Sep 19, 2011

उपभोक्तावाद के अभिमन्यु / जन्नत की हकीकत / अमरीका यात्रा के अनुभव

 उपभोक्तावाद के अभिमन्यु / जन्नत की हकीकत / अमरीका यात्रा के अनुभव

आजकल अमरीका के ओहायो राज्य की सम्मिट काउंटी के स्टो कस्बे में हूँ । छोटे पौत्र नीरज और निरंजन नज़दीक के पब्लिक स्कूल में क्रमशः दूसरी और के.जी. में पढ़ते हैं । अपने भारत में पब्लिक स्कूल का मतलब होता है- निजी महँगे स्कूल । 'तीन लोक से मथुरा न्यारी' की तर्ज़ पर अमरीका में 'पब्लिक स्कूल' का मतलब होता है- सरकारी स्कूल । वैसे देखा जाए तो ठीक भी है, जिसमें 'साधारण पब्लिक' जा सके उसी का नाम 'पब्लिक स्कूल' होना चाहिए । भारत की दृष्टि से देखा जाए तो यह भी ठीक है कि जिस स्कूल का सारा काम सरकार की किसी सहायता के बिना, उस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों ( उस स्कूल की पब्लिक ) के पैसों से चलता हो उसे पब्लिक स्कूल कहना ठीक ही है ।

नाम के अलावा एक भिन्नता और भी है कि भारत में पब्लिक स्कूल ( निजी स्कूल ) वाले विभिन्न व्यापारिक संस्थाओं से मिलकर उनके विज्ञापन करते हैं और बिना कोई टेक्स दिए पैसे कमा लेते हैं । इन स्कूलों में एन.सी.ई.आर.टी या एस.सी.ई.आर.टी. की किताबें नहीं, बल्कि निजी प्रकाशकों की कहीं घटिया किन्तु महँगी किताबें बच्चों को खरीदवाई जाती हैं और स्कूल प्रशासन पर्याप्त कमीशन खाता है । मैंने बैंगलोर में देखा कि एक स्कूल, बच्चों को 'रीबोक' के महँगे जूते खरीदने के लिए बाध्य करता है । पता नहीं, जूतों की कीमत का पढ़ाई से क्या संबंध है ? हाँ, पद या चाँदी के जूते के बल पर बोर्ड और विश्वविद्यालयों से मिलकर नंबर अवश्य बढवाए जा सकते हैं । हमारे ज़माने की बात और थी कि हमने पाँचवी कक्षा तक बिना जूतों के ही पढ़ाई कर ली थी । सुदामा तो नंगे पाँवों ही कृष्ण से मिलने में सफल हो गए थे ।

भारत में सरकारी स्कूलों में बाहरी विज्ञापन एजेंसियों की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि सरकार ही सारा खर्चा उठाती है । वहाँ विज्ञापन का धंधा निजी स्कूल करते हैं । यहाँ बात उलटी है । यहाँ निजी स्कूल ज़म कर पैसा लेते हैं और बच्चों को दबाकर पढ़ाते हैं । उन्हें विज्ञापनों से पैसे कमाने की आवश्यकता नहीं पड़ती । यहाँ सरकारी स्कूल स्थानीय, प्रांतीय और केन्द्र सरकार की सहायता से चलते हैं । और सब जानते हैं कि सभी सरकारों की नज़र में शिक्षा पहली प्राथमिकता नहीं है बल्कि कहा जाए तो एक बेमन से किया गया कार्य है जो वोट के लिए करना पड़ता है । और अब तो अमरीका की अर्थव्यवस्था गिरावट की ओर है ? समय पर वर्षा, किसान-मज़दूर की मेहनत और भूमि की उपजाऊ-शक्ति और अपार खनिज सम्पदा के बावज़ूद अमरीका में अर्थिक स्थिति खराब होने का क्या कारण है, यह एक अलग और आश्चर्यजनक विषय है ।

भले ही बड़े-बड़े सी.ई.ओ. और नेता पूरी सुविधाएँ, वेतन, बोनस और पेंशन पेल रहे हैं मगर आर्थिक मंदी के बहाने से सरकारी विद्यालयों का बजट ज़रूर कम किया जा रहा है । इसलिए सरकारी स्कूल अपनी आय बढ़ाने के लिए ऐरे-गैरे सब से विज्ञापन लेकर धन जुटाने में लगे हैं । वैसे यह बात नहीं है कि अच्छी आर्थिक स्थिति में भी यहाँ के स्कूल विज्ञापन का सहारा नहीं लेते थे ।

तो बात पौत्रों के स्कूल की हो रही थी । वे दोनों ३ सितम्बर २०११ को जब स्कूल से आए तो दोनों के पास कोई छः-सात सौ पेज की एक किताब थी जिसे वे अपनी किताब मानकर गौरवान्वित हो रहे थे क्योंकि यहाँ बच्चों को न तो किताबें लेकर स्कूल जाना पड़ता है और न ही किताबें लेकर स्कूल से आना पड़ता है । यदि कोई थोड़ा बहुत गृह कार्य दिया भी जाता है तो एक अलग से पन्ने पर ।

यह किताब बच्चों को मुफ्त दी गई थी । जब ध्यान से देखा तो पाया कि यह कोई किताब नहीं बल्कि विभिन्न व्यापारिक प्रतिष्ठानों के 'खरीद-कूपनों' का संग्रह था जिन्हें दिखाकर आप कुछ प्रतिशत छूट पर खरीददारी कर सकते हैं । खरीददारी में छूट का क्या मतलब होता है यह आज के ज़माने में भारत में कौन नहीं जनता ? क्या कभी कोई व्यापारी किसी को कोई छूट दे सकता है ? हमारा तो मानना है कि यदि कोई व्यापारी बिलकुल मुफ्त में भी कोई चीज दे रहा है तो भी नहीं लेनी चाहिए क्योंकि व्यापारी किसी और को तो क्या, अपने बाप तक को भी कुछ फ्री नहीं देता ।

फ्रेंकफर्ट के हवाई अड्डे पर आधा लीटर पानी के पाँच डालर लेने वाली बाजारी सभ्यता में कुछ भी फ्री होने की उम्मीद वैसे ही है जैसे कि किसी बाजारी औरत से ब्याहता पत्नी जैसी वफ़ा की उम्मीद करना । हमारी उम्र के लोगों को याद होगा कि जब भारत में चाय नई-नई चली थी तब चाय वाले बाजार में लोगों को मुफ्त चाय पिलाया करते थे । और आज ब्याज सहित सब कुछ निकाल लिया कि नहीं ? हालत यह कि आज लोगों को दो-तीन सौ रुपए किलो में जो चाय बेची जा रही उसकी भी शुद्धता की गारंटी नहीं है ।

किताब के मुख-पृष्ठ पर लिखा था- 'एंटरटेनमेंट २०१२' / 'द एक्रन एरिया संस्करण' / 'ओवर $ २१,९०० सेविंग्स इनसाइड' । एक्रन ओहायो राज्य के इस जिले-सम्मिट का एक शहर है जहाँ विश्वविद्यालय भी है । जब इस इलाके के लिए एक संस्करण छपा है तो सारे अमरीका में पता नहीं कितनी करोड़ इस प्रकार की विज्ञापन पुस्तकें छपी होंगी ? यदि आप इस पुस्तक में दिए गए सभी कूपनों का 'सदुपयोग' (?) करें तो आप कोई बाईस हज़ार डालर बचा सकते हैं । आर्थिक मंदी से जूझ रहे अमरीका के लिए कितना सरल उपाय है और भारत जैसे मुक्त और पारदर्शी होकर बाज़ार में बैठे देश के लिए कितना प्रेरणादायी ।

बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती । के.जी. का छात्र पौत्र निरंजन थोड़े बहुत अक्षर ही पढ़ना जानता है मगर उसकी समझ और दृष्टि इतनी सूक्ष्म है कि वह अनुमान से ही बहुत कुछ पढ़ लेता है । उसे एक फोटोस्टेट किया हुआ कागज भी उस विज्ञापन पुस्तिका के साथ दिया गया जिसमें विभिन्न प्रसिद्ध 'फास्ट फूड चेनलों' के प्रतीक चिह्न छपे हुए थे ।

'फास्ट फूड वाले इन चेनलों के बारे में सब जानते हैं कि यह फूड सस्ता तो ज़रूर होता है लेकिन स्वास्थ्यप्रद नहीं । इसमें बहुत ही घटिया चिकनाई का उपयोग किया जाता है । एक साथ ही लाखों पिज्जा या बर्गर कारखानों में बनते हैं और फ्रीज़रों में पड़े रहते हैं । जहाँ आवश्यकता होती है वहाँ, बड़े-बड़े ट्रेलरों से पहुँचा दिया जाता है । जब भी ग्राहक माँगता है तत्काल गरम करके दे दिया जाता है, फास्ट । वैसे अमरीका में सभी पिज्जा या बर्गर ऐसे ही नहीं आते । ऐसे भी भोजनालय हैं जहाँ तत्काल अच्छी सामग्री से आपके सामने ही ताज़ा भोजन तैयार किया जाता है मगर वे इन चेनलों वाले फूड की तरह न तो सस्ते होते हैं और न ही फास्ट ।

तो बच्चे को मिले कागज में फूड चेनलों के प्रतीक चिह्न कुछ इस क्रम से रखे गए थे कि उसी क्रम से बोलने पर एक शिशु गीत जैसा कुछ बनता था । बच्चे निरंजन को स्कूल से आते-आते यह गीत पूरी तरह से याद हो गया था । गीत कुछ इस प्रकार से बनता है-

डीयर फेमिली,
आई कैन सिंग दिस सोंग ओर बुक !
प्लीज लिसन टू मी रीड/सिंग !
यू कैन ईवन सिंग अलोंग विथ मी !

बर्गर किंग, बर्गर किंग, टाको बेल, बर्गर किंग ।
बर्गर किंग, बर्गर किंग, टाको बेल, बर्गर किंग । ।

