Dec 31, 2009

पोस्टकार्ड टू प्रणव दा : नए वर्ष की बधाई


आदरणीय प्रणव दा,
नमोश्कार । हमारा नववर्ष का शुभकामना-सन्देश-पत्र आपको इस बार कुछ देर से मिले तो अन्यथा नहीं लीजियेगा । कारण कुछ ख़ास नहीं है । बस, हम आज के बाज़ार के 'कंडीशंस अप्लाई ' नामक फंडे से घबराये हुए हैं । आज ही हमने अखबार में पढ़ा कि फ़ोन कम्पनी वाले बड़े बदमाश होते हैं । चुपके से त्यौहार के दिन जब लोग एस.एम.एस. का ज्यादा उपयोग करते हैं उन दिनों ये एस.एम.एस. का ब्लेक डे घोषित कर देते हैं- मतलब कि उस दिन एस.एम.एस. के रेट ज्यादा लगेंगे, साधारण दिनों से । लोग सस्ता समझ कर एस.एम.एस. से धड़ाधड़ बधाई सन्देश भेज देते हैं और जब पैसे कटते हैं तो रोते हैं । आप तो वित्त-मंत्री भी हैं, दिल्ली में भी बैठते हैं और दिल्लीदरबार में ख़ास भी हैं । कम से कम लोगों को इस धोखे से तो बचायें ।

वैसे तो कई बदमाश लोग एस.एम.एस. से धोखेबाजी का धंधा भी करते हैं । अखबार में विज्ञापन देंगें कि एक सरल प्रश्न का उत्तर दीजिये और इनाम में एक कार जीतिए । प्रश्न हो सकते है- अभिषेक बच्चन की पत्नी का नाम बताइए या भारत की क्रिकेट टीम के कप्तान का नाम बताइए या ज्यादा ही कठिन प्रश्न पूछना हो तो पूछ लेंगें कि गाय के कितने पैर होते हैं । लोग सोचेंगे कि एक एस.एम.एस. में क्या जाता है । क्या पता चांस लग ही जाये । कई लाख लोग एस.एम.एस. करते हैं । करोड़ों की आमदनी होती हैं । कार्यक्रम की योजना बनाने वाले और मोबाइल कंम्पनी आधा-आधा बाँट लेते हैं । करोड़ों कमा कर एक लाख की कार इनाम में देने में किसके बाप का क्या जाता है । अखबार वाले भी किसी ताज़ा और उत्तेजक घटना पर पाठकों से एस.एम.एस. द्वारा राय पूछते हैं । जितने भी उल्लू के पट्ठे फँस जाएँ उतने ही ठीक । अगले दिन दो गुना दो सेंटीमीटर स्थान में प्रथम पृष्ठ पर छाप देंगे-'यस' इतना, 'नो' इतना और 'डोंट नो' इतना । हो गई लाखों की कमाई । वरना जितने पेज अखबारवाले तीन रुपये में छाप कर देते हैं उतने खाली पेज, उतने पैसे में बाजार में नहीं मिलते । बड़ा ऊँचा चक्कर है, पर एस.एम.एस. के रसिया समझें तब ना ।

Dec 23, 2009

सिंह इज़ किंग


किसी गाँव में एक सज्जन रहते थे । देखने में मोटे-ताज़े थे, ताक़त के बारे में राम जाने । उन्हें अपने पहलवान होने का भ्रम था । वे जहाँ भी उठते-बैठते, अपनी पहलवानी की डींगें हाँका करते थे, यह बात और है कि मोहल्लेवाले उनकी असलियत जानते थे । वे अपने गले में एक मोटी चेन पहना करते थे । लोग कहते- भाईसाहब, ज़माना ख़राब है । इतनी कीमती चीज़ पहनना आफत बुलाना है । पता नहीं, कब क्या हो जाए । वे सीना फुला कर कहते- किसकी हिम्मत है जो हमारी गर्दन पर हाथ डाल सके । एक दिन लोगों ने देखा कि उनके गले में चेन नहीं है, बोले- हम कहते थे ना, अब डाल दिया न किसी ने गर्दन पर हाथ ! वे पहले की तरह अकड़ कर बोले- किस साले की हिम्मत है जो हाथ डाल सके । चेन तो हमने ख़ुद ही अपने हाथों से उतार कर दे दी ।

सो अपने मन मोहन सिंह जी से कौन माई का लाल बाध्यकारी समझौता करवा सकता था । उन्होंने देश को दिया वचन बहादुरी से निभाया । किसी की लादी हुई बाध्यता को उन्होंने नहीं माना । २० प्रतिशत उत्सर्जन कम करने की बात तो उन्होंने अपनी मर्जी से घोषित की है । साँप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी । लाठी सलामत है । आगे किसी और साँप को मारने के काम आयेगी ।

Dec 21, 2009

पद तो है

आदरणीय अडवानी जी,
जय श्री राम । आप भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष बन गए और सक्रिय राजनीति भी नहीं छोड़ेंगे, बधाई । प्रतिपक्ष के नेता की तो पोस्ट होती है जिस पर आज सुषमा जी बैठीं हैं पर संसदीय दल के अध्यक्ष की कोई पोस्ट नहीं थी । हो सकता है कि अगले कदम के रूप में आप 'राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन' (राजग उर्फ़ एन.डी.ए.) के संयोजक बन जाएँ । पर जब सरकार बनने के आसार दूर-दूर तक नहीं दिखाई देते तो उस पद का भी कोई औचित्य नहीं दिखाई नहीं देता । फिर भी पद तो पद ही है ।

आपके लिए नेता-प्रतिपक्ष के स्थान पर 'संसदीय दल के अध्यक्ष' का पद सृजित कराने पर हमें कई बातें एक साथ ध्यान में आ रही है । हालाँकि हमें राजनीति का तो कोई अनुभव नहीं है पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों और गोष्ठियों के बारे में कुछ जानकारी अवश्य रखते हैं । जब देसी रियासतों को मिला कर राजस्थान का गठन किया गया था तो सभी प्रभावशाली राजाओं को संतुष्ट करना आवश्यक था । जयपुर के तत्कालीन महाराजा सवाई मान सिंह को राजस्थान का राजप्रमुख बनाया गया । उस समय राज्यपाल का पद नहीं हुआ करता था । राजप्रमुख का पद ही उसके समकक्ष माना जाता था । इससे उदयपुर के तत्कालीन महाराणा नाराज़ हो गये । वे जयपुर वालों को दोयम दर्जे का राजपूत मानते थे क्योंकि उन्होंने अकबर को अपनी बेटी दे दी थी । तभी तो सुलह का प्रस्ताव लेकर आए जयपुर के राजा मानसिंह के साथ महाराणा प्रताप ने भोजन नहीं किया था । यह बात और है कि अंग्रेजों के ज़माने में उदयपुर वालों ने कोई शौर्य नहीं दिखाया था । सो उदयपुर के तत्कालीन महाराणा को संतुष्ट करने के लिए "महाराज प्रमुख" का पद सृजित किया गया । कहीं आपको संतुष्ट करने के लिए या लाज बचाने के लिए या ससम्मान विदाई देने के लिए तो यह "संसदीय दल के अध्यक्ष" का पद तो सृजित नहीं किया गया ?

आपातकाल के बाद जब केन्द्र में १९७७ में गैर कांग्रेसी सरकार का गठन किया गया था तब जहाँ तक हमें याद है आप को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया गया था । उसी दौरान आप अंडमान निकोबार के दौरे पर गये थे । वहाँ हमने अपने एक साहित्यिक, सांस्कृतिक और संयोजन विशेषज्ञ मित्र का आपके साथ फ़ोटो देखा था । उसके बाद हम भी वहाँ पहुँच गये और छः साल तक वहाँ रहे । उसी दौरान हमें अपने मित्र की इन योग्यताओं का पूरा परिचय मिला ।

हमारे ये मित्र वहाँ एक साहित्यिक संस्था चलाते थे । सुब्रह्मण्यम स्वामी और चन्द्रशेखर की तरह वे ही इस संस्था के सर्वेसर्वा थे । संस्था का सारा कार्यालय उनके ब्रीफकेस में रहता था । अर्थात वे चलती-फिरती संस्था थे । जिससे भी कोई काम होता उसी को कार्यक्रम का अध्यक्ष बना देते थे । उसी अधिकारी के कार्यालय में कार्यक्रम कर लिया करते थे । कार्यक्रम का सारा खर्चा वही अधिकारी करता था और अगले दिन समाचारों में गुणगान होता था हमारे मित्र का । इस प्रकार उनकी संस्था एक 'अधिकारी संस्था' बन गई जैसे कि 'अधिकारी विद्वान' होते हैं । उनके कार्यक्रमों में कई अधिकारी आते थे , वे सभी को संतुष्ट करने के लिए "अध्यक्ष-मंडल" बना दिया करते थे । और इस प्रकार सभी अधिकारी एडजेस्ट हो जाते थे । कभी-कभी तो हमारे मित्र के अलावा सभी लोग अध्यक्ष-मंडल वाले ही होते थे । श्रोताओं में उनके परिवार के लोग और उस कार्यालय के कर्मचारी ही होते थे ।

अभी तो विपक्ष के नेता का पद छोड़ने के बाद आप वाला कमरा सुषमा जी के पास चला गया होगा । पता नहीं आप कहाँ बैठेंगे । फिर भी पार्लियामेंट में कहीं अलग बैठने की व्यवस्था हो जाए तो अपनी कुर्सी पर अपना नाम लिख कर रखियेगा क्योंकि अभी और कई लोगों को संतुष्ट करने के लिए कई और पद सृजित किए जायेंगे और वे अगर कहीं सांसद हुए तो आप वाले कमरे में ही बैठेंगे । चलो, कुछ भी हो, जैसी ठोकर लगी थी वैसे गिरे नहीं । बाज़ार में बैठने का कोई ठीया तो बना ।

ठीये की बात पर बताते चलें । पोर्टब्लेयर जाते समय हमें कलकत्ता रुकना पड़ता था । वहाँ हमने बेटे को एस्प्लेनेड से एक घड़ी दिलवाई । रविवार का दिन था । घड़ी बेचने वाला किसी बंद दुकान के आगे नौ इंच चौड़े एक पटरे पर बैठा था । हमने कहा- भैय्या, अगर कोई शिकायत हो तो हम तुम्हें कहाँ ढूँढेंगे ? वह बोला- साहब, हम कोई चलते-फिरते दुकानदार थोड़े हैं । हमारी पक्की दुकान है । हर रविवार को हम इसी दुकान के इसी पटरे पर बैठे मिलेंगे । इसी प्रकार वे सज्जन किसी और दिन बंद रहने वाले बाज़ार में किसी और दुकान के पटरे पर बैठते थे । मतलब कि पक्की दुकान । सो जैसी भी है पक्की दुकान तो है बाज़ार में । बाई जी अगर बाज़ार छोड़ देगी तो खायेगी क्या ? जैसा भी हो, पद तो चाहिए ही । पद के बिना कौन पूछता है ?

२०-१२-२००९

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भोज का न्यौता

उत्तर भारत के अन्य भागों की तरह सीकर में भी सवेरे-सवेरे अच्छी ठण्ड पड़ने लग गई है । जैसे-जैसे 'भारत-निर्माण' की ठण्ड के फलस्वरूप हमारी पेंशन की क्रय-शक्ति सिकुड़ने लगी है, हमने गरमी पाने के लिए हथेलियों को रगड़ने और धूप का सेवन करने के विकल्प अपना लिए हैं । यदि चाहें तो अब भी मुक्त-व्यवस्था के बावजूद फीकी चाय तो पी ही सकते हैं, पर फीकी चाय पीना, बिना विभाग के मंत्री के पद की शपथ लेने के समान अनाकर्षक है । अब तो तोताराम ने भी चाय पिलाने का आग्रह बंद सा कर दिया है ।

अडवानी जी जैसी मनःस्थिति में चबूतरे पर बैठे थे कि तोताराम आ गया । जब से दाल, चीनी, आलू, प्याज़ और टमाटर में आग लगी है और सरकार ने इस समस्या को ग्लोबल फिनोमिना मान लिया है तब से तोताराम ने शिकायत और आलोचना करना बंद कर दिया है । उसकी यह चुप्पी तृप्ति या संतोष का संकेत नहीं वरन एक घोर निराशा का संकेत है । वह चबूतरे पर बैठ कर यूँ ही अखबार पढ़ने का नाटक करने लग गया तभी बहुत ऊँचाई पर एक हवाई जहाज के गुजरने की आवाज़ आई ।

हमने वातावरण को हल्का करने के मक़सद से कहा- तोताराम, लगता है तेरे ओबामा जी चीन-यात्रा समाप्त करके वापिस जा रहे हैं ।

जब प्रश्न सीधा किया जाए तो आदमी बोलने के लिए विवश हो जाता है सो तोताराम बोल पड़ा- वे इधर से नहीं जापान के ऊपर से होते हुए जाएँगे । भले ही मिशेल ओबामा को इतने विस्तार से ओबामा का कार्यक्रम मालूम न हो पर पता नहीं तोताराम को कैसे पता चल गया ।

हमने कहा- तोताराम, हमारे हिसाब से ओबामा को जाना तो था ही, दिल्ली के ऊपर से चला जाता । घंटे भर रुककर मनमोहन जी को डिनर करवाकर चला जाता तो बिना बात मनमोहन जी को इस सादगी के फैशन और बुढ़ापे के समय में किसी साधारण सी एयर लाइन की 'केटल-क्लास' में पड़ कर तो नहीं जाना पड़ता ।

तोताराम बोला- लाख सादगी का समय चल रहा है पर घर की गरीबी बाहर थोड़े ही दिखाई जाती है । हम विश्व की उभरती अर्थव्यवस्था हैं । और जब ओबामा ने अपने कार्यकाल में विश्व के सबसे पहले राजकीय अतिथि होने का सम्मान हमें दिया है तो हमारा भी फ़र्ज़ बनता है कि उसके अनुरूप तरीके से ही जायें । तुझे पता है, इस डिनर का मीनू श्रीमती ओबामा ने तैयार किया है और खाना बना रहे है अफ्रीका के कोई तथाकथित प्रसिद्ध शेफ । अमरीका के पाँच सौ बड़े-बड़े लोग शिरकत करेंगे इस डिनर में । सो, जाएँगे तो निजी प्लेन से ही ।

