Apr 26, 2011

माले-मुफ्त : दिले-बेरहम



चाय की एक फुल चुस्की लेकर तोताराम बोला-
अब विलंब केहि कारण कीजे ।
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे । ।

भ्राता श्री, अब जब अवसर सामने है तो करणीय करने के लिए तुरंत आज्ञा दीजिए ।

हमने कहा- कैसी आज्ञा कपिश्रेष्ठ ?

तोताराम- यही कि सचिन और धोनी को 'रत्न' घोषित कर दिया जाए ।

हमने कहा- यह अधिकार तो भारत सरकार का है । हम इसमें क्या कर सकते हैं ?

तोताराम- भारत सरकार का क्या है ? उसे तो जागने में बहुत समय लगेगा । कितने दिन हो गए लोगों को कहते मगर सरकार ने सचिन को 'भारत रत्न' अभी तक नहीं दिया । अटलजी-कांसीरामजी वाला मामला तो चलो राजनीतिक था मगर इसमें तो कोई चक्कर ही नहीं है । सोनिया जी, मनमोहन जी, राहुल जी सभी मैच देखने गए और खुश हुए । झारखण्ड सरकार ने तो इंतज़ार नहीं किया और फटाफट 'झारखण्ड रत्न' दे दिया । यह ठीक है कि अपने राजस्थान का कोई खिलाड़ी नहीं है मगर इससे क्या होता है ? हरियाणा सरकार ने दिल्ली के वीरेंद्र सहवाग को पुरस्कार दिया कि नहीं ?

हमने कहा- यदि देना ही है तो सारी टीम को एक-एक करोड़ रुपए दे दे । सभी खिलाड़ियों को एक-एक बँगला या प्लाट दे दे । सभी मुख्यमंत्री देने की घोषणा कर रहे हैं कि नहीं ?

तोताराम कुंठित नहीं हुआ । कहने लगा- इन मुख्यमंत्रियों के बाप का क्या जा रहा है इसमें ? सब जनता के टेक्स का पैसा है । ये तो मुफ्त में श्रेय और प्रसिद्धि बटोर रहे हैं । अपनी जेब से दें तो जानें । और फिर इन सब खिलाड़ियों के पास कई-कई मकान और प्लाट हैं । पैसे भी बहुत कमा रहे हैं और बड़ी कंपनियों में अफसर बने हुए हैं । और मजे की बात यह है कि किसी के पास भी उस पद के लायक शैक्षणिक योग्यता नहीं है । सारे समय खेलते रहते हैं और मुफ्त की तनख्वाह पेल रहे हैं । यदि पैसा ही देना है तो उन गरीब खिलाड़ियों को दें जो क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों में हाड़ तोड़ रहे हैं और उनके खाने के पैसों तक में से भी अफसर खा जाते हैं । क्या गोपी चंद पुलेला ने बैडमिंटन में देश का गौरव नहीं बढ़ाया ? मगर उसे क्या मिला ? बेचारा भला आदमी है इसलिए कोकाकोला का विज्ञापन भी यह कह कर ठुकरा दिया कि मैं जब खुद कोकाकोला ठीक नहीं समझता तो दूसरों को उसे पीने के लिए कैसे कह सकता हूँ । और ये हैं कि शराब का विज्ञापन भी कर रहे हैं । इसलिए यदि नकद पुरस्कार देना होगा तो गरीब खिलाड़ियों को देंगे इनको तो मैंने केवल 'रत्न पुरस्कार' देने का ही निश्चय किया । तू उस समिति का अध्यक्ष है इसलिए बिना विलंब के इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दे कि "राजस्थान रत्न पुरस्कार समिति सर्व सम्मति से सचिन और धोनी को 'राजस्थान रत्न' पुरस्कार देने की घोषणा करती है । "

हमने कहा- पर यह तो राजस्थान सरकार का काम है ।

तोताराम ने कहा- राजस्थान में इस तरह की कोई समिति नहीं । यदि हमने पहले समिति बना ली है तो कोई चेलेंज नहीं कर सकता ।

हमने कहा- मान ले राजस्थान सरकार ऐतराज नहीं करे पर सचिन और धोनी जब यहाँ पुरस्कार लेने के लिए आएँगे तो कितना खर्चा होगा ? वह हम कहाँ से लाएँगे ?

तोताराम के पास इसका भी ज़वाब था । बोला- निमंत्रण पत्र में लिख देंगे- सम्मान लेने के लिए आने-जाने और ठहरने का खर्चा सम्मानित होने वाला व्यक्ति स्वयं वहन करेगा । फिर कोई नहीं आने वाला । हम यह सम्मान उन्हें डाक से भेज देंगे मगर तब तक इस बहाने अखबारों में खबर तो छप जाएगी ।

हमें लगा, हमने अब तक तोताराम की प्रतिभा को क्यों नहीं पहचाना ! और हमने तोताराम के प्रस्ताव पर अध्यक्ष की हैसियत से हस्ताक्षर कर दिए ।

५-४-२०११

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Apr 11, 2011

फंक्शन से पहले फ्रेक्चर

राहुल जी,
नमस्ते । १ मार्च को एक्सरसाइज़ करते हुए आपकी टाँग में फ्रेक्चर हो गया । आशा है कि अब तक आपकी टाँग का फ्रेक्चर ठीक हो गया होगा । वैसे हमें लगता है कि फ्रेक्चर कोई सीरियस नहीं रहा होगा । तभी तो क्रिकेट मैच देखने मोहाली गए और उछल-उछल कर खिलाड़ियों का हौसला बढ़ा रहे थे । आप सोच रहे होंगे कि हमने आपके फ्रेक्चर के बारे में अब तक क्यों नहीं पूछा ? क्या पूछते, फ्रेक्चर तो ऐसी परेशानी है जिसे एक निश्चित समय तक झेलना ही पड़ता है । डाक्टर प्लास्टर पर ही लिख देता है कि फलाँ तारीख को खुलेगा प्लास्टर । वैसे प्लास्टर बँध जाने के बाद कोई खास परेशानी नहीं होती । आदमी लकड़ी का सहारा लेकर आराम से चल सकता है । वैसे ऐसी भी क्या एक्सरसाइज़ ? आपको कौन सा सलमान खान की तरह कमीज उतार कर अपनी सिक्स पैक बॉडी दिखानी है ? अभिनेताओं की बात और है । उन्हें तो अपने शरीर का प्रदर्शन करके और कमर मटका कर दो रोटी कमानी होती है । आपको तो दलितों के घर जाकर भारत की खोज करनी है । उसके लिए तो आप फिटफाट हैं ही ।

