Apr 15, 2012

राजा भैया का वर्क एक्सपीरिएंस

राजा भैया उर्फ़ रघुराज प्रताप सिंह,

उम्र में आप से दुगुने बड़े होने के कारण आशीर्वाद दे रहे हैं । वैसे हमारे आशीर्वाद के बिना भी आप खुश ही हैं । जब मायावती ने आपको जेल में डाला था तो आपके बारे में कई समाचार पढ़ने में आते थे कि आपने एक शेर भी पाल रखा है और जिस को भी मृत्यु दंड देना होता है तो उसे शेर के पिंजरे में डाल देते हैं । शेर ही शेरों को पाल सकता है । हम तो एक बार चिड़ियाघर में गए थे । जैसे ही शेर के पिंजरे के पास गए तो पता नहीं वह क्यों दहाड़ा ? हम तो उसकी दहाड़ सुन कर ही बेहोश हो गए । अब जब भी कभी जाते है तो चिडियाँ ही देख कर आ जाते हैं ।

बी.एड. में हमें पढ़ाया जाता था कि जो बच्चा कक्षा में सबसे ज्यादा शरारत करता है उसे मोनीटर बना देना चाहिए । वह इस जिम्मेदारी के कारण शरारत करना भूल जाएगा । पता नहीं, मुलायम जी ने आपको इसीलिए तो जेल मंत्री नहीं बनाया ? वैसे राजा की विशेषता इसी से पता चलता है कि वह कैसे मंत्री चुनता है । अकबर पढ़ा लिखा नहीं था लेकिन उसने जो नवरत्न चुने वही उसकी बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा प्रमाण है । भले ही आप मुलायम जी की पार्टी में नहीं हैं लेकिन उन्होंने आपकी योग्यता को पहचान कर आपको पहले भी मंत्री बनाया था । योग्य व्यक्ति कहीं भी मिले उसकी योग्यता का लोकसेवा में उपयोग होना ही चाहिए । कवि ने भी कहा है-

उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पे होय ।
पर्यो अपावन ठौर में, कंचन तजे न कोय । ।


रूस में रक्षा मंत्री उसे ही बनाया जाता है जो बहुत अच्छा जनरल रहा हो । अब अपने यहाँ कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री बनाया जो एक राइफल भी नहीं उठा सकते थे । जगजीवन राम जी भी रक्षा मंत्री बने लेकिन उनकी फिजीक ऐसी थी कि किसी दुश्मन के पीछे भाग कर उसे पकड़ना उनके बस का नहीं था । जार्ज फर्नांडीज तो कुर्ता पायजामा पहन कर सियाचिन चले गए । यह तो लोगों ने उन्हें कपड़े दे दिए, नहीं तो ऐसा निमोनिया होता कि कई दिनों दुःख पाते ।

आपको जेल का अनुभव है इसलिए आपको जेल मंत्री बनाया । अब हमें विश्वास है कि देश की हालत चाहे कैसी भी रहे लेकिन जेलों की हालत ज़रूर सुधर जाएगी । देखिए, आपने आते ही ११ अप्रैल २०१२ को जेलों में कूलर लगवाने के आदेश दे दिए । सलमान खान भी जब जोधपुर की जेल में रहा तो उसने भी बाहर निकलते समय घोषणा की कि वह जेल में टायलेट बनवाने के लिए सहायता देगा । हमें विश्वास है कि आपको तो जेल में कोई असुविधा नहीं होने दी गई होगी । आपका रुतबा ही ऐसा है । हमारे दिमाग में आपकी छवि थी कि आप लंबी-लंबी मूँछों वाले कोई खूँख्वार व्यक्ति होंगे लेकिन अब मंत्री बनने के बाद आपका फोटो देखा तो मज़ा आ गया । आप तो बड़े स्मार्ट लगे । चाहें तो अब भी किसी अच्छे-खासे हीरो की छुट्टी कर दें ।

अब जेलों में न तो कैदियों को कोई कष्ट होगा और न ही उन्हें ऐसा-वैसा भोजन दिया जाएगा । आखिर उनके भी कोई अधिकार हैं । जब कसाब को जेल में बिरयानी खिलाई जा रही है तो ये तो बेचारे कोई देशद्रोही भी नहीं हैं । बस, थोड़े से साहसी हैं । साहसी होना कोई बुरी बात नहीं है । साहसी लोग ही किसी देश की सबसे बड़ी ताकत होते हैं । यदि दुनिया के बड़े-बड़े नेता जेलों में जाने का साहस नहीं दिखाते तो क्या इस दुनिया का इतना विकास होता ? साधारण लोग तो बस अपनी नौकरी करके घर आ जाते हैं और बीवी बच्चों में मगन हो जाते हैं । ऐसे साधारण लोगों के भरोसे किसी देश में कोई बदलाव नहीं आ सकता । सभी बड़े-बड़े नेता और समाज में परिवर्तन लाने वाले लोग कभी न कभी जेल अवश्य गए हुए हैं । हमारी बात छोड़ दीजिए हमें तो कोई पुलिस वाला मज़ाक में भी नमस्ते कर लेता है तो हमारी जान सूख जाती है । हमारे एक मित्र पुलिस में अधिकारी बन गए तो हमें उनसे भी डर लगने लगा । हमारे बेटे के लिए एक पुलिस अधिकारी की बेटी का रिश्ता आया तो हम उसे भी घबरा कर मना कर बैठे ।

अब जेलों में आपको कोई गोली, मतलब कि धोखा, नहीं दे सकेगा । आप सब जानते हैं कि कैदी कौन चीज, कहाँ छुपाते हैं ? जेल में कैसे मोबाइल, शराब, सिगरेट और स्मेक पहुँचते हैं । कैसे जेलों में जन्मदिन की पार्टी आयोजित की जाती है ? वे आपको स्टाफ का आदमी ही मानते होंगे । आदमी और किसी का लिहाज करे या न करे लेकिन स्टाफ वाले का ज़रूर ध्यान रखता है । ट्रक, बस वालों को देखिए, रास्ते में कोई भी बस या ट्रक खराब मिलता है तो वे उसकी खैर-खबर लेते हैं और सब तरह की मदद करते हैं ।

हो सकता है अब कोई पकड़ा भी जाएगा तो तत्काल पुलिस वाले को कहेगा- स्टाफ । और फिर सब ठीक हो जाएगा ।

हमने एक बार पोर्ट ब्लेयर में रहते हुए जेल का एक टेंडर पढ़ा था जिसमें कैदियों के लिए फल, सब्जी, मांस, मछली आदि की सप्लाई का ज़िक्र था । हमें लगा कि आदमी जेल में घर से भी बढ़िया खाना खाता है । और अब तो आप जैसे योग्य और संवेदनशील व्यक्ति आ गए हैं इस विभाग में तो और भी सुधार होगा मगर अब हममें ही जेल जाने योग्य साहसिक कर्म करने की हिम्मत नहीं रही । अब तो इस देह रूपी जेल से आत्मा रूपी कैदी की रिहाई का समय आ रहा है ।

हाँ, यदि किरण बेदी की तरह जेल में कोई कविसम्मेलन करवाने का इरादा हो तो हमें ज़रूर याद कीजिएगा ।