हमने कहा - तोताराम, यह तो भारत पर बिना बात ही आभार लादा जा रहा है । बेचारे मनमोहन जी खायेंगे तो दो रोटी और दाल और आभार झेलेंगे करोड़ों रुपयों का । हमें तो लगता है फायदे में तो चीन रहा । ओबामा ख़ुद उड़कर गए और प्लेट में रखकर तिब्बत चीन को सौंप आए, ऊपर से भारत-पाकिस्तान की सरपंची और ।

तोताराम ने कहा- भैया, व्यापार-संतुलन चीन के पक्ष में है । इसलिए ओबामा की पूँछ दबी हुई है । भारत का क्या, साल भर यहाँ के सोफ़्टवेयर इंजीनीयर अमरीका के 'डाट काम' में खून-पसीना भरेंगे और अमरीका थोड़ा सा यूरेनियम और कुछ लड़ाकू हवाई जहाज देकर हिसाब-किताब बराबर कर देगा । चीन की बात अलग है । वह अमरीका के लिए इतनी चीजें बनाता है जिन्हें देखकर लगता है कि किसी दिन 'लिबर्टी' की स्टेच्यू पर भी 'मेड इन चाइना' लिख देगा । और फिर भारत के ऊपर से जाने पर चीन दलाई लामा को लिफ्ट देने का आरोप भी तो लगा सकता था ।

तोताराम ने बात समाप्त करते हुए कहा- देख मास्टर, चीन और ओबामा की तो हम ज़्यादा नहीं कहते पर अपने मनमोहन जी बड़े समझदार आदमी हैं । वे केवल खाना खाने ही थोड़े जा रहे हैं, आते समय क्या पता अमरीका से प्लेन में दाल,चीनी, आलू, प्याज़ और टमाटर भी भर कर ले आयें । वहाँ पेट्रोल भी सस्ता है सो प्लेन की टंकी भी फुल करवाकर ले आयेंगे । कुछ लोगों को वाशिंगटन से दिल्ली तक लिफ्ट देकर भी कुछ घाटा पूरा कर लेंगे । और फिर पेंशनर को नवम्बर के महीने में लाइफ सर्टिफिकेट भी तो देना पड़ता है सो विश्व बैंक में वह भी दे आयेंगे । अलग से जाने का खर्चा बचेगा । और सबसे बड़ी बात यह है कि २६/११ की बरसी और संसद में विपक्ष के - दिखावटी ही सही - विरोध को झेलने के चक्कर से भी बचेंगे । ब्रिटेन के डाक्टरों का कहना है कि शराब पीने से हृदयाघात का डर कम हो जाता है सो अच्छी व्हिस्की की कुछ बोतलें भी ले आयेंगे क्योंकि अब तक विजय माल्या द्वारा दिवाली पर 'माल्यार्पण' में दी गई 'ब्लेक डाग व्हिस्की' की बोतल भी ख़त्म हो गई होगी ।

हमें लगा ऐसे सकारात्मक चिन्तक तोताराम को तो प्रणव-दा की जगह वित्त-मंत्री भी बनाया जा सकता है । खैर, जो भी हो, तोताराम के मौन की बर्फ तो पिघली । हमारे लिए तो यही बहुत है ।

१८-११-२००९

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Dec 20, 2009

क्षमा बडन को चाहिए

आदरणीय बाल ठाकरे जी,
जय महाराष्ट्र, जय 'मराठी मानूस' । सबसे पहले तो हम इस बात के लिए क्षमा माँगते है कि हम आपको हिन्दी में पत्र लिख रहे हैं । मराठी की लिपि देवनागरी है इसलिए पढ़ तो सकते हैं, यदि हम महाराष्ट्र में रहते होते तो शीघ्र ही बोलना भी सीख जाते । तब यदि विधान सभा में शपथ लेने की नौबत आती तो हम मराठी में ही शपथ लेते और कभी भी आज़मी की तरह हिन्दी में शपथ लेने जैसा जघन्य अपराध नहीं करते । दूसरे, हम सचिन की तरफ़ से भी क्षमा माँगते हैं । आपके सलाह देने के बाद से इतना डर गया कि अहमदाबाद में मात्र चार रन पर ही आउट हो गया । अमितजी और मधुर भंडारकर समझदार है जो तत्काल ही क्षमा माँग ली ।

आजकल मास्टरों और देश को रास्ता दिखने वालों तक को दिशाओं का ज्ञान नहीं है तो दसवीं-बारहवीं पास सचिन को इतिहास-भूगोल का इतना ज्ञान कहाँ से होता । उसे आप और आपके महान आदर्शों तथा इतिहास-भूगोल का ज्ञान होता तो ऐसा नहीं बोलता । जब १९६० में बंबई का महाराष्ट्र और गुजरात में विभाजन हुआ और उससे भी पहले जब सौ से भी अधिक लोगों ने मराठी सम्मान और महाराष्ट्र के निर्माण के लिए बलिदान दिया था तब तो वह पैदा भी नहीं हुआ था । वह तो आप और हम जैसे लोगों को मालूम है । सचिन तो सोलह साल का होते ही क्या, उससे भी पहले से ही क्रिकेट खेलने लग गया था । कहाँ से यह सब समझ पाता । हमें ही आज तक कुवैत और सिंगापुर की राजधानियों का पता नहीं है ।

दुनिया में करीब दो सौ देश हैं । सभी मात्र राष्ट्र ही हैं । महाराष्ट्र कोई भी नहीं । राष्ट्र से बड़ा महाराष्ट्र होता है । भारत से बड़ा महाभारत होता है । ब्राह्मण से बड़ा महाब्राह्मण होता है जो मृतक-कर्म का दान लेता है । तो सचिन ने कहा- मुम्बई सारे भारत की है । यह भी नहीं सोचा कि यदि मुम्बई सारे भारत की हो गई तो आपके और राज के पास क्या रहेगा । जैसे कश्मीर हिंदू पंडितों का नहीं हो सकता वैसे ही मुम्बई किसी भारतीय की कैसे हो सकती है ?

महाराष्ट्र के निर्माण के लिए सौ से भी अधिक लोगों ने बलिदान दिया । किसी को तो बलिदान देना ही पड़ता है । यदि सभी समझदार लोग अपना बलिदान दे देते तो आज महाराष्ट्र और 'मराठी मानूस' की अस्मिता की रक्षा कौन करता ? राज्य बनवाना सरल है पर आप और राज की तरह दिन रात भूखे रहकर काम करना अधिक कठिन है । आप नहीं होते तो महाराष्ट्र का क्या होता । हम आपके स्वस्थ और दीर्घ जीवन की कामना करते हैं ।

कुछ लोग आपको 'बूढ़ा बाघ' कहते हैं । उन्हें पता नहीं कि शेर-बाघ कभी बूढ़े नहीं होते । बूढ़े हो भी जाएँ तो भी कोई उनके पास जाने की हिम्मत नहीं कर सकता । हमें तो प्रभु, सच कहें, मरे बाघ की खाल छूने से भी डर लगता है । पता नहीं कैसे पुराने राजा मरे बाघ पर पैर रखकर, हाथ में बंदूक थामे फ़ोटो खिंचवा लेते थे । बाघ बूढ़ा हो जाता है तो भी भूख तो लगती ही है । पंचतंत्र में एक बूढ़ा बाघ सोने का कड़ा दिखाकर लोगों को ललचाता था और पास आने पर अपना भोजन बना लेता था । अब जब आपके सोने के कड़े राज लेकर भाग गया तो पेट पालने के लिए कुछ तो करना ही पड़ता ना ।

आपकी जाति का हमें पता नहीं । वैसे भी कहा गया है- "जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान" । ज्ञान, भगवा वेष और गले में माला के कारण आप ब्राह्मण लगते हैं और रजोगुण के कारण क्षत्रिय । कुछ भी हो दोनों ही दशाओं में आप बड़े हैं । "क्षमा बड़न को चाहिए" । हमारे एक साथी थे जिनको उनके एक मातहत ने जाति सूचक शब्दों के आरोप के चक्कर में उलझा दिया । उसके बाद से उन्होंने अपने आफिस में आंबेडकर की तस्वीर लगा ली और हर मामले में 'अम्बेडकर-अम्बेडकर' की रट लगाते थे । सो अब भविष्य में कुछ भी प्रश्न पूछने पर सचिन भी 'जय महाराष्ट्र,जय मराठी मानूस' के अलावा कुछ भी नहीं बोलेगा । हमारे गाँव में एक ठाकुर साहब थे । जब उन्हें कोई पूछता कि धरती का बीच कहाँ है तो वे ज़मीन पर लाठी गड़ा कर कहते कि यह क्या है ? लोगों को मानना पड़ता कि धरती का बीच वहीं है जहाँ ठाकुर साहब कह रहे हैं । सो अब सचिन को भी धरती के बीच का पता लग गया है । आप उसे क्षमा दान दें जिससे वह अगले मैचों में ठीक से खेल सके ।

लोग बहुत गर्व कर रहे हैं कि सचिन ने सत्रह हज़ार रन बना लिए हैं । इसमें क्या बड़ी बात है । आप अब तक क्रिकेट खेलते रहते तो पचास हज़ार रन बना लेते और वह भी नोट-आउट । आप को आउट करने की हिम्मत किस बालर में हो सकती है । यदि स्टंप गिर भी जाते तो एम्पायेर नो-बाल दे देता । जान तो सभी को प्यारी होती है । हमारे एक और ठाकुर साहब थे । क्रिकेट खेलते थे और बालर और फील्डर उनके मुसाहिब होते थे । एक बार गेंद शाट लग कर जाने कहाँ चली गई । गेंद नहीं मिली सो नहीं मिली और ठाकुर साहब आजीवन रन बनाते रहे । उनके शतकों का रिकार्ड आज तक नहीं टूटा है । सचिन को राजनीति की पिच पर रन नहीं लेना चाहिए था । जब भगवान की दया से क्रिकेट से पैसा मिल रहा है तो राजनीति की कीचड़ वाली पिच पर क्यों उतरा जाए ? राजनीति वैसे भी भले लोगों के बस का काम नहीं है । जब दारू की एक दुकान के पास दूसरी दुकान खुलती है तो बिक्री पर असर तो पड़ता ही है ।

हम आपकी दो बातों से विशेष प्रभावित हैं और मन ही मन ईर्ष्या भी करते हैं । एक तो आपके पास अपना पत्र है जिसमें आप जो चाहे, जितना चाहे लिख सकते हैं । हम तो पचास रचनाएँ भेजते हैं तो कहीं जाकर एक छपती है । यदि हमारे पास अपना पत्र होता तो सच कहते हैं हम भी कोई न कोई रिकार्ड बना कर ही मानते । दूसरी यह कि आपके सिर पर अभी तक काले, घने, चमकदार बाल हैं जब कि हम तो अड़सठ साल में ही गंजे होने लग गए हैं । कहने को तो तिलक भी 'बाल' गंगाधर थे । पर पता नहीं उनके सिर पर कितने बाल, थे भी या नहीं क्योंकि वे पगड़ी बाँधते थे । नेहरू जी के सिर पर भी बाल बहुत ही कम थे तभी टोपी नहीं उतारते थे । हमें तो आज तक यह समझ नहीं आया कि क्यों उनके जन्म दिन को 'बाल-दिवस ' के रूप में मनाते हैं जब कि बालों को देखते हुए तो यह गौरव आपको मिलना चाहिए था । बड़ी नाइंसाफ़ी है ।

खैर, जय महाराष्ट्र, जय 'मराठी मानूस' । भूल चूक के लिए एडवांस में माफ़ी ।

१७-११-२००९

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Aug 30, 2009

रास्ते में अटकी उपलब्धियाँ - पुस्तक


तोताराम के कई लेख समाचारपत्रों में छपते रहे, अब उनको पुस्तक रूप दिया है, ताकि सीकर से बाहर भी लोग इसका लुत्फ़ उठा सकें ।
पुस्तक में जो लेख हैं वे ब्लॉग पर नहीं डाले गए हैं, सो नई रचना का मज़ा पूरा बना रहेगा । कुछ लेख स्कैन कर के पोस्ट रूप में आयेंगे, और पुस्तक का आंशिक रूप देखने के लिए यहाँ क्लिक करें । पुस्तक प्राप्ति का तरीका इसी लिंक पर है ।






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Aug 21, 2009

प्रेमपत्र - हत्या, आत्महत्या और वीरगति


आदरणीय बूटा सिंह जी,

सत श्री अकाल । प्रिय स्वीटी को रिश्वत-काण्ड में फँसाये जाने के षडयंत्र के विरुद्ध आपने वीरों जैसा स्टेटमेंट दिया कि इस्तीफ़ा देने से तो मर जाना बेहतर है । ठीक है वीर लोग रण में पीठ दिखाने से मरना बेहतर समझते हैं । यदि पचास साल की जन-सेवा का यही पुरस्कार है तो यही सही । इस ज़ालिम संसार ने सेवकों को सदा ही दुःख दिया है । ईसा, कबीर, गाँधी किस को चैन से जीने दिया लोगों ने ?

