Jul 28, 2010

रामराज की वापसी

कपिल सिब्बल जी,
जय राम जी की । आज के अखबार में आपकी भविष्यवाणी पढ़ी । तभी आपको 'जय राम जी की' कह दिया वरना आज कल राम की याद किसे रह गई है । भाजपा तक राम को भूल गई है फिर आप तो धर्म निरपेक्षता वाले हैं आपको राम से क्या काम । भले ही आपको राम की याद यू.पी. में कांग्रेस की वापसी के सन्दर्भ में ही आई हो पर आई तो सही । वैसे बताते चलें कि आप ने कहा कि कांग्रेस का २३ वर्ष का बनवास २०१२ में समाप्त हो जाएगा और इसके बाद रामराज होगा ।

एक बार आपकी ही तरह किसी ने रामायण या महाभारत के प्रतीक का प्रयोग करते हुए कोई बात कही थी । उन्हीं दिनों कांग्रेस से निकाले गए नटवर सिंह जी ने कहा था कि कांग्रेस में रहने से क्या फायदा । कांग्रेसियों को रामायण-महाभारत के बारे में ही नहीं मालूम । यह भी कोई बात हुई । अजी, लोग राजनीति में राज करने के लिए आते हैं या कोई रामायण-महाभारत के बारे में प्रवचन करने के लिए ? आपको रामायण का कुछ तो ज्ञान है ही कि बनवास से आने के बाद राम का राज्याभिषेक हुआ था । अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि रामायण में बनवास चौदह वर्ष का हुआ था और आपने उसे बढ़ा कर २३ वर्ष का कर दिया । गलती आपकी भी नहीं क्योंकि कांग्रेस यू.पी. में सत्ता से २३ वर्ष से बाहर है तो बनवास को भी २३ वर्ष का ही बताना पड़ेगा ।

वैसे बताते चलें कि राम का बनवास रावण को मारने के लिए ही हुआ था और रावण को मारने के बाद उनका राज्याभिषेक हुआ था । कांग्रेस ने कौन सा रावण मार लिया पता नहीं । यू.पी. ही क्या, सारे देश में ही महँगाई, जातिवाद, गुंडागर्दी के रावणों का मरना तो दूर, अब भी गद्दी पर बैठे हुए ठहाके लगा रहे हैं । हमें तो लगता है कि सारी ही पार्टियाँ रावणों से मिलकर ही राज चला रही हैं । रावणों के समर्थन से ही उनकी कुर्सियाँ बची हुई हैं । तभी तो सभी विधान सभाओं और लोक सभा में, सभी दलों के आधे से ज्यादा अपराधी किस्म के लोग बैठे हुए हैं । जनता जानती है, विभिन्न सर्वेक्षणों की रिपोर्टें आतीं हैं, मुकदमें चल रहे हैं, सी.बी.आई. जाने कैसे-कैसे लोगों को, कैसे-कैसे बचा रही है फिर भी आप कह रहे हैं कि रामराज होगा । लेकिन शर्त यह है कि कांग्रेस के आने के बाद होगा ।

अगर कांग्रेस की सरकार नहीं बनी तो राम जी को फिर बनवास में रहना पड़ेगा । बड़ी अजीब और कठिन शर्त लगा दी राम पर आपने । राम ने तो एक धोबी के कहने से ही सीता जी बनवास में भेज दिया था और आज की सरकारें हैं कि अपराधियों को बचा रही हैं और आरोप लगने पर यह कह कर बचाव भी करती हैं कि सारे आरोप राजनीति से प्रेरित हैं । राम के बारे में संयुक्त मोर्चे की सरकार ने तो दूरदर्शन के 'ग्रामीण जगत' कार्यक्रम में शुरू में 'राम-राम' के संबोधन पर भी रोक लगा दी थी । कुछ समय पहले कुछ लोगों ने रामसेतु का मुद्दा उठाया तो वह भी राजनीति से प्रेरित था तो आपकी पार्टी द्वारा राम के अस्तित्व को ही नकारने का काम भी कौन सा राष्ट्र सेवा का कृत्य था ?

हमें तो लगता है कि इस देश में सब कुछ राजनीति से ही प्रेरित है । दान-धर्म, पदयात्रा, रोड़-शो, किसी गरीब से सहानुभूति दिखाना, उसके साथ फोटो खिंचवाना, उसे सहायता देना, साल में एक सौ दिन का रोजगार देना, दो रुपए किलो अनाज देना, साड़ी बाँटना, किसी मंदिर में जाना, छात्रवृत्ति की घोषणा करना आदि सभी कुछ हमें तो राजनीति से प्रेरित लगता है । सरकारों ने सभी को किसी न किसी राजनैतिक उद्देश्य से छात्रवृत्तियाँ दीं मगर सब के पीछे कोई न कोई राजनीति थी । किसी को अनूसूचित जाति के कारण, किसी को जनजाति, तो किसी को अल्पसंख्यक होने के कारण मगर असली बात तो है पैसा । पैसा है तो नीची जाति का ही क्या; अपराधी, कलंकित, चोर, उचक्का भी परमादरणीय और पूज्य हो जाता है । सो असली आधार तो गरीबी है किसी की मदद करने का, मगर उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया ।

पिछले साल अगस्त के महीने में एक घोषणा हुई थी कि जिस विद्यार्थी के माता-पिता की संयुक्त आमदनी साढ़े चार लाख से कम है उसे उच्च अध्ययन के लिए बिना ब्याज के कर्ज दिया जायेगा । भले ही इसके पीछे किसी थिंक टेंक में सवर्ण वोट की राजनीति, कोई सड़ी मछली रही होगी पर हमें तो यह घोषणा अब तक की सभी सरकारों की सभी घोषणाओं से अच्छी लगी क्योंकि इसमें एक तार्किकता और संवैधानिक समानता नज़र आई । मगर संयोग देखिये कि इसी योजना का क्या हश्र हुआ ? इस इंटरनेट के युग में भी आज तक बैंकों तक इस के आदेश नहीं पहुँचे हैं । इतने दिन में तो आदमी दिल्ली से चलकर रामेश्वरम तक आदेश पहुँचा आता ।

आपके विभाग की इस काहिली के कारण हमारे मित्र ने हमें ढपोरशंख की कहानी सुनाई । ढपोरशंख की कहानी तो अपने सुनी ही होगी जो केवल घोषणा करता है मगर करता धरता कुछ नहीं । मगर हम आपको ढपोरशंख नहीं मानते । आपकी समस्या तो यह है कि आप इतनी घोषणायें करते हैं कि आपको याद ही नहीं रहता कि पिछली का क्या हुआ जैसे कि पवार साहब को क्रिकेट के कारण याद ही नहीं रहता कि खेत में कुएँ पर बिजली आ गई है और मोटर चालू करनी है या अनाज गोदाम का ताला खुला रह गया है और चूहे घुस कर अनाज खा रहे हैं या बरसात में रेलवे के प्लेटफार्म पर खुला पड़ा अनाज भीग रहा है ।

अब आपका ज़वाब आने पर ही स्थिति साफ़ होगी कि माजरा क्या है ? हमारा तो कहना है कि आदमी भले की काम कम करे मगर करे अच्छी तरह से । सारे काम ही घटिया तरीके से करने की बजाय एक काम ही आदमी ढंग से करले तो बेड़ा पार हो जाए । आप कभी सिलेबस बदलने की बात करते हैं, कभी ग्रेड की, कभी विदेशी यूनिवार्सिटियों को यहाँ बुलाने की मगर अभी तक हुआ कुछ नहीं । हाँ, नए-नए घोटाले ज़रूर सामने आ रहे है- कभी दो करोड़ की रिश्वत लेकर किसी मेडिकल कालेज को मान्यता देने का तो कभी नकली डिग्रियों से नौकरी करने का, कभी जाली यूनिवर्सिटियों की सूची छपती है जो दिल्ली सहित देश के सभी राज्यों में धड़ल्ले से चल रही हैं मगर पता नहीं क्यों उन पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती है ।

चलिए पवार साहब के पास तो चार-चार विभाग है सो भूल-चूक समझ में आती है मगर आपके पास तो एक ही विभाग है । मगर आपके सामने समस्या यह है कि आप अभी तक यही तय नहीं कर पाए हैं कि भारत में क्या पढ़ाया जाए, सिलेबस में क्या-क्या रखा जाए, भारत को अमरीका बना दिया जाए या कि इसका भारत बने रह कर भी काम चल सकता है ? अभी आपने इतिहास बदलने का अभियान नहीं चलाया है मगर आपको याद होगा कि १९७७ में जनता पार्टी का राज आते ही इंदिरा गांधी द्वारा गड़वाया गया कालपात्र खुदवाया गया । यह बात और है कि उसमें बेचारी इंदिरा जी का खुद का ही नाम नहीं निकला । इसके बाद इतिहास की नवीं और ग्यारहवीं कक्षा की किताबें बदलवाई गईं । इसके बाद कांग्रेस का राज आया तो फिर इतिहास की किताबें बदली गईं । इसके बाद जब भाजपा का राज आया तो फिर इतिहास बदलने की ज़रूरत आ पड़ी । मतलब कि इतिहास न हुआ तमाशा हो गया । और इस इतिहास बदलने के चक्कर में देश में कश्मीर, अरुणांचल आदि का भूगोल बिगड़ने लगा ।

जब किसी के पास करने के लिए कोई सार्थक काम नहीं होता तो वह उलटे सीधे काम करता है । जब कोई दुकानदार खाली होता है तो वह व्यस्त दिखने के लिए या मन बहलाने के लिए बीच रस्ते में आकर सामान साफ़ करने के बहाने धूल और कूड़ा फ़ैलाने लगता है । आपकी बात और है आप निठल्ले नहीं हैं बल्कि ज्यादा व्यस्त हैं और वह भी बिना बात । इसी स्थिति के लिए कहा गया है कि टके की कमाई नहीं और फुर्सत घड़ी भर की नहीं । अजी, पढ़ने और पढ़ाने के लिए दिल और इच्छाशक्ति चाहिए फिर क्या पेड़ों के नीचे और सड़क के बल्ब की रोशनी में पढ़कर भी लोगों ने कमाल नहीं कर दिखाया ? आप तो नाटक छोड़कर शिक्षा का वातावरण पैदा कीजिए- समानता का, जिज्ञासा का, भले और शिक्षित लोगों के आदर का, बजाय व्यक्ति को जाति और धर्म के आधार पर पहचानने के । वातानुकूलित पाँच सितारा स्कूलों की बजाय गुरुकुल की संस्कृति को समझने की कोशिश कीजिए । भारत का भला वहीं से निकलेगा ।

वैसे आप भी क्या करें । डाक्टर, वकील और नेता सभी काम को लंबा खींचने में विश्वास करते हैं । डाक्टर और वकील लगातार मिलते रहने वाली फ़ीस के लिए और नेता अपने कार्यकाल के पाँच साल निकालने के लिए । और फिर आप तो वकील और नेता दोनों हैं और क्या पता पी.एच.डी. वाले डाक्टर भी हों । और अगर सारे सपने एक ही कार्यकाल में पूरे हो गए तो फिर अगले कार्यकाल में क्या करेंगे ?

२६-७-२०१०

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एंज्वाय कोकाकोला


तोताराम का आदर्श है वह मकड़ी जो 'द किंग एंड द स्पाइडर' में बीसियों बार गिरकर भी अंत में दीवार पर चढ़ ही जाती है । निर्माता 'हेराफेरी' के बाद ‘फिर हेराफेरी’ या 'हेराफेरी पार्ट टू’ बनाता है । सो भले ही थानेदार ने तोताराम की 'शुद्ध के लिए युद्ध एक्सप्रेस' पटरी से उतार दी हो मगर तोताराम की लगन खत्म नहीं हुई है । जैसे कुएँ में से ज्यादा पानी निकाल लेने पर पानी टूट (कम हो) जाता है पर कुछ देर बाद फिर संचरित हो जाता है उसी तरह उसके एक्टिविस्ट मन में फिर कोंपलें फूट आई हैं ।

आज सवेरे-सवेरे अखबार लाकर हमारे सामने पटक दिया, बोला- पढ़ । चोमू के कोकाकोला बनाने वाले प्लांट से निकली २०० मिलीलीटर की बोतल में पाउच निकला है । जब उपभोक्ता ने शिकायत की तो ज़वाब मिला- ऐसा तो होता ही रहता है । मतलब कि कंपनी की गुणवत्ता का स्तर अब भी कायम है । उपभोक्ता मंच ने फैसला दिया कि कंपनी मानसिक यातना के बदले २५ हज़ार रुपए जमा करवाए । जिसमें से उपभोक्ता को पाँच हजार रुपए मिलेंगे और बीस हज़ार 'मंच' उपभोक्ता कल्याण के लिए अपने पास रखेगा । मतलब कि यहाँ भी अस्सी प्रतिशत का कमीशन ।

हमने तोताराम को समझाया- देख, कोल्ड्रिंक और पाउच (जिस गुटके का है वह ) दोनों ही स्वास्थ्य के लिए समान रूप से फायदेमंद हैं । अच्छा है गुटके का पाउच मिला देने से कोल्ड्रिंक की गुणवत्ता और बढ़ जायेगी । और फिर उस कंपनी ने गुटके के उस पाउच का कुछ एक्स्ट्रा चार्ज भी तो नहीं किया । हो सकता है कि यह कंपनी की 'एक बोतल के साथ एक पाउच फ्री' की कोई स्कीम हो ।

एक वैद्य जी थे । वे खुद अपने यहाँ अच्छा च्यवनप्राश बनवाया करते थे । दमे के मरीजों को वे यही च्यवनप्राश खाने की सलाह दिया करते थे । हमारे एक मित्र को दमन की तकलीफ थी । वे वैद्यजी से च्यवनप्राश ले आए । जब डिब्बे का च्यवनप्राश खत्म होने को आया तो एक दिन उनकी चम्मच में च्यवनप्राश के साथ छिपकली का कंकाल भी चला आया । मित्र भयभीत । भागे-भागे वैद्य जी के पास गए । वैद्य जी ने कहा- शर्मा जी, आप शाकाहारी हैं और आपके च्यवनप्राश में छिपकली का कंकाल निकलना गलत है मगर आप बुरा न मानें तो बता दूँ कि दमे में छिपकली फायदा ही करती है ।

भारत के लोग विषपायी, भगवान नीलकंठ शिव के उपासक हैं । उनकी प्रतिरोधक क्षमता बहुत है । अमरीका-आस्ट्रेलिया में जो अनाज वहाँ के पशुओं के खाने के योग्य नहीं पाया जाता उसे वे सस्ते दामों में भारत को बेच देते हैं जिसे खाकर हम उभरती अर्थ व्यवस्था बन रहे हैं । योरप-अमरीका से आने वाले कबाड़ को तोड़कर हम अंतरिक्ष यान बना रहे हैं । बड़ा जीवट वाला देश है यह । तू बिलकुल चिंता मत कर । तोताराम कुछ तो हमारे भाषण से और कुछ अपनी संवेदना को न समझे जाने के कारण विचलित हो गया और फट पड़ा- सोच अगर अमरीका में ऐसा हुआ होता तो ? अरे, अब तक तो कंपनी पर अरबों का दावा ठोंक दिया गया होता ।

हमने कहा- अमरीका से भारत की तुलना मत कर । अमरीका वैकुंठ है और उसके निवासी देवतुल्य हैं । लेबनान में कुछ अमरीकी सैनिक मारे गए तो अमरीका ने अरबों डालर का दावा ठोंक दिया । भोपाल जैसी एक दुर्घटना में अमरीका में एक बार कोई तीन सौ लोग मारे गए तो फिर वहाँ ऐसे उद्योग लगाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया । अब वैसे उद्योग भारत जैसे देशों में लगाए जाते हैं । भोपाल में मारे गए लोगों को जितना मुआवजा दिया गया उतना तो हमारे यहाँ अवैध शराब पीकर मरने वालों को दे दिया जाता है । और अब तो कुछ अमरीकी कम्पनियाँ भारत में परमाणु रिएक्टर लगाने वाली हैं ! तो कंपनी वाले कह रहे हैं कि किसी दुर्घटना में भले ही कितने ही लोग मरो वे पाँच सौ करोड़ से ज्यादा का मुआवजा नही देंगे ।

अरे, मक्खी, मच्छर और चूहों के मरने पर कोई केस चलते हैं क्या ? अब मोइली जी कह रहे हैं कि केस बंद नहीं हुआ है जैसे कि अब ये परसों ही एंडरसन को यहाँ लाकर केस चलाएँगे और जेल भिजवा देंगे । जिस डर से श्यामला हिल्स, भोपाल के गेस्ट हाउस में ही एंडरसन की जेल, जमानत और विदाई करवा दी, क्या वह डर खत्म हो गया है । जब छब्बीस साल केस चलाकर आठ लोगों को केवल दो-दो साल की सजा सुना दी और वे भी अब जमानत पर रिहा हैं तो एंडरसन को सजा सुनाने में तो पाँच सौ साल लगेंगे । बोतल में गुटके को भूल और हाकिम की अदा का मज़ा ले ।

तोताराम उत्तेजित हो गया- मुझे तो लगता है कि इस देश को अमरीकी माल का बहिष्कार कर देना चाहिए ।

हमने कहा- तोताराम यह तेरे-मेरे क्या, न तो मनमोहन सिंह के बस का है और मोंटेक सिंह के बस का । तू तो बोतल में से पाउच निकालकर कोल्ड ड्रिंक पी ले ।

'जो चाहो हो जाए, एंज्वाय कोकाकोला' ।

१५-६-२०१०



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Jhootha Sach

Jul 27, 2010

तोताराम कबाड़ी


आजकल पहले की तरह सवेरे-सवेरे पक्षियों का कलरव, गाय-बछड़ों के रँभाने की आवाजों की बजाय अखबार वालों की साइकिल की घंटियों, दूधवालों की मोटर साइकलों के होर्न और पुराना लोहा, प्लास्टिक और रद्दी अखबार खरीदने वाले कबाड़ियों की आवाजें ही अधिक सुनाई देती हैं । यदि छुट्टी नहीं हो तो बच्चों को बीस-बीस, तीस-तीस किलोमीटर से उठाने वाली निजी स्कूल-बसों की घरघराहट और होर्न भी सुनाई देते रहते हैं ।

व्यंजन स्वरों के संयोग के बिना सुनाई नहीं देते । जोर से और कुछ दूरी पर लगाई गई आवाजें भी हम उनके अंतिम स्वरों से ही पहचान लेते हैं । दूधवाला 'दूध' पूरा नहीं बोलता । उसके 'दूऽऽऽ' के प्लुत स्वर से ही हम 'दूध' समझ जाते हैं । 'लोहा' और 'प्लास्टिक' आवाज़ लगाने वाले कबाड़ी की पुकार हम लोहा के 'लोऽऽ' या 'ओ' और प्लास्टिक के 'क' या 'अ' से ही समझ जाते हैं । आज जैसे ही 'लो' और 'क' की ज़ोरदार ध्वनि सुनी तो अनुमान हो गया कि कबाड़ी आ गया है ।

सभी कबाड़ी भाव में ही नहीं, तौल में भी गडबड़ी करते हैं । पर कबाड़ बेचने के लिए कहाँ ढोते फिरें । देना तो इन्हीं को है सो इनसे 'शुद्ध के लिए युद्ध' न तो संभव है और न ही फलदायक । इस बाज़ार पर इन्हीं का एकाधिकार है । कुछ लोहा देना था ( किसी से लेना तो हमारे बस का नहीं है ) सो बाहर निकल कर देखा तो एक रेहड़ी में तराजू, कुछ बाट, मापने के एक-दो और पाँच लीटर के पात्र, कुछ शीशियाँ रखे तोताराम आ रहा है । पूछा- यह कबाड़ी का धंधा कब से शुरू कर दिया ? बोला- अपने कान दिखा किसी अच्छे डाक्टर को । मैं 'लो’ प्लास्टिक' नहीं, 'जागो ग्राहक' बोल रहा था । यह अपनी 'शुद्ध के लिए युद्ध' एक्सप्रेस है । यह ले हरी झंडी और फटाफट फड़फड़ा दे तो यह ट्रेन अभियान पर जाए ।

उसने हमारे हाथ में एक खपच्ची पर हरे कपड़े की छोटी सी पट्टी थमा दी । हम उसे उलट-पलट कर देखने लगे तो बोला- टाइम खराब मत कर । यह कोई सरकारी चेतना यात्रा नहीं है जो मंत्री जी के इंतज़ार में रुकी रहेगी । यह तोताराम की 'शुद्ध के लिए युद्ध एक्सप्रेस' है । थोड़ा सा भी विलंब करेगा तो छूट जाएगी । अब तो हमने उसे चाय पीने का आग्रह करना भी ठीक नहीं समझा क्योंकि तोताराम की सनक के आगे किसी की नहीं चलती । सो झंडी दिखाने की रस्म अदा की ।

आज नाश्ता बनने में कुछ देर थी सो नाश्ता ड्रॉप करके सीधा ग्यारह बजे खाना ही खाने का कार्यक्रम बनाया । कोई साढ़े ग्यारह बजे खाना खाकर लेटे ही थे कि फोन की घंटी बजी । उठाया तो उधर से एक कड़क आवाज़ आई- मास्टर जी, हमने एक कबाड़ी को बैठा रखा है और वह कह रहा है कि आपके आने पर ही हमसे बात करेगा ।

हमारे मन में कई तरह की दुष्कल्पनाएँ आने लगीं । कहीं हमसे लोहा लेकर गए कबाड़ी के पास से कोई ज़िंदा बम तो बरामद नहीं हो गया ? कहीं उसने यह तो नहीं कह दिया कि मैं तो मास्टरजी के यहाँ से लोहा लाया था, क्या पता उस में ही यह बम आ गया हो ? वैसे सीकर के आसपास कोई फायरिंग रेंज भी नहीं है । फिर भी किस्मत का क्या पता, क्या चक्कर पड़ जाए । चिंतित और घबराए हुए चौकी में पहुँचे तो देखा, तोताराम नीचे ज़मीन पर बैठा हुआ है और तीन-चार भद्रजन थानेदार के साथ चाय पी रहे हैं ।

हमें देखते ही थानेदार ने कहा- मास्टर जी यह कबाड़ी उचित मूल्य की दुकान और सरस दूध के बूथ पर काम में बाधा डाल रहा था । इन सज्जनों की रिपोर्ट पर हमने इसे सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में यहाँ बैठा रखा है । इसने अपना पक्ष रखने और गवाही के लिए आपको बुलवाया है ।

हमने कहा- साहब, यह कबाड़ी नहीं है । यह तो एक सेवा निवृत्त अध्यापक है । हम इसे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं । यह तो सरकार के 'शुद्ध के लिए युद्ध' अभियान से प्रभावित होकर, जोश में आकर बाट, माप और तराजू लेकर शहीद होने निकल पड़ा । हमने तो इसे बहुत समझाया था पर यह माना ही नहीं ।

थानेदार ने कहा- ठीक है, आज तो हम आपका लिहाज़ करके इसे छोड़ देते हैं अगर फिर कभी ऐसी वीरता दिखाई तो आपको बुलाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । हम खुद ही इसे अच्छी तरह समझा देंगे । जाइए, ले जाइए इसे ।

तोताराम कुछ तो भूख और कुछ डर के कारण निढाल हो रहा था । हमने ही धक्के मारकर रेहड़ी को धकेलना शुरू किया । जब माहौल कुछ सामान्य हुआ तो हमने कहा- क्यों, ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ के वीर, हो गया होता ना आज तो वीरगति को प्राप्त ।

कुछ देर चुप रहने के बाद बोला- मास्टर, जब तक 'तंत्र' शुद्ध नहीं होता तब तक कुछ नहीं हो सकता । अरे, वस्तुओं के तौल, माप और शुद्धता तो एक मिनट में ठीक हो सकते हैं मगर तंत्र खुद ही साठ साल तक मिलावट होते-होते अशुद्ध हो गया है । अब तो दाल में काला नहीं बल्कि इस भगोने में सब कुछ काला ही काला है । दाल अगर कहीं है तो भगवान ही जानता है । शुद्ध तंत्र के बिना सारे अभियान और वाकयुद्ध व्यर्थ हैं ।

लानत है इस तंत्र पर जहाँ मिलावट करने वाले तो थानेदार के साथ कुर्सियों पर बैठ कर चाय पी रहे हैं और एक जागरूक नागरिक तोताराम अपराधी बना ज़मीन पर सर झुकाए उकड़ू बैठा है ।

हमने कहा- तोताराम, इण्डिया को थोड़ा शाइनिंग होने दे । भारत का थोड़ा और निर्माण होने दे । तभी यह पाप का घड़ा पूरा भरेगा । अभी लगता हैं भूल से कहीं थोड़ा खाली रह गया है । भरे बिना घड़ा फूटता भी तो नहीं ।

१०-६-२०१०


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Jul 26, 2010

शुद्ध के लिए युद्ध


तोताराम मंगलवार के बाद आज बृहस्पतिवार तक नहीं आया तो चिंता होना स्वाभाविक था । हालचाल पूछने गए तो देखा, तोताराम चारपाई पर लेटा है । खूँटी पर ग्लूकोज की बोतल लटकी है और बाएँ हाथ में सूई डालकर ड्रिप लगाई जा रही है । पूछा- क्या लू लग गई ? बोला- लू नहीं लगी मैं तो मंगलवार को एक सवामणी में जीमने चला गया था । वहाँ से आने के बाद उलटी और दस्त शुरु हो गए । डाक्टर ने बताया कि किसी मिलावटी घी के कारण फूड पोइजनिंग हो गया ।

हमें दुःख और आश्चर्य दोनों हुए । दुःख, तोताराम की अस्वस्थता पर और आश्चर्य, धार्मिक कार्य में भी बेईमानी होने पर । अधिकतर व्यापारी मंदिरों में दान देते हैं, भागवत कथा करवाते हैं, कलश-यात्रा में सर पर कलश रखकर जुलूस की अगवाई करते हैं, धार्मिक प्रवचन करवाते हैं और व्यापार करके पर्याप्त धन भी कमाते हैं । ठीक है, कमाएँगे नहीं तो भगवान को भोग किसका लगाएँगे । मगर हनुमान जी से थोड़े से अधिक फायदे के लिए यह बेईमानी अच्छी नहीं लगी । हम तो सोचते थे कि लोग और किसी देवता से चाहे न डरें पर हनुमान जी की गदा से तो डरते ही होंगे । अब यह भ्रम भी निकल गया । यह तो अच्छा हुआ कि हनुमान जी ने प्रसाद नहीं खाया वरना तो तोताराम की तरह ड्रिप लगवा रहे होते । देवता तो अंदर तक की सब बातें जानते हैं । जान गए कि घी मिलावटी है सो नहीं खाया । पर तोताराम तो कुछ भक्ति और कुछ स्वाद के चक्कर में खा गया और पड़ गया बीमार !

देवताओं का प्रसाद पहले भी बनाता था पर उसमें ज्यादा तामझाम नहीं होता था । गुलगुले बना लिए, पुए बना लिए, ज्यादा हुआ तो रोटियाँ चूरकर चूरमा बना लिया । सब कुछ अपने सामने, अपने हाथों से । मिलावट का प्रश्न ही नहीं । आजकल तो सारे काम ठेके पर होते हैं । सो मुनाफा मुख्य हो गया । जितना घटिया माल लगाएँगे उतना ही फायदा होगा । स्वाद और शुद्धता से किसे मतलब है । और फिर हनुमान जी कौनसे फूड इन्स्पेक्टर हैं जो नमूना लेकर आगे भेज देंगे । और आगे भेज भी दिया तो वहाँ क्या पैसा नहीं चलता । और अगर नाराज़ होंगे तो सवामणी का प्रसाद करवानेवाले से होंगे । इससे अच्छे तो बताशे और नारियल ही थे । मिलावट की संभावना नहीं होती थी ।

हमने तोताराम को समझाया- धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा । तेरी तबियत और शुद्ध चीजों की उपलब्धता । सुनते ही तोताराम भड़क गया, बोला- सरस डेरी पर नकली दूध पकड़ा गया, अलवर में तीस लाख लीटर नकली घी पकड़ा गया तब क्या सरकार सो रही थी ? अब भी उन घपलों पर किसी प्रगति का कोई समाचार नहीं है । सरकारी विद्यालयों में मुफ्त वितरण के लिए पुस्तकें दी जाती हैं तो सौ की जगह नब्बे दी जाती हैं और बची हुईं दस प्रतिशत दो नंबर में या रद्दी में बेच दी जाती हैं । डिपो पर सरकारी बसों में डीज़ल भरा जाता है तो पाँच लीटर की जगह साढ़े चार लीटर भरा जाता है और बचा हुआ दस प्रतिशत ऊपर वालों के पेट में चला जाता है । दो रुपए वाला गेहूँ बँटवाने के लिए सरकारी कर्मचारी दुकानों पर ड्यूटी देते हैं । पता नहीं उस कर्मचारी की ड्यूटी कौन देता होगा तिस पर कर्मचारियों को बार-बार बदला जा रहा है कि कहीं उनकी दुकानदार से साँठगाँठ न हो जाए । मतलब कि सरकार को अपने कर्मचारियों पर इतना भी विश्वास नहीं है । भ्रष्टाचारी स्वस्थ हैं और सरकार पस्त ।

इस स्थिति में मुझे लगता है कि मुझे ही एक जागरूक उपभोक्ता, जागरूक नागरिक और ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ करने वाला जुझारू सिपाही बनना पड़ेगा । बस थोडा सा ठीक हो जाऊँ फिर 'शुद्ध के लिए युद्ध' पर निकालूँगा । और किसी अधिकारी के झंडी दिखाने का इंतज़ार नहीं करूँगा बस, निकल ही पड़ूँगा ।

३-६-२०१०

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Jul 25, 2010

मास्टरों की दाल-रोटी


आज की सुबह बड़ी उदास है । पोते-पोतियाँ गरमी की छुट्टियाँ मानाने अपने ननिहाल चले गए हैं ।

बेटा-बहू ड्यूटी पर । रात को बिजली चली गई थी सो दूध फट गया था फिर चाय कैसे बनती । रात की दो रोटियाँ बची थीं । उन्हीं का नाश्ता करने बैठे थे कि तोताराम आ गया । उसने थैले में से चार शीशियाँ निकाल कर हमारे सामने रख दीं । दो खाली थीं और दो में पता नहीं क्या रखा था । हाँ, ढक्कनों पर टेप चिपका कर पक्की पेकिंग कर दी गई थी । जैसे ही पहला कौर तोड़ा, उसने हमारा हाथ कुछ इस अदा से पकड़ा लिया जैसे रुक्मिणी ने कृष्ण को हाथ पकड़ कर सुदामा के चावल की तीसरी मुट्ठी खाने से रोक लिया था ।

बोला- क्या दो रोटियाँ और बचीं है या यह क्लीयरेंस सेल है ? हमने कहा- थीं तो सही पर तेरी भाभी ने खा लीं । रात का दूध फट गया, नहीं तो दूध के साथ ही खाने का मन था । आज तो तुम्हारे लिए चाय का इंतज़ाम भी नहीं है ।
कहने लगा- आज मैनें भी दाल और रोटी का नाश्ता करने की सोची थी पर मैनें भी वह कार्यक्रम केंसिल कर दिया । तू भी इस कार्यक्रम को केंसिल कर दे ।

हमने उन शीशियों को हाथ में लेकर ध्यान से देखा तो पाया कि एक में रात की दाल और दूसरी में दो रोटियाँ ठुंसी हुई थीं । दाल वाली शीशी पर चिट चिपकी थी और उस पर लिखा था- लैला और रोटीवाली पर लिखा था- मजनूँ,और नीचे तोताराम के हस्ताक्षर मय तारीख़ । तब तक उसने हमारी रोटियाँ और दाल भी शीशियों में भर कर, पैक करके उन पर चिट चिपका कर एक पर लिख दिया शीरीं, और दूसरी पर फ़रहाद । और बोला- साइन करके लगा दे नीचे तारीख़ । हमारी उत्सुकता चरम पर, पर समझ में कुछ नहीं आया । बहुत पूछने पर उसने समाधान किया- चर्चिल की साठ साल पुरानी सिगारें जिन्हें किसी कंपनी ने नाम दिया था- ‘रोमियो-जूलियट’, अब नीलाम होने वाली हैं । लाखों में बिकेंगीं । इसको देखते हुए हो सकता है इस शताब्दी के अंत तक ये दाल और रोटियाँ भी पुरामहत्व की वस्तुओं के रूप में नीलाम हों । तब लोग इन्हें इस आश्चर्य से ही लाखों में खरीद लें कि २०१० में 'भारत निर्माण' और 'तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था' के युग में भी हिन्दी के दो सेवा निवृत्त अध्यापक दाल-रोटी खा सकने वाला विलासितापूर्ण जीवन बिताते थे । अरे, हम नहीं तो हमारी आने वाली पीढ़ियों को ही एक बड़ी रकम एक साथ मिल जाएगी । चल, सुरक्षा की दृष्टि से इन्हें किसी बैंक के लॉकर में रख आते हैं ।

तोताराम को क्या उत्तर देते पर हमारे मन में भी कहीं यह विचार आया कि जब माडलों के कुत्तों की जूठी ब्रेड लाखों में बिक सकती है तो समय का क्या ठिकाना, क्या करवट ले ले और मास्टरों की दाल-रोटी भी नीलाम हो जाए । जैसे दाल-रोटी दुर्लभ हो रही है, उसे देखते हुए यह असंभव भी नहीं है ।

१३-५-२०१०

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Jul 19, 2010

खरबूजे के बीज - फंगस और फफूँद


आदरणीय मनमोहन प्ह्राजी,
सत सिरी अकाल ।

आप ३ जुलाई २०१० को आई.आई.टी.कानपुर के दीक्षांत समारोह में गए । जाना भी चाहिए । नेताओं के आशीर्वाद के बिना शिक्षा पूरी भी कहाँ होती है । अब वो ज़माना गया जब ऋषि-मुनि दीक्षा दे दिया करते थे । अब तो दीक्षा-वीक्षा की कोई ज़रूरत भी नहीं रही । बस डिग्री होनी चाहिए । भले नकली ही क्यों न हो ? कौन पूछता है । बस एक बार नौकरी मिल जाए जैसे कि बस एक बार राजनीति में घुस जाओ फिर कौन पूछता है कि भैया, रात भर में यह करोड़ों का तामझाम कैसे खड़ा हो गया । वैसे अब अपने को इस डिग्री-विग्री से क्या लेना । आपके पास तो पहले से ही कई डिग्रियाँ हैं । और चाहेंगे तो कोई भी अमरीकी यूनिवर्सिटी तैयार बैठी है । जब लालू जी को ही पटना यूनिवर्सिटी डाक्टरेट देने वाली थी तो आप तो पहले से ही क्वालीफाइड हैं । हम तो रिटायर हो गए । अब सरकार नौकरी देने से रही और प्राइवेट नौकरी हमें करनी नहीं । अब तो जो डिग्रियाँ थीं उन्हें भी हमने रद्दी कागजों में रख दिया है । भगवान तो कर्म देखता है उसे डिग्रियों से क्या लेना ।

हम जब भी आपको पत्र लिखते हैं तो बहुत भावुक हो जाते हैं । विदुर की पत्नी की सी हालत हो जाती है । कृष्ण को खिलाने तो थे केले और भली मानुष खिलाने लगी छिलके । और कृष्ण को भी देखिए, छलिया बड़े मज़े से खा गया ।अब हम बात तो करने चले थे आपके आई.आई.टी .कानपुर में खाने में खरबूजे के बीजों में लगी फंगस की और मूँग की दाल पर चढ़े रासायनिक रंग की और कहाँ ले बैठे डिग्री की बात ।

अपना तो खाना है मक्के की रोटी और सरसों का साग और ऊपर से दो-चार चम्मच मक्खन डाल लो बस फिर क्या । देवता भी ईर्ष्या करें ऐसे खाने से । आपको हार्ट की बीमारी है इसलिए हो सकता है डाक्टरों ने यह खरबूजे के बीज और मूँग की दालवाला बीमारों का खाना बताया हो । वैसे जहाँ तक खरबूजे की बीजों की बात है तो हमारे यहाँ तो खरबूजे के ही क्या मतीरे, ककड़ी, लौकी, कद्दू, पेठे आदि बहुत सी सब्जियों और फलों के बीज खाए जाते थे । किसी भी चीज को बेकार न जाने देने का सिद्धांत था । अंग्रेजी पढ़े लोग उन्हें पिछड़ा कहते थे और आज खुद उन पुराने लोगों द्वारा प्रयोग की जानेवाली जाने कौन-कौन सी चीजें नए नाटकों के तहत महँगे दामों में खरीद कर खा रहे हैं । खरबूजे के बीज भी हमें तो ऐसा ही नाटक लगता है । खैर, आपको तो डाक्टर ने प्रिसक्राइब किया है ।

बचपन की बात बताते हैं । घरों में ये ही पदार्थ हुआ करते थे- मतीरा, तरबूज, कद्दू, लौकी, पेठा, कुम्हड़ा, खरबूजा आदि । दादी और माँ इनके कच्चे बीज तो सब्जी में डाल देती थी और जो बीज नहीं चबाए जा सकते थे उन्हें ऐसे ही चबूतरे पर डाल दिया करती थी । बीज यूँ ही सूखते रहते थे । मतीरे के बीजों को छीलना बहुत मुश्किल होता था सो माँ इन्हें सेक कर गुड़ मिलकर लड्डू बना दिया करती थी । बाकी बीज जब कभी खाना बनने में देर होती या फिर हम बच्चों को हीले से लगाना होता तो कह देती थी कि बीज छील कर खालो । यदि किसी को बड़े प्यार से भूखा मारना हो तो उसे खरबूजे के बहुत सारे बीज दे दो और कह दो- भैया, तेरा जितना मन हो छील और खा । वास्तव में यदि वह सारे दिन बीज छीलता रहे और खाता रहे तो भी उसका पेट नहीं भर सकता । यह तो एक प्रकार का मनबहलाव था और गरीब को थोड़ा बहुत उत्तम पोषण पहुँचाने का ग़रीबों का सस्ता तरीका था ।

आजकल तो बीज छिले-छिलाए आते हैं । जितना मन चाहे मुट्ठी भर कर खाए जाओ । अब इन बीजों में कोई आनंद नहीं रहा । जब तक थोड़ी मेहनत नहीं लगे वास्तव में खाने का आनंद ही नहीं आता । लोग कहते हैं आजकल चीजों में कोई मज़ा ही नहीं रहा । वे यह भूल जाते हैं कि मेहनत के बिना किसी चीज में कोई आनंद नहीं होता । इसी के सन्दर्भ में शायद तुलसीदास जी ने कहा है - 'सकल पदारथ हैं जग माहीं । करमहीन नर पावत नाहीं ।।'

चबूतरे पर पड़े बीजों के फंगस भी लग जाया करती थी । पर उससे कोई फरक नहीं पड़ता था । फंगस हटा देते थे और खा लेते थे । आज लोग सोचते होंगे कि कैसे जाहिल लोग होते थे जो फंगस लगी चीजों को भी खा लेते थे । वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति ने हर बीज की सुरक्षा के लिए एक ऐसा कवच बनाया है जिसे भेद कर कोई भी फंगस उसे प्रभावित नहीं कर सकती । यदि कविता की भाषा में कहें तो हर संस्कृति और अस्मिता एक ऐसा कवच होती है जो किसी समाज और देश के प्राण-बीज को किसी भी अवांछित फंगस से बचाती है । उसके बीज रूपी प्राणों की रक्षा करती है । और जब किसी का बीज नाश ही हो जाता है तो फिर वह समाज और देश अपने आप ही मर जाता है । आप और नरसिंह राव द्वारा लाई गई मुक्त बाज़ार व्यवस्था एक ऐसी ही फंगस है जिसने इस देश के बीजों के सुरक्षा कवच को ही खा लिया है । जब कवच ही नहीं है तो फंगस लगने से कौन रोक सकता है । आप वाले बीजों का कवच उतार दिया गया था इसलिए फंगस लग गई ।

हमारे यहाँ गाँव की बोली में फंगस को फफूँद कहा जाता है । फफूँद की व्यंजना है ऐसी चीज या व्यक्ति जो पीछा ही नहीं छोड़ता । इस देश को यह फफूँद अंग्रेजों के समय से लगनी शुरू हुई थी मगर तब हमारे बीज-प्राणों पर हमारी संस्कृति का कवच था । और हम गुलामी की अवस्था में भी गुलाम नहीं थे । अंग्रेजों की दुष्टता और चालाकियों को समझते थे और उनका विरोध और उपाय करने की हिम्मत और समझ भी रखते थे । मगर हुजूर, अब तो हमारी हालत मदारी के बन्दर से भी गई गुजरी हो गई है । हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि तथाकथित वैश्वीकरण और मुक्त बाज़ार से बेहतर कोई व्यवस्था हो भी सकती है क्या ? हजारों बरसों से बनाई गई अपनी सफल, स्वावलंबी ग्राम-स्वराज वाली व्यवस्था को हम भूल ही गए हैं ।

आपको जो बीज परोसे जाने वाले थे वे ज़रूर भारतीय खरबूजे के बीज ही रहे होंगे क्योंकि हमने अमरीका में देखा है कि वहाँ खरबूजे में बीज निकलते ही नहीं थे । जो दो-चार बीज निकले उन्हें छील कर देखा तो उनमें कुछ भी नहीं निकला । अब जब हमारे बीजों को मुक्त-बाज़ार की यह फफूँद पूरी तरह से खा जाएगी तब हर चीज के बीज वहीं से आया करेंगे और उन बीजों के पौधों से नए बीज नहीं बनेंगे । तब फंगस या फफूँद लगने का डर तो नहीं रहेगा मगर तब फंगस लगने को बचेगा ही क्या ? क्या आपने सोचा है कि वह दिन कैसा होगा ? हम तो उस दिन को देखने के लिए ज़िंदा नहीं रहना चाहते ।

७-७-२०१०


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Jul 15, 2010

तोताराम की आई.पी.एल. बनाम बी.पी.एल.


कल जलदाय विभाग के कुएँ की मोटर जल गई थी सो पानी नहीं आया इसलिए टेंकर डलवाने की ज़रूरत पड़ गई । टेंकर वाले को फोन किया था और उसी का इंतजार कर रहे थे कि दरवाजे पर किसी छोटे-मोटे पथ संचलन की सी हलचल अनुभव हुई । दरवाज़ा खोल कर देखा तो एक चार फुट का लड़का लंबे बाल पीछे बाँधे, नमस्कार की मुद्रा में खड़ा था । पूछने पर बोला- सर, मैं ईशांत शर्मा- इन्डियन क्रिकेट टीम का प्रसिद्ध गेंदबाज़ । मैं आपसे यही कहने आया हूँ कि हमारे डाइरेक्टर श्री ललित मोदी जी अभी आपसे मिलने के लिए आनेवाले हैं । प्लीज, कहीं जाइएगा नहीं ।

हमने पूछा- मियाँ, ईशांत शर्मा तो छः फुट दो इंच का है और तुम केवल चार फुट के । लगता है मुम्बई से पैदल चलकर आ रहे हो तभी घिसकर चार फुट के रह गए हो । लड़का शरमा गया । तभी और तीन चार लड़के चले आए । हमने उत्सुकतावश उनके नाम भी पूछे तो उनके नाम भी सचिन, सौरव, गंभीर और सहवाग आदि निकले । उनके साथ में दो बावली सी लड़कियाँ भी थीं । जब उनके नाम पूछे तो हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि उनके नाम भी विपाशा बसु और समीरा रेड्डी निकले । इन सभी नामों को सुन कर हमारा रोमांच अपने चरम पर पहुँच गया । लगा कोई बहुत बड़ा फ्राड है । क्यों न ललित मोदी जी का भी इंतजार कर ही लिया जाए ।

तभी एक घटिया सी सूट पहने और चश्मा लगाए तोताराम हाज़िर हुआ । हम उससे कुछ पूछें उससे पहले ही वह बोल पड़ा- माइसेल्फ़ ललित मोदी, डाइरेक्टर आई.पी.एल. हैव यू मेट माई ब्वायेज ? हमने हँसी रोककर गंभीरता पूर्वक कहा- मगर मोदी जी अभी तक तो आपको भाँति-भाँति के घपलों के आरोप में जेल में डाल दिया जाना चाहिए था । आप यहाँ कैसे ? और फिर तोताराम, तूने तो अपना नाम बदल लिया है और इन बच्चों के नाम बदल कर तुम एक और बड़ी चार सौ बीसी कर रहे हो ।

तोताराम बोला- जब ललित मोदी अपना नाम बदल कर ललित कुमार बता कर नागौर जिला क्रिकेट संघ का अध्यक्ष बन सकता है तो तोताराम ललित मोदी और ये बच्चे सचिन, सौरव, विपाशा क्यों नहीं बन सकते ? नाम बदलने पर कौन सी धारा लागू होती है ? लोगों के नाम परिवर्तन की हजारों सूचनाएँ अखबारों में रोजाना आती हैं । हमने पूछा- पर इस नाटक से क्या फायदा ? अब तो हमें लगता है कि इस देश में क्रिकेट का भविष्य अवश्य ही खतरे में है जब तेरे जैसे ललित मोदी बनने लगे और ये छोकरे सचिन और सौरव ।

तोताराम ने हमें आश्वस्त किया- मास्टर, इस देश में पानी, सब्जी, दाल, चीनी, नैतिकता और न्याय सब कुछ ख़त्म हो जाएँ पर क्रिकेट कभी ख़त्म नहीं हो सकता । फिर यही आई.पी.एल. हमारी तरह किसी बी.पी.एल. या सी.पी.एल. के नाम से फिर आ जाएगा तब इस टीम को मोटे दामों में बेच देंगे । इन बच्चों का भी कल्याण और अपना भी । और यह तो सच ही है कि ये सभी बच्चे बी.पी.एल. (बिलो पावर्टी लाइन) केटेगरी के हैं । वसुंधरा जी ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के आरोपों का ज़वाब देते हुए कहा था- मुख्यमंत्री जी आई.पी.एल. की बजाय बी.पी.एल. की चिंता कीजिए । सो मुख्यमंत्री जी के पास तो समय नहीं है । सोचा हम ही वसुंधरा जी की बी.पी.एल. को सँभालने की ख्वाहिश पूरी कर दें ।

२६-४-२०१०

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Jhootha Sach

Jul 6, 2010

ओबामा और चपाती-चिंतन





ओबामा जी,
'जय बजरंग बली' ।
आपको पत्र तो लिख रहे हैं पर यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आपको क्या संबोधन करें क्योंकि उम्र में आप हमारे बेटे से बड़े नहीं हैं, यदि किसी भारतीय स्कूल में पढ़े होते तो आप हमारे शिष्य हुए होते । पद में आप मनमोहन जी से बड़े हैं और ताकत में भीम के भी बाप । हाइट में देखें तो हम से एक हाथ ऊँचे । खैर, जब आप चुनाव के लिए खड़े हुए थे तो भारतीय लोगों ने आपके हाथ के ब्रेसलेट में बन्दर की आकृति जैसी कोई चीज देखकर उसे हनुमान मान लिया था और आपको हनुमान जी का भक्त मान कर यहाँ के एक सज्जन ने आपको हनुमान जी की एक मूर्ति भेजने का समाचार भी छपवा दिया था । हम तो वास्तव में हनुमान जी के भक्त हैं सो आपको 'जय बजरंग बली' का संबोधन कर रहे हैं ।

मई में आपके भारत आने का समाचार पढ़ा था जिसमें यह भी था कि आप भारत आकर चपाती खाना पसंद करेंगे । हम तो राजस्थान के रहने वाले हैं सो हमेशा से रोटी ही खाते चले आ रहे हैं । बाजरा, जौ, मक्का, गेंहूँ, जौ-चने, गेंहूँ-चने आदि की रोटियाँ । हमारे यहाँ चपाती नहीं बना करती थी । चपाती तो नफीस लोगों के यहाँ बना करती थीं । जितने आटे की हमारे यहाँ एक रोटी बनती थी उतने आटे में चपाती बनाने वाले पाँच चपातियाँ बना लेते थे ।

पहले तो जब हम अपने गाँव से बाहर नहीं निकले थे तब यही सोचा करते थे कि चपाती कोई रोटी जैसी चीज नहीं बल्कि कोई अन्य ही व्यंजन होता होगा । इसी तरह तंदूर की रोटी को भी किसी विशेष अनाज की रोटी समझा करते थे । हमारी पत्नी की जनरल नोलेज भी हमारे जैसी ही थी । हमारे उत्तर प्रदेश के बहुत से साथी अध्यापक खाने की चर्चा चलने पर बार-बार चपाती शब्द का प्रयोग किया करते थे । यह तो बहुत बाद में उनसे पूछने पर पता चला कि तंदूर एक विशेष प्रकार का चूल्हा होता है और चपाती गेंहूँ के आटे को ही चपत मार-मार कर पतली बना दी गई रोटी को कहते हैं ।

सो एक दिन हमने अपनी पत्नी से बड़ी अदा से कहा कि अब तक हम पिछड़े ही रहे । थोड़ा सा भी जीवन स्तर ऊँचा नहीं उठाया । अब तो बच्चे बड़े हो गए हैं । नौकरी करने लग गए हैं । अब से भारत को प्रधान मंत्री देते रहने वाले, सभी प्रश्नों की जड़, देश के सबसे बड़े प्रान्त उत्तर प्रदेश के लोगों की तरह हम भी दोनों टाइम चपाती खाया करेंगे । आज से रोटी बंद ।

पत्नी ने कहा- ठीक है, बच्चे बड़े हो गए हैं, घर की आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक हो गई है पर इसका मतलब यह तो नहीं कि बुढ़ापे में मन को चंचल करो । अरे, अब तो भगवान का नाम लेने की उम्र है । तुम भी उन्हीं लोगों की तरह कर रहे हो जिन्हें मरते समय बच्चे पूछते हैं- बाबा, क्या इच्छा है ? तो गीता सुनने की बजाय कहेंगे, दही बड़े खाऊँगा । सैंकड़ों पीढ़ियाँ बीत गईं रोटी खाते-खाते । अब तुम्हें चपाती खाने का शौक चर्रा रहा है । पता नहीं बुढ़ापे में यह चपाती पचेगी भी या नहीं ।

हमने पत्नी के अज्ञान का मज़ाक सा उड़ाते हुए कहा- अरे, तुम्हें पता नहीं, चपाती भी गेंहूँ की रोटी ही होती है । बस, ज़रा पीट-पीट कर पतला बना दिया जाता है । थोड़ा सा समय ही तो अधिक लगेगा । क्या फ़र्क पड़ता है । बना दिया करो । और फिर सोचो, कितना रौब पड़ेगा जब हम चबूतरे पर बैठ कर आवाज लगाया करेंगे कि चिक्की की दादी, ज़रा एक चपाती तो और लाना ।

पत्नी चिढ़ गई । कहने लगी- ये फालतू के नखरे और चोचले छोड़ो । पानी को जल कहने से कोई विद्वान नहीं हो जाता । मेहतर को सफाई कर्मचारी या हरिजन कहने से या किसी जिले का नाम किसी दलित नेता के नाम पर रख देने से उसका कोई उद्धार नहीं होने वाला । उद्धार तो तब होगा जब उसे खाने को रोटी और शिक्षा मिलेगी; समाज में प्रेम और सद्भावना बढ़ेगी; जब समृद्ध हो चुकी जाति के लोग आरक्षण के नाम पर बार-बार लाभ लेते रहने का लालच छोड़ेंगे । है तो वही गेंहूँ का आटा । उसके चार पतले छिलके बनाकर खालो या एक ही ठीक-ठाक सी रोटी बना कर खालो । मतलब तो पेट भरने से ही है ना ।

अब उसे कौन समझाए कि नफासत भी कोई चीज़ होती है । सो ओबामा जी, हमारा तो चपाती चिंतन यही है । वैसे हम जानते हैं कि असली चीज है भूख और उसकी शांति । हमारे देश के साथ तो हमेशा से यही हुआ है कि हमारे यहाँ कुछ तो पानी की सुविधा थी और कुछ जलवायु अनुकूल थी सो अन्न की कमी नहीं थी और लोग भी संतोषी थे, सो हम कभी भूख से परेशान होकर या ज्यादा के लालच में हथियार लेकर दूसरों की ज़मीनों पर कब्ज़ा करने के लिए नहीं गए । लोग ही अढ़ाई हज़ार बरसों से भारत की रोटी की तरफ ललचाकर हथियार लेकर आते रहे- क्या हूण, क्या शक, क्या तुर्क, क्या मंगोल, क्या मुग़ल, क्या ब्रिटिश, क्या पुर्तगाली, क्या फ्रांसीसी । अब भी बंगलादेश और पाकिस्तान से लोग चपाती खाने के लिए घुस ही आते हैं ।

और अब आप कह रहे हैं कि आप भी भारत आकर चपाती खाना चाहते हैं । हम जानते हैं कि आपके यहाँ अनाज की कोई कमी नहीं है । आप तो जब अनाज सड़ जाता है तो उस अनाज को परोपकार के लिए पिछड़े देशों को बेच देते हैं । धर्म का धर्म और धंधे का धंधा । आपको खाने-पीने की क्या कमी । आप तो हमारा दिल रखने के लिए कह रहे हैं । जैसे भगवान ने विदुर की पत्नी के हाथ से केले के छिलके खा लिए, शबरी के बेर खाए, करमा बाई का खीचड़ा खा लिया, सुदामा के चावल खाए । या आजकल कई नेता दलितों के घर जाकर खाना खाते हैं । इस अदा से आप हमारे दिलों के और नज़दीक आ गए हैं । यही तो है गरीब का दिल जीतने का स्टाइल । गरीब का दिल जीत लो फिर चाहे उसकी जेब ही काट लो । पर हमें आपके इरादे पर कोई शक नहीं है क्योंकि आप भी शुद्ध गोरे नहीं हैं और हम भी ब्रिटिश राज के ज़मीन पर हगनेवाले काले आदमी हैं ।

अब आप कहें तो चपाती निर्माण कला के बारे में कुछ बात हो जाए । वैसे आपको बता दें कि हमारे यहाँ आज कल तथाकथित बड़े और आधुनिक लोग चपाती, रोटी, दलिया, सत्तू, दाल, भात, छाछ, शिकंजी, राबड़ी आदि को तुच्छ, यहाँ तक कि हेय समझने लगे हैं । वे तो पिज्जा, बर्गर, ब्रेड, कोकाकोला, पास्ता, बीयर आदि की तरफ भागने लगे हैं । पर आप हैं कि चपाती खाने की इच्छा ज़ाहिर करते हैं सो हमारे धन्य भाग और चपाती के भी । हो सकता है कि आपके कारण ही चपाती के दिन फिर जाएँ ।

तो चपाती निर्माण की बात । चपाती बनाना कोई आसान काम नहीं है । यह कोई ब्रेड तो है नहीं कि लोथड़ा बनाया और मशीन में डाल दिया और पक कर बाहर । इसमें तो पहले बारीक आटे को गूँधो फिर कई देर तक भिगोओ । फिर तेल या घी लगाकर म्हलाव देकर मुलायम बनाओ । और उसके बाद चपत लगाते-लगाते उछाल-उछाल कर पतली बनाते जाओ । यदि उछालने में नीचे गिर जाए तो फिर वही परेशानी । लेकिन यह चपाती बारीक आटे की बनती है इसलिए बड़ी ज़ल्दी सख्त हो जाती है और पचती भी ज़ल्दी नहीं और कहते हैं पतले आटे की चपाती कब्ज़ भी करती है । पर मोटे आटे की चपाती बनती भी तो नहीं । मोटे आटे की तो रोटी ही बनती है । पर उसे बहुत देर तक धीमी आँच में सेकना पड़ता है । तब कहीं जाकर खस्ता और करारी बनाती है । असली मज़ा तो रोटी खाने में ही है पर क्या करें आपने चपाती खाने की इच्छा ज़ाहिर की है सो ठीक है ।

वैसे आपके यहाँ से १९५० के आसपास भारत में आये लाल गेहूँ की चपाती भी बड़ी सख्त बनती थी पर भारत के भूखे लोग किसी तरह उसे भी खा ही गए । इसके बाद हमने अपने आप को अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बना लिया । पर जब से वैश्वीकरण की हवा आई है, हमने अनाज से ज्यादा मोबाइल और कम्प्यूटर और क्रिकेट को ज़रूरी मान लिया । पवार साहब खेती से ज्यादा क्रिकेट पर ध्यान देने लगे । देश फसलों के सौंदर्य से ज्यादा चीयरलीडर्स का दीवाना हो गया । और रही सही कसर बुश साहब पूरी कर गए जब वे यहाँ आए तो भैंसों को दुलराते हुए और कंधे पर हल रखकर फ़ोटो खिंचवाया तब से भैसों ने दूध देना कम कर दिया । और हल भी हमें लगता है कि अपने साथ ले गए सो अनाज की भी कमी हो गयी इसीलिए दोनों चीजों के ही भाव बढ़ गए और आम आदमी का जीना मुश्किल हो गया । पर क्या करें आपने मनमोहन सिंह जी को उनकी पसंद का बैंगन का भुरता खिलाया तो हम भी आपको चपाती खिलाने का इंतज़ाम करेंगे ही ।

पर क्या बताएँ जब से बाज़ार मुक्त हुआ है तब से उस पर सरकार का कोई नियंत्रण ही नहीं रहा । जो भी, जैसे चाहे मिलावट करता है । सरकार लाख ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ अभियान चलाती है मगर किसी पर कोई असर ही नहीं होता । लोग भगवान का प्रसाद समझ कर मिठाई खाते हैं मगर मिलावट होने के कारण अस्पताल पहुँच जाते हैं । पर आपसे यह सब क्या रोना रोएँ, यह तो हमारे घर की अपनी समस्या है । वैसे अभी हमारे मनमोहन सिंह जी कानपुर आई.आई.टी. में दीक्षांत भाषण देने गए थे । पता चला कि उनके खाने के लिए खरबूजे के जो बीज लाए गए थे वे फंगस लगे हुए थे । अब आप अंदाज लगा लो कि साधारण लोगों का क्या होता होगा । खैर हम आपके लिए विशेष सावधानी से गेहूँ चुनेंगे । बिना ज्यादा कीटनाशक वाला कोकाकोला तैयार करवाएँगे भले ही हमारे यहाँ कोकाकोला कम्पनी वाले अमरीका से दो सौ गुना कीटनाशक मिला कर पिलाते हों ।

अब आप तो दशमूलारिष्ट और हाजमोला जैसे पाचक पदार्थ लेकर चपाती खाने के लिए आने की तैयारी करें ।

वैसे हमें पता है कि जब आपकी दावत होगी तो मनमोहन जी हमें नहीं बुलाने वाले । वैसे उन्हें अर्थव्यवस्था संभालने से और पवार जी को क्रिकेट का उद्धार करने से ही फुर्सत नहीं । सो यदि यहाँ आने के बाद आपको चपाती के बारे में और कुछ जानकारी चाहिए तो हमें याद कर लीजिएगा ।

धन्यवाद ।

आपका,
रमेश जोशी
एक सेवा निवृत्त अध्यापक ।

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