Mar 25, 2012

पूनम पांडे का ट्वीट - बुरा न मानो कोहली है

पूनम पांडे
क्या संबोधन दें, समझ में नहीं आ रहा है । वैसे यदि तुम आज से दस बरस पहले किसी केन्द्रीय विद्यालय में ग्यारहवीं या बारहवीं कक्षा में पढ़ रही होती तो हम तुम्हें हिंदी पढ़ा रहे होते मगर तुम्हारी तो पाठशाला ही दूसरी है । तुम कबीर-स्कूल की नहीं बल्कि बिपाशा बसु की छात्रा हो जहाँ वे प्रेम की भाषा सिखाती हैं । उनके पास भी प्रेम के एक ही पेपर की डिग्री है । प्रेम के दो भाग होते हैं एक तन और दूसरा मन । सामान्यतया प्रेम तन से होकर मन तक जाता है । मन के बिना तन का प्रेम अधिक दिन तक टिकता नहीं । तुमने अपनी अन्तः प्रेरणा से ही स्वयंपाठी विधार्थी के रूप में इस छोटी सी उम्र में ही तन के प्रेम की एम.ए. और डी.लिट. कर ली है । और हालत यह है कि तुम्हारी प्रेम पाठशाला अर्थात ट्विटर पर एक लाख से भी अधिक विद्यार्थी दूरस्थ और सचित्र शिक्षा ग्रहण करने आ चुके हैं । और हमारे ब्लॉग पर हाल यह है कि बामुश्किल तीन साल में कोई अठारह हजार लोगों ने ही क्लिक किया है ।


तुमने अपने कर्त्तव्य में बहुत पारदर्शिता का परिचय दिया है । मगर हर चीज की अति बुरी होती है सो टीम इण्डिया के विश्व कप जीतने पर तुम्हारे पारदर्शी उपहार की चर्चा मात्र से ही टीम इण्डिया इतनी चकाचौंध हो गई कि अब तक हालत पतली चल रही है । जैसे बुद्ध को दान में देने के लिए जब एक बुढ़िया के पास कुछ नहीं था तो उसने अपना अधखाया अनार ही उन्हें भेंट में दे दिया । लोग समझते हैं कि तुम्हारे पास देह दिखाने के अलावा और कुछ नहीं है सो बार-बार उसी का प्रदर्शन कर रही हो । हम भी यही समझते थे । वैसे हम तुम्हारे बारे में अधिक नहीं जानते मगर क्या करें नेट पर नवभारत पढ़ते हैं और वे लोग सबसे पहले तुम्हारा ही फोटो सचित्र दिखाते हैं सो बिना कोशिश किए ही तुम्हारा परिचय मिल जाता है । अधिकतर लोग तुम्हें देह प्रदर्शन के लिए ही जानते हैं मगर तुम्हारे दो-तीन ट्वीट पढ़ कर हमें लगा कि तुममें भाषा की अच्छी समझ है जैसे कि तुमने कर्नाटक के पोर्न गेट पर जो कमेंट्री दी कि 'पार्टी ने कहा इलेक्शन के लिए तैयार रहो और माननीय सदस्य समझ बैठे कि इरेक्शन के लिए तैयार रहो' । क्या पकड़ है भाषा की ? और अब १८ मार्च २०१२ को क्रिकेट में पाकिस्तान की हार में कोहली के योगदान पर अपने ट्विटर में लिखा 'बुरा न मानो कोहली है' । क्या महीन और ज़हीन व्यंग्य है ? भाषा की अपनी इस विदग्धता का सदुपयोग करो । ऐसी पकड़ बहुत कम लोगों में होती है ।

मगर ये मीडिया वाले तुम्हें इस प्रतिभा का उपयोग नहीं करने दे रहे हैं । तुम सोचती हो कि तुम अपनी इस पारदर्शिता से पब्लिसिटी बटोर रही हो और मीडिया वाले समझ रहे हैं कि तुम्हारे नाम से उनकी साईट पर अधिक लोग क्लिक कर रहे हैं । हमें तो लगता है दो ठग मिल कर एक दूसरे को ठग रहे हैं और इस चक्कर में बेचारे पाठकों का कचूमर निकल रहा है । एक कहानी है – ‘भेड़िया आया’ । उस कहानी की तरह लोग तुम्हारे ट्विटर को अब सीरियसली नहीं ले रहे हैं और यदि कभी तुमने अपना विश्व कप वाला वादा पूरा भी कर दिया तो शायद इसे भी एक ‘कभी पूरा न होने वाला आश्वासन’ समझ कर लोग देखें ही नहीं । जैसे कि अब राखी सावंत को कोई सीरियसली नहीं ले रहा है । अब तो लोग तुम्हें पूरे कपड़ों में देख कर ज्यादा आश्चर्यचकित होते हैं ।

पता नहीं आजकल तुम क्या काम करती हो ? सुना है पहले संत शिरोमणि विजय माल्या के कलेंडर में काम किया था उसी की कमाई से काम चला रही हो । हम तुम्हें एक सलाह देना चाहते हैं कि तुम कविता करने लग जाओ । सुंदरियों का साहित्य में बहुत अभाव है । साहित्य में सुंदरियों की कमी के कारण आजकल साहित्यकारों को अधेड़ साहित्यकारिणियों से काम चलाना पड़ रहा है । बूढ़ी साहित्यकारिणियाँ अपनी रचनाओं के साथ अपने चालीस साल पुराने फोटो भेजती हैं और पाठक उन्हें ही सच मानकर रचनाएँ पढ़ लेते हैं ।

कवि सम्मेलनों में तो दो ही रस चलते हैं- हास्य-व्यंग्य और शृंगार । और तुम्हारे पास दोनों ही हैं । और हम तो कहते हैं कि सौंदर्य होने के बाद पाठक और श्रोता सारे रस अपने आप ही ढूँढ़ लेते हैं । मंचों पर संचालक और कवि द्विअर्थी वाक्यों से काम चलाते हैं जब कि तुम्हारे पास तो ऐसे-ऐसे एक-अर्थी संवाद हैं जो कई-कई अर्थ देते हैं । सच कहते हैं कि यदि एक कविसम्मेलन के एक-दो लाख भी माँगोगी तो भी लोग देंगे और सारे साल फुर्सत नहीं मिलेगी । सोच कर देखना । तुम्हें किसी को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । अपने आप स्थापित कवि दौड़े-दौड़े आएँगे । उन्हें भी तुम्हारे जैसे सहारे की ज़रूरत है क्योंकि बूढ़े मंचीय कवियों की हालत एक कुटनी जैसी हो जाती है । तुम्हारे बहाने उन्हें भी कवि सम्मलेन मिलते रहेंगे । सोच कर देखना ।

बस, हम तुम्हें एक बात से सावधान करना चाहते हैं कि जैसे तुमने कोहली के बारे में लिखते हुए हनुमान जी का उल्लेख किया है । वे बेचारे बाल ब्रह्मचारी हैं, उन्हें तो बख्शो । उनका डिपार्टमेंट तुमसे नितांत भिन्न है । यदि उन्हें गुस्सा आ गया तो पूँछ की ऐसी फटकार लगाएँगे कि सारे ट्वीट भूल कर टर्राती फिरोगी ।

हो सके तो विराट कोहली को क्षमा करो । एक वही तो थोड़ा ठीक खेल रहा है । क्यों उसका तप-भंग करने पर तुली हो । मुम्बई में और बहुत से संत पड़े हैं, उन्हें आभारी बनाओ ।

१९-३-२०१२

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Mar 22, 2012

विजय-मद और जनता रूपी द्रौपदी


मुलायम जी,

जय बजरंगबली । भले ही यह संबोधन कुछ लोगों को हिंदुत्ववादी लगे पर हम जानते हैं कि आप अखाड़े के आदमी हैं और अखाड़े में जानी लीवरों या राजू श्रीवास्तवों से काम नहीं चलता, वहाँ तो 'बजरंगबली की जय' ही काम आती है । तो बजरंगबली ने मेहर कर ही दी । वैसे आपको भी इतनी उम्मीद तो नहीं ही थी । एक बार तो एकदम निराश से हो चले थे और यहाँ तक कह दिया था कि सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए आप कांग्रेस को समर्थन दे सकते हैं । खैर, अच्छा हुआ कि उसकी नौबत नहीं आई । पहले आपके छोटे भाई अमर सिंह जी कामरेड सुरजीत के साथ जाकर आपकी कम और खुद की ज्यादा भद्द पिटवा चुके थे । बाहर आकर बोले- 'हमारी तो वहाँ कुत्ते जैसी भी कदर नहीं हुई' । वैसे हमें लगता है कि ऐसा कहकर उन्होंने कुत्ते का अधिक अपमान किया । कुत्तों की क्या कदर होती है उन्हें पता ही नहीं । कुत्ता किसी भी सुन्दरी के गाल चाट सकता है । आपको पता है एक बार ब्रिटनी ने कहा था कि वह अपने कुत्ते के साथ दफ़न होना चाहती है । इतना तो सतीत्त्व कुंती, मंदोदरी और तारा ने भी नहीं दिखाया था । कुत्ता बनते ही आदमी किसी भी पार्टी का प्रवक्ता या महासचिव बनने के योग्य हो जाता है ।

वैसे यह जनता है बड़ी अजीब । द्रौपदी की तरह पाँच पांडवों के बीच बारी-बारी से धक्के खाती रहती है और दुशासनों से साड़ी खिंचवाती रहती है । करे भी तो क्या, स्वयंवर में आते ही ये लोग हैं । ढेरी में सारे बैंगन काने हैं । जितना चाहो उलटो-पलटो कुछ होना-जाना नहीं । आपको क्या पता था कि बात इस तरह पल्ले बँध जाएगी । यदि स्पष्ट बहुमत नहीं आता और सबसे बड़ी पार्टी के नाते जोड़-तोड़कर गठबंधन सरकार बनाते तो कम से कम यह तो कह सकते थे कि गठबंधन के चलते यह या वह संभव नहीं हो सका या लोकतंत्र की रक्षा के लिए थूक कर चाटना पड़ा मगर अब तो वह रास्ता भी नहीं बचा है । फिर भी अपन ने ऐसा कोई वादा नहीं किया है जो ज्यादा चक्कर में डाल सके । लेपटोप और बेरोजगारी भत्ता देना है सो जैसे-जैसे बजट आता जाएगा देते जाएँगे । और यदि क़र्ज़ भी लेना पड़ा तो क्या फर्क पड़ता है । कौन सा अपने को चुकाना पड़ता है । जो आगे आएगा सो भुगतेगा । और वह भी क्या भुगतेगा ? वह भी कह देगा कि पिछली सरकार खजाना ही खाली कर गई । इसी तरह पिछली सरकारों पर आरोप लगाते साठ बरस बीत गए । किसी का क्या बिगड़ा ? लोकतंत्र मज़े से चल रहा है ।

आपको बहुमत मिलने पर भक्तों ने कहा- गुरु, अब छोड़ो लखनऊ और बस, जल्दी से दिल्ली का रास्ता पकड़ो और प्रधान मंत्री बन जाओ । वैसे यदि किसी को उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत मिल जाए तो वह भारत क्या, सारे योरप या अमरीका का प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति बनने के योग्य हो जाता है । सो हम तो कहते हैं कि बड़ा सोचो और इस साल नवम्बर में अमरीका के राष्ट्रपति का नामांकन पत्र भर दो । आप कहेंगे कि यह कैसे हो सकता है ? क्यों नहीं हो सकता ? जब सारी दुनिया ग्लोबल गाँव हो गई है तो उसी गाँव का एक व्यक्ति सरपंच का चुनाव क्यों नहीं लड़ सकता ? और यदि नहीं लड़ सकता तो फिर बिना बात 'ग्लोबल गाँव-ग्लोबल गाँव' कहकर लोगों को क्यों उल्लू बना रहे हो ? ग्लोबल गाँव का केवल इतना ही अर्थ थोड़े है कि हमारी वेल्थ तो हमारी और तुम्हारी 'वेल्थ कोमन' । यह नहीं चलेगा । क्या योरप और अमरीका के हथियार और कोकाकोला हमारे यहाँ बेचने के लिए ही दुनिया ग्लोबल गाँव है क्या ?

वैसे आप हमारे डिपार्टमेंट के आदमी हैं । मूलतः आप एम.ए., बी.टी. हैं और हम एम.ए., बी.एड.हैं । और फिर जब आप बी.टी. कर रहे थे तो हमारे एक वरिष्ठ मित्र उसी बी.टी. कालेज में पढ़ाते थे । सो कुछ और भी रिश्ता बनता है मगर हम इस तरह रिश्ता जोड़कर आपसे कोई अनुचित लाभ नहीं चाहते । हम तो कोई दस बरस पहले रिटायर हो चुके हैं । आप भी यदि कहीं मास्टरी करते तो अब तक रिटायर हो ही चुके होते । अच्छा हुआ जो आपने नौकरी नहीं की । बड़े निर्दय नियम हैं नौकरी के । साठ साल का होते ही सारे संबंध भुलाकर धक्का मार देते हैं जैसे कि गौभक्त दूध निकालते ही गौमाता को बाहर जाकर पोलिथिन की थैलियाँ और गालियाँ खाने के लिए धक्का मार कर निकाल देते हैं ।

हम तो आपको एक नेक सलाह देना चाहते हैं कि यदि हो सके तो इस बहुमत का सदुपयोग कीजिए । आपके साथ तो मनमोहन जी जैसी गठबंधनीय मजबूरी भी नहीं है कि कलमाड़ी या राजा को कुछ नहीं कह सकें और दूल्हा बने दिनेश त्रिवेदी को कोलकाता से एक फोन आने पर ही घोड़ी पर से नीचे उतार दें । आपके पिछले शासन को लोग गुंडा-राज कहते हैं और आपने भी इसका कोई खास विरोध नहीं किया । माया ने तो भविष्यवाणी कर दी है कि थोड़े दिनों में ही लोग गुंडा-राज के तंग आकर उनके राज को याद करेंगे । सो आप बेटे की मदद करने के लिए यू.पी. में रहें । आपके होते हुए ही भाई लोगों ने नेताजी के विजय-जुलूस में बीच सड़क पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं । तो आपके दिल्ली चले जाने पर पता नहीं क्या करेंगे ?

वैसे भी प्रदेश की राजनीति अधिक अच्छी है । यदि केन्द्र में हों तो कभी अमरीका का दबाव, कभी आतंकवाद का चक्कर, कभी रेल दुर्घटना, कभी सेना की समस्या, कभी तेल के भावों में वृद्धि । अपना प्रदेश का काम ठीक है । मज़े से मनरेगा, सर्व शिक्षा अभियान, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में से शहद पीते रहो और कोई कुछ कहे तो कहा जा सकता है कि केन्द्र ने पक्षपात किया, विकास के लिए पूरी धनराशि नहीं दी आदि । और केन्द्र सरकार, जो कि गठबंधन होने के कारण हमेशा ही किसी न किसी संकट में रहेगी, तो उसका भी भयादोहन किया जा सकता है । ऐसे में उससे डरने की तो ज़रूरत ही नहीं है ।

ठीक है, खुशी में ही चलाईं मगर गोली तो गोली है पता नहीं कब किधर चल जाए ? हमने कई शादियों में ऐसे ही कई लोगों को मरते या घायल होते देखा है । मगर इन लोगों को भी कितना रोका जाए । आदमी गम छुपा सकता है मगर खुशी को छुपाना बहुत मुश्किल है । आज ही आपने पढ़ा होगा कि ममता की पार्टी की एक सांसद के गार्ड ने रेल में एक यात्री पर पेशाब कर दिया और अभी तक कोई कार्यवाही नहीं की गई । हम कहते हैं, न ही की जाएगी । तभी हमारे यहाँ एक कहा जाता है कि जी, फलाँ की क्या बात करते हो ? आजकल तो उनके पेशाब में चिराग जलते हैं । यह हाल तो एक सांसद के गार्ड का है, तो साहब, जो कोई खुद ही नेता बन जाए तो फिर उसका तो कहना ही क्या ? वह तो जो न करे सो थोड़ा । पास में बंदूक हो और आदमी किसी को दिखाए नहीं, यह कैसे हो सकता है ? बंदूक तो होती ही दिखाने के लिए है जिससे कि लोग पहले से ही जान जाएँ कि फलाँ के पास बंदूक है । हमारे यहाँ बहुत से रिटायर्ड फौजी हैं । वे जब भी किसी बरात में जाते हैं तो मूँछ लगाकर और वर्दी पहन कर, कंधे पर दुनाली लटकाकर जाते हैं । बताने की ज़रूरत ही नहीं होती कि वे कौन हैं ?

जब वानर सीता की खबर लेकर आए तो उन्होंने सुग्रीव के बगीचे 'मधुवन' के फल खाए और बगीचे को उजाड़ने लगे । जब रखवालों ने मना किया तो उन्हें मुक्के जमा दिए । जब रखवाले सुग्रीव के पास शिकायत लेकर गए तो सुग्रीव समझ गए कि सीता की सुधि ले आए हैं । यदि ऐसा नहीं होता तो फल खाने और बाग उजाड़ने का साहस नहीं कर सकते थे । सो यह तो उत्तर प्रदेश के विजय का उत्सव है । आजकल तो छोटे से कालेज के अध्यक्ष पद पर विजयी नेता के समर्थक विजय-जुलूस में दुकानें लूट लेते हैं । महाभारत के युद्ध के बाद विजय-मद में मस्त यादवों ने, जब कोई नहीं मिला तो खुद ही आपस में लड़कर काम निबटा दिया । विजय-मद बहुत बुरा होता है । किसी भी शराब से ज्यादा नशीला ।

बाराती जब लड़की वाले के यहाँ जाते हैं तो रसिकता दिखाना उनका अधिकार होता है । चुने हुए नेता तो एक प्रकार से उस इलाके के दामाद हो जाते हैं । हमने तो नेताओं के चहेतों और किसी शासक जाति के कर्मचारियों को स्वयं को सरकारी दामाद बताते सुना है । वे न तो ड्यूटी पर जाते और रिश्वत ऊपर से खाते हैं । अब ये तो जीते हुए नेता हैं । इनके मद का क्या ठिकाना ? जिसके चारों तरफ लोग चक्कर लगाते हों, भले ही वह अपने कर्मों से छिनाल और शक्ल से गधी हो, पर उसे इठलाने से कोई नहीं रोक सकता । सो आपको इन मतियाए सेवकों को थोड़ा नियंत्रण में रखना होगा । जिसे पीने की पक्की आदत है वह पिएगा तो सही फिर भी उसे कहा जा सकता है कि भैया, घर पर बैठकर पी लिया कर । पोर्न फिल्म देखने के लिए शाम का इंतज़ार कर लें । यह क्या कि सदन में ही चालू हो जाएँ । और यदि ऐसा करना अनिवार्य ही हो तो वहाँ से उठ जाएँ या टी.वी. वालों से बचें या फिर टी.वी. वालों को सदन में ही न आने दें । थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए । इस देश की जनता अभी पिछड़ी हुई है । कुछ भी हो यह भारत है । अब भी थोड़ी बहुत शर्म बची हुई है, कल का पता नहीं । कोई अमरीका या इटली तो है नहीं कि राष्ट्रपति क्लिंटन या प्रधान मंत्री बर्लुस्कोनी कुछ भी करें और कुर्सी पर बने रहें ।

वैसे यदि चुने हुए लोगों में दागी संतों का हिसाब लगाया जाए तो सभी दलों में आधे तो दागी हैं ही । यह पार्टियों और जनता दोनों की मज़बूरी है । उम्मीदवार जीतने वाला होना चाहिए । और इस देश में भले आदमी के लिए जीतना तो दूर, चुनाव खर्चा जुटाना भी मुश्किल है । और जब सारे ही गए-बीते हैं तो जनता किसी को वोट दे, कुर्सी पर कोई तो गया-बीता ही बैठेगा फिर चाहे वह इस पार्टी का हो या उस पार्टी का । और फिर बहुत शीघ्र ही इस देश में तमिलनाडु वाली स्थिति हो जाएगी- कभी करुणानिधि तो कभी जयललिता । वैसे ही कभी आप और कभी माया । फेयर डील । कोई विकल्प ही नहीं बचेगा । राष्ट्रीय दलों की तो जैसी हालत है वैसी किसी खजुहे कुत्ते की भी नहीं होती ।

जनता को तो मरना ही है चाहे विषाक्त भोजन खाकर मरे या भूख से या कुपोषण से या किसी सेवक की गोली से या डाक्टर की दवा से या सड़क दुर्घटना में- यही उसके लिए स्वाभाविक मौत है । और फिर ज्ञानी लोग कह गए हैं कि यदि किसी को गुड़ से मारा जा सकता है तो ज़हर का खर्चा क्यों किया जाए ?

फिर भी यदि आप विकास और प्रदेश के औद्योगीकरण के बारे में सोच रहे हैं तो अपने पास बिना गाय के दूध बनाने की अनूभूत और घरेलू तकनीक है । रामपुर के चाकू और एटा, इटावा के कट्टे हमारे राजस्थान तक प्रसिद्ध हैं । अमरीका से हथियार मँगाकर वहाँ के कारीगरों और उद्योगपतियों को फायदा पहुँचने की बजाय क्यों न अपने ही लोगों को चांस दिया जाए । और भी बहुत सी संभावनाएँ और योजनाएँ हैं हमारे पास, यदि आपके पास समय, दूर-दृष्टि और पक्का इरादा हो तो ।

२०-३-२०१२

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Mar 18, 2012

तोताराम का - उत्तिष्ठ जाग्रत....

आज सवेरे जब दरवाजे पर दस्तक हुई तो हमने समझा तोताराम होगा । हालाँकि दरवाजा बंद नहीं था फिर भी आगंतुक अंदर नहीं आया तो हमने पोती से कहा- जाओ बेटी, देखो कौन है ? यदि तोताराम दादाजी होते तो सीधे अंदर आ गए होते । बच्ची ने तत्काल आकर कहा- दादाजी कोई आदमी है ? हमने कहा- तो फिर अंदर ले आती । पोती फिर गई और एक प्राणी को अंदर ले आई । छोटी-छोटी दाढ़ी, पायजामा और लंबा कुर्ता, हाथ में मोबाइल, गले में सोने की मोटी चेन, खाया-पिया अघाया शरीर ।

हमने देखते ही पहचान लिया और पोती से कहा- ये आदमी कहाँ हैं ? ये तो सेवक जी हैं । तुमने अखबार में अक्सर इनकी तस्वीर नहीं देखी ? कभी गौपाष्टमी को गाय को पूड़ी और हलवा खिलाते हुए तस्वीर, कभी इस-उस नेता जी को जीत या जन्मदिन की बधाई देने वाली तस्वीर, कभी धरना देते तो कभी जुलूस की अगवाई करते तस्वीर । ये अपने इलाके के सेवक जी हैं । अगर आदमी होता तो अब तक चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई होतीं, कमर झुक गई होती या फिर कहीं मनरेगा में खट रहा होता या कहीं राशन की लाइन में लगा होता ।

पोती ने उन्हें नमस्कार किया और चाय लेने अंदर चली गई । हमने उनसे पूछा- कहिए, आज कैसे आना हुआ ? अभी तो कोई चुनाव भी नहीं है जो वोट का चक्कर होता । आपकी दया से हमें तो पेंशन मिलती है जिसे आप न घटवा सकते हैं और न बढ़वा सकते हैं । ट्रांसफर का भी हमारा कोई मामला नहीं बनता । इनकम टेक्स में मिलने वाली छूट कम हो या ज्यादा हमें कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि हमारी पेंशन कभी इतनी नहीं हो सकती कि टेक्स लगे । इसलिए हम सरकार के लिए व्यर्थ हैं । जवान होते तो लेपटॉप की लाइन में लगते । सरकार तो यह इंतज़ार कर रही है कि हम कब मरें और हम लोग हैं कि महँगाई के बावज़ूद जिंदा हैं और यदि कुछ अघटित नहीं हुआ तो क्या पता, सेंचुरी भी लगा दें सचिन की तरह; भले ही इस चक्कर में भारतीय टीम की तरह वित्त मंत्रालय चीं बोल जाए ।

आज शायद सेवक के लिए पहला दिन था जब उसे एक भी शब्द बोले बिना, एक साथ इतना लंबा भाषण सुनना पड़ा हो । वह हमें चुप करवाने के लिए बोला- सर जी, आप जो कहते हैं सब ठीक है । और फिर मेरे जैसे एक अदने से सेवक की क्या हस्ती कि आप जैसे विद्वान की कुछ सेवा कर सकूँ । वैसे आजकल गौशाला और मनरेगा से ही फुर्सत नहीं मिलती वरना ऐसी क्या बात कि आपके दर्शन करने नहीं आता ? मैं तो आपसे कल के बजट के बारे में कुछ जानने आया हूँ क्योंकि आप भाषा के बहुत बड़े विद्वान हैं । लिखे छपे शब्द के पीछे छुपे अर्थ को भली भाँति समझ सकते हैं ।

अब आप जानते हैं कि एक मास्टर इतना मक्खन लगने के बाद सीधा खड़ा रह सकता है क्या ? इतने में तो एक बागी उम्मीदवार की अपनी सत्ताधारी पार्टी में घर वापसी हो सकती है ।

हमने ताज़ा अखबार में छपे बजट के बारे में सारे समाचार और विश्लेषण उसके सामने फैलाते हुए कहा- कहो, कहाँ, क्या शंका है ?

बोला- जी, मुझे और सारे बजट से क्या लेना है । मुझे तो सेवा-कर पर लगने वाले टेक्स के बारे में पूछना है । अब देखिए, गाँधी जी के ज़माने से ही इस देश में 'सेवा कर', 'सेवा कर' की धुन गूँज रही है । तो खैर, गाँधी जी के बारे में ज्यादा नहीं जानता । मैं तो पैदा ही उनके मरने के कोई तीस बरस बाद हुआ हूँ फिर भी मैंने पढ़ा है कि गाँधी के ज़माने में बहुत से युवकों ने सेवा करने के लिए स्कूल-कालेज छोड़ दिए, जेल गए और देश को स्वतंत्र कराया । सो मैंने भी पढ़ने से ज्यादा सेवा को महत्त्व दिया । स्कूल से निकाला जाने वाला था सो मैंने खुद ही जाना बंद कर दिया और सेवा में लग गया और आपकी दया से आज एक छोटा-मोटा सेवक हूँ ।

हमने हँस कर कहा- हो सकता है कि तुम बड़े सेवक न हो मगर मोटे ज़रूर हो । इसी तरह चलते रहे तो बड़े सेवक भी बन जाओगे ।


वह थोड़ा शरमाया । हमें अच्छा लगा । किसी का ऐसी बात पर शरमाना आशा बँधाता है कि अभी सब कुछ नष्ट नहीं हुआ है ।

हमने बात आगे बढ़ाते हुए कहा- हाँ, तो बताओ तुम्हें क्या समझ में नहीं आया ?

बोला- पहले तो नेताओं ने सेवा करने के लिए उकसाया और जब किसी भी नौकरी के लिए 'ओवर एज' हो गया हूँ तो डराते हैं । अब प्रणव दा को ही देख लीजिए, कहा है कि अब सेवा पर भी दस की बजाय बारह परसेंट टेक्स लगेगा । लोग जब-तब राजीव जी के एक स्टेटमेंट को उछालते रहते हैं कि केन्द्र से चले सौ पैसे में से वास्तविक व्यक्ति तक केवल पन्द्रह पैसे ही पहुँचते हैं और पचासी पैसे बीच वाले खा जाते हैं । उन्हें क्या पता नहीं कि मनरेगा, मध्याह्न भोजन, उचित मूल्य सामग्री वितरण, आँगनबाड़ी, गौशाला आदि में पटवारी, पंच, ग्राम सेवक से लेकर मंत्री तक जाने कितने लोग घुसे हुए हैं ऊपर से लेकर नीचे तक ? ले-दे कर पचास साठ हजार महिने के पड़ते हैं उस पर हज़ार तरह के खर्चे अलग । कभी पार्टी की रैली के लिए आदमी जुटाओ, कभी स्वागत-द्वार बनवाओ, कभी चुनाव आ गया तो पार्टी को चंदा दो । जनता तो आप जानते हैं कि नेताओं के नाम से कटे पर पेशाब भी करने को तैयार नहीं । मेरे जैसों को ही भरना पड़ता है । और अब यह दो परसेंट टेक्स और बढ़ा दिया । इस महँगाई में सेवा करना भी मुश्किल हो गया ।

हमें सेवक की पीड़ा से दुःख हुआ । सोचा, भले ही कम हो मगर पेंशन में ये सब झंझट तो नहीं । अब जीवन में कभी भी कोई वित्त-मंत्री हमें टेक्स के दायरे में नहीं ला सकता ।

हमारी बातचीत चल ही रही थी कि तोताराम आ गया और सारा मामला सुन कर बोला- अरे बंधु, आप किस के चक्कर में आ गए । इस आदमी से न तो कभी कोई महान काम हुआ है और न होनेवाला । बहुत डरपोक है यह मास्टर । तुम्हें कोई खतरा नहीं है । जब हत्या, अपहरण, बलात्कार करने वाले लोग संसद और विधान सभाओं में बैठे हैं । जेल में पड़े हुए भी 'माननीय' हैं । किसी के चेहरे पर कोई शिकन है ? और अरबों की कमाई करके भी कोई टेक्स नहीं देते हैं तो तुम क्यों चिंतित हो रहे हो । तुम्हें सभी संकटों से बचाने की जिम्मेदारी तो उन्हीं की है । तुम तो उन कंगूरों की नींव के पत्थर हो । सेवक तो दिल्ली जयपुर में बैठते हैं । करोड़ों रुपए वेतन, सुविधाओं और सांसद निधि के रूप में पेलते हैं किसी पर लगा है कोई टेक्स ?

अपन काहे के सेवक हैं ? अपना तो धंधा है, और वह भी छोटा-मोटा । और धंधा भी ऐसा जिसका कागज पर कोई सबूत नहीं । तुम तो अब बी.पी.एल. कार्ड के लिए आवेदन करो, सुना है सारी सब्सीडी सीधे खाते में ट्रांसफर होगी । और मौका लगे तो यू.पी. में भी कार्ड बनवालो और लगे हाथ बेरोजगारी भत्ता और लेपटॉप भी पेलो । उत्तिष्ठ जाग्रत.....

और वे उठकर चल पड़े ।

१७ मार्च २०१२

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Mar 7, 2012

सम्पूर्ण भारत का धर्म परिवर्तन



तोताराम के बेटे प्राइवेट नौकरी करते हैं । प्राइवेट नौकरी में हालात क्या हैं यह किसी से छुपा नहीं है । मालिक का बस चले तो एक पैसा न दे और काम करवाए दिन में २५ घंटे । और तोताराम को पेंशन कितनी मिलती है यह भी हमें पता है । किसी तरह से घुटने मोड़ कर रजाई के छोटे दिखने के अहसास को भुलाए हुए हैं । २००९ में अगस्त के महिने में एक समाचार पढ़ा था कि जिनके अभिभावकों की वार्षिक आय अढ़ाई लाख रु. सालाना से कम है उनके बच्चों को उच्च अध्ययन के लिए बिना ब्याज ऋण मिलेगा । सो तोताराम के पोते को भी कालेज में भर्ती करवा दिया गया और तोताराम रोज उस योजना के आदेश आने के बारे में बैंक के चक्कर लगाने लगे ।

कुछ दिनों बाद तो हालत यह हो गई कि बैंक में घुसते ही चपरासी ही कह देता- मास्टर जी, आदेश नहीं आए । कुछ और दिन बीते तो तोताराम को पहली तारीख़ को पेंशन लेने जाने के अलावा यदि बैंक के आसपास के लोग तोताराम को देखते तो कह देते- मास्टर जी, आदेश नहीं आए । और अब मामला यहाँ तक पहुँच गया है कि यदि उसे बैंक के पास से गुजरना हो तो वह लोगों के मज़ाक से बचने के लिए पहले ही कह देता है कि बैंक नहीं, कहीं और जा रहा हूँ ।

अब तोताराम को विश्वास हो गया है कि या तो वह खबर झूठी थी या उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है जैसे कि किसी सत्ताधारी दल के नेता का भ्रष्टाचार का केस । इसके बाद जब से रेडियों और अखबारों में प्रधान मंत्री के अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए पन्द्रह सूत्री कार्यक्रम का प्रचार शुरु हुआ है तब से तोताराम को पक्का विश्वास हो गया है कि वह घोषणा वास्तव में धर्म निरपेक्ष सरकार का कोई गुप्त एजेंडा था । अब वह संतोष कर चुका है और उसने बैंक जाकर उस योजना के बारे में पूछना बंद कर दिया है ।



हमने कल रात को इंटरनेट पर जब अमरीका के एक खोजी पत्रकार हेलन रेडके द्वारा किए गए उद्घाटन के हवाले से पढ़ा कि अमरीका के साल्ट लेक सिटी के सबसे तेज़ी से बढ़ते 'जीसस क्राइस्ट ऑफ लेटर डे सेंट्स चर्च' वालों ने २७ मार्च १९९६ को महात्मा गाँधी का बपतिस्मा या दीक्षा समारोह करवा दिया है ।
और इसकी पुष्टि या कन्फर्मेशन १७ नवंबर २००७ को साओ पाउलो ब्राजील टेम्पल में हुई । दीक्षा और कंफर्मेशन के बीच कुछ समय का अंतर रखा जा सकता है क्योंकि क्या पता नहीं, जिसे संत का दर्ज़ा दिया जाए वह कहीं शैतान न निकल आए । 



चर्चों में ऐसे लम्पटों की बहुत संभावना रहती है । क्योंकि चर्च में उच्च पद पर तैनात होने वालों को विवाह करने की इजाज़त नहीं होती । वे आजीविका के लिए ब्रह्मचर्य की घोषणा तो कर देते हैं मगर बिना अधिक मेहनत के बढ़िया खाना और उनके जैसी ही पेट के लिए ब्रह्मचारिणी बनी भक्तिनियों का साथ । ऐसे में कुछ भी संभव है । चर्चों के पादरियों की लम्पटता की लाखों शिकायतें वेटिकन में विचाराधीन हैं । कुछ को दण्डित भी किया गया है । पोप भी कई बार इस बारे में माफ़ी माँग चुके हैं । उन्होंने तो पादरियों द्वारा शोषित बच्चों की पीड़ा की तुलना ईसा की क्रूसिफिकेशन की पीड़ा तक से की है । खैर, यह उन धर्माधिकारियों की निजता का मामला है । वे जाने या फिर ऊपर वाला । जो करेगा सो भरेगा । यहाँ नहीं तो वहाँ । वैसे अगर ऐसा नहीं सोचें तो कर भी क्या सकते हैं ।

आज जैसे ही तोताराम आया हमने कहा- तोताराम, आज तेरे बहुत पुराने मामले का निबटारा हो गया । तोताराम ने आश्चर्य से पूछा- क्या मामला और क्या निबटारा ?
हमने कहा- अब तू, तेरे बच्चे, पोते-पोती सभी क्या, भारत के सारे सवर्ण ईसाई हो गए हैं । अब मनमोहन जी को उन्हें भी अपने १५ सूत्री अल्पसंख्यक कल्याण कार्यक्रम में शामिल कर लेना चाहिए ।


तोताराम ने कहा- ऐसा कैसे हो सकता है ? गाँधी जी को तो मरे हुए ६४ वर्ष हो चुके हैं और जब अमरीका में यह धर्म परिवर्तन का षडयंत्र रचा गया था तब भी उनको ऊपर पहुँचे हुए ४८ वर्ष हो चुके थे ।

हमने कहा- यह तो कानून की व्याख्या करने वालों के ऊपर निर्भर है । वे चाहें तो बैक डेट से भी कुछ भी कर सकते हैं । अपने को भी तो डी.ए. की किस्त बैक डेट से मिलती है कि नहीं ?

तोताराम ने फिर शंका उठाई- ठीक है मगर गाँधी को सभी भारतीय तो बापू नहीं मानते । वे कैसे ईसाई हो जाएँगे ? और फिर बाप के हिंदू होने पर जब खुद गाँधी जी का बेटा मुसलमान हो सकता है तो 'बापू' के ईसाई बनने पर क्या ज़रूरी है हमें ओटोमेटीकली ईसाई मान ही लिया जाए । वैसे मास्टर, गाँधी जी का नाम बदल कर क्या रखा गया होगा ? एम.के. गाँधी की जगह माइकल गिंडी कर दिया गया होगा । अपने देश की तरह तो है नहीं कि ईसाई बन कर अल्पसंख्यक होने का का लाभ भी ले लो और दिखाने के लिए हिंदू भी बने रहो जैसे कि अजित जोगी, अम्बिका सोनी, महेश भूपति, ओमन चांडी, जगन रेड्डी, माला सिन्हा, कल्पना कार्तिक, सिस्टर निर्मला, आचार्य के.के. चांडी, साधु सुन्दर सिंह, आदि ।

वैसे जहाँ तक हमने गाँधी जी के धर्म संबंधी विचार पढ़े हैं तो वे तो धर्म परिवर्तन के सख्त खिलाफ थे । वे कहते हैं कि संसार में जितने जीव हैं उतने ही धर्म हैं । इस प्रकार धर्म का अर्थ 'कर्त्तव्य' हो जाता है । अपना-अपना कर्तव्य ईमानदारी से करो और मस्त रहो, भगवान सब देखता है । फिर सब को एक धर्म में शामिल करने की सनक का क्या औचित्य है ?

हमने कहा- भैया, आज कल धर्म से बड़ा कोई धंधा नहीं है । आज भी दुनिया में विभिन्न देशों की सरकारों और धनवानों की सहायता से धर्म का प्रचार और धर्म परिवर्तन करवाने का धंधा बड़े ज़ोरों से चल रहा है अन्यथा सोचो कौन किस लिए अपने देश से हजारों मील दूर, विषम परिस्थितियों में जाकर; शिक्षा, चिकित्सा आदि के नाम पर लालच देकर लोगों का धर्म परिवर्तन करवाने के लिए भटकता फिरेगा ? धार्मिक स्थानों के पास करोड़ों अरबों के खजाने हैं । कई चर्चों ने तो कई करोड़ों के शेयर खरीद रखे हैं, ब्याज पर पैसे देने का धंधा करते हैं । भले ही ये श्रद्धालुओं को स्वर्ग नरक के चक्कर में डालते हों मगर ये अपने मन में जानते हैं कि स्वर्ग और नरक यही हैं । गरीबी नरक और अमीरी स्वर्ग है । और ये किसी न किसी तरह पैसे जुटा कर यहीं स्वर्ग भोग रहे हैं और भक्तों को मरने के बाद वाले स्वर्ग की आशा बँधा कर कमाई करते रहते हैं ।

तोताराम ने कहा- हिंदू धर्म तो धर्म परिवर्तन में विश्वास करता नहीं । उसके अलावा जो धर्म परिवर्तन करवाते हैं उन्हें अपने काम के अनुरूप ग्रांट मिलती होगी । इसलिए अपने ग्रांट बढ़वाने के लिए हो सकता है ये धार्मिक संस्थान झूठी लिस्टें बनाकर भी ऊपर भेज देते होंगे जैसे कि ‘मनरेगा’ में जिस-तिस का नाम लिखकर सरपंच, परवरि, ग्रामसेवक और बी.डी.ओ. पैसा उठा लेते हैं । तुझे याद नहीं, एक बार अपने एक साथी ने जनगणना में काम चोरी करते हुए स्कूल के विभिन्न क्लासों के रजिस्टर लेकर नाम उतार दिए थे और किसी को कुछ पता नहीं चला था । दुनिया के जाने किस-किस देश में यह धर्म परिवर्तन का धंधा चल रहा है और जाने कैसे-कैसे झूठे कागज बनाकर पैसा उठाया जा रहा है । हो सकता है किसी ने गाँधी का नाम भी ऐसे ही लिख दिया हो ।

हमने कहा- खैर अब तो सुनते हैं कि वे सारे कागज जल गए है या जला दिए गए हैं । चलो झंझट खत्म ।

तोताराम ने कहा- जाली काम के बाद अक्सर ऐसा ही होता है जैसे कि 'आदर्श हाउसिंग सोसाइटी' की फाइलों वाले कमरे में आग लग गई और सारी फाइलें जल गईं । और फिर इस खबर से कोई अधिक उत्साहित होने की ज़रूरत नहीं है । अनूसूचित जाति, जन जाति तो पहले से ही विशिष्ट श्रेणी में हैं । फिर अन्य पिछड़ा वर्ग का नंबर आया । अब सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान, जैन, पारसी आदि शामिल हो गए । इन सब को ईसाई बने बिना ही फायदा मिलने लग गया है तो फिर तेरे यह ‘सारे भारत के ईसाई हो जाने’ की बात कुछ चलेगी नहीं ।

जो नाटक हो रहा है उसे एक सभ्य नागरिक की तरह सहन कर । अगर अधिक ही उचंग उठ रही है तो संविधान की एक प्रति खरीद कर ले आ, उसे कपड़े में लपेट कर एक पतरे पर रख ले और सुबह शाम उसकी मक्खियाँ उड़ाता रह । इसी में जो थोड़ी बहुत बची है वह कट जाएगी ।

१ मार्च २०१२

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Mar 6, 2012

मत मुस्कराओ, बुद्ध !



प्रभु !
तुम सदैव मुस्कराते रहते हो |
ज्योतिषियों से तुम्हारा भविष्य सुनकर
जब राजा शुद्धोदन ने तुम्हें
घेर दिया था सुंदरियों से,
फैला दिया था चारों ओर भोग का दलदल,
बाँध दिया यशोधरा के बाहुपाश में,
जब रखा गया था तुम्हारे पुत्र का नाम राहुल अर्थात 'बंधन'
तब भी तुम मुस्करा रहे थे;
वृद्ध, बीमार और मृत व्यक्तियों को देखकर भी
खेलती रही थी तुम्हारे मुख पर यही मुस्कराहट |

जब तुम्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने या
अमरत्व प्रदान करने के लिए
उकेर दिया था पहाड़ों के वक्षस्थल पर
या अजंता की पहाड़ियों के सीने में से
काटकर जीवंत कर दिया था तुम्हें
नीम अँधेरे में अपनी आत्मा की आँखों से,
या हो रहा था तुम्हारा आयात-निर्यात
एशिया के विभिन्न देशों को
तब भी तुम इसी तरह से मुस्करा रहे होगे |

आज जब तुम्हारे
अंग-प्रत्यंग में डायनामाइट भर कर शीघ्रातिशीघ्र
फतवे की तारीख़ और पवित्र त्यौहार से पहले
तुम्हारी मूर्तियों को धराशायी करने का पवित्र कार्य
सारी दुनिया के विरोध के बावज़ूद चल रहा है
तब भी तुम मुस्करा रहे हो |

और तो और तुम तो
सारनाथ के संग्रहालय में, एकांत में भी
अनंतशायी मुद्रा में मुस्करा रहे हो |



मूर्तियों को तोड़ने के बाद
बनाया जाएगा उनका चूर्ण और
अंतिम उपाय के रूप में पिला दिया जाएगा
दैत्य-गुरु को शराब में घोल कर,
तब भी तुम मुस्करा रहे होगे |

दैत्य-गुरु से ज्यादा डरे हुए हैं उनके भक्त
क्योंकि उन्हें घूरती है हर घड़ी
तुम्हारी अक्षय, अनंत मुस्कराहट |
काश, तुम डरते, भयभीत होते, उनके सामने गिड़गिड़ाते
तो इतना नहीं डरते ये मूर्ति-भंजक |
तुम बहुत विचित्र हो प्रभु,
वास्तव में अज्ञेय,
किसी भी क्रोध से अधिक डराती है तुम्हारी मुस्कराहट

डरे हुए हैं दैत्य-गुरु भी
उस आगत उदर पीड़ा से
जिसके इलाज़ के लिए संजीवनी मन्त्र सिखाकर
तुम्हें फिर निकाला जाएगा उदर चीर कर |
तब भी तुम मुस्करा रहे होगे |

और अपनी संजीवनी विद्या से दैत्य-गुरु को
जीवित करते हुए भी तुम मुस्करा ही रहे होगे प्रभु !

क्या आप कुछ देर के लिए
मुस्कराना बंद नहीं कर सकते ?
आपकी मुस्कराहट से बड़ा डर लगता है, भगवन !

७-३-२००१ (11 साल पूर्व आज ही के दिन )

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तू रंडी मैं भांड


लालू जी,
जय राम जी की । कल ही अखबार में पढ़ा कि आप हरिहरनाथ मंदिर में मूर्तियों पर ५५ किलो चाँदी के पत्तर लगवाएँगे । बहुत खुशी हुई और हमसे ज्यादा खुशी भगवान को होगी क्योंकि भगवान तो भाव के भूखे होते हैं, चढ़ावे की रकम के नहीं । शबरी ने अपने जूठे बेर भगवान को खिलाए, विदुर की पत्नी ने तो भावविभोर होकर कृष्ण को केले के छिलके ही खिला दिए । करमा बाई के पास बाजरे की खिचड़ी के अलावा कुछ नहीं था सो उसका ही प्रसाद लगा दिया और जब तक भगवान के खा नहीं लिया तब तक वहाँ से हटी नहीं । तो आप भी न तो चिंता करें और न ही अपनी इस तुच्छ भेंट को लेकर शर्मिंदा हों । भगवान आपकी यह तुच्छ भेंट अवश्य स्वीकार करेंगे । वैसे विदुर की पत्नी, शबरी, करमाबाई ने तो अपनी तुच्छ भेंटों के बदले कोई कामना नहीं थी पर अपन तो साधारण सांसारिक आदमी हैं, कुछ न कुछ तो कामना होगी ही । वैसे आप भी भगवान से क्या माँगेंगे ? बेटे-बेटियाँ तो भगवान की दया से लिमिट से ज्यादा ही हैं, स्वास्थ्य भी ठीक है, दिल्ली में बड़ा और सब सुविधाओं से युक्त सरकारी मकान भी है । बहुत कम कीमत में संसद की कैंटीन का बढ़िया खाना है । फिर और क्या चाहिए ?

कबीर की बात और थी । वे तो आधी और रूखी में ही संतुष्ट थे । सुनते हैं अपने जेल के दिनों में समय बिताने के लिए, बाँचने को तो आपने भी कबीर वाणी बाँची थी, मगर बाँचने और गुनने में बहुत अंतर है और उस पर आचरण करना तो और भी कठिन है ।
कथनी मीठी खांड सी करनी विष की लोय ।
कथनी तज करनी करे तो विष अमरित होय ।।


कबीर की तरह आधी और रूखी यदि चार दिन भी खानी पड़ जाए तो चेहरे पर चिकनाई की जगह झुर्रियाँ उभर आएँ । अब ब्रोकली का सूप और झींगा मछली खाने के बाद रूखी-सूखी में स्वाद भी क्या आएगा ?

नेता और रंडी की बड़ी मुसीबत है । जैसे कि किसी लाभ की सीट पर जीवन भर नौकरी करने वाले अधिकारी, जिसके चारों ओर लोग दिन-रात मँडराते रहते थे, और रिटायरमेंट के बाद जब कई-कई दिन तक कोई झाँकता तक नहीं, तो बड़ी दुर्दशा हो जाती है और वह इसी दुःख में जल्दी ही मर लेता है । यही हाल रंडी का भी होता है । जब ग्राहक आने बंद हो जाते हैं तो वह आदत से लाचार अपनी तरफ से चाय पिला कर भी ग्राहकों को बुलाती है । इसी तरह नेता के लिए भी लोगों की भीड़ में बतियाना, हास-परिहास करना, पत्रकारों को इंटरव्यू देना संजीवनी की तरह होता है । हालाँकि आप अब भी पत्रकारों की निगाह से ओझल नहीं हुए हैं पर वो भी क्या ज़माना था जब हार्वर्ड तक में मनेजमेंट पढ़ाने जाते थे और अब मैडम बात करने के लिए भी टाइम नहीं देतीं । पहले विशेष सरकारी ट्रेन या विमान से ख्वाजा साहब के यहाँ जाते थे और अब अपने सिर पर ५५ किलो चांदी रखा कर हरिहरनाथ के यहाँ पैदल जाना पड़ रहा है ।

पर क्या करें, गरीबी बड़ी बुरी होती है । जब रामचरित मानस में गरुड़ जी काक भुशुण्डी जी से पूछते हैं कि कौन सा दुःख सबसे बड़ा होता है, तो काक भुशुण्डी जी कहते हैं-
नहिं दरिद्र सम दुःख जग माहीं ।


आप भी पता नहीं, किस पूर्व कर्म-फल के कारण दारिद्र्य दुःख से पीड़ित हैं अन्यथा क्या आप हरिहरनाथ महाराज के लिए मात्र ५५ किलो चाँदी ही ले जाते ? एक तो जन-सेवा का जुनून और फिर इतना बड़ा परिवार और उस पर छः सात लड़कियाँ । लोग भले ही कहें कि लड़का-लड़की समान होते हैं पर बंधु, लड़के वाला कुछ भी खर्चा न करे तो भी चलेगा मगर लड़की वाले को तो अपनी नाक के लिए खर्चा करना ही पड़ता है । और कोई शादी से ही मामला थोड़े निबट जाता है ? कभी करवा चौथ, तो कभी सावन के सिन्धारे, कभी भात, कभी छूछक । लड़की के बाप का तो जीवन भर पीछा नहीं छूटता । हमारे तो तीन लड़के हैं । दहेज नहीं लिया । सो बिना अधिक खर्चा किए काम निबट गया । पर आपके तो छः-सात लड़कियाँ । हम तो खैर, सरकारी नौकर थे । आपके पास तो वह सहारा भी नहीं रहा । पता नहीं, कैसे-कैसे कष्ट उठाकर निस्वार्थ जन-सेवा की होगी । आपकी धर्मपत्नी श्रीमती राबड़ी देवी भी किसी अन्नपूर्णा से कम नहीं हैं जिन्होंने किसी तरह सब्जी और दूध बेचकर बच्चों को पाला और मेयो जैसे साधारण स्कूल में पढ़ाया ।

इसलिए आप निःसंकोच यह तुच्छ भेंट लेकर भगवान की सेवा में जाइए । वे इसे अवश्य स्वीकार करेंगे ।

और कोई भी भले ही आपका महत्त्व न समझे मगर हम जानते हैं कि आपका भारतीय राजनीति में कितना खुशनुमा योगदान है । जीवन में सुख-दुःख तो आते रहते हैं । ये किसी सरकार के किए कम होने वाले नहीं हैं । ये तो देह धरे के दंड हैं जो सुर, नर, मुनि सब को भोगने पड़ते हैं । हालाँकि लोहिया जी बहुत गंभीर बात किया करते थे संसद में, मगर उनके पास तो बहुमत तो क्या अल्पमत भी नहीं था । चन्द्र शेखर और सुब्रमण्यम स्वामी की तरह पूरा एकल अभिनय था और तिस पर कांग्रेस के पास तगड़ा बहुमत । सो बेचारे विदूषक होकर रह गए । इसके बाद राजनारायण आए जिन्होंने जनता का अच्छा मनोरंजन किया मगर वे अधिक दिन नहीं टिक सके । इसके बाद आपने एक लंबी पारी खेली । अब भी माशा अल्ला क्या बिगड़ा है । फिर संसद रूपी फिल्मी दुनिया में आपकी दूसरी पारी शुरु होगी । काम तो जैसे चलता है, चलता रहेगा मगर लोग आपको बहुत मिस करते हैं । हमारा तो अधिकांश साहित्य ही आपके यशोगान से भरा पड़ा है । अब राजनीति में दिग्विजय टाइप लोगों की बयान बाजियाँ चलती हैं उनमें कटुता अधिक है आप जैसा हास्य का छल-छल बहता झरना नहीं ।


जैसे सचिन में अभी बहुत क्रिकेट बचा हुआ है या ‘इस सीमेंट में जान है’ वैसे ही अभी भी आप में बहुत हास्य बचा हुआ है, देशवासियों के दुःखी मूड को सुधारने के लिए, भले ही कुछ क्षण के लिए ही हो । आजकल आप शांत हैं । सभी कलाकार ऐसे नहीं होते जो दुःख में भी हँस और हँसा सकें । आपने भी सुख के दिनों में ही अच्छा हास्य दिया है । सुख में हास्य बहुत सुगम हो जाता है । भूख में तो चाँद में भी रोटी नज़र आती है मगर जब पेट भरा हो तो गरमी की दोपहरी में भी बसंत की सी अनुभूति होती है, हर मौसम प्यार का मौसम लगता है, बात-बिना बात हँसने को मन करता है । आज मैं ऊपर, आसमाँ नीचे लगता है । हम आपके हास्य के सबसे बड़े प्रशंसक रहे हैं । हमने आपके वेद-वाक्यों पर सबसे अधिक लिखा है ।

महान व्यक्ति सूर्य की तरह उगते और छिपते दोनों समय एक ही रंग में नज़र आते हैं । सो आप भी इस अकेलेपन को वनवास की तरह मानकर शांत रहें । यही तो आपके हास्य कलाकार की, कथनी और करनी की परीक्षा का समय है । खैर छोड़िए, भगवान सब जानता है कि कौन किस भाव से आया है- निःस्वार्थ भाव से आया है या कुछ माँगने या फिर जूते चुराने आया है । उसे उल्लू बनाने की कोशिश करने से कोई फायदा नहीं है । वह कोई वोटर थोड़े ही है जो १५ रुपए की एक देसी थैली पिलाकर वोट ले लिया । कहा भी है- चतुराई रीझे नहीं, मन रीझे मन के भाय ।

आप तो इस एकांत और जन-उपेक्षा से उपजे तनाव को दूर करने के लिए एक किस्सा सुनिए ।

एक बूढ़ी महिला रोज हनुमान जी को एक तोला तेल चढ़ाती और अपने बेटों के लिए लाखों करोड़ों का धन माँगती । हनुमान जी बहुत परेशान हो गए । एक दिन उन्होंने उसे जम कर लात मारी और कहा- तुझे इतने पैसे दूँ इससे तो अच्छा इतने में तेल का एक तालाब ही बनवा लूँ । रोज दो पैसे का तेल चढ़ाती है और माँगती है लाखों-करोड़ों ।

कहानी तो कहानी है । इसका अर्थ निकालने लगेंगे तो परेशानी हो जाएगी ।

ऐसे समय में जब साली मक्खी भी मुँह पर नहीं बैठती उस समय हम आपके सुख-दुःख में शामिल हो रहे हैं । अच्छा समय आने पर इस निःस्वार्थ व्यक्ति को भूल नहीं जाइएगा ।

२-३-२०१२

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Mar 1, 2012

जयराम रमेश - मोबाइल और लैंडलाइन

जयराम रमेश जी,
आपने १७ फरवरी २०१२ को संयुक्त राष्ट्र संघ के 'एशिया पेसिफिक आर्थिक एवं सामाजिक आयोग' के भारत की मेज़बानी में आयोजित सम्मलेन में सब को यह कहकर चौंका दिया कि भारत में महिलाओं का एक वर्ग शौचालय नहीं, मोबाइल फोन की माँग करता है । कुछ लोग हैं भारतीय राजनीति में जो अपने कामों की बजाय बयानों के लिए चर्चित रहते हैं, आप भी उनमें से एक हैं । आप झूठ थोड़े ही कह रहे होंगे । ज़रूर आप कारीगरों को लेकर भारत के गाँवों में गए होंगे शौचालय बनवाने के लिए, तभी न आपके पास इतनी पक्की और फस्ट हैंड जानकारी है ।

हमारे साथ भी एक बार ऐसा ही हुआ । हम खैर किसी को क्या देने लायक हैं फिर भी एक बार किसी भिखारी ने पता नहीं क्या देखकर एक रुपया माँगा, बोला साहब एक रुपया दे दो खाना खाना है । हमने कहा- भैया एक रुपए में तो एक इडली, एक फुल्का, एक गोलगप्पा या एक टॉफी भी नहीं आती, तुम एक रुपए में क्या खाना खाओगे ? दस-बीस रुपए माँगते तो भी कोई बात थी । वह थोड़ा मुस्कराया और बोला- साहब, बात तो आपकी ठीक ही है मगर माँगा भी तो सामने वाले की औकात देखकर ही जाता है, ना । तो साहब उसने हमें अपनी औकात बता दी । आपसे जिस भी ग्रामीण महिला ने फोन माँगा तो इसका भी कोई न कोई कारण रहा होगा ।

इसके कई कारण हो सकते हैं । इस पत्र में हम उन्हीं पर कुछ लिखेंगे जिससे हो सकता है आपकी दृष्टि इस बारे में कुछ साफ़ हो सके । वैसे सेवकों की दृष्टि तो साफ ही होती है । उन्हें तो अपना लक्ष्य हमेशा साफ दिखाई देता है । यह तो जनता ही है जिसे अँधेरे के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता । हो सकता है कि सरकार ठेकेदारों के थ्रू जो शौचालय बनवाती हो उनमें, जिसके यहाँ शौचालय बनवाया जाता हो, उससे भी हज़ार दो हज़ार रुपए लिए जाते हों । और यह तो सब जानते हैं कि उनमें सरकार के सब्सीडी देने के बाद कागज पर लगने वाले पाँच-चार हज़ार रुपए खर्च होने पर भी माल एक हज़ार रुपए का भी नहीं लगाया जाता होगा और वे इतने कच्चे बनते होंगे कि कभी भी धँस सकते हों । ऐसे में बताइए कौन पैसा खर्च करके खतरा मोल ले ।

एक बार राजीव गाँधी प्रधान मंत्री बनने के बाद भारत की खोज करने के लिए भारत के सभी आदिवासी इलाकों में गए । राजस्थान के एक सुदूर पश्चिमी जिले के लोगों से उन्होंने पूछा- आपको क्या परेशानी है । तो लोगों ने कहा- जी, आप तो ऐसा इंतजाम कर दीजिए कि यहाँ टी.वी. साफ़ दिखाई देने लग जाए । ऐसा तो हो नहीं सकता कि वहाँ टी.वी. के अलावा कोई समस्या हो ही नहीं । फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा ? हमें लगता है कि जनता तब भी और अब तो और भी अधिक निराश है और उसे विश्वास नहीं है कि सरकार उनके लिए कुछ सार्थक कर सकती है । सो उसने उनसे दूरदर्शन और आपसे मोबाइल माँगा । अब देखिए ना कि खेतों में पानी नहीं पहुँचा मगर टी.वी. और मोबाइल पहुँच गए जो बाज़ार और सरकार दोनों के हथियार हैं ।

गाँव के लोग कुछ भी हो, होते बड़े स्वाभिमानी हैं । हो सकता है उसने आप से कुछ भी नहीं माँगा हो और अपनी बात व्यंजना या लक्षणा में कही हो । मोबाइल का मतलब चलता फिरता और लैंड लाइन का मतलब स्थाई-एक ही जगह पर पड़ा रहने वाला । घर में किसी बंद शौचालय में जाने का मतलब लैंड लाइन और खुले में कहीं भी जाने का मतलब मोबाइल हो । और फिर जब सारी दुनिया पी.सी. की जगह लेपटोप और लैंड लाइन की जगह मोबाइल ले रही है तो एक ग्रामीण महिला का अपने हिसाब से मोबाइल होने में क्या ऐतराज़ है ?

आपने भी कहा कि हम शौचालय बनवाते हैं पर उनका उपयोग नहीं किया जाता । सरकार के बनवाए शौचालय के बारे में हम आपको अपना एक अनुभव बताना चाहते हैं । बात किसी सुदूर या पिछड़े इलाके की नहीं है बल्कि राजधानी दिल्ली की है । कोई २५ वर्ष पुरानी बात है । एक बार रात भर यात्रा करके हम बस से पंतनगर से दिल्ली पहुँचे थे । सुबह का समय और बहुत जोर से हाज़त । आप जैसे बड़े लोगों के तो बुश साहब की तरह हर जगह मोबाइल शौचालय साथ चलता है मगर ऐसी स्थिति में एक साधारण आदमी की क्या हालत हो जाती होगी इसकी कल्पना भी आप नहीं कर सकते ।

उन दिनों सुलभ शौचालय का आविष्कार नहीं हुआ था । वैसे जिसके पास पाँच रुपए न हों तो उसके लिए तो आज भी हर शौचालय दुर्लभ है । सो साहब, किसी तरह जल्दी-जल्दी आई.एस.बी.टी. के सरकारी शौचालय तक पहुँचे । खुशी हुई कि कोई लंबी लाइन नहीं थी । मगर जैसे ही अंदर कदम रखा तो देखा कोई चार-पाँच इंच पानी भरा हुआ है । ऐसे में बैठना तो मुश्किल, सो किसी तरह कुर्सी बन कर बैठे । आपको पता होगा कि पहले स्कूलों में मास्टर मुर्गा बनाते थे और कुख्यात बालक को कुर्सी भी बना देते थे । यह कोई मंत्रियों की मज़े करने वाली कुसी नहीं होती थी । यह एक काल्पनिक कुर्सी होती थी । ऐसे झुको कि न तो बैठे और न खड़े । दस सेकंड में ही टाँगें काँपने लगती थी । पेंट खराब होने से तो यही बेहतर लगा कि कुछ भी हो, कुर्सी बनकर ही सही, इस भयंकर समस्या से तो निबटना ही है ।

अब आप लैंड लाइन और मोबाईल की तुलना कीजिए । लैंड लाइन आप जानते ही हैं कि अक्सर खराब रहता है । ठीक करने वाला भले ही बीस दिन बाद आए मगर किराया पूरे ३० दिन का लगता है । तो क्या फायदा ऐसे लैंड लाइन से । और मोबाइल तो मोबाइल है । जहाँ चाहे, जब चाहे निबटो । मोबाइल स्वतंत्रता का प्रतीक है और लैंड लाइन गुलामी का । किसी तरह स्वतंत्र हुई इस देश की जनता और विशेष रूप से ग्रामीण जनता और उसमें भी महिलाओं को, आप गुलाम बनाना चाहते हैं लैंड लाइन के चक्कर में ।

गुरुदेव ने कहा था- 'ज्ञान मुक्त हो जहाँ, प्राण मुक्त हो जहाँ । भारत को उसी स्वर्ग से तुम जागृत करो' और आप हैं कि मुक्त शौच तक पर प्रतिबन्ध लगा रहे हैं । आपने इसी प्रसंग में यह भी कहा था कि इसके पीछे कल्चरल कारण हो सकते हैं । कल्चर केवल ऊपरी दिखावा है । पश्चिमी कल्चर में कुछ तो ठण्ड के कारण और कुछ अपनी व्यक्तिवादी विचारधारा के कारण सब कुछ घर में ही निबटाने का चलन है । वैसे आपको पता है या नहीं मगर जब इंग्लैण्ड में प्लेग फैला था उसमें बहुत से लोग मर गए थे । उसका कारण यह था कि वहाँ घरों में खुले शौचालय थे जिनमें नालियों मे मल पड़ा रहता था । उनकी ढंग से सफाई नहीं होती थी । उसी गंदगी के कारण वहाँ प्लेग फैला था । वे हमें खुले में शौच करने के कारण जमीन पर हगने वाला काला आदमी कहते थे । यदि घर में शौचालय बनाते हैं तो उनकी सफाई की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए और आप जानते हैं पानी की भारत में, विशेष रूप से गाँवों में क्या हालत है ? और तो और संसद के 'वेल' तक में पानी की एक बूँद नहीं है ।

ग्रामीण महिलाओं के शौचालय की (लैंड लाइन) की बजाय खुले में (मोबाइल ) जाने को प्राथमिकता देने के और भी कई सांस्कृतिक कारण हैं । महिलाओं को शौच के बहाने ही बाहर जाने का मौका मिलता है अन्यथा घर के काम से ही फुर्सत नहीं मिलती है । यही उनका कोफ़ी हाउस है और यही उनका हेरिटेज सेंटर है । यही उनका कनाट प्लेस है । इसी समय वे स्वच्छ हवा में साँस ले सकती हैं । यहीं उन्हें अपने लोकतांत्रिक अधिकार मिलते हैं अन्यथा घरों में तो उनकी वही हालत रहती है जो कश्मीर में पंडितों की है ( यदि कोई अभी तक वहाँ बचा हो तो ) । यह मोबाइल ही तो उनका सशक्तीकरण है ।

जहाँ तक पुरुषों की बात है तो वे इसी लैंड लाइन के चक्कर में देर तक सोते रहते हैं । नहीं तो पहले ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर एक दो किलोमीटर घूमते हुए शौच करके आते थे और रास्ते में कहीं कुँए पर हाथ मुँह धोकर, दातुन करते हुए घर पहुँचते थे । इसी बहाने आसपास के छोटे बड़ों से दर्शन मेला हो जाता था । आज हालत यह है कि सब कुछ घर में ही हो जाने के कारण लोगों का आपस में मिलना जुलना ही बंद हो गया है और यही मनुष्य की सामाजिकता कम होने का कारण है और इसी कारण, यदि किसी में मनमुटाव हो जाए तो फिर उसे मिटाने का मौका ही नहीं मिलता । पड़ोस में रह कर भी लोग अनजाने रहे आते हैं । और आप जानते ही हैं कि आजकल बूढ़े लोगों की कूल्हे की हड्डी इन्हीं लैंड लाइन शौचालयों में गिर कर टूटती है । मोबाइल शौचालय में ऐसी कोई समस्या कभी नहीं सुनी ।

और एक बात- हमने सुना है कि पश्चिम वाले लोग शौचालय में बैठकर पढ़ते हैं । अब इससे अधिक सरस्वती का अपमान और क्या होगा ? हमने तो अपने बचपन में बिना हाथ धोए कभी किताब को छुआ तक नहीं और यदि कभी ऐसे-वैसे हाथ या पैर लग गया तो सरस्वती से माफ़ी माँगते हुए किताब को माथे से छुआते थे । कम से कम खुले में जाने वाला किताब तो साथ नहीं ही ले जाएगा ।

वैसे आजकल गाँवों तक में ज़मीन नहीं बची है । वहाँ भी खेतों में प्लाट कट रहे हैं । कहीं ‘सेज़’ (SEZ) बिछ रही है । कहीं कोई देशी-विदेशी कंपनी कारखानों के लिए सरकार से मिलकर गावों में किसानों की ज़मीन कबाड़ रही है । तो अब अपने आप ही जो आप चाहते हैं वह होने वाला है । लोगों को चाहकर भी कहीं बाहर निकलने की जगह नहीं मिलेगी । जैसे कूरियर वालों ने पोस्ट ऑफिस और फोन ने पत्रों को आउट कर दिया वैसे ही महिलाओं की यह स्वतंत्रता ज्यादा नहीं चलने वाली है ।

खैर, ये तो हम अपनी आदतवश बातें बना रहे थे मगर आपको पता ही है कि कितने लोगों के पास घर हैं जहाँ वे शौचालय बनवाएँगे । और फिर जब खाने के ही लाले पड़े हुए हैं तो शौचालय में जाकर क्या चिंतन बैठक करेंगे ?

एक किस्सा सुनिए- एक व्यक्ति हकीम साहब के पास गया और कब्ज की शिकायत की । हकीम साहब ने उसे दवा दे दी मगर कुछ नहीं हुआ । दवा की मात्रा बढ़ती गई और हकीम साहब का अपने ज्ञान पर से विश्वास घटने लगा । अंत में उन्होंने उसे अपनी सबसे तेज दवा दे दी मगर फिर भी कुछ नहीं हुआ । इतने दिनों में मरीज और हकीम साहब की कुछ निकटता सी भी हो गई थी । हकीम साहब ने पूछा- मियाँ, तुम करते क्या हो ? मरीज ने कहा- हुज़ूर, मैं शायर हूँ । हकीम साहब चिल्लाए- लाहौल विला कुव्वत । पहले क्यों नहीं बताया कि तुम शायर हो । ये लो दस रुपए और कुछ खाओ । बिना खाए दस्त क्या ख़ाक लगेगा ।

सो हमें लगता है आप भी ऐसे लोगों के लिए शौचालय बनवाने के चक्कर में पड़े हैं जिनके पेट में कुछ है ही नहीं । मियाँ, ये सम्मलेन-वम्मेलन छोड़ो और यदि आपके हाथ में कुछ हो तो देश को कुपोषण और भुखमरी से बचाने का जुगाड़ करो ।

२०-२-२०१२

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