मरने के तीन रूप हैं । हत्या में किसी व्यक्ति को छल से धोखे से मरवा दिया जाता है । राजनीति में किसी से उसके पद से इस्तीफ़ा ले लेना ही हत्या है । हालाँकि पद से इस्तीफ़ा देने के बाद शरीर तो जीवित रहता है लेकिन आदमी मरे से भी ज़्यादा हो जाता है । मरने के बाद तो आत्मा सुख-दुःख से शायद मुक्त हो जाती होगी पर इस्तीफ़ा देने के बाद तो अपनी दुर्गति व्यक्ति अपने सामने ही देखता है । जो झुक-झुक कर सलाम करते थे वे अनदेखा करके, सिर उठाये हुए चले जाते हैं । जो भेंट लाते थे वे दस रुपये उधार नहीं देते । बिजली, पानी, टेलीफोन, मकान किराया सब जेब से देना पड़ता है । अचानक नोन, तेल, लकड़ी का भाव मालूम हो जाता है ।

एक ही क्षण में चक्रवर्ती चूहा हो जाता है । पद पर होते हुए तो थानेदार भी परमीशन लेकर थाने ले जाता है मगर पद से हटने के बाद तो लाइन तोड़कर टेलीफोन का बिल भी जमा नहीं करवा सकते । वास्तव में इस्तीफ़ा देना तो आत्महत्या करने के समान है और वीर आत्महत्या नहीं करते । युद्ध में लड़ते-लड़ते मरना ही उनकी शोभा है । यदि पार्टी कोई और पद देने का आश्वासन दे तो अनुशासित सिपाही की तरह इस्तीफ़ा दे देना चाहिए । पहले आपने इस्तीफ़ा दिया था कि नहीं ? जन आक्रोश से बचने के लिए यदि कुछ दिन बिना पद के रहने की बात हो तो भी ठीक है पर यहाँ न तो बाद में कोई पद दिए जाने का आश्वासन और न ही मामले में बचाने की पुख्ता गारंटी । तब इस्तीफ़ा देने से क्या फायदा ? बिल्कुल मत दीजियेगा ।

आप संवैधानिक पद पर हैं और ऐसे में हटाने के लिए महाभियोग की प्रक्रिया है जो बहुत लम्बी है । तब तक क्या पता पार्टी को आपकी ज़रूरत पड़ जाए या क्या पता फैसला होने तक अगला चुनाव ही आ जाए । किसका क्या हुआ है जो आपका होगा । और फिर तब तक आपकी उम्र भी पचासी हो जायेगी और इतनी उम्र में तो और वह भी इतने पुराने जन सेवक को क्षमा दान भी आसानी से मिल जायेगा ।

न्याय, सत्य आदि के चक्कर में इस्तीफ़ा देना तो न वीरगति गति है और न ही समझदारी है वह तो शुद्ध मूर्खता है । हमारा विश्वास है कि आप इतने मूर्ख नहीं हैं । सांसद-रिश्वत-कांड में भी आपने बड़े धैर्य और समझदारी का परिचय दिया और देखिये आपको न्याय प्राप्त हुआ । भारतीय लोकतंत्र की न्याय व्यवस्था पर विश्वास रखिये । सिबू सोरेन, लालू प्रसाद, सुखराम आदि की तरह आप भी खरे कंचन बन कर निकलेंगे । हमें तो यह भी लगता है कि यह सरकार अल्पसंख्यकों, हरिजनों की पक्षधर और धर्म निरपेक्ष बनने का दावा भी झूठा ही करती है वरना आप हरिजन, दलित और अल्पसंख्यक भी हैं फिर भी आपके साथ कोई सहानुभूति नहीं दिखला रही है ।

वैसे अज़हरुद्दीन के साथ तो कुल मिलाकर ठीक ही किया । पहले अल्पसंख्यक होने के कारण कप्तान बना दिया । फिर अल्पसंख्यक होने के कारण हटा दिया । फिर अल्पसंख्यक होने के कारण फिर सांसद बना दिया । सो धैर्य रखने में भी कोई बुराई नज़र नहीं आती ।

मगर बच्चों को फँसाने की बात तो समझ से परे है । यदि मास्टर का बेटा आपने बाप के साथ स्कूल में जाता है और एक चाक उठा लेता है तो कौनसा पहाड़ टूट पड़ा । पंडित जी के साथ क्या उनका बेटा जीमने नहीं जाता ? जब व्यक्ति जन सेवा करता है तो आपने बच्चों पर इतना ध्यान नहीं दे पाता । स्वार्थी लोग तो देशहित से आँखें फेर कर बस अपने बच्चों का कैरियर ही संभालते रहते है तो उनके बच्चे अच्छी नौकरी भी पा जाते हैं । पर नेताओं के बच्चे इस सुविधा से वंचित रह जाते हैं । ऐसे में क्या बच्चे दो रोटी भी न खाएँ । ऐसे प्यारे-प्यारे बच्चे क्या नरेगा में काम करेंगे ? हमने तो कभी अपराध करने वाले कालू, घीसू, बुधिया ही देखें है, कभी स्वीटी या सोनू, मोनू या लवली आदि को कोई अपराध करते नहीं देखा ।

अधिकतर नेता अपने बाप की कुर्सी पर बैठते हैं । उनका अपना कोई राजनीतिक योगदान नहीं होता । आप तो अपने बल पर नौकरी कर रहे थे- सन १९६० में ७५ रुपये की नौकरी । हमने भी १९६१ में नौकरी शुरू की थी एक सौ रुपये पर और २००२ में कोई १८ हज़ार की तनख्वाह पर रिटायर हुए । यदि नौकरी करते रहते तो आप भी पन्द्रह हज़ार पर रिटायर हुए होते और आज दस हज़ार रुपये पेंशन ले रहे होते । पर तब तो पार्टी को आपकी ज़रूरत पड़ी तो नौकरी छुड़वाकर चुनाव लड़वा दिया और अब नैतिकता झाड़ रहे हैं । अब जब जन सेवा की आदत पड़ गई तो कहते हैं घर बैठो । सेवकों को क्या घर बैठे चैन पड़ता है ? अगर यहाँ पार नहीं पड़ती है तो कोई घर देखते हैं । सच्चे जन सेवक किसी एक से बँध कर नहीं रहते । आपने जनसेवा के लिए ही तो १९९८ में कांग्रेस छोड़कर भाजपा के साथ मिलकर सेवा की थी । वह नहीं तो अपनी माया भैन जी के साथ ही सही । उनको भी आजकल दलित होने के कारण लोग बहुत सता रहे हैं ।

हमने और आपने करीब-करीब एक साथ ही नौकरी शुरू की थी पर पता नहीं कैसे आप अस्सी को पर कर गए और हम तो मात्र सड़सठ के ही हुए हैं । हो सकता है कि आपने बहुत ओवर टाइम सेवा की है तभी हम से पन्द्रह साल बड़े हो गए । हममें इतना सेवा भाव नहीं था । बस घंटी बजी और घर आ जाते थे । हिन्दी विषय होने के कारण ट्यूशन की बीमारी भी नहीं लगी ।

आप तो इस उम्र में भी जन सेवा के लिए मन बनाये हुए हैं । हम आपकी जन सेवा की भावना को प्रणाम करते हैं । हमारा तो आपसे यही आग्रह है कि जन सेवा किसी भी हालत में नही छोड़ियेगा । हो सकता है कोई आपके पास संन्यास का प्रस्ताव लेकर आए तो उसे कहियेगा कि जब संन्यास का विचार सचिन को भी डराता है जिसकी कि उम्र कोई ज्यादा नहीं हैं और कहीं भी कोच की नौकरी पा सकता है तो आपको ही आखिरी वक्त में मुसलमान बनाने पर क्यों तुला है । किसी न किसी कुर्सी पर से ही सीधे विमान पर बैठ कर प्रभु के पास जाइयेगा तो उस स्थिति में वहाँ भी कोई न कोई पद मिल जाएगा वरना हमारी तरह यमदूत किसी वृद्धाश्रम में पटक देंगे ।

७-८-२००९

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Aug 16, 2009

तोताराम के तर्क - लौह पुरुष तोताराम


आज तोताराम आया तो उसकी मुख-मुद्रा से खुशी और चिंता के मिश्रित भाव टपक रहे थे । जब उसे बैठने के लिए स्टूल दी तो कहने लगा- मेरे घुटने नहीं मुड़ते हैं । जब हमने उसे खड़े-खड़े ही चाय का कप पकड़ाया तो कहने लगा- क्या बताऊँ भाई साहब, मुझे तो कुहनियाँ मोड़ने में भी परेशानी हो रही है, पर खैर! किसी तरह चाय तो पीनी ही है । उसी समय जब पत्नी रसोई से बाहर निकली तो तोताराम ने गर्दन घुमाने की बजाय रोबोट की तरह पूरा घूम कर नमस्ते की । हमें लगा कि उसके लिए गर्दन घुमाना भी मुश्किल हो रहा है ।

हमने कहा- तोताराम, हड्डियों के किसी अच्छे डाक्टर को दिखा । लगता है तेरे तो सारे जोड़ ही जाम हो गए हैं ।

वह बोला- डाक्टर को दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं है । मुझे लगता है कि मैं धीरे-धीरे लौह पुरूष होने लग गया हूँ ।

हमें चिंता की घड़ी में भी हँसी आ गई, कहा- तोताराम, लौह पुरुष तो इस देश में एक ही हुए हैं - सरदार पटेल । हाँ, आजकल कुछ और लोग भी माथे पर लौहपुरुष की चिप्पी लगा कर घूम रहे हैं । पर इससे क्या होता है । लौह पुरुष पटेल ने तो चुपचाप ही राष्ट्रीय एकता का काम कर दिया । और ये बेकार की झाँय-झाँय करके राष्ट्रीय एकता का और सत्यानाश कर रहे हैं । पतली छाछ को राबड़ी बनने लायक भी नहीं छोडेंगे । पर तेरे लौह पुरुष वाले वहम को दूर करने के लिए हम दो प्रयोग कर सकते हैं ।

तोताराम ने कहा- फटाफट बता, जिससे स्थिति के अनुसार आवश्यक कार्यवाही की जा सके । हमने कहा- पहले तो यह तय करेंगे कि तू हाड-माँस का ही बना है या किसी धातु का । इसके लिए हम तेरे सिर पर खड़ाऊँ से प्रहार करेंगे । यदि भद-भद की आवाज़ आई तो तू हाड-माँस का है । और यदि खड़ाऊँ मारने से टन-टन की आवाज़ आई तो यह सिद्ध होगा कि तू धातु का हो चुका है । धातु टेस्ट पाजिटिव निकला तो तेरे शरीर पर चुम्बक घुमा-घुमा कर देखेंगे कि चुम्बक चिपकता है या नहीं । यदि चुम्बक चिपका तो यह माना जाएगा कि तू लोहे का हो चुका है ।

आजकल दूध, घी, नोट, स्टांप आदि न जाने क्या-क्या नकली आने लगे हैं । हो सकता है लोहा और चुम्बक ही नकली हों । इसके लिए एक और बड़ा टेस्ट करना पड़ेगा पर यह टेस्ट यहाँ नहीं हो सकता । इसके लिए तो तुझे कटनी (मध्य प्रदेश) ले जाना पड़ेगा । वहाँ पारस अग्रवाल नामक भा.जा.पा.का एक कार्यकर्ता रहता है । कुछ लोग जब अडवानी जी को लौह पुरूष की जगह मोम पुरूष प्रचारित करने लगे तो पारस जी ने टेस्ट करने के लिए अपनी पादुका फेंकी । पर वह लगी नहीं इसलिए टेस्ट की प्रक्रिया आगे नहीं चली ।

पर जब तेरा चुम्बक टेस्ट हो चुकेगा तो तुझे इन्हीं पारस जी के पास ले चलेंगे । उनके स्पर्श से यदि तू सोने का बन गया तो यह माना जाएगा कि तेरा लौहीकरण शुरू हो चुका है । पर यह भी सच है कि सोना बनने की स्थिति में तू लौह पुरुष न रह कर स्वर्ण पुरुष हो जाएगा । तब पता नहीं लोग तेरे हाथ पैर ही तोड़ कर न ले जाएँ । और यह भी हो सकता है कि पारस जी ही तुझे अपनी तिजोरी में बंद कर दें ।

वैसे तुलसीदास जी ने तो लोहे को कुधातु कहा है- "पारस परस कुधातु सुहाई ।" कुधातु बनने से तो अच्छा है कि सुमनुष्य ही बना रहे । हमारे भाषण से घायल से हो चुके तोताराम की ट्यूब लाइट अचानक जली, बोला -भाई साहब, डाक्टर के पास ही चलते हैं । अडवाणी जी के कम्पीटीशन में पड़कर बिना बात खडाऊँ से टाट कुटवाने से क्या फायदा ।

२९-४-२००९

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Aug 15, 2009

तोताराम के तर्क - मंथन


सवेरे-सवेरे तोताराम के साथ घूमने निकले । जैसा कि होता है, रास्ते में तरह-तरह के बोर्ड और सूचनाएँ दिखते हैं- 'नगर परिषद के कर्मचारी काम पर हैं', 'इधर से रास्ता बंद है', 'असुविधा के लिए खेद है' । इसके अतिरिक्त कुछ और गतिविधियाँ भी बिना सूचना के चलती रहती हैं जैसे रास्ते में किसी मकान का काम चल रहा है और बजरी, ईंटें, पत्थर आदि रास्ते में पड़े हैं । पर आज जो सूचना देखी उससे बड़ा आश्चर्य हुआ, एक मकान के पास एक सूचना पट्टा रखा हुआ था- 'सावधान, अन्दर मंथन चल रहा है ।'

मंथन तो बिलोने को कहते हैं और बिलोना तो परंपरागत घरों में सवेरे-सवेरे की एक सामान्य क्रिया है । इसमें 'कुत्तों से सावधान' जैसी सूचना लिखने की क्या आवश्यकता थी । हमने तो बचपन से देखा है कि हमारे उठने से पहले ही माँ दही बिलोना शुरू कर देती थी । बीच-बीच में हमें उठाने के लिए आवाज़ भी लगा देती थी और हम थे कि उठने की बजाय बिलोने की लोरी जैसी घर्र-घर्र की मधुर आवाज़ का आनंद लेते पड़े रहते थे । और एक यह मंथन ! कौनसा खतरा है इसमें, जो लिखा है- 'सावधान, अन्दर मंथन चल रहा है ।'

हम तो सोच ही रहे थे पर तोताराम ने तो तत्काल कार्यवाही शुरू कर दी बोला- चल, अन्दर देखते हैं क्या हो रहा है ? हमारे उत्साह न दिखाने पर भी तोताराम हमें घसीटता हुआ अन्दर ले ही गया । अन्दर जा कर देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ । कई लोग सिद्धांतों का एक बड़ा सा लट्ठ कीचड़ के एक कुंड में डाल कर अपने पायजामें के नाड़ों का रस्सा बना कर उस कीचड़ को बिलोने की कोशिश कर रहे थे । कीचड़ उछल-उछल कर उनके कपड़ों और चेहरों पर गिर रहा था ।

तोताराम से रहा नहीं गया । पूछा तो बोले- मंथन चल रहा है । हमने कहा- भाई, मंथन तो दही का होता है जिसमें से मक्खन निकलता है । बड़ा ध्यान रखना पड़ता है दही के मंथन में । सावधानी से रई को घुमाना पड़ता है कि कहीं उछल कर दही बाहर न गिर पड़े । यदि बिलोते-बिलोते सारा दही ही उछल कर बाहर गिर गया तो अंत में बचेगा क्या ? बिलोने की मेहनत और बेकार जायेगी । और फिर सर्दी में गरम पानी और गर्मी में ठंडा पानी बड़े नाप-जोख से डाला जाता है । बड़े धैर्य और कलाकारी का काम है बिलोना ।

बिलोनेवाले भी लगता है थक गए थे सो हमसे बातें करने के बहाने सुस्ताना चाहते थे, बोले- यह ऐसा-वैसा मंथन नहीं है । यह तो हार के कारणों को जानने के लिए किया जा रहा है । हमने कहा समुद्र-मंथन तो सुरों और असुरों ने मिलकर किया था । और समुद्र में ही सब कुछ होता है- विष, वारुणी, अमृत, कामधेनु, कल्पवृक्ष, लक्ष्मी आदि । पर आप तो कीचड़ का मंथन कर रहे हैं तो इसमें से क्या निकलेगा । इसमें तो हैं ही जोंक, घोंघे, सेवार । इसमें मोती कहाँ से मिलेंगे ?

