती नाम की एक दलित महिला के घर में बिजली की रोशनी पहुँचाने के लिए पूरा ज़ोर लगा कर यह परमाणु समझौता करवाया।

हमें बड़ी कोफ़्त हुई । हमने व्यंग्य किया- तब तो तोताराम,यह चंद्रयान भी शायद इसलिए भेजा गया है कि चंद्रमा से पानी लाकर कलावातियों की पानी की समस्या हल की जा सके। तोताराम ने बिना किसी झिझक के, बड़ी बेशर्मी से कहा- और नहीं तो क्या? तू समझता होगा चाँद पर घूमने के लिए चार सौ करोड़ रुपये खर्च किए हैं।

हमें लगा, हमारे घुटनों से भी ज्यादा दर्द हमारे सिर में हो रहा है।

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