मेकडो ऽऽऽ नल्ड मेकडो ऽऽऽ नल्ड ।
टाको बेल, बर्गर किंग ।

मेकडो ऽऽऽ नल्ड, मेकडो ऽऽऽ नल्ड ।
टाको बेल, बर्गर किंग ।


अब देखिए, कहाँ तो हम शिशु-गीतों के द्वारा, सोने के लिए तैयार, बच्चे के कोमल मन को चाँद, तितली और परियों के रंगीन और मधुर संसार में ले जाते हैं और कहाँ उसे सोते हुए भी किसी खास कंपनी के अविश्वसनीय और अप्रामाणिक और हो सकता है कि हानिकारक खाद्य पदार्थों से बाहर नहीं निकलने देना चाहते । यह शिक्षा है या आनंद या एक बाल-मन के साथ क्रूर व्यापारिक खेल जो विद्यालयों के माध्यम से खेला जा रहा है ? हो सकता है कि एक वर्ग ऐसा भी हो जिसे इसमें कोई बुरी नज़र नहीं आती हो जैसे कि सूअर की कल्पना कीचड़ से आगे नहीं हो सकती । हो सकता है कि पाठकों को याद हो कि देश की स्वतंत्रता की स्वर्ण जयन्ती पर १५ अगस्त १९९७ को आधी रात को आयोजित संसद के विशेष सत्र में लता मंगेशकर द्वारा एक गीत गया जाना था और उसके पास कोकाकोला का एक विज्ञापन लगाए जाने की योजना थी । भगवान का शुक्र है कि देश इस राष्ट्रीय शर्म से बच गया ।

८ सितम्बर २०११ को  बच्चे एक और पम्पलेट लेकर आए जो फास्ट फ़ूड वालों के शैक्षणिक सरोकारों को और अधिक मुखरता से प्रकट करते हैं । पम्पलेट का फोटोस्टेट नीचे दिया जा रहा है ।


विज्ञापन का एक प्रसिद्ध वाक्य है जो कहता है कि 'कैच देम यंग' मतलब कि गर्भावस्था में ही अभिमन्यु की तरह उसे मेकडोल्नल्ड के चक्रव्यूह में घुसा दो जिससे वह तो क्या उसकी सात पीढियाँ तक बाहर न निकल सकें ।

इसी अमरीका में बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो इस फास्ट फूड संस्कृति के खिलाफ हैं और बहुत से निजी स्कूलों में अभिभावकों के कहने पर वहाँ की विद्यालय कैंटीनों में बच्चों को फास्ट फूड और कोक उपलब्ध नहीं करवाए जाते ।

अमरीका के स्कूलों के माध्यम से बाल-मन में विज्ञापनों की इस घुसपैठ से आप कहाँ तक सहमत हैं ?

१२ सितम्बर २०११

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Sep 17, 2011

पानी का मोल ( जन्नत की हकीकत - अमरीका यात्रा के अनुभव )

२२ जून २०११ को रात सवा दो बजे अर्थात 2.15 a.m. पर बैंगलोर से वाया फ्रेंक्फर्ट डेट्रॉयट ( अमरीका ) के लिए लुफ्तांसा के विमान से अमरीका के लिए रवाना हुए । कोई नौ-दस घंटे की उड़ान है बैंगलोर से फ्रेंकार्ट तक की । इससे पहले भी एक बार २००० में वाया फ्रेंक्फर्ट अमरीका गया था । मगर उस समय चूँकि पहला अवसर था सो कहीं भी ध्यान देने की बजाय किसी ऐसे यात्री को तलाशा जो हमारी तरह ही अमरीका के अटलांटा शहर जा रहा हो । एक सज्जन मिल गए, सो सारा ध्यान उनकी तरफ लगा रहा । पता नहीं, कब गाय की पूँछ छूट जाए और भावासगर में बीच में ही डूब जाएँ । दूसरी बार २००७ में जब अमरीका गए थे तो बेटा साथ था इसलिए कुछ सोचने-समझने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी । वह यात्रा दिल्ली से सीधी नेवार्क ( न्यू जर्सी-अमरीका ) होते हुए थी । और नेवार्क में तो क्लीवलैंड ( ओहायो ) के लिए प्लेन पकड़ने में एकदम भागाभागी थी अन्यथा फिर अगली फ्लाईट तक इंतज़ार करना पड़ता । इसलिए कुछ सोचने-समझने का मौका ही नहीं मिला ।



बैंगलोर में प्लेन में बैठने के कुछ समय बाद ही खाना और कुछ पेय पदार्थ आ गए । भले ही जर्मनी वालों की दिनचर्या के हिसाब से यह खाना खाने का समय हो मगर अपने हिसाब से तो आधी नींद पूरी हो जानी चाहिए थी । यह बात और है कि मजबूरी में जगाना पड़ रहा था । खाना खाने का तो प्रश्न ही नहीं । हालाँकि खाने का पैसा टिकट में ही शामिल था सो हिम्मत करके वसूल कर ही लेना चाहिए था पर पेट तो अपना ही था । यदि आज से कोई चालीस-पचास बरस पहले की बात होती तो पेट खराब होने की चिंता न करते हुए भी पैसे वसूल करने के लिए खा ही लेते मगर अब सत्तर के पेटे में पहुँच कर ऐसा दुस्साहस करना ठीक नहीं । सो सोना ही उचित समझा ।

किसी धनबली, बाहुबली या राजबली परिवार में जन्म लेते ही, बिना किस अनुभव के व्यक्ति युवा-हृदय सम्राट, भारत का भावी प्रधान मंत्री हो जाता है । अपने से दुगुनी उम्र के अनुभवी मंत्रियों के लिए वह आदरणीय और उसका 'पाद' पूज्य हो जाता है मगर साधारण आदमी के लिए तो अनुभव बहुत ज़रुरी होता है और आप-हम सब जानते हैं कि अनुभव का मतलब धक्के खाना होता है । हमारे बाल एयरकंडीशंड में सफ़ेद नहीं होते । भले ही पहली यात्रा में किसी की पूँछ पकड़कर भवसागर पार किया हो फिर भी यह तीसरी हवाई यात्रा थी और वाया फ्रेंकफर्ट दूसरी । सो हम अनुभवी हो गए थे । यहाँ तक कि सीट बेल्ट भी बिना किसी विदेशी मदद के बाँधना आता था ।

और फिर फ्रेंकफर्ट में तो प्लेन बदलने के लिए कोई पौने छः घंटे का समय भी मिलने वाला था । जिन्हें फ्रेंकफर्ट ही जाना था उनकी तो ज़ल्दी करने की बात समझने में आती है मगर जिसे कहीं और जाने के लिए फ्रेंकफर्ट से दूसरी उड़ान दो-चार घंटे में मिलने वाली हो उसे ज़ल्दी करने की क्या ज़रूरत । मगर यह मानव स्वभाव है कि चढ़ने में जितनी ज़ल्दी, उतनी ही उतरने में भी ज़ल्दी ।

प्लेन में बैठे हुए कोई दस घंटे हो गए थे सो फ्रेंकफर्ट पहुँचने से कोई दो घंटे पहले ही नित्य कर्म से निवृत्त हो लिए । प्लेन रुकते ही लोगों को उतरने की ज़ल्दी । सामान उठाने की बजाय घसीट रहे थे मगर हम अपनी सीट पर आराम से बैठे रहे । बड़े सामान तो डेट्रोइट में उतरने थे । इस बदली में हमें तो एक छोटा सा हैंडबैग उठाना था । लगभग सभी यात्री प्लेन से उतर गए । कर्मचारियों को भी ज़ल्दी थी सो उन्होंने खुद ही हमारा सामान उठवाया और प्लेन से बाहर किया । फुर्सत का पहला महत्त्व समझ में आया ।

आराम से अपने संबंधित गेट तक जाने वाली बस पकड़ी । जब उस गेट पर पहुँचे तो बहुत से लोगों की लंबी लाइन लगी देखी जिसमें कुछ भारतीय भी थे । माथा ठनका । घड़ी पर नज़र डाली तो डेढ़ बज रहा था । और फ्लाईट छूटने का समय था कोई एक बजकर पचास मिनट । अब आपसे क्या बताएँ कि हमारी क्या हालत हो गई ? बस समझो कि वही हालत हो गई जो राज्य सभा में आकर मंत्री बनने वाले मंत्रियों की लोकसभा भंग होने पर हो जाती है ; मनमोहन, मोंटेक या चिदंबरम की अमरीका का सेंसेक्स गिरने से हो जाती है या कि जैसे पुलिस द्वारा मज़मा उखाड़ दिए जाने पर बाबा रामदेव की हो गई थी । जो थोड़ी बहुत टूटी-फूटी अंग्रेजी आती थी वह भी भूल गए । एक भारतीय से लगने वाले सज्जन से शुद्ध हिन्दुस्तानी में पूछा- भैया, यह डेट्रायट जाने वाली फ्लाईट की लाइन है क्या ? उत्तर मिला - नहीं, यह तो अटलांटा जाने वालों की लाइन है । फिर इन्क्वायरी की तरफ भागे । रास्ते में एक से टाइम पूछा तो उसने एक बड़ी सी घड़ी की तरफ इशारा कर दिया । देखा तो नौ बजे थे । यह क्या चक्कर ? अपने वाली घड़ीमें दो बजने वाले हैं और इसमें नौ । ये पाँच घंटे कहाँ गए ? तसल्ली से बैठकर हिसाब लगाया तो ध्यान में आया कि एक तो हम पूर्व से पश्चिम की तरफ आ रहे थे दूसरे धरती पश्चिम से पूर्व की ओर घूम रही है सो प्लेन और पृथ्वी दोनों की स्पीड मिल कर ये पाँच घंटे निबट गए जैसे कि दिल्ली से चले सौ पैसे जयपुर पहुँचते-पहुँचते पन्द्रह रह जाते हैं । वैसे गलती तो हमारी ही है कि हम जर्मनी में प्लेन से उतरते समय अपनी घड़ी स्थानीय समय के अनुसार मिलाना भूल गए थे । खैर, 'जान बची और लाखों पाए' मगर बुद्धू को घर लौटने में तो अभी काफी समय बाकी है ।


जब साँस सामान्य हुई, घबराहट कम हुई तो संसार की माया ने आ घेरा मतलब कि भूख प्यास का पता चला । रात को प्लेन में खाना नहीं खाया था और सुबह नाश्ता भी नहीं किया था सो भूख की अनुभूति हुई । सुदामा की तरह बाँध कर लाए अपने भुने चनों( भुगड़ों ) का पैकेट निकाला । भले ही लोग पश्चिम के फास्ट फूड की कितनी ही प्रशंसा करें मगर सत्तू, धाणी-भुगड़ों जैसा कोई भी फास्ट फूड दुनिया में नहीं है । साल-छः महिने खराब नहीं होता । फ्रिज का झंझट नहीं । सर्दी- गरमी से सदैव अप्रभावित । वैसे आजकल खाने-पीने के डिब्बा बंद सामानों की कहीं कोई कमी नहीं । भारत के छोटे से गाँव-ढाणी तक में भले ही धाणी- भुगड़े न मिलें पर कोकाकोला और लेज के चिप्स ज़रूर मिल जाएँगे । मगर इन पश्चिमी देशों में एक बात का बहुत डर लगता है कि जो खा रहे हैं वह पता नहीं क्या है ? कुछ ऐसी भाषा में लिखा रहता है कोई वकील भी आसानी से नहीं समझ पाता । इनके लिए तो मांस के लिए सूअर पालना या अण्डों के इए मुर्गी पालना दोनों ही खेती (फार्मिंग) हैं । मतलब कि सूअर काटना और मतीरा फोड़ कर खाना दोनों समान हैं ।