कबीर जी ने कहा है-
जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ ।
मैं बौरी बूडन डरी रही किनारे बैठ ।।


वे बोले- जी, मोती तो हम सब चाहते हैं पर डूबने कि रिस्क कोई नहीं उठाना चाहता ।

हमने कहा-तो फिर करते रहिये मंथन इस कीचड़ का और लिथदते रहिये ।

हम और तोताराम वहाँ से चल दिए । पीछे से फिर ज़ोर-ज़ोर से घर्र-घर्र की आवाज़ आने लगी ।

२८-६-२००९

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Aug 10, 2009

विक्रम और वेताल - सांसद की समस्या


जैसे ही वीक एंड पर अंधेर नगरी के आजीवन राष्ट्राध्यक्ष महाराज चौपटादित्य जी संसद के कुँए से सत्य के शव को निकाल कर ठिकाने लगाने के लिए राजधानी से बाहर निकले तो उसमें अवस्थित बेताल ने कहा- राजन, तुम बड़े हठी हो । तुम कभी किसी की बात मानते ही नहीं । राजा को सत्य, न्याय जैसे छोटे मोटे कामों में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए । ये काम तो उसे अपने मातहतों पर छोड़ देने चाहियें । उसे तो नृत्य देखने, गाने सुनने, उद्घाटन करने, पुरस्कार बाँटने जैसे सात्विक और सांस्कृतिक कामों पर ध्यान देना चाहिए ।

तुम जाने कितने बरसों से सत्य को ठिकाने लगाने में समय बर्बाद कर रहे पर क्या सफलता मिली ? तुम्हें पता है, यह सत्य बड़ा चीमड़ होता है । पक्का नकटा । कुटेगा, पिटेगा, जला दिया जाएगा, काट दिया जाएगा, गाड़ दिया जाएगा पर जैसे ही दो बूँद पानी पड़ेगा तो दूब की तरह जाने कहाँ से निकल आएगा । जैसी खरपतवार किसान का पीछा नहीं छोड़ती वैसे ही राजाओं को यह सत्य बड़ा परेशान करता है । तुम्हें पता है दानवों ने संजीवनी विद्या सीखने आए कच को मारकर कूँए में डाल दिया, मारकर जला दिया, राख को दारू में मिला कर शुक्राचार्य को पिला दिया तो भी, भले ही शुक्राचार्य का पेट फाड़कर ही सही पर कच के रूप में सत्य निकल ही आया ।

महाराज चौपटादित्य ने कहा- हे बेताल, तू भले ही मुझे कच के रूप में धरती में गाड़ दे पर भगवान के लिए अब और भाषण मत झाड़ । मेरा सिर दुखने लगा है । बेताल ने उत्तर दिया- ठीक है राजन, मैं तुम्हें श्रम भुलाने के लिए एक कहानी सुनाता हूँ । और उस कहानी के अंत में एक प्रश्न पूछूँगा । यदि तुमने जानते हुए भी उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे ।

बेताल सुनाने लगा- दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में यों तो चुनावों में सारे पहुँचे हुए लोग ही चुनाव जीतते थे पर एक बार ऐसा हुआ की एक थोड़ा कम पहुँचा हुआ आदमी लोकसभा का चुनाव जीत गया । निरा अनुभवहीन तो वह नहीं था फिर भी सफलता औकात से ज़्यादा थी । उसके स्वागत में शहर के भूमाफियाओं, सट्टेबाजों, घूसखोरों, दलालों, चोरों, उचक्कों ने जगह-जगह गेट बनवाये , अख़बारों में बधाई के विज्ञापन छपवाए, जुलूस निकले । साधारण लोगों ने भी मौके की नजाकत को समझ कर यही कहा कि उन्होंने उसे ही वोट दिया था । भले ही वे वोट डालने ही न गए हों । जब संसद ने हिसाब लगाया तो पाया कि उसके चुनाव क्षेत्र में जितने वोट पड़े थे
उनसे ज्यादा वोट उसे मिले हैं । वह समझ ही नहीं पाया कि उसे किसने वोट दिया और किसने नहीं । उसके लिये समर्थकों और विरोधियों को पहचानना मुश्किल हो गया । हे राजन, बताओ कि वह किसको अपना माने, किसका काम पहले करे ?

महाराज चौपटादित्य ने उत्तर दिया- हे बेताल, लोकतंत्र में सब कुछ अनिश्चित है । काम करनेवाला हार जाता है,हरामी जीत जाता है । पता नहीं कब सरकार गिर जाए । इसलिए लोकतंत्र में न कोई अपना है और न कोई पराया,न कोई समर्थक है और न विरोधी । सब मतलब से स्वागत करते हैं, बधाई संदेश छपवाते हैं । हारनेवाला कैसा भी हो मगर कोई उसका हाल चल पूछने भी नहीं जाता । बहुत से तो जीते हुए को खुश करने के लिए हारे हुए को गाली तक निकालने लग जाते हैं । इसलिए उसे किसी का काम नहीं करना चाहिए । जिस काम में अपना ख़ुद का फायदा हो वह काम करना चाहिए । हर काम की नीलामी करनी चाहिए । जो ज़्यादा पैसे दे उसका काम पहले करवाए ।

उत्तर सुनते ही बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

२२-६-२००९

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Aug 9, 2009

तोताराम के तर्क - लोकतंत्र का पाँचवाँ स्तम्भ


दोपहर बाद की चाय पी रहे थे कि दरवाज़े पर एक कड़क आवाज़ सुनाई दी- बच्चा, दरवाज़ा खोल और दस का एक नोट निकाल । हमें बड़ा अजीब लगा । वैसे और भी कई लोग सुबह-सवेरे आते हैं जैसे- सब्जीवाला, छाछवाला, कबाड़ी आदि, पर पहले पैसा कोई नहीं माँगता । पहले भाव तय होता है, फिर नाप-तोल और फिर कहीं रुपये-पैसे की बात आती थी । मगर यह तो कुछ लेन-देन के बिना ही सीधे-सीधे ही दस का नोट माँग रहा है और वह भी दादागीरी के साथ । दरवाज़ा खोला तो देखा, न कोई साधु, न कोई भिखमंगा; खड़ा है तो एक फकीर टाइप मलंग ।

ठीक मुँह के सामने हाथ फैलाकर बोला- ला । हमने जानबूझकर अनजान बनते हुए पूछा- क्या ? बाबा और ज़ोर से बोले- क्या-क्या क्या कर रहा है ? दस का नोट निकाल । हमने टालने के लिए फिर बहाना बनाया-बाबा,आजकल आचार-संहिता लगी हुई है । आपको दस रुपया देकर कहीं जसवंत सिंह, मुलायम सिंह और वरुण गाँधी की तरह चुनाव आयोगवालों के चक्कर में तो नहीं फँस जायेंगे ?

बाबा ने ठहाका लगाया- तो तू अपने आपको जसवंत सिंह के बराबर समझता है ? अरे, वे तो राजा हैं राजा । जहाँ से चाहें जीत जायें, जहाँ से चाहे हार जायें । बड़े दिलवाले और दबंग इंसान हैं । चुनाव आयोग क्या राजाओं को दान-धर्म करने से रोक सकता है ? पहले जैसे पोते के जन्म दिन पर 'केसरिया' घुट्टी पिलायी थी तो लोगों ने बड़ा बवाल मचाया था पर क्या कर लिया ? अब भी उनका कुछ बिगड़ने वाला है । और फिर तू कौनसा चुनाव लड़ रहा है और हम कौन से वोटर हैं । जैसा तू वैसे हम । और फिर यहाँ कौनसा मीडिया वाला देख रहा है । फिर झुंझला कर बोले- हम भी साले किस फालतू बातों में लग गए । चल, ज़ल्दी से निकाल दस का नोट । टाइम खोटी मत कर ।

हमने बचने की एक और तरकीब सोची, बोले- बाबा,अप्रेल का पहला सप्ताह चल रहा है । मार्च के चक्कर में अभी पेंशन नहीं मिली है । कुछ दिन बाद आना । बाबा कौन से कम, बोले- तो ला चेक काट दे । हमने झूठ कहा- चेक बुक ख़तम हो गई है । बाबा फिर चिपके, ठीक है केश नहीं तो काइंड में ला । हम अन्दर गए और पीछा छुडाने के लिए एक सौ ग्राम आटा ला कर बाबा के सामने रख दिया । अब तो बाबा का पारा चढ़ गया । चिल्लाये- पच्चीस पैसे का आटा देकर बड़ा दानवीर बनना चाहता है । तुझे पता है इसकी कीमत है पच्चीस पैसे । अरे पच्चीस और पचास पैसे का तो लेन-देन भी ख़त्म हो गया । हमने कहा- पर यह बी.पी.एल. वाला गेहूँ नहीं है । वे बोले- हमारे लिए तो सब गेंहूँ सामान हैं । हम कौनसे गेहूँ ख़रीदते है । घर में चार-चार कार्ड हैं पर हमने तो सब चक्की वाले को दे रखे हैं । वह पाँच रुपये किलो के हिसाब से पाँच सौ रुपये महीने के दे जाता है । खाना तो हम 'अक्षय कलेवा' में खाते हैं ।

हमने बाबा को लपेटना चाहा, सुझाया- बाबा, क्यों न आप नरेगा में नाम लिखवा लीजिये । बाबा भी पहुँचे हुए- बोले उसमें भी नाम लिखवा रखा है पर आजकल नई-नई सरकार आई हैं ना सो ज़रा सख्ती चल रही है इसलिए एक सौ पर दस्तखत करके केवल तीस मिलते हैं । हमने कहा- पर इतने में तो आपका काम चल ही जाता है फिर यह माया मोह क्यों ?

बाबा की पिच ही हो गई- तो क्या तू हमें अपनी तरह समझ रखा है जो दो रोटी खाई और सो गए । क्या मोबाइल में सिम फ्री में डलती है ? क्या पौव्वा वाला मेरा बाप लगता है ? इसके बाद बाबा ने फोन लगाया- साले, अभी आ रहा हूँ । गुमटी बंद मत कर जाना । आज एक खूँसत मास्टर से फँस गया हूँ । ना कमबख्त ने धेला दिया और दिमाग चाट गया सो अलग ।

हमने कहा- बाबा, आपको तो किसी पार्टी का फंड मैनजर होना चाहिए । बाबा हँसे- तो क्या तू समझता है हम ऐसे ही हैं । अरे, हम हर जीतने वाली पार्टी के ग्रास रूट कार्यकर्ता हैं । हमने हाथ जोड़ कर कहा- आप विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया के बाद लोकतंत्र के पाँचवें खम्भे हैं, पर हाथ, पैर, कान, आँख सभी दो-दो के पेयर में होते हैं । फिर आपकी इस विषम संख्या की क्या उपयोगिता हो सकती है ?

अबकी बाबा वास्तव में दिल से मुस्कराए-अरे, जब सारे खम्भे खिसक जायेंगे तब यह लोकतंत्र हमारे इस खम्भे पर ही टिका रहेगा ।

४-५-२००९

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चने के झाड़ पर

आदरणीय अडवानी जी,
नमस्कार । आशा है सानंद होंगे । कई महीनों से आप से सम्पर्क नहीं किया । कई कारण थे । एक तो यह कि चुनाव थे । चुनावों में तो वार्ड मेंबर तक इतना व्यस्त हो जाता है कि दम मारने तक की फुर्सत नहीं रहती तिस आप तो प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग थे । किस्मत की बात वेटिंग और पाँच साल आगे खिंच गई ।

वेटिंग का चक्कर सबसे ज्यादा इस मनुष्य नाम के प्राणी के ही लगा हुआ है । यह जो कुछ नहीं होता वही बनने के लिए वेट करता रहता है सो इस चक्कर में जो होता है उसका भी आनंद नहीं ले पाता । कवि ने कहा है-
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, रुत आए फल होय ॥

पर मनुष्य को धीरज कहाँ । साधारण सिपाही यदि सारे दिन थानेदार बनने के सपने देखता रहता है तो अपनी हफ्ता-वसूली तक भूल जाता है । प्रेमिका के चक्कर में पत्नी भी भाग जाती है ।

ये बातें साधारण आदमियों की है । आप तो हमेशा से सदा से ही निष्काम और अनुशासित सिपाही रहे हैं । पहले संघ में
फिर जनसंघ में और उसके बाद भाजपा में । आत्मा भी मनुष्य योनी पाने के लिए चौरासी लाख योनियों में भटकती रहती है और मनुष्य योनि मिल जाने के बाद मोक्ष में चक्कर में तरह-तरह की तीर्थ यात्राएँ करती रहती है । आप ने भी तरह-तरह की यात्राएँ कीं पर वे सब सेवा के लिए थीं । विरोधी चाहे कुछ भी कहें पर हम जानते है जब आप राजस्थान की तपती रेत में गाँव-गाँव घूमते थे तब कौन सा स्वार्थ था ।

हम बुज़ुर्ग भले ही युवकों को सीधा समझें पर आजकल के युवक बड़े चालाक होते हैं । मीठी बातें करके बुजुर्गों को चने के झाड़ पर चढ़ा देते हैं और तमाशा देखते हैं । हमारे मोहल्ले के कुछ युवक है जो एक बुज़ुर्ग पंडित जी को चढ़ाकर चुनावों में खड़ा कर देते हैं, उनसे मिठाई खाते रहते हैं और हर बार पंडित जी की जमानत ज़ब्त होती रहती है । वैसे तो न आप माया में भटकते है और न इतने भोले कि ज़ल्दी से किसी की बातों में आ जाएँ । पर अति बुरी होती है । तुलसी दास जी ने भी कहा है- "अतिशय रगड़ करे जो कोई । अनल प्रकट चन्दन तें होई ॥" सो लगता है आप भी अगली कतार के कुछ नेताओं के बहकावे में आ गए और प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग बन गए । और किस्मत की बात देखिये कि कभी चुनाव न लड़ने वाले प्रधान मंत्री बन गए ।

