Apr 19, 2018

सुरक्षा-व्यवस्था और रोजगार सृजन

सुरक्षा-व्यवस्था और रोजगार सृजन 


(राजनीति में मूर्तियाँ बनवाना और तोडना एक फैशन और मुद्दा दोनों है |इस सन्दर्भ में सभी सेवकों को शामिल करते हुए इस एक पुराने आलेख का आनंद लिया जा सकता है |) 

मायावती जी,
नमस्कार । हम तो आपके प्रशंसक हैं ही और अब जब आपने मूर्तियों की सुरक्षा व्यवस्था के लिए सुरक्षा बल गठित करने की घोषणा की तो हम तो आपके भक्त ही हो गए । पर हम अंधभक्त नहीं हैं । हम तो आराध्य के गुण दोषों को परख कर फ़ैसला करते हैं । देखा-देखी जय बोलने वाले हम नहीं हैं ।

यूँ तो गणतंत्र दिवस पर तथाकथित जनकल्याणकारी योजनाओं की घोषणाएँ करने की परंपरा है पर हम इन घोषणाओं की पोल जानते हैं । पर २६ जनवरी २०१० को आपने अपनी, कांसीराम जी और अम्बेडकर जी की मूर्तियों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा बल गठित करने की जो घोषणा की है वह एकदम अनोखी, धाँसू और छाती पर चढ़कर बोलने वाली है । सिर पर चढ़ कर बोला हुआ क्या पता ऊपर ही ऊपर निकल जाये पर छाती पर चढ़ कर बोला गया तो सुनना ही पड़ता है । जब आप मूर्तियाँ लगवा रही थीं तो लोग कितनी तरह की बातें कर रहे थे- देश के धन का अपव्यय है, मायावती अपने प्रचार के लिए जनता का पैसा फूँक रही है । अब उन्हें समझ में आ गया होगा कि यह प्रदेश के पिछड़ों को रोज़गार देने का एक कल्याणकारी कार्यक्रम था । ये हावर्ड से पढ़कर आये लोग क्या समझें । ये देशी नुस्खे हैं- सस्ते, सुन्दर और टिकाऊ । पर हम तो जानते थे कि आप प्रचार पाने के ऐसे फालतू तरीकों में जनता का पैसा खर्च नहीं कर सकती । अब देखिये ना, हो गई सबकी बोलती बंद ।

इस तरीके से हम बिना प्रदूषण फैलाए ही अपने देश के सभी लोगों को ही नहीं, दुनिया के सभी बेरोजगारों को रोज़गार दे सकते हैं । भारत में नए-पुराने करके कोई एक सौ नेता और नेतनियाँ तो ऐसे होंगे ही जिनकी पूजा करके इस देश की जनता प्रेरणा, गौरव और शांति प्राप्त कर सके । और बारह सौ लोगों के बीच कम से कम एक मूर्ति तो चाहिए ही । और एक सौ प्रकार की महान विभूतियों की एक-एक मूर्ति तो लगेगी ही । इस प्रकार हमें अपने देश में ही सवा करोड़ मूर्तियाँ चाहियें । इसके बाद जैसे-जैसे और लोग महान होते जायेंगे वैसे-वैसे आवश्यकता भी बढ़ती जायेगी । इस प्रकार यह मूर्ति बनाने का, लगवाने का, उनकी रक्षा का, साफ़-सफ़ाई का, पूजा का काम इतना बड़ा है कि कल्पना करके ही चक्कर आने लग जाते हैं जैसे कि भगवान का विराट रूप देखकर अर्जुन को आने लगे थे ।

हमें लगता है कि इस योजना से सारे संसार के लोगों को काम मिल जायेगा । इसके बाद भी लोग कम पड़ जायेंगे । तब तो लोगों को ज्यादा से ज्यादा जनसंख्या बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देना पड़ेगा । हमें लगता है कि तब भी आपूर्ति नहीं हो पाएगी । तब हो सकता है हमें मानव संसाधन के लिए अन्य ग्रहों में खोज करनी पड़े ।

अभी देश में जितनी मूर्तियाँ, पूजास्थल हैं वे कम पड़ रहे हैं । देश की जनसंख्या के हिसाब से इनकी संख्या नहीं बढ़ रही है । इसीलिए समाज में अशांति और तनाव है । यह तो आजकल डाक्टर भी मानने लगे हैं कि पूजा और भक्ति से मानसिक तनाव दूर होता है । पर आज तक किसी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया । आपने ध्यान तो दिया पर आपके पास इतने साधन भी तो नहीं हैं । इसके लिए वर्ल्ड बैंक से कर्जा लिया जाना चाहिए ।

कुछ लोग कहते हैं कि भगवान तो हमारे मन में है । उसकी मूर्तियाँ बनाने से क्या फायदा । ब्रह्म तो निर्गुण है, निराकार है, अनाम है, अरूप है । हिंदू लोग तो काफ़िर हैं । मूर्ति पूजते हैं । इनसे कोई पूछने वाला हो अरे भाई, तो फिर तुम क्यों काबा, हरमिंदर साहब, गया, चर्च, येरुसलम जाते हो । क्यों चर्चों, मस्जिदों, मंदिरों, पुस्तकों पर हमले से उबल पड़ते हो । यह सब मूर्ति पूजा नहीं तो और क्या है । मूर्ति की शक्लें अलग-अलग हो सकती हैं । वहाँ जाकर धंधा तो सब वही करते हैं । वह निर्गुण क्या बिना जीव और जगत के तुम्हारी समझ में आ जायेगा । अरे ब्रह्म के होने का पता तुम्हें किससे लगता है ? माया से ।

माया ही ब्रह्म का प्रकट रूप है । वह भी उतनी ही आराध्या है जितना कि ब्रह्म । कुछ लोग इस तथ्य को नहीं समझ पाते और कभी ब्रह्म और कभी माया की तरफ भागते हैं । और इस चक्कर में उन्हें कुछ भी नहीं मिलता । तभी कहा गया है ना- दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम । आपने जो मूर्तियाँ बनवाई हैं वे दोनों का समन्वय हैं- माया (वती) और (कांसी) राम ।

किसी भी देश में जनता को दो ही चीजें चाहियें- रोज़गार और सुरक्षा । और बाकी नाचने, गाने, लड़ने, झगड़ने, मरने, मारने, बीवी को पीटने और बच्चे पैदा करने के मामले में भारत की जनता स्वावलंबी है । इसके लिए उसे किसी विदेशी तकनीकी की ज़रूरत नहीं है । आज तक दुनिया के किसी देश ने अपनी जनता को रोज़गार देने के लिए इतनी बड़ी, सरल, पारदर्शी, और एक साथ ही आध्यात्मिक और भौतिक योजना नहीं बनाई ।

इस योजना से रोजगार मिलने की विपुल संभावनाएँ तो सिद्ध हो गईं । अब सुरक्षा की बात करें । प्राचीन काल में कहते हैं कि यह देश विकसित था, सोने की चिड़िया था । पर इसका कारण कोई नहीं जानता । इसका सीधा सा कारण था कि यहाँ दुनिया में सबसे ज्यादा मूर्तियाँ थीं । इस देश की उन्नति से जलने वाले लोग दूसरे देशों से आये और यहाँ की मूर्तियों को तोड़ डाला क्योंकि उस काल के अदूरदर्शी राजाओं ने मूर्तियों की सुरक्षा के लिए लोगों को कोई प्रशिक्षण नहीं दिया । जो अपनी मूर्तियों की रक्षा नहीं कर सकता वह देश गुलाम नहीं होगा तो और क्या होगा । इसलिए यह देश गरीब और गुलाम हो गया । अपनी रक्षा करने लायक भी नहीं रहा । किसी तरह गाँधी जी की पूजा करके आज़ाद हुआ । फिर तो देश में मूर्तियाँ लगाने का सिलसिला चालू हुआ तो अब देख लीजिए हम दुनिया की एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था बन गए हैं । चीन और पकिस्तान की छोटी-मोटी छेड़छाड़ के अलावा देश पर कोई हमला नहीं हुआ । जब इतनी मूर्तियाँ होंगी, उनकी सुरक्षा व्यवस्था होगी तो लोगों को सुरक्षा करने का अनुभव होता जाएगा तो वे देश की ही नहीं अपनी रक्षा भी अच्छी तरह से कर सकेंगे ।

काबुल में लोगों ने बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ तो बनवा लीं पर सुरक्षा की व्यवस्था नहीं की तो लोगों ने तोड़ ही डाली ना । इसलिए जितना मूर्तियाँ बनवाना ज़रूरी है उतना ही सुरक्षा व्यवस्था करना भी ज़रूरी है । मूर्तियों के बारे में हम आपको एक सलाह और देना चाहते हैं । आप अमरीका नहीं गईं । हम जाकर आये हैं । हमने वहाँ कई राष्ट्रपतियों की मूर्तियाँ पहाड़ों में उकेरी गईं देखी हैं जैसे कि काबुल में बुद्ध की मूर्तियाँ जिन्हें तालिबानों ने तोड़ दिया था ।

अमरीका में कोई राष्ट्रपति तीन-तीन बार राष्ट्रपति नहीं बना और जिन की मूर्तियाँ बनी हैं उनके समय अमरीका की जनसँख्या यू.पी. के बराबर भी नहीं थी । आप तीन-तीन बार यू.पी. की मुख्य मंत्री बनीं तो इस उपलब्धि के लिए क्या आपकी मूर्ति किसी पहाड़ पर नहीं उकेरी जा सकती ? पर क्या बताया जाये सारे पहाड़ तो उत्तरांचल में चले गए । बुंदेलखंड में कुछ पहाड़ बचे हैं तो आप बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की बात कह रही हैं । बुंदेलखंड बने उससे पहले किसी पहाड़ पर पहले अपनी मूर्ति तो उकेरवा लीजिए । वैसे समय का कुछ पता नहीं । ईराक में सद्दाम की मूर्तियों को तोड़ कर घसीटा गया । रूस में मार्क्स की मूर्तियाँ हटवा दी गईं । कुछ निराशावादी लोग कहते हैं-
बादे फ़ना फजूल है नामो निशाँ की फ़िक्र
जब हम नहीं रहे तो रहेगा मज़ार क्या ।
पर इतनी सी बात के लिए वर्तमान कर्तव्य को तो नहीं छोड़ा जा सकता न ।

इसलिए भले ही आपसे जलने वाले कुछ लोग इसका विरोध करें । पर हम पूरे मन से आपके साथ हैं । अगर ज़रूरत हो तो हम आपका मुक़दमा भी लड़ सकते हैं पर क्या बताएँ हमारे पास डिग्री नहीं है । फिर भी हम आपके पक्ष में लेख तो लिख ही सकते हैं । पर सारे अखबार और पत्रिका वाले तो मनुवादी हैं । आपके पक्ष में हमारा लिखा हुआ कौन छापेगा । पर हम छपने के लिए सत्य के साथ समझौता तो नहीं कर सकते ।

इस सन्दर्भ में हम आपको यह भी बताना चाहते हैं कि हमने कई महीनों पहले आपको एक पत्र लिखा था जिसमें हमने बताया था कि कैसे मूर्तियाँ लगवाने और उनकी रक्षा के लिए गार्ड नियुक्त करके किस प्रकार देश की बेरोज़गारी की समस्या हल की जा सकती है । पहले तो हम यही सोचते रहे कि पत्र आपके तक पहुँचा नहीं होगा इसीलिए तो कोई कार्यवाही नहीं हुई । और बेकार में ही डाक विभाग वालों को दोष देते रहे । हम उनके भी आभारी हैं कि उन्होंने पत्र पहुँचा दिया । और आपके भी कि आपने ऐसे अच्छे सुझाव को महत्व देकर उस पर ठोस कार्यवाही भी की ।

क्या इस उपलब्धि के प्रचार के लिए, बेरोजगार व असुरक्षित लोगों के कल्याण की योजनाओं पर समर्थन जुटाने के लिए एक अखबार नहीं निकाला जा सकता ? हमारी प्रतिभा का अनुमान तो आपको हमारे सुझावों से हो ही गया होगा । हमसे अधिक योग्य व्यक्ति ऐसे अखबार के लिए और कौन हो सकता है । हम इसके लिए अपनी संपादकीय सेवा देने के लिए तैयार हैं । संपादकों ने हमारी बहुत सी रचनाएं लौटाई है । हम उनसे तो बदला नहीं ले सकते पर यह कुंठा किसी और पर तो उतार ही सकते हैं ।

२-२-२०१०



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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Apr 17, 2018

हम सभी शर्मसार हैं



 हम सभी शर्मसार हैं 

आज तोताराम नहीं आया |थोड़ी देर बाद हमने ही उसके हिस्से की चाय, जो ठंडी हो चुकी थी, पी ली | 

नहाने और नाश्ता करने के बाद भी जब तोताराम के आने की कोई संभावना नज़र नहीं आई तो मन  किया, चलो आज अपन ही तोताराम की तरफ हो आते हैं |जैसे ही उसके घर के आगे पहुँचे तो उसका पोता बंटी बरामदे में ही बैठा मिल गया |हमने पूछा तो उसने तोताराम के कमरे की तरफ इशारा कर दिया | कमरा अन्दर से बंद था | दरवाजे पर सूचनार्थ एक कागज लटका था-

 डिस्टर्ब न करें, हम सभी शर्मसार हैं |

हमने बंटी से पूछा- बंटी, अन्दर कौन-कौन हैं ?

बोला- और कौन होगा ? दादाजी अकेले ही हैं |आज तो चाय भी नहीं पी है |बस, अखबार के मुखपृष्ठ पर एक नज़र डाली और अन्दर जा बैठे |बोले- डिस्टर्ब मत करना |

विचित्र लगा |जब अकेला ही है तो 'सभी' क्यों लिखा ? अब तो हमें तोताराम की शर्मसारी से अधिक चिंता भाषा की होने लगी जैसे कि नेता को समाज में किसी नृशंस अपराध को लेकर पीड़ित से संवेदना की बजाय वोट बैंक खिसकने की फ़िक्र ज्यादा होने लगती है |

 हलके से कमरे को खटखटाया | सिर झुकाए उदास तोताराम ने दरवाजा खोला |हमने पूछा- क्यों, किस बात को लेकर शर्मसार है ?

उसने बिना कुछ बोले ही कुर्सी की ओर इशारा किया |वहाँ एक सेवक का फोटो रखा था जिसके नीचे लिखा था- एक देश और समाज के तौर पर हम सभी शर्मसार हैं | नेता के फोटो से हमें कुछ समझ में नहीं आया | सच कहें तो पहचान भी नहीं पाए क्योंकि नेता कुछ ज्यादा ही शर्मसार हो गया लगा जो कि आजकल के नेताओं के सामान्य स्वभाव के विपरीत है |आजकल नेता प्रायः गंभीर कम और ठहाका लगाते अधिक नज़र आते हैं |लगता है देश में कोई लाफ्टर शो चल रहा है |गंभीर से गंभीर बात को भी हँसी-मजाक में उड़ा देने का बचकाना रवैया |लगता है नीचे से ऊपर तक कहीं कोई गम्भीरता बची ही नहीं है |

हमने कहा- तू शर्मसार क्यों है ? इसमें तेरा क्या कसूर है ? जो सत्ता में हैं, जो कानून व्यवस्था बनाने, अच्छे दिन लाने और सुशासन के नाम पर चुन कर आए हैं और इसी बिना पर दुनिया भर के टेक्स लगा-लगा कर लोगों का जीना हरम किए हुए हैं वे शर्मसार हों | 

बोला- लगता है घटना वास्तव में शर्मसार होने जैसी ही है |तभी तो नेता जी शर्मसार हो रहे हैं |और जब नेता जी हमारे साथ सहानुभूति और संवेदना रखते हैं तो  क्या आज उनके शर्मसार होने पर मुझे शर्मसार नहीं होना चाहिए ? व्यक्तिगत रूप से नहीं बल्कि अपने सेवाभावी नेताओं के समर्थन में शर्मसार हूँ | 

हमने कहा- लेकिन इनमें से उन्नाव वाली घटना तो पिछले साल जून की है और कठुवा वाली घटना इस साल जनवरी के महिने की है | तो तू इतने दिन तक शर्मसार होने के लिए किसका इंतज़ार कर रहा था ?

बोला- यह कोई सामान्य आदमी थोड़े ही तय कर सकता है कि कौन घटना शर्मसार होने लायक है और कौन चुप लगा जाने लायक है और कौन ट्विटर पर 'वन लाइनर' में निबटाने लायक है |यह तो बड़े लोग तय करते हैं |अब पता चला है कि घटना शर्मसारी के लायक है तो शर्मसार हो रहे हैं |सुगठित और सच्चे लोकतंत्र में विकास-विनाश, सुख-दुःख सबका साझा होता है |तभी तो कहा गया है- सबका साथ : सबका विकास | और हम तो वैसे भी 'वसुधैव कुटुम्बकम' के आदर्श वाले श्रेष्ठ समाज हैं | 

हमने कहा- हम भी तो यही कह रहे हैं कि आजकल की सूचना प्रौद्योगिकी के युग में एक शर्म को कठुआ और उन्नाव से चलकर दिल्ली पहुँचने में क्या आठ महिने लग जाते हैं ? 
बोला- अब सबको तो तीव्र यातायात की सुविधा नहीं मिलती ना | तभी तो देश में बुलेट ट्रेन और सिक्स लेन हाइवेज का जाल बिछाया जा रहा है कि शर्म या ख़ुशी जल्दी से जल्दी एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच सके |और शर्मसारी और उत्सव मनाने में देरी न हो |

हमने कहा- तोताराम, भले ही आज लोग राम के नाम की आड़ में रावण बन रहे हैं, रामलीला के धंधे को सीढ़ी बनाकर सिंहासन पर चढ़ रहे हैं, हर साल बुराई पर अच्छाई की जीत के नाम पर रावण का पुतला जला रहे हैं, अपने निजी स्वार्थ के लिए राम का नारा लगा रहे हों लेकिन हमें तो तुलनात्मक रूप से इन सेवकों की बजाय रावण अधिक श्रेष्ठ लगता है |और राम ? याद कर | जब ऋषियों ने उन्हें  राक्षसों द्वारा मारे गए ऋषियों की हड्डियों के ढेर दिखाए तो वे शर्मसार नहीं हुए |

अस्थि समूह देखि मुनिराया |
पूछी मुनिन्ह लागि करि दाया ||
जानतहूँ पूछिअ कत स्वामी |
सबदरसी तुम्ह अंतरयामी ||
निसिचर निकर सकल मुनि खाए |
सुनि रघुवीर नयन जल छाए ||

निसिचर हीन करऊँ महि भुज उठाय पन कीन्ह |
सकल मुनिन्ह क आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ||

उसके बाद राम ने क्या किया यह विश्वविदित है |

यदि इस शर्मसारी का फलागम राम जैसे कर्म में नहीं निकलता है तो ऐसों की रामभक्ति और शर्मसारी एक घटिया नाटक से अधिक कुछ नहीं है |जो समाज के इस अधःपतन पर भी राजनीति की रोटियाँ सेंक रहे हैं या सकेंगे और उसी गणित के हिसाब से मुँह खोल रहे हैं या खोलेंगे या बंद रख रहे हैं या मुँह बंद रखेंगे वे सभी इस पातक में शामिल होंगे और समय उनका हिसाब लेगा |और यदि आप राजनीति के मुद्दे वाले राम को नहीं बल्कि घट-घट वासी राम को मानते हैं तो वे भुज उठाकर प्रतिज्ञा कर चुके हैं |







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Apr 9, 2018

तोताराम की शोभायात्रा

 तोताराम की शोभायात्रा 

अखबार में अक्सर तरह-तरह के विज्ञापनी पर्चे निकलते हैं |हालाँकि धंधे के अनुसार पर्चों की साइज़, आकार, छपाई और कागज कि किस्म आदि बदलते रहते हैं |ज्यादा बड़े धंधे वाले किसी अखबार का पहला पेज ही खरीद लेते हैं |उस स्थिति में बड़ी मुश्किल से पता चलता है कि  वास्तव में यह वही अखबार है जो हम हमेशा मँगवाते हैं या किसी संस्थान का विज्ञापनी मिसाइल |

छोटे पर्चे प्रायः किसी डिफेक्टिव कपड़ों-साड़ियों का निर्यात ऑर्डर निरस्त हो जाने से मजबूरी में लगाई जा रही सेल में के बारे में होते हैं जिनमें १००० रु. का माल १०० रु. में खरीद सकने के मौके का लाभ उठा सकने की खुशखबरी होती है |या फिर किसी लाल-पीली किताब या किसी देवी के भक्त द्वारा सौतन,प्रेम में धोखे, वशीकरण आदि से संबंधित किसी सभी समस्या के १० घंटे में,१०१ रुपए में शर्तिया चामत्कारिक समाधान की सूचना होती है |

आज एक छोटे से गुलाबी रंग के पर्चे पर बरबस हमारी निगाह ठहर गई |लिखा था- टी.
राम द्वारा आयोजित हनुमान शोभा यात्रा में भाग लेकर पुण्य-लाभ प्राप्त करें |इस सूचना में निवेदक के नाम 'टी.राम' ने भी हमें आकर्षित किया |लगा कोई दक्षिण भारतीय भक्त तो नहीं आ टपका | हालाँकि हनुमान दक्षिण में हुए लेकिन दक्षिण के बालाजी (विष्णु) प्रसिद्ध हैं |हनुमान तो उत्तर भारत के सर्वसुलभ देवता हैं |

हमारे यहाँ हनुमान जी को बालाजी भी कहते हैं |इसका कारण शायद यह हो कि हमारे यहाँ के भक्त हनुमान के उस बाल रूप को विशेष पसंद करते हों जिसमें उन्होंने उगते हुए सूर्य को निगल लिया था |इसीलिए वे उस बाल रूप को  'बालाजी' कहते हों |ऐसा ही कुछ बच्चन सरनेम के इतिहास में ध्वनित होता है |हो सकता है उस परिवार ने अपने किसी छोटे बच्चे को प्यार से बच्चन कहना शुरू कर दिया जो अब एक प्रसिद्ध सरनेम बन गया |बालरूप वाले हनुमान जी (बालाजी )  हमारे यहाँ विशेष प्रसिद्ध हैं |मीडिया के कारण लोगों ने तिरुपति के बालाजी का नाम भी सुन लिया लेकिन वे उसे अपने प्रिय बाल-रूप हनुमान जी (बालाजी) से आगे विष्णु जी तक नहीं ले जा सके |और कई लोगों ने तिरुपति बालाजी के नाम से हनुमान जी के मंदिर भी बना लिए है |जहाँ बिजली विभाग वालों के 'करंट के बालाजी' और अग्नि शमन विभाग के 'दमकल वाले बालाजी' हो सकते हैं तो तिरुपति नाम तो बालाजी के अतिरिक्त और भी कई कारज सिद्ध कर सकते हैं |

जिस मार्ग के यात्रा गुजरनी थी उसमें हमारी गली का भी नाम है | हमारी गली इस बारे में बहुत रणनीतिक बिंदु पर है जैसे मध्य-पूर्व के कई छोटे-छोटे देश |क्योंकि जयपुर रोड़ यहाँ से कोई दो-सौ मीटर की दूरी पर ही है |सालासर, जीणमाता और खाटू वाले श्याम जी जाने वालों की कई प्रकार की  यात्राएँ धरती हिलाती, ध्वजाएँ फहराती और फुल वोल्यूम पर डी.जे. की आवाज़ से आसमान थर्राती हुईं यहीं से गुजरती हैं |इन्हें रोकना या धर्मप्राण लोगों को अपना डी.जे. धीमे स्वर में करने के लिए कह सकने का साहस हम में नहीं है |इस मजबूरी में हमें न चाहते हुए भी पुण्य-लाभ हो जाता है |

कम या ज्यादा धूमधाम से यात्राएँ हमेशा ही निकलती रही हैं |आजकल यात्राएँ कुछ ज्यादा ही धूमधाम से निकलने लगी हैं |अब तो इन यात्राओं में हथियारों का प्रदर्शन भी होने लगा है |लगता है किसी दंगाग्रस्त क्षेत्र में सेना का फ्लेग मार्च हो रहा हो या कोई सेना अपने प्राणों को हथेली पर रखे किसी बहुत बड़े शत्रु से अंतिम युद्ध लड़ने जा रही हो |उनका तो पता नहीं लेकिन दर्शकों के प्राण ज़रूर हलक में आ अटकते हैं |पता नहीं, कब शौर्य का विस्फोट हो जाए और सामान्य जन लपेट में आ जाएँ |यात्राएँ गुजरने पर लगता है कोई भीषण तूफ़ान कोई बड़ा नुकसान किए बगैर गुज़र गया हो |

हनुमान जी हमारे प्रिय देवता हैं |इसलिए कि वे शांत चित्त से भगवान राम के चरणों में भक्ति भाव से सिर झुकाए बैठे रहते हैं |लगता है वे अपने आराध्य की आज्ञा का इंतज़ार कर रहे हैं |आज्ञा हो और वे अपनी गदा उठाकर चल पड़ें- वायुवेग से |कहीं भी गदा का आतंक नहीं |संजीविनी बूटी लाते हुए भी गदा का कहीं भद्दा प्रदर्शन नहीं |एक आवश्यक वस्तु की तरह अपने साथ |

पर्चे में दिया गया समय हो गया लेकिन कहीं डी.जे. के आतंक की भनक तक नहीं |ऐसे में हमें जुलूस के शालीन होने का विश्वास हो गया तो हम दरवाजे पर जा खड़े हुए |तभी देखा उत्तर दिशा से तीन लोगों का एक मरियल-सा जुलूस, मद्धम आवाज़ में- 'हनुमान जी की जय' बोलता हुआ गली के किनारे पर दिखाई दिया |पास आने पर देखा, न कोई हथियार, न कोई एक दो किलोमीटर की ध्वजा या लंगोट, न कोई छोटी-बड़ी गदा, न डी.जे. |हमें लगा जैसे किसीने हमारी धार्मिक भावना, आस्था और श्रद्धा का मज़ाक उड़ाया हो | 

पास आने पर देखा, तोताराम इस यात्रा का नेतृत्त्व कर रहा है | 

हमने कहा- यह क्या तोताराम |महावीर के नाम को लजा दिया तूने |महावीर का जुलूस और इतना शांत और छोटा ? न गदा, न असुरों की छाती को दहला देने वाले नारे और गर्जना |

बोला- भाईजान, हनुमान वीरता, भक्ति, शांति और अनुशासन के देवता हैं |वे किसी टुच्चे और अहंकारी की तरह अपने हथियारों और बल का प्रदर्शन नहीं करते |कहते हैं, उन्हें तो अपना बल तक याद नहीं रहता |जब कोई संकट आता तब लोग उन्हें पाना बल याद दिलाते हैं | और वे भक्तों का भय-भंजन करने के लिए हुंकार भरकर उठ खड़े होते हैं | अब देश पर कौनसा संकट आ रहा है या धर्म की हानि का भय है जो धर्म के नाम पर आतंक फ़ैलाने के लिए बल-प्रदर्शन करें |अब तो देश के विकास के लिए अनुशासन और शांति से कर्म करने का समय है |मेरी यह हनुमान-यात्रा शुद्ध भक्ति से प्रेरित है |बस, जयपुर रोड़ वाले हनुमान को नारियल का प्रसाद चढ़ाकर लौट आएँगे |मुझे कौनसा चुनाव जीतने के लिए लंगोट घुमाना है | 

हमने कहा- ठीक है तोताराम, लेकिन यह भी सच है कि त्रिशूल के बिना शिव, सुदर्शन चक्र के बिना विष्णु, गदा के बिना हनुमान कुछ जँचते नहीं |कई बार तो पता भी नहीं चलता कि यह कोई सामान्य भिखमंगा या बन्दर है या वास्तव में हमारा आराध्य |

बोला- ये तो दुष्ट-दलन के उनके विग्रह हैं |लेकिन वास्तव में देवता तो सुख-शांति के लिए होते हैं |हथियार तो किसी संकट विशेष के निवारण के लिए होते हैं |आज जब देश में सुख शांति है तो देवताओं के भाव की आराधना होनी चाहिए न कि उनके बहाने अपने हथियारों और विनाशक रूप का आंतक फ़ैलाने की | द्रौपदी की लाज बचाने वाले, गज के उद्धार के लिए नंगे पाँव दौड़ पड़ने वाले, शबरी के बेर खाने वाले विग्रह क्या किसी हथियारबंद युद्धोत्सुक भगवान के हैं |हनुमान का क्या हर समय गदा ही भाँजते रहते हैं ? 
उनके परम भक्त तुलसी कहते हैं-
राम रसायन तुम्हरे पासा |
सदा रहो रघुपति के दासा |

हमने कहा- तो फिर बंगाल में यह क्या हो रहा है ? वहाँ उत्पात मचाने के लिए हनुमान जी को कौन ले गया ? वहाँ तो दुर्गा पूजा का उत्सव सभी भाषाभाषी प्रेम से मनाते रहे हैं |जब समस्त देवों पर संकट आया था और कोई रास्ता नहीं बचा था तो सबके सम्मिलित तपबल से दुर्गा का आविर्भाव हुआ |अब बंगाल पर कौनसा संकट आगया जो दुर्गा के वश का नहीं रहा |हनुमान की  क्या ज़रूरत आ पड़ी ?और फिर हनुमना तो कहीं भी न व्यर्थ हुंकार और गर्जना करते हैं और न ही गुस्सा |लंकाकांड में देखा नहीं,रावण को कितनी शालीनता से समझाते हैं |और फिर आज तो देश में लोकतंत्र है फिर क्या संवाद का कोई रास्ता ही नहीं बचा था जो हनुमान जी को वहाँ गदा भाँजने के लिए भेज दिया |


बोला- मुझे तो लगता है बंगाल में हनुमान जी गए ही नहीं |हो सकता है शाखाओं से उतरकर कुछ फितरती बन्दर वहाँ पहुँच गए हैं |

हमने कहा- हो सकता है यह काम कुछ फितरती बंदरों का हो लेकिन नाम तो राम का बदनाम हो रहा है |

बोला- स्वार्थी को राम की नहीं, अपनी स्वार्थ सिद्धि की फ़िक्र होती है |चिलम पीने वाले चालाक लोग अपने नशे को शिव-भक्ति के एक कर्मकांड में शामिल कर लेते हैं |


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