Jan 31, 2013

तोताराम का विषपान

तोताराम का विषपान

आज तोताराम जैसे ही आया, चबूतरे पर बैठने की बजाय हमें घसीटते हुए अंदर कमरे में ले गया और जेब से एक छोटी सी शीशी निकालते हुए कहने लगा- बंधु, जीवन भर का कहा-सुना माफ़ करना, और बस अंतिम बार गले मिल ले । थोड़ी देर की बात है, कुछ देर मेरे मुँह से झाग निकलेंगे लेकिन तू घबराना मत । और न ही किसी डाक्टर को बुलाना । मैं यह पत्र छोड़ जाता हूँ । कोई झंझट पड़े तो दिखा देना । और उसने हमारे हाथ पर एक कागज का टुकड़ा रख दिया । हमने ध्यान से पढ़ा- लिखा था- मैं अपनी मर्जी से देश के लिए विषपान कर रहा हूँ । इसमें किसी की कोई गलती नहीं है ।

हमने उसके हाथ से वह छोटी सी शीशी छीन ली और उसे डाँटते हुए कहा- मूर्ख मत बन । अभी तीन साल ही की तो बात है । नया पे कमीशन आएगा । चल, बैठकर उसका हिसाब लगाते हैं । और फिर उस शीशी को ध्यान से पढ़ा । उस पर लिखा था-चूहे मारने का अचूक ज़हर जिसकी डेट भी एक्सपायर हो चुकी थी । हमने कहा- पहले तो यह बता तू लाया कहाँ से ? हालाँकि तू इस देश में चूहे से ज्यादा कुछ नहीं है लेकिन ध्यान रख जैसे कपास के कीड़े कीटनाशक से नहीं मरे थे वैसे ही तुझे भी कुछ नहीं होगा । बिना बात दस्त-उलटी होंगे और परेशान होगा । और फिर देश के लिए जहर पीने की ज़िम्मेदारी नेताओं की है जो सत्ता सुख भोगते हैं । हमारे लिए तो यह जीवन ही क्या कम ज़हर है ?मदर इण्डिया का गाना याद नहीं-

दुनिया में जो आए हैं जीना ही पड़ेगा ।
जीवन है अगर ज़हर तो पीना ही पड़ेगा ।।

वह बोला- क्या देश के लिए ज़हर पीने की ज़िम्मेदारी केवल नेताओं की ही है? हमें भी तो उनका साथ देना चाहिए । वे सब अपने परिवार के साथ पी रहे थे । मैं नज़र बचा कर एक उठा लाया । और फिर किसने जहर नही पिया- शिव, सुकरात, मीरा । और अमर हो गए । सो मर गए तो ठीक, नहीं तो अमर हो जाएँगे ।

हमने बात बदलते हुए कहा- क्या तेरे परिवार में किसी ने सत्ता का सुख लिया है ? इस देश में सत्ता का ज़हर वही पीएगा जिसके लिए कुर्सी तैयार है । सब के अपने-अपने बेटे-बेटियाँ और पत्नियाँ हैं । जिनके आगे-पीछे कोई नहीं हैं वे खुद ही सारा ज़हर पी रहे हैं जैसे ममता, जयललिता और माया । उनसे बचेगा ज़हर तो तेरा नंबर आएगा । शिव, मीरा और सुकरात की बात मत कर । उन्होंने सत्ता को त्यागने का ज़हर पिया था । आजकल सत्ता प्राप्त करने के लिए ज़हर पिया जाता है । चाहे कैसे भी मर, तुझे या तेरे बेटों को सत्ता तो मिलने से रही । बिना बात क्यों हम सबको फँसाता है । बिना बात पेंशन आधी हो जाएगी । जीने की सोच, अपने लिए तो अपनी पेंशन ही सत्ता है जो जीने पर ही मिलेगी । सो सत्ता का नहीं पेंशन का ज़हर पी ।

हमने शीशी को नाली में फेंक दिया । तब तक पत्नी चाय ले आई ।

३०-०१-२०१३


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एक कुम्भ : अनास्था का


एक कुम्भ : अनास्था का

देवों और दानवों के सम्मिलित समुद्र-मंथन के फलस्वरूप अन्य रत्नों के साथ-साथ 'अमृत-कुम्भ' भी निकला था । जहाँ-जहाँ भी यह अमृत-कुम्भ छलका वहाँ-वहाँ अर्द्ध कुम्भ, पूर्ण-कुम्भ और महा-कुम्भ के मेले भरते हैं जिनमें भारत और विदेशों के करोड़ों लोग अपनी सहज श्रद्धा से अभिभूत होकर इकट्ठे होते हैं । अब तो उस बहुआयामी प्रतीक के नाम की नक़ल पर जाने कितने और कैसे-कैसे कुम्भ के मेले लगने लगे हैं- फिल्मों के कुम्भ, विज्ञापन के कुम्भ, क्रिकेट के कुम्भ और भी न जाने कितने ही कुम्भ । चोरों, लम्पटों, जुआरियों, सटोरियों, जेबकतरों, समलैंगिकों और उचक्कों के कुम्भ भी भरने लगें तो कोई आश्चर्य नहीं ।

जैसे कुम्भ होंगे, वैसे ही विचार-मंथन होंगे और वैसे ही रत्न निकलेंगे । अभी जयपुर में एक कुम्भ का मेला लगा- जिसे ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ का नाम दिया गया । जैसे संत जुटेंगे वैसे संवाद होंगे और वैसे ही अमृत-तुल्य विचार रत्न निकलेंगे । सो इस कुम्भ में जो रत्न निकले वे कहीं भी आस्था के नहीं बल्कि अनास्था के रत्न (!) निकले । और फिर जब फेस्टिवल था तो वह सब कुछ भी होगा जो फेस्टिवल में होना चाहिए- शराब, सिगरेट तो खैर सामान्य हैं इनके बिना तो न आजकल चिंतन हो सकता है और न मनन । सभी आधुनिक और खाते-पीते - जिनका सामान्य आदमी और उसके सुख-दुःख से कोई संबंध नहीं - सभी 'पेज थ्री' के देखने, दिखने और दिखाने वाले लोग ।

तो इस मंथन से निकले रत्नों पर कुछ विचार किया जाए । एक हैं केरल मूल के दक्षिणी अफ्रीका के लेखक जीत थायल जिन्होंने पिछली बार सलमान रुश्दी की विवादास्पद पुस्तक 'शैतानी आयतों' का पाठ किया था । इस पुस्तक में सब जानते हैं कि आज से पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व हुए एक समाज सुधारक, जिसके करोड़ों अनुयायी हैं और जो स्वयं किसी बात का प्रतिवाद करने के लिए उपस्थित नहीं हो सकते, के बारे में अपनी कुंठाओं को मिलाकर काल्पनिक बातें लिखी गईं हैं । ऐसे लेखन से किसी का भला नहीं हो सकता बल्कि समाज का वातावरण ही बिगड़ता है । हो सकता है कि इससे एशिया और अफ्रीका में फूट डालकर राज करने वाले उपनिवेशवादियों का कोई स्वार्थ सिद्ध होता हो लेकिन हमारा तो कुछ भी हित ऐसे साहित्य से संभव नहीं है ।

इस बार इन सज्जन ने अपनी पुरस्कृत पुस्तक 'नार्कोपोलिस' के कुछ अंश पढ़े जिनमें केवल अंग्रेजी गालियाँ थीं जिन्हें न सुन पाने के कारण कुछ महिलाएँ उठकर चली गईं । लेखक का मानना है कि ये गलियाँ तो उसके पात्र ने कही हैं । किसी ने भी कही हों लिखीं और पाठकों तक तो लेखक ने ही पहुँचाईं । और भी लेखक और फ़िल्मकार हुए हैं जिन्होंने दुनिया को बदला, राह दिखाई, उन्हें तो लोगों तक पहुँचने के लिए गालियों का सहारा नहीं लेना पड़ा । आज के इन तथाकथित आधुनिक और महान! लेखकों को ही क्यों गालियों और अश्लीलता का सहारा लेना पड़ता है । या तो कला में कमी है या फिर नीयत में । श्रेष्ठ साहित्य शालीनता की रक्षा करते हुए भी सब कुछ कह सकता है । क्या रामायण और महाभारत में ऐसे नाज़ुक प्रसग नहीं है लेकिन सारी बात कहते हुए भी उन्हें शालीनता छोड़ने की मज़बूरी नहीं आई । हमारे नाट्यशास्त्र में तो न दिखाए जाने योग्य प्रसंगों का स्पष्ट विधान है फिर भी क्या उनमें संप्रेषण नहीं होता ?

जामिया विश्वविद्यालय के व्याख्याता अजय नेवरिया का क्रन्तिकारी दर्शन था कि या तो गाँवों में तकनीकी विकास करके उन्हें मेट्रो सिटी बना दिया जाए या या फिर गाँवों को आग लगा दी जाए । क्या उपाय है ? घर में मच्छर हों तो घर को जला दिया जाए यदि खाट में खटमल हों तो खाट को ही फूँक दो । गाँवों में गंदगी के सिवा कुछ नहीं है । संयुक्त परिवार सबसे बड़ी गंदगी है । बहुत खूब, बाज़ार भी ठीक यही चाहता है कि संयुक्त क्या एकल परिवार भी टूट जाएँ जिससे बाज़ार का हर तरह का धंधा चले- रोटी, कपड़ा, श्रम बचाने और फिर बचे हुए समय को काटने के सभी साधन भी वही बेचे और श्रम न करने से होने वाली बीमारियों का इलाज भी वही बेचे । बुढ़ापे में जब कोई किसी को सँभालने वाला न हो तो परिचारक भी कोई कंपनी ही सप्लाई करे । माँ के हाथ का खाना क्या ज़रूरी है- मेकडोनाल्ड और के.एफ.सी. हाजिर है ना, कुछ भी उल्टा-सीधा खाना घर पहुँचाने के लिए । यदि इन श्रीमान के माता-पिता ने ऐसी ही संवेदनशीलता से इनका पालन किया होता तो पता चलता । परिवार के बुज़ुर्गों के अभाव का क्या असर पड़ता है और बुढ़ापे में अपनी संतानों का क्या महत्त्व होता है यह इनको अभी पता नहीं चल रहा है । पर चलेगा अवश्य । मगर तब तक पछताने के अलावा कुछ नहीं बचेगा ।

और इन सज्जन को यह पता नहीं है कि ये वातानुकूलित कमरों में बैठकर जिस दूध, सब्जी, फल अनाज का सेवन करते हैं वह मॉल, कम्प्यूटर, मोबाइल से न आज निकल रहा है और न कल निकलेगा । खेती अमरीका, योरप सभी जगह होती है क्योंकि अन्न किसी देश की आत्मनिर्भरता का पहला आधार है । बिना मिट्टी के अनाज नहीं उगेगा और न ही कोई गाय ऐसी होती है जो गोबर न करे । पता नहीं, किस दुनिया में हैं ये तथाकथित बुद्धिजीवी जी महाराज । विचारक समाज में निरंतर और शनैः-शनैः सुधार करते हैं । न तो कोई चीज एक दिन में बिगड़ती और न एक दिन में सुधरती है । तभी गाँधी जी कहते थे कि सब को शारीरिक परिश्रम करना चाहिए । अनाज के एक-एक दाने की कीमत किसान से पूछो । ऐसे आयोजनों के प्रायोजक को ‘लिकर किंग’ माल्या जी को अधनंगी सुंदरियों के कैलेण्डर बेचने से ही फुर्सत नहीं है । और वही हाल है ऐसे आयोजनों में चेहरा दिखाने के लिए तरसते बुद्धिजीवियों का ।

एक लेखिका प्रीता भार्गव कह गईं कि स्त्रियों को आज़ादी होनी चाहिए कि वे जिससे चाहें सेक्स करें । बाद में जब कुछ लोगों को यह बात नहीं पची और विरोध हुआ तो व्याख्या की गई कि यह बयान उन्होंने सेक्स वर्कर के बारे में दिया था । किसी भी कल्याणकारी समाज का लक्ष्य तो यही होना चाहिए कि उसमें कोई सेक्स वर्कर हो ही नहीं । अपनी इच्छा के विरुद्ध शरीर बेचने के लिए मजबूर होना कोई मानवीय गरिमा नहीं है । और फिर यदि सेक्स वर्करों को तसल्ली से पूछा जाए तो यही पता चलेगा कि वे इस पेशे में स्वयं को न तो गरिमामय अनुभव करती हैं और न ही यह कोई उनका सशक्तीकरण है ।

हो सकता है लेखिका का मंतव्य यह नहीं रहा हो लेकिन लेखक और विचारक में अपनी बात इस तरह से कहने की क्षमता होनी चाहिए कि उसके कई या नितांत भिन्न अर्थ नहीं लगाए जा सकें । और नहीं, तो इसे अभिव्यक्ति की कमी तो माना ही जाना चाहिए । नौकरी और नग्नता के बहाने नारी का शिकार करने वाला, तथाकथित नारीवादी लम्पट वर्ग इस नारी-स्वातंत्र्य की आड़ में भी, नारी को घर-परिवार से बाहर निकालने को प्रेरित करके उसका शिकार ही करना चाहता है । परिवार और अगली पीढ़ी का निर्माण करने में नारी की बहुत बड़ी भूमिका होती है । जो काम माँ कर सकती है वह लाख रुपया महिने लेने वाली नौकरानी भी नहीं कर सकती । हर चीज न तो बाज़ार उपलब्ध करवा सकता है और न ही बाज़ार हर मामले में विश्वसनीय होता है ।

क्या नारी कुतिया या सूअरी की तरह अपने पीछे पाँच-सात बच्चों को लिए गलियों में घूमेगी तब उसका सशक्तीकरण होगा ? क्या लिज़ हर्ले, ब्रिटनी स्पीयर और एलिजाबेथ टेलर के अलावा नारी सशक्तीकरण का कोई और उदहारण नहीं है हमारे पास ? संभव हो तो शांतनु की पत्नी सत्यवती, कुंती, द्रौपदी के बारे में कुछ पढ़ा जा सकता है । परिवार मानव की एक अद्भुत खोज है जो उसे अधिक विकसित और सुरक्षित बनाती है । उसे नष्ट करके मानव समाज का भला तो नहीं होगा । हाँ, बाज़ार को इस बहाने जीवन के हर क्षेत्र में अपनी नाजायज़ घुसपैठ करने का मौका अवश्य मिल जाएगा । हमारे अनुसार तो ये तथाकथित विचारक बाज़ार के इशारे पर खेल रहे हैं । जिन देशों ने नारी स्वातंत्र्य के नाम पर परिवार को ही नष्ट होने दिया, अमरीका और योरप के उन देशों के आधे से अधिक एकल पेरेंट और विशेषकर उनके बच्चों की मानसिक, शैक्षणिक और संपूर्ण हालत का अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि परिवार को तोड़ना कितना घातक हो सकता है । अपराधी और समाज पर बोझ बने अधिकतर बच्चे ऐसे खंडित परिवारों के ही हैं ।

चाणक्य के अर्थशास्त्र और बदनाम की गई मनुस्मृति में स्त्री के अधिकारों के बारे में पढ़ें तो पता चलेगा कि हमारे यहाँ स्त्रियों को पर्याप्त स्वतंत्रता और अधिकार रहे हैं । यदि किन्हीं कारणों से उनमें विकृति आ गई है उसके कारणों का विश्लेषण करके उन्हें सुधारा जाए । यह तो कोई तर्क नहीं है कि कोई भोजन करके बीमार हो जाए तो भोजन करना ही बंद कर दिया जाए बल्कि भोजन में काम लिए गए पदार्थों, उनकी शुद्धता, बनाने या भण्डारण की कमियों की जाँच की जानी चाहिए ।

हमारे अनुसार तो यह कुम्भ उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के हिमालय से निकली कुंठा और भ्रम की धाराओं के संगम पर लगा अनास्था का महाकुम्भ है और भारतीय चिंतन को न समझने वाले, गणेश को एलीफेंट गोड, हनुमान को मंकी गोड, कृष्ण को ईवटीज़र और महाकुम्भ को पिचर फेस्टीवल तक ही समझ पाने वालों का मौज-मस्ती के लिए लगा जमावड़ा है । इससे अधिक और कुछ नहीं । इससे किसी को कोई दिशा मिलने वाली नहीं है ।

२९ जनवरी २०१३


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Jan 30, 2013

प्रणव दा की पीड़ा और हमारी पाती

प्रणव दा की पीड़ा और हमारी पाती

आदरणीय प्रणव दा,
नमश्कार । राष्ट्रपति के रूप में आपका राष्ट्र के नाम पहला सन्देश सुना, गुना और लिखने को विवश हो गया । चूँकि आपने राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करते ही अपनी अनौपचारिकता का परिचय दिया तो हमारी हिम्मत हुई कि आपको 'प्रणव दा' जैसे सरल और आत्मीय संबोधन से लिखें अन्यथा तो हाल यह है कि आजकल तो एक सरपंच और पटवारी भी अपने को महामहिम कहलवाना चाहता है, भले ही वह जनता की नज़रों में अपने सुकर्मों से महा-चंडाल ही क्यों न माना जाता हो ।

खैर, आपने भाषण छोटा ही दिया लेकिन वह अपने सन्देश और मारक क्षमता में 'नावक के तीर' की तरह मारक था लेकिन सत्ता के मद, धनबल, बाहुबल और पद के अभिमान में चूर लोगों तक पहुँचा ही नहीं क्योंकि वे इसे एक रस्म-अदायगी से अधिक कुछ नहीं समझते । वे जानते हैं कि आजकल सभी सत्ताएँ उन्हीं के समर्थन पर टिकी हैं और उनसे भयभीत हैं ।

सबसे पहले आपने दिल्ली में हुई बलात्कार की नृशंस और जघन्य घटना का ज़िक्र किया । वैसे तो ऐसी घटनाएँ देश में रोज हजारों की संख्या में होती है और उन सब में वे ही लोग लिप्त होते हैं जिनके पास सत्ता और धन का बल है तथा जिन्हें सत्ता का संरक्षण प्राप्त है । उन्हें पता है कि सरकारें अपराध के अनुपात में नहीं, बल्कि उससे अपने वोट-बैंक पर पड़ने वाले प्रभाव के अनुपात में सक्रिय या निष्क्रिय होती हैं । अंग्रेजी में एक कहावत है- Show me the person, I will show you the rule.

तो जब न्याय सत्ता के स्वार्थ से निर्धारित होता है तो भले और कमजोर लोग दुखी तो होंगे ही । सभी पार्टियों के कितने ही नेता ऐसे ही अपराधों के आरोपी हैं । उनके पास इतना बल है कि वे बरसों तक केस के फैसले को लटकाए रख सकते हैं और तब तक फरियादी या तो मर लेता है या टूट जाता है या फिर ऐसे लोगों द्वारा डरा-धमकाकर चुप करा दिया जाता है । त्वरित, निष्पक्ष और विवेकपूर्ण न्याय ही किसी देश या समाज में समानता और सत्ता में विश्वास की नींव रख सकता है । ताकतवर लोगों पर आरोप लगाना ही बहुत बड़ी बात है । मुझे तो लगता है कि आजकल के संचार साधनों के कारण यह बलात्कार वाली बात अधिक प्रचारित हो गई और युवकों में एक स्वाभाविक उबाल देखने को मिला । सत्ताएँ इस घटना से नहीं बल्कि इस घटना से अपने वोटों के कम होने से अधिक डर गई थीं । मुझे तो इसके बारे सत्ताएँ हमेशा की तरह उदासीन ही लगीं ।

इसके बाद आपने बताया कि नैतिकता की दिशा को पुनः निर्धारित करेने का वक्त आ गया है । नैतिकता की दिशा तो इस देश में बहुत पहले से ही निर्धारित थी लेकिन हमने ही सत्ता में आकर प्रगति के नाम पर पश्चिम की पूंजीवादी नैतिकता अपना ली । पूंजीवाद की नैतिकता केवल अधिक से अधिक धन कमाना है । उसके लिए जनहित कोई मायने नहीं रखता । दुनिया के सबसे धनवान और प्राकृतिक दृष्टि से सबसे समृद्ध देश अमरीका में भी गरीबी, बेकारी और भुखमरी इसलिए है कि उसके उद्योगपति केवल अपने फायदे के लिए सोचते हैं और उनको बाध्य करना वहाँ की सत्ता के भी बस का नहीं है जैसे कि हमारी सत्ता के लिए । अमरीका के दुखों का कारण वहाँ के उद्योगपति हैं, तो हमारे यहाँ के दुखों के लिए हमारे उद्योगपति । वरना नैतिकता तो बहुत सीधी सी बात है । इसके लिए इस देश की शाश्वत धारणा देखिए-

पर हित सरिस धरम नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
या
त्यक्तेन भुंजीथा ।

ब्रिटिश राज में शिक्षा की इतनी व्यवस्था कहाँ थी । यहाँ के सेठों ने अपने-अपने इलाके में स्कूल और कालेज खुलवाए और लोगों ने मुफ्त में शिक्षा प्राप्त की और आज उन्हीं के वंशज लाखों रुपए साल के आवासीय विद्यालय खोल कर पैसे पीट रहे हैं और नेता भी अपने प्रभाव से सस्ती ज़मीने हथियाकर भाँति-भाँति के कालेज खोलकर कमाई कर रहे हैं ।

आगे आपने कहा कि लोगों को विश्वास होना चाहिए कि शासन मलाई का एक माध्यम है । म और भ में थोड़ा सा ही फर्क है । आजकल लोग इसे 'भलाई' नहीं 'मलाई' का माध्यम मानते हैं तभी तो लाख-पचास हजार की एम.एल.ए. या एम.पी. की कुर्सी के लिए करोड़ों खर्च कर रहे हैं । कुर्सी सेवा का नहीं हराम का मेवा खाने और उसे पचाने-छुपाने का साधन है । जब साधारण आदमी का महीना नौकरी करते-करते ही नहीं निकलता, दो जोड़ी कपड़े नहीं जुटते तो ये झकाझक कुर्ता पायजामा पहने, बिना तनख्वाह के सेवा करने वाले करोड़ों लोगों की फ़ौज कहाँ से उतर आई ? इनसे पूछिए कि ये इतने ठाठ-बाट कहाँ से मैनेज करते हैं ?

आगे आपने आर्थिक विकास के बारे में भी कहा कि आर्थिक विकास से प्राप्त लाभ पिरामिड के शिखर पर बैठे लोगों का ही एकाधिकार न हो जाए । आप भी वित्तमंत्री के रूप में जी.डी.पी. और औसत आमदनी का ही गणित समझाते रहे थे । वास्तव में गाँधी जी की तरह किसी समाज या देश की सही स्थिति उसके अंतिम सिरे पर खड़े आदमी से नापी जानी चाहिए । और अंतिम सिरे पर खड़ा आदमी अत्यंत निराश, हताश है अन्यथा कौन अपने बच्चों को मारकर खुद आत्महत्या करता है । अपने देश में लाखों आदमी केवल जीने के न्यूनतम साधनों से भी निराश होकर आत्महत्या करते हैं । ऐसे तो आत्महत्या अंग्रेजो के ज़माने भी लोग नहीं करते थे । तो क्या हमने अपने समाज को संवेदना के मामले में गुलाम भारत से भी गया-गुजरा नहीं बना दिया है ? पिरामिड पर बैठे लोगों से एक बार तो पूछिए कि वे अपने महल में एक महिने में सत्तर लाख की बिजली किस अधिकार से जला देते हैं ? क्या पैसा होने पर किसी को देश के संसाधनों के अपव्यय करने का अधिकार मिल जाता है ?

और अंत में आपने जनता का भरोसा जीतने के लिए कहा तो है ‘आज की स्थिति में भारत ही क्या, बड़े-बड़े देशों में भी लोगों को सरकारों को तो छोड़िए, भगवान पर ही भरोसा नहीं रहा । और जहाँ तक सत्ता में बैठे लोगों की बात है तो सब जनता की भलाई की आड़ में कुर्सी के लिए लड़ रहे हैं और एक दूसरे की आलोचना और भ्रष्टता के बारे में चिल्लाते हुए भी कोई अंतिम फैसला नहीं लेते क्योंकि इस हमाम में सब नंगे हैं । आज गडकरी ने आयकर विभाग वालों को देखने की धमकी दी है लेकिन जनता को पता है कि कोई किसी को देखने वाला नहीं है । हाँ, जनता सब की नंगई और दबंगई ज़रूर देख और झेल रही है ।

इस छः दशक के लोकतंत्र की उपलब्धियों को झेलता
आपके देश का एक सेवानिवृत्त अध्यापक
-रमेश जोशी

२६ जनवरी २०१३

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Jan 28, 2013

तोताराम के तर्क और कवियों का शोषण


कवियों का शोषण

आज सवेरे-सवेरे तोताराम एक ब्रेकिंग न्यूज़ लेकर हाज़िर हुआ, कहने लगा- यह तो कवियों का शोषण है । देख, देश-राग नाम से आयोजित हो रहे कवि सम्मलेन में कवियों का सरासर शोषण हो रहा है । आठ कवियों को नवरस बहाने पड़ेंगे । अरे, एक कवि के लिए एक रस बहाना ही कोई आसान बात नहीं है और यहाँ एक कवि को १.१२ रस बहाना पड़ेगा । अब बता यह शोषण है कि नही ?

हम क्या उत्तर देते । हम तो यही जानते हैं कि पुराने कवि मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों का शोषण करते थे और आज के कवि श्रोताओं को पुराने घिसे-पिटे चुटकले और वह भी बार-बार सुनाकर उनका शोषण करते हैं । कवियों का कोई क्या शोषण करेगा ।

तोताराम कहने लगा- ज़्यादातर कवि हास्य का ही सहारा लेते हैं । एक-आध कवियत्री होती है जो या तो अपने व्यक्तित्त्व से या फिर अपनी द्विअर्थी कविता से शृंगार रस पैदा करने की कोशिश करती है । जहाँ तक वीररस की बात है तो अब वीरता तो किसी अदृश्य शत्रु को या फिर पाकिस्तान या चीन को गाली निकालने तक ही सीमित रह गया है । जो सबका शत्रु है, समाज का कंटक है, जो देश तोड़ने के लिए समाज को जाति-धर्म में बात कर अपना उल्लू सीधा कर रहा है उसे तो गरियाने की हिम्मत किसी में है नहीं । अरे, यदि ऐसी हिम्मत हो तो वीर रस होता है । और फिर जो समाज निर्बलों, बच्चों, महिलाओं और वृद्धो पर अत्याचार करता या सहन करता है वह वीर रस को समझेगा भी क्या ? और फिर रस आज कोई नौ तक ही सीमित थोड़े रह गए हैं । आजकल तो निंदा-रस, भक्ति रस, खुशामद-रस, बधाई-रस, पुतला जलाओ-रस, जुलूस-रस जाने कितने नए-नए रस आ गए हैं बाज़ार में ।

हमने कहा- मान ले, जिसका पहला नंबर आ गया वह तो अपना फेवरेट रस बहा कर मुक्त हो जाएगा लेकिन बाद में पढ़ने वाले को तो मुश्किल हो जाएगी ना । अब जोनी लीवर का नंबर शृंगार या वीर रस में आ गया तो क्या होगा । उसकी तो शक्ल और स्थिति और भी हास्यास्पद हो जाएगी । यह नौ रसों की बंदिश तो ठीक नहीं है । हमें तो लगता है कि कविसम्मेलनों में हास्य रस ही हो सकता है । जब एक बूढ़ा कवि रँगे हुई बाल, आँखों के नीचे लटकी खाल लेकर बार-बार श्रोताओं से ताली की भीख माँगेगा तो हास्य क्या, करुण रस ही पैदा होगा ।

तोताराम कहने लगा- मनीषियों ने भी तो कहा है- एको रसः करुण एव । श्रोताओं की भी उन्हीं पुराने चुटकलों को सुनने की मजबूरी करुण रस ही है । और जहाँ तक जो थीम है वह है 'देश-राग' तो इस स्थिति में इस देश पर और उसके तथाकथित साहित्य पर भी और श्रोताओं पर हो रहे अत्याचारों को देखते हुए इसे 'करुण-राग' कर दिया जाता तो और भी ठीक रहता । और यह करुण रस वहाँ नहीं भी बहता तो कम से कम उन कवियों में तो बह ही रहा है जिनको इस आयोजन में नहीं बुलाया गया ।

हमने कहा- भई, समाज में उत्सव मनाना भी एक मजबूरी और आवश्यक कर्मकांड है जैसे कि पिता को जीवन भर ढंग से खाना न खिलाने वाला बेटा भी द्वादशे पर भोज का आयोजन करता ही है । याद कर, एक अपने ज़माने में गणतंत्र दिवस होता था जब धुंध और हाड़ गला देने वाली सर्दी में स्कूल के बच्चों के साथ गली-गली प्रभात फेरी निकालते हुए स्कूल पहुँचते थे और उत्सव में शामिल होने वाले सभी लोगों को चार-चार लड्डू बिना किसी भेदभाव के बाँटते थे और एक आज । दर्शक कम और पुलिस अधिक होती है जैसे कि उत्सव में आने वाला हर आदमी कोई आतंकवादी है या देशद्रोही है । नेता लोग खुद बुलेट-प्रूफ शीशे के पीछे से डरे-सहमे भाषण देते हैं । सरकारें देश को सुरक्षित नहीं बना सकतीं और किसी तरह अपनी कुर्सी को बचा पाने को ही लोकतंत्र मानती हैं । कुछ चुने हुए या खास दृष्टि से बुलाए गए चंद आदमियों के उत्सव न तो देश के उत्सव हैं और न ही लोकतंत्र । कहाँ का देश-राग, सामान्य जनता को तो देश और जीवन दोनों से विराग होता जा रहा है ।

हमने तोतोराम के हाथ में चाय का प्याला थमाते हुए कहा- ये सब खास लोगों के खास चोचले हैं । तू छोड़ यह ब्रेकिंग न्यूज और देश-राग । ले, चाय पी ।

२६-०१-२०१३

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Jan 19, 2013

तोताराम को भारत रत्न


तोताराम को भारत रत्न

वैसे तो तोताराम को भारत रत्न बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था लेकिन न तो लोगों ने सोचा और न सरकार ने ध्यान दिया । और तोताराम तो खैर मान-अपमान से सर्वथा असम्पृक्त रहता है । पर आज कई दिनों के बाद सवेरे-सवेरे एक लँगोटी धारण किए हमारे घर के आगे से गुजरा ।

यह आज पहली बार हो रहा है कि वह हमारे घर के आगे से बिना चाय पिए जा रहा था । जनवरी के इस पहले सप्ताह में पारा जमाव बिंदु से नीचे ही चल रहा है । हम अमरीका से भयंकर ठण्ड से जान बचाकर भारत आए और यहाँ भी कुछ वैसी ही ठण्ड पाई, जैसे कि कहावत है - जहाँ जाए भूखा, वहीं पड़े सूखा । किसी तरह रजाई में लिपटे दिन गिन रहे थे । इन दिनों में तोताराम नहीं आया और न ही हमने उसे एक्सपेक्ट किया । दोस्ती अपनी जगह और जान-पहचान और बैठकबाजी अपनी जगह ।

हमने घर के आगे से गुजर रहे तोताराम को भाग कर पकड़ा । पूछा- क्यों आत्महत्या करने का विचार है क्या ?

उसने कहा- आत्महत्या तो मैं कभी नहीं कर सकता क्योंकि महँगाई जीने नहीं देती और महँगाई भत्ते की घोषणा मरने नहीं देती । मैं तो आजीवन दोनों के बीच झूलता रहा हूँ जैसे कि जनता नागनाथ और साँपनाथ के बीच भटकती रहती है । फिर अब तो अपने जयपुर में चिंतन-मनन-मंथन शिविर चल रहा है । वैसे तो बहुत से शिविर लगते हैं और प्रशासन हमारे द्वार पर आकर जम जाता है लेकिन होता-हवाता कुछ नहीं । फिर भी यह चुनावी वर्ष है, क्या पता कुछ निकल ही आए । कीचड़ में से कमल भी तो निकलता है ।

हमने उसे टोका और कहा- बात मत बदल । यह भारत रत्न और तेरे कपड़े उतारने का क्या संबंध है ?

बोला- पहले की बात छोड़, आजकल पंचायत सदस्य का टिकट तक कपड़े उतारे बिना नहीं मिलता तो यह तो भारत रत्न है । मुझे पता चला है कि शर्लिन चोपड़ा ने अमरीका जाकर किसी 'प्ले बॉय' पत्रिका के लिए कपड़े उतारे हैं और अब वह भारतरत्न के लिए दावेदारी करने वाली है । सोचता हूँ, महिलाओं का बड़ी तेज़ी से सशक्तीकरण हो रहा है । क्या पता उनके कल्याण के लिए कोई 'प्ले गर्ल' नामक पत्रिका भी निकलने लगी हो । उसके लिए मुझ से बेहतर कौन हो सकता है । ये तो कपड़े उतार रखे हैं वैसे अपना तो कपड़े उतारे बिना भी सब कुछ पारदर्शितापूर्ण है ।

हमने उसे पकडकर अंदर लिया और उसके न चाहते हुए भी रजाई में घुसेड़ दिया । जीवित तो नहीं, मरणोपरांत भी भारतरत्न, पता नहीं मिलेगा या नहीं लेकिन कल के अखबार में ज़रूर आ जाएगा कि सीकर की भयंकर ठण्ड से पीड़ित, केवल पट्टेदार जाँघिया पहने मंडी के पास सत्तर वर्षीय एक वृद्ध का शव मिला ।

१८ जनवरी २०१३

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Jan 18, 2013

बहुभाषिता और बहु सांस्कृतिकता के लाभ

बहुभाषिता और बहुसांस्कृतिकता के लाभ

बचपन में ही यदि हम एक से ज़्यादा भाषाएँ बोलना सीख लेते हैं तो इसका फ़ायदा हमारे दिमाग को बुढ़ापे में मिलता है । यही कारण है कि भारतीय इतने बुद्धिमान होते हैं । यहाँ के अधिकांश लोग एक से अधिक भाषाएँ जानते हैं । इनमें अंग्रेजी या हिंदी के अलावा अपनी क्षेत्रीय भाषाएँ शामिल हैं ।

सारी ज़िंदगी दो से अधिक भाषाएँ बोलने से हमारा दिमाग ज़ल्दी बूढ़ा नहीं होता । यूनिवर्सिटी ऑफ केंटकी के न्यूरो साइंटिस्ट ब्रायन गोल्ड का कहना है कि दो या दो से अधिक भाषाएँ जानने वाले ‘मल्टीस्किल्ड’ होते हैं । जब भी अपने से वरिष्ठ लोगों से कोई काम मिलता है तो एकभाषी लोगों की तुलना में द्विभाषी या त्रिभाषी लोग जल्दी प्रतिक्रिया प्रकट करते हैं । लगातार सक्रिय होते रहने से दिमाग जवान बना रहता है । शोधकर्त्ताओं ने ८० लोगों के दिमाग में ऑक्सीजन प्रवाह के नमूने देखने के लिए एमआरआई मशीन में रखा । उनसे कुछ आकार और रंग दिखाकर प्रश्न पूछे गए । शोधकर्त्ताओं ने पाया कि अधिक उम्र के उन लोगों का, जो दो या दो से अधिक भाषाएँ जानते हैं, दिमाग एक भाषा जानने वालों की तुलना में अधिक सक्रिय था । उनके प्री फ्रंटल कार्टेक्स और इंटीरियर सिंगुलर कार्टेक्स में अधिक हलचल थी । यूनीवर्सिटी ऑफ केलीफोर्निया के वैज्ञानिकों का भी कहना है कि हम कम उम्र में दिमाग को जितना कुशल बनाएँगे उतना ही वह अधिक उम्र में भी सक्रिय बना रहेगा ।

लोग तत्काल होने वाले आर्थिक, शारीरिक लाभ को ही देखते हैं जब कि बहुत से कामों के अन्य अप्रत्यक्ष लाभ भी होते हैं जो प्रत्यक्ष लाभों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं जैसे कि मितव्ययिता से केवल खुद के धन की बचत ही नहीं होती बल्कि इस धरती का विनाश भी विलंबित होगा, समाज में भेदभाव कम होगा जिससे आपसी ईर्ष्या-द्वेष कम होंगे और अपव्यय-जनित विलासिता से होने वाले शारीरिक कष्ट भी कम होंगे, भावी संतानें सही रास्ते पर चलकर संस्कारी बनेंगी । इसी तरह बहुभाषिकता का केवल यह दिमागी और शारीरिक लाभ ही नहीं है बल्कि कई भाषाएँ जाने वालों को विभिन्न देशों, भाषाओं, समाजों और संस्कृति वाले लोगों से संवाद करने, उनके निकट आने का अवसर मिलता है जो अंततः व्यक्ति को सहिष्णु, उदार और वैचारिक बनाता है ।

भारत एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है और यही विशेषता उसे दुनिया में एक विशिष्ट और उदार राष्ट्र बनती है ।

भारत में दुनिया के लगभग सभी धर्मों और संस्कृतियों के लोग निवास करते हैं और उन्हें सभी प्रकार के नागरिक अधिकार प्राप्त हैं । दुनिया के ऐसे धर्मावलंबी भी भारत आए जिन्हें उनके मूल देश के नए धर्म ने अपना देश छोड़ने के लिए मज़बूर किया जैसे कि इस्लाम अपनाने के बाद ईरान से भागकर आए अग्निपूजक पारसी । ये लोग आज भी भारत में पूर्ण गरिमा के साथ साधिकार भारत में रह रहे हैं । यहाँ तक कि भारत का एक पुराना औद्योगिक घराना 'टाटा' इन्हीं पारसी लोगों का है । इसके अतिरिक्त ईसा के मात्र ५० वर्ष बाद ही एक ईसाई धर्म प्रचारक भारत आए और यहीं बस गए और पूरी स्वतंत्रता से धर्म प्रचार भी किया । इसी तरह आक्रमणकारी बन कर आए इस्लाम को मानने वाले कई कबीलों को भी भारत ने अपना लिया और आज वे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईराक से भी अधिक शान और सुरक्षा से यहाँ रह रहे हैं । बहुत से यहूदी भी अरब देशों से पीड़ित होकर यहाँ आए और केरल में बसे हुए हैं ।

आज के तथाकथित ‘विश्व-गाँव’ में भी धर्म, जाति और नस्ल के नाम पर लोग भेदभाव झेल रहे हैं वहीं भारत सबके लिए सुरक्षित माना जाता है । आज अल्पसंख्यकों के कल्याण या राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर ओछी राजनीति, एक अच्छे-भले सद्भावपूर्ण वातावरण को समाप्त करने की कूटनीति कर रही है फिर भी वह सद्भाव कायम है तो इसके पीछे भारत का प्राचीन आध्यात्मिक चिंतन रहा है जो 'वसुधैव कुटुम्बकं' और बहु-वैचारिकता और सत्य को विविधरूपा मानकर सबका सम्मान करता है । हालाँकि ऐसी भेदकारी कूटनीतियों के कारण लोगों का चिंतन दुष्प्रभावित हो रहा है फिर भी यह कितना बड़ा सच है कि तथाकथित अल्पसंख्यक आज देश के सर्वोच्च पदों पर स्थापित हैं ।

इस देश में भाषाओं, धर्मों और विचारों के भेद के बावज़ूद समन्वय की एक सांस्कृतिक अंतर्धारा सदैव प्रवाहित होती रही है । लोग इसी समन्वय को अपनाकर विभिन्न भाषाएँ सीखते रहे हैं । विद्वान और धार्मिक लोग इसी समन्वय की आराधना के लिए लंबी-लंबी वैचारिक यात्रा करते रहे हैं । यहाँ की सामान्य जनता ने भी विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोगों को अपनाया और पूरा सम्मान दिया । अजमेर के गरीबनवाज़ और दिल्ली के निजामुद्दीन औलिया कट्टर मुसलमानों से ज्यादा हिंदुओं में आदृत हैं । फारसी, उर्दू के विद्वान हिंदुओं में मुसलमानों से कम नहीं है । आज भी भारत के बहुत से लोग एक से अधिक भाषाएँ जानते हैं । दुनिया में भारतीयों ने ही अपने देश के इतिहास, भूगोल और संस्कृति के अलावा दुनिया के अधिकतर देशों के बारे में सर्वाधिक पढ़ा है । यही ज्ञान उन्हें उदार बनाता है ।

योरप, अमरीका और इस्लामी देशों में दुनिया के अन्य देशों, समाजों, धर्मों के बारे में या तो पढ़ाया नहीं जाता या फिर उचित सम्मान से साथ नहीं पढ़ाया जाता । ज्ञान का यह एकांगी रूप किसी भी समाज को कूपमंडूक बनाता है और फिर ओछी और भेदपूर्ण राजनीति उसे सरलता से कट्टरता के रास्ते पर ले जा सकती है । विदेशों में रहने वाले भारतीय अपने वहाँ के मीडिया और राजनीति के इस रूप से भलीभाँति परिचित हैं ।

मुसलमानों, अंग्रेज, फ़्रांसिसी, पुर्तगाली आक्रमणकारियों के आते रहने के बाद भी इस देश का यह चरित्र बना रहा लेकिन जब लार्ड मैकाले ने अंग्रेजी को नौकरी की भाषा से बढ़ कर उच्चता का प्रतीक बना दिया तब से हमारा अंग्रेजी सीखने-सिखाने का उद्देश्य ही बदल गया । आज जब हम अपने ही समान-भाषी भारतीयों के सामने अंग्रेजी झाड़ते है तो वह संवाद की भाषा न होकर अहंकार की भाषा हो जाती है और वह हमारे बीच में खाई बढ़ाती हैं । इसी लिए देखा जाता है कि नेता लोग जनता का दिल जीतने के लिए उसकी भाषा में एक दो शब्द ही सही, पर बोलते ज़रूर हैं । ओबामा जी ने भी मनमोहन जी के स्वागत में 'स्वागत' शब्द इसी उद्देश्य से कहा था । विदेशों से भारत आने वाले जिन विद्वानों ने यहाँ की भाषा को अपनाया उन्हें भारत ने अपने दिल में बसा लिया । लेकिन भारत के बड़े से बड़े अंग्रेजी के विद्वान को लेकर ब्रिटेन या किसी अन्य अंग्रेजी भाषी देश के मन में ऐसा कोई अपनेपन का भाव नहीं आता क्योंकि वे समझते हैं कि या तो भारतीयों के पास कोई विकसित भाषा नहीं है या फिर इनमें अपनी भाषा को लेकर हीन भावना है । दोनों ही स्थितियाँ शर्मनाक हैं । अन्य देशों के नेता जब भारत आते हैं तो वे जानबूझकर अपनी भाषा में बोलते हैं जब कि सब अंग्रेजी जानते होते हैं । पता नहीं हमारे नेताओं को ऐसा करने में क्यों शर्म अनुभव होती है ।

ये बातें बहुभाषिता से सीधे जुड़ी नहीं दिखाई देतीं और न ही इस आलेख में यह हमारा विचारणीय विषय है । बहुभाषी, बहुसंस्कृति वाला और अध्यात्मिक देश होने के कारण हमारी शिक्षा में भी बहुत से देशों की संस्कृति, इतिहास,भूगोल पढाए जाते रहे हैं । इसी कारण हम जल्दी से कट्टर नहीं हो सकते । जब कि अन्य देशों में ऐसा नहीं । आज जब हमारी वर्तमान पीढ़ी ने पेट के लिए अंग्रेजी पढ़ना शुरु किया है तो उन्हें अपना दिमागी बोझ हल्का करने के लिए अपनी भारतीय भाषाओं से पीछा छुड़ाना ही फायदेमंद लगता है । माता पिता भी सोचते हैं कि बच्चा किसी भी तरह, संस्कृति, सभ्यता सब कुछ भूलकर दो रोटी कमाने लायक बन जाए लेकिन यह भी उनका भ्रम है क्योंकि नौकरी भाषा से नहीं कोई उपयोगी काम जानने से मिलती हैं । इसी कारण अंग्रेजी के पीछे भागते हुए बच्चे न तो हिंदी भाषा ढंग से सीखते हैं और न ही इस कारण से अंग्रेजी ढंग से सीख पाते हैं । भाषा का अपना एक अनुशासन होता है । यही कारण है कि ऐसे अंग्रेजी पढ़े, पाँच हजार रुपए महिने पर किसी तथाकथित देशी-विदेशी कंपनी के सेल्स एक्जीक्यूटिव बने गली-गली सामान बेचते फिरते हैं । जब कि कोई भी हाथ का काम जानने वाला चार-पाच सौ रुपए रोज से कम में नहीं मिलता ।

अपने समाज की भाषा से कटने और उसे हीन समझने के कारण ऐसे अधकचरे अंग्रेज किसी भी देन के नहीं रहते । ये किसी भी देश में जाएँगे तो इन्हें वहाँ के लोग काले-गोरे और गैर-हिंदू अपना नहीं मान सकते । यदि ऐसा होता तो सैंकडों वर्षों से युगांडा में रहने वाले भारतीयों को एक झटके में निष्काषित नहीं कर दिया जाता या द्वितीय विश्व युद्ध के समय लाखों जापानियों को अमरीका में नज़रबंद नहीं कर दिया जाता । जब कि वे बेचारे सैंकडों वर्षों से अमरीका में रह रहे थे और जापान से कोई रिश्ता नहीं रह गया था । इसलिए इसे स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिए कि हम भारतीय हैं, हमारी एक संस्कृति है, सभी भारतीयों की कोई न कोई समृद्ध भाषा है और उसी से हमें संस्कार और पहचान मिलेगी । यदि हम उन्हें छोड़ देंगे तो हम कहीं के नहीं रहेंगे और हमारी कोई पहचान नहीं रहेगी ।

इसके लिए हम यहूदियों, विशेषकर अमरीका में बसे यहूदियों के उदहारण ले सकते हैं । वे अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म की पहचान को कायम रखते हैं और उसे मिटाने वाली किसी भी कोशिश का डट कर विरोध करते हैं । अपनी अक्ल के कारण उनका अमरीका की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान है । उसी की वजह से वे कोई दो हजार वर्ष पहले छूट चुके अपने वतन को विश्व के मानचित्र पर पुनः स्थापित कर सके । उसी दृढता और आस्था के बल पर उन्होंने अपनी मृत मानी जा चुकी भाषा को पुनर्जीवित करके दिखा दिया ।

हम अपनी भाषा के अतिरिक्त और भी कई भाषाएँ सीख सकते हैं तो फिर क्यों हम अपनी भाषा और संस्कृति को भुलाकर दुनिया में अपनी पहचान मिटाना चाहते हैं ? अपनी भाषा, संस्कृति और पहचान को भुलाए बिना भी दुनिया में सब तरह के लोग सब प्रकार के विकास कर रहे हैं । उन्हें किसी तरह का कोई भय और शर्म नहीं है तो फिर हम किस भय से अपनी पहचान को मिटाने पर तुले हैं । अपनी पहचान और पहचान के प्रति लापरवाह होने के कारण ही हमें वह सम्मान और स्थान नहीं मिल पाता जिसके हम सब तरह से अधिकारी हैं ।

यदि किसी भी कुंठा में आकर हम अपनी पहचान के प्रति प्रमाद करते रहे तो फिर उसे हासिल करना कठिन हो जाएगा । हो सकता है कि तब तक वह विलुप्त ही हो चुकी हो । हम सदैव से बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक, बहुवैचारिक और सत्य को विविधरूपा मानने वाले रहे हैं । हम कट्टर हो ही नहीं सकते । पर कट्टर न होने का यह अर्थ भी तो नहीं कि हमारी कोई पहचान ही न हो । पालतू पशु की कोई पहचान नहीं होती लेकिन स्वतंत्रचेता मनुष्य और एक जिंदा समाज की तो पहचान होती ही है ।

सोचें, हमारी क्या पहचान है ?

०९-०१-२०१३

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Jan 6, 2013

मनमोहनजी और बँगले से खतरा

हर मन को मोहने वाले, हमारे प्रिय प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी,
सत् श्री अकाल ।

हमने कोई बीस वर्ष हिंदी पढ़ी और फिर चालीस वर्ष तक बच्चों को हिंदी पढ़ाई । जो हमने झेला उससे दुगुना हमने बच्चों को झिला दिया । आजकल की बात अलग है । बच्चे और अध्यापक दोनों चतुर हो गए हैं सो पता ही नहीं लगता कि कौन किसको झेल रहा है और कौन किसको झिला रहा है । आजकल पता नहीं हिंदी में बच्चों से किस तरह के लेख लिखवाए जाते हैं ? जब हम पढ़ते थे तो कई तरह के निबंध लिखवाए जाते थे जिनमें कुछ ऐसे भी होते थे – ‘मेरा प्रिय कवि’ या ‘मेरा प्रिय लेखक’ आदि । इसके बाद हमने नवें दशक में इसी शृंखला के और भी निबंध लिखवाए जैसे - 'मेरा प्रिय प्रधानमंत्री' । हमारे विद्यार्थी-काल में ऐसे निबंध नहीं हुआ करते थे क्योंकि ले देकर एक ही तो प्रधानमंत्री थे- नेहरू जी । भले ही किसी को प्रिय लगो या अप्रिय ।

अब आपने आकर थोड़ा स्थायित्व प्रदान किया है अन्यथा तो एक ज़माना था जब कभी भी प्रधानमंत्री बदल जाया करते थे । देवेगौड़ा, चरणसिंह, चंद्रशेखर और गुजराल साहब का क्या प्रधानमंत्री बनना और क्या न बनना । हाँ, सरकारी बँगले के उम्मीदवार ज़रूर बढ़ गए । वैसे यदि तिबारा चांस नहीं मिलता तो अटल जी भी इसी श्रेणी में धरे रखे ही थे । तो इस प्रकार गिनती तो बढ़ ही गई । और 'मेरा प्रिय प्रधानमंत्री ' निबंध लिखने वालों को चयन का अवसर मिल गया । सुविधा भी बढ़ गई । चरणसिंह जी को चुन लो या चंद्रशेखर जी या फिर गुजराल साहब या देवेगौड़ा जी - सबकी प्रधानमंत्री के रूप में प्रियता का समय कम होने से सिलेबस भी कम हो गया ।

खैर, अब आपके होते हुए दूर-दूर तक कोई विकल्प नज़र ही नहीं आता । नई सदी में प्रिय या अप्रिय आप ही हो । कई बार लगा कि इस या उस मुद्दे पर अब गए और तब गए, लेकिन साहब मान गई दुनिया कि ‘पीसा की झूलती मीनारें’ भी इतना सस्पेंस पैदा नहीं करती जितना आपको लेकर मचा । लेकिन अब लोगों को विश्वास हो गया है कि भले ही पीसा की मीनारें गिर जाएँ लेकिन भगवान कि दया से या इस देश के सौभाग्य से आपका हिलना और गिरना दोनों ही संभव नहीं लगता । भले ही अडवाणी जी या मुलायम या मायावती कोई भी आशा लगाए लेकिन हमें उनकी मुरादें पूरी होती नहीं लगतीं क्योंकि आप जैसा काबिल और देश का हितचिन्तक प्रधानमंत्री इस देश को मिलने से रहा । किसी न किसी प्रकार आपने देश का हित करके ही छोड़ा, चाहे कोई भी जोड़-तोड़ करके बहुमत जुटाना पड़ा । मुँह न देखने लायक के पाँव देखे, देश के हित के सामने अपने मान-सम्मान की चिंता भी नहीं की, जाने किस-किस के ताने सहे मगर देश का हित करके ही छोड़ा फिर चाहे परमाणु समझौता हो या वालमार्ट के लिए पलकें बिछाना । देश के हित के लिए यह कोई छोटा काम नहीं है । कोई और होता तो इतनी आलोचना के बाद कब का भाग लेता ।

सो हमारे प्रिय प्रधानमंत्री तो आप ही हैं भले ही ब्रिटेन वाले आपको किसी का गुड्डा कहें या अमरीका वाले अंडर-अचीवर । हमें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता । हम तो जिसके भी होते हैं अंध-भक्त होते है, सच्चे श्रद्धालु होते हैं आपकी तरह ।

आजकल हमारे राजस्थान में भयंकर सर्दी पड़ रही है । वैसे हमारा मानना है कि आजकल के मुकाबले सर्दी पहले अधिक पड़ती थी । आजकल तो प्रदूषणजनित ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के कारण फिर भी ठण्ड काफ़ी कम हो गई है फिर भी बड़े तो बड़े बच्चों तक को घर में बने हुए लेटरिन में जाते हुए भी ठण्ड लगती है । एक हमारा समय था जब आठ बजे तक सूरज के दर्शन नहीं होते थे । बच्चे सुबह होते ही पानी का लोटा लेकर जंगल-दिशा के लिए चल पड़ते थे । उस समय जयराम रमेश जी वाले विभाग को इसी नाम से जाना जाता था । लोटा एक और बच्चे चार-पाँच । हालाँकि राजस्थान में पानी की कमी है लेकिन इतनी भी नहीं कि जलाभाव में चार बच्चे एक ही लोटा पानी से काम चलाएँ । यह तो ठण्ड में लोटा पकड़े रहने की पीड़ा का सभी उम्मीदवारों में सामान वितरण के लिए किया जाता था ।

खैर जी, हम भी क्या फालतू ज़िक्र लेकर बैठ गए । आपको कहाँ फुर्सत है ऐसी छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देने की । आपके सामने तो और बड़ी-सदी समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं । अब चुनाव में दिन ही कितने रह गए हैं । भले ही मौत का पता नहीं चले लेकिन कुर्सी पर बैठा आदमी पूरे पाँच बरस तक अपने संभावित पतन के बारे में ही चौबीसों घंटे सोच-सोचकर जागता और पैसे जोड़ता रहता है । लेकिन आपकी बात ही और है । आप तो इस मामले में सच्चे निस्पृह संत हैं । न हार आपकी और न जीत आपकी । फ़िक्र तो उनको होनी चाहिए जो आपको मनोनीत करते हैं । चुनाव का झंझट तो आपने कभी पाला ही नहीं । चुनाव लड़ाने वालों को भी एक बार आपको दक्षिणी दिल्ली से चुनाव लड़वाने के बाद समझ में आ गया कि अपन कितने लोकप्रिय हैं ।

तो भाई साहब, बात हो रही थी ठण्ड की । जिनके पास ठण्ड से बचने की सुविधा होती है जैसे एयरकंडीशनिंग या फिर सर्दी में खाने को गिज़ा या फिर दारू, वे जानबूझकर बार-बार ठण्ड की अधिकता की चर्चा करते हैं । हमारे पास तो ले दे कर एक बीस साल पुराना, दिल्ली के रीगल सिनेमा के पास रेड़ी लगाने वाले से ख़रीदा हुआ, सेकण्ड-हैंड कोट है । अब तो न उस कोट में गरमी बची और न हमारे सत्तर साल पुराने इस अस्थिपंजर में । इसलिए अपनी हीन भावना को छुपाने के लिए, यदि कोई कहता भी है कि आज सर्दी बहुत है तो हम अकड़ कर उसका विरोध करते हुए कहते हैं- नहीं ,कोई खास नहीं । कुछ खाया-पिया करो । जब कि हम खुद अपनी हालत जानते हैं कि दारू तो दूर, दवा तक के लिए भी कंजूसी करते हैं । आपको तो खैर, भगवान की दया से सभी सुविधाएँ हैं- गिज़ा भी, दवा भी और दारू भी । और फिर ठण्ड तो हम जैसे जमना-जल में खड़े ब्राह्मण को लगेगी, महलों में तो सारे मौसम आशिकाना होते हैं । ये राजभवन भी बड़ी अजीब शै हैं । इनमें घुसते ही पचासी बरस का बूढ़ा भी फुदकने लगता है । आप तो फिर भी हमारी तरह अस्सी से कम ही हैं । वैसे हम तो आपकी तटस्थता और सादगी के कायल हैं ।

तो साहब, हम ठण्ड से बचने के लिए रजाई में घुसे बैठे थे । घर से बाहर निकल कर कहाँ जाएँ । घूमना-फिरना तो उसको सूझता है जिसकी जेब में माल हो-

इशक करे ऊ जिसकी जेब में माल वाह रे बलमू ।
कदर गँवाए जो कड़का कंगाल वाह रे बलमू ॥

सो हमने बाज़ार तो दूर, बिना बात घर से निकलना तक छोड़ दिया है । दोपहर का समय, लेकिन हम रजाई में घुसे-घुसे भी ठिठुर रहे थे । पोती के पास कम्प्यूटर है और वह उस पर कभी-कभी समाचार भी देख लिया करती है । सो पता नहीं क्या पढ़ लिया कि दौड़ी-दौड़ी हमारे पास आई और कहने लगी- बाबा, मनमोहन सिंह जी की रक्षा कीजिए । उसे पता नहीं, जो आदमी ज़रा सी सर्दी से अपनी रक्षा नहीं कर सकता, बढ़ती महँगाई से अपने घर की अर्थव्यवस्था की रक्षा नहीं कर सकता, जो सब्सिडी के छः सिलेंडरों में एक साल खाना नहीं बना सकता - वह किसी की क्या रक्षा कर सकता है ।

फिर भी सुनते ही हमें इस भयंकर सर्दी में भी पसीना आ गया और बच्ची की हिम्मत बढ़ाने के लिए कहा- कहो बेटी, उन पर क्या संकट है ? यदि आँख में कोई खराबी है तो हम अपनी आँख देने को तैयार हैं ।

बच्ची भी कोई कम नहीं । कहने लगी- बाबा, आपकी आँखें लेकर मनमोहन सिंह जी क्या करेंगे ? क्या आपको देश का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है ? जब देखो तब महँगाई, बेकारी, बीमारी, कुपोषण, महिलाओं की असुरक्षा, धर्म जाति के आधार पर भेदभाव, विदेशी अपसंस्कृति - जाने किस- किस का रोना लेकर बैठे रहते हो । सभी समस्याओं के बावज़ूद मनमोहन जी को देश का जो उज्ज्वल भविष्य नज़र आ रहा है, वह आपकी आँखों से तो नज़र आने से रहा । आपकी आँखे लेकर क्या करेंगे ? न आपके गुर्दे इतने मज़बूत कि बिना स्पष्ट बहुमत के परमाणु समझौता और एफ.डी.आई. पास करवा लें । अभी तो उन्हें जाने कितने कठिन कदम उठाने हैं देश के लिए । आपका कोई भी अंग उनके काम का नहीं है । और फिर क्या वे आपके अंगों के भरोसे देश को चला रहे हैं ? इस पिछड़े देश को विकास की सही दिशा दिखाने के लिए आँखें, और कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूत गुर्दे देने के लिए वर्ल्ड बैंक, विश्व व्यापार संगठन, डंकल-बुश-ओबामा जाने कौन-कौन तैयार बैठे हैं । वैसे भगवान की दया से उनके सभी अंग-प्रत्यंग ठीक हैं और फिर यदि कोई खराबी-शराबी होगी तो अमरीका कौन दूर है ? जाएँगे और करवा आएँगे ओवरहालिंग । आप बिना बात मुझे असली बात से भटकाओ मत और ध्यान से सुनो । उनको न तो कोई शारीरिक खतरा है और मानसिक । न किसी आतंकवादी से और न महँगाई और बेकारी से । भगवान की दया से सारी बेटियाँ ब्याह दीं । कमा-खा रही हैं; अपने घर में खुश हैं ।
उन्हें खतरा तो अपने बँगले से है ।

फिर हमारा दिमाग अपने हिसाब से सक्रिय हो गया और पूछा- क्या उनका बंगला टपकता है, क्या वहाँ अपनी गली की तरह बरसात में पानी भरता है, क्या उनके घर के पास स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मोबाइल का टावर लगा हुआ जो उनके हार्ट के लिए खतरनाक हो सकता है , क्या किसी भू-माफिया ने उनके घर पर कब्ज़ा करने का मन बना लिया है , क्या उनके घर में पानी नहीं आता या फिर नए मीटर के कारण बिजली का बिल ज्यादा आता है ? या उनके घर में किसी भूत-प्रेत का प्रकोप है ?

बच्ची जोर से हँस पड़ी और कहने लगी- जूते बनाने वाले की पहुँच कहाँ तक होगी ? वह जूतों से ही आदमी मापता है । अब आप कुछ मत सोचो और कुछ मत बोलो और सुनो- मनमोहन जी का बंगला इतना पुराना हो चुका है कि कभी भी गिर सकता है ।

हमने कहा- तो क्या बात है ? जैसे हम लोग कोई प्राकृतिक आपदा आने पर किसी सरकारी इमारत, स्कूल, धर्मशाला आदि में शरण ले लेते हैं तो वे भी कुछ दिन के लिए राष्ट्रपति भवन में शरण ले लें । और शरण क्या, स्थाई रूप से भी वहाँ रह सकते हैं । तीन सौ कमरे हैं । प्रणव दा क्या तीन सौ कमरों में रहते हैं ? चाहे तो मनमोहन जी ही क्या सारा मंत्रिमंडल राष्ट्रपति भवन में रह सकता है । मंत्रियों के सारे बँगले दिल्ली के प्रोपर्टी डीलरों को नीलाम कर दें । वैसे भी सरकार अच्छे-भले सरकारी उपक्रमों को धूल के भाव निजी क्षेत्रों को बेच ही रही है । वैसे तुमने यह तो बताया ही नहीं कि १९३० में बने अंग्रेजों के बनवाए बँगले अस्सी साल में ही गिरने कैसे लग गए ? यदि आजकल की पी.डब्लू.डी. वालों ने बनाए होते या मनरेगा में बने होते तो बात और थी ।

बच्ची ने कारण बताया कि ये मकान केवल चूने और ईंटों से बने हैं, इनमें स्टील का उपयोग नहीं हुआ है इसलिए इनके गिरने का समय आ गया है । हमने फिर प्रतिवाद किया- अरे, चूने से बनी क़ुतुबमीनार को तो कुछ नहीं हुआ, बिना स्टील के कंस का किला, बनारस का विश्वनाथ मंदिर, वृहदेश्वर का मंदिर, मीनाक्षी मंदिर सभी खड़े हैं । हमें तो लगता है कि ये पी.डब्लू. डी. वाले डरा कर पहले तो इन मकानों को गिरवाने में पैसे कमाएँगे और फिर बनवाने में । इनका क्या, ये चाहें तो कागज पर मकान बना दें, कागज पर कुएँ खुदवा दें और फिर पानी न निकलने पर भरवा दें और दोनों कामों के पैसे खा जाएँ जैसे कि मंत्री जी अपने एन.जी.ओ. में हवाई विकलांगों को व्हील चेयर बँटवा दें । इनकी किसी राय को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए ।

बच्ची ने कहा- नहीं बाबा, ये लोग तो बेचारे बहुत ईमानदार हैं । एक इंजीनीयर ने तो यहाँ तक कहा है कि यह तो पी.डब्लू. डी. वालों की समय-समय पर की गई मरम्मत का चमत्कार है कि ये इतने दिन भी चल गए वरना तो इन्हें कभी का गिर जाना चाहिए था ।

अब हमने कहा- बेटा, अब हम तुम्हें कैसे समझाएँ कि पी.डब्लू.डी., एम.ई.एस., कस्टम-एक्साइज, पुलिस और इनकम टेक्स विभाग को कमाऊ विभाग क्यों कहा जाता है । बस, यह समझ लो कि मिस्र के पिरामिड यदि इन्होंने बनाए होते तो कब के ढेर हो गए होते या साँची और सारनाथ के स्तूपों का ठेका इन्होंने लिया होता तो जाने कितने भिक्षु दब कर मर गए होते ।

पर खैर, कोई बात नहीं । हम और तो कुछ कर नहीं सकते । तू इनको लिख दे कि यदि और कोई व्यवस्था नहीं हो तब तक अपने यहाँ आ जाएँ । पास में कृषिमंडी का हेलीपेड है । रोजाना सरकारी हेलीकोप्टर से अप-डाउन कर लेंगे । कौन सा अपनी कार और अपना पेट्रोल लगाना है । वैसे कुछ भगवान पर भी विश्वास करना चाहिए । ‘जाको राखे साइयां मार सके ना कोय’ और फिर जिसकी मौत आ ही गई उसे कोई बचा भी नहीं सकता । चारपाई से गिर कर भी आदमी मर सकता है और प्रह्लाद भक्त की तरह पहाड़ पर से लुढ़काया जाकर भी बच जाता है । अरे, और कुछ नहीं तो बिजली ही गिर पड़े उसे कौन कमांडो और सिक्योरिटी रोक लेगी । राजा परीक्षित को तो फल में से निकल कर एक कीड़े ने काट लिया था । और फिर रहीम जी ने भी कहा है-

रहिमन बहु भेषज करत ब्याधि न छांडत साथ ।
खग मृग बसत अरोग बन हरि अनाथ के नाथ ॥

बच्ची भी हिंदी पढ़ती है । उसने भी व्यंजना निकाली- कहने लगी । यही तो समस्या है । वे अनाथ भी तो नहीं कि भगवान उनकी जिम्मेदारी लें । वे तो पहले से ही ‘भारत माता’ की शरण में हैं ।

हमने कहा- तो फिर हम क्यों उनकी फ़िक्र करें । जिसने प्रधानमंत्री बनाया है वही उनकी रक्षा भी करेगा । हमारे पास तो जो विकल्प थे सो तुम्हें बता दिए । और हम फिर रजाई में घुस गए ।

तो भाईजान, हमारा तो यही लिखना है कि आप हमारे भरोसे नहीं रहें ।
जै राम जी की ।

05-01-2013

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