एक बार अटल जी की टाँग में भी चुनावों के समय फ्रेक्चर हो गया था मगर वे प्लास्टर बाँधे-बाँधे ही चुनाव प्रचार में जाते थे । प्लास्टर वाली टाँग को एक स्टूल पर रख लेते थे और भाषण देते रहते थे । एक बार लालू जी के साथ भी ऐसा ही हुआ था, पर काम-धाम नहीं छोड़ा । एक बार चुनाव प्रचार में किसी शरारती ने इंदिरा जी पर पत्थर फेंक दिया जिससे उनकी नाक पर चोट आ गई मगर उन्होंने चुनाव प्रचार जारी रखा । आपको भी यदि चुनाव के दौरान यह फ्रेक्चर हो जाता तो आप भी चुनाव प्रचार नहीं छोड़ देते ?

यह ठीक है कि लड़की की शादी में बिना बुलाए भी आदमी जाता है मगर लड़के की शादी में हजार नखरे करता है । ठीक है लड़के की शादी थी मगर इतना तो सोचते कि आप परिवार में सबसे बड़े मेल मेंबर हैं । आप किसको नखरे करके दिखाते ? औरतों के बस का सब कुछ थोड़े ही होता है । और फिर मंडप के नीचे सज्जन गोठ, मिलनी, पीळा ओढ़ना, साँख जलेबी खाना, रुपयों से नव वधू की अंजलि भरना, पहरावानी लेना, थैली रखना और शादी के बाद घर आकर पग पकड़ाई का दस्तूर- ये काम तो परिवार के सबसे बड़े पुरुष के ही होते हैं । यह ठीक है कि शादी-ब्याह में स्वस्थ हो तो मजा अधिक आता है पर आपको कौनसा घोड़ी के आगे नाचना था । यह काम तो छोरे-छापरों का होता है । वैसे आप कौन से बूढ़े हो गए मगर परिवार के बड़े-बड़ेरे होने के कारण न तो नाचना शोभा देता और न ही व्यस्तता के कारण संभव होता । अरे भई, वाकिंग स्टिक लेकर थोड़ा लँगड़ाते हुए चले जाते मगर जाना चाहिए था । आपके जाने से और शोभा होती । हमने तो ऐसे-ऐसे लोग देखे हैं जो खाट पर लेट कर भी बारात में जाते हैं फिर भले ही वहाँ मिठाई की जगह दाल-फुल्का खाने का नया झंडा खड़ा करना पड़े ।

प्रियंका भी जाती तो कितना मज़ा आता । अब वरुण के और कौनसे दस-बीस भाई-बहन हैं । आप दोनों ही तो हैं । प्रियंका घोड़ी की बाग गूँथती, नून-राई करती, दुल्हन के आने पर दरवाजा रुकवाई का नेग माँगती । वाड्रा जी भी नहीं गए । अब बताइए किसने तो वरुण को पेचा बाँधा होगा और किसने लड़की वालों के यहाँ जाकर माँडे में खाँड-पूड़ा बाँधा होगा, वरुण की साळाहेली ने किसे धड़ा मारा होगा ? सोनिया जी भी जातीं तो कितनी शोभा होती ? मुँह दिखाई, सिर-गूँथी के नेग क्या घर की बड़ी-बूढ़ियों के बिना मजा दे सकते हैं ?

आप कहेंगे कि दोनों की राजनीतिक पार्टियाँ अलग-अलग हैं । अरे, राजनीति, राजनीति ! पर ऐसी भी क्या राजनीति कि खून के रिश्ते ही टूट जाएँ ? और लोग भी राजनीति करते हैं मगर ऐसा तो कहीं नहीं देखा । विष्णु हरि डालमिया विश्व हिंदू परिषद में और संजय डालमिया उसके धुर विरोधी मुलायम सिंह के साथ । वसुंधरा राजे भाजपा के साथ तो ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के साथ । तो क्या शादी ब्याह में नहीं जाते एक-दूसरे के यहाँ ? क्या कांग्रेस ने ‘लिट्टे’ का समर्थन करने वाले करुणानिधि की पार्टी से समझौता नहीं किया ? राजनीति में कोई किसी का स्थाई शत्रु या मित्र नहीं होता । कुर्सी के लिए शत्रु से भी समझौता किया जाता है । फिर यह तो अपना ही खून है । क्या नाखून अँगुलियों से अलग हो सकते हैं ? पानी को कौन तलवार काट सकती है ?

एक बात और कहें ? शादी में जब दूल्हा घोड़ी पर बैठता है तो भाभी उसकी आँख में काजल लगाती है तो एक आँख में ही काजल डाल कर रुक जाती है और जब तक मनमाना नेग नहीं मिल जाता तब तक दूसरी आँख में काजल नहीं डालती । शादी के बाद जब दुल्हन ससुराल आती है तो देवी-देवता धोकने जाते हैं वहाँ देवर-भाभी सोट-सोटकी खेलते हैं । अब बेचारे वरुण को आपने इस आनंद से भी वंचित कर दिया । क्या आपने ब्रह्मचर्य व्रत ले रखा है ? कभी न कभी तो करेंगे ही शादी ? समय से कर लेते तो कितना आनंद होता वरुण की शादी में ?

