Feb 27, 2011

तोताराम और २० करोड़ का शराब का विज्ञापन


(सन्दर्भ : सचिन ने बीस करोड़ का शराब का विज्ञापन छोड़ा । बीस करोड़ का कोकाकोला का विज्ञापन पकड़ा- २७-२-२०११)

हम चबूतरे पर बैठे थे कि तोताराम जल्दी-जल्दी आगे से गुजरने लगा । हमने आवाज़ लगाई- क्या घर भूल गया जो भागा जा रहा है ? कहने लगा- अभी ज़रा जल्दी में हूँ । चाय आते समय पिऊँगा । हाँ, एक बात का ध्यान रखना । कोई शराब के विज्ञापन का प्रस्ताव लेकर आए, तो मना कर देना । भले ही वह बीस करोड़ क्या, दो सौ करोड़ का ऑफर दे । कह देना तोताराम शराब के विज्ञापन नहीं करता ।

हमें आश्चर्य हुआ, बीस करोड़ का विज्ञापन और वह भी तोताराम को ? कब से करने लगा यह साइड बिजनेस ? कभी चर्चा भी नहीं की ।

हमने उसे पकड़ कर रोक लिया, कहा- पहले सारी बात बता । तब जाने देंगे ।

बोला- आज कल शराब बनाने वाले विज्ञापन के लिए सेलेब्रिटीज को ढूँढ़ रहे हैं । सचिन ने तो मना कर दिया है सो अब बचा और कौन ? अब वे मुझे ढूँढते हुए फिर रहे होंगे और तू जानता है कि मैं शराब के पक्ष में नहीं हूँ सो चाहे कितने भी रुपए दें मगर मैं शराब का विज्ञापन नहीं करने वाला । हाँ, कोई कोकाकोला वाला या पेप्सी वाला आए तो कह देना कि मैं अभी आधे घंटे में आ रहा हूँ ।

हमने हँसी आगई, कहा- क्यों भाई, और कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति नहीं बचा क्या, तेरे अलावा विज्ञापन करने के लिए । बड़े-बड़े बादशाहों और महानायकों को देख ले । कह रहे हैं पैसे के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं । किसी की शादी, जन्म दिन कुछ भी हो बुला लो, पैसे दो और करवालो नाच-गाना, कमर मटकवाना, जो चाहो । अब तू ही एक बचा है शालीनता और सिद्धांतों का पालन करने वाला ? और सचिन की जहाँ तक बात है तो उसने शराब नहीं तो कोकोकोला वाला विज्ञापन पकड़ लिया । दोनों में कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं है । शराब पीकर भी आदमी को लगता है कि वह कुछ भी कर सकता है जैसे कि चूहा शराब पीकर बिल्ली से लड़ने के लिए तैयार हो जाता है । कोकाकोला का विज्ञापन भी ऐसे ही दिखाया जाता है कि उसे पीते ही जो चाहो सो हो जाएगा । वैसे दोनों ही कोई जीवन रक्षक वस्तुएँ नहीं हैं ।

तोताराम कहने लगा- यदि शराब कोई बुरी चीज होती तो क्या सरकार उसे बंद नहीं कर देती ? और तुझे पता नहीं, शराब से जो टेक्स मिलता है उससे कई कल्याणकारी कार्यक्रम चलाती है सरकार । और फिर सचिन ने कहा है कि कोकाकोला वाले विकास के कार्य भी तो करते हैं ।

हमने कहा- किसी गाँव के सारे जलस्रोतों का शोषण करके कोई एक गड्ढा खुदवा देते हैं और प्रचारित कर देते हैं कि इसमें वाटर हार्वेस्टिंग करेंगे । और हो गया विकास । अरे, यहाँ का पानी, यहाँ के पीने वाले और एक रुपए का माल और वह भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक, पिलाकर बारह रुपए ले जाते हैं अपने देश । यह है विकास ? इतने रुपए में तो आदमी इससे ज्यादा दूध खरीद सकता है । और जहाँ तक रोजगार की बात है तो लाखों बोतल बनाएँगे और रोजगार मिलेगा पन्द्रह लोगों को । इससे ज्यादा रोजगार तो दस-बीस गाएँ पालने पर लोगों को मिल सकता है ।

सचिन के क्रिकेट और कोकाकोला से जो विकास हो रहा है उसी का परिणाम है कि टी.वी., मोबाइल और कम्प्यूटर सस्ते हो रहे हैं और खाने की चीजें महँगी । बिना पेट में रोटी गए यह सब ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है ।

तोताराम हँसते हुए कहने लगा- नाराज़ न हो बंधु, तुझे नहीं जँचता तो कोई बात नहीं । नहीं करेंगे विज्ञापन । लाखों करोड़ के घोटालों से, सत्तर लाख करोड़ स्विस बैंक में चले जाने से भी जिस देश का कुछ नहीं बिगड़ सकता तो उस देश के एक वरिष्ठ और विशिष्ट नागरिक तोताराम पर भी दस-बीस करोड़ का विज्ञापन छोड़ देने से कोई असर नहीं पड़ेगा ।

अच्छा, अब इस चाय को गरम करवा ले । ठंडी हो गई दीखे ।

हमने कहा- तोताराम, भले ही सचिन को २० करोड़ का शराब का विज्ञापन ठुकराने पर भारत रत्न नहीं मिला हो मगर तुझे अवश्य ही यह दो सौ करोड़ का शराब का विज्ञापन ठुकराने के कारण 'भारत-रत्न' मिलेगा ।

तोताराम ने हमें बड़ी अदा से सलाम ठोंका, और कहा- ज़र्रा नवाज़ी के लिए शुक्रिया ।

२८-२-२०११

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Feb 24, 2011

दोस्ती और उम्र


पवार साहब,
नमस्ते । आजकल तो आप वर्ल्ड कप के चक्कर में व्यस्त होंगे और अब लोग हैं कि उलटी-सीधी बातों से आपको परेशान किए हुए हैं- कभी दालें, कभी अनाज, कभी महँगाई और कुछ नहीं तो मिले तो प्याज को लेकर चिक-चिक । अब क्रिकेट सँभालें कि ये परचून । अब लोगों ने आपकी और शहीद उस्मान बलवा की दोस्ती को ही मुद्दा बना लिया । कल ११-२-२०११ को आपने ठीक ही कहा कि आप ७० के हैं और बलवा ३२ का । उम्र के इतने अंतर में दोस्ती कैसे हो सकती है ? यदि कोई बूढ़ा चाहे तो भी जवान लोग उस से दोस्ती नहीं करना चाहते । जवान एक सौ से ऊपर की स्पीड से मोटर साइकल या कार चलाते हैं और इस उम्र में अपना यह हाल है कि गर्दन गुगली की तरह हिलने लग रही है । पर लोग हैं कि कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं । शास्त्रों में कहा गया है कि - 'लायक ही सों कीजिए ब्याह, बैर और प्रीत' ।
आप शास्त्र के ज्ञाता है फिर हम तो यह नहीं मानते कि आप ऐसा बेमेल जोड़ मिलाएँगे ।

वैसे पशु, लम्पट, स्वार्थी लोग उम्र, योग्यता, विचार कुछ नहीं देखते । बहुत से खल-कामी अपने से आधी क्या चौथाई उम्र की लड़की फँसाने में भी शर्म नहीं करते । इटली के प्रधान मंत्री के किस्से तो आपने पढ़े ही होंगे । सत्रह साल की लड़की के साथ उनके चर्चे चल रहे हैं । कुख्यात उपन्यास 'लोलिता' में तो एक बूढ़े सज्जन एक किशोरी को फँसा कर भागे-भागे फिरते हैं । पशु को तो इतना भी भान नहीं रहता कि अमुक मादा उसकी खुद की ही बेटी है । स्वार्थ आदमी को अंधा कर देता है । अपने देश के ही एक नेता ने आपातकाल में अपने से अढ़ाई गुना कम उम्र के संजय गाँधी की चप्पल उठा कर उन्हें पहनाई थी । अभी माया बहन की सेंडिलें साफ करते हुए एक पुलिस अधिकारी का फोटो छपा ही है ।

हमारे एक बुजुर्ग मित्र हैं । कविता करते हैं । कवि सम्मेलनों में जाते हैं । अब उम्र के कारण लोग उन्हें कम बुलाने लगें हैं मगर ये अपने बेटे से भी कम उम्र के संयोजक/कवियों के घुटने छूकर कहते हैं- आदरणीय, ध्यान रखिएगा । वास्तव में रंडी, अभिनेता, मंचीय कवि और नेता कभी रिटायर नहीं होते । ये फ्री में भी सेवा करने के लिए तैयार रहते हैं । सेवा की लत जो लगी हुई होती है । सेवा से बड़ी खुजली और कोई नहीं होती । लम्पटता, रिश्वतखोरी और खुशामद कभी उम्र का बंधन नहीं मानती । अस्सी नब्बे का नेता भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार रहता है । सलमान रश्दी अब भी लड़कियाँ पटाने में लगे हैं । नारायण दत्त जी पता नहीं पितृत्त्व परीक्षण से डरकर या किसी पद की आस में भाजपा से नजदीकी बढ़ा रहे हैं । चौरासी साल की उम्र में हैदराबाद में राजभवन को ऐसा आबाद किया कि बर्बाद होकर देहरादून जाना पड़ा । करुणानिधि अगला चुनाव लड़ने के मूड में नज़र आ रहे हैं । फिल्म वाले सारे बाल उड़ जाने पर भी विग लगाकर जमें हुए हैं परदे पर ।

वैसे उम्र कम होने से कोई फर्क नहीं पड़ता । राम को कम उम्र और नाज़ुक देखकर जब जनक जी की पत्नी शंका करती हैं कि यह सुकुमार किशोर धनुष कैसे तोड़ सकेगा तो उनकी सहेली कहती कि देवी, तेजवंत को कभी छोटा मत समझो । मन्त्र, अंकुश छोटे होते हैं मगर बड़े-बड़ों को वश में कर लेते हैं । व्यक्ति तेजवंत मतलब कि काम का होना चाहिए । बलवा भले ही कम उम्र का है मगर है तो कोई ऊँची चीज ही वरना २जी स्पेक्ट्रम वाली टीम में कैसे शामिल होता ? राजा कौन से बुजुर्ग हैं ? व्यक्ति कर्मों से बड़ा होता है । कुछ लोग मरने को आ जाते हैं मगर बचपना नहीं छूटता ।

आप तो खैर उम्रदराज़ हैं, जिम्मेदार व्यक्ति हैं और फिर क्रिकेट जैसे राष्ट्रहित और लोक-कल्याणकारी कर्म से जुड़े हैं ।
आपको कहाँ फुर्सत ? और फिर क्रिकेट में क्या नहीं है ? जैसे क्रिकेटर हजारों लोगों के हल्ले की परवाह नहीं करते हुए खेलता रहता है उसी प्रकार आप तो लगे रहिए, मुन्ना भाई की तरह ।

१२-२-२०११
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महँगाई कम करने के लिए सुझाव


आदरणीय प्रणव दा,
नोमोस्कार । आपने बजट पूर्व बैठक में ‘सेबी’ और ‘इरडा’ के अध्यक्षों और रिज़र्व बैंक के गवर्नर से महँगाई कम करने के उपाय पूछे । पता नहीं, उन्होंने कुछ बताया या नहीं । इतनी छोटी सी बात के लिए क्या आप वास्तव में चिन्तित हैं ? या फिर जैसे बजट से पहले कुछ आर्थिक लोगों की बैठक करना एक रस्म अदायगी होती है और जब बैठक की है, इतना टी.ए., डी.ए. खर्च हुआ है तो कुछ पूछना भी चाहिए इसलिए पूछ लिया । हमें तो कहीं महँगाई दिखाई नहीं दी । फोन, दारू, फ़िल्में खूब चल रहे हैं । सेंसेक्स भी ठीक ही चल रहा है । जी.डी.पी. भी दहाई को छूने के लिए मचल रही है । स्विस बैंक में हमारा सबसे ज्यादा पैसा जमा है ! फिर चिंता किस बात की ? कहीं आप विपक्ष वालों के हल्ले से तो परेशान नहीं हैं ? इनका काम तो हल्ला मचाना है ही । इनके ज़माने में कौन सा सतयुग था । और जब आएँगे तब कौन सी फाड़ कर एक की दो कर देंगे । हमें याद है दिल्ली में साहिब सिंह के ज़माने में प्याज साठ रुपए बिका था आज से ग्यारह साल पहले । मतलब कि आज के सवा सौ रुपए । क्या उसके बाद भाजपा सत्ता में नहीं आई ? यह भारत की जनता है - पूरी पतिव्रता । इसके बस कोई विकल्प नहीं है । ज्यादा से ज्यादा एक बार किसी और को जिता कर फिर आपके पास झख मार कर आएगी । हमने तो कई मनोवैज्ञानिकों से सुना है कि जनता एक आदर्श पत्नी की तरह होती है जो पीटने वाले पति से ज्यादा प्यार करती है ।

खैर, हमें तो आपसे यही शिकायत है कि आप इस छोटी सी बात के लिए जाने किस-किस से पूछते रहे । हमें याद नहीं किया । आखिर हम किस दिन के लिए हैं ? वैसे आपने बजट की दिशा तय करने के लिए उद्योगपतियों से कंसल्ट कर ही लिया है और अमरीका से भी कुछ दिशा-निर्देश आ ही गए होंगे । अब भारत के इतने शुभ चिंतकों के होते हुए आपको चिंता होनी तो नहीं चाहिए । आपने हमसे कंसल्ट नहीं किया, हो सकता है कि आपने पत्र लिखा हो और हमारे पास नहीं पहुँचा हो क्योंकि आज कल डाक वाला मामला ऐसे ही चल रहा है । हमने एक पत्रिका का वार्षिक चंदा भेज रखा है मगर सात महिने से नहीं मिल रही है । संपादक को पूछते है तो वे कहते हैं कि उन्होंने तो भेज दी । पोस्टमैन से पूछते है तो कहता है कि आएगी तो हमें उसे क्या अपने घर पर रखना है ? पत्रिकाओं की तो रद्दी भी कोई नहीं खरीदता । पत्र नहीं पहुँचने की बात करते हैं तो लोग कहते है कि आजकल पत्र कौन लिखता है मोबाइल पर बात कर लो, लिफाफे से सस्ता पड़ेगा । अब क्या बताएँ ? जहाँ तक एस.एम.एस. करने की बात है तो न तो आपको एस.एम.एस. करना आता और न ही हमें, इसलिए हम अपने सुझाव ब्लॉग पर डाल रहे हैं । यदि आपको समय मिले तो पढ़ लीजिएगा । वैसे हम अपने पाठकों से भी आग्रह कर रहे हैं कि यदि वे पढ़ें तो सुझाव आप तक पहुँचा दें ।

वैसे यह खाने-पीने का विभाग है तो शरद पावर का मगर उन्हें तो वर्ल्ड कप की तैयारियों से फुर्सत नहीं होगी । होगी तो भी जब से क्रिकेट की सेवा करने लगे हैं तब से उनके मुखारविंद से गुगली के अलावा और कुछ निकलता ही नहीं । वैसे भी क्रिकेट में कहीं आम आदमी वाली महँगाई की समस्या आती नहीं । वहाँ तो कोकाकोला, दारू और चीयर लीडर्स ही साँस नहीं लेने
देते फिर प्याज, दाल और सब्जियों का नंबर कहाँ लगेगा ?

हमारे यहाँ महाराणा प्रताप नाम के व्यक्ति हुए हैं जिन्हें भाजपा वालों ने पकड़ रखा है इसलिए कांग्रेस ने विशेष ध्यान नहीं दिया मगर उन्होंने महँगाई से बचने का एक तरीका खोजा था । वे घास की रोटी खाकर अकबर से लड़े थे । १८९६-७ में एक भयंकर अकाल पड़ा था जिसमें ५० लाख से अधिक लोग मरे थे । तब कहते हैं, लोगों ने पेड़ों के छिलके तक खाए थे । घास तो उस अकाल में रही नहीं थी । आज भी कुछ लोग घास खाने को तैयार हैं मगर उसमें तो सारा रा.ज.द. घुसा पड़ा है । वैसे भी आम आदमी को किसी ने भी घास डालना बंद कर दिया है । कुछ लोग अन्य चीजें भी खाने की हिम्मत कर सकते हैं जैसे- यूरिया, अलकतरा, पेट्रोलियम आदि मगर उनमें भी नेता लोग घुसे पड़े हैं । कुछ गरीब लोगों ने कम्प्यूटर और मोबाइल को भी अच्छी तरह से खड़खड़ा कर देखा लिया, कोई भी खाद्य वस्तु नहीं निकली । अब हमें तो एक ही उपाय नज़र आता है मगर आप से उसकी चर्चा करते हुए डर लगता है कि कहीं आप हमें सिरफिरा न मान लें । एक पुराने कांग्रेसी और बाद में जनता पार्टी के शासन में प्रधान मंत्री हुए हैं भारत रत्न मोरार जी देसाई । उन्होंने एक सस्ता उपचार और जल समस्या का हल बताया था- शिवाम्बु-पान । जब वे प्रधान मंत्री थे तो कई लोगों ने उन्हें खुश करने के लिए घोषित कर दिया था कि वे भी इसका सेवन करते हैं और उन्हें इससे बहुत फायदा हुआ है । कुछ ने नाक भौं भी सिकोड़ी । मगर एक सिद्धांत तो था ही । और यदि इसी दर्शन को और आगे बढ़ाया जाए तो भोजन की समस्या भी सुलझ सकती है ।

इसके अलावा और कोई सस्ता और सुलभ उपाय नज़र आता नहीं है इस वैश्विक और उदारीकृत व्यवस्था में । यदि होता तो महान अर्थशास्त्री मनमोहन जी और मोंटेक सिंह जी हाथ खड़े नहीं करते ।

वैसे तो भारतीयों की रोटियाँ गिनने का काम कमलनाथ और कोंडालिजा राइस करती रही हैं फिर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो अपनी मर्जी से ही रोटियाँ गिन कर खाते हैं । ऐसे लोगों के लिए सुझाव दिया जा सकता है कि रोटियाँ इतनी पतली बनाई जाएँ जितनी कि सड़कों पर मसाले की परत डाली जाती है । गिनती तो पूरी हो जाएगी मगर आटा कम लगेगा और जहाँ तक पेट भरने की बात है तो पेट तो पापी होता है । आज तक भरा है क्या किसीका ?

हमें अपने बचपन के कई लोग याद हैं जो मितव्ययी थे जैसे हमारे एक प्रिंसिपल थे जो तारीख़ के कलेंडर के पुराने पन्ने रख लिया करते थे और उन्हें भी रफ काम में लिया करते थे । एक सज्जन थे जो बिजली बचाने के लिए घंटी न बजा कर मुँह से बजने वाली सीटी बजाया करते थे । हमारी नानी पानी का खर्चा बहुत कम करती थी । वे तसले में बैठ कर नहाती थीं और बचे हुए पानी से कपड़े धो लेती थीं और फिर भी बचे हुए उस पानी से गोबर थाप लेती थीं । हम भी अपने बचपन में जब लोटा लेकर दूर जंगल में दिशा-मैदान फिरने जाया करते थे तो एक ही लोटे में तीन-चार साथी निबट लिया करते थे । पर क्या बताएँ ऐसी मितव्ययिता करने वाले को पिछड़ा हुआ माना जाता है । और पिछड़ा हुआ कोई नहीं रहना चाहता । नौकरियों में आरक्षण के लिए पिछड़े वर्ग में शामिल किए जाने के लिए आन्दोलन करने की बात और है ।

बचपन में जब कपड़ा खरीदने जाते थे तो पिताजी दुकानदार को कहा करते थे कोई मैल-खोरा रंग दिखाओ जो ज्यादा गन्दा न हो । बच्चे धूल-मिट्टी में खेलते हैं । कितना धोएँगे । मगर वह बात साधारण आदमी की थी । उन्हें क्या पता था कि एक समय ऐसा आएगा जब नेताओं को ऐसे -ऐसे काम करने पड़ेंगे कि उन्हीं के कपड़े सबसे ज्यादा गंदे होंगे । साधारण आदमी का क्या है उसके कपड़े कैसे भी रहें कोई फर्क नहीं पड़ता मगर नेता को तो अंदर की गंदगी छुपाने के लिए सफ़ेद कपड़े चाहिए ही । यदि नेता लोग कपड़े गंदे होने वाले काम न करें तो भी साबुन की महँगाई कम हो सकती है । मगर उन्हें पैसे की क्या कमी है, सो कैसे भी काम करें, कपड़े तो हमेशा झकाझक ही मिलेंगे । 'दाग ढूँढते रह जाओगे' वाला साबुन उनके लिए ही तो बनाया जाता है ।

वैसे चलते-चलते पुराने लोगों की एक सीख बताते चलें कि जब भोजन कम पड़ता दिखाई दे तो सब्जी में मिर्च और पानी में बर्फ डलवा देनी चाहिए जिससे जब मुँह जलेगा तो खाने वाला खूब ठंडा पानी पिएगा और तात्कालिक रूप से भोजन की समस्या हल हो जाएगी । बाद की बाद में देखी जाएगी ।

२२-१-२०११
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Feb 17, 2011

सौंदर्य के शत्रु


आज तोताराम आया तो खासा नाराज था । कारण पूछा तो कहने लगा- मास्टर इन आयकर वालों का दिमाग खराब हो गया है या फिर ये महानिर्दय हैं । अब देख, इनकम-टेक्स का छापा भी मार रहे हैं तो कहाँ ? बेचारी दो मासूम कन्याओं के यहाँ । एक के यहाँ तो चलो एक मर्द सहायक मित्र निकल आया वरना हो सकता है कि इनमें से कोई कुछ उठा भी ले जाता तो बेचारी बालिका क्या कर लेती ?

हमने कहा- बंधु, यह तो कानून का काम है । चलता रहता है । सब हमारी-तुम्हारी तरह नौकरीपेशा तो हैं नहीं कि प्रिंसिपल तनख्वाह देने से पहले की टेक्स काट ले । इन फिल्म वालों का क्या पता कितना कमाते हैं और कितना टेक्स देते हैं ? सो समय-समय पर सँभालते तो रहना ही पड़ता है ।

तोताराम कहने लगा- अरे, सँभालना ही है तो नेताओं के यहाँ सँभालो ना ? हजारों करोड़ में खेलते हैं । बड़े-बड़े सेठों के यहाँ सँभालो जो शादियों में सैंकडों करोड़ खर्च कर देते हैं । हजारों करोड़ के मकान बनवाते हैं, ‘दुनिया को मुट्ठी’ में किए बैठे हैं ।

हमने कहा- उनको भी सँभालते ही हैं । लालू को बीस बरस से खँगाल रहे हैं कि नहीं, अब तक जयललिता की साड़ियाँ गिन ही रहे हैं, अभी मायावती को कौन सा बरी कर दिया ? अब यह बात और है कि कुछ निकल ही नहीं रहा है । ऐसे ही तो किसी को सजा नहीं दी जा सकती ना ? और फिर इन हीरो-हीरोइनों की कमाई का क्या ठिकाना ? कहते हैं शादी, न्यू ईयर की पार्टी में एक रात के एक-दो करोड़ लेते हैं ।

कहने लगा- तो क्या कोई ऐसे ही दे देता है ? तू यहाँ आराम से बैठा बातें बना रहा है । ठुमके लगाते-लगाते बेचारियों की कमर टूट जाती है । तू सर्दियों में एक-एक हफ्ते नहीं नहाता, एक कुर्ते पायजामे को दस-दस दिन घसीटता है पर इन्हें तो किसी डिजायनर से पकड़े बनवाने पड़ते हैं, एक-एक नाच में दस-दस ड्रेसें बदलनी पड़ती हैं । एक कार्यक्रम में जाने से पहले लाखों रुपए खर्च कर पूरा दिन मेकअप करवाना पड़ता है ।

हमने कहा- यह सारा खर्चा काटकर भी तो बहुत बच जाता होगा ? मजे ही मजे हैं इनके ।

तोताराम चिढ़ गया- क्या ख़ाक मजे हैं । न ढंग से खा सकती हैं, न ढंग से पहन सकती हैं । तेरी तरह दिन उगते ही दो रोटियाँ नहीं खा जातीं । जरा सा शहद, नींबू पानी और ब्रेड का एक टुकड़ा । वजन बढ़ने का डर रहता है । जीरो साइज बना कर रखना पड़ता है । और कपड़ों का भी क्या सुख है । कैसी भी सर्दी हो, बेचारी पूरे कपड़े भी नहीं पहन सकतीं । प्रायः एक कंधा तो खुला ही रहता है और यदि कार्यक्रम वाला टॉप लेस की फरमाइश कर दे तो फिर दोनों कंधे भी खुले रखने पड़ते हैं । और यदि कहानी की माँग हो तो सारे कपड़े भी उतारने पड़ते हैं । और फिर इनकी कौनसी तेरी तरह पेंशन होती है । बुढ़ापे की भी फ़िक्र करनी पड़ती है । इन्हें कौन सरकार वृद्धावस्था पेंशन देती है । नेताओं का क्या वे तो एक दिन भी सांसद रह जाते हैं तो ज़िंदगी भर पेंशन लेते हैं । और फिर शादी के लिए भी तो दहेज इन्हें खुद को ही जुटाना पड़ता है ।

मैं तो कहता हूँ कि सरकार इन पर छापे न मारे बल्कि उन लोगों से कलेक्ट करके लाख दो लाख रुपया महीना इन्हें दे जो मुफ्त में ही तेरी तरह इनकी फोटो देखकर मजे ले रहे हैं और जो अखबार वाले इनके फोटो छाप कर अपनी बिक्री बढ़ा रहे हैं । तूने भी तो इनकी फोटो देखी होंगीं ?

हमने कहा- तो ले भाई, आज के तो ये दो रुपए पकड़ । आगे फोटो देखेंगे तो चुकाते रहेंगे ।

२७-१-२०११

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Feb 16, 2011

टीम इण्डिया और हार-जीत


तोताराम चाय पीने में व्यस्त था और हम अपनी चिंता में । हमने पूछा- तोताराम, अब प्रवीण कुमार के हाथ की चोट कैसी है ?
तोताराम- पता नहीं । उसके स्थान पर श्री संत को ले लिया गया है ।

हम- पर क्या प्रवीण कुमार ठीक हो गया तो श्री संत को निकाल कर फिर प्रवीण कुमार को ले लिया जाएगा?

तोताराम- हो भी सकता है ।

हम- क्या वह श्री संत से बेहतर बॉलर है ?

तोताराम- यह चांस की बात है ।

हम- अब भज्जी की चोट कैसे है ? क्या वर्ल्ड कप तक ठीक हो जाएगा ? भज्जी के बिना तो कैसे चलेगा ?

तोताराम- यह तो होता ही रहता है । कोई न कोई तो खेलेगा ही ।

हम- पर अब टीम इण्डिया की क्या संभावना है ?

तोताराम- अपने वाले तो यही कह रहे हैं कि टीम इण्डिया जीतेगी ।

हम- ऐसा तो हमेशा ही कहते रहते हैं पर १९८३ के बाद जीती तो नहीं अपनी टीम । वैसे अबकी बार तो पूजा-पाठ किए हैं, ख्वाज़साहिब के यहाँ भी चादर चढ़ाई है । जीत जाएँ तो ठीक रहे । अगले वर्ल्ड कप तक तो क्या पता, सचिन सन्यास ले ले । धोनी तो कह रहा है कि सचिन को वर्ल्ड कप का उपहार देंगे । तेरा क्या ख्याल है ?

तोताराम- मेरा ख्याल क्या काम आएगा । काम तो खेल आएगा । अच्छा खेलेंगे, तो जीत जाएँगे । मैं कोई ज्योतिषी हूँ क्या जो बता सकूँ ?

हम- ज्योतिषी तो शरद पवार जी भी नहीं हैं फिर भी जब वे कृषि जिंसों के बारे में बोलते हैं तो महँगाई बढ़ जाती है तो कुछ तो उनके ज्ञान या जुबान में कमाल है ही । फिर भी तेरा मन क्या कहता है ?

तोताराम झल्ला कर कहने लगा- अब चाय भी पीने देगा या नहीं । हद हो गई यार, एक चाय में और कितना भाषण पिलाएगा ? पहले तो तू क्रिकेट वालों की बड़ी टाँग खिंचाई किया करता था । अब क्या हो गया ? बड़ी क्रिकेट की फ़िक्र लग रही है, क्या बात है ? क्या तूने क्रिकेट पर कोई सट्टा लगा रखा है ?

हमने कहा- नहीं ऐसी बात तो नहीं है ।

तोताराम- तो फिर इतना परेशान क्यों हो रहा है ?

हमने कहा- बात यह है तोताराम कि पिछले वर्ल्ड कप के समय हमने क्रिकेट पर कुछ दोहे लिखे थे और एक तेजी से बढ़ते अखबार ने उन्हें छापने और प्रति दोहा हमें बीस रुपए देने का आश्वासन भी दिया था । तीन दोहे छपे भी मगर जैसे ही टीम इण्डिया हारने लगी तो उसने हमारे दोहे छापना बंद कर दिया और साठ रुपए भी खा गए । अबकी बार उन्हीं दोहों को फिर एक अखबार में भेजा है । यदि टीम इण्डिया हारने लगी तो फिर दोहे छपना बंद ।

तोताराम बोला- लगता है, तेरे दोहों से ही पिछली बार टीम इण्डिया हार गई । यदि तू अपने दोहे वापिस ले ले और फिर कभी क्रिकेट के बारे में कुछ भी नहीं लिखे तो मैं तेरी आमदनी की भरपाई कर सकता हूँ । ले यह सौ का नोट और बंद कर अपने अपशकुनी दोहे ।

हमने कहा- तोताराम, क्रिकेटर विज्ञापन के लिए बिकाऊ हो सकते हैं, हमारी कलम नहीं ।

१३-२-२०११

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Feb 15, 2011

बाज़ार के भरोसे


अभी दो दिन पहले १२ फरवरी को समाचार था कि सीकर जिले में कुछ किसानों ने अपने चने के खेतों में खरपतवार नष्ट करने वाले रसायन का छिड़काव किया जिससे खरपतवार का तो कुछ नहीं बिगड़ा मगर चने के पौधे मर गए । इससे पहले भी ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं जब बाजार के बीजों, खाद, कीटनाशक आदि ने किसानों को धोखा दिया और कई राज्यों में तो नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी कि किसानों को आत्महत्याएँ तक करनी पड़ी थीं ।

इससे पहले भी लाखों वर्षों से दुनिया में खेती होती रही है और पारंपरिक किसानों में खेती का अपना अनुभव है । किसानों ने ही अपनी स्थानीय परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार समय पर बीज, खाद, कीटनाशक, संकर पौधे विकसित और संरक्षित किए हैं । खेती की नई तकनीकें विकसित कीं, बीज और अन्न संरक्षण के तरीके खोजे । आज अचानक सारी दुनिया में यह क्या, कैसे और क्यों हो गया कि किसान खाद, बीज, कीटनाशन के लिए जाने किन-किन ज्ञात-अज्ञात कम्पनियों वाले बाजार पर आश्रित, और कहें तो गुलाम, हो गया ।

खेती को सर्वश्रेष्ठ माना गया है क्योंकि अन्न के बिना किसी का काम नहीं चलता । इसीलिए अन्न को ब्रह्म कहा गया है । कृषि को गौण मानकर या उपेक्षित करके कोई भी देश सही अर्थों में स्वावलंबी नहीं हो सकता । साइबर महाशक्ति का दंभ भरने वाले भारत को कृषि को उपेक्षित करने के कारण ही खाद्य पदार्थों की महँगाई और कमी झेलनी पड़ रही है । दुनिया के सभी देश अपने किसानों को सब्सीडी देते हैं और खाद्य पदार्थों के मामले में आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करते हैं । जब किसान किसी और के लिए खेती करने लग जाता है या मिश्रित खेती छोड़ कर एक ही नकद फसल उगाने लग जाता है तो वह बाजार का गुलाम हो जाता है । इसीलिए कई बार देखा जाता है कि किसी एक वस्तु का उत्पादन इतना हो जाता है कि उसके भाव गिर जाते हैं और किसान को उसे यूँ ही फेंकना पड़ता है । इस लिए कृषि संतुलित और मिश्रित होनी चाहिए । आजकल राजस्थान में लोग बीयर के लिए जौ उगा रहे हैं । यह न तो कृषि का उद्देश्य है और न ही भूमि का सदुपयोग । यह सब बाजार के चक्कर में हो रहा है ।


हम सबको और किसानों को समझ लेना चाहिए कि बाजार बहुत निर्दय होता है । उसे केवल अपने मुनाफ़े से मतलब है । आप गाँव के छोटे व्यापारी पर तो स्थानीय दबाव बना भी सकते हैं मगर इन बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर किसी का जोर नहीं चलता । इन कंपनियों पर सत्ता का वरद-हस्त रहता है । कहीं कही तो ये इतनी प्रभावशाली हो जाती हैं कि सत्ता परिवर्तन तक करवा देती हैं । भारत में इसका अनुमान ‘भोपाल गैस कांड’ में सरकार की दयनीय स्थिति से लगाया जा सकता है ।

इसका सबसे उचित उपाय है कि किसान अपनी ही तकनीक, बीज, खाद और कीटनाशक तैयार करे । इसके लिए अपनी पारंपरिक तकनीक का पुनरुद्धार करे । सरकार को अपने ही गोरखधंधों से फुर्सत नहीं सो उसके भरोसे रहने से कोई फ़ायदा नहीं । भारत में कृषि का बहुत प्रायोगिक ज्ञान है और उसे बहुत से समझदार और प्रगतिशील किसान काम में ला भी रहे हैं । किसानो को उनसे संपर्क करना चाहिए । ये पारंपरिक उपाय सस्ते भी होंगे और प्रभावशाली भी । और कम से कम सीकर वाले कीटनाशक की तरह उलटे प्रभाव वाले तो नहीं ही होंगे ।

किसानों को उचित मूल्य भी मिले, इससे सरकार को कोई मतलब नहीं है । वह वोट के चक्कर में केवल नाटक करती है । यदि किसान समझे, और उपभोक्ता किसान के महत्त्व को समझे, तो सब कुछ ठीक हो सकता है किसान सुरक्षित तकनीक से अन्न उगाए और लोग उसके अन्न का उचित मूल्य सहर्ष दें । जब सब कुछ महँगा हो रहा है तो किसान को ही क्यों दबाया जाए । उपभोक्ता और किसान की जितनी निकटता बढ़ेगी, उतना की किसान और उपभोक्ता दोनों को फायदा होगा । बिचौलियों के कारण पिछले दिनों कुछ खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ीं मगर उससे किसान को कोई फायदा नहीं हुआ ।

उपभोक्ता, किसान और देश, सभी की भलाई के लिए यह आवश्यक हो गया है कि उपभोक्ता और किसान के बीच सीधा संपर्क हो, देसी तकनीक अपनी जाए और उपभोक्ता किसान को सीधे-सीधे उचित मूल्य देने में संकोच न करे । किसान को भी चाहिए कि वह व्यापारियों और बड़ी कंपनियों के चक्कर में न पड़े । इस समय बाजार बहुत शक्तिशाली और आक्रामक हो गया है । उससे व्यक्ति या वर्ग विशेष को बचाने की ही नहीं, इस संसार को बचाने की ज़रूरत है । और यह सबके मिलने और समझने से ही संभव है ।

१४-२-२०११


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Feb 13, 2011

लिखे कोई, पढ़े कोई - संयुक्त राष्ट्र संघ में विदेश मंत्री कृष्णा


आज अखबार खोला तो पहले ही पेज पर छपा था- संयुक्त राष्ट्र संघ में विदेश मंत्री कृष्णा पुर्तगाल वाले का भाषण पढ़ने लगे और पूरे तीन मिनट तक पढ़ते रहे । जब उनके सहयोगी सूरी ने याद दिलाया तो फिर ठीक किया । जैसे ही तोताराम आया तो हमने उससे कहा- देख ली अपने रहनुमाओं की काबिलियत ? पा लिया मौलिकता का परिचय ?

तोताराम जोर से हँसा और बोला- तुझे यह भ्रम हुआ ही कैसे कि नेता मौलिक होते हैं ? सब किसी और का ही लिखा पढ़ते हैं । पहले भाजपा वाले सोनिया जी का मज़ाक उड़ाया करते थे कि वे लिखा हुआ भाषण पढती हैं । बाद में पता लगा कि अडवाणी जी भी किसी कुलकर्णी जी का लिखा भाषण पढ़ते हैं । नेताओं को रोजाना इतने भाषण देने होते हैं, इतने सन्देश भेजने होते हैं तो उनके पास कहाँ तो इतना ज्ञान है और कहाँ इतना समय । ये सब काम तो नीचे वाले पी.ए., शी.ए. करते रहते हैं । वे तो दस्तखत करते हैं और कभी कागज ज्यादा हुए तो दस्तखत भी स्केन किए हुए ही छाप दिए जाते हैं । नोटों पर क्या वास्वव में रिज़र्व बैंक का गवर्नर साइन करता है ? जब विधान सभा या लोकसभा के सत्र में राज्यपाल या राष्ट्रपति भाषण पढ़ते हैं तो वह सत्ताधारी पार्टी की तरफ से लिखा जाता है । नेताओं के असली भाषण और विचार तो वे होते हैं जो किसी स्टिंग ऑपरेशन में टेप किए जाते हैं ।

और फिर मान ले कृष्णा जी ने पुर्तगाल वाले का भाषण पढ़ भी दिया तो क्या हो गया ? वैसे यदि वे अपना लिखा भाषण भी पढ़ते तो क्या फाड़ कर एक के दो कर देते । होगा तो वही जो पाकिस्तान, अमरीका और चीन चाहेंगे । हाँ, तुम्हारी यह बात मानी जा सकती है कि ध्यान रखना चाहिए । मगर भैया, बड़ी जगह हो, बड़े लोगों के बीच में पढ़ना या बोलना हो तो आदमी उक-चुक हो ही जाता है । पहली बार जब एक पत्नी पति को पत्र लिखती है तो आपके ‘चरणों की दासी’ की जगह आपके ‘प्राणों की प्यासी’ लिख जाती है । एक बार एक महिला तलाक के मामले में कोर्ट में हाजिर हुई तो घबराहट में कह गई- जज, साहब आप मुझे तलाक दे दीजिए । जज साहब कहने लगे- यह नहीं हो सकता । तलाक तो वही दे सकता है जिसने आप से शादी की है । मगर आप घबराइए नहीं, शांत भाव से अपनी बात कहिए । तो बोली- क्या बताऊँ जज साहब, यह मेरा पहला-पहला तलाक है ना ।

जिस आदमी के पास अपने विचार होते हैं तो उसे किसी का लिखा हुआ भाषण पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती । गाँधी जी कभी लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ते थे, नेहरू जी भी एक्सटेम्पोर ही बोलते थे । अटलजी जब हिन्दी में बोलते थे तो अपना लिखा हुआ बोलते थे मगर जब अंग्रेजी में बोलना होता तो किसी और का लिखा ही पढ़ते थे । अपने देश का बजट-भाषण भी तुम समझते हो कि वित्तमंत्री का लिखा हुआ होता है ? वह भी यहाँ के उद्योगपतियों और वर्ल्ड बैंक वालों का लिखा हुआ होता है । फिल्म में तुम जिस डायलाग को सुन कर गदगद हो जाते हो, जिस गीत पर तुम झूम जाते हो उसे न तो हीरो गाता है, न कम्पोज करता है और न ही उसका लिखा होता है । वह तो प्ले बैक सिंगर, गीतकार और संगीतकार की कला का कमाल है । और श्रेय मुफ्त में ले जाता है हीरो ।

आजकल कई अखबारों के मालिक दार्शनिक और वेदों के विद्वान के रूप में छाये हुए हैं, तो वे भी किसी और के बल पर ही । लिखता अखबार का कोई कर्मचारी है और छपता है मालिक के नाम से । गुजरात के एक प्रसिद्ध संगीत निर्देशक थे । दूर-दूर से कई गायक उनके पास चांस की आशा में आते थे और वे उनकी धुनें चुराकर फिल्मों में पेल देते थे । कई संपादक नए लेखकों की रचनाएँ अपने नाम से छाप देते हैं । बेचारा छोटा लेखक कहाँ गुहार लगाने जाए । मन मार कर रह जाता है । अरे, अमरीका के राष्ट्रपति का भी शपथ-ग्रहण का भाषण कोई और ही लिखता है तथा राष्ट्रपति को कई-कई बार उसकी रिहर्सल करवाई जाती । जब वह स्टेज पर बोल रहा होता हो तो भले ही कागज दिखाई न दे मगर वह एक टेलेप्रोम्प्टर ही पढ़ रहा होता है । हम इसे उस वक्ता की योग्यता मान कर प्रभावित हो जाते हैं । और टेलेप्रोम्प्टर के खराब होने पर बौखला जाता है

हमने कहा- तोताराम, तो फिर नेताओं के असली विचार और भाषा-शैली क्या होती है ?

तोताराम ने कहा- एक बार एक राजा के दरबार में एक विद्वान आया जो कई भाषाएँ बोलता था । राजा जानना चाहता था कि इसकी मातृभाषा कौन सी है ? कोई भी पता नहीं लगा पाया । तो एक चतुर मंत्री ने रात को सोते हुए विद्वान पर अचानक पानी की एक बाल्टी डाल दी । विद्वान गुस्से में चिल्ला उठा- कौन है बे, साले ?

मंत्री ने कहा- महाराज, इसकी मातृभाषा हिन्दी है ।

१३-२-२०११

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Feb 11, 2011

गुप्त सेवा


बसंत पंचमी की शाम को गैस खत्म हो गई थी । पानी कहाँ से गरम होता सो हमने तो नहाने का कार्यक्रम केंसिल कर दिया मगर पत्नी ने नहाने की हिम्मत कर ली और खा बैठी सर्दी । दिन भर नाक बही और रात को तो हल्का बुखार भी । चाय की आदत ठहरी सो किसी तरह अँगीठी जलाकर बनाई । आज चाय पीना हमसे ज्यादा पत्नी के लिए आवश्यक था । जब वह बारहों महीने हमारे लिए चाय बनाती है तो आज उसे चाय बनाकर देना हमारा कर्त्तव्य ही नहीं, धर्म भी था । पत्नी को चाय देने के बाद हम सँडासी से भगोना पकड़े-पकड़े ही चबूतरे पर ले आए । अपने लिए चाय छानी और बची हुई भगोने में ही छोड़ कर ढँक दी ।

कुछ देर बाद तोताराम आया और चाय पी । तब तक हमारी चाय भी समाप्त हो गई । हमने कहा- तोताराम, तेरी भाभी की तबियत आज ठीक नहीं है सो बंधु, गिलास खुद ही धो कर रख देना । और हो सके तो हमारा गिलास और भगोना भी धो देना ।

तोताराम बोला- भाई साहब, पहले वाली बात होती तो मैं सारे बर्तन माँज देता मगर अब ज़माना बदल गया है ।

हमें आश्चर्य हुआ- क्या ज़माना बदल गया ? हम, तू, तेरी भाभी सब तो वही हैं ।

कहने लगा- सोच, कल को यदि मैं राष्ट्रपति बन गया तो लोग मेरी इज्जत का भी कचरा कर देंगे और कह देंगे कि तोताराम को मास्टर ने राष्ट्रपति इसलिए बनाया कि वह उसके चाय के बर्तन साफ़ किया करता था । जब वर्तमान राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को ही नहीं छोड़ा तो मुझे क्या छोड़ेंगे ?

हमने कहा- तोताराम, इस दुनिया की मानते रहो तो यह गधे को कंधे पर चढ़वा देती है । वह कहानी नहीं सुनी ? एक बाप और बेटा शहर जा रहे थे । बेटा गधे पर बैठा था और बाप पैदल चल रहा था । लोगों ने कहा- देखो, बेटे को शर्म नहीं आती । बाप पैदल और बेटा सवारी कर रहा है । तो बेटा नीचे उतर गया और बाप बैठ गया । थोड़ी दूर जाने पर कुछ औरतें मिलीं, कहने लगीं- क्या ज़माना आगया है । छोटा बच्चा तो पैदल और बाप गधे पर । अबकी बार दोनों गधे पर चढ़ गए तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया- कैसे निर्दय हैं । बेचारे जानवर को मार ही देंगे । अबकी बार बाप-बेटे दोनों ही उतर गए । फिर कुछ लोग मिले और कहने लगे- बड़े बेवकूफ हैं । जानवर होते हुए भी पैदल चल रहे हैं । अंत में हारकर दोनों ने गधे को दो-दो पैरों में रस्सी बाँध कर एक लाठी से लटका लिया । अब तो अजब तमाशा हो गया । बच्चे चिल्लाते हुए उनके पीछे-पीछे चलने लगे । अब वे एक पुल पर से जा रहे थे । तभी गधा चमक गया और उछल कर रस्सी तुड़ाकर पिता-पुत्र सहित नदी में गिर गया ।

तोताराम कहने लगा- मास्टर, एक बार बात उछल जाती है तो फिर उसे वापिस लेना बहुत कठिन होता है । यह तो मैं और तुम जानते हैं कि यह घटना उस समय की बताई गई है जब इंदिरा जी प्रधान मंत्री नहीं थीं । और उस समय प्रतिभा जी महाराष्ट्र में किसी न किसी पद पर थीं । अब क्या यह हो सकता है कि वे अपना वहाँ का काम छोड़कर तीन साल तक दिल्ली में रहकर इंदिरा जी का खाना बनाती रही होंगी ।

हमने भी तोताराम का समर्थन किया- ये तो ऐसे लिख रहे हैं जैसे कि प्रतिभा जी तीन साल तक दिल्ली में खाना ही बनाती रहीं । अरे, ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि कभी दिल्ली आई होंगी और इंदिरा जी से मिलने गई होंगी । इंदिरा जी उस समय प्रधान मंत्री न होने के कारण उदास होंगी । ऐसे में उनका मन बढ़ाने के लिए प्रतिभा जी ने चाय बनाकर पिला दी होगी और अब लोग हैं कि ऐसे लिख रहे हैं जैसे कि प्रतिभा जी इंदिरा जी के यहाँ तीन साल तक बाई का काम करती रही थीं । अब क्या किया जाए । मारते का हाथ पकड़ा जा सकता है, बोलते की जुबान तो नहीं पकड़ी जा सकती ना ।

तोताराम कहने लगा- तभी तो कहता हूँ, ज़माना बड़ा खराब है, मास्टर । लोग सेवा, मदद और चापलूसी में फर्क नहीं समझते और यदि समझते हैं तो भी जानबूझकर तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते हैं । किसी हारे हुए नेता के पास कोई जाता है तो वह सच्ची सहानुभूति होती है । जीते हुए नेता को तो चमचे साँस ही नहीं लेने देते । लालू जी को पी.एच.डी. दिलवाने की तैयारी हो गई थी, अटल जी की कविताएँ मेरठ यूनिवर्सिटी के कोर्स में लगने वाली थीं । वह तो लोगों ने हल्ला मचाना शुरु किया तो बात टल गई । जब अटल जी प्रधान मंत्री थे तो सुरेन्द्र शर्मा उनकी अध्यक्षता में दिल्ली में कवि सम्मलेन करा रहे थे और अब चार लाइनें सुनाना तो दूर, कभी हाल पूछने भी नहीं गए होंगे । पहले इंदौर के एक वकील साहब अटल जी का मंदिर बनवा रहे थे । अब शायद उसमें शिवराज सिंह चौहान की प्रतिमा स्थापित कर दी होगी । पहले लालू, राबड़ी, अटल जी और वसुंधरा पर काव्य लिखे जा रहे थे । धड़ाधड़ खबरें छाप रहे थे और अब हाल यह है कि ढूँढ़े से भी कहीं अखबार में नाम नज़र नहीं आता । और तुम्हें याद होगा डाक्टर राणावत घुटनों का ऑपरेशन तो जाने कब से कर रहे थे मगर पद्मश्री मिली अटल जी के घुटने का ऑपरेशन करने के बाद । उमा शर्मा को भी अटल जी की कविताओं पर नृत्य करने के बाद ही पद्मश्री मिली ।

अब ये गिलास और भगोना धोने का काम मैं एक ही शर्त पर कर सकता हूँ कि तू दरवाजे पर खड़ा रहे और यदि कोई इधर आ रहा हो तो मुझे तत्काल सूचित कर दे जिससे मैं बर्तनों को छोड़कर हट जाऊँ और कोई मुझे यह तुच्छ काम करते हुए देख नहीं सके और यह भी कसम खा कि तू और भाभी यह बात जीते-जी किसी को भी नहीं बताओगे । किसी को सेवा का महत्त्व समझाने के चक्कर में भी उदाहरण तक नहीं दोगे राजस्थान के पंचायत मंत्री अमीन की तरह ।

तभी पत्नी अंदर से निकल आई, कहने लगी- देवर जी, तुम तो राष्ट्रपति बनो । बर्तनों का क्या है देर-सबेर हम ही माँज लेंगे ।

१०-२-२०११


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Feb 9, 2011

क्रिकेट बाइ चांस


हम क्रिकेट वर्ल्ड कप २०११ में भारत की जीत को लेकर चिंतित थे कि तोताराम आ गया और उसने क्रिकेट में जीतेने के कुछ अचूक नुस्खे बताए जो हम भारतीय क्रिकेट बोर्ड और खिलाड़ियों के मार्गदर्शन के लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं |

क्रिकेट कोई साधारण खेल नहीं है और न ही रॉकेट छोड़ने जैसा आसान काम | इसलिए किसी एक उपाय के भरोसे न रहकर एक साथ कई उपाय करने पड़ेंगे, जैसे चुनाव जीतने के लिए जागरण से जुगाड़ तक, राम से राजनीति तक, दवा से दारू तक, विज्ञान से विवाद तक, घूस से घेराव तक सभी उपाय | यद्यपि पिछले वर्ल्ड कप से समय गांगुली के भाई ने पूजा-पाठ करवाने जैसे कई वैज्ञानिक उपाय किए थे पर यह उत्तरदायित्त्व केवल खिलाड़ियों के घर वालों का ही तो नहीं है | सभी भारतीयों का कर्त्तव्य है राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा की इस घड़ी में अपनी-अपनी ओर से योगदान करें |

सारे देश में यज्ञ, जप, जागरण होने चाहिएँ | अच्छे जादूगरों से ताबीज बनवाकर सभी खिलाड़ियों को बाँधे जाएँ | सब अपने-अपने इष्ट के अनुसार मुर्गे, बकरे आदि की बलि दें – स्वाद का स्वाद, धर्म का धर्म और देशभक्ति तो है ही | जिस देश से भी हमारा मैच होने वाला हो उसके पुतले, बिना किसी धार्मिक भेदभाव के, सभी गाँवों और शहरों में जलाए जाएँ | दसवीं और बारहवीं की परीक्षाएँ स्थगित कर दी जाएँ जिससे युवा वर्ग क्रिकेट-विजय में अपना पूरा योगदान दे सकें | किसी अच्छे तांत्रिक से विपक्षी टीम पर उच्चाटन-मन्त्र का प्रयोग भी करवाना चाहिए |

हमारी हार का एक कारण यह भी बताया जाता है कि आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, वेस्ट इंडीज और दक्षिणी अफ्रीका के खिलाड़ी हमारी तुलना में कद्दावर होते हैं | इसका एक उपाय यह है कि हमारे खिलाड़ियों को ऐसे चश्मे पहनाए जाएँ कि उन्हें सब कुछ छोटा नज़र आए | इससे उनका मनोबल बढ़ेगा | किसी मनोवैज्ञानिक की सलाह लेने की बजाय मैच शुरु होने से पहले विजय माल्या की व्हिस्की के स्थान पर देसी ठर्रे का एक-एक पाउच सभी खिलाड़ियों को पिलाया जाए जिससे वे दारू पिए हुए चूहे की तरह इस प्रकार झूमते हुए मैदान में उतरेंगे कि विपक्षी टीम रूपी बिल्ली के होश उड़ जाएँगे |

युधिष्ठिर का महल बनाने वाले कारीगर से ऐसी पिच बनवाई जाए कि विपक्षी टीम को विकेट की जगह मैदान और मैदान की जगह पिच दिखाई दे तो फिर उनके बालर सारी बाल वाइड फेंकेंगे और हम बिना बल्ला घुमाए बिना और एक भी विकेट खोए बिना ही मैच जीत जाएँगे | वास्तु के हिसाब से पिच की दिशा आदि में भी परिवर्तन किए जा सकते हैं | राहु काल में खेल रोक दिया जाना चाहिए | शाम होते ही खेल के बीच में मुसलमान खिलाड़ी नमाज़ पढ़ें और हिंदू खिलाड़ी संध्या-वंदन करें |

एक उपाय यह भी हो सकता है कि अच्छा खेल रहे विपक्षी टीम के खिलाड़ी को उसी समय घूस देकर भारत का नागरिक बना लिया जाए और तत्काल अपनी टीम में मिला लिया जाए या फिर पैसा देकर मैच ही फिक्स कर लिया जाए | कौन किस नंबर पर खेलेगा, कौन किस ओवर में बालिंग करेगा, टॉस जीत कर बालिंग की जाए या बैटिंग आदि फैसले कप्तान पर नहीं, किसी ज्योतिषी पर छोड़े जाएँ |

टीम में यज्ञ द्वारा वर्षा करवाने का विशेषज्ञ भी होना चाहिए जो हार की स्थिति में तत्काल वर्षा करवाकर मैच रुकवा दे | यदि सारे उपाय नाकाम हो जाएँ तो किसी नस्लीय टिप्पणी का बहाना बनाकर खेलने से मना कर दिया जाए जिससे हार की शर्म से बचा जा सकेगा | ‘अत्यन्त-पराजयात् वरं संशयोऽपि’ | उसके बाद क्या पता कोई राष्ट्रवादी पार्टी खिलाड़ी को चुनाव में टिकट ही दे दे |

हाँ, एक बात का पूरा ध्यान रखा जाए कि कहीं खिलाड़ियों ने कोल्ड ड्रिंक पीकर अपना लीवर तो खराब नहीं कर लिया है | और वे जो च्यवनप्राश खाते हैं उसमें वाकई सोना-चाँदी होते भी हैं या नहीं |

यदि इन उपायों से हमारी टीम जीत जाती है तो इनाम की आधी राशि लेखक और तोताराम को भिजवाई जाए | अन्यथा 'क्रिकेट बाई चांस' होता ही है |

८-२-२०११

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