सो मांसाहार की सभी शंकाओं से बचने के लिए अपने साथ लाए भुगड़े निकाले और खाना शुरु किया । मगर थोड़ी देर बाद ही लगा कि बिना पानी के नीचे नहीं उतरेंगे । सो अपना गिलास लेकर पानी खोजने लगे । पिछली बार आए थे तो पास ही पानी का नल था मगर अब कहीं भी पानी का नल नहीं दिख रहा था । काफी देर इधर-उधर खोजने के बाद भी पानी का नल नहीं मिला । एक सज्जन से पूछा तो कहने लगे- यदि हाथ मुँह धोने हैं तो टायलेट में है पानी और यदि पीने के लिए चाहिए तो सामने स्टाल से बोतल ले लो । स्टाल पर जाकर पूछा तो पता चला कि आधे लीटर पानी की बोतल के पाँच डालर लगेंगे जिनके लिए हमने भारत में २२५ रुपए दिए थे । इतने रुपए का तो हम गेहूँ भी नहीं खा सकते एक महिने में । मगर यह अवसर हिसाब लगाने का नहीं बल्कि गले में अटके भुने चनों के भूसे को नीचे उतारने का था । वैसे पीने टायलेट से लेकर भी पानी पी सकते थे । यहाँ कौन देखने वाला था कि पंडित जी क्या कर रहे हैं ? मगर यह किसी के देखने-समझने की बात नहीं थी, बात तो अपना मन मानने की थी । सो मन नहीं माना और जी कड़ा करके रास्ते के लिए लाए बीस-तीस डालरों में से पाँच डालर निकाल कर दिए । बोतल ले तो ली पर यही सोचते रहे कि यदि बोतल हाथ में लेने से ही यह भूसा गले से नीचे उतर जाए तो कितना अच्छा हो ।

इन चार घंटों में जर्मनी के फेंक्फर्ट हवाई अड्डे पर बैठे-बैठे न कुछ सुना, न दीखा और न सूझा । बस, पानी के बारे में ही सोचते रहे । जब छोटे थे तो आजकल की तरह स्कूलों में न तो राष्ट्रीय सेवा योजना थी और न ही अखबारों में गर्मियों में परींडे बाँधने के समाचार । फिर भी राजस्थान जैसे जल की कमी वाले राज्य में भी कहीं किसी राहगीर को पानी की कमी अनुभव नहीं होती थी । गर्मियों में जगह-जगह पानी की प्याऊ मिल जाती थी । गर्मियों की छुट्टियों में मास्टर जी हम बच्चों को शाम के समय रेलवे स्टेशन पर ले जाते थे जहाँ हम बच्चे भाग-भाग कर रेल यात्रियों को पानी पिलाते थे और उसके बाद अगले दिन के लिए कुए से पानी निकाल कर मटके भर कर आते थे । गरमी की छुट्टियों में बाज़ार में लगने वाली प्याऊ में बैठकर आने-जाने वालों को पानी पिलाया करते थे । गनीमत है कि जयपुर में अभी गर्मियों में प्याऊ लगाने की परंपरा बची हुई है । पहली बार जब १९८५ में पोर्ट ब्लेयर के दिल्ली ट्रांसफर होकर आए तो बस-स्टाप पर २५ पैसे का पानी का एक गिलास बिकते पाया । मतलब कि यदि किसी के पास २५ पैसे नहीं हैं तो भले ही वह भारत की राजधानी में प्यासा ही मर जाए । शायद यह राजधानी के चरित्र और तथाकथित उदारीकरण के साथ आने वाली नई शताब्दी की झलक थी ।

दिल्ली में ही पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में धौला-कुआँ के पास मौर्या शेराटन होटल के सामने अपने एक मित्र के साथ स्कूटर के पीछे बैठकर गुजर रहे थे । हल्की सी बरसात हुई थी । बस इतनी ही कि सड़क से थोड़ा सा पानी बह कर फुटपाथ की तरफ जाने लगे । देखा कि एक नितांत गरीब,विक्षिप्त सा एक अधेड़ व्यक्ति उस पानी को अँजुरी में लेकर पी रहा है । यह एक घटना नहीं मगर हमारे समय का एक भयानक और निर्दय चित्र है । उस व्यक्ति द्वारा उस पानी को पीना पागलपन नहीं, मज़बूरी थी । खाने-पीने का इतना विवेक तो पागल व्यक्ति में भी होता है । कामनवेल्थ खेलों में ७६ हजार करोड़ और २ जी स्पेक्ट्रम में पौने दो लाख करोड़ का घपला करने वाले सेवकों की राजधानी के पास इसके लिए कोई उचित तर्क और उत्तर नहीं है ।

 इन्हीं दिनों जून के महिने में दिल्ली से जयपुर जाना पड़ा । दोपहर का समय । आमेर का बस अड्डा । प्यास लगी थी । देखा बड़ के पेड़ के नीचे एक वृद्ध एक किशोर के साथ पानी का मटका लिए बैठा है । जैसे ही पानी पीने के लिए उसके पास रखा डिब्बा उठाने लगे तो उसने मना कर दिया । कहने लगा- 'पानी चाहे जितना पिओ मगर पिलाऊँगा मैं अपने हाथ से' । पानी पिया, ठंडा था, आत्मा तृप्त हो गई । एक रुपया देना चाहा तो उसने नहीं लिया । पास के एक चाय वाले से पूछा तो उसने बताया कि यह बूढ़ा गर्मियों में कई दूर से पानी भर कर लाता है और अपने पोते के साथ यहाँ बैठकर सबको अपने हाथ से मुफ्त पिलाता है । ऐसे निःस्वार्थ सेवक को इतना तो अधिकार है ही कि वह पानी अपने ही हाथ से पिलाए ।

कोई दो वर्ष पहले एक समाचार पढ़ा था कि ब्रिटेन की एक हवाई कंपनी के अधिकारी ने आय बढ़ाने के लिए सलाह दी थी कि उड़ान के दौरान टायलेट का प्रयोग करने वाले यात्रियों से अतिरिक्त पैसा वसूल किया जाए । हो सकता है कि जर्मनी के फ्रेंकफर्ट हवाई अड्डे वालों को भी ऐसे ही किसी समझदार आदमी ने सलाह दी होगी कि हवाई अड्डे पर पीने के पानी के नलों को हटवा दिया जाए और पाँच डालर में आधा लीटर पानी बेचने वाली स्टाल खुलवा दी जाएँ ।

हो सकता है कि बाज़ार द्वारा जानबूझकर पानी जैसी चीज की अनुपलब्धता पैदा करके प्यासे लोगों को महँगा पानी खरीदने के लिए मज़बूर करना; बड़ा पे पैकेज पाने वाले, मॉल और मल्टीप्लेक्स के अंधे लोगों और जनता के टेक्स पर दंड पेलने वाले सेवकों को बुरा न लगे मगर हमारे गले तो पाँच डालर की आधा लीटर पानी की बोतल का २५० मिलीलीटर पानी पीकर भी यह बात नहीं उतर रही है । हमने जब पत्नी से अपना दुःख बाँटना चाहा तो बोली- अरे, जब डेढ़ लाख रुपए का आने-जाने का टिकट झेल लिया, जब भारत में हमारा ही पानी कोल्ड ड्रिंक का लेबल लगाकर पचास रुपए लीटर बेचा जाता है और तुम पी लेते तो हो इसे भी विकास की कीमत और उदारीकरण का प्रसाद मानकर पी लो । जर्मनी का पानी है ? किस-किस को नसीब होता है । और फिर विश्वास में बहुत बल होता है । यदि मीरा बाई राणाजी द्वारा भेजे गए विष को अपने बाँके बिहारी का चरणामृत मान कर पी गई और उसे कुछ नहीं हुआ तो तुम्हारा भी बाल बाँका नहीं होगा । हमें लगा, कल को मनमोहन जी, चिदंबरम जी या मोंटेक जी को कुछ हो गया तो भी हमारी ब्राह्मणी भारतीय अर्थव्यवस्था को सँभाल लेगी ।

२४ जून २०११

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Sep 10, 2011

मायावती का निजता का अधिकार

( मायावती विशेष प्लेन से मुम्बई से चप्पलें मँगवाती हैं- असांजे के विकिलीक्स ने खुलासा किया- ५ सितम्बर २०११ )

मायावती जी,
२०१२ के चुनाव को ध्यान में रखते हुए आपके विरुद्ध एक बहुत बड़ा षडयंत्र किया जा रहा है । हमें लगता है कि ब्राह्मणवादी, मनुवादी, कांग्रेस, भाजपा, मुलायम, पुरुषवादी सभी आपके पीछे पड़े हुए हैं । एक तो आप महिला, फिर दलित और ऊपर से कुँवारी । न किसी के मन में दया है और न ममता । दुनिया का तो हमें पता नहीं मगर रज़िया सुलतान को उसी के दरबारियों ने केवल इसलिए षडयंत्र का शिकार बनाया कि वह महिला थी ।

जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री और वह भी एक नहीं कई-कई बार । दुनिया में इतने छोटे-छोटे देश हैं कि बीसियों को मिला दो तो जनसंख्या में अपने उत्तर प्रदेश के बराबर न हों । और यह स्थिति तो उत्तरांचल को निकाल देने के बाद है । ऐसी शक्तिशाली, लोकप्रिय और जनाधार वाली नेत्री पर आरोप कौन लगा रहा है ? दो करोड़ की जनसंख्या वाले एक छोटे से देश आस्ट्रेलिया का, ब्रिटेन में शरण लिया हुआ, कैद में पड़ा, एक अविवाहित व्यक्ति । उसे क्या पता कि सेवा क्या होती है ? और कितना बलिदान देना पड़ता है उसके लिए । अरे, उसी में कोई गुण होते तो क्यों ब्रिटेन की जेल में होता । अपने देश में रहता, कोई ढंग का काम करता ।

अब कोई पूछने वाला हो कि यह भी कोई काम है कि आप ढूँढते फिरो कि किसने, किसको, क्या कहा ? कौन कहाँ गया ? किसने, किस होटल में खाना खाया ? किसने, कितने रुपए के मोज़े पहने ? किस को कब दस्त लगे या किसे, कितने दिनों से कब्ज है । जब सोनिया जी की बीमारी के बारे में किसी को कुछ भी जानने का अधिकार नहीं है तो आपकी निजता का इतना उल्लंघन क्यों ? आप अपनी मर्जी की चप्पलें तक नहीं पहन सकतीं ? लोग तो जाने कहाँ-कहाँ से सामान मँगाते हैं और आपने मुम्बई से एक जोड़ी चप्पलें क्या मँगवा लीं कि आसमान टूट पड़ा ।

देश स्वतंत्र होने के बाद की बात है । राजाओं का राज जा चुका था । पोरबंदर की महारानी वहाँ के महाराजा की अति रसिकता के कारण नाराज़ हो गईं तो उन्होंने पोरबंदर का पानी पीना तक छोड़ दिया । उनका पानी उनके पीहर गोंडल से आता था । जयपुर के महाराजा जब इंग्लैण्ड जाते थे तो अपने साथ चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में भर कर गंगाजल ले जाया करते थे । वहाँ का पानी तक नहीं पीते थे । आपने कभी कोई ऐसा मूर्खतापूर्ण कार्य नहीं किया ।

हमने तो सुना है कि जब लालू जी रेल मंत्री थे तब उनकी भैंस के लिए रोज पटना से हरा चारा कटकर, बिहार केडर के एक प्रशासनिक अधिकारी की देखरेख में, ए.सी. कोच में लदकर दिल्ली आता था । मुलायम सिंह जी जब रक्षामंत्री थे तो वायु सेना के प्लेन से अपने घर से छाछ मँगवाया करते थे । छाछ तो रोजाना की चीज है मगर चप्पलें तो कोई साल दो साल में एक बार खरीदनी होती हैं । हम दिन में दो बार मंदिर जाते हैं और एक बार सब्जी लेने तो भी हमारी चप्पलें दो-तीन साल चल जाती हैं । आप तो प्लेन से आती जाती हैं तो एक कार्यकाल में एक जोड़ी चप्पलें बहुत । जय ललिता जी के पास तो सुना है कोई सात हजार जोड़ी सेंडिल और चप्पलें हैं मगर उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता । यह ब्राह्मण और दलित के बीच भेदभाव है कि नहीं ?

मान लीजिए यदि आप चप्पल लेने मुम्बई जातीं तो भी तो उतना ही पेट्रोल लगता जितना कि अब लगा होगा । यदि आप ट्रेन से जातीं तो यू.पी. के बीस करोड़ लोगों को आप द्वारा मिलने वाली एक दिन की सेवा का नुकसान उठाना पड़ता मतलब कि बीस करोड़ मानव दिवसों का नुकसान । जीवन को ही चार दिन का माना गया है और इतने दिन तो मुम्बई से चप्पल लाने में ही बीत जाएँगे । फिर जनता की सेवा कब करेंगी । यदि बस से बरेली या कानपुर जाओ तो भी एक डेढ़ दिन लग ही जाता है । और फिर जिसने सेवा को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है उसे चप्पल खरीदने जैसे छोटे काम में अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए । गाँधी जी सूत कातने जैसे छोटे-छोटे कामों में ही लगे रहे इसलिए देश के लिए कुछ खास नहीं कर पाए । जीवन भर सूत कात कर भी दो-चार ढंग के सूट नहीं सिलवा सके । ऐसे ही अधनंगे ब्रिटेन गए और वहाँ की जनता के बीच भारत की इज्जत का कचरा करवा आए । आप जैसी रुआब वाली कोई हस्ती जाती और ब्रिटेन के सम्राट को हड़काती तो बच्चू के होश ठिकाने आ जाते और फटाफट आज़ादी दे देता । और ऊपर से माफ़ी माँगता सो अलग । अब बताइए कि आपका चप्पल लेने जाना सस्ता और समझदारी का काम है कि आपका चप्पल मँगवाना ?

अब यह हमारी तरह कोई रिटायर्ड मास्टर का चप्पल खरीदना या उसकी मरम्मत करवाना थोड़े ही है कि कहीं भी पटरी के किनारे उकड़ू बैठ कर हो गया । मान लीजिए कि हमारी नई चप्पल दो दिन काटे भी तो क्या फर्क पड़ता है । मगर प्रधान मंत्री के जूते काटने लगें या किसी मुख्यमंत्री की चप्पलें काटने लगें तो वहाँ की सारी जनता लंगड़ाने लग जाएगी । और फिर आज के ज़माने में आदमी के गुणों को समझने की फुर्सत किसे है ? आजकल तो आदमी जूतों और कपड़ों से ही तो पहचाना जाता है । वैसे जहाँ तक जूतों और चप्पलों का प्रश्न है लोग अपने प्रिय नेता को जब चाहे माला बनाकर पहनाने को तत्पर रहते हैं या फिर पास जाने की सुविधा न मिलने पर दूर से ही प्रक्षेपित कर देते हैं । ऐसे अवसरों पर प्राप्त होने वाले जूते या चप्पल प्रायः एकवचन में ही होते हैं । इनका द्विवचन के बिना उपयोग भी तो नहीं किया जा सकता और फिर इनकी क्वालिटी प्रायः अच्छी नहीं होती ।

अपने देश में तो शाहजहाँ नामका एक बादशाह हुआ है जो आज से तीन सौ बरस पहले बीस करोड़ की कुर्सी पर बैठता था जो आज के हिसाब से एक लाख करोड़ की होगी । आपने एक जोड़ी चप्पल मँगवा लीं तो गुनाह हो गया । और फिर यह भी नहीं कि आपने कोई वैसे ही चप्पलें उठवा ली हों जैसे कि कोई पुलिस वाला सड़क के किनारे किसी ठेले से केले उठा कर खा जाए । बाकायदा पैसे दिए हैं । नेता होने का यह मतलब तो नहीं कि आदमी अपनी पसंद की चप्पलें भी नहीं पहन सके । अब आप देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री क्या ममता या मेधा पाटकर की तरह से हवाई चप्पल फटकारती अच्छी लगेंगी ?

जहाँ तक दुनिया की बात है तो आधे से ज्यादा पागल है । एक असांजे के लिए ही क्या दिमाग खराब करना । कितनों को पागलखाने में डालेंगे ? लोगों का क्या, कुछ काम तो है नहीं, बस निठल्ले बैठे बातें बनाते रहेंगे । और कुछ नहीं तो दिल्ली में बैठकर अनशन करने लग जाएँगे । अरे भाई, यदि खाने को रोटी नहीं है तो बताओ । बी.पी.एल. कार्ड बनवा देंगे । इनकी बातें मानने लगे तो चल लिया देश । सुरक्षित हो लिया लोकतंत्र । इनकी बातें मानने की जरूरत भी नहीं है । त्रेता में राम ने इनकी बातें मानी तो क्या हुआ ? सब जानते हैं । बड़ी मुश्किल से चौदह बरस का बनवास काट कर कहीं सुख के दिन आए थे कि गर्भवती पत्नी को वन में भेजना पड़ा । आप इन असान्जों पर ध्यान न दें । यह तो चाहता ही यह है कि आप इसे आगरे के पागलखाने में डाल दें तो यह ब्रिटेन की जेल से छूटे और फिर यहाँ के डाक्टरों से मिल कर अस्पताल में ही मज़े करे जैसे कि अपने यहाँ तरह-तरह के भैया और पप्पू और साधू जेलों में जन्मदिन मनाते हैं, कैबरे करवाते हैं, मोबाइल से अपना धंधा चलाते हैं । इसने तो अमरीका के बारे में जाने कितने लाख पेज फोटो स्टेट करके भेजे थे ? कुछ हुआ क्या ? लोकतंत्र में ऐसी छोटी-मोटी आतिशबाजियाँ होती ही रहती हैं । होनी भी चाहिएँ । इससे माहौल बना रहता है वरना तो लोगों को पता भी नहीं चलता कि कौन कब मर गया या कौन कब, कहाँ का मुख्यमंत्री बन गया ? जिस अभिनेत्री के बारे में कुछ भी नहीं छपता उसे फ़िल्में मिलनी बंद हो जाती हैं ।

और भी एक बात लाया है यह असांजे । कहता है कि आप खुद खाने से पहले कुछ आदमियों को खाना चखावाती हैं कि कहीं खाने में ज़हर तो नहीं है । दोष देखने वालों को क्या कहा जाए । बड़े आदमी केवल अपने लिए ही नहीं जीते । वे पहले चार आदमियों को खिला कर खाते हैं । ब्राह्मण खाने से पहले दो-चार ग्रास कुछ अछूता निकालते हैं वैसे ही आप खाने से पहले यदि दो आदमियों का पेट भरती हैं तो यह आलोचना की बात हो गई ? आज तक मरा है क्या कोई आपके खाने में से खाना खाने से ? आप उन लोगों में से नहीं हैं जो अपना खाना खाने का खर्च बचाने के लिए किसी गरीब के घर जा धमकें और बेचारे का किसी तरह से जुटाया खाना चट कर आएँ ।

और कहा गया है कि जो कुछ आदमी अपने हाथ से दान कर जाता है वही उसके साथ जाता है । तो आप तो वैसा भी कुछ नहीं कर रही है कि जनता के पैसे से अपने लिए स्वर्ग में कुछ जमा करवा रही हैं । जहाँ तक बैंक बैलेंस की बात है या मकान की बात है या चप्पलों का सवाल है तो ये क्या आप अपने साथ ले जाएँगी ? कितने हैं जो जनता की सेवा के लिए ब्रह्मचर्यव्रत धारण करते हैं ? लोग तो सरकारी खर्चे पर बच्चों का उत्पादन कर रहे हैं । आपके तो कोई बालबच्चे भी नहीं हैं जो आपके पीछे से भोगेंगे यह सब । जो कुछ है वह सब इसी देश में रह जाएगा । इसी जनता के काम आएगा । और वैसे भी मरने के बाद जूते-चप्पल ही क्या, मृतक का सारा सामान ही दान कर दिया जाता है

अब पता नहीं, लोग क्या सोच कर आपकी आलोचना कर रहे हैं । हमारी तो समझ में आता नहीं । आप तो गौतम बुद्ध, साहू जी महाराज, अम्बेडकर जी, कांसीराम जी का नाम लेकर इसी तरह से निःस्वार्थ भाव से, बिना एक भी पल फालतू के कामों में व्यर्थ किए, लगी रहिए सेवाकार्य में । बड़े भाग्य से मिलता है जनसेवा का अवसर । वैसे भी जनता तो पैदा ही सेवा करवाने के लिए होती है । आप नहीं करेंगी तो कोई और यू.पी. की जनता का 'कल्याण' करने के लिए 'मुलायम' होकर 'अमर' हो जाएगा । तो फिर आप ही क्या बुरी हैं ।

६ सितम्बर २०११

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