खैर, आपकी मर्जी । हम कौन होते हैं बीच में टाँग अड़ाने वाले ? मगर सच मानिए, यह टाँग अड़ाना नहीं है । एक बुजुर्ग की नेक सलाह है । शादी-ब्याह तो समय पर होते ही हैं । वक्त निकल जाता है और बात रह जाती है । सो वक्त निकल गया मगर अब बात सदा चलेगी ।

अब जब आप अपनी शादी में वरुण, यामिनी और चाची को बुलाने जाएँगे तो किस बूते पर आग्रह करेंगे ?

३१-३-२०११

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

स्वागत विशेषज्ञ हम

( वारेन बफेट और बिल गेट्स दोनों २३ मार्च २०११ को भारत आए । दोनों का भव्य स्वागत हुआ । )


वारेन बफेट साहब,
आप आए, धन्न भाग । वैसे आजकल आप ही नहीं, सारी दुनिया भारत में आने के लिए मरी जा रही है । पिछले साल ही आपने देखा होगा कि दुनिया की पाँचों महाशक्तियाँ रूस, चीन, अमरीका, फ़्रांस, ब्रिटेन- सब एक महीने के भीतर ही इस देश का चक्कर लगा गए । आखिर कोई तो बात है ही ना; वरना बताइए ये सब और आप, और बिल गेट्स कितनी बार गए अब तक पकिस्तान और चीन ? क्योंकि पाकिस्तान में तो वे हर आने वाले से आतंकवाद से लड़ने के नाम पर सहायता माँगते है और चीन वाले किसी का सामान लेने के बजाय अपना ही माल भिड़ाने की फिराक में रहते हैं ।

पहले दुनिया भर से लोग यहाँ ज्ञान प्राप्त करने के लिए आते थे, फिर लूटने, फिर व्यापार के बहाने यहाँ के मालिक बनने- जैसे अंग्रेज, पुर्तगाली आदि । और अब यहाँ राज करने और लूटने के लिए वैसे आने की ज़रूरत नहीं रही । ज़माना बदल गया है । पैसा ही तो चाहिए । और यदि वह बिना हथियार उठाए या राज किए मिल जाए तो फिर क्या ज़रूरत है गले में घंटी बाँधने की । सामान बेचो, नोट जेब में रखो और जय राम जी की । पहले यह देश जगद्गुरु था, सोने की चिड़िया था, मगर अब तो मात्र एक बाज़ार है जहाँ कोई भी आकर कुछ भी बेच सकता है । यहाँ तो वह हालत हो रही है जैसे किसी का बाप खूब पैसे छोड़ कर मर जाए और बेटे में न कोई अकल हो और न कोई अच्छी आदत । फिर उससे पैसे निकलवाने में कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती । सो समझिए कि आजकल भारत में इसी लिए आने वाले लोगों की भीड़ लगी हुई है । बेवकूफ सपूत को पटाने की लिए कोई उसे महाशक्ति बता रहा है, तो कोई महान लोकतंत्र और कोई सबसे तेज़ी से बढती अर्थव्यवस्था । पर हम जानते हैं कि वास्तव में इस देश की हालत ? कब्र में कितनी उमस है यह जनाजे में आने वाले थोड़े ही समझ सकते हैं । यह तो मुर्दा ही बता सकता है । मगर वह बोल नहीं सकता और दुनिया में इतनी संवेदना नहीं है कि समझ सके । बाहर से आने वाले, कमीशन देकर सौदा पटाने वाले तो वह स्वागत देखते हैं जो दलाल उनका करते हैं ।

आप तो खैर, दानवीर हैं और दुनिया के नंबर तीन धनपति हैं और सुना है कि आपने बहुत सा धन ( कोई तीस बिलियन डालर ) दान में भी दिया है जो आपकी संपत्ति का कोई साठ प्रतिशत है । हमारी तो गणित भी इतनी अच्छी नहीं है कि हिसाब लगा सकें कि कितने मास्टरों की, कितनी जिंदगियों की कुल कमाई का बराबर है यह राशि ? वैसे हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि यदि हमारे पास इतनी संपत्ति होती तो हम उसका ६० प्रतिशत क्या, ९९.९९९९९ प्रतिशत दान में दे देते । खैर, आपने अपने मित्र बिलगेट्स की ही एक संस्था को यह राशि दी है जो आशा है सही ढंग से इसका उपयोग करेगा । वैसे यह बात और भी है कि सेवा का धंधा करने वाले बड़े 'वैसे' होते हैं । वे आदमी तो क्या, भगवान को भी चूना लगा देते हैं ।

होने को तो हमारे यहाँ भी कई दानी हुए हैं जैसे- शिवि, दधीचि, कर्ण आदि मगर उन्हें मीडिया ने पुराना मानकर कोई ज्यादा कवरेज नहीं दिया । वैसे भी उनका दान कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है क्योंकि दधीचि के पास तो कुछ था भी नहीं । शरीर पर माँस तक नहीं था । ये तो खैर, देवता संतोषी थे जो माँस नहीं तो हड्डियों पर ही मान गए । अब हड्डियों का भी कोई मोल होता है क्या ? एक थे शिवि जिन्होंने एक कबूतर के बदले छद्मवेशी इंद्र को थोड़ा सा माँस दे दिया और दानी बन गए । आपके तीस बिलियन डालर में तो इतना माँस और हड्डियाँ आ जाएँ कि सारा चीन बरसों तक खाता रहे तो भी नहीं निबटे ।

आप जब आए तो हम यही सोच रहे थे कि आप अबकी बार बिल गेट्स की तरह कुछ दान-दक्षिणा देने आए हैं मगर बाद में पता चला कि आप तो यहाँ कुछ कंपनियाँ खरीदने आए हैं । इस समय ऐसे सौदों के लिए भारत से बेहतर कोई और देश नहीं है । यहाँ कमीशन खाकर सरकारें सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियाँ सस्ते में बेच रही हैं । एक खाद का कारखाना हुआ करता था सिंदरी में । सुना करते थे कि वह एशिया का सबसे बड़ा खाद का कारखाना है । उसे सरकार ने तीन सौ करोड़ में बेच दिया । इसी तरह एक अल्यूमिनियम का कारखाना था जिसे भी बहुत सस्ते में बेच दिया । और इसी दौरान एक निजी कारखाने को ख़रीदा भी जिसका वास्तविक से बहुत ज्यादा मूल्य दिया गया । इस प्रकार दोनों तरह से देश को नुकसान हुआ । मगर इस समय देश के नुकसान-फायदे से ज्यादा लोग अपने व्यक्तिगत फायदे की फिक्र में हैं । सो कमीशन देकर अच्छे-अच्छे सरकारी कारखाने हथियाने का यह सबसे बढ़िया मौका है । आप बहुत सही समय पर आए हैं । वैसे आप समय को पहचनाने के लिए ही तो जाने जाते हैं । कब, कौनसी कंपनी खरीदना है यह तो कोई आपसे सीखे ।

हमने आपके बारे में पढ़ा है कि आपने दस वर्ष की आयु में पहला शेयर खरीदा और उसमें अच्छा मुनाफा कमाया । शेयर भी एक प्रकार का जुआ ही है । बस थोड़ी सी अक्ल और कैल्कूलेशन आना चाहिए । हमने भी आपकी ही तरह से दस वर्ष की उम्र में ही एक सट्टा खेला था । हुआ यूँ कि एक रात हमें सपना आया कि साँप ने हमें काट लिया । जब हम अपना सपना अपने एक मित्र को बता रहे थे तो भगवाना राम ताऊ ने सुन लिया । ताऊ नंबरों का सट्टा किया करते थे । इस सट्टे में एक से दस तक नंबरों पर सट्टा लगता है । यदि आपका बताया नंबर आ गया तो आपको उस दिन के भाव के अनुसार रुपए मिल जाते हैं । मान लिया कि आपने कहा कि कल सात नंबर आएगा और उस दिन सात के अंक का भाव है दस रुपए और आपने एक रुपया लगाया और अगले दिन सात नंबर ही आ गया तो आपको एक रुपए के दस रुपए मिल जाएँगे । ताऊ ने हमारी बात सुन कर कहा कि कल सत्ता (७ का अंक ) आएगा । इसके बाद हमारे आग्रह पर ताऊ ने हमें सारी प्रक्रिया समझाई । हमने कहा- ताऊ, हमारे पास पैसे नहीं हैं, नहीं तो हम भी एक रुपया लगा देते । ताऊ को पता नहीं हमारी किस्मत पर या अपने शकुन शास्त्र पर गहन विश्वास था । उन्होंने हमारे नाम से भी एक रुपया दस के भाव में लगा दिया । और मज़े की बात कि अगले दिन 'सत्ता' ही आ गया । हमने वे रुपए ताऊ के पास ही जमा रखे । अब तो हमें रोज रात को सपने आने लगे । हम सुबह उठते ही ताऊ को सपना सुनाते और ताऊ उनका अर्थ निकाल कर सट्टे के नंबर लगाते रहते । हम भी जब तब उन दस रुपयों में से ताऊ के थ्रू कभी चवन्नी, कभी अठन्नी लगाते गए मगर कभी हमारा नंबर नहीं लगा । और एक दिन हमारे दस रुपए समाप्त हो गए । और इस प्रकार हमारे इन्वेस्टमेंट करने की कहानी किशोरावस्था से पहले ही समाप्त हो गई ।
अब हम कभी-कभी सोचते हैं कि कहीं ताऊ ने ही तो हमारे दस रुपए नहीं पचा लिए क्योंकि हम तो बाज़ार में जाकर नंबरों का भाव और उस दिन का नंबर मालूम कर नहीं सकते थे । जो ताऊ ने कह दिया सो सच मानना पड़ता था । पर आपके बिल गेट्स-मिरांडा फाउन्डेशन को दिए गए दान के बारे में ऐसी बदमाशी होने की संभावना नहीं हैं क्योंकि वे भी बहुत ईमानदार और धनवान आदमी हैं । ईमानदार होना बड़ी बात है वरना ज़रूरी नहीं है कि धनवान ईमानदार हो ही बल्कि हमने तो यहाँ तक देखा है कि जो ज्यादा धनवान है वह ज्यादा कमीना और बेईमान है । अब यदि थोड़ी बहुत ईमानदारी बची है तो वह किसी गरीब में ही बची है क्योंकि वह ९९ के फेर में नहीं है ।

हमारे एक चाचा थे जो पंडिताई का धंधा करते थे । व्यापार का कोई अनुभव नहीं । एक बार प्याज के भाव बहुत चढ़ गए । सो उन्होंने भी अगले साल प्याज का स्टाक करने का विचार किया । कई बोरे प्याज खरीद कर धर्मशाला में रखवा दिए और अपने धंधे में लग गए । प्याज के भाव तो नहीं बढ़े मगर गर्मियों में प्याज सड़ गए और बदबूदार तरल पदार्थ कमरे से बाहर निकल कर बहने लगा । फायदा होना तो दूर उन सड़े प्याजों को फिंकवाने का खर्च और लगा । सो फायदे का सौदा पहचानने और उसमें समय से पैसे लगाने की समझ हर किसी में नहीं होती ।

सो हमारा इन्वेस्टमेंट का अनुभव तो कोई अच्छा नहीं है फिर भी हम यहाँ के नेताओं और सेवकों को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं सो आपको इसी क्षेत्र से संबंधित कोई सलाह दे सकते हैं । धंधा करने वाले आदमी को भला-बुरा नहीं देखना चाहिए । एक बार किसी सेठ से भूल से कोई अच्छा काम हो गया । मरने के बाद जब वह चित्रगुप्त के पास ले जाया गया तो उसे पूछा गया कि तुम्हें कहाँ भेजें ? तो सेठ ने कहा- महाराज, आप स्वर्ग-नर्क के चक्कर में नहीं पड़ें । मुझे तो आप दोनों के बीच में थोड़ी सी जगह दे दीजिए जहाँ दुकान लगा लूँगा । दोनों तरफ के ग्राहक आएँगे और दो पैसे की कमाई हो जाएगी । मतलब कि स्वर्ग में भी कमाई का ही ख्याल ।

एक सज्जन थे जो किसी के यहाँ भी मौत होने पर शोक व्यक्त करने अवश्य जाते थे । वहाँ वे मृतक के परिजनों के गले लगकर शोक व्यक्त करते और बहुत रोते जैसे कि उनका ही कोई स्वजन मर गया हो । बाद में जीवन की नश्वरता के बारे में बहुत भावपूर्ण ढंग से विचार व्यक्त करते और अंत में उस परिवार के एक आध व्यक्ति को बीमा पालिसी दे ही आते थे । एक और सज्जन थे । परचून के व्यापारी । कहीं भी जाते, भले ही रिश्तेदारी में तीए की बैठक में ही गए हों, आजकल के बुरे ज़माने की चर्च करते और फिर बात जीरे, दाल, धनिए आदि के सौदे पर आकर खत्म होती । सो आप तो काम का प्रकार मत देखिए । आप तो यह देखिए कि कम से कम इन्वेस्टमेंट करके कैसे अधिक से अधिक टेक्स फ्री धन कमाया जा सकता है ?

इस समय दुनिया में सबसे बढ़िया धंधा तो धर्म का है । सुनते हैं कि वेटिकन का दुनिया में ईसाई धर्म फ़ैलाने के लिए कोई पचासों ट्रिलियन का टर्न-ओवर है जिसमें से ईसाई बनने वालों को तो कोई १ प्रतिशत मिलता होगा बाकी ९९ प्रतिशत तो चर्च वाले अपने ऐश आराम और चोगे धुलवाने में खर्च कर देते हैं जैसे कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पाकिस्तान में आने वाले एक डालर में से नब्बे सेंट तो आई.एस.आई. और अल-कायदा वाले खा जाते हैं और १० सेंट अफगानिस्तान की सीमा पर झूठ-मूठ की बंदूकें चलवाने और अखबारों में आतंकवाद से मज़बूती से लड़ने के समाचार छपवाने में खर्च किया जाता है । वैसे ही जैसे भारत सरकार का दिल्ली से चला एक रुपया आम आदमी तक पहुँचते-पहुँचते पाँच पैसे रह जाता है । फिर भी हमें धार्मिक धंधे का इतना अनुभव नहीं है कि आपका मार्ग दर्शन कर सकें । हाँ, धर्म जैसे ही कुछ भावनात्मक क्षेत्र हम आपको सुझा सकते है जिनमें काफी स्कोप हो सकता है । भावनात्मक धंधे में सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसकी ऑडिट गंभीरता से नहीं होती । वैसे तो गंभीर ऑडिट को भी प्रभाव, दबाव या खिलाव-पिलाव से सरल बनाना कोई कठिन नहीं है ।

इस धर्म-प्राण देश के बारे में कहा जाता है कि इसकी आत्मा तीन चीजों में बसती है- गाय, गंगा और गीता । यदि आप चाहें तो किसी धर्म-धुरंधर के साथ मिलकर इनमें से किसी भी क्षेत्र में धंधा कर सकते हैं । गायें यहाँ बहुत हैं । जितनी घरों में उससे ज्यादा सड़कों पर और उनसे ज्यादा गौशालाओं में । और यह संख्या गायों के अवैध रूप से कटते रहने के बावज़ूद है ।
आप तो यहाँ गौशाला का धंधा खोल लीजिए । आपको इसके बारे में सारी बातें मात्र पाँच हज़ार रुपए में बताने वाले मार्गदर्शक आसानी से मिल जाएँगे । कभी-कभी जाँच होने पर दिखाने के लिए थोड़ी सी खाली ज़मीन होनी चाहिए कि यहाँ है गौशाला । जहाँ तक गायों की बात है तो उन्हें वास्तव में रखने के लिए की ज़रूरत नहीं है । कभी भी चारे के चार तार फेंक देंगे तो सड़क पर घूमती हुई सैंकडों गाएँ वैसे ही बाड़े में आ जाएँगी । यदि थोड़ी बहुत गाएँ रखनी भी पड़ें तो इन्हें खिलाने की कोई खास ज़रूरत नहीं है । आपके यहाँ तो माँस के लिए गाएँ पाली जाती हैं । इसलिए उनका ज़ल्दी से ज़ल्दी मोटा होना ज़रूरी है पर ये गाएँ तो लोगों के दिल में दया उपजा कर चंदा लेने के लिए पाली जाती हैं इसलिए इनका मरियल होना ही इनकी विशिष्टता है । जितनी मरियल होंगी उतनी ही लोगों को दया आएगी और उतना ही अधिक चंदा मिलेगा । बस, एक बाबू रख लीजिएगा जो कागजों पर गायों के खाने, मरने, ब्याने, चंदे और सरकारी अनुदान आदि का हिसाब रखता रहेगा । एक गाय रखने पर सरकार की तरफ से बीस रुपए मिलते हैं । एक हजार गाएँ भी रखेंगे तो दिन के बीस हज़ार रुपर बिना किसी मेहनत के खरे हो गए । और ऊपर से चंदा-चिट्ठा अलग । धर्मात्मा कहलाओगे सो ऊपर से । यदि भगवान को भी गौशाला के कागजों से बहला सके तो स्वर्ग में सीट भी पक्की । लोक और परलोक दोनों सुधरने की पूरी संभावना ।

यदि आपको और धर्म का काम करके कुछ कमाने की इच्छा है तो गंगा सफाई का धंधा पकड़ लीजिए । दुनिया में पर्यावरण सुधारने के लिए नोबल पुरस्कार भी मिल सकता है । ओबामा को तो राष्ट्रपति बनते ही नोबल पुरस्कार के काबिल मान लिया गया तो आप तो वास्तव में पर्यावरण सुधारने का काम करेंगे । वैसे अब तक हमारे यहाँ के लोगों ने भी गंगा की सफाई करने का काम किया है और बड़ी सफाई से पूरा बजट निबटा दिया । गंगा का तो क्या है उसे तो वैसा ही रहना है । इतने पापों को धोते-धोते गन्दा होना स्वाभाविक ही है । और फिर टिहरी में बाँध बनने के बाद तो उसका अस्तित्त्व भी मिटने वाला है । ऐसा हो उसके पहले आप भी दस-बीस अरब कमा ही लीजिए । अमरीका वालों को ठेका देने में हमारी सरकार का अधिक विश्वास है । भले ही परमाणु बिजली घरों की सुरक्षा पर प्रश्न उठ रहे हों मगर यहाँ वे अमरीकी सहयोग से अवश्य बनेंगे । खैर, हम में तो जितनी अकल थी उस हिसाब से हमने निवेश के कुछ क्षेत्र आपको बता दिए, अब आगे आपकी मर्जी ।

आप कैसा धंधा करेंगे यह तो आप जाने और भविष्य, मगर आपने जो अपने स्वागत से गदगद होने की बात कही वह वास्तव में सच है । यह देश पुराने ज़माने से ही स्वागत का विशेषज्ञ है । यहाँ तो जो भी आया उसी का दिल खोलकर स्वागत हुआ । सिकंदर और मुहम्मद गौरी को तो हमारे यहाँ के स्वागत-प्रिय लोग सीमा पार से बुलाने तक गए । यहाँ वास्कोडिगामा आया तो उसका इतना भव्य स्वागत हुआ कि वह फिर योरप से और भी पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंग्रेजों तक को बुला लाया । उन सब ने यहाँ सैंकडों वर्षों तक राज किया, हमें सभ्य बनाया । आज भी हम उनके गुण गाते नहीं थकते । अंग्रेजों का पहनावा, खान-पान और भाषा तो हमें इतने प्रिय लगे कि हमने अपने वाले सब भुला ही दिए । आज भी गोरे रंग को देखकर हमारी कमर और दिल अपने आप झुकने लग जाते हैं । अंग्रेजों के खेल क्रिकेट को तो हमने अपना धर्म ही बना किया है । आज भी महारानी एलिजाबेथ हमें भारत माता से कम नहीं लगती । आपके नाम-राशि एक वारेन एंडरसन भी यहाँ आए थे । उनके कारखाने से ऐसी ज़हरीली गैस निकली कि हजारों लोग मर गए और लाखों बीमार हो गए । मगर उसे भी गोरा और विदेशी होने के कारण हमने कोई नुकसान नहीं पहुँचाया बल्कि एक कलेक्टर और एक एस.पी. की अभिरक्षा में उसे सुरक्षित दिल्ली पहुँचाया और फिर वहाँ से सम्मान पूर्वक अमरीका के लिए विदा किया । सो स्वागत के मामले में तो हमारा कोई ज़वाब नहीं है । हमने तो विदेशी कुत्तों और गायों तक का इतना स्वागत किया कि अपने वाले कुत्तों और गायों को सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिया, फिर आप तो गोरे हैं, दुनिया के नंबर दो अरबपति हैं और फिर कुछ न कुछ दान-दक्षिणा देकर ही जाएँगे । हमारे यहाँ तो स्कूल को प्लास्टिक की दो कुर्सियाँ दान देने वाले तक का साफा पहना कर अभिनन्दन कर दिया जाता है ।

हमें इस ज़रा से स्वागत के लिए इतनी प्रशंसा देकर शर्मिंदा मत कीजिए । आप तो बस आते रहिए । हमें स्वागत करने के अलावा और आता ही क्या है ?

२४-३-२०११

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Apr 10, 2011

बुड्ढा होगा तेरा बाप

(अमिताभ बच्चन ने 'बुद्धा' और 'बुड्ढा' में कन्फ्यूजन न हो इसलिए अपनी फिल्म 'बुड्ढा होगा तेरा बाप' में 'बुड्ढा' शब्द की स्पेलिंग रोमन में 'bbuddah' करवाई, १६-३-२०११)


महानायक जी,
नमस्कार । मन तो साष्टांग दंडवत करने का हो रहा है मगर क्या बताएँ कुछ उम्र और कुछ ब्राह्मण होने का दंभ आड़े आ रहा है । आप अन्यथा नहीं लीजिएगा । आपकी नई फिल्म आ रही है -'बुड्ढा होगा तेरा बाप' । पता नहीं, किस महान लेखक ने सुझाया है यह नाम मगर यह तय है कि इस नाम के द्वारा लेखक ने मानव-मन की एक बहुत बड़ी कमजोरी को उजागर कर दिया है । आदमी शादी, बाल-बच्चे और पोते-पोती सब कुछ चाहता है मगर न तो बुड्ढा दिखना चाहता है, न होना चाहता है और न ही बुड्ढा कहलाना चाहता है । जवान दिखने के लिए पता नहीं, क्या-क्या करता है ? सोचता है कि यमराज को धोखा दे देगा । उसे मालूम नहीं कि यमराज के पास सही जन्म तिथि लिखी हुई है और सही समय पर उसके दूत लेने आ जाएँगे और कोई बड़े-से-बड़ा वकील भी जमानत नहीं दिलवा सकेगा ।

आप कोई जवान नहीं हैं और न ही इस फिल्म में जवान का पार्ट किया होगा मगर यह तय है कि जवानों वाला दमखम जरूर दिखाया होगा वरना यह डायलाग हो ही नहीं सकता कि 'बुड्ढा होगा तेरा बाप' । हो सकता है कि फिल्म में आपको किसी ने 'बुड्ढा' कह दिया होगा तो आपने उसे डाँट पिलाई होगी- 'बुड्ढा होगा तेरा बाप' ।

तो फिल्म के नाम को यदि हिंदी में लिखा जाए तो कोई परेशानी नहीं मगर रोमन में लिखते समय आपको लगा कि कहीं लोग buddha को 'बुद्धा' न समझ लें जो कि एक महान व्यक्ति का नाम है । वैसे बुद्ध का नाम रोमन में लिखने के लिए 'buddh' ही पर्याप्त है फिर भी अधिकतर लोग अंग्रेजी के प्रभाव के कारण buddha लिखते हैं । मगर सब जानते हैं, विशेषकर भारतीय कि यह ‘बुद्ध’ ही है ‘बुद्धा’ नहीं है । वैसे जहाँ तक खतरे की बात है तो दोनों में एक जैसा ही है क्योंकि बुद्ध ने तो इस संसार के आकर्षण जवानी में ही छोड़ दिए थे और किसी बुड्ढे व्यक्ति से भी यही आशा की जाती है कि वह बूढ़ा होते-होते इस दुनिया का मोह छोड़ दे । मतलब कि दुनिया के मज़े न तो ‘बुड्ढा’ के लिए हैं और न ‘बुद्ध’ के लिए । वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम इसीलिए बनाए गए हैं । मगर अधिकतर लोग मरते-मरते भी से दुनिया से लिपटे रहना चाहते हैं उन्हें बुड्ढा होने, कहलाने और दिखने से डर लगता है । विशेषरूप से फिल्म वालों को क्योंकि उनकी तो रोटी-रोजी ही इस शरीर और नाचने-उछलने पर चलती है । आप तो खैर, अपनी उम्र के अनुसार ही रोल करते हैं मगर कभी-कभी कहानी की माँग के अनुसार 'कारे कजरारे' गाना पड़ जाए यह दूसरी बात है ।

तो आपने दर्शकों को भ्रम से बचाने के लिए 'बुड्ढा' की स्पेलिंग bbuddah करवा दी । बहुत बढ़िया । वैसे फ़िल्में दर्शकों को भ्रमित करने के ही बनाई जाती हैं । कहीं वास्तव में ही किसी आदर्श को फोलो नहीं करने लग जाएँ इसलिए भाण्ड या नचनिये टाइप आदर्श फिल्मों में दिए जाते हैं अन्यथा बाज़ार का सारा धंधा ही खतरे में पड़ जाएगा । यदि रोमन लिपि में हिंदी को लिखने की ध्वनियाँ नहीं है तो इसकी सज़ा आप हिन्दी को क्यों दे रहे हैं । रोमन में ट,ठ,ड,ढ और त,थ,द,ध की ध्वनियों को लिखने के लिए अलग-अलग चिह्न नहीं हैं । ढ़,ड़ की ध्वनियाँ लिखने के लिए भी नहीं । देवनागरी में लिखने में तो यह समस्या नहीं आती । रोमन में तो सत्ता और सट्टा, पट्टा और पत्ता, गधा और गढ़ा, परी और पारी, गन्दा और गंडा एक ही हैं । और फिर रामगढ़ जैसे शब्द तो आप रोमन में लिख ही नहीं सकते । या तो रामगर्ह (ramgarh) लिखें या रामगढ (ramgadh) जब कि यह शब्द है- रामगढ़ । आपने 'बुड्ढा' की जो रोमन स्पेलिंग सुझाई है उसका उच्चारण होगा 'ब्बुड्डाह' । बंधु, ऐसा तो कोई शब्द किसी भी भाषा में नहीं है । हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में तो हमें एक भी शब्द ऐसा नहीं मिला जिसके शुरु में दो व्यंजन जैसे कि क्क,ख्ख,ब्ब,ग्ग आदि आते हों । हो सकता है, आप दुनिया में जगह-जगह घूमते हैं । किसी भाषा में सुन लिया हो । और फिर जब कोई इस स्पेलिग्न से उच्चारण करेगा तो पहले ब..ब.. करना पड़ेगा तो लगेगा कि शाहरुख की तरह कहीं हकला तो नहीं रहा है । वैसे हम आपको इसका एक हल बताते हैं कि 'बुड्ढा' को क्यों न 'बूढ़ा' कर दिया जाए । न तो अर्थ में कोई फर्क पड़ेगा और न बोलने में कोई परेशानी आएगी । वैसे यह भी बताते चलें कि जब 'बुद्ध' का नाम लिखा जाता है तो या तो 'लोर्ड बुद्ध' लिखा जाता है या 'भगवान बुद्ध' ।

हमने चालीस वर्ष हिंदी पढ़ाई है और आपका जन्म भी एक हिन्दी-भाषी परिवार में हुआ है । आपके पिताजी भी भले ही अंग्रेजी के एम.ए., पी.एच.डी. थे, जीवन भर अंग्रेजी पढ़ाई मगर लिखा हिन्दी में ही । आपको भी हिन्दी अच्छी तरह से आती है फिर आप हिन्दी की ‘हिन्दी’ करने और हमारी रोटी-रोजी पर लात मारने पर क्यों तुले हुए हैं ? हम तो आपके अभिनय वाले क्षेत्र में टाँग नहीं अड़ाते । वैसे अपने भारत में यह भी एक धारणा है कि जो गलत हिंदी बोलता है उसे अंग्रेजी का ज्ञाता मान लिया जाता है ।

और अब बुड्ढे वाली बात, सो बंधु, यदि किसी ने बुड्ढा कह दिया तो क्या आसमान टूट पड़ा । काहे को गुस्सा करना । गुस्सा तो गुस्सा ही है चाहे फिल्म में किया जाए या वास्तव में । स्नायु तंत्र पर जोर तो पड़ता ही है । अब अपन कौनसे जवान हैं ? हम जुलाई २०१२ में सत्तर के हो जाएँगे और आप अक्टूबर २०१२ में । अब मान ही क्यों नहीं लेते सच को ? जितना जल्दी अपने को बूढ़ा मानेंगे उतना जल्दी ही दादा बन जाएँगे । बूढ़े होने का भी एक मज़ा है । पता नहीं, आपको उसका पता चला कि नहीं ? हम तो बुढ़ापे का मज़ा ले रहे हैं और यदि कोई बच्चा अभ्यासवश हमें 'अंकल' कह भी देता है तो हम उसको डाँट देते है और 'दादा' या 'बाबा' कहलवाकर ही पीछा छोड़ते हैं ।

वैसे सुना है कि इस फिल्म में हेमामालिनी हैं जो अभी ड्रीम गर्ल बनी हुई हैं तो फिर उसके साथ हीरो का काम करते हुए 'बुड्ढा' कहलवाना आप तो क्या, देवानंद जी भी बर्दाश्त नहीं कर सकते ।

१७-३-२०११

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Apr 5, 2011

जीत के कारणों का मंथन


आज नया संवत्सर है । विक्रम संवत २०६८ का शुभारंभ । सुबह ज़ल्दी नहा लिए । अंग्रेजी नव वर्ष होता तो नहाने की कोई गारंटी नहीं थी । चबूतरे पर चाय और गुड़ की डली के साथ नव संवत्सर के शुभ प्रभात में तोताराम की प्रतीक्षा कर रहे थे । तोताराम आया । हमने शुभकामनाओं के साथ चाय प्रस्तुत की तो कहने लगा- यह सब बाद में, पहले मंथन करेंगे ।


हमने कहा- बंधु, जब से सरस डेरी में नकली दूध पकड़ा गया है, तुम्हारी भाभी ने मथानी ही उठाकर रख दी है । कहती है कि इस नकली दूध को बिलोने से क्या फायदा ? नेताओं के भाषण की तरह केवल झाग उठते हैं, घी-वी कुछ नहीं निकलता ।

तोताराम ने अपने माथे पर हाथ मारते हुए कहा- प्रभु, मैं दही बिलोने वाले मंथन के बारे में नहीं कह रहा हूँ । मैं तो उस मंथन के बारे में कह रहा हूँ जो राजनीतिक पार्टियाँ किया करती हैं ।

हमने पूछा- तो क्या तुमने कोई पार्टी ज्वाइन कर ली है ? क्या तुझे उसके ‘थिंक टेंक’ में शामिल कर लिया गया है ? और क्या तुम्हारी वह पार्टी हार गई है ? क्योंकि मंथन तो पार्टी की हार के बाद किया जाता है ।

तोताराम चिढ़ गया, कहने लगा- मुझे साँस तो लेने दे । सुब्रमण्यम स्वामी की तरह लगातार बातें उछाले जा रहा है । चुप होकर सुन । मैं न तो किसी पार्टी का सदस्य हूँ और न पार्टी हारी है । मैं तो भारतीय क्रिकेट टीम की जीत के कारणों पर मंथन करना चाहता हूँ ।

हमने कहा- इसमें मंथन करने की क्या ज़रूरत हैं टीम जीत गई सो जीत गई । जीतने के बाद तो देश के धन को भकोसने की योजनाएँ बनाई जाती हैं । बस, अब कुछ दिनों तक सारी समस्याओं का ज़िक्र बंद । उत्सव मनाओ और गर्व से फूल जाओ । दो-पाँच दिन में जब पेट्रोल के दाम बढ़ें या और कोई नया घोटाला सामने आए तब फिर शर्मिंदगी से पिचक जाना । बिल्ली के भाग से छींका टूटना था सो टूट गया । अब कम से कम अगले २८ वर्ष तक इंतज़ार कर फिर छींका टूटने का ।

'फिर भी जीत के कारणों पर विचार तो करना ही पड़ेगा जिससे भविष्य की रणनीति बनाई जा सके'- तोताराम बोला ।

हमने कहा- तो समझ ले मनमोहन सिंह जी मोहाली में मैच देखने गए और उनको देखकर भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले पाकिस्तान के खिलाड़ियों के हाथ-पाँव फूल गए और भारत जीत गया ।

तोताराम ने मना किया- नहीं, यह नहीं हो सकता । यदि इन तिलों में ही इतना तेल होता तो रोना ही क्या था ?

हमने एक और अनुमान व्यक्त किया- हो सकता है, प्रशंसकों के यज्ञ और मन्त्र जाप से यह जीत मिली हो ?

तोताराम ने फिर हमारी बात काट दी- अरे, मन्त्रों से ही कुछ होता तो खेल मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय में बाबा लोग होते । पहले जब गांगुली के भाई ने यज्ञ करवाया था तब क्यों नहीं जीते ? मंत्रों से महँगाई कम क्यों नहीं कर लेते ? मन्त्र बल से बिजली क्यों नहीं बना लेते ? सांसदों को घूस देकर परमाणु समझौते पर बहुमत हासिल करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती ।

'तो फिर हो सकता है कि धोनी ने मुंडन करवाले की मन्नत मानी थी उससे जीत गए हों'- हमने एक और अनुमान फेंका ।

'नहीं'- तोताराम ने फिर मुंडी हिला दी । 'यदि मूँडने से ही मनोकामना पूरी होती तो अब तक सारी भेडें वैकुंठ जा चुकी होतीं । मूँड मुँडाया जाता है तो ओले पड़ने की संभावना ही अधिक होती है' ।

हमने फिर दिमाग पर जोर दिया और कहा- तो फिर यह पवार साहब के गतिशील नेतृत्त्व का चमत्कार है कि टीम जीत गई ।

तोताराम फिर मुकर गया- पवार साहब की बात छोड़, उनका चमत्कार तो यह देश खाद्य वस्तुओं की महँगाई और कृषि की दुर्गति के रूप में कई वर्षों से देखता आ रहा है ।

हमने कहा- तो भैया, तू जीता और हम हारे । अब तो इस रहस्य का उद्घाटन कर । बता, हारते-हारते कैसे जीत गई अपनी टीम ?

तोताराम बोला- यह सब पूनम पांडे की कृपा है जिसके देह-दर्शन के लालच में खिलाड़ियों ने जान लड़ा दी और लोग हैं कि बेचारी को लानतें भेज रहे हैं ।

हम डाँटते तब तक तोताराम गुड़ की डली उठाकर चम्पत हो चुका था ।

४-४-२०११

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach