Sep 30, 2010

सहिष्णु तोताराम की पौरुष-ग्रंथि


आज तोताराम ने आते ही चाय पीने से मना कर दिया, कहने लगा- डाक्टर ने कहा कि ऑपरेशन से पहले कुछ नहीं खाना है और पानी भी नहीं पीना है । अब तू जल्दी से चाय पी ले और मेरे साथ चल । ज्यादा देर का काम नहीं है । तीन-चार घंटे में आना-जाना और ऑपरेशन सब निबट आएगा ।

इससे पहले किसी प्रकार अस्वस्थता की कोई बात तोताराम ने हमें नहीं बताई थी । हमें अजीब लगा । हमने तोताराम को बैठाया और कहा- भैया, ज़रा तसल्ली से बता । क्या बात हुई, अचानक यह ऑपरेशन की नौबत कैसे आ गई ? तोताराम ने कहा- चिंता की कोई बात नहीं है ? न किसी डाक्टर ने कोई समस्या बताई है और न ही मुझे कोई तकलीफ है । मैं तो बस, अपनी पौरुष-ग्रंथि का ऑपरेशन करवाना चाहता हूँ । इसे निकलवाना है ।

हमने कहा- तोताराम, इससे पहले भी एक बार तू रक्त-दान करने गया था मगर डाक्टर ने कह दिया था कि देने की बजाय यदि कोई तुम्हें खून देने वाला मिल जाए तो ले आओ । तुम्हें तो खुद खून की ज़रूरत है । और तुम्हें सधन्यवाद वापिस भेज दिया था । इसके बाद तू ज्योति दा के दिमाग-दान से प्रेरित होकर दिमाग-दान करने के लिए गया था तो डाक्टरों ने तेरी खोपड़ी खोल कर यह कहते हुए फिर वापिस बंद कर दी थी कि मास्टर जी, इसमें तो दिमाग है ही नहीं । क्या निकालें और किसे क्या दान दें ? यह ठीक है कि अब न तो कोई पौरुष तेरे बस का है और फिर नसबंदी तो हम दोनों ने बहुत पहले ही करवा ही ली थी । अब जब तक कोई तकलीफ न हो तब तक क्यों बेकार चक्कर में पड़ता है ? कभी तकलीफ हुई तो देखा जाएगा ।

वैसे यदि पौरुष ग्रंथि का साहस से या प्रोटेस्ट करने से कोई सम्बन्ध है तो वह इसके होते हुए भी तुमसे-हमसे कभी नहीं हुआ । हमेशा अन्याय होते हुए देखते रहे । और तो और किसी लम्पट और चोर को भी यह नहीं कह सके कि हम तुम्हें वोट नहीं देंगे । उसके सामने भी यही कहते रहे- हाँ जी, आपको ही देंगे वोट । सो इस ग्रंथि की चिंता छोड़ । यह तो कल भी और आज भी, हुई न हुई के बराबर थी । अपन, जैसे सूरमा जवानी में थे, वैसे ही सूरमा आज भी हैं ।

तोताराम चिढ़ गया, कहने लगा- जब देखो तब ऐसी ही बातें करता रहता है । कहने को जागरूक पाठक और लेखक बना फिरता है पर ढंग के समाचारों के बारे में ज़रा भी जानकारी नहीं है । अभी कुछ दिनों पहले अपने मनमोहन सिंह जी को एक पुरस्कार की घोषणा हुई थी । अखबारों में पढ़ने को मिला २४ सितम्बर २०१० को कि इन्हें न्यूयार्क की किसी 'अपील ऑफ कोंशियस फाउन्डेशन' नामक संस्था ने उन्हें 'वर्ष २०१० के लिए वर्ल्ड स्टेट्समैन' घोषित किया है । मनमोहन जी खुद तो नहीं जा सके । उनकी तरफ से अमरीका में भारत की राजदूत ने यह सम्मान ग्रहण किया है । यह पुरस्कार ‘समझ और सहिष्णुता’ के लिए दिया जाता है ।

हमने कहा- तो तुझे यह भी पता होगा कि इस संस्था से हेनरी किसिंगर जुड़े हुए हैं । ये वे ही सज्जन हैं जो कभी निक्सन के समय में अमरीका के विदेश मंत्री हुआ करते थे और जिनके साथ बातचीत में निक्सन ने इंदिरा गाँधी को 'बूढ़ी-चुड़ैल' कहा था । यह तो उनकी खुद की सहिष्णुता और सज्जनता का नमूना है । और वियतनाम, मिस्र, ईरान, ईराक, अफगानिस्तान के बारे में तो खुद अमरीका ने सहिष्णुता नहीं दिखाई । और मनमोहन जी को सहिष्णुता के लिए सम्मानित कर रहे हैं । इस सहिष्णुता का मतलब है कि जब अमरीका चाहे तब सहिष्णु बनो । अब अमरीका खुद अफगानिस्तान, ईराक और पाकिस्तान में उलझा हुआ है तो भारत से चाहता है वह अपमानित होकर भी सहिष्णु बना रहे । सबसे बातचीत करता रहे । कश्मीर के अलगाववादी मनमोहन जी की बेइज्जती करके लौटाते रहें और फिर भी वे उनसे वार्ता करते रहें ।

तोताराम कहने लगा- मास्टर, कहा भी गया है कि ठंडा लोहा गरम लोहे को काटता है । सत्य-अहिंसा अपने पुराने सिद्धांत हैं । हमें इन्हें नहीं छोड़ना चाहिए ।

हमने कहा- सत्य और अहिंसा वाला बौद्ध धर्म तो चीन में भी है मगर कल जब चीन को अपने जापान द्वारा पकड़े नौका के कप्तान को छुड़ाना था तो जापान को धमकी दी तो कप्तान एक ही दिन में छूट गया । और अब मज़े की बात यह कि वह जापान से हर्जाने और माफ़ी की माँग और कर रहा है । मनमोहन जी की तरह वार्ता करता रहता तो छूट लिया था कप्तान । न मिले किसिंगर जी का पुरस्कार, देश की इज्जत तो बनी रही, बल्कि और बढ़ गई ।

हमें लगा कि हम कुछ ज्यादा ही बोल गए हैं । सो हमने फिर तोताराम की तरफ ध्यान केंद्रित करते हुए कहा- छोड़ यार,इन बातों को । यह बता, तू क्यों करवाने जा रहा था अपनी पौरुष-ग्रंथि का ऑपरेशन ?

तोताराम ने कहा- मैंने सोचा, मनमोहन जी को यह सम्मान पौरुष-ग्रंथि का ऑपरेशन करवाने के बाद मिला है तो क्या पता, मेरा भी नंबर आ जाए । देश की चिंता करने से क्या फायदा ? उसका तो वही होगा जो अमरीका और मुक्त-बाजार चाहेगा ।

हमने ठहाका लगाते हुए कहा- अब तो चाय पिएगा ना, मेरे सहिष्णु ?

तोताराम शरमा गया ।

२६-९-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

ओबामा की शादी की अँगूठी



ओबामा जी,
नमस्ते । १२ सितंबर की एक ब्रेकिंग न्यूज थी- 'ओबामा की शादी की अँगूठी गायब' । वैसे तो हमारे देश के अंग्रेजी अखबारों और उनकी देखा-देखी क्षेत्रीय भाषाओँ के अखबारों का भी यह हाल है कि योरप-अमरीका के ऐरे-गैर, नत्थू-खैरे की छोटी से छोटी खबरें भी इतनी प्रमुखता से छापी जाती हैं कि आज की भारतीय पत्रकारिता पर शर्म आती है । एक बार ब्रिटनी स्पीयर्स इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर से मिलने गई तो उसके कुत्ते बिटबिट ने ब्लेयर साहब के कारपेट पर छी-छी कर दी । हमारे अखबारों के लिए यह एक बड़ी खबर थी । इसी तरह १५ अगस्त को हेली बेरी नाम की एक अभिनेत्री ने कहा कि यदि लोग परेशान न करें तो वह रोजाना न्यूड होकर फोटो खिंचवाए । उसने सार्वजनिक रूप से नंगे होने की भी आजादी माँगी । यह भी हमारे अखबारों के लिए एक बड़ी खबर थी । हमारे यहाँ बिहार में एक साठ साल के बूढ़े ने गाँव की पानी की समस्या को हल करने के लिए खुरपी से अकेले ही एक बड़ा तालाब खोद दिया मगर यह किसी अखबार को बड़ी खबर नहीं लगी । आपके यहाँ भी ऐसा ही होता होगा । अब मीडिया का काम जनता को जागृत करना और अपनी क्षमताओं को पहचानने के लिए प्रेरित करना नहीं रहा बल्कि उसे ऐसे ही भाँडों की लम्पटताओं में उलझाए रखना है ।

सो किसी की अँगूठी खो जाना कोई बड़ी बात नहीं और न ही यह कोई अन्तराष्ट्रीय खबर है मगर आपकी शादी की अँगूठी के गायब होने से हमें भी चिंता हुई क्योंकि आजकल दुनिया के बड़े-बड़े नेता कोई अच्छे काम करने की बजाय लम्पटताओं के लिए चर्चित हो रहे हैं और मीडिया को तो और चाहिए ही क्या ? इटली के प्रधान मंत्री की अपनी लम्पटताओं के लिए पिटाई भी हो गई थी ।
फ़्रांस के राष्ट्रपति ने दो-दो पत्नियाँ छोड़ कर, पहले भी दो-दो पतियों के प्रति वफादारी की शपथ लेकर छुट्टी हो चुकी, कार्ला ब्रूनी से शादी कर ली । अभी दो-चार दिन पहले फोटो देखा कि रूस के पुतिन जी महाराज एक चौबीस साल की जिमनास्ट को खा जाने वाली नज़रों से घूर रहे थे और नीचे खबर थी वे अपनी पत्नी को तलाक दे चुके हैं और इस युवती से शादी करने वाले हैं । क्लिंटन जी के किस्से तो जग जाहिर हैं ही । प्रिंस चार्ल्स की मजनूगीरी तो अब पुरानी हो चुकी । हमारे यहाँ शशि थरूर जी भी स्वयं थर्ड हैंड होकर एक थर्ड हैंड महिला से शादी रचा चुके हैं और आजकल हनीमून पर हैं । दक्षिणी अफ्रीका के जूमा जी तो शायद पाँच छः के घोषित पति हैं और अभी कुछ दिनों पहले २२ वीं संतान के पिताश्री बने हैं । स्वाजीलैंड के राजा साहब तो हर साल एक नृत्य प्रतियोगिता कराकर उसमें से एक नई सुन्दरी को पत्नी के रूप में चुनते हैं । अब सुना है कि उनकी एक पत्नी किसी मंत्री के साथ पकड़ी गई है । इसीलिए कहा गया है कि एक पत्नी हो तो वह अपनी होती है और यदि दो हों तो वे दोनों ही किसी और की होती हैं । मगर ऐसे पति और पत्नियों को ऐसी दकियानूसी बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता ।

आपके यहाँ कहा जाता है कि जब तक शादी चलती है तब तक पति और पत्नी शादी की अँगूठी नहीं उतारते । और यदि शादी की अँगूठी नहीं है तो मतलब यह निकाला जाता है कि या तो शादी टूट गई है या शादी हुई नहीं है । तो आपकी शादी की अँगूठी के गायब होने से हमें यह आशंका हुई कि कहीं आप पर भी इन लम्पटों का कोई असर तो नहीं हो गया ? वैसे हम आपको इस मामले में बहुत भला आदमी समझते है । सो खूब खोजने पर जानकारी मिली कि आपकी अँगूठी गायब नहीं हुई है और आपकी नीयत भी सही सलामत है बल्कि आपने अँगूठी मरम्मत के लिए दी है ।

भले ही ये नेता लोग अपने आपको बहुत एडवांस समझें मगर जनता चाहे कहीं की भी, और खुद चाहे कितनी भी भ्रष्ट हो मगर अपने नेता को आदर्श ही देखना चाहती है । तभी तो आपको याद होगा कि जब अमरीका में क्लिंटन वाले मामले में मीडिया ने उसे छोड़ा ही नहीं तो आपके वहाँ की जनता ने ही इसका विरोध किया था कि यह क्या चल रहा है ? हमारे बच्चे भी पूछने लगे हैं । हम उन्हें क्या बताएँ ? इसे बंद किया जाना चाहिए ।

बड़ों की इस लम्पटता का दंड बेचारे बच्चों को भुगतना पड़ता है । उनकी क्या गलती है ? उन्हें तो माता-पिता दोनों ही असली चाहिएँ । इसलिए यदि कोई भी शासन और शासक देश में सुख शांति चाहता है तो उसे परिवारों को टूटने से बचाना चाहिए । खुद भला बन कर ही राजा या नेता किसी को उपदेश दे सकता है । बुश की और हजार आलोचनाएँ की जाएँ मगर इस मामले में तो वे बेदाग़ हैं ।

आप और मिशेल से हमें इन लम्पटों जैसी कोई आशंका नहीं है । भगवान आपका वैवाहिक जीवन अखंड और अटूट रखे ।

२६-९-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

तोताराम का आइ.आइ.पी.एफ.टी. (IIPFT)



आज सवेरे-सवेरे अखबार और दूध वाले के आने से पहले ही एक अजीब घटना हो गई । दरवाजे पर बड़े जोर का धमाका हुआ जब कि अमरीका या अन्य किसी देश ने कोई सूचना नहीं दी थी कि कोई आतंकवादी हमला होने वाला है । बाहर निकल कर देखा तो तोताराम दोनों हाथों में पत्थर लिए खड़ा था । दोनों हाथों में लड्डू होने का तो प्रश्न ही नहीं, क्योंकि वे तो नेताओं के लिए सुरक्षित हैं । हमने पूछा- तोताराम, क्या तूने किसी को पत्थर फेंक कर भागते हुए देखा ? किस बदमाश ने फेंका पत्थर ?

तोताराम बोला- कौन फेंकेगा, हमने ही फेंका है । देखा कैसा फिट लगा निशाना ? यह हमारी आइ.आइ.पी.एफ.टी. की लांचिंग सेरेमनी का शुभारंभ है । हमने कहा- तोताराम, यदि कोई और होता तो हम अभी पुलिस को फोन करके तुझे अंदर करवा देते ।

तोताराम उपेक्षा की एक हँसी हँसा । अरे, अंदर करवा देता तो क्या, चार दिन बाद ससम्मान छूट कर आ जाते । देखा नहीं, कश्मीर में चिदंबरम ने सभी पत्थर फेंकने वालों को रिहा करने के आदेश दे दिए हैं । और अगले आदेश में यह भी आ जाएगा कि इन युवकों को तय की गई दो सौ रुपए रोजाना की दिहाड़ी यदि नहीं मिली हो तो वह भी महा-नरेगा के फंड से शीघ्र दिलवा दी जाएगी । आखिर कश्मीर में सद्भाव स्थापित जो करना है ?

मैंने इंडियन इस्टीट्यूट आफ टेक्नोलोजी, मनेजमेंट, फैशन टेक्नोलोजी की तर्ज़ पर एक 'इंडियन इंस्टीट्यूट आफ पत्थर फेंक टेक्नोलोजी' खोल ली है । एक सौ रुपए रोज में स्वयंसेवकों की भर्ती करेंगे और फिर जब कभी सरकार घुटने टेक कर समझौता करेगी तब दो सौ रुपए रोज के हिसाब से बकाया हिसाब कर लेंगे । प्रति स्वयंसेवक एक सौ रुपए रोज का फायदा होगा । युवकों के भी मजे । न फावड़ा चलाना, न गेंती से मशक्कत करनी । बस दो घंटे पत्थरों से निशानेबाजी की और दिहाड़ी खरी और जेल का कोई डर नहीं । जेल तो होती है किसी भले आदमी को और फिर उसकी कोई जमानत देने वाला भी नहीं मिलता । लफंगों को न कोई डर होता, न कोई इज्जत का ख्याल । ऐसों से ही यह सरकार डरती है और उन्हें जेल में डालना तो दूर, विशेष पैकेज और देती है । देखना, एक बार अपनी इस 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पत्थर फेंक टेक्नोलोजी' घोषणा करने भर की देर है, युवक नरेगा और कालेज छोड़ कर न आ जाएँ तो मेरा नाम बदल देना । और फिर जब धंधा चल निकलेगा तो कोई न कोई राजनीतिक पार्टी बना लेंगे ।

तभी एक छोटा सा पत्थर तोताराम के सर पर आकर लगा । वह सर पकड़ कर बैठ गया ।

हमने कहा- तोताराम, तू तो इंस्टीट्यूट खोल रहा है पर यहाँ तो लगता है किसी ने पहले ही यह धंधा शुरु कर दिया है । हो सकता है यह उसी के दीक्षांत समारोह का निमंत्रण हो ।

२६-९-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

Sep 26, 2010

तोताराम और सरकारी नाक


पहले राजा लोग नाक के लिए लड़ते थे । कभी अपनी नाक बचाने के लिए तो कभी दूसरे की नाक काटने के लिए । इस चक्कर में ज़्यादातर दोनों की ही नाक कट जाती थी । मुगलों के आने के बाद अधिकतर राजाओं ने तो अपनी नाक बचाने के लिए उसे छोटा करवा लिया । महाराणा प्रताप, शिवाजी, छत्रसाल, दुर्गादास, और अमर सिंह जैसों ने अपनी नाक के लिए सर कटवाना ज्यादा ठीक समझा । इसके बाद जब अंग्रेज़ आए तो सभी राजाओं और नवाबों ने अपनी नाक को सुरक्षित रखने के लिए उसे अंग्रेजों के पास ही जमा करवा दिया । जब अपने दरबार में जाना होता या अपनी प्रजा पर रोब ज़माना होता तो लॉकर में से निकल कर ले आते थे और काम करने के बाद फिर लॉकर में जमा कर आते थे । आम आदमी की नाक तो अपने छोटे-छोटे कामों के लिए दफ्तरों में घिसने में ही खत्म हो जाती है । पर अब तो न मुगलों का शासन है और न अंग्रेजों का । अब तो नाक कटने, काटने और कटवाने का झंझट ही नहीं है । फिर भी जब बी.बी.सी. से खबर सुनी और कॉमनवेल्थ गेम्स के मकानों की लेट्रीनों की तस्वीरें देखीं तो लगा वास्तव में ही नाक कट गई है क्योंकि वाशबेसिनों में लाल-लाल सा कुछ बिखरा हुआ था । कुछ लोग उसे पान की पीक बताते हैं पर हमें तो लगता है कि यह उसी कटी हुई नाक का खून है ।

हम नाक के बारे में सोच ही रहे थे कि तोताराम आ गया । हमने कहा- तोताराम, यदि इनके बस का नहीं था तो नहीं करवाते खेल, मगर अब कटवा ली ना नाक ? तोताराम ने कहा- मास्टर, जब देश में लोकतंत्र होता है तो कटने वाली नाक, नेताओं को चुनने वाली जनता की होती है और जो नोट आते हैं वे नेताओं और अधिकारियों की जेब में जाते हैं । सो अगर तुझे लगता है कि नाक कटी है तो वह तेरी ही है । जा, ड्रेसिंग करवा और भविष्य में ध्यान रखना । सँभाल कर नहीं रखेगा तो फिर यही होगा । नेताओं और अधिकारियों की नाक तो सलामत है । किसी के चेहरे पर शिकन देखी क्या ? और अपने ही क्या किसी भी देश के नेता की नाक ऐसे ही कटने लगी तो फिर तो हो ली देश-सेवा । अमरीका वियतनाम में पिट कर भागा पर क्या उसकी नाक कटी ? अब अफ़गानिस्तान से निकल पाने का कोई बहाना नहीं मिल रहा पर नाक तो सब की सलामत है । पड़ोस में मिस्टर दस परसेंट की नाक पर क्या तुझे कहीं से भी खरोंच लगी दिखाई दी ? नाक शर्मादारों की होती है और उन्हीं की कटती है । ये लोग तो नाक कटाकर स्वर्ग देखने वाले लोग हैं ।

हमने कहा- तोताराम, अबकी बार मामला वास्तव में गंभीर है । बड़े-बड़े नेताओं ने कह दिया है कि खेल समाप्त होने पर कठोर कार्यवाही होगी और किसी भी अपराधी को बख्शा नहीं जाएगा ।

तोताराम बोला- यह तो पुराना मुहावरा है । आज तक किसे सजा मिली है, कौन-घपला पकड़ा जाकर अपने अंजाम पर पहुँचा है जो यह पहुँचेगा । बाद में तो जो होता है, वही होगा- 'खेल खतम और पैसा हज़म' । बिल तो पहले ही पास हो गए और कम्पलीशन सर्टिफिकेट भी ले लिए गया होगा । अब खँगालते रहो कागज । पहले ज़माने में जब पहाड़ खोदा जाता था तो कम से कम साला कोई चूहा तो निकलता था अब तो देख लेना चूहा भी नहीं निकलने वाला । इसके बाद तो जैसे कनाडा को एक मिलियन डालर खिला कर कामनवेल्थ गेम्स लाए थे वैसे की किसी न किसी को एक बिलियन खिला कर ओलम्पिक की परमीशन ले आएँगे । अब की बार सत्तर हजार करोड़ को बत्ती दिखाई है, ओलम्पिक में दो लाख करोड़ का चपड़ा कर देंगे । किसी के बाप का क्या जाता है ? माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम । छोड़ ये सब बातें । यह बता केबल कब लगवा रहा है ?

हमें तोताराम का यह असमय मज़ाक बुरा लगा । हमने ज़रा नाराज़ होकर कहा- तोताराम, तुझे मज़ाक सूझ रहा है और कई देश हैं जो यहाँ खेलने आने से मना कर रहे हैं । जब लोग खेलने ही नहीं आयेंगे तो और भी भद्द पिटेगी ।

तोताराम बोला- अच्छा है, कम देश खेलने आयेंगे तो अपने को ज्यादा पदक मिलने के चांस रहेंगे । अच्छा हो, एक भी नहीं आये और अपन ही सारे पदक जीत जाएँ । जब १९८० में मास्को ओलम्पिक में अमरीका ने बहिष्कार किया था तो क्या खेल नहीं हुए थे ? वैसे ये देश फालतू का नाटक कर रहे हैं कि ‘पलंगों पर मिट्टी के पैर लेकर चढ़े कुत्तों के पैरों के निशान देखे गए हैं’ । गोरे लोग तो सुना है अपने कुत्तों को साथ लेकर सो जाते हैं । और यह ज्यादा ही बड़ी बात लग रही है तो सभी कमरों में पलंगों के पास पैर पोंछने वाला मैट रखवा देंगे जिससे कुत्ते पैर पोंछ कर चढेंगे । और रही बात कमोड और वाशबेसिन की तो उनमें हगना, मूतना और थूकना ही तो है । कौनसा उनमें खाना खाना है । बिना बात की सफाई पसंदगी दिखा रहे हैं । हम जानते हैं, कई देशों के लोग तो ठंडी में महिनों तक नहीं नहाते । ऊपर से पाउडर और इत्र छिड़क कर भभका मारते हैं ।

हमने पूछा- और सुरक्षा व्यवस्था का क्या होगा ?

तोताराम ने कहा- सुरक्षा व्यवस्था में क्या खराबी है ? जिसकी मौत आ गई वह तो सीढ़ियों से गिर कर मर जाएगा और जिसकी नहीं आई उसे कौन मार सकता है ? जीवन-मरण सब विधाता के हाथ है, आदमी के नहीं । और इतना ही डर लगता है तो अपने घर बैठें । हमारे विद्यार्थी सारे खतरे उठाकर आस्ट्रेलिया पढ़ने के लिए जाते हैं कि नहीं ? लगता है जिन देशों की तैयारी अच्छी नहीं है, जिनमें खेल भावना नहीं है वे ही ऐसे बहाने बना रहे हैं । जयपाल रेड्डी ने कह तो दिया कि खेल होंगे और शानदार ढंग से होंगे और प्रधान मंत्री जी ने भी तो काम फटाफट करने का अल्टीमेटम दे दिया है ।

अब भी किसी को विश्वास नहीं हो तो कोई क्या कर सकता है ? जिन्हें 'जूँओं के बहाने घाघरा खोलना' है, वे खोलें ।

२४-९-२०१०

Official Site
Deccan Herald News
Delhi CWG cleanup

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

Sep 15, 2010

पादरी का पटाखा


पादरी टेरी जोन्स,
कुरान-दहन-धमकी-दाता,
डोव वर्ल्ड आउटरीच सेंटर चर्च,
गेन्सविल, फ्लोरिडा, यू.एस.ए.

अब तक हमारे यहाँ तो क्या, फ्लोरिडा में ही आपको कोई मुश्किल से जानता होगा । और अब आपको व्हाइट हाउस से फोन आते हैं । दुनिया भर के अखबारों में आप पहले पेज पर विराजमान हैं । इसे कहते हैं 'बदनाम भी होंगें तो क्या नाम ना होगा ' । बल्कि हम तो कहते हैं कि नाम बदनामी से ही अधिक होता है । काम करने वाले न तो नाम के पीछे भागते हैं और न ही आजकल लोग उनके बारे में कोई जानना चाहता है । हवा, पानी, बारिश, धूप हमें बिना माँगे मिलते हैं तभी हम न तो उनका महत्त्व समझते हैं और न ही उनका शुक्रिया अदा करते हैं, उनका आनन्द लेना तो दूर की बात है । पुराना आदमी भले ही आज के आदमी जितना चालक नहीं था मगर कृतज्ञ था । भले ही इनसे डरता था पर इनका आनंद भी लेता था ।

रंडी, नेता और धंधा करने वाले नाम या बदनामी की कमाई खाते हैं । धमकी के बाद अब आपके चर्च में भक्त लोग ज्यादा आने लगे होंगे और चढ़ावा भी अधिक आने लगा होगा । आपका “आउट-रीच” चर्च अब तो सबकी “विदिन-रीच” हो गया होगा । धर्म तो आचरण की चीज है पर जब वह धंधा बन जाता है तो फिर ऐसे पटाखे छोड़ने जरूरी हो जाते हैं । हम अपने चालीस साल के अध्यापन-जीवन के आधार पर कह सकते हैं यह एक बीमारी है जो उन लोगों में पैदा हो जाती है जिन की तरफ कोई ध्यान नहीं देता । मनोविज्ञान में इसे 'अटेंशन सीकिंग कम्प्लेक्स’ कहते हैं । हमें कई बच्चे याद हैं जो न तो पढ़ाई में अच्छे थे और न ही कुछ ऐसा कर पाते थे कि उन्हें रिकग्निशन मिले तो वे ध्यान आकर्षित करने के लिए अपनी चड्डी में पेशाब कर लिया करते थे तो उस दिन वे ही क्लास में चर्चा का विषय बन जाते थे । वरना धार्मिक स्थानों में बैठे लोग, राजनीति और व्यापार करने वाले कौन सी खाई खोदते हैं और कौनसी खेती करते हैं ? धर्म परिवर्तन करवाना भी, चढ़ावे के लिए भोली भेड़ें बढ़ाने का धंधा है । कुछ धर्मों में तो धार्मिक अड्डे बाकायदा टेक्स वसूली करते हैं । पहले तो राजा से भी ज्यादा पावर धार्मिक अड्डों के पास ही थी । अब भी उन्हीं की आड़ में सत्ता हथियाने के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं । वैसे भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई कौन सी पुस्तक पढ़ रहा या पढ़ ही नहीं रहा है । वह तो कर्म और उसे करने वाले की भावना देखता है और उसी के अनुसार फल देता है । सो आपको ही नहीं, सभी धर्म का धंधा करने वालों को उनके कर्मों के अनुसार ही फल देगा । यह बात और है कि यह समाचार किसी मीडिया में नहीं आता कि धर्म का धंधा करने वालों को भगवान ने कौन से नर्क में डाला ।

वैसे यह समझना कठिन नहीं है कि वे धार्मिक स्थान जहाँ सारी दुनिया के धनवान देशों से धर्म के नाम पर हजारों बिलियन का चन्दा आता है और उसे ऊँची-ऊँची दीवारों के पीछे किलेनुमा कोठियों में रहने वाले, कुछ भी काम नहीं करने वाले और चेलियों से घिरे रहने वाले संत-सज्जन कैसे खर्च करते होंगे और क्या-क्या नहीं करते होंगे । यह सच है कि दाम और आराम की अधिकता में हराम ही उपजता है । हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले को रोटी खाकर सोना ही सूझता है । स्केंडल करने का समय ही नहीं मिलता । सो आपको यह खुराफात सूझी इसमें आपका कोई दोष नहीं है । यह तो कर्महीनता का स्वाभाविक परिणाम है ।

यह तो ९/११ की नौवीं बरसी है पर इस घटना से भी एक साल पहले काबुल के पास बामियान में कुछ धर्मान्ध लोगों ने भगवान बुद्ध की दुनिया की सबसे बड़ी पहाड़ों में खुदी, दो हजार साल पुरानी मूर्तियाँ तोड़ी थीं तो किसी भी धार्मिक या दुनिया में इंसानियत की फ़िक्र करने वाले को तकलीफ़ नहीं हुई थी । उन्होंने उन मूर्तियों को केवल पुरातात्त्विक महत्त्व की चीज मान कर ऐतराज की रस्म अदा कर दी । वैसे अधिकतर हिसाब-किताबी लोगों के लिए आज भी कोई पुस्तक, स्थान, वस्तु कुछ महत्त्व नहीं रखती । व्यापारी लोग उसकी कीमत देखते हैं उससे जुड़ी लोगों की भावनाएँ नहीं देख-समझ सकते । तब आपने, अमरीका ने और वहाँ के राष्ट्रपति और वेटिकन के पोप ने कोई गंभीर प्रतिक्रिया नहीं दिखाई । अब आपका कुरान जलाने का नाटक इसलिए महत्त्वपूर्ण हो गया क्योंकि ईराक और अफगानिस्तान में अमरीकी सैनिकों को गुस्से का सामना करना पड़ सकता है । यहाँ भी इंसानियत नहीं, अपना व्यक्तिगत डर है । इन्हें संतों की तरह इंसानी रिश्तों और भाईचारे की हानि की कोई फ़िक्र नहीं है ।

यह तो भगवान की कृपा रही कि वेटिकन, व्हाइट हाउस के प्रतिनिधि और भी कुछ लोगों ने आपसे यह महान कार्य न करने का अनुरोध किया वरना कोई कुछ भी नहीं करता तो भी आप कुरान जलाने वाले नहीं थे । जिसे कुछ करना होता है वह ढिंढोरा नहीं पीटता । जो करना होता है वह चुपचाप कर गुजरता है । अमरीका ने ही अणुबम गिराने की सूचना कौनसी जापान को दी थी ? अलकायदा ने ही ट्विन टावर वाला कांड करने से पहले कौन सा बुश साहब को एस.एम.एस. किया था । अलकायदा वालों ने बुद्ध की मूर्तियाँ तोड़ने से पहले किसे पूछा था ?

शोले फिल्म के बाद हमारे यहाँ एक फैशन चला था कि कोई भी अपनी माँग मनवाने के लिए पानी की टंकी पर चढ़ जाता है । वीरू को तो खैर टंकी पर चढ़ कर धमकी देने से बसंती मिल गई पर इन टंकी पर चढ़ने वालों का भी छोटा-मोटा समाचार किसी स्थानीय अखबार में छप ही जाता है । मगर यदि कोई भी गाँव वाला वीरू को देखने के लिए नहीं आता और यदि आ भी जाता तो उसे रोकता नहीं तो क्या आप समझते हैं कि वह टंकी से कूद पडता ? बिलकुल नहीं । कोई भी दीवाना और शराबी इतना पागल नहीं होता । हम तो कहते हैं कि यदि कोई पुलिस वाला टंकी के नीचे आकर खड़ा हो जाता और कहता कि अब तुझे टंकी से नीचे उतरने नहीं दिया जाएगा तो दो घंटे में ही नीचे उतरने के लिए गिड़गिड़ाने लग जाता । आखिर कोई कब तक टंकी पर चढ़ा रह सकता है । लघु-दीर्घ शंकाएँ और भूख-प्यास तो सब को लगती ही है ।

हमारे मोहल्ले में एक महिला थी । वह अपने पति को बहुत परेशान करती थी । जब चाहे धमकी देती रहती थी कि मैं तो कुएँ में पड़ने जा रही हूँ । बेचारा उसे मानता और लोग तमाशा देखते । एक दिन मोहल्ले के एक सज्जन को गुस्सा आ गया । उन्होंने उसका हाथ पकड़ा और घसीटते हुए कुएँ की तरफ ले जाने लगे कि तू क्या गिरेगी आज हम ही तुझे कुएँ में गिरा कर आते हैं । यह रोज-रोज का झंझट तो खत्म हो । और उन्होंने उसे कुँए में लटका दिया । लोगों ने बड़ी मुश्किल से छुड़ाया । मगर फिर उस महिला ने कभी ऐसी धमकी नहीं दी । आपको तो, अगर कोई अच्छा सा फतवा ही जारी हो जाता तो दस्त लगने लग जाते । और अब 'कौन से मियाँ मर गए या रोजे घट गए' ।

आपने कहा कि अब और कभी भी कुरान नहीं जलाएँगे । ठीक है । वैसे हम जानते हैं कि इससे खुदा को कोई फर्क नहीं पड़ता । पर आपने तो अपना काम कर ही दिया । जो बदबू फैलानी थी फैला ही दी । चूहा तो मरता है मगर सारे घर को सड़ा देता है ।

११-९-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

Sep 14, 2010

तोताराम के जूते-चप्पल

आज हमने तोताराम के आने से पहले ही घर की बाउंड्री पर से रास्ते पर निगाह रखना शुरु कर दिया जैसे कि दिल्ली में २६ जनवरी के उत्सव पर उत्सव-स्थल के ऊपर हेलीकोप्टर मँडराने लगते हैं । जैसे ही तोताराम आया, हमने दूर से ही कहा- तोताराम, चप्पल पहन कर अंदर मत आना । या तो जूते पहनकर आना या फिर नंगे पाँव । तोताराम हँस कर कहने लगा- तू क्या आपने आप को राहुल गाँधी समझता है या उससे भी बड़ा कोई नेता ?

हमने कहा- ऐसी बात नहीं है फिर भी भैया, 'बेटर लेट देन नेवर' । पथ्य से परहेज भला । रोजाना दुर्घटनाएँ नहीं होती हैं फिर भी लोग भारी गरमी में भी हेलमेट लगाते ही हैं । बहुत से लोग बीमा करवाते हैं मगर उनमें से कोई इने-गिने भाग्यशाली ही दुर्घटनाग्रस्त होकर बीमा कंपनी को चूना लगा पाते हैं । शहर में स्वाइन फ्लू होता एक को है मगर मास्क लाखों बिक जाते हैं । और फिर जमाना खराब है । जब हुड्डा जैसों तक पर जूता चल गया तो हम तो राष्ट्र-निर्माता हैं ।

तोताराम ने प्रतिवाद किया, कहने लगा- क्या तू समझता है कि मैं अपने बड़े भाई पर जूता चलाऊँगा । हमने कहा- बंधु, जमाना खराब है । जब इंदिरा जी को उन्हीं के एक रक्षक ने मार डाला, कश्मीर में मात्र दो सौ रुपए के लिए काम करने की बजाय युवा पत्थर फेंकने के गृह-उधोग में किस्मत आजमा रहे है, तीन हजार रुपए महीने में लोग नक्सलवादी बन रहे हैं तो कुछ पता नहीं; कब, कोई अपना ही हमें जूता फेंक कर बुश बनाने पर उतर आए? वैसे हम मान-अपमान से ऊपर उठ चुके हैं और आज तक कोई भी जूता अपने सही निशाने पर भी नहीं पहुँचा फिर भी क्या पता हम पर ही निशाना ठीक बैठ जाए तो यह बिना बालों की खोपड़ी फूटते देर नहीं लगेगी । सो यदि आना है तो चप्पल निकाल कर ही आ ।

तोताराम ने अंदर घुसते हुए कहा- क्यों ज्यादा अपने भाव बढ़ा रहा है । क्या तू ही अखबार पढ़ता है ? मुझे भी सब खबर है । मैनें तो, जब से राहुल जी की मीटिंग में चप्पल पर प्रतिबन्ध लगा है, तभी से सारी चप्पलें भिखारी को दान में दे दी हैं और देख नए, हलके और कीमती जूते खरीद कर ले आया हूँ । क्या पता, राहुल जी कब, कहाँ पँहुच जाएँ और हम जूतों के अभाव में उनकी मीटिंग में ही न जा पाएँ । और देख, यह एक जोड़ी तेरे लिए भी ।

हमने कहा- मगर क्या राहुल जी यहाँ आने वाले हैं ? वे तो वहीं जा रहे हैं जहाँ चुनाव होने वाले हैं या जहाँ बरसों से कांग्रेस, सत्ता से बाहर है और खराब हालत में है । तोताराम बोला- तो क्या हुआ, जब यहाँ चुनाव होंगे तब आएँगे । और जब उन्होंने मीटिंग में आने के लिए जूतों में आने की शर्त लगा दी है तो क्या जूतों के भाव नहीं बढ़ेंगे ? अच्छा ही तो किया जो भाव बढ़ने से पहले ही खरीद लिए ।

हमने कहा- तोताराम, अपमान क्या जूते मारने से ही होता है ? एक राजा ने एक सैनिक को युद्ध में बंदी बना लिया । राजा ने उससे कहा- अब तू मेरा गुलाम है ? अब तू मेरा क्या कर सकता है ? मैं चाहूँ तो अभी तेरा सर काट सकता हूँ । सैनिक ने कहा- आप मेरा सर काट सकते हैं पर मेरी आत्मा अभी भी स्वतंत्र है । मैं अब भी आपका अपमान कर सकता हूँ । और उसने राजा के मुँह पर थूक दिया । अपमान करने वाला तो किसी भी तरह से अपमान कर सकता है । वैसे जहाँ तक हमारी बात है तो तोताराम, सच बताएँ, बड़े नेताओं की तो छोड़, हमारा थूक तो किसी छुटभैये नेता को देखकर ही सूख जाता है क्योंकि नियम तो भले आदमियों पर लागू होता है । इन पर कोई नियम लागू नहीं होता । फिर भी तू कहता है तो भावी प्रधानमंत्री की इच्छा का आदर करते हुए इन जूतों का खर्चा भी बर्दाश्त करेंगे ।

तोताराम बोया- तो निकाल पाँच हजार ।

हमारा मुँह खुला का खुला रह गया । यह रकम हमारी आधी पेंशन के बराबर थी ।

९-९-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

Sep 10, 2010

तोताराम की नो बाल



सवेरे-सवेरे तोताराम के साथ घूमकर लौटे और चबूतरे पर बैठे ही थे कि पीछे-पीछे एक सज्जन भी आकर बैठ गए । सज्जन थके हुए लग रहे थे सो पूछने की धृष्टता करने की बजाय कहा- आओ, बैठो भाई, थोड़ी देर रुको, अभी चाय आएगी तो पीकर चले जाना । तभी तोताराम ने कहा- मास्टर तुझे पता है 'नो बोल' किसे कहते हैं ? हमने कहा- इसमें क्या है । 'नो बोल' मतलब 'नहीं बोल' । बोला- अरे, हिंगलिश में नहीं शुद्ध इंग्लिश में पूछ रहा हूँ । हमने कहा- तो 'नो बोल' मतलब कि 'बोल नहीं' जैसे कि हमारे हाथ में बोल नहीं है तो 'नो बोल' हो गई ।

तोताराम हमारे अज्ञान पर चिढ़ने की बजाय दुःखी हुआ । कहने लगा- जब कोई बोलर ऐसी बोल फेंके जिससे विकेट उड़ जाने पर भी बैट्समैन आउट नहीं हो और उसकी टीम को एक रन भी मिल जाए और बोलर थके सो व्यर्थ में, उसे नो बोल कहते हैं । हमने कहा- तोताराम और तो हम नहीं जानते पर यह तय है कि हमने आज तक जो भी दो-चार बोल फेंकी हैं वे 'नो बोल' ही थीं । चाहे साहित्य की हो, चाहे स्वयं सेवा की । पूरी सेवा करने के बावज़ूद खबरों में हमारा नाम हर जगह 'आदि' में ही आता था जैसे कि फलाँ कार्यक्रम में सर्वश्री ए,बी,सी आदि या एक्स, वाई, जेड आदि मौजूद थे । इन सबमें यह 'आदि' हमीं थे । और तोताराम, बचपन में तूने भी कई बार बैटिंग की पर रन एक भी नहीं बनाया ।

अब तक चाय भी आ गई और बात की दिशा बदल गई । हमने अपने पीछे वाले सज्जन की तरफ देखा जो अब तक हमारी बात ध्यान से सुन रहे थे । हमने पूछा- तो कहिए, श्रीमान जी कहाँ से आ रहे हैं ? कहने लगे- हम तो सीधे इंग्लैण्ड से आ रहे हैं इसीलिए थोड़ा थक गए हैं । वैसे तो आगे क्रिकेट के सेवकों के पास जाना था पर अब लगता है जरूरत नहीं पड़ेगी ।

हमने कहा- हम तो क्रिकेट के दुश्मन हैं । हम तो चाहते हैं कि क्रिकेट में दुनिया भर की खुराफातें हों और यह बदमाशी का धंधा बंद हो । क्रिकेट ही क्या सारे खेलों के सेवक तो दिल्ली में बैठे हैं और अढ़ाई हजार की चीज चार लाख में खरीद कर स्विस बैंक में पैसा जमा करवा रहे हैं ।

सज्जन बोले- हम तो थर्ड पार्टी सेवक हैं । हम तो न किसी क्रिकेट बोर्ड में हैं और न ही खेलते हैं और न ही कोई सामान खरीदते हैं । हम तो 'नो बोल' फिंकवाते हैं और जैसा कि आपकी बात से पता चला है कि आपकी सारी ही बोलें 'नो बोल' होती हैं तो समझिए हमें आपसे ही काम है । अब दिल्ली, मुम्बई जाने की क्या जरूरत है ? अब की बार हम सट्टा करवाएँगे कि सारा मैच ही 'नो बोल' से जीता जाएगा । टीम में आप दोनों को घुसाने की जिम्मेदारी हमारी । आप बोलिंग करेंगे और तोताराम जी बैटिंग करेंगे । और बिना एक भी विकेट गिरे और एक भी ओवर पूरा हुए मैच पूरा हो जाएगा । वंडरफुल मैच, वंडरफुल रिकार्ड । अब आप दोनों अपनी फिक्सिंग की घूस बताइए कितनी होगी ?

बड़ा धर्म संकट आ गया । क्या बताएँ । हमारी तो गिनती ही अब पेंशन के कारण ग्यारह हजार तक रह गई है । तोताराम ने कहा- देखो भाई, हम नकद तो लेंगे नहीं । क्या पता पकड़े गए तो पेंशन से और जाएँगे । तुम तो ऐसा करना कि हमारे राशन वाले दुकानदार को दस साल तक हमारा दोनों का राशन-पानी का बिल जमा करवाते रहना । और हाँ, यदि इस बीच शरद पवार जी की कृपा से चीजों के दाम बढ़ जाएँ तो बढ़े हुए दाम चुकाना भी तुम्हारी जिम्मेदारी होगी ।

वे सज्जन उठ कर चलने लगे तो हमने पूछा- क्या हुआ ? कहने लगे होना क्या था ? यह ठीक है कि हम धंधा करते हैं मगर क्रिकेट की गरिमा का ध्यान रखना भी तो ज़रूरी है । कल को यदि फिक्सिंग के इस घोटाले का पर्दाफाश हो गया तो तुम्हारा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा मगर अरबों के इस खेल की इज्जत का कचरा ज़रूर हो जाएगा । दो खिलाड़ियों की फिक्सिंग और वह भी मात्र बारह लाख की । ओह नो !

और वह चाय अधूरी ही छोड़ गया ।

७-९-२०१०
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

Sep 9, 2010

चेलसी की शादी और ओबामा


ओबामा जी,
नमस्ते । ये मीडिया वाले भी बड़े फालतू लोग होते हैं । कहीं तो मरने जीने जैसी ज़रूरी बातों पर ध्यान नहीं देते और कहीं कुछ नेकनाम या बदनाम लोगों के गू-मूत तक के चर्चों से अखबार के फ्रंट पेज और टी.वी. के प्राइम टाइम को इतना भर देते हैं कि सारे घर में बदबू आने लगती है । पर क्या किया जाए । आदमी स्वाइन फ्लू और एड्स से बच सकता है मगर इनसे बचना मुश्किल है । हम यहाँ ऐसी बदबू फैलाने वाली चर्चा नहीं करने जा रहे हैं । हम तो आपको बताना चाहते हैं कि लोगों ने इसी बात का बतंगड़ बना दिया कि क्लिंटन दंपत्ति ने अपनी बेटी की शादी में ओबामा को नहीं बुलाया ।

हम तो कहते हैं कि अच्छा किया । अब एक महाशक्ति देश के राष्ट्रपति के पास यही काम है क्या कि शादियाँ अटेंड करता फिरे । छोटे-मोटे नेताओं की बात और है कि उन्हें कोई पूछता नहीं और न ही उनके पास कोई काम होता है सो वे तो इंतज़ार ही करते रहते हैं । कोई बुलाए या न बुलाए वे पहुँच ही जाते हैं । जैसे कि चंदा और वोट माँगने वाले शवयात्रा के साथ, कोई न कोई ग्राहक पकड़ने के लालच में, श्मशान घाट भी पहुँच जाते हैं । लोगों ने इस बात को इस तरह प्रोजेक्ट किया जैसे कि यह आपका अपमान है । अरे भई, ऐसी बातों में क्या अपमान और क्या मान । यह तो सबका निजी मामला होता है ।

हमारे यहाँ प्रियंका गाँधी की शादी हुई तो उसमें नरसिंह राव और नारायण दत्त तिवारी जैसे लोगों को भी नहीं बुलाया । मगर उन्होंने कोई बुरा नहीं माना । और घर के बाहर ही नाच कर लड्डू बाँटकर अपनी खुशी जाहिर कर ली । संवेदनशील और उत्साही लोगों को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता उन्हें तो खुश होना है सो हो लेते हैं । लोग तो कम्प्यूटर में देख कर काम चला लेते हैं । यहाँ तो शादी की मिठाइयों की खुशबू सात समंदर पार से भारत तक आ रही थी ।

हमारे यहाँ शवयात्रा और लड़की की शादी में जाना दोनों पुण्य के काम माने जाते हैं और इनमें निमंत्रण का इंतज़ार नहीं किया जाता । ये अवसर तो किसी की मदद करने के होते हैं । मगर आजकल तो शादी ही क्या अंतिम संस्कार तक के काम भी ठेके पर होने लगे इसलिए घरवाले भी पेंट की जेबों में हाथ डाले घूमते रहते हैं । पता ही नहीं चलता कि बन्दा घराती है या बराती । पहले उक्त दोनों ही कामों में लोगों की मदद की जरूरत पड़ती थी । और लोग लड़की की शादी में केवल काम करवाने जाते थे । खाने के समय जानबूझ कर खिसक लेते थे । पर आजकल तो लोग केवल खाने के लिए ही शादी में जाते हैं । आपने जब मनमोहन जी को पार्टी दी थी तब 'सलाही दंपत्ति' केवल दारू पीने ही चले आए, सारे सुरक्षा इंतजामों को धता बताकर ।

वैसे हम सोचते हैं कि आजकल आपके पास इतने काम हैं कि यदि निमंत्रण आता भी तो आपके लिए जाना कहाँ संभव हो पाता ? बड़े और राजनीतिक लोगों में बात आने-जाने की नहीं होती, बात होती है पालिसी की । सो आपको न बुलाने का फैसला किसी न किसी नीति के तहत ही लिया गया होगा । हम तो क्लिंटन साहब की जगह होते तो ऐसा पत्र लिखते कि आने वाला न तो आ ही सकता था और न ही यह कह सकता कि उसे बुलाया नहीं गया । जैसे कि लिख देते- “निमंत्रण भेज रहे हैं । आप आते तो हमें बहुत खुशी होती मगर आपके समय के महत्व और वर्तमान ज़रूरी कामों को देखते हुए बहुत ज्यादा आग्रह भी तो नहीं कर सकते । बड़े लोगों का तो आशीर्वाद ही बहुत होता है । शारीरिक उपस्थिति का क्या है, भाव महत्त्वपूर्ण होता है वैसे आप आ पाते तो वास्तव में बहुत खुशी होती” । आने लायक भी नहीं छोड़ा और शिकायत करने लायक भी नहीं छोड़ा ।

आपको भी निमंत्रण न मिलने से कोई शिकायत नहीं हुई होगी । हमें भी जब प्रियंका की शादी में नहीं बुलाया गया तो कोई शिकायत नहीं हुई । जमाना बदल गया है । अरुण नायर ने लिज़ हर्ले के साथ अपनी शादी में आपने बाप को भी नहीं बुलाया । उनकी पहले वाली शादियों के बारे में हमें पता नहीं । अमिताभ बच्चन ने भी अभिषेक की शादी में अपने गाँव के नजदीकी रिश्तेदारों को भी नहीं बुलाया और बहाना क्या बनाया कि बच्चे नहीं चाहते कि ज्यादा भीड़ हो । क्या मासूम बहाना है ? सुना है कि क्लिंटन दंपत्ति भी नहीं चाहते थे कि दूल्हा-दुल्हन के अलावा कोई और आकर्षण का केन्द्र बने । वैसे ठीक भी है । हमने कई बार देखा है कि जब गाँव में किसी की शादी में कोई छोटा-मोटा एम.एल.ए. भी आ जाता है तो लोग वर-वधू की बजाय नेता जी के साथ फोटो खिंचाने लग जाते हैं । पर चेल्सी के मामले में यह नहीं होता क्योंकि वहाँ आने वाले सभी बड़े लोग ही होते ।

खैर, जी न बुलाया न सही आपको और बहुत से काम हैं । अपन तो सभी को आशीर्वाद दें कि दूधों नहाओ, पूतों फलो । पर हमें इसमें कुछ और ही गंध आ रही है । इसे आप राजनीति की दृष्टि से समझ कर आगे की रणनीति बनाइएगा । भले ही आप अपने को मुसलमान नहीं मानते पर लोग तो एक कूटनीति के तहत आपको मुसलमान ही प्रचारित करते हैं । वैसे हमारे यहाँ पुत्र का धर्म पिता के धर्म के अनुसार होता है और फिर आपके नाम में हुसैन भी तो लगा हुआ है और फिर आप इफ्तार की दावत भी देने लगे हैं और अब तो ग्राउंड ज़ीरो के पास एक मस्जिद का भी विरोध नहीं कर रहे हैं । और फिर दूल्हा भी यहूदी है । यहूदियों और मुसलमानों का तो सदा से साँप और नेवले का सम्बन्ध है । और आपको याद होगा कि आपके सामने हिलेरी जी ने पार्टी केंडीडेट का चुनाव भी लड़ा था जिसमें आपके कीनियाई ड्रेस वाले फोटो को भी चुनावी लाभ के लिए काम में लिया था । और फिर भले ही लाख रंगभेद का पक्ष न लेने की बात करें, मगर गोरे लोगों में आज भी काले लोगों को लेकर एक ‘कोम्प्लेक्स’ है । हमने तो वैसे ही बता दिया । जानते तो आप भी सब कुछ हैं । हमारे देश ने भी अंग्रेजों के राज में इस भेदभाव को बहुत झेला है । और आज भी कौन सा यह भेद-भाव खत्म हो गया ?

आप भी भारतीय राजनीति की तरह सर्व-धर्म-समभाव के रास्ते पर चल रहे हैं पर यह रास्ता बहुत कठिन है । जोड़ने का हर रास्ता कठिन होता है । तोड़ने का क्या है । तोड़ने के तो हजार बहाने हैं ।

१०-८-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

Sep 6, 2010

शरद पवारजी, रे गंधी मति-अंध तू

पवार साहब,
आपने २८ अगस्त को कहा कि 'लोग ११ रुपए खर्च करके एक बोतल कोल्ड ड्रिंक तो खरीद सकते है लेकिन सोचते हैं कि सब्जियाँ महँगी हैं' । और भाई लोग ले उड़े बात को । इस देश की समस्या यही है कि कुछ लोग केवल मुद्दों की तलाश में इतनी जल्दी में रहते हैं कि सोचने समझने के लिए रुकते ही नहीं । अब आपने इसमें क्या गलत कह दिया ? यह सच है कि लोग फालतू चीजों में खर्च करते समय तो कुछ सोचते नहीं और काम की चीजों के लिए झिकझिक करते हैं । वाकई आपने बड़ी काम की बात कही थी मगर 'माननीय सांसदों' को समझ में आए तब ना । अगर लोग फालतू चीजों जैसे कि कोल्ड ड्रिंक, बीड़ी, सिगरेट, दारू आदि में पैसा खर्च करना बंद कर दें तो उनके लिए महँगाई में भी ज़रूरी चीजें खरीदने के लिए इतनी तंगी नहीं रहेगी । हमें तो आपके इस वक्तव्य में गाँधी जी के स्वदेशी और बाबा रामदेव का सुधारवाद दिखाई देता है । हम तो आपको इसके लिए बधाई देना चाहते हैं पर अब आप हैं कहाँ ? हमें तो यह भी पता नहीं है । इस समय क्रिकेट में बड़ा घपला मचा हुआ है । पता नहीं कहाँ भटक रहे होंगे इस 'जेंटिलमैंस गेम' को बचाने के लिए । वैसे क्रिकेट में सबसे ज्यादा विज्ञापन इन ठंडे पेयों का ही होता है कि आदमी न चाहते हुए भी चक्कर में आ ही जाता है । और जब महानायक अमिताभ बच्चन, आमिर खान, करीना कपूर, विपाशा बसु प्यार से इन्हें पीने का इसरार करें तो फिर जेब का किसे होश रहता है ? और आदमी सब्जी क्या, दवा खरीदना तक भूल जाता है ।

अब तो आप क्रिकेट की दुनिया के चक्रवर्ती सम्राट हैं, जो चाहे कर सकते हैं । हो सके तो क्रिकेट में इन कोल्ड ड्रिंक्स के विज्ञापन बंद करवा दें । जिससे लोग इनके चक्कर में ही नहीं पड़ेंगे और अपने पसीने की कमाई से सब्जी खरीद लेंगे । मगर फिर क्रिकेट की कमाई का क्या होगा ? कमाई नहीं होगी तो कौन इसके पदों के लिए चुनाव लड़ेगा और कौन अपना मंत्रालय का काम छोड़कर पिचों पर भागता फिरेगा ?

वैसे आदमी कोल्ड ड्रिंक ही क्या दारू पर भी बहुत खर्च करता है । और आपको बताएँ, हमारे उधर तो दस रुपए में एक लोकल देशी मतलब कि घर-कढ की सौ मिलीलीटर की एक थैली आ जाती है । उसे खरीदना कोल्ड ड्रिंक से ठीक रहेगा और एक रुपया भी बच जाएगा जिससे महँगाई का मारा आदमी सब्जी खरीदने में इतना दुखी नहीं होगा । रोज की एक रुपए की बचत बहुत होती है । और सरूर भी ऐसा आएगा कि आदमी सब्जी, दाल, गेंहूँ सब भूलकर चीयर लीडर्स को देखने स्टेडियम में घुस जाता है । फिर आपके गौण विभाग कृषि मंत्रालय की कोई कमी उसे दिखाई नहीं देगी । हम तो कहते हैं कि जो अनाज आपके क्रिकेट में व्यस्त होने के दौरान सड़ गया है उसे महाराष्ट्र की उन नई बीयर फेक्ट्रियों में सस्ते भाव पर भिजवा दीजिए, जिनके लाइसेंस कांग्रेस, बी.जे.पी. सभी के नेताओं को दिए गए हैं, जिससे वे महँगाई के मारे, फिर भी कोल्ड ड्रिंक पीने वाले लोगों को सब्सीडाइज़्ड रेट पर दे सकें ।

वैसे कभी-कभी आदमी को मौज-शौक की भी इच्छा होती है । साधारण आदमी एक ११ रुपए के कोल्ड ड्रिंक से ज्यादा शौक कर भी क्या सकता है ? अब व्हिस्की तो बेचारा पी नहीं सकता । ब्लेक डॉग व्हिस्की के सुनते हैं कि पाँच हजार रुपए लगते हैं । वह कोई सांसद तो है नहीं, जिसे कोई विजय माल्या दिवाली के उपहार स्वरूप ब्लेक डॉग व्हिस्की की एक बोतल भिजवा देगा । वैसे कोई कुछ भी कहे पर यह विजय माल्या है मजेदार आदमी । क्या उपहार भिजवाया है पट्ठे ने । और उससे भी मजेदार हैं अपने सांसद जिनमें से एक प्रभात झा के अलावा किसी ने भी चर्चा तक नहीं की बोतल की । चुपचाप फ्रिज में रख दी । प्रभात झा की लौटाई बोतल पता नहीं, माल्या के पास पहुँची या नहीं हो सकता है किसी सांसद ने रास्ते में ही झटक ली हो ।

हम तो आपको एक सलाह देंगे कि आप तो जितना भी अनाज इस देश में है उसकी बीयर और दारू बनवा दीजिए और सब के लिए सस्ती और सुलभ करवा दीजिए । फिर देखिए कि कैसे आपकी जय-जयकार होती है और लोग आपकी पार्टी को कैसे भारी बहुमत से संसद में पहुँचाते हैं । लोगों का महँगाई का गम गलत हो जाएगा और आपकी प्रधान मंत्री बनने की चिर प्रतीक्षित अभिलाषा पूरी हो जाएगी । वरना क्या पता अतृप्त आत्मा संसद के चारों ओर ही मँडराती रहे ।

यह लो, बातों-बातों में आपके वक्तव्य की महत्ता कि बात तो छूटी ही जा रही थी । एक इत्र बेचने वाला किसी उज्जड और पिछड़े गाँव में चला गया । उसने एक व्यक्ति को रुई के फाहे पर इत्र लगाकर दिया । उस व्यक्ति ने उसे चूस कर कहा- चीज तो मीठी है । इत्र बेचने वाले ने अपना सर पीट लिया । उस इत्र बेचने वाले के लिए बिहारी कवि ने कहा है-
रे गंधी मति अंध तू अतर दिखावट काहि ।
करी फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि ।।

सो भाई जान, नासमझ सांसदों के बीच आपके इस श्रेष्ठ सिद्धांत वाक्य की मिट्टी हो गई । इसलिए कभी कोई ज्ञान की बात करनी हो तो हम जैसे विद्वानों को याद कर लिया कीजिए ।

वैसे आपकी भी कोई बीयर फेक्ट्री है या विजय माल्या जैसों की गिफ्ट से ही काम चलाते हैं ? और आपको यह भी क्या बताना कि ज्ञान की बातें पैग के बिना विस्तार नहीं पातीं । सब्जी से पेट का खड्डा भरता है, ज्ञान की उड़ान के लिए तो कुछ और ही चाहिए ।

खैर, अब तो क्रिकेट पर संकट है सो आप तो पूरी सिद्दत से उसे सँभालिए । खेती का क्या है, वह तो मानसून का जुआ है और भगवान के हवाले हैं जैसे कि 'अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो' ।

३-९-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

जाति, जन और गणना


आज तोताराम ने आते ही हाथ में अखबार फड़फड़ाते हुए घोषणा की- ले भई मास्टर, हो गया फैसला । हम आश्चर्यचकित हो गए । फैसला और अपने महान गणतंत्र में ! क्या कह रहा है तोताराम ?

हमने उसी पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी- क्या रामजन्म भूमि का फैसला हो गया ? क्या एंडरसन को फाँसी सजा हो गई ? क्या राष्ट्रपति ने अफ़ज़ल की याचिका पर विचार कर कोई निर्णय ले लिया ? क्या क्वात्रोची के मामले का सस्पेंस खत्म हो गया ? क्या सरकार ने भोपाल के गैस पीड़ितों के उचित मुआवजे पर कोई निर्णय ले लिया है ? क्या कश्मीर के अलगाव-वादियों ने मनमोहन जी से बातचीत का फैसला ले लिया ? क्या राहुल गाँधी ने शादी करने का फैसला कर लिया है ?

तोताराम ने हमारी जिज्ञासा तो तत्काल शांत करने की बजाय थोड़ा घुमाने की कोशिश की । कहने लगा- ये सब तो छोटी-मोटी बातें हैं । इनसे कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला । इनसे भी महत्वपूर्ण मामले पर फैसला हुआ है । अंग्रेज़ समझदार थे जिन्होंने इसका महत्व समझा । हमारी सरकार को तो अब कहीं अस्सी बरस में जाकर समझ में आया है कि अंग्रेज़ ही ठीक थे । सो अब अंग्रेज़ों की नीति का अनुसरण कर रही है । अब सरकार ने फैसला किया है कि जैसे अंग्रेजों ने १९३१ में जाति आधारित जनगणना करवाई थी उसी प्रकार अब हमारी सरकार भी जाति आधारित जनगणना करवाएगी । प्रणव दा ने कह दिया है कि फैसला हो गया है बस, औपचारिक घोषणा करनी बाकी है ।

हमने कहा- तोताराम, महात्मा गाँधी, नेहरूजी, लोहिया जी, अंबेडकर सभी तो जाति को मिटाना चाहते थे तो अब यह सरकार, मुलायम और लालू क्यों पीछे लौटने की बात कर रहे हैं?

तोताराम ने कहा- मास्टर, लिखने-पढ़ने में ये बातें अच्छी लगती हैं पर वास्तव में जाति, धर्म, प्रान्त, भाषा, रंग के भेद मनुष्य के मन में इतने ठोंक-ठोंक कर फिक्स कर दिए गए हैं कि इन्हें निकालना संभव नहीं है । पहले शादी-विवाह , खान-पान, लेन-देन और व्यवहार में जाति-धर्म जानने की जरूरत पड़ती थी । उसी तरह आज चुनाव का टिकट, नौकरी, छात्रवृत्ति, स्कूल-कालेज में एडमीशन आदि सभी छोटे-बड़े कामों में जाति-धर्म ही देखे जाते हैं । मुसलमानों को हज के लिए सब्सीडी दी जाती है, हिंदुओं को चार धाम करने के लिए नहीं, चर्चों के खर्चे का आडिट नहीं होता जबकि बड़े-बड़े मंदिरों का चढ़ावा तक सरकार में जमा होता है । सभी नेता मुसलमानों को इफ़्तार की दावत देते हैं मगर किसी हिंदू को कोई एकादशी पर फलाहार नहीं करवाता । एक ऊँची जाति के गरीब को भी किसी प्रकार की आर्थिक सहायता सरकार की तरफ़ से नहीं मिलती जबकि एक धनवान किन्तु अनुसूचित जाति, जन जाति या मुसलमान होने मात्र से सरकार की तरफ से तरह-तरह की आर्थिक सहायता मिलती है ।

इस देश में आदमी वोट देते और रिश्ता करते समय ही नहीं, बल्कि खरीददारी करते, वकील करते, इलाज कराते समय तक अपनी जाति वाले को ढूँढता है । एक बार संविधान ने जिसे नीची जाति का मान लिया वह कभी उससे मुक्त हो ही नहीं सकता बल्कि होना भी नहीं चाहता क्योंकि उस आधार पर सारे मजे जो मिलते हैं । बल्कि लोग अपने को नीची या पिछड़ी जाति में शामिल करवाने के लिए आन्दोलन करते हैं । मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनने पर भी इस देश में आदमी दलित, पिछड़ा, सवर्ण, अल्पसंखयक आदि रहता ही है । मैं तो कहता हूँ कि भारत के किसी भी जाति वाले को अमरीका का राष्ट्रपति बना दो या बिल गेट्स के सारे साम्राज्य का स्वामी बना दो तब भी वह दलित है तो दलित, और पिछड़ा है तो पिछड़ा ही रहेगा । जब इतना मजबूत है जाति का यह बंधन, तो फिर उसे मिटाने की नाकाम कोशिश करने की बजाय क्यों न उसे सब जगह पक्का कर दिया जाए । मैं तो कहता हूँ कि जनगणना में ही नहीं, जाति को तो इस देश में हर आदमी के माथे पर स्थाई रूप से गोद देना चाहिए जिससे सब को अपने वाले, अपने सच्चे हितचिन्तक और विश्वसनीय व्यक्ति को पहचानने में सरलता हो जाए । यदि दंगा हो तो अपने सही दुश्मन को पहचानने में भी इससे सुविधा रहेगी वरना कभी मारना हो किसी शिया को और मार बैठे सुन्नी को, मारना हो किसी मुसलमान को और मार बैठे किसी सिख को, पीटना हो किसी ब्राह्मण को पीट दें किसी यादव को । सभी तरह की एक्यूरेसी के लिए भी जाति का स्पष्ट अंकित होना ठीक ही रहेगा ।

हमने कहा- तोताराम, भले ही राजनीति जाति धर्म के खेल खेलती हो मगर हमने तो कभी बच्चों से उनकी जाति नहीं पूछी । और अब इतने बरस हो गए जाति के आधार पर मिलने वाले आरक्षण और अन्य सुविधाओं को भी कि लोगों ने इन्हें सहज भाव से स्वीकार कर लिया है । फिर इस मुद्दे को अब उछालने से क्या फायदा ? बिना बात भर रहे घाव को कुरेदना है ।

तोताराम ने कहा- तुम्हारी बात से सहमत हुआ जा सकता है मगर जाति का स्पष्ट उल्लेख बहुत जरूरी है । यदि जाति का उल्लेख न हो तो सोच कितना घपला हो जाएगा । प्रचार किया जाए कि आज अपने शहर में राहुल जी पधार रहे हैं । उनके स्वागत में अधिक से अधिक संख्या में पहुंचें । लोग राहुल गाँधी के भरोसे पहुँच जाएँ और वहाँ जाकर देखें कि राखी सावंत के साथ राहुल महाजन पधारे हैं । मल्लिका साराभाई के भरोसे जाएँ और वहाँ मिले चड्डी पहने हुए मल्लिका सेरावत । जय प्रकाश जायसवाल और जयप्रकाश नारायण में जातिसूचक शब्द के बिना कैसे फर्क करेंगे ? बहुत से लोग तो सानिया, सायना और सोनिया में ही कन्फ्यूज़ हो जाएँगे । जाति सूचक के बिना अप्सरा और सांसद मेनका में फर्क कैसे करेंगे ? जया जेटली और जया बच्चन में जाति सूचक शब्द से ही तो फर्क किया जा सकता है । बिना जाति के तो अरुण जेटली और अरुण गाँधी एक हो जाएँगे । जाति सूचक शब्द के बिना इंदिरा गाँधी और इंदिरा नूई को एक समझे जाने का खतरा बना रहेगा ।

हमारी तो खोपड़ी चकराने लगी । हमने कहा- तोताराम, वाकई जाति के बिना तो बात बहुत बड़े चक्कर वाली हो जाएगी । चाहे किसी भी कारण से हो मगर लालू, मुलायम, प्रणव दा और तेरी- सभी की बात ठीक है । गणना ही क्या सब कुछ जाति के अनुसार ही होना चाहिए ।

हमने पत्नी को आवाज़ लगाईं- आज खाली चाय से काम नहीं चलेगा । कोई सर दर्द की गोली भी साथ में लाना ।

२-९-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

थरूरजी, तीसरी शादी की बधाई


शशि थरूर जी,
तीसरी शादी की बधाई । जब हमने जून में खबर सुनी कि आप २६ जून को बैंगलोर में शादी कर रहे हैं तो हम शादी में शामिल होने के लिए बैंगलोर आए तो पता चला कि आप कहीं और चले गए हैं । फिर आपका सुनन्दा जी के साथ ख्वाज़ा साहिब की ज़ियारत करते हुए फोटो छपा । वैसे आजकल बेचारे ख्वाज़ा साहब बहुत परेशान हैं । मुस्लिम वोट और अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को लेकर जिस नेता को भी देखो चादर लेकर ख्वाज़ा साहब के पीछे पड़ा रहता है । फ़िल्म वाले भी फ़िल्में चलवाने के लिए ख्वाज़ा साहब को परेशान करते रहते हैं । आप भी अपने व्यक्तिगत मामले में ख्वाज़ा साहब को घसीटने पहुँच गए । क्या शादियाँ तोड़ते समय ख्वाज़ा साहब से कोई नेक सलाह ली थी ? इसके बाद अचानक ओणम के दिन शाम को फोटो और समाचार दोनों छपे कि आपने आपने पैतृक घर में मलयाली रीति से सुनंदा से शादी कर ली है । अरे भाई, हम आपकी शादी में कोई बाधा डाल रहे थे क्या ? या फिर हम कोई जबरदस्ती आपकी शादी में शामिल हो रहे थे जो आप आगे-आगे और हम पीछे-पीछे । साफ़ मना कर देते कि आप हमें अपनी शादी में नहीं बुलाना चाहते । हम कोई मनमोहन को दिए गए ओबामा के भोज में घुसपैठ वाले कोई सलाही दंपत्ति थोड़े ही हैं जो सुरक्षा घेरा तोड़कर घुस जाएँगे । आप तो घर से भागे हुए किशोरों की तरह चकमा देते से लग रहे थे । खैर चलो जी, शादी हो गई । और वह भी तीसरी । लोग तो ज़िंदगी भर तरसते रहते हैं और एक शादी का भी जुगाड़ नहीं लग पाता । मुबारक हो ।

वैसे हम आपको दीर्घ वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद दें या नहीं, समझ में नहीं आता क्योंकि आजकल की शादियाँ हमारे जमाने की तो हैं नहीं कि जिंदगी भर चलें । आजकल तो जितनी शादियाँ उतना ही बड़ा आदमी । एक बार हमने प्रिंस चार्ल्स को डायना के साथ शादी के समय दीर्घ वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद दिया था पर आगे चलकर हुआ यह कि वे डायना को छोड़कर अपनी पूर्व प्रेमिका कैमिला से शादी करना चाह रहे थे और तलाक मिलने में देर हो रही थी सो वे हम पर नाराज हो गए कि हमने उन्हें दीर्घ वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद क्यों दिया । इसलिए आजकल हम किसी को दीर्घ वैवाहिक जीवन का आशीर्वाद नहीं देते । क्या पता दो महिने के बाद वे महान प्रेमी छुट्टे छड़े होना चाहें और हमारा आशीर्वाद उनके तलाक में बाधा बन जाए । सो हम तो आपको केवल मौज करने का आशीर्वाद दे रहे हैं । वैसे आपका मनमौजी स्वभाव किसी के आशीर्वाद का मोहताज नहीं है । आप सक्षम हैं ।

शादी के बाद एक समाचार और पढ़ा कि आप जिस प्लेन से हनीमून मनाने जा रहे थे वह लेट हो गया । इसके लिए हम प्लेन वालों की भर्त्सना करते हैं और आपको यह घोर कष्ट सहन करने की शक्ति देने की भगवान से प्रार्थना करते हैं । खैर, अब तक तो हनीमून मन-मना लिया होगा । जीवन का तो बाद में पता चलता है जब वह बीत लेता है । जब पहली बार शादी होती है तो पता ही नहीं चलता कि यह क्या हो रहा है ? बाद में धीरे-धीरे पता चलता है कि शादी में ऐसा होने की बजाय ऐसा होता तो अच्छा रहता पर शादी कोई बार-बार थोड़े ही होती है । पहले तो ऐसा ही माना जाता था । आजकल यह सुविधा बढ़ती जा रही है कि जब चाहे जितनी शादियाँ करो । इस युग में कइयों को तो यह भी याद नहीं रहता कि यह उनकी कौन सी शादी है ? कौनसी कितने नंबर की भूतपूर्व पत्नी है जैसे कि सलमान रुश्दी । हो तो चुके हैं गंजे मगर इस मामले में बहुत फास्ट हैं । जितनी किताबें लिखीं उससे ज्यादा पत्नियाँ कबाड़ी ।

पहले जमाने में तो शादी के लिए माता-पिता का आदेश होता था और पुत्र को आज्ञा का पालन करना होता था । आपकी पहली शादी पिताजी की आज्ञा से हुई या आपने अपनी ही पसंद से की ? पर जैसी भी थी अच्छी थी और भगवन की दया से खूब निभी और उसीने आपको दो अच्छे बच्चे दिए । इसके बाद आपने एक गोरी महिला से शादी की जो कि लगता है कि आपसे भी फास्ट निकली और आपको फिर अनुसन्धान के लिए निकलना पड़ा । लगता है अबकी बार आपने बहुत सोच समझकर शादी की होगी और उसके टूटने की नौबत नहीं आएगी । पहले तो हम समझे थे कि आपने किसी भोली कन्या को फाँसा है मगर अब पता चल कि उनकी भी यह तीसरी शादी है । अच्छा है कि आप दोनों समान रूप से अनुभवी हैं और दोनों ने ही बहुत सोच-विचार के बाद निर्णय लिया होगा ।

अब हनीमून को एक हफ्ता हो गया सो हो सकता है कि आप इस किस्से को पढ़ने के लिए समय निकाल सकें क्योंकि इसमें भी एक अध्यापक के सोच-विचार कर निर्णय लेने की घटना वर्णित है । एक मास्टर जी थे । स्कूल जाने से पहले रोज सवेरे आपने घर के चबूतरे पर बैठकर दातुन किया करते थे । उसी समय एक भैंस उनके घर के सामने से जाया करती थी । भैंस के सींग बड़े सुन्दर और गोल-गोल थे । मास्टर जी उन सींगों के अंदर की गोलाई को देखकर सोचा करते थे कि यह उनके सर जितनी ही होगी ? कोई छः महीने विचार करने के बाद एक दिन उन्होंने नापने के लिए अपना सर उस भैंस के सींगों में डाल दिया । भैंस इसके लिए तैयार नहीं थी सो चमक कर भागने लगी । और मास्टर जी उन सींगों में उलझे-उलझे साथ-साथ । बड़ी मुश्किल से लोगों ने मास्टर जी को निकला । जब थोड़ा साँस आया तो किसी ने कहा- मास्टर जी, ऐसा करने से पहले कुछ सोच तो लेते । मास्टर जी ने कहा- तुम लोग क्या मुझे इतना मूर्ख समझते हो ? मैंने पूरे छः महीने सोचा है फिर यह फैसला लिया है ।
सो आपने भी अबकी बार शादी का फैसला बहुत सोच समझकर लिया होगा ।

वैसे हम आजकल के युवाओं की इस बात के लिए प्रशंसा करते हैं कि वे बहुत प्रेक्टिकल हैं । वरना हम जैसे पहले वाले लोगों के जमाने में कोई ऐसा साहस करता तो कोई न कोई, कुछ न कुछ अभिनन्दन कर ही देता । और कोई नहीं तो पत्नी ही फेरों के समय पहुँच कर दुल्हन पर जूते लेकर पिल पड़ती । पर आपके मामले में तो सारे ही समझदार हैं । और समय भी तो बहुत सच्चे प्यार वाला आ गया है ना । सभी भूतपूर्व, वर्तमान और भावी परिवारों ने हँसी-खुशी से यह प्रेरणादायी शुभ अवसर मनाया ।

अच्छा हुआ कि इस शादी से पहले आप मंत्री पद से मुक्त हो गए वरना कांग्रेस में अब भी कई प्रणव मुकर्जी जैसे मितव्ययी लोग घुसे हुए हैं जो न तो खुद एक्जीक्यूटिव क्लास में चलते हैं और न ही उनको सुहाता है कि कोई आप जैसा खाता पीता आदमी अच्छे होटल में ठहरे या एक्जीक्यूटिव क्लास में चले । तभी आप जब एक लाख रुपए रोज के होटल में रहते थे तो लोगों के पेट में दर्द होने लगा था । अब आप मजे से जैसे मन चाहे होटल में ठहरिए और जैसी चाहे क्लास में यात्रा कीजिए । हम तो कहते हैं कि दो-चार प्लेन ही खरीद लीजिए । न कोई पूछने वाला और न कोई देखने वाला । यदि अपना प्लेन होता तो हनीमून के लिए लेट नहीं होते ।

और सब ठीक है । इससे अधिक सलाह हम आपको नहीं दे सकते क्योंकि हम बहुत पिछड़े और अयोग्य व्यक्ति हैं । यदि पिताजी शादी नहीं करवाते तो हम तो इस अड़सठ साल की उम्र में भी कुँवारे ही घूम रहे होते । जब आपने प्ले स्कूल में जाना शुरू किया था तभी हमारी शादी हो गई थी सो हम तो आपको पक्की शादी के बारे में तो बता सकते हैं । आजकल की जोड़-तोड़ और तोड़-जोड़ वाली टेक्नोलोजी हमारे बस की नहीं है । हमें तो छः सौ रुपए वाले मोबाइल में एस.एम.एस. करना, नंबर सेव करना तक नहीं आता तो फिर आजकल की ब्लेक बेरी कैसे समझ में आएगी ।

अगर 'दूधों नहाओ, पूतों फलो' का आशीर्वाद देना है तो लिखिएगा वरना बिना आपकी मर्जी के यह आशीर्वाद दे दें और कल को आपको मुश्किल हो जाए तो ठीक नहीं है ना ।

२७-८-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

सोनियाजी, बधाई दें या नहीं



सोनिया जी,
आप चौथी बार कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं । बरसात के बावज़ूद बहुत से लोग पार्टी दफ्तर पहुँचे, कुछ बधाई देने आप तक भी पहुँच गए । सुना है, बहुत से लोगों ने भोपाल में नाच-नाच कर अपनी कमर तुड़वा ली । अब खुशी तो खुशी है । खुशी और गम में आदमी को पता नहीं चलता । यह भी एक प्रकार का नशा है । बाद में कई दिन तक मालिश करवाता रहता है । हम शादी, चुनावों और होली के बाद लोगों के बैठे गले और रंग पुते चेहरों को देखते रहते हैं । भोपाल में खुशी से नाचते हुए लोगों की फोटो आज के अखबार में छपी है । अच्छा लगा । वैसे हमें पता है कि आपको ये नाटक अच्छे नहीं लगते । नाटकों में विश्वास न करने के कारण ही आपने प्रियंका बेबी की शादी में भी नरसिंह राव और नारायण दत्त तिवारी को भी नहीं बुलाया था । मगर लोग हैं कि तब भी १० जनपथ के बाहर मिठाई बाँट रहे थे । शुभकामनाएँ तो दिल का मामला है । प्रकट न करने पर भी सही स्थान पर पहुँच जाती हैं । जिनको अपनी शुभकामनाओं के शुभ होने में शंका होती है उन्हें, भले ही फूहड़ तरीके से ही सही, प्रकट करने की जरूरत पड़ती है । वरना जितना पैसा अखबारों में बधाई सन्देश छपवाने में खर्च करते हैं, उसे पार्टी को गुप्त दान दे दें । पर ऐसे लोग गुप्त दान में विश्वास नहीं करते । ये तो दान देते ही इसलिए हैं कि दस गुना वसूल किया जा सके ।

यह तो संसार है । संसरति इति संसारः – जो निरंतर चलता रहता है उसे ही संसार कहा गया है । पार्टी, पद, धन, उम्र, जीवन सब आगे चलते रहते हैं और उनकी जगह नए आते रहते हैं । कांग्रेस के अब तक देशी-विदेशी जाने कितने अध्यक्ष हो चुके हैं । आप से पहले भी बहुत से अध्यक्ष हुए हैं । हम तो कहते हैं कि अध्यक्ष कोई भी हो मगर उसमें अध्यक्ष जैसे गुण तो हों । अध्यक्ष का काम है चुपचाप तीक्ष्ण और सूक्ष्म दृष्टि रखना और सही समय पर सही राय देना । कुछ लोग ऐसे अध्यक्ष होते हैं कि उनमें अध्यक्ष वाली गरिमा और गंभीरता ही नहीं होती । हमारे एक मित्र हैं जिन्हें कई बार लोग कविगोष्ठी का अध्यक्ष बना देते हैं यह सोच कर कि ये चुपचाप बैठे रहेंगे मगर वे हैं कि बीच-बीच में कूद पड़ते हैं और अपनी कविता पेलने लग जाते हैं, नुक्ताचीनी करने लग जाते हैं । अब ऐसे अध्यक्ष सारा मजा खराब कर देते हैं और फिर खुसर-फुसर और गड़बड़ी होनी शुरू होने लग जाती हैं । अध्यक्ष में गंभीरता होनी चाहिए । अगर शादी में दूल्हा ही घोड़ी पर से उतर कर नाचने लग जाए तो शोभा बढ़ने से ज्यादा तमाशा खड़ा हो जाता है । आप में अध्यक्ष के सारे गुण हैं । इसलिए हमें तो फिलहाल आपसे बेहतर अध्यक्ष दिखाई नहीं देता । अब चाहे जिस को इसलिए अध्यक्ष बना दिया जाए कि किसी और को लगातार बारह साल हो गए हैं । बदलने का कोई आधार तो होना चाहिए । 'चेंज फार द सेक आफ चेंज ओनली' तो कोई बात नहीं हुई ।

पता नहीं, आपके ही अध्यक्ष बनने पर कुछ लोगों के पेट में क्यों दर्द होने लगा है । भई, जिसकी पार्टी है वे जानें, उनके कार्यकर्ता जानें । अपनी खुद की पार्टी के बारे में तो कुछ नहीं सोचते । जिनकी पार्टी में बौद्धिक के दौरान चलने वाले जूतों की आवाज़ बाहर गली तक में सुनाई दे रही है और मंथन का कीचड़ सड़कों पर फैल रहा है वे परिवारवाद और वंशवाद का आरोप लगा रहे हैं । अरे भई, पार्टी एक परिवार की तरह रहे तो अच्छा ही है । हम तो सारी वसुधा को परिवार मानते हैं तो फिर एक परिवार से क्या दुश्मनी है ? खुद का अध्यक्ष भी तो 'परिवार' ही तय करके भेजता है भले ही वह दिल्ली से डेढ़ हजार किलो मीटर दक्षिण में बैठा हो । इतनी दूर से भी उसी 'परिवार' का एजेंडा चलता है ।

अब जरा एक और पार्टी पर निगाह डालें तो उसका यह हाल है कि पार्टी भारत में और उनके 'दिवंगत देवपुरुष' मास्को और बीजिंग में कब्र में लेटे हैं । छोटी-मोटी पार्टियों के बारे में तो कहना ही क्या ? उनका तो हाल वैसा ही है जैसा कि किसी के बारे में कहा जाता है कि 'वे चलती-फिरती संस्था' हैं । एक ही आदमी की जेब में कार्यालय, लेटर हैड, सील, संविधान सब कुछ होता है । जब चाहे संविधान में संशोधन किया जा सकता है । किसी को पता ही नहीं चलता । लालूजी जेल जाने लगे तो बीवी को मुख्यमंत्री बना गए जैसे कि स्टेशन पर कोई पानी पीने जाए तो अपना थैला किसी को सँभला जाए । कौन पूछे ? घर का मामला है । इसी तरह मुलायम सिंह, मायावती, करुणानिधि, जय ललिता, शरद पवार, शिबू शोरेन, फारुक अब्दुल्ला, मुफ्ती मोहम्मद सईद, बंगारप्पा, देवेगौड़ा, नवीन पटनायक, ओम प्रकाश चौटाला, अजित सिंह, प्रकाश सिंह बादल, बाल ठाकरे, भजन लाल, उमा भारती, रामविलास पासवान, सुब्रमण्यम स्वामी हैं और इनसे भी पहले चन्द्रशेखर जी और केरल के उन्नी कृष्णन हुआ करते थे । अब इन पार्टियों का क्या राष्ट्रीय चरित्र माना जाए ।

यदि परिवारवाद की बात की जाए तो नेहरूजी के बाद इंदिराजी प्रधान मंत्री नहीं बनी थीं, लाल बहादुर शास्त्री जी बने थे । जब इंदिराजी प्रधान मंत्री बनी थी तब के. कामराज कांग्रेस-अध्यक्ष थे । मान लीजिए किसी पार्टी का अध्यक्ष लम्पट, लुच्चा और मवाली टाइप हो, तो जनता में क्या सन्देश जाएगा । मान लीजिए राजीवजी के दुःखद निधन के समय राहुल की उम्र पार्टी अध्यक्ष बनने की होती और उन्हें बना भी दिया जाता और वे अस्थि-विसर्जन की पूर्व संध्या पर व्हिस्की में हेरोइन मिलाकर पीने से बेहोश होकर अस्पताल में भर्ती हो जाते तो देश में पार्टी के बारे में क्या सन्देश जाता ?

जनता भले ही खुद कैसी भी हो मगर अपने नेता को चरित्रवान देखना चाहती है । अमरीका में यौन जीवन के बारे में जो अवधारणा है वह हम से बहुत भिन्न है और हम उसे अपने मान दंडों के अनुसार लम्पटता तक मान सकते हैं । उस अमरीका की आम जनता ने भी क्लिंटन के कर्मों को गर्हित ही माना । और यदि क्लिंटन को महा अभियोग के तहत गद्दी से हटा भी दिया जाता तो वहाँ की जनता को खुशी ही होती । राम को हम उनकी मर्यादा के लिए प्यार करते हैं । और राम ने भी खुद कष्ट उठा लिए मगर लोक-मर्यादा का सम्मान किया । आपने और आपके बच्चों ने राजीवजी की शालीनता की मर्यादा को पूरी तरह से निभाया है । इसलिए ही यहाँ की जनता के दिल में आप सब के लिए एक खास स्थान है । इससे क्या फर्क पड़ता है कि आप कितनी बार अध्यक्ष बनती हैं ।

बधाइयाँ तो आपको बहुत मिली होंगीं । अभी तक तो उनकी गिनती में भी कई दिन लगेंगे । हम तो आपसे यही कहना चाहते हैं कि यह देश बहुत विशाल है और बहुरंगी है । इसे समझना बहुत कठिन है । फिर भी सभी देशों की जनता एक जैसी ही होती है । वह उसी राजा से प्यार करती है जो सही अर्थों में न्यायप्रिय हो और सब को समान समझता हो । इस न्याय के मार्ग में बाधा तब आती है जब हम वोट बैंक के चक्कर में सभी को समान भाव से देखना भूल जाते हैं । बहुत से छोटी सोच के लोग सत्ता में बने रहने के लिए राजा को ऐसे ही तुष्टीकरण के नुस्खे सुझाने लग जाते हैं । ये नुस्खे न तो न्यायपूर्ण होते हैं और न ही किसी बीमारी का सही इलाज । ऐसे इलाजों से एक लक्षण दबता है तो दूसरा प्रकट होता है । देश की समस्याओं का सही और स्थायी इलाज ढूँढ़िए । दुःख-दर्द जाति और धर्म के नहीं होते, जीव के होते हैं ।

४-९-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

Sep 2, 2010

तोताराम और इंदिरा नूई की मनाही


३१ अगस्त २०१०, महिने का आखिरी दिन ।

वैसे तो जो बाजार भाव होगा वह देना पड़ेगा और तनख्वाह भी जितनी है वही रहने वाली है । हम कोई सांसद तो हैं नहीं कि एक ही झटके में तनख्वाह तिगुनी करवा लें । यहाँ तो तनख्वाह तिगुनी होने में दस-पन्द्रह साल लग जाते थे और तब तक चीजों के भाव चार गुने हो जाते थे । जितना दूध नौकरी के शुरू में रोजाना लिया करते थे उतना ही रिटायरमेंट वाले दिन लेते थे । अब चूँकि पेंशन मिलती है और सीनियर सिटीजन भी हो गए हैं सो कोलोस्ट्राल के बहाने दूध आधा कर दिया है । वैसे हिसाब लगाने से कोई फायदा नहीं, फिर भी आदत के मुताबिक बैठ ही गए महीने के आखिरी दिन, हिसाब लगाने । जैसे कि मास्टरी के दिनों में महीने भर की फीस और हाजरी का हिसाब लगाया करते थे । तभी तोताराम आ गया ।

आते ही उसने कहा- मास्टर, अब मुझे लगता है कि हमें घर छोड़ना पड़ेगा । हम आश्चर्यचकित । बोले- क्यों भाई, क्या नन्दीग्राम की तरह यहाँ टाटा कोई नैनो का कारखाना लगा रहा है या कहीं हमारा घर-गाँव हरसूद या टिहरी की तरह नर्मदा या गंगा पर बनने वाले बाँध की डूब में तो नहीं आ गया ?

तोताराम खीज गया, कहने लगा- जब बोलेगा, कुछ न कुछ अशुभ । अरे, ऐसी बात नहीं है । बात यह है कि रतन टाटा अब सन्यास लेने के मूड में हैं । इसलिए वे अपने उत्तराधिकारी की तलाश में हैं । पेप्सीको की सी.ई.ओ. इंदिरा नूई ने तो यह जिम्मेदारी सँभालने में रुचि नहीं दिखाई है । अब लगता है हमें ही यह जिम्मेदारी सँभालनी पड़ेगी और उस हालत में मुम्बई या कहीं और जाना ही पड़ेगा । हमें हँसी आ गई । फिर भी तोताराम की सपने देखने की क्षमता से इंकार नहीं कर सके । हमने कहा- पर नूई जी ने मना क्यों कर दिया ? बहुत बड़ा पद है । स्वीकार कर लेना चाहिए ।

तोताराम कहने लगा- क्या ख़ाक बड़ा पद है । कहाँ तो दुनिया को पानी पिलाकर पैसा बनाना और कहाँ लौह-लक्कड़ में सर देना । टाटा का काम बड़ा मेहनत वाला है । पेप्सी में क्या है, पानी में कुछ रसायन और कीटनाशक मिलाए, बोतल बंद की और भेज दिया दुनिया के बाजारों में । आज नहीं तो छः महीने बाद बिकेगा । यह कोई दूध या सब्जी का धंधा थोड़े ही है कि शाम तक नहीं बिका तो बेकार । देखा नहीं, सब्जी वाले बेचारे शाम को धूल के भाव बेच कर जाते हैं । पेप्सी में कौन से कीड़े लगते हैं, रसायन जो मिले हैं । लोहे में तो फिर भी जंग लगने का डर रहता है और नैनो का तो हाल यह है कि खड़े-खड़े ही गाड़ी में आग लग जाती है । और फायदा भी बहुत कम होता है । ठंडे पेयों में तो लागत एक रुपया और कीमत रखो ग्यारह रुपया । एक हजार प्रतिशत प्रोफिट । और फिर कहीं आना-जाना नहीं । बड़े से बड़े अभिनेता और अभिनेत्रियाँ आएँगे और नाच-नाच कर सब बेच देंगे । और जो चाहो वह तो इन ठंडे पेयों से ही तो हो सकता है ना - 'जो चाहो हो जाए एंज्वाय कोकाकोला' -नए युग का कल्पवृक्ष हैं ये ठंडे पेय । और फिर इंदिरा नूई जी पेप्सीको के द्वारा इस देश की अधिक सेवा कर सकती हैं । इस देश में क्रिकेट, कामनवेल्थ खेल, राजनीति, अर्थव्यवस्था, पड़ोस से तरह-तरह के जोर के झटके लगते रहते हैं जिन्हें झेलने की शक्ति हमें पेप्सी से ही तो मिलती है- ‘जोर का झटका धीरे से’ लगता है ।

हमने कहा- तोताराम, तू मुक्त और उपभोक्तावादी अर्थशास्त्र को हमसे ज्यादा समझता है । हमें तो अब कहीं नहीं जाना । यदि तुझे टाटा जी मदद करनी है तो तू चला जा ।

तोताराम को बुलावे का इंतज़ार है ।

३१-८-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach

Sep 1, 2010

तोताराम और सज्जनता पर संकट


आज अखबार और दूध के आने से पहले ही मुँह-अँधेरे दरवाजे पर दस्तक हुई । कुछ अजीब सा लगा । कौन हो सकता है ? जैसे ही दरवाजा खोला तो काले कपड़े में एक लिपटी एक आकृति खड़ी थी । लगा, कहीं आतंकवादी तो नहीं है । वैसे फिल्मों में तो कभी हीरो को बुरका पहन कर हीरोइन से मिलने जाते देखा था, कभी हीरो का साथी बुरके में विलन के अड्डे में घुस कर हीरो या हीरोइन की मदद करता था । पर आजकल ऐसी फ़िल्में नहीं बनतीं । आजकल तो कभी पाकिस्तान, तो कभी स्पेन में बुरके में छुप कर आतंकवादियों ने हमले किए हैं तब से योरप वालों को ही नहीं हमें भी बुर्के से डर लगने लगा है । फिर भी हमने हिम्मत करके पूछ- मोहतरमा, आप कौन हैं और कैसे तशरीफ लाई हैं ? काले कपड़े में से आवाज़ आई- मैं कोई मोहतरमा नहीं, मैं तो मोहतरम तोताराम हूँ ।

हमें बड़ा अजीब लगा । चाहते तो थे कि अभी इसका यह बुरकानुमा काला कपड़ा उतार कर फेंक दें । पर जैसे ही वह अंदर आकर बैठा तो हमने उसका कपड़ा खींचना चाहा मगर उसने उसे कसकर पकड़ लिया और किसी षोडशी की तरह लजाता हुआ फर्र से पीठ फेरकर बैठ गया और बोला- यह क्या कर रहे हो ? मुझे बड़ी शर्म आ रही है ।

सस्पेंस ही हद । तोताराम और शर्म, और वह भी हमसे ! हमने कहा- खैर, मुँह न दिखा पर चक्कर क्या है यह तो बता । बड़ी मुश्किल से खुला- कहने लगा, पाकिस्तान के प्रधान मंत्री की तो मजबूरी है कि वे केवल शर्म से सर ही झुका कर रह गए क्योंकि मेरी तरह मुँह छुपाने से इस वक्त उनका काम नहीं चल सकता,बाढ़ राहत के काम में लगना जो पड़ रहा है पर मैं तुम्हें क्या मुँह दिखाऊँ । वैसे मैं ही क्या, हर क्रिकेट प्रेमी का मुँह काला हो गया है । पाकिस्तान के खिलाड़ियों ने मैच फिक्सिंग करके किसी भी क्रिकेट प्रेमी को मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा ।
हमने कहा- चार दिन पहले जब भारत श्रीलंका से बुरी तरह हार गया था तब तो तुझे, पवार साहब और धोनी को शर्म नहीं आई । यदि भारतीय क्रिकेट का सच्चा प्रेमी था तो उसी दिन डूब मरता । बोला- खेल में हार जीत तो लगी ही रहती और अंतिम गेंद तक कुछ भी नहीं कहा जा सकता । इसी में तो क्रिकेट का रोमांच है और आज हारे हैं तो क्या कल जीत भी जायेंगे । हमने उसे फिर कोंचा- और जब ललित मोदी ने जयपुर में तिरंगे झंडे पर शराब का गिलास रखकर पी थी तब भी तुझे शर्म नहीं आई थी और जब अधनंगी लड़कियाँ हर बाल पर उछल रही थीं तब भी तुझे शर्म नहीं आई तो अब ही ऐसा क्या हो गया ? और जहाँ तक खेलों में भ्रष्टाचार की बात है तो अपने यहाँ जब अढ़ाई हजार का सामान चार लाख में किसी खास कंपनी से खरीदने के लिए एम.सी.डी. के अधिकारियों को ऊपर से आदेश आ रहे हैं तब भी तुझे फर्क नहीं पड़ रहा । अभी कौनसा आसमान टूट पड़ा ?

कहने लगा- ये सब तो निर्माण कार्य हैं । निर्माण कार्य तो होते ही हैं खाने के लिए फिर चाहे सड़क हो या पुल या इमारतें । पर जहाँ तक सज्जनता की बात है तो वह केवल क्रिकेट में ही बची थी और अब वह भी खतरे में पड़ गई तो इस दुनिया का क्या होगा ? बता और किस खेल को 'जेंटिलमेंस गेम' कहा जाता है । मैं तो सज्जनता पर आए इस संकट से दुःखी हूँ ।

हमने कहा- तोताराम, सज्जनता न तो किसी खेल में है और न ही किसी धंधे में । और फिर क्रिकेट भी अब खेल नहीं, धंधा है । और अग्रेजी में भी कहा है- 'एवरी थिंग इज फेयर इन धंधा' । सज्जनता तो एक मानवीय गुण है । जैसा आदमी होगा वैसा ही काम करेगा । चोर मंदिर में भी जाएगा तो कुछ चुराने के लिए । आदमी खेलों से नहीं अपने संस्कारों से सुधरता है । आदमी को सुधारेंगे तो सब कुछ सुधर जाएगा ।

और यह कहते हुए हमने तोताराम का बुरका खींच लिया और कहा- शर्म छोड़ और बेशर्मी से चाय पी ।

३१-८-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.Jhootha Sach