वैसे तो आप ज्ञानी और हिम्मत वाले हैं । गीता के ज्ञाता हैं । पर कभी-कभी हाल-चाल पूछने वाले ही इतने सक्रीय हो जाते हैं कि जान निकाल लेते हैं । एक बार एक दुकानदार एक ग्राहक से पिटते-पिटते बचा । एक मनचला यह दृश्य देख रहा था । अब तो जब भी वह दुकान पर आता यही कहता- लाला, उस दिन तो वह आपको पीट ही देता । एक दिन तंग आकर लाला बोला- वह तो पीटता या नहीं पर मुझे लगता है कि तू मुझे ज़रूर पीटेगा ।

इसलिए हमने यही सोच कर पत्र नहीं लिखा कि पता नहीं किस हालत में होंगे । पर अब जब पिछले महीने आप कर्नाटक आए और मेडम के साथ परंपरागत 'कोडावा' ड्रेस में देखा तो मन को बड़ी शान्ति मिली । दूल्हे जैसी ड्रेस लग रही थी । कहीं चेहरे पर तनाव नहीं । हमेशा से ज्यादा खुश । अगर सफ़ेद मूँछे न दिखती, क्लीन शेव्ड होते तो कोई नहीं कह सकता था कि अस्सी पार कर चुके हैं । इसके बाद जब दिल्ली में अल्पसंख्यक मोर्चे में आपका फोटो देखा तो पूरी तसल्ली हो गई कि अब पहले वाला तनाव कहीं नहीं है और आप पूरी तरह फॉर्म में आ चुके हैं । खैर, जो बीत गई सो बात गई ।

यह तो अच्छा हुआ कि आप लोगों के बहकावे में नहीं आए वरना चढ़ाने वाले बड़े दुष्ट होते हैं । आदमी का जुलूस निकलवा देते हैं । मेवाड़ के एक महाराणा ने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक बूँदी का किला न जीत लेंगें तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे । अब किला जीतना कोई मज़ाक तो है नही । शाम तक महाराणा जी के होंठों पर पपड़ी आगई । चमचों ने मौका देख कर कहा- हुकम, इस तरह प्राण देने से क्या फ़ायदा । किला भी जीतेंगे पर थोड़ा समय तो लगेगा ही । इसलिए जब तक असली किला न जीत लें तब तक एक नकली किला बना कर उसको जीत लेते हैं । काफी ना-नुकर के बाद महाराणा माने । पर किस्मत की बात देखिये कि जिस मकान को नकली किला बनाया गया उसमें बूँदी का एक सैनिक काम करता था सो उसने गोली चला दी । उसे मारकर नकली किला तो जीत लिया पर मज़ा तो किरकिरा होगया । इसे कहते हैं- काणी का तो काजल भी लोगों को नहीं सुहाता ।

खैर, आप ऐसे किसी नाटक के बहकावे में नहीं आए । हमारे एक मित्र हैं । उन्हें एम.पी. बनने की बड़ी लालसा है पर ना तो इतना पैसा और ना ख़ुद के सिवा कोई वोट देने वाला । भाई लोग उन्हें मज़ाक में एम.पी. साहब कहने लगे । उनका नाम है महावीर प्रसाद । बात पूरी तरह असत्य भी नहीं है । महावीर प्रसाद का शोर्ट फॉर्म बनता ही एम.पी. है । सो पूरा नहीं तो अर्द्धसत्य तो है ही । धीरे-धीरे हालत यह हो गई है कि सब उनको इसी संबोधन से पुकारते हैं ।

अगर आपकी जगह कोई दूसरा होता तो लोग उसका नाम परिवर्तन करके पूरण मल रख देते और शोर्ट फॉर्म करके पी.एम., पी.एम. पुकारने लग जाते । हमें विश्वास है कि आपने हिम्मत नहीं हारी है । हम आपको वास्तव में पी.एम. पुकारने की प्रतीक्षा में हैं ।

२५-७-२००९

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Aug 5, 2009

तोताराम का सन्यास


आज तोताराम को आने में कुछ देर होगी । अकेले ही चाय पी रहे थे । तभी भगवा वस्त्रधारी एक आकृति हमारे सामने प्रकट हुई । हमें बड़ा अजीब लगा । ठीक है भीख माँगना साधुओं का वैसा ही संवैधानिक अधिकार है जैसा कि समाज सेवकों का चंदा माँगना, दादाओं का रंगदारी वसूल करना मगर कम से कम घर में घुसने से पहले दरवाजा तो खटखटाना चाहिए या फिर बाहर से आवाज़ लगाकर आना चाहिए । हमने रुखाई से कहा- बाबा,भले ही आपको चाय चाहिए या चंदा, पर कम से कम बाहर से आवाज़ लगा लेते तो ठीक रहता । यह क्या कि कसाब की तरह अचानक ही घुस पड़े । बाबा ज़ोर से ठहाका मारकर हँसे । हँसते ही पहचान गए कि यह तो तोताराम है । कहा- क्या महँगाई इतनी बढ़ गई है कि पेंशन से तेरा कम नहीं चल रहा है और भीख माँगनी पड़ रही है ।

तोताराम ने कहा- ऐसी बात नहीं है । बात यह है कि मैंने सन्यास ले लिया है । सोचा जाने से पहले तुझसे विदाई स्वरूप अन्तिम चाय तो पी चलूँ, सो चला आया ।

हमने कहा- तोताराम, तू कौन सा राजा या प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार है जो सन्यास ले रहा है । तेरा तो सारा जीवन ही सन्यास रहा है । दो कुरते, दो पायजामे, एक जोड़ी चप्पल, दो रोटी सुबह, दो रोटी शाम को और बिला नागा एक चाय हमारे साथ । अब इनमें से किस चीज़ की कटौती करने वाला है ? जब राजा लोग ही सन्यास नहीं लेते, मरते दम तक कुर्सी से चिपके रहते हैं , जब तक कि कंस या औरंगजेब जैसा सपूत ज़बरदस्ती कुर्सी से नीचे न पटक दे । प्रिंस चार्ल्स जैसे सपूत कितने होते हैं जो वेटिंग-वेटिंग में ही साठ पार कर जायें । ज्योति बसु और अटल जी ने सन्यास ले लिया है फिर भी चुनाव के समय वक्तव्य जारी करने से बाज़ नहीं आते । सन्यास आश्रम में पहुँच चुके मनमोहन, अडवानी, करुणानिधि , शीश राम ओला सत्ता के हम्माम के चारों तरफ़ चक्कर लगा रहे हैं । तू तो मात्र सड़सठ बरस का है । अभी तो तेरे खेलने-खाने के दिन हैं । अडवानी जी और करूणानिधि के सिर पर बाल ढूँढ़ने से नहीं मिलेगा जैसे कि कारत के सिर पर काला बाल । दशरथ को जब अपने कान के पास एक सफ़ेद बल दिखाई दिया तो उन्होंने राम राज सौंप कर वानप्रस्थ लेने की तैयारी कर लीथी ।

तोताराम बोला- राजाओं और नेताओं की बात छोड़ । वे तो कभी बूढे ही नहीं होते । जब अडवानी जी ने कहा था कि वे अगले चुनाव मतलब कि २०१४ में सन्यास ले लेंगे तो मैंने सोचा था कि पाँच बरस जाते कितनी देर लगती है । फिर तो मैं भी प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग बन जाऊँगा । पर अब कुछ लोंगों ने लाइन काटकर नरेन्द्र मोदी का नाम उछाल दिया है । नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि २०१४ में भी अडवानी जी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे । अब तो मेरे लिए कहीं २०१९ में ही चांस दिखता है बशर्ते कि कोई और भाँजी न मार दे । और तू जानता है इस महँगाई में इतनी उम्र एक मास्टर को तो मिलती नहीं है । बेकार में २०१९ की वेटिंग का टिकट लेने से क्या फायदा । यह जन्म तो जैसा गुज़रा ठीक है । कम से कम अगला जन्म तो सुधार लें । सो भाई साहब अपन तो चले, अलख निरंजन । कहा सुना माफ़ करना ।

तोताराम चला गया पर हमें विश्वास है वह उसी तरह चला आएगा जैसे कि उमा भारती अडवानी जी के चुनाव प्रचार में लौट आई हैं ।

२९-४-२००९
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Aug 4, 2009

तोताराम के तर्क - पसीने का क़र्ज़

आज तोताराम चाय के समय गैरहाजिर था । आया तो कोई दसेक बजे । आते ही जल्दी मचाने लगा, बोला- फ़टाफ़ट तैयार हो जा, गुजरात चलाना है ।

हमने कहा- यार, गुजरात में भी अपने शेखावाटी जितनी गरमी पड़ती है । कहीं घसीटना ही था तो शिमला, मसूरी की बात करता । उत्तर मिला- शत्रु, अग्नि, बीमारी और क़र्ज़ को कभी कम नहीं आँकना चाहिए । जितना ज़ल्दी हो सके इनसे मुक्ति पा लेनी चाहिए ।

हमने कहा- जब भारत सरकार का एक सर्वे प्रकाशित हुआ था 'प्रति व्यक्ति क़र्ज़' के बारे में तो हमने पेंशन से लोन लेकर चिदंबरम का कर्जा चुका तो दिया था । जहाँ तक बीमारी का सवाल है तो बुढ़ापे में भी अपना स्वास्थ्य ठीक-ठाक ही है । आग कीमतों में लगी है सो किसी के बाप से बुझने से रही । और हमारा शत्रु अब यमराज के अलावा और कौन होगा । पर यह कर्ज़े वाली बात ज़रा साफ़ कर ।

तोताराम ने स्पष्ट किया- अडवानी जी ने पन्द्रह साल राजस्थान में जनसेवा की है, गरमी में घूम-घूम कर पसीना बहाया है । सो मोदीजी मंच से सूचना दे गए हैं कि राजस्थान को अडवानी जी के इस पसीने का क़र्ज़ चुकाना है ।

हमने कहा- यार, पसीना तो हमने भी चालीस साल मास्टरी में बहुत बहाया है पर आज तक उसके लिए किसीके सर पर सवार नहीं हए । और फिर ये मोदी जी तो ब्रह्मचारी हैं । इन्हें रुपये पैसे की बात से क्या लेना-देना । वैसे भी वे आजकल एक और बालब्रह्मचारिणी जी से देश की रक्षा और विकास की बात करने चेन्नई गए हुए होंगें ।

तोताराम बोला- तुझे याद नहीं, मोदी जी नरेन्द्र या ब्रह्मचारी होने से पहले मोदी हैं । एक-एक दाने और एक-एक बूँद का हिसाब रखने वाले । महाजनों और मोदियों से बचना संभव नहीं । अडवानी जी ने कभी इस क़र्ज़ के बारे में बात नहीं की और न कभी कोई नोटिस भेजा । पर तुझे पता होना चाहिए कि बही और हिसाब-किताब कारिंदों के पास होता है ।

हमने कहा- तोताराम, सेवा निस्वार्थ की जाती है, उसका दाम नहीं लिया जाता । और फिर अडवानी जी इतने टुच्चे भी नहीं हैं । तोताराम ने उत्तर दिया- देख मास्टर, क़र्ज़ कैसा भी हो चुका देना चाहिए, नहीं तो फिर इस मृत्युलोक में आना पड़ेगा । नो ड्यूज के बिना आगे स्वर्ग में भगवान नई ड्यूटी ज्वाइन नहीं करने देगा । तुझे पता होना चाहिए कि भगवान राम की एजेंसी अडवानी जी, नरेन्द्र मोदी और तोगडिया के पास ही है । सो क़र्ज़ तो चुकाना ही पड़ेगा ।

हमने कहा- मोदी जी ने प्रतीकात्मक क़र्ज़ की बात कही थी । उनका मतलब था कि उस कर्ज़े के बदले में भा.ज.पा. को वोट दे देना । वोट किसको दिया यह किसको पता चलेगा । कह देंगें कि वहीं दिया था जहाँ मोदी जी ने कहा था । हो गया हिसाब-किताब बराबर । तोताराम बोला- वे ऐसे नहीं मानेंगे । जब तक अडवानी जी प्रधानमंत्री नहीं बन जाते तब तक यह क़र्ज़ हमारे माथे रहेगा ही ।

हमें गुस्सा आगया । एक तो वोट देने गए तो लू लग गई । और ऊपर से ये कर्ज़े-कर्ज़े की रट लगा रहे हैं । हमने भी कह ही दिया- देख, हमने भी छः साल गुजरात में मास्टरी की है, पसीना बहाया है- चार साल पोरबंदर और दो साल राजकोट में । छत्तीस साल हमारे छोटे भाई ने पोरबंदर में पसीना बहाया है । अगर उन्हें हिसाब-किताब ही करना है तो हम दोनों भाइयों के छत्तीस जमा छः कुल बयालीस साल होते हैं । उसमें से अडवानी जी के पन्द्रह साल काटकर हमारा सत्ताईस साल का हिसाब कर दें । हमें नहीं जाना गुजरात । तुझे जाना हो तो जा ।

अब यह तो कल ही पता चलेगा कि तोताराम गुजरात गया या नहीं ।

१४-५-२००९
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Jul 23, 2009

माया ही माया

भैन जी,
जय हो । भले ही कुछ लोग 'जय हो' के गाने गाकर, कुछ देर जय की खुशी मना लें पर सच्ची जय तो साहस करनेवालों की होती है । आपने निरंतर साहस दिखाया तो आज इस पद पर हैं तथा और भी आगे बढ़ती जायेंगी । डर-डरकर राजनीति नहीं होती । जनता का स्वभाव तो स्त्री जैसा होता है । वह साहसी को ही जयमाला पहनाती है ।भले ही विरोधी जानबूझकर सहमत न होने का नाटक करें पर अन्दर से वे भी इंदिरा गाँधी को उनके साहस के कारण ही मानते हैं । हेनरी किसिंगर और निक्सन भले ही कुढ़कर अकेले में इंदिरा गाँधी को गाली निकालते थे पर अन्दर से उनके साहस के कायल थे । इसी गुण के कारण अटल जी ने उन्हें दुर्गा कहा था । आज लोग भले ही आपकी नुक्ता-चीनी करें पर अन्दर से आपसे खौफ खाते हैं । किसलिए- आपके साहस के कारण । पिछले चुनावों में कई लोगों के मन में प्रधानमंत्री बनने की हूक उठी हो पर अपनी इच्छा साफ़-साफ़ ज़ाहिर करने का साहस केवल आपने ही दिखाया । वोट बैंक बनाया तो डंके की चोट पर, लोगों को चार-चार जूते मारकर । यह नहीं कि रिरियाते रहे ।

आज लोग अपनी मूर्तियाँ लगवाने के लिए अपनी आलोचना करते हैं पर अन्दर-अन्दर अपनी ख़ुद की मूर्तियाँ लगवाने के लिए तरसते हैं । अरे. अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर, धर्मेन्द्र, वसुंधरा के मन्दिर बन गए ।लालू, राबड़ी के चालीसा लिखे गए तो आप क्या इनसे कम हैं । लालू ने अपना चालीसा लिखनेवाले को साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बना दिया तो क्या यह अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना नहीं है ? लोग बिना बात का नाटक करते हैं । मन-मन भावे, मूण्ड हिलावे ।

कबीर जी ने कहा है - काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । सो जो मूर्ति कल लगनी है, वह आज क्यों न लग जाए । शुभस्य शीघ्रम् । बाद में पता नहीं पीछे वाले मूर्ति लगवाएँ या नहीं और लगवाए भी तो पता नहीं कैसी । और किसे पता मूर्ति लगवाए बिना ही सारा पैसा खा जाएँ । बिहार में न भैंसें आयीं, न चारा चरा पर बिल सारे पूरे बन गए । अपने यहाँ तो यदि वृद्ध माता-पिता को यह शंका हो कि सुपुत्र मरने के बाद उनका खर्च-द्वादशा ढंग से करेगा या नहीं तो वे अपना जीवित खर्च कर जाते हैं । हमारे गाँव में एक पंडित जी के साथ यही स्थिति थी सो जब उनका सुपुत्र जब किसी गाँव गया तो पीछे से उन्होंने अपना खर्च करने का प्लान बनाया । पर पता नही, सुपुत्र को कैसे ख़बर लग गई सो उसने जीमने आए ब्राह्मणों को गाली निकाल कर भगा दिया । इस प्रकार पिता का अपने सामने ही खर्च बिगड़ गया । बाद में ख़ुद ही सबके घर-घर जाकर परोसा दे-देकर आए । सो अपना हाथ जगन्नाथ ।

भई, निर्गुण, निराकार, निष्काम, सच्चा तटस्थ तो ब्रह्म ही है । बाकी जो नज़र आता है वह तो माया ही माया है । जिसके भी मन में झाँकोगे उस में न राम होगा न रहीम, न माँ होगी न बाप, न भाई न बहन, न यार न दोस्त, सबके मन मन्दिर में माया की ही मूर्ति विराजमान मिलेगी । इसलिए यदि संसार में आगए हैं तो ब्रह्म का झूठा नाटक नहीं करना चाहिए । ठीक है गाँधी जी महान थे, देश को आजाद करने में उनका बड़ा योगदान है पर क्या वे पूरी तरह से माया-मोह से परे थे ? जब उनके उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया हार गए तो गाँधीजी बर्दाश्त नहीं कर पाये । रही बात गाँधी जी की सादगी की । सो क्या उनके लिए ही देश में कपड़े की कमी थी । तभी तो अंग्रेजों को उनको डंडे मारने का साहस हो गया । सादगी के कारण कलाम साहब का क्या हाल कर दीया कोंटीनेंटल एयर लाइन वालों ने । अगर दस-बीस बंदूक वाले साथ होते तो किसकी मजाल थी कि आँख भी उठा लेता । और अगर आप होतीं और साथ में मुकुट और सिंहासन होता तो एक बार तो ऊपरवाला भी हट कर खड़ा हो जाता । अरे, अगर भगवान ने पद और रुतबा दिया है तो उसके अनुसार तो रहो । यह क्या कि भिखारियों जैसा भेस बना रखा है । न अपनी इज्ज़त का ख्याल है और न एक सौ बीस करोड़ की जनसंख्या वाले महान लोकतंत्र का ।

ब्रह्म के अलावा जब सब कुछ नाटक ही है तो फिर नाटक को ढंग से करने में क्या बुराई है । एक कवि ने कहा है- जिंदगी एक नाटक है, हम नाटक में काम करते हैं । हमारे हिसाब से इस दुनिया में सब नाटकबाज़ हैं । तो फिर नाटक न करने का नाटक करने से क्या फायदा । नाटक करें, जम कर करें । भले ही औरत को आदमी का और आदमी को औरत का पार्ट करना पड़े या फिर जियो-जियो रे लला वाला ।

२२-७-२००९

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Jul 22, 2009

तोताराम के तर्क - कलाम साहब की सुरक्षा तलाशी


आज हमें बड़ा क्षोभ हो रहा था । आते ही तोताराम का कोर्ट मार्शल कर दिया- हद हो गई तोताराम, ये अमरीका वाले अपने आप को समझते क्या हैं । सब धान बाईस पंसेरी । न आदमी देखते हैं, न मौका । यहाँ हम हिलेरी के स्वागत को लेकर हिले जा रहे थे और इन्होंने हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान को ही हिला कर रख दिया । आतंकवादी तो सँभाले नहीं जाते और कलाम जैसे भले आदमी का जुलूस निकाल दिया । अरे, और कुछ नहीं तो कम से कम उनकी उम्र का तो ख्याल किया होता । छोटे-मोटे राजदूत के साथ भी ऐसा नहीं किया जाता । ये तो भारत के पूर्व राष्ट्रपति और संसार के आदरणीय वैज्ञानिक भी हैं ।

तोताराम बोला- ज़्यादा उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं है । तूने तो ख़बर आज पढ़ी है पर यह घटना तो ठीक तीन महीने पुरानी है । तिस पर साहब ने कोई शिकायत भी नहीं की ।

हमने कहा- यह तो कलाम साहब की सज्जनता है । वे उस दो पैसे के आदमी के क्या मुँह लगते । पर नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल को तो यह सूचना मिल गई थी कि एयर लाइन के अदने से कर्मचारी ने और वह भी कलाम साहब का परिचय मिलने पर भी उनकी तलाशी ली है फिर भी उन्होंने कार्यावाही नहीं की । इसका क्या मतलब है ?

तोताराम ने हमें समझाया- देखो। ज़ल्दी का काम शैतान का होता है और अपने पटेल जी शैतान थोड़े ही हैं तिस पर प्रफुल्ल भी, इसलिए छोटी-मोटी घटनाओं से अपनी प्रफुल्लता को क्यों त्यागते । मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि गुस्सा आए तो कोई कार्यवाही करने से पहले एक गिलास ठंडा पानी धीरे-धीरे पीओ या फिर दस तक गिनो । तलाक़ के मामले में भी कहा गया है कि तीन महीने का ब्रेक लगाओ, हो सकता है कि तुम्हारा निर्णय जल्दबाजी में हो और इस अवधि में तुम्हारा विचार बदल जाए । हो सकता है, पटेल साहब दस तक गिन रहे हों ।

हमने कहा- क्या दस गिनने में तीन महीने लग जाते हैं ?

तोताराम बोला- तीन महीने क्या तीस साल लग सकते हैं, देखते नहीं, पाकिस्तान को जवाब देने के लिए भारत की अब तक दस तक की गिनती कहाँ पूरी हुई । और फिर उस समय चुनाव भी तो चल रहे थे । बिना बात स्टेटमेंट देकर क्यों रिस्क लेते । क्या पता ऊँट किस करवट बैठता । यह तो मरे हिन्दी के एक अख़बार ने ख़बर उछाल दी वरना अब भी मामला दबा ही पड़ा था ।

हमने कहा- लेकिन बात थी तो महत्वपूर्ण तभी तो सारा सदन एक साथ बोल पड़ा ।

तोताराम ने कहा- सदन कोई एकमत नहीं है । यह तो एक प्रकार से संप्रग को लताड़ने का मौका मिल गया वरना जब अडवाणीजी और फर्नांडीज के कपड़े उतरवाए थे तब इनकी मर्दानगी कहाँ गई थी । अरे, जब लन्दन में गाँधी जी को कहा गया कि उन्हें ब्रिटेन के सम्राट से मिलने के लिए विशेष दरबारी पोशाक पहननी पड़ेगी तो गाँधी जी ने कहा कि यदि सम्राट इसी पोशाक में मिलना चाहते हैं तो ठीक है वरना मुझे मिलने में कोई रूचि नहीं है । और गाँधीजी अपनी उसी आधी धोती में सम्राट से मिले ।

तोताराम बोलता चला गया - तेरी बात ठीक हो सकती है पर समय पर कोई कुछ बोले तो सही । सोमनाथ दादा ही अच्छे जिन्होंने आस्ट्रेलिया जाना छोड़ दिया पर तलाशी नहीं दी । और फिर भइया, अमरीकावाले बुश पर चलने के बाद सबसे ज़्यादा जूतों से ही डरे हुए हैं । अमरीका एक और जूते चलानेवाले अनेक - क्या ईराक, क्या अफगानिस्तान, क्या ईरान, क्या तालिबान ।

और फिर कोंटीनेंटल एयर लाइन वाले ने माफ़ी माँग तो ली । वैसे आल इंडिया रेडियो ने तो इस माफ़ी का समाचार तक नहीं दिया और तू वैसे ही हलकान हुआ जा रहा है ।

२२-७-२००९

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Jul 15, 2009

तोताराम के तर्क - जय हो


आज तोताराम आया तो उसकी सजधज कुछ निराली ही थी । सिर पर चूनड़ी का साफ़ा, धुला प्रेस किया कुरता पायजामा, माथे पर टीका और कलाई पर मोटा सा कलावा बँधा था । हम कुछ समझ नहीं पाये । आते ही तोताराम उछल कर चबूतरे पर चढ़ गया और देश में लोकतंत्र की दुर्दशा और उसकी रक्षा के बारे में जोशीला भाषण झाड़कर ज़ोर से चिल्लाया- भारत माता की .... ।

आगे हमें बोलना था पर हम चुप रहे । तोताराम को गुस्सा आया, बोला- जिस भारत माता ने तुझे पाल पोसकर बड़ा किया, नौकरी दी और अब पेंशन दे रही है उसकी जय बोलते हुए तेरी जुबान घिस रही है, लानत है ।

हमने कहा तोताराम बात ऐसी नहीं है पर तुझे पता है कि 'जय हो' का कापीराईट कांग्रेस ने खरीद लिया है । कोई गैरकांग्रेसी अगर उसका उपयोग करे तो पता नहीं कोई चक्कर डाल दे । मैं तो इसलिए चुप था वरना भारत माता की जय तो सारे जीवन बोली है । और फिर भइया, जब से डंकल प्रपोज़ल लागू हुआ है मैंने तो नीम की दातुन करना भी छोड़ दिया है । पता नहीं , कब कोई शिकायत करदे और बुढ़ापे में कोर्ट कचहरी का चक्कर चल निकले । और फिर आजकल भारत माता कि जय कौन चाहता है । सबको चुनावों में अपनी-अपनी जीत चाहिए । अपने बच्चों की जय चाहिए । और अब तो 'जय हो' के साथ 'भय हो' भी चल निकला है । सो 'जय हो' दूसरों की, अपने को तो सदा की तरह भयभीत ही रहना है । डरोगे तो बचोगे । जनसेवकों से डरो, धर्म के ठेकेदारों से डरो । डरोगे तो बचोगे । बस कोई भी वोट मँगाने आए तो उसमे सामने हें-हें करके गरदन हिलाते रहो ।

तोताराम बोला- तुझे पता नहीं ए. आर. रहमान ने ख़ुद कह दिया है कि 'जय हो' पर किसीका एकाधिकार नहीं है ।

हमने कहा- ए. आर. रहमान के कहने से क्या होता है । क़ानून तो उसके हाथ है जिसके हाथ में ताक़त होती है । लोकतंत्र में ताक़त वोटर के हाथ में होती है । वह चाहे तो सरकारों को उलट-पलट सकता है । वोट का राज है । मैं लोगों को जगाऊँगा । बताऊँगा कि भ्रष्ट, रिश्वतखोर, अपराधियों को वोट मत देना ।

हमने कहा- ऐसा प्रचार तो अखबारों में हो रहा है । लोग संपादक के नाम पत्र लिख रहे हैं पर वास्तव में धन, दारू और बंदूक का सहारा लेने वालों को क्या कोई रोक पा रहा है ? यदि लोकतंत्र के सेवकों को पता लग गया कि तू इस प्रकार का अलोकतांत्रिक कृत्य कर रहा है तो तेरे बूथ पर पहुँचने से पहले कोई बूथ लेवल का कार्यकर्ता तेरा वोट तो डाल ही जाएगा । हो सकता है कोई अतिउत्साही तेरे हाथ-पाँव ही न तोड़ दे । फिर धरी रह जायेगी तेरी 'जय हो'। तू पलस्तर बँधाए अस्पताल में होगा और उधर लोकप्रिय सरकार बन जायेगी ।

बनी-बनाई चाय छोड़ कर तोताराम 'जय हो' चिल्लाता चला गया । हम जानते है कि जय होगी तो लल्लू पहलवान की या फिर कल्लू पहलवान की । तोताराम के तो हाथ-पैर बचे रहें यही बहुत है ।

(भय हो का वीडियो देखें)

२१-४-२००९

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Jul 14, 2009

तोताराम के तर्क - ब्रह्मचारी जी का आशीर्वाद


आज तोताराम आया तो उसने अपने सिर पर गमछा डाल रखा था । हमने सोचा लू से बचने के लिए ऐसा किया होगा । पर जब उसने कई देर तक गमछा नहीं उतारा तो हमने पूछ ही लिया- यार, अब तक इस खोपड़ी को क्यों कस रखा है ? क्या यहाँ कमरे के अन्दर भी लू लग रही है ?

तो बोला- इसके नीचे मैनें ब्रह्मचारी जी का आशीर्वाद छुपा रखा है । हमने उत्सुकतावश उसका गमछा खींच लिया तो पाया कि उसके सिर पर ब्राडगेज की तरह दो समानांतर पटरियाँ उभरी हुई हैं । पूछा- चोट कहाँ लगी ? कहीं लोकतंत्र की रक्षा के लिए सिर तो नहीं फुड़वा बैठे ? बोला- नहीं, यह तो ब्रह्मचारी जी के मारे हुए चिमटे का निशान है । वे जिस पर प्रसन्न होते हैं उसके सिर पर चिमटा फटकार देते हैं । और जिस पर चिमटा पड़ जाता है वह यदि प्रधानमंत्री नहीं तो कम से कम राज्य सभा का सदस्य तो बन ही जाता है ।

हमें बड़ा गुस्सा आया । आशीर्वाद देने का यह कौनसा तरीका है ! हनुमानजी से बड़ा ब्रह्मचारी कौन होगा पर वे तो किसी को आशीर्वाद के रूप में गदा नहीं मारते । बल्कि भक्त के संकट का मोचन ही करते हैं । विवेकानंद जी भी ब्रह्मचारी ही थे पर उन्होंने तो प्रेम और कर्म का संदेश दिया । यह कैसा ब्रह्मचारी है ?

पूछा- यह वही तो नहीं है जो बुज़ुर्ग महिलाओं को हिकारत से डोकरी और युवतियों को छोकरी कहता है ? तोताराम ने हामी भरी तो हमने कहा- देखो, जो सच्चे ब्रह्मचारी होते हैं वे महिलाओं को माता-बहिन कहते हैं ,बुढ़िया या गुड़िया नहीं कहते ।

तोताराम ने सफाई दी- फक्कड़ संत ऐसे ही होते हैं । वे अपने व्रत को निभाने के लिए महिलाओं से कोई रिश्ता नहीं जोड़ते । इस प्रकार के संबोधनों से वे महिलाओं से एक दूरी बना कर रखना चाहते हैं ।

हमने कहा- हमें तो ऐसा ब्रह्मचर्यव्रत आरोपित और हठयोग जैसा लगता है । यदि व्यक्ति ब्रह्मचर्य धारण करके सहज नहीं रह सके तो उसे फिर गृहस्थ बन जन चाहिए । तब व्यक्ति सहज हो जाता है। और कई ऐसी ही ब्रह्मचारिणियों को देख ले । वे कौनसी इससे कम हैं । वे भी ऐसे ही बोलती हैं जैसे कि सामने वाले को अभी झाड़ू मार देंगीं । कई लोग बड़े-बड़े सपनों के चक्कर में टाइम निकल देते हैं, बाद में कोई जुगाड़ नहीं बैठता तो ब्रह्मचर्य का नाटक करने लग जाते हैं । तुझे इन चक्करों की क्या ज़रूरत है ? आराम से पेंशन ला, शान्ति से घर में बैठ और राम-राम कर ।

पर तोताराम ने सीधे-सीधे हमारी बात नहीं मानी । बोला- चुनाव परिणाम आने तक तो इस आशीर्वाद को कायम रखता हूँ । इसके बाद जैसी परिस्थिति होगी कर लेंगे । क्या पता चांस लग ही जाए ।

हमने कहा- तेरी मर्जी । पर याद रख, तुझे कोई घास डालने वाला नहीं । बोली लगेगी भी तो जीते हुए एम.पी.यों की । ये जो अमरीका के राजदूत दिल्ली और हैदराबाद के चक्कर लगा रहे हैं, ये जो कारपोरेट जगत सक्रिय हो रहा है, ये जो काले धन वाले कवायद कर रहे हैं ये तोताराम के लिए नहीं वरन जीते हुए जनसेवकों की बिकाऊ आत्माओं के लिए कर रहे हैं । तुझ जैसे लोग केवल चिमटा खाने के लिए ही होते हैं । रही बात ड्रेसिंग करवाने की सो आज नहीं तो दो चार दिन बाद करवा लेना । पर अच्छा हो, कोई एंटीबायोटिक ही ले ले वरना यदि सेप्टिक हो गई तो तेरा सिर ही काटना पड़ेगा ।

१४-५-२००९

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Jhootha Sach

Jul 12, 2009

तोताराम की क्षमा-याचना

तोताराम के साथ कल की मीटिंग चबूतरे पर ही हुई थी । पत्नी के घुटनों में दर्द था । हमने चबूतरे पर से ही आवाज़ लगाई थी- चिक्की की दादी, ज़रा दो कप चाय तो दे जाना । पर उत्तर नहीं आया । उसका इन्फ़्रास्ट्रकचर भी अब पैंसठ साल पुराना हो चुका है सो हमारी आवाज़ उसके एंटीना ने नहीं पकड़ी । फिर थोड़ा ज़ोर से आवाज़ लगाई तो उत्तर आया- आप ख़ुद ही आकर ले जाओ । तभी तोताराम को जाने क्या दौरा पड़ा, बोला- तू इस घर के मंत्री मंडल का सबसे कमजोर सदस्य है । तेरा इतना भी पावर नहीं कि तेरी एक आवाज़ पर दो कप चाय भी आ जाए । और उठकर चला गया ।

तोताराम के साथ हमारा कम से कम साठ साल पुराना रिश्ता तो है ही । हँसी मजाक भी चलते रहते हैं । आज जाने उसे क्या हो गया कि इतनी घटिया बात कह गया । इसकी तो रसोई तक पहुँच है, ख़ुद जाकर भी तो चाय ला सकता था । न हम प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह हैं और न यह प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग लाल कृष्ण अडवानी है । कौन सी हमारी जायदाद बँट रही थी । रात भर मन बैचैन रहा । ठीक से नींद भी नहीं आई ।

सवेरे अख़बार पासमें रखे चबूतरे पर बैठे, पढ़ने का मन ही नहीं हो रहा था । तभी पास से आवाज़ आई- भाई साहब, अगर मेरी बात से आपको कष्ट हुआ हो तो मैं क्षमा माँगता हूँ । हम तो भरे बैठे ही थे, उबल पड़े- दो मिनट इंतज़ार नहीं कर सकता था या अन्दर जाकर ख़ुद चाय नहीं ला सकता था? तेरी भाभी के घुटनों में परसों से दर्द है । रसोई में आकर चाय ले जाने को कह दिया तो कौन सी आफ़त आगई ? कुछ कहने से पहले सोच तो लेता ।

और फिर क्षमा माँगने का यह कौन सा कूटनीतिक स्टाइल चुना है ? 'अगर कष्ट हुआ हो तो..... । क्षमा माँगने वाला अपनी भूल समझकर जब दुखी होता है तो स्वयं अपनी आत्मा की शान्ति के लिए प्रायश्चित स्वरुप क्षमा माँगता है । इसलिए क्षमा कभी अगर-मगर के साथ नहीं होती । क्षमा याचना आत्मविश्लेषण के बाद पश्चाताप-विगलित मन का गंगा-स्नान है तो धन्यवाद कृतज्ञ मन की पुण्य-प्रणति । वैसे यदि कोई व्यक्ति अभिमानी है तो उसकी क्षमा तभी पूर्ण होती है जब वह अपने अभिमान को व्यक्त और अव्यक्त रूप से मार नहीं देता ।

इसके लिए अंगद द्वारा रावण को सुझाये गए क्षमा के तरीके से समझा जा सकता है । अंगद कहता है-
दसन गहहु तृण कंठ कुठारी । परिजन सहित संग निज नारी ॥
सादर जनक सुता करि आगे । एहि विधि चलहु सकल भय त्यागे ॥

प्रणतपाल रघुवंस-मणि त्राहि-त्राहि अब मोहि ।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि ॥

अब आज के प्रसंग में रावण कौन है और राम कौन ? तू जाने ।

राजनीति के 'बांकों" की बातें अलग है । ये न तो लड़ते हैं, न मरते हैं, न मारते हैं । केवल नाटकबाजी करते हैं । आज स्वार्थ के लिए टुच्ची बातें करके कल क्षमा माँग कर फिर दूध के धुले बन जाते हैं । तुझे कुछ बोलना ही नहीं चाहिए था । अपनों को स्पष्टीकरण की ज़रूरत नहीं होती और दूसरे स्पष्टीकरण पर विश्वास नहीं करते । सो चुप ही रह । साइलेंस इज गोल्ड ।

तोताराम चाय लेने अपनी भाभी के पास चला गया । लौटा तो हाथों में चाय के दो गिलास और आँखों में वही सहज चमक । हम दोनों का कल्मष धुल चुका था ।

१९-६-२००९

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Jul 11, 2009

तोताराम के तर्क - कहो जी तुम क्या क्या खरीदोगे!

यदि 'बढ़े सो पावे' (नीलामी) वाली स्थिति होती तो हमें न तो मानव देह मिलती और न ही इस भारत भूमि में जन्म जिसमें जन्म लेने के लिए देवता तरसते रहते हैं । यह तो भगवान की फ्री गिफ्ट है जो जीव को मानव पुराने वस्त्र की तरह शरीर त्यागते ही तत्काल पुनः प्राप्त हो जाती है । शरीर भी फ्री मिला और उसके साथ दूसरे स्पेयर पार्ट्स भी फ्री में ही मिले जैसे आँख, नाक, कान, दाँत, कमर, पेट आदि ।

कमर - जिसे मुहल्ले के दादा से लेकर वित्त मंत्री तक कोई भी तोड़ सकता है, पेट - जो कभी भरता ही नहीं , आँखें - जिन्हें ज्योति कलश छलकते रहने के बावजूद अँधेरा ही अँधेरा दिखता है । दांत भी फ्री ही मिले मगर एक ही सेट । शक्तिशाली लोगों की तरह दो सेट नहीं- एक खाने का और एक दिखाने का । एक ही सेट को दिखाते रहे और उसी से लोहे के चने भी चबाते रहे । कभी-कभी नाक से भी चने चबाने पड़े । पर आज हालत ख़राब थी । दाहिने तरफ़ की ऊपर-नीचे की दोनों दाढ़ों में भयंकर दर्द । सवेरे-सवेरे बैठे कनपटी पर सेक कर रहे थे कि तोताराम आ गया ।

हमारी मुद्रा देख कर बोला- क्या अडवाणी जी तरह मुँह फुला कर बैठा है । न सही असली प्रधान मंत्री , हमारे छाया मंत्री मंडल का प्रधान मंत्री तो है ही तू । आज हमें उसकी चुहल में कोई रूचि नहीं थी । हमने धीरे से कहा- तोताराम, दाढ़ में भयंकर दर्द है ।

तत्काल तोताराम ने हमारा हाथ पकड़कर उठाया, बोला- बस इतनी सी बात? चल अभी चलकर निकलवा आते हैं । हमने कहा- तोताराम, आजकल कर्नाटक, तमिलनाडु और न जाने कहाँ-कहाँ मेडिकल की सीटें नीलाम हो रही हैं । क्या पता ऐसे ही पैसे देकर बना हुआ कोई नकली डाक्टर पल्ले पड़ गया तो दाढ़ की जगह प्राण ही निकाल लेगा । मृत्यु अटल सत्य है । कब तक बचेंगे उससे । पर पैसे खर्च करके असमय मरने की बजाय अच्छा है कि घर में बैठे-बैठे शांतिपूर्वक निशुल्क ही मृत्यु को प्राप्त हों ।

तोताराम ने हमें कई सन्दर्भ दिए, बोला- खरीद, फरोख्त और नीलामी हर युग में होती रही हैं । सतयुग में सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र ने अपने पत्नी-बच्चों को बेच दिया और ख़ुद नीलम हो गया पर उस सतयुग में भी किसी ने 'बिना गिव एंड टेक' के ज़रा सी भी मदद नहीं की । राहुल गाँधी की तरह निःस्वार्थ भाव से कलावती का कष्ट दूर करने वाला कोई भी नहीं मिला । नरसिंह राव के ज़माने में लोकतंत्र को बचाने के लिए झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सांसदों ने स्वयं को एक-एक करोड़ में नीलाम कर दिया । मारग्रेट अल्वा अपने बेटे के लिए चुनावों में पार्टी का टिकट नहीं खरीद पाई तो बेटे को देश सेवा का अवसर नहीं मिल सका । अब बेचारा घर में बैठा बोर हो रहा होगा । क्रिकेट की मंडी में खिलाड़ी नीलाम होते हैं ।

अगर एकलव्य के पास बोरी भरकर नोट होते तो द्रोणाचार्य की क्या मजाल थी कि एडमीशन से मना कर देता । अरे द्रोणाचार्य क्या, स्वयं धृतराष्ट्र उसे मनेजमेंट कोटे से प्रवेश दे देते । कर्ण अगर किसी मंत्री का पुत्र होता तो परशुराम उसे डिग्री दिए बिना ही भगा सकते थे ? लन्दन में एक लड़की ने इंटरनेट पर अपना कौमार्य नीलाम कर दिया । अमरीका में एक लड़की ने कालेज की फीस चुकाने के लिए इंटरनेट पर अपनी देह नीलाम कर दी । प्रसिद्ध ब्रिटिश माडल केट विंसलेट ने एक अस्पताल के लिए फंड जुटाने के लिए अपना 'किस' नीलाम कर दिया । अगर कांग्रेस को दस बीस सीटें कम मिलती और भा.ज.पा. को बीस-तीस ज़्यादा सीटें मिल जातीं तो संसद के सामने 'घोड़ा मंडी' का नज़ारा देखने को मिलता ।

तोताराम हमारे दर्द की चिंता किए बिना चालू रहा । हम सोच रहे थे कि इसके भाषण से होने वाले कष्ट से अच्छा तो दाढ़ का दर्द ही था । तोताराम ने आगे कहा- तू चिंता मत कर । ये घूस देकर एडमीशन लेने वाले इलाज नहीं करते । ये सब पैसे वालों के सपूत हैं । मेडिकल कालेज खोलेंगे । इलाज तो ठीक तरह से पढ़े हुए डाक्टर ही करेंगे । वोट और नोट की राजनीति करने वाले नेता भी भले इन से रिश्ता रखें पर इलाज तो ये भी वास्तविक डाक्टरों से ही करवाते हैं ।

हम भगवान का नाम लेकर तोताराम के साथ चल दिए ।

५-६-२००९

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Jul 10, 2009

तोताराम के तर्क - मास्टर की


गाँव के बीच में बरगद का एक पेड़ था जिसके नीचे गर्मियों में बैठे गाँव के बुज़ुर्ग दुनिया जहान की बातें किया करते थे । पालतू पशु भी दोपहर में इसी के नीचे बैठे सुस्ताया करते थे । पास के कुँए से लोग पानी भरा करते थे । वहीं दो चार घड़े रखे रहते-सार्वजनिक प्याऊ के रूप में । कुएँ की खेळ में जानवर पानी पी लिया करते ।

समय बदला । कुएँ बेकार हो गए । अगर कभी नल में पानी आता तो जितना लोग भरते उतना ही टोंटी न होने के कारण रास्ते में फैल कर कीचड़ फैलाता जिसमें मक्खी मच्छर संरक्षण पाते । पशु गलियों में धक्के खाने लगे । कुए की खेळ में कचरा और पोलीथिन भर गए । कुएँ के चबूतरे पर आवारा लोगों की चंडाल चौकडी दारू के पाउच पीने लगी । बरगद पर राजनीति के प्रेत लटक गए ।

शाम को तोताराम इसी रास्ते से स्कूल से घर लौटते थे । जब भी धुंधलके में इधर से गुजरते तो आवाज़ आती-मास्टर की चाहिए । तोताराम परेशान । किससे पूछे, किसको बताये । मन ही मन चिंतित । रात को अच्छी तरह नींद नहीं आती । अब तो बरगद के पास से निकलते हुए डर लगाने लगा । वाक्य अधूरा । मास्टर की.... क्या ? सोचकर थक जाते । मास्टर की क्या चाहिए ? मास्टर की जान चाहिए, मास्टर की खोपड़ी चाहिए, मास्टर की नौकरी चाहिए । क्या चाहिए मास्टर की ?

एक दिन देश, समाज की सेवा करनेवाले एक महाप्राण से पूछा तो बोले -मास्टर जी, यह 'की' हिन्दी का कारक चिह्न नहीं है जिसके आगे की संज्ञा आप ढूँढ़ रहे हैं । यह 'की' अंग्रेज़ी संज्ञा है 'चाबी' वाली । बरगद से आवाज़ लगाने वाली वह पुण्यात्मा किसी चाबी के बारे में पूछ रही है । सो उसे चाबी देकर पीछा छुड़ाओ ।


मास्टर तोताराम घर आकर सोचने लगे । उनके पास न साइकल, न स्कूटर, न गोदरेज की अलमारी, न कार, न सूटकेस , न ट्रंक । कोई चाबी नहीं । दो ड्रेसें हैं जिनमें से एक अलगनी पर या खूँटी पर और दूसरी इस नश्वर शरीर पर । घर में मात्र दो पुराने ताले पड़े थे जंग लगे जिनकी कभी साल छः महीने में ज़रूरत पड़ती थी तो घर के मेन पर लटका जाते थे । सो एक दिन -एक छेदवाली और एक चपटी दोनों चाबियाँ चुपचाप तालों समेत बरगद के पेड़ के नीचे रख आए जिन्हें कबाड़ी उठा ले गया । आवाज़ का आना फिर भी चालू रहा । मास्टर तोताराम परेशान ।

अब उन्होंने समस्या सुलझाने के लिए किसी पत्रिका के मनो-विश्लेषक को पत्र लिखा । वह विशेषज्ञ थोड़ा जनरल नालेज भी रखता था । उसने उत्तर दिया - हमारे पास आपकी बीमारी का कोई इलाज नहीं है । हाँ, 'मास्टर की' एक ऐसी चाबी को कहते हैं जिससे सभी ताले खुल जाते हैं । मास्टर तोताराम फिर चिंतित । तोताराम के पास जो दो ताले और चाबी थे उनका यह हाल कि कभी-कभी वे ताले अपनी चाबी से ख़ुद तोताराम से भी नहीं खुलते थे । फिर उन चाबियों से किसी और के ताले खुलने का तो प्रश्न ही नहीं था ।

एक दिन मास्टर तोताराम को अचानक याद आया कि उन्होंने कभी एक फ़िल्म देखी थी जिसमें हीरो एक चाबी रखता था जिससे घुमा फिरा कर वह सारे ताले खोल लेता था । तोताराम को हँसी आगई । ऐसी चाबी तो अलादीन के चिराग से भी ज़्यादा बड़ी चीज होती है । कोई भी ताला खोल लो । पर किसी और का ताला खोलना तो चोरी है । तोताराम ने घबरा कर यह विचार छोड़ दिया ।

एक दिन गाँव में बड़ी चहल-पहल थी । चुनाव आगए थे । मंच बना बरगद के पेड़ के नीचे । नेता जी कह रहे थे- हमें 'मास्टर की' चाहिए । जब 'मास्टर की' हमारे पास होगी तो कोई भी पार्टी हमारे बिना सरकार नहीं बना सकेगी । हम चाहेंगें तो किसी भी सरकार को कभी भी गिरा सकेंगे । मास्टर को लगा वही बरगद के पेड़ वाला प्रेत प्रकट हो गया है । अब उसे विश्वास हो गया कि 'मास्टर की' उसके पास नहीं है । वह निश्चिंत हो गया । बरगद के पेड़ के पास से गुज़रने पर वह आवाज़ अब भी आती पर तोताराम को डर नहीं लगता । उसे लोकतंत्र के सार तत्व का पता चल गया था ।

एक दिन जब तोताराम स्कूल से घर लौट रहा था तो अचानक ठोकर लगी । ठोकर खाकर उठते समय उसे अपनी छेद वाली चाबी मिल गयी । पर अब समस्या यह थी कि ताला कोई उठा ले गया था । अब मास्टर बिना ताले की चाबी लेकर घूम रहा है । उसे तो ताला नहीं मिल रहा है पर लगता है लोकतंत्र के प्रेतों को जरूर 'मास्टर की' मिल गई है ।

अब उसे ख़ुद से ज़्यादा लोकतंत्र की चिंता सता रही है ।

१०-५-२००९

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Jul 9, 2009

तोताराम के तर्क - पासिंग द पार्सल


जैसे पीनेवालों को पीने का बहाना चाहिए वैसे ही जुआ खेलनेवालों और शर्त लगानेवालों के लिए भी बहानों की कमी नहीं है । बरसात होगी या नहीं, कौनसी टीम जीतेगी, इस मैच में कितने छक्के लगेंगे, सचिन की सेंचुरी बनेगी या नहीं आदि-आदि । ये तो बड़े मोटे सट्टे हैं । दो आदमी यदि हों तो वे कहीं भी सट्टा खेल सकते हैं और कुछ नहीं तो यही कि चलो जूती उछालते हैं । सीधी पड़े तो यह भाव और उलटी पड़े तो यह । लोग तो यहाँ तक सट्टा खेलते हैं कि यह जो मक्खी उड़ रही है, जब यह बैठेगी तो कहाँ बैठेगी या बिना कहीं बैठे ही चली जायेगी ? ऐसों पर कौन प्रतिबन्ध लगा सकता है । जहाँ मनुष्य के मन में उत्सुकता, अनिश्चितता, उतावली है, अनुमान है, विकल्प है वहाँ सब जगह सट्टे की संभावनाएँ बनती हैं ।

इसी तरह खेल भी मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है । जिनके खून में जोश है वे ताकतवाले खेल खेलते हैं । कुछ आलसी लोग ताश, चौपड़, चर-भर जैसे खेल खेलते हैं । कुछ लोग तो इतने खेल प्रेमी होते हैं कि अकेले ही दो खिलाड़ियों के पत्ते बाँट देते है और फिर ख़ुद ही बारी-बारी से रोल बदल-बदल कर खेलते रहते हैं ।

कल शाम जब घूम कर हम और तोताराम लौट रहे थे, रास्ते में एक मकान दिखाई दिया जिस पर लिखा था पार्टी कार्यालय । पार्टी का नाम कुछ धुंधला पड़ गया था इसलिए समझ में नहीं आया । मकान की खिड़की में से अन्दर नज़र गई तो देखा कि लोग एक गोल घेरे में बैठे हैं, सबके चहरे लटके हुए हैं । मातम का सा माहौल है । उनके पास एक डिब्बा है जिसे वे एक दूसरे को पकड़ा रहे हैं । संगीत बज रहा है । जैसे ही संगीत रुका तो डिब्बा नीचे गिर पड़ा । लोग एक दूसरे पर डिब्बा गिराने का दोष लगाने लगे । अंत में फाउल मानकर फिर खेल शुरू हुआ । संगीत बजने लगा । संगीत रुका । डिब्बा किसी के हाथ में नहीं । फिर नीचे गिर पड़ा । फिर फाउल । यही तमाशा चलता रहा ।

अंत में तोताराम से रहा नहीं गया और वह दरवाज़ा खोल कर अन्दर चला गया और ऊँची आवाज़ में कहने लगा - यह क्या तमाशा है ? खेलते हो तो ढंग से खेलो । जानबूझ कर पार्सल गिरा रहे हो । अरे, जिसके पास भी पार्सल रुकता है, खोलो और उसके अनुसार करो ।

पर किसी ने नहीं सुनी । बार बार पार्सल ही गिरता रहा । अंत में तोताराम को गुस्सा आगया । उसने लपक कर पार्सल ख़ुद ले लिया । सब लोगों ने राहत की साँस ली और भाग कर तोताराम को घेर लिया । जल्दी से पार्सल खोला तभी एक ठीकरा तोताराम के सिर पर आकर गिरा । सिर पर बड़ा सा गूमड़ उभर आया ।

पार्सल में लिखा था- जिसके पास भी यह पार्सल रुकेगा उसी के सिर पर हार का ठीकरा फोड़ा जाएगा ।

तोताराम फटे में टाँग फंसाने की अपनी आदत के कारण चोट खा बैठा ।

थोड़ा आगे चले होंगे कि फिर एक कार्यालय दिखाई दिया पर वहाँ मायूसी का माहौल नही था । सबके चेहरों पर जीत की खुशी चमक रही थी । तोताराम अपने गूमड़ को भूल कर फिर अन्दर झाँकने लगा पर हमने रोक लिया । कहा- न तो दरवाजे के अन्दर चलेंगे और न ही बीच में टाँग फँसायेंगे, दूर से ही समझने की कोशिश करेंगे । अन्दर झाँक कर देखा तो यहाँ भी वही पासिंग द पार्सल वाला खेल चल रहा था । उसी तरह लोग जान बूझकर पार्सल गिरा रहे थे ।

तभी अन्दर से एक पत्रकार टाइप आदमी निकला । हमने पूछा - भाई साहब , क्या यहाँ भी हार के कारणों का ठीकरा फोड़ने का चक्कर है ? उसने कहा- नहीं, यहाँ तो ये लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जीत तो गए पर जीते किस कारण से ?

१५-६-२००९

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Jul 8, 2009

तोताराम के तर्क - फिर बसंती की इज्ज़त का सवाल


८ मई २००९ की दोपहर, भयंकर गरमी, लू चल रही है, पारा पैंतालीस के पार, कूलर भी प्रभावहीन, तिस पर बुढ़ापा । बुढ़ापे में न सर्दी सहन हो न गरमी । अपनी जान लिए पड़े थे कि तोताराम ने दरवाजा भड़भड़ाया- 'मास्टर ज़ल्दी से उठ, वोट डालने चलना है । बसंती की इज्ज़त का सवाल है । सुन नहीं रहा, दाँता रामगढ़ (जिला सीकर) से उठी गुहार अब तक वातावरण में गूँज रही है ।'

सबसे पहले 'शोले' में रामगढ़ में गब्बर सिंह के हाथों बसंती की इज्ज़त खतरे में पड़ी थी पर तब मौके पर 'बीरू' पहुँच गए थे । सो इज्ज़त बच गई और बात आई-गई भी हो गई थी । तब मीडिया भी इतना सक्रिय नही था ।

अब समय बदल गया है । अब जब गत दिसम्बर में डीग-भरतपुर में दूसरी बार बसंती की इज्ज़त खतरे में पड़ी तो दूसरे ही दिन अख़बार में चीत्कार सुनाई पड़ गई ।

तोताराम हमारे साथ बैठा चाय पी रहा था । जैसे विष्णु भगवान ग्राह-ग्रसित गजराज की करुण पुकार सुन कर नंगे पाँव दौड़ पड़े थे वैसे ही तोताराम ने चाय बीच में ही छोड़ दी । कुर्ते-पायजामें में ही डिपो की तरफ़ दौड़ पडा और डीग की बस में बैठ गया । वहाँ जाकर ठण्ड खा गया सो अब तक खाँस रहा है ।

वहाँ बसंती की इज्ज़त बचने के चक्कर में बोगस वोट डालते पकड़ा गया । अधिकारी ने उसकी उम्र और स्वास्थ्य को देखते हुए डाँट कर भगा दिया वरना कैद भी हो सकती थी । जैसे अनुशासनहीनता के लिए किसी को पार्टी से छः साल के लिए निकाल दिया जाता है वैसे ही तोताराम को छः साल के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया गया । यह बात और है कि ज़रूरत पड़ने पर अगले दिन ही ऐसे अनुशासनहीन सिपाही की घर वापसी भी हो सकती है ।

हम तो घुटने के दर्द का बहाना बना कर डीग जाना टाल गए । डीग में बसंती की इज्ज़त बच गई मतलब कि दिगंबर सिंह जीत गए । वैसे जो दिगंबर हो जाए उसे कौन बेइज़्ज़त कर सकता है ? और ऊपर से सिंह, किसकी हिम्मत हो सकती है ।

हमने कहा -'तोताराम, अगर चालीस साल पहले यह पुकार आती तो साहस किया जा सकता था । अब तो यह काम नए-नए मतदाता बने युवा को किसी कैटरीना कैफ के लिए करने दे । अब तो बसंती की भी षष्ठी-पूर्ति हो चुकी है और अपन भी वरिष्ठ नागरिक बन चुके हैं ।'

पर तोताराम ने बचने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा। ऑटो लेकर आया था । हमें ऑटो में धकेल कर मतदान केन्द्र की तरफ़ चल पडा । जैसी कि संभावना थी, हमें लू लग गई । सो नीम्बू पानी पी रहे हैं और सिर पर भीगा गमछा लपेटे पड़े हैं । बैचैनी में पता नहीं कौनसा बटन दब गया । अब आगे बसंती जाने और उसकी इज्ज़त ।


हमने कहा - 'तोताराम, आगे से किसी 'बसंती की इज्ज़त', 'किसी चूनड़ी की लाज', या किसी 'पसीने के क़र्ज़' के नाम पर हमें ब्लेकमेल मत करना । सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं । काम निकलने के बाद कोई हाल-चाल पूछने भी नहीं आता । घोड़ा खाए घोड़े के धणी को । ढेरी में सारे बैंगन काने हैं । उलटा-पुलटी करने से कोई फायदा नहीं । और इज्ज़त बार-बार राजस्थान में ही क्यों खतरे में पड़ती है ? यदि राजस्थान में इतना ही खतरा है तो इतना बड़ा देश पड़ा है कहीं और लगायें मज़मा । ऐसे लोकतंत्र के लिए शहीद होने से तो अच्छा है किसी ट्रक के नीचे आ जाएँ । कम से कम कलेक्टर दस हज़ार का पैकेज तो तत्काल घोषित कर देगा । यहाँ न कोई जनकनन्दिनी है और न अपन जटायु । पहले भी कई बीरू राजस्थान में आकर, टंकी पर चढ़ कर उल्लू बना कर चले गए ।'

तोताराम ने कान पकड़ कर तौबा की । तब तक पत्नी शिकंजी ले आई ।

९-५-२००९

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