१४-४-२०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

माई नेम इज खान की तलाशी

प्रिय शाहरुख,
हमें कई महत्त्वपूर्ण पत्र लिखने थे लेकिन जब आज समाचार पढ़ा कि अमरीका में फिर तुम्हारी तलाशी ली गई तो पहले तुम्हें ही लिखना पड़ रहा है । तुमने तत्काल ट्वीट किया और दुनिया में नहीं तो, भारत में ज़रूर हडकंप मच गया । तुम्हारा अपमान भारत का अपमान हो गया । देवकांत बरुआ तो 'इंदिरा इज इण्डिया' का नारा देकर बदनाम हो गए पर लगता है कि तुम वास्तव में ही इण्डिया के पर्याय हो गए । वास्तविकता का तो पता नहीं लेकिन मीडिया ने तो ऐसा ही दरशाया । कुछ भी हो, नाम तो हुआ । वैसे जिस लड़की की तरफ़ कोई नहीं देखता वही अपनी तरफ़ ध्यान आकर्षित करने के लिए भरी बस में किसी से भी उलझ जाती है और चिल्लाने लगती है- 'मरे, तेरे घर में माँ बहन नहीं हैं क्या ? मारूँगी जूता खेंच कर तो होश ठिकाने आ जाएँगे' । तुम्हारा तो खैर, वैसे ही सारी दुनिया में नाम है अन्यथा किसी और नायक या महानायक को क्यों नहीं बुलाया येल विश्वविद्यालय में भाषण देने के लिए?

इस विश्वविद्यालय में प्रायः नोबल पुरस्कार प्राप्त लोगों को ही बुलाया जाता है भाषण देने के लिए । मगर तुम उनसे कौन से कम हो ? वे तुमसे जानना चाहते हैं कि एक आदमी शादी-विवाहों और जन्मदिन की पार्टियों में नाच-नाच कर इतना पैसा कैसे कमा सकता है ? और यह भी पता लगा है कि उन्होंने तुम्हारे द्वारा किए गए परोपकार के कामों को भी ध्यान में रखा है । हमें तो खैर, तुम्हारे दान-पुण्य के कामों का पता नहीं है । हमारे ध्यान में तो सरोज खान के पति को तुम्हारे थप्पड़ मारने की घटना ज्यादा पढ़ने में आई । हम तो कहते हैं कि यदि तुमने थोड़ा सा भी दान किया है तो उसका महत्त्व अधिक है क्योंकि तुम्हारे पैसे बड़ी मेहनत के हैं । नाच-नाच कर कमर तोड़कर कमाए हैं । कोई जुए सट्टे या लाटरी की कमाई नहीं है ।

हम भी तीन बार अमरीका गए हैं लेकिन हमें न तो कभी किसी ने रोका और न ही कोई खास तलाशी ली । एक बार हमने कहा भी कि शाहरुख की तरह हमारा भी एक्सरे लोगे क्या तो वे बोले तुम्हारी तो हड्डियाँ तक बिना एक्सरे के ही साफ दिखाई दे रही हैं । हाँ, पिछली बार जब हम डेट्रोइट से आ रहे थे तो सेक्योरिटी वालों ने हमारे सूटकेस को ज़रूर खोल लिया था । वैसे हमें इसका पता भी नहीं चलता लेकिन जब हमने यहाँ आकर अपना सूटकेस खोला तो उसमें एक पर्ची मिली जिस पर छपा हुआ था कि 'सिक्योरिटी सेव्स टाइम' ।

हम जब इसके कारणों का विश्लेषण करते हैं तो हमें लगता है कि उन्होंने हमारी अटेची इसलिए खोल ली होगी क्योंकि वही सारे सामानों में सबसे पुरानी और सस्ती रही होगी । कुछ लोग जब कीमती सामान ले जाते हैं तो वे उसे किसी पुराने थैले में रखते हैं जिससे किसी को शक नहीं हो । हमारी अटेची में उन्हें क्या मिला होगा कुछ किताबें और कुछ कुर्ते पायजामे । हमारे पास न तो ट्वीट करने की सुविधा और न हमें ट्वीट करना आता और यदि करते तो पढ़ता भी कौन ? हम फिर अमरीका जा रहे हैं और वही अटेची लेकर जाएँगे । हमें विश्वास है अब की बार उसे कोई भी खोल कर नहीं देखेगा क्योंकि वे हमें और हमारी अटेची को पहचान गए हैं ।

तुम्हें रोकने का एक कारण और भी हो सकता है कि वे तुम्हारे भक्त रहे हों जो इस बहाने अच्छी तरह से तुम्हारे दर्शन करना चाहते हों । तुम्हें पता है कि राजस्थान में काले हिरण के शिकार के केस में शामिल हीरो और हीरोइनों को वहाँ की अदालत वाले अक्सर बुलाते रहते हैं । यह सभी जानते हैं कि किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन उन्हें तो बहाना चाहिए महान आत्माओं के दर्शन का ।

कुछ महिने पहले उमर अब्दुल्ला पर किसी ने जूता फेंका तो उनके पिताजी फारूक अब्दुल्ला ने कहा था कि बुश पर भी जूता फेंका गया था सो अब उनका बेटा भी बुश की श्रेणी में आ गया है । सो बार-बार तलाशी होने से शायद तुम भी अब्दुल कलाम, अडवाणी, जार्ज फर्नांडीज आदि की श्रेणी में आ गए हो । वैसे हमारा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि केवल एक बात समान होने से सब कुछ समान नहीं हो जाता । महात्मा गाँधी को गोडसे ने गोली मारी और जलियाँवाला बाग के जनरल डायर को ऊधम सिंह ने, लेकिन क्या मात्र इसीसे उधम सिंह और गोडसे तथा महात्मा गाँधी और डायर समान हो गए ?


इस बारे में एक बात और बताना चाहते हैं कि कभी-कभी किसी व्यक्ति की शक्ल और हरकतों से भी लोगों को गलतफहमी हो जाती है । हम तब नए-नए मास्टर बने थे । हम पढ़ा रहे थे तो एक बच्चा लगातार हमारी तरफ देख कर मुस्कराए जा रहा था । हमें बड़ा अजीब लगा । हमने बिना कुछ पूछे उसके कान खींच दिए और शाम को उसके बाप से भी शिकायत की । उसके बाप ने बताया कि उसके दाँत कुछ बड़े हैं और बाहर निकले हुए हैं इसलिए हर समय मुस्कराता हुआ लगता है । वैसे तो तुम कोई बुरे आदमी नहीं हो फिर भी व्यक्ति को हर समय फुदक-फुदक नहीं करना चाहिए । हो सकता है तुम उस समय कुछ ज्यादा ही कंधे उचका रहे होगे । एक स्थान पर टिक कर खड़े नहीं रहे होगे, ज्यादा ही हिल-डुल रहे होगे और हो सकता है उस समय सामान्य से कुछ अधिक ही हकला भी रहे होगे । यह सब असामान्य है और इससे उन्हें कुछ शक हो गया होगा ।

तुमने एक फिल्म बनाई थी 'मई नेम इज खान' और उसमें बार-बार कह रहे थे कि ‘माई नेम इज खान एंड आई ऍम नॉट टेरेरिस्ट’ । और अंत में दिखाया गया है कि उन लोगों ने मान लिया कि तुम टेरेरिस्ट नहीं हो । हमारे साथ एक और ही तरह का वाकया हुआ । हमारी बात किसी ने नहीं मानी । दो साल पहले अमरीका ने अच्छे तालिबानों को पैकेज देने की घोषणा की । हम पैकेज के लालच में अपने मित्र तोताराम से साथ काबुल चले गए । वहाँ जाकर बताया- हम अच्छे तालिबान हैं । हमें पैकेज दीजिए । उन्होंने हमारी शकल देखकर कहा- 'तुमसे बम रखकर या हत्याकांड करके आतंक क्या फैलाया जाएगा, तुम तो खुद ही आतंकित दिखाई दे रहे हो । लगता है हिंदी के मास्टर हो । भागो यहाँ से । यहाँ कोई खैरात बँट रही है क्या ? तुम अच्छे बने क्या ? तुम तो सदा से ऐसे ही घोंचू थे । पहले खतरनाक बनो और फिर अच्छे बनना । तुम्हें पता होना चाहिए कि बदी में से नेकी निकलती है । नेक बनने के लिए पहले बद बनो । जब कोई खूब डाका डाल लेता है और उसके बाद समर्पण करता है तो पैकेज भी मिलता है और लोकसभा का टिकट भी' ।

खैर, कुछ भी हो, नाम भी हो गया और काम भी । अब आगे की देखो कि कब और कहाँ नाचना है ।

१३-४-२०१२
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फादर ऑफ द नेशन का टाइटल

उत्तर प्रदेश में एक बालिका ऐश्वर्या ने फरवरी २०१२ को सूचना के अधिकार के तहत प्रधानमंत्री कार्यालय को एक पत्र लिखा कि उसे उस सरकारी आदेश की एक फोटो प्रति उपलब्ध करवाई जाए जिसके तहत महात्मा गाँधी को ‘फादर ऑफ द नेशन’ का टाइटल प्रदान किया गया था ।

प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा वह पत्र गृह मंत्रालय को भेजा गया जहाँ से उसे राष्ट्रीय पुरालेखागार को भेज दिया गया । वहाँ से ज़वाब दिया गया कि इस संबंध में कोई विशिष्ट आलेख उपलब्ध नहीं है ।

यह एक सरकारी कर्मचारी की एक निरपेक्ष सूचना है और अखबार में छपे समाचार में अपनी किसी भी बात को सनसनीखेज बनाकर छापने की प्रवृत्ति । सहज भाव से सही जानकारी देने का स्वभाव आजकल लोगों का नहीं रहा । यह भी हो सकता है कि पुराभिलेखागर के अधिकारी और अखबार वाले पत्रकार को इसकी जानकारी हो ही नहीं ।



यह कोई उपाधि या सरकारी अलंकरण नहीं था जो कि किसी एक दिन घोषित किया गया हो और फिर किसी दिन समारोह में लिखित रूप में प्रदान किया गया हो । इसलिए किसी रिकार्ड में इसकी लिखित जानकारी कहाँ होती ? यह तो एक संबोधन है जिसका प्रयोग १९४४ में नेताजी सुभाष ने रंगून से अपने भाषण में गाँधी जी के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए किया था ।

रही बात प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय की तो उन्हें और बहुत से काम हैं जो उन्हें अपनी कुर्सी, खाल और अपने हितों को बचाने के लिए करने पड़ रहे हैं । घोटालों और आतंकवादियों की फाइलों को रखने के लिए जगह नहीं बची होगी । महात्मा गाँधी जैसे अलाभकारी और आउट-डेटेड विषय से क्या लेना-देना ?

खैर, और बहुत से टाइटल और विशेषण हैं जो बहुत से लोगों के लिए चल रहे हैं । हम चाहें तो उन्हीं पर विचार कर सकते हैं । अब बताइए कि हेमा मालिनी को ड्रीम गर्ल का टाइटल कब और किसने दिया था ? और वे अब भी साठ से ऊपर की हो जाने पर भी उस टाइटल को लिए घूम रही हैं और युवाओं में कन्फ्यूजन पैदा कर रही हैं । क्या धर्मेन्द्र के अलावा कोई 'ही-मैन' नहीं हैं ? क्या उनके अलावा सभी 'शी-मैन' हैं ? इस देश में राज और नवाबी खत्म हुए कोई साठ वर्ष हो चुके हैं मगर सैफ अली खान अभी तक ‘छोटे नवाब’ बने घूमते हैं । शाहरुख खान किस देश के राजा हैं जो उन्हें ‘किंग खान’ कहा जाता है ?

साहित्य शास्त्र में कई प्रकार के नायक बताए गए हैं । राम, कृष्ण भी अलग-अलग प्रकार के नायक ही हैं । महानायक कोई नहीं है । फिर यह 'महानायक' शब्द कहाँ से आ गया ? और वह भी पूरी सहस्राब्दी का ठेका लेते हुए । सचिन ने किस स्कूल में पढ़ाया था और किस कालेज से बी.एड. की थी जो उन्हें ‘मास्टर’ कहा जाता है । और कब, कहाँ बम ब्लास्ट किया था जो उन्हें 'मास्टर ब्लास्टर' कहा जाता है । सभी लोग उम्र पाकर बच्चे से बूढ़े होते हैं । कुँवारे से विवाहित बनते हैं और फिर बाप. ताऊ और दादा भी बनते हैं और अंत में मर भी जाते हैं मगर देवी लाल जी को ही 'ताऊ' क्यों कहा जाता है ?

चुनावों में तो सभी वोट की भीख माँगते हैं । विश्वनाथ प्रताप सिंह जी ने किस मंदिर के आगे बैठकर भीख माँगी थी जो उन्हें 'फकीर' कहा जाता है । हमारे हिसाब से 'नेताजी' के नाम से तो नेताजी सुभाष ही प्रसिद्ध हैं फिर ये मुलायम सिंह जी कब और कैसे ‘नेताजी’ बन गए ? करीना कपूर को मीडिया 'साइज़ जीरो' के नाम से प्रसिद्ध किए हुए हैं मगर हम आपको भूख से पीड़ित उससे भी आधी साइज की करोड़ों महिलाएँ देश में दिखा सकते हैं जिन्हें कोई ‘जीरो साइज़’ नहीं कहता ।

मायावती जी ने कांसीराम जी को मान्यवर कहना शुरु किया तो मीडिया में भी यह शब्द चल निकला लेकिन यदि कोई पूछे कि उन्हें यह टाइटल कब और कैसे मिला तो क्या उसका कोई रिकार्ड कहीं मिलेगा ? और फिर यह भी क्या कि उनके अलावा कोई और भी मान्यवर नहीं बन सकता है क्या ? उन्हें देश के कितने लोग मान्यवर मानते हैं ? गाँधी जी को राष्ट्रपिता कहते हैं मगर आज भी बहुत से लोग उन्हें मानने को तैयार नहीं हैं । कुछ तो उनकी हत्या को भी उचित बताते हैं । पुराने समय में भी कंस और औरंगजेब जैसे सुपुत्रों ने अपने पिताओं को जेल में डाल दिया था तो यह ज़माना तो उससे भी कहीं आगे बढ़ा हुआ है । इस ज़माने में कुछ भी हो सकता है । बच्चे बाप के पी.एफ. के पैसे हथियाने के लिए मार देते हैं । दारु के लिए पैसे नहीं देने पर माँ का सिर फोड़ देते हैं । भाई-भाई का झगडा तो कोई बड़ी बात ही नहीं है । मतलब हो तो गधे को बाप और बाप को गधा बना देते हैं ।

घोषित हुए और मीडिया में प्रसिद्ध हुए टाइटलों के अलावा भी कई टाइटल जनता में चलते हैं जो कि घोषित टाइटलों से अधिक प्रचलित होते हैं । लोग मुँह पर भले ही कुछ नहीं कहें मगर ये टाइटल चलते बहुत हैं । हमारे गाँव में के सेठ थे जो सामाजिक कार्यों के लिए एक पैसा भी खर्च नहीं करते थे तो लोग उन्हें 'भंगी' कहते थे । एक ब्राह्मण थे जिनमें ब्राह्मण का एक भी गुण नहीं था । खाते-पीते और गाते-बजाते थे । उनके लिए लोग लूंड अर्थात लम्पट जैसा कोई शब्द प्रयोग करते थे । एक बार सेठजी ने उनसे पूछा- पंडित जी, लोग आपको लूंड क्यों कहते हैं ? पंडित जी ने उत्तर दिया- सेठ, लोगों का क्या ? लोग तो आपको भी भंगी कहते हैं ।

एक और किस्सा है- एक सज्जन थे जो पढ़े लिखे ज्यादा नहीं थे । बचपन में वे अपनी गली के कुत्तों को इकठ्ठा करके दूसरी गली के कुत्तों से लड़ाई करवाने का शौक रखते थे । तब उन्हें लोग कुत्ता शास्त्री कहा करते थे । समय के साथ उनकी उम्र बढ़ती गई । अब वे किसी के चाचा और किसी के ताऊ हो गए । धीरे-धीरे लोग उनका फुल फॉर्म कुत्ता शास्त्री तो भूल गए और वे केवल 'शास्त्री जी' रह गए । अब कौन पूछे कि शास्त्री की डिग्री कब और कहाँ से ली ?

एक और सज्जन थे । पढ़े लिखे वे भी नहीं थे । चतुर और प्रत्युत्पन्नमति थे । दिल के बुरे नहीं थे लेकिन जब-तब लोगों से मज़ा लेते रहते थे । लोग उनकी इस विनोदवृत्ति का बुरा भी नहीं मानते थे । एक बार गाँव के इतिहास के अध्यापक से उन्होंने पूछा- गुरुजी, लार्ड क्लाइव, डलहौजी आदि का तो पता हैं मगर यह लोर्ड फिब्बन कौन है और कब हुआ था ? इसके बारे में कुछ पता करके बताइएगा । अब जब इस नाम का कोई लार्ड हुआ ही नहीं तो गुरु जी को कहाँ से उसका खोज मिलता ? मगर जब भी वे मिलते तो ये सज्जन उनसे लोर्ड फिब्बन के बारे में पूछ ही लेते । अंत में गुरु जी ने रास्ता ही बदल लिया । और लोगों ने उन सज्जन को ही लोर्ड फिब्बन कहना शुरु कर दिया । अब कोई इतिहास या अभिलेखागार में ढूँढे तो कैसे पता चलेगा । यह तो कोई हम जैसे पुराने आदमी से पूछे तो पता चले ।

तो साहब, मीडिया और सरकारों के दिए टाइटलों को छोड़िये । ये सब तो चलते रहेंगे । जिसके जैसे कर्म होते हैं वे भी जनता से छुपे नहीं रहते । भले ही अपने चमचों से या मीडिया से वे कुछ भी कहलवा लें या विज्ञापनों में अपने को कुछ भी छपवा कर खुश हो लें मगर जो सच है, वही सच है । और अपना सच तो हर आदमी जानता है और भगवान भी सब कुछ जानता है और वह उसी के हिसाब से फैसला भी देगा ही ।

मनमोहन सिंह जी ने पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधान मंत्री गिलानी को शांति पुरुष कहा मगर कश्मीर के लोग इनकी शांति प्रियता को बखूबी भोग रहे हैं । गिलानी ने बदले में मनमोहन जी को 'विकास पुरुष' कहा लेकिन इनके द्वारा किए गए विकास का क्या मतलब है यह भारत के करोड़ों गरीब भली-भाँति अनुभव कर रहे हैं । भले ही मीडिया इन टाइटलों को कितना ही उछालें लेकिन बात वहीं की वहीं रहने वाली है । नरसिंह राव जी बेचारे एक तो बूढ़े, ऊपर से चालीस बीमारियाँ और दाँत भी नहीं । बड़े आदमी थे सो सोच कर बोलते थे मगर लोगों ने इन बातों पर विचार किए बगैर ही उन्हें 'मौनी बाबा' कहना शुरु कर दिया । और यह टाइटल उनसे चिपक गया ।

एक बार वसुंधरा राजे को एक स्थानीय नेत्री ने दुर्गा के रूप में दिखाते हुए चित्र छपवाए । एक और मंत्री ने अपने घर बकायदा मंदिर बनवा लिया । एक महंत जी ने उन्हें दुर्गा का अवतार बताते हुए एक सौ दोहे लिख मारे लेकिन वे अब तक दुर्गा नहीं बन पाईं, वसुंधरा की वसुंधरा ही बनी हुई हैं । और अब गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी को पार्टी वालों ने कृष्ण के रूप में चित्रित करना शुरु किया है । पता नहीं किस महाभारत की संभावना बन रही है ?

एक बार उमा भरती जी ने लाल कृष्ण अडवाणी, अटल जी और वैंकय्या नायडू को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी । अब ये सब ठंडे बस्ते में लगे हुए हैं । हो सकता है इसी कारण न तो जनता का पालन-पोषण हो रहा है, न बिगड़ चुकी सृष्टि का विनाश और न ही नई सृष्टि का सृजन । एक बार एक नेता ने इंदिरा जी को इण्डिया का पर्याय बताया था लेकिन आज भी दोनों अलग हैं । इण्डिया इण्डिया ही है और इंदिरा जी इंदिरा जी । इण्डिया अंग्रेजों का दिया हुआ नाम है जब कि इस देश का असली और पुराना नाम है भारत लेकिन भारत को दुनिया में देश का दर्ज़ा नहीं मिला सो नहीं ही मिला ।

सो हो सके तो टाइटलों के चक्कर में पड़ने की बजाय कर्मों पर ध्यान दीजिए । जनता को मूर्ख मत समझिए । वह देर-सबेर सही मूल्यांकन करेगी ।

और जहाँ तक 'देश का पिता' की बात है तो बिना इस टाइटल के किसी लिखित रिकार्ड के भी उस बूढ़े ने इस देश के लिए बहुत कुछ किया । वैसे आजकल तो जिन्हें जेलों में होना चाहिए या जिन्हें जिंदा जला दिया जाना चाहिए वे देश के बाप बने हुए हैं ।

७-४-२०१२

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Apr 14, 2012

विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस

आज विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस है । पहले 'जिनका कोई नहीं होता उनका खुदा होता है' था और अब जिनका कोई नहीं होता उनका 'दिवस' होता है जैसे- मातृ दिवस, पितृ दिवस, महिला दिवस, मजदूर दिवस, हिंदी दिवस, खाद्य दिवस, मातृ भाषा दिवस, पृथ्वी दिवस आदि-आदि । और फिर उपभोक्ता तो 'उप' है भोक्ता तो शिव है । तभी कहा गया है- शिवो भोज्यः शिवो भोक्ता । शिव का अर्थ है 'कल्याण' और कल्याण का ठेका है नेताओं के पास । चाहे कल्याणकारी आश्वासन देना हो या कल्याणकारी योजनाएँ बनाना हो या फिर उनमें स्वकल्याणार्थ कमीशन खाना हो । मतलब कि कल्याण आज कल नेता का पर्याय है इस लिए यदि आज के शिव कोई हैं तो वे नेता ही हैं । अतः वे ही भोक्ता हैं और वे ही भोज्य । शेष तो उपभोक्ता हैं ।

और उपभोक्ता का दर्ज़ा वही है जो उपपत्नी का होता है । कहने को तो कहा जाता है कि वह पत्नी के प्यार पर अनधिकृत अधिकार कर लेती है लेकिन पति की तनख्वाह और पी.एफ. और उसके मरने के बाद उसकी पेंशन पर भी पत्नी का ही अधिकर होता है । उपपत्नी को तो प्रेमी के पत्रों पर ही अधिकार होता है यदि उसने अपने पिता या पति के डर से उन्हें जला नहीं दिया हो तो । और जहाँ तक पत्रों की रद्दी का सवाल है तो रद्दी अखबार वाला भी उन्हें नहीं लेता और यदि लेता भी है तो दो रुपए किलो ।

उपभोक्ता का नंबर सबसे अंत में आता है इसलिए यदि मूल्य चुकाना हो तो सबके कमीशन और लाभ का भुगतान उसे ही करना पड़ता है । मतलब कि जैसे नरेगा का लाभ हो या सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सामान के उपभोग का हो, उसका नंबर तब आता है जब मंत्री, अधिकारी, पंच, दुकानदार आदि छक लेते हैं । यह वैसे ही है जैसे कि सबसे बढ़िया आम पहले विदेश भेजा जाता है और बचे-खुचे में यहाँ के पैसे वाले निबटते हैं यदि कभी गले-सड़े या आँधी में झड़े कभी सस्ते में आ गए तो उपभोक्ता का नंबर आता है । या फिर ऐसे ही जैसे कि पहले राजा और नवाब गरीब विवाहिताओं तक को उठवा लेते थे और जब वे किसी काम की नहीं रहती थीं तो उनके वास्तविक पतियों का नंबर आता था । तो इस प्रकार अपना अधिकार दिवस मनाने वाले उपभोक्ताओं को अपनी असली स्थिति समझ लेनी चाहिए ।

उपभोक्ता को तरह-तरह से सावधान किया जाता है, उनके अधिकारों के संरक्षण के लिए मंत्रालय तक बने हुए हैं । इससे अनुमान लगा लेना चाहिए कि व्यापार करने वाले कैसे लोग हैं । मतलब कि उपभोक्ता बड़े बदमाश लोगों से घिरा हुआ है । इसलिए हमारे अनुसार तो 'जागो ग्राहक' के स्थान पर होना चाहिए 'भागो ग्राहक' मगर बेचारा भाग कर जाएगा भी तो कहाँ ? शेर से बचेगा तो आगे बाघ बैठा है । बाघ से बचेगा तो तेंदुआ और फिर भेड़िए-गीदड़ । और नहीं तो कोई गली का कुत्ता ही फफेड़ लेगा । गरीब और कमजोर के तो सभी दुश्मन ।

किसी भी पैकेट पर लिखी बातों के सच होने की क्या गारंटी है ? आपको क्या पता कि च्यवनप्राश में आँवला कितना है और शकरकंद कितना ? कोकाकोला और पेप्सी में कौन से हानिकारक तत्त्व मिले हैं ? लेज़, अंकल चिप्स, मेगी, टॉप रेमन, मक्डॉनल्ड, के.एफ.सी., हल्दीराम आदि के उत्पादों में स्वीकृत से कितना अधिक नमक और ट्रांसफैट मिला हुआ है ? अधिकतम खुदरा मूल्य लिखा जाता है उसे उसकी फिक्स्ड प्राइस मानकर ग्राहक खरीद लेता है जब कि कई बार दुकानदार लिखित कीमत से आधे में भी दे देता है इसका मतलब कि आपको पता नहीं कबसे कितना चूना लगता आ रहा है । जिसे आप दूध मानकर पी रहे हैं क्या पता, वह यूरिया या कोई वाशिंग पाउडर का मिश्रण हो । घी में भी किसी गली के सूअर या कुत्ते की चर्बी हो जिसे किसी रसायन से घी की खुशबूवाला बना दिया गया हो । क्या पता आपका धनिया किसी गधे की लीद या जो चाय आप ताज़गी के लिए पी रहे हों वह किसी चमड़े के कारखाने की कतरनों का चूरा हो । इसीलिए पुराने लोग सभी चीजें खुद मूल रूप में खरीद कर लाते और अपने हाथ से खाना बनाते थे, भले ही तथाकथित प्रगतिशील और दलित प्रेमी उन पर छुआछूत का आरोप लगाएँ ।

हम आज इसी उपभोक्ता दिवस के उपलक्ष्य में एक उपभोक्ता संरक्षण का उलझा हुआ मामला आपके सामने रखना चाहते हैं और यदि आप चाहेंगे तो इसे अदालत या किसी मंत्री या फिर प्रणव दा के समक्ष उठाएँगे । मामला कोई नया नहीं है और न ही किसी से छुपा हुआ । आप सब भली प्रकार जानते हैं कि बहुत दिनों से एक गाना और कहीं बजे या नहीं लेकिन शादियों में ज़रूर बजता है । अपने भी सुना होगा लेकिन ध्यान नहीं दिया होगा क्योंकि इसका विज्ञापन ही इतना मादक और बहकाऊ है कि किसी को सोचने का मौका ही नहीं देता । गाना है- बन्नो तेरा झुमका लाख का रे, बन्नो तेरी नथनी है हजारी ..आदि-आदि ।

हम इसी गाने के सन्दर्भ में उपभोक्ताओं के अधिकारों के होने वाले हनन की ओर आपका और सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे । इस गाने में बन्नो और उसकी सजावट का बन्ने सहित मूल्य-निर्धारण चल रहा है । कहीं भी बन्नो की निर्मात्री कंपनी का नाम, स्थान, उत्पादन और अवसान तिथि का कोई उल्लेख नहीं किया गया है । यदि एक्सपायरी डेट निकल चुकी हो तो दवा लाभ के स्थान पर हानि भी कर सकती है ।

यह एक वस्तु का मूल्य निर्धारण है या सब एक साथ बिकाऊ हैं ? अलग-अलग खरीदने की बजाय एक साथ खरीदने पर क्या कोई छूट है ? क्या इन विज्ञापित वस्तुओं के साथ बन्नो भी है ? बन्नो या उसकी सामग्री या दोनों को इस प्रकार निजी क्षेत्र को बेचने का क्या कारण है ? क्या इसमें बालको ( भारत एल्यूमिनियम ) और सिंदरी खाद कारखाने की तरह कोई कमीशन का घपला तो नहीं है ? कहीं यह किसी डंकल का चक्कर तो नहीं है ?

चार चीजें कंगन, झाँझर, नथनी और टीका हजारी हैं पर इसमें भी स्पष्ट नहीं है कि यह सिर्फ हजारी है या फिर पाँच, दस, बीस या तीस हजारी है । और क्या पता यह तीस हजारी कहीं तीस हजारी कोर्ट तो नहीं है । वैसे आजकल सभी बिकाऊ है लेकिन तीसहजारी का इतना सस्ता बिकना शर्म की बात है ।

उक्त वस्तुओं के तौल, केरेट, धातु कुछ स्पष्ट नहीं किया गया है । ऐसे में उपभोक्ताओं के ठगे जाने की पूरी संभावना है ।


पाँच चीजें- बन्नो का मुखड़ा ( यह भी साफ नहीं है कि मेकअप से पहले का है या मेकअप के बाद का ) झुमका, मुंदरी, जोड़ा और बन्ना लाख के बताए गए हैं । इसमें भी गहनों के केरेट, तौल, धातु का ज़िक्र नदारद हैं । जोड़े के डिजाइनर के नाम का कहीं उल्लेख नहीं है । क्या पता संडे बाजार से खरीद कर ऋतुबेरी के नाम से महँगी कीमत वसूली जा रही हो । बन्ने को लाख का बताया गया है मगर उसकी कोई केटेगरी जैसे एस.सी., एस.टी., जनरल. ओ.बी.सी., दलित, महादलित, एन.आर.आई., अल्प संख्यक आदि नहीं बताई गई है । और इतना सस्ता मूल्य भी शंका पैदा करता है क्योंकि इतने में तो चपरासी भी तैयार नहीं होता । बन्नो के बारे में भी ये जानकारियाँ नहीं दी गई हैं ।

यदि पूर्ण पारदर्शिता हो तो यह भी बताया जाना चाहिए कि यह लांचिंग पहली है या दूसरी-तीसरी ?

इन सब शंकास्पद बातों के अलावा इसमें कामन वेल्थ और टू जी स्पेक्ट्रम जैसी कुछ गणितीय गलतियाँ भी हैं । कंगन, नथनी, झुमका, टीका, झाँझर हजारी हैं और मुखड़ा, झुमका, मुंदरी, जोड़ा, बन्ना लाख के हैं । और जब बन्नी सहित सब को मिलाया गया तो टोटल आया लाख । पाँच हजार और पाँच लाख को जोड़ा जाए तो टोटल पाँच लाख और पाँच हजार होना चाहिए । यहाँ तो सीधा-सीधा चार लाख और पाँच हजार का गबन है ।

खैर, इतनी सारी अनियमितताओं के बावज़ूद पाँच लाख और पाँच हजार की जोड़ी किसी तरह एक लाख की तो बची रही । नहीं तो, इस प्रकार के बन्नी और बन्नों को सब जानते हैं- एक धेले के नहीं होते । बन्नी, बन्ना बनने के बाद वैसे भी कीमत बहुत जल्दी गिरती है तभी फिल्मी हीरोइनें शादी को टालती रहती हैं । जब भी कोई पत्रकार पूछता है तो कहती हैं कि अभी तो इसके बारे में सोचने का समय ही नहीं मिला । हम तो कहते हैं कि यह नहीं पूछा कि 'यह शादी बाई द वे होती क्या है' ? जब तक देह का आकर्षण है तब तक शादी करनी भी नहीं चाहिए । यही तो कमाने का समय है । बाद में कोई विज्ञापन दाता मिलेगा भी तो मच्छर मारने की दवा का या चावल का और वह भी तब जब हेमा मालिनी अस्सी बरस की हो न जाएगी । इस मामले में करीना, दीपिका और कैटरीना कैफ बहुत समझदार हैं ।

और फिर कौन सा काम है जो शादी किए बिना नहीं हो सकता है । आजकल तो कहीं भी फिजिक्स और केमेस्ट्री मिलने-मिलाने की छूट हैं जैसे कि पहले शाहिद के साथ फोटो शूट और अब दुहाजू सैफ के साथ । और फिर आजकल सेफ रहने के साधनों की कौन कमी है ?

इन अवांतर प्रसंगों के बावज़ूद उपभोक्ता हित का हमारा प्रश्न वहीं का वहीं है और उपभोक्ता जागृति की माँग करता है ।

१५-मार्च २०१२

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Apr 12, 2012

अमिताभ बच्चन का क्रिकेटाद्वैत

अमित जी,
जय राम जी की । इससे पहले भी हमने आप द्वारा 'कलाकार और कला के प्रति लोगों की उपेक्षा' को लेकर प्रकट की गई चिंता के बारे में लिखा था । आशा है अब आपको कल ३ अप्रैल २०१२ को आई.पी.एल. के उद्घाटन समारोह में कविता पाठ करने के बाद कला के प्रति लोगों की उपेक्षा के बारे में कोई शिकायत नहीं रही होगी । सारे देश के कला और साहित्य प्रेमी संपूर्ण श्रद्धा और भक्ति भाव से इकट्ठा हुए थे और रस में गोते लगा रहे थे । हमारे पास तो टी.वी. है नहीं, सो उस अद्भुत कला महोत्सव को देख नहीं पाए । पहले जब 'रामायण' सीरियल नया-नया शुरु हुआ था तो हम पड़ोस में जाकर देख आया करते थे मगर अब वह ज़माना नहीं रहा । पहले लोग घर आए व्यक्ति को आदर पूर्वक बैठाया करते थे और चाय भी पिलाया करते थे । अब तो कोई घर आता है तो लोग नाक-भौंह सिकोड़ते हैं । सो हम चाह कर भी कला, साहित्य और भक्ति के इस महान कार्यक्रम को देख कर अपना जन्म सफल नहीं कर पाए ।

हमारे यहाँ तो हिंदी का एक अखबार आता है जिसमें खेल पन्ने पर आपका कविता गाते हुए फोटो तो नहीं आया । क्योंकि कुछ भी कहें, हमें लगता है कि अखबार वालों ने समझा होगा कि देखने के मामले में लोग शायद करीना और प्रियंका और केटी पेरी को अधिक प्राथमिकता देते हैं । बस, एक छोटा सा समाचार आया कि आपने एक कविता का पाठ किया जिसमें आपने पुनर्जन्म मिलने की स्थिति में किसी भी रूप में क्रिकेट से ही जुड़ने की कामना की है-
 अगर जन्म मिले दोबारा मुझे तो
इस निराले खेल का छोटा सा हिस्सा बनूँ मैं
गेंद का, बल्ले का, पिच का,
कोई हिस्सा बनूँ मैं ।


बस, इतनी ही कविता छपी थी अखबार में । कोई बात नहीं, देखने को तो कुछ था नहीं । और जहाँ तक भक्त की भावना को समझने की बात है तो हमारे लिए कविता के इतने शब्द ही पर्याप्त है । हम भी छोटे-मोटे कवि हैं । हालाँकि ऐसा अद्भुत भक्ति काव्य कभी भी हमसे नहीं लिखा गया । यह सब पूर्व जन्मों का फल और भगवान की कृपा के बिना संभव नहीं होता । आप पर भगवान की कृपा है । ऐसे ही बनी रहे और आप ऐसे ही भगवान की भक्ति करते रहें और सुख-संपत्ति प्राप्त करते रहें । मोक्ष तो दुःखी लोग माँगते हैं कि फिर से इस दुःखमय संसार में न आना पड़े । सच, बड़े-बड़े नेताओं की दुर्गति देखकर हम तो अगले जन्म में क्रिकेट का हिस्सा तो क्या, मनमोहन सरकार का हिस्सा भी नहीं बनना चाहेंगे ।

वैसे अखबार में यह नहीं बताया गया कि यह कविता किसकी थी ? क्या फर्क पड़ता है ? जब आप गा रहे थे तो आपकी ही थी । सच पूछिए तो यदि यही कविता कवि स्वयं गाता तो हो सकता है लोग सुनने के लिए ही नहीं आते । जैसे कि हमारी गज़लें यदि जगजीत सिंह गाते तो प्रसिद्ध हो जातीं और यदि छम्मक छल्लो पर फिल्माई जाती तो युगों-युगों तक युवतियाँ उस पर उछलतीं और युवक सीटियाँ बजाते । हालाँकि इस बात का महत्त्व नहीं है फिर भी हम कवि की पीड़ा जानते हैं इसलिए बताते चलें कि इसे प्रसून जोशी ने लिखा था । वैसे 'स्लम डॉग मिलेनियम' में 'दर्शन दो घनश्याम' भजन को सूरदास का बता दिया जब कि वह गोपाल सिंह नेपाली का है ।

हमने इसी प्रकार के तादात्म्य भाव से परिपूर्ण रसखान की रचना पढ़ी और पढ़ाई है । आपने भी पढ़ी होगी यदि दून स्कूल वालों ने इसे अंग्रेजी स्कूल के पाठ्यक्रम में पढ़ाए जाने लायक समझा होगा तो । इसमें भी कवि किसी भी रूप में कृष्ण और ब्रज-भूमि से जुड़ना चाहता है । कविता सवैया छंद में है और उसे गाकर भी आनंद लिया जा सकता है यदि किसी के मन में 'आउट डेटेड ' कहलाने का भय नहीं हो तो । कविता इस प्रकार से है-
मानुष हौं तो वही 'रसखान' बसों ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन ।
जो खग हों तो बसेरो करों उन कालिंदी-कूल कदम्ब की डारन ।
जो पशु हों तो कहा बस मेरो चरों नित नन्द की धेनु मँझारन ।
पाहन हों तो वही गिरि को जो भयो ब्रज छात्र पुरंदर कारन ।


आप सोच रहे होंगे कि कवि ने और कुछ क्यों नहीं चाहा ? हो सकता है कि उस समय भारत में अंग्रेज नहीं आए थे और न ही क्रिकेट इस देश का धर्म बना था । यदि उस समय तक क्रिकेट भारत में आ गया होता और उसमें इतना पैसा हुआ होता तो रसखान ही क्या, स्वयं भगवान कृष्ण भी गीता में अर्जुन से यही कहते नज़र आते कि ‘हे अर्जुन, खेलों में मैं क्रिकेट हूँ ।’

यदि खेल को धर्म मानें तो उस समय इस देश में कबड्डी, खो-खो, पहलवानी, घुड़सवारी, तलवार-तीर-धनुष चलाना आदि बहादुरी वाले धर्म हुआ करते थे और तब खेलों में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के धर्म जैसा कोई पक्षपात नहीं हुआ करता था । और तब खेलों में कोई पैसा भी खास नहीं हुआ करता था । यदि कोई सेठ या ठाकुर खुश हो गया तो किसी पहलवान को इनाम में ५१ रुपए दे देता था या फिर कोई कुश्ती या कबड्डी प्रेमी किसी खिलाड़ी को दूध पीने के लिए भैंस दे दिया करता था ।

क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों में तो हाड़ तोड़ना है और कमाई कुछ नहीं । अब बोक्सर मेरी कोम को देखिए । अब भी बेचारी कुपोषित सी लगती है । उसने कहा है कि शायद ओलम्पिक में पदक ले आने पर कुछ हालत सुधरे । आपको याद हो तो १९५० में भारत की फ़ुटबाल टीम ने वर्ल्ड कप में ब्राजील में खेलने के लिए क्वालीफाई कर लिया था लेकिन तब इतना पैसा ही नहीं था कि उन्हें बाहर भेजा जा सकता ।

अगर उस समय क्रिकेट होता और आज जितना पैसा होता तो किसे पता हमें अपने पुराने भारतीय साहित्य में ऐसी भी रचनाएँ मिलतीं जैसी कि आपने आई.पी.एल. के उद्घाटन सत्र में सुनाई । और फिर अपने-अपने भगवान हैं । जैसा भक्त, वैसे भगवान । भगवान तो कण-कण में हैं । जैसी जिसकी भावना होती है भगवान उसी रूप में दिखाई देते हैं ।
जाकी रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ।।


किसी को विधर्मियों की हत्या में धर्म और भगवान की सेवा दिखाई देती है तो किसी दिलीप सिंह जू देव जैसे को पैसा भगवान से बड़ा नहीं, तो भगवान से कम भी नहीं दिखाई देता । किसी को नर में नारायण दिखाई देता है तो किसी को मंदिर में भी चुराने लायक जूते या मौका लग जाए कोई छेड़ने लायक युवती दिखाई देती है । एक सज्जन अपनी पत्नी को डराने के लिए अगले जन्म में चूहा या काक्रोच बनने की कामना की थी । कई लोग किसी हसीना का कुत्ता बनना चाहते हैं । एक पियक्कड़ को तो अपने तत्कालीन जन्म से कितनी घृणा थी यह इस शे'र से जाना जा सकता है-
या रब मुझे बनाना था भट्टी शराब की ।
इंसान बाना के क्यों मेरी मिट्टी खराब की ।


आजकल शराब की इतनी अनुपलब्धता नहीं है इसलिए लोग दस रुपए में लोकल दारू की एक सौ मिलीलीटर की थैली सूँत कर अपनी मिट्टी को खराब होने से बचा लेते हैं ।

आपने क्रिकेट के धर्म-स्थल आई.पी.एल. में पिच की घास, गेंद, बल्ला या क्रिकेट से संबंधित कुछ भी बनना चाहा । आप ही क्या, यह खेल ही ऐसा है जिसमें खेती जैसा पुण्य कार्य छोड़ कर पवार जैसे संत तक पिले पड़े हैं । इस खेल में बड़ा स्कोप है । गांगुली मैदान में पानी पिला-पिलाकर कप्तान बन गया । और तो और, लालू जी का पुत्र तेजस्वी बिना एक भी मैच खेले दस-बीस लाख रुपए ले गया ।

हमारे यहाँ कहा गया है- रावळै को तेल तो पल्लै में ही चोखो
अर्थात राजा के यहाँ से यदि तेल मिले और आपके पास कोई बर्तन न हो तो उसे पल्ले में ले लेना भी फायदे का सौदा होता है । राजमहल का तेल जो है ! आपको तो खैर, बकायदा अच्छा-खासा पैकेज मिला होगा ।

हमने हिंदी साहित्य में भारतीय दर्शन के कई प्रकार पढ़े हैं जैसे- अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि । हमारा विश्वास है कि आपने क्रिकेट के साथ अद्वैत स्थापित करके जिस दर्शन का प्रदर्शन किया है वह भी अवश्य ही भारतीय दर्शन में स्थान प्राप्त करेगा और श्रद्धालुओं का कल्याण करेगा ।

हरि ओम तत्सत् ।

४-४-२०१२
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Apr 6, 2012

तोताराम का अर्थ आवर

दो दिन से तोताराम नहीं आ रहा था सो हम ही उसके घर चले गए | देखा तो तोताराम टखने पर क्रेप बेंडेज बाँध कर लेटा है | न आने का कारण तो पता चल गया मगर इस बेंडेज का कारण पूछा तो बोला- ३१ मार्च को ८.३० पर लाइट बंद कर दी थी | जैसे ही गेट का ताला बंद करने गया तो पैर मुड़ गया और आगे का हाल देख ही रहे हो |

हमने कहा- ठीक है, बचत करनी चाहिए मगर ऐसी भी क्या बचत ? एक-दो मिनट में कितनी बिजली जल जाती ?

कहने लगा- वैसे तो तू बहुत बड़ी-बड़ी बातें करता है लेकिन इतना भी पता नहीं उस दिन 'अर्थ डे' था और अर्थ डे पर पृथ्वी बचाओ वाले एन.जी.ओ. ने ८.३० से ९.३० तक सारे संसार में एक घंटे बिजली बंद रखने की घोषणा की थी | बात पैसे की नहीं है बल्कि इस नष्ट होने के कगार पर खड़ी पृथ्वी को बचाने की है | तू तो अपनी सुख-सुविधा में तनिक-सी भी कमी करना नहीं चाहता | तुझे क्या, पृथ्वी रहे या बचे |

हमने कहा- तोताराम, हम भी पृथ्वी क्या, समस्त ब्रह्माण्ड से उतना ही बल्कि अधिक प्यार करते हैं जितना कि तुम्हारे ये 'अर्थ डे' वाले | हाँ, यह बात और है कि हमारे पास कोई मिडिया नहीं है सो हमारे प्रयत्नों का किसी को पता नहीं चलता | और जिन लोगों को तू पृथ्वी को बचाने की जिम्मेदारी उठाए देख रहा है वे ही इस पृथ्वी के विनाश का कारण हैं | अमरीका विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए दबाव डाल रहा है लेकिन खुद सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है | १५० ट्रिलियन कैलोरी जितना भोजन अमरीका में जूठन के रूप में व्यर्थ कर दिया जाता है | क्या उसमें ऊर्जा नहीं लगती ? अमरीका में घरों के आगे-पीछे लगे लॉन्स का क्षेत्रफल कोई डेढ़ लाख किलोमीटर है जिसमें घास उगाने और सँवारने में सोचो कितनी बिजली और पेट्रोल जलता होगा | और नाटक अर्थ आवर का |

तोताराम कहने लगा- देख, बूँद-बूँद से घड़ा भरता है और बूँद-बूँद रिसने से रीत जाता है | राम जब पुल बना रहे थे तो एक गिलहरी भी अपनी पूँछ समुद्र में डुबोती और फिर बाहर आकार उसे छींट देती और फिर पूछ गीली करती | यही क्रिया वह बहुत देर से दुहरा रही थी | भगवान राम ने बड़े प्यार से उसे पूछा कि वह क्या कर रही है ? तो कहने लगी कि मैं इस समुद्र को ऐसे ही सुखा दूँगी | राम मुस्कराए और उसे प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा | तो हम भी उस गिलहरी की तरह अपव्यय के इस समुद्र को सुखाने का प्रयत्न कर रहे हैं |

खुद सारे संसाधनों का दुरुपयोग करने वाले चतुर लोग, पृथ्वी को बचाने की हमारी यह बचकानी कोशिश करके धन्य होने की मूर्खता पर अंदर ही अंदर हँस रहे होंगे | वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं ? और फिर भी ईश्वर उन्हें माफ कर रहा है | खुद ही दुनिया के जंगलों को काट कर हमें वनमहोत्सव में उलझा रहे हैं | हम कहाँ कोई हरा क्या, सूखा पेड़ भी काट रहे हैं | नेता खुद अपने कमीशन के लिए अपने देशों के संसाधन बेचे जा रहे हैं और जनता को मितव्ययिता का उपदेश दे रहे हैं |


और जहाँ तक बिजली की बात है, हम तो बिजली क्या, किसी भी साधन का बहुत सँभल-सँभल कर उपयोग करते हैं | हमें तो जो कुछ भी उपभोग करते हैं उसका पूरा पैसा देना पड़ता है | नेताओं से पूछ कि उनके बँगलों और फार्म हाउसों में कितनी फालतू बिजली जलती है ? क्यों, क्योंकि या तो उन्हें बिजली मुफ्त मिलती है या फिर चोरी करते हैं | क्यों बिजली द्वारा ज़मीन से खींचा हुआ बेशकीमती पानी स्विमिंग पूलों में भर कर तैरते रहते हैं जब कि देश डूब रहा है और खेत, पशु-पक्षी प्यासे हैं | मुकेश अम्बानी से पूछ कि क्या वह बिजली बनाता है जो एक महिने में अपने नए बँगले में ७० लाख रुपए महिने की बिजली फूँक देता है ?

तोताराम बोला- वह कोई बिजली चोरी थोड़े ही करता है वह तो पूरे पैसे देता है |

हमने कहा- तो कागज के टुकड़ों से बिजली बनती है क्या ? बिजली बनाने में इस धरती के बहुमूल्य संसाधनों का उपयोग होता है और वे संसाधन किसी एक बपौती नहीं हैं उन पर इस दुनिया के सभी लोगों का अधिकार है | मान ले कोई व्यक्ति कहे कि उसके पास बहुत पैसा है | वह सारी दुनिया का गेहूँ खरीद कर समुद्र में फेंक देगा तो क्या यह उचित है ? किसान गेंहूँ खाने के लिए उगाता है न कि समुद्र में फेंकने के लिए | रोटी खाने के लिए है न कि खेलने के लिए | अरे, यदि यह दुनिया बची हुई है तो हम ग़रीबों के कारण जिनके पास इस दुनिया को निचोड़ने के साधन नहीं है | यदि इस दुनिया में सारे ही धनी होते तो पता नहीं, ये कब का इस दुनिया को चूस कर खत्म कर देते | धर्म और सत्कार्य किसी एक दिन का नाटक नहीं होते वे तो हमारी जीवन शैली होने चाहिएँ तभी उसका लाभ दिखेगा | अच्छी बातें या तो शतप्रतिशत होती हैं या फिर बिलकुल नहीं |

ये ऐसे ही नाटक हैं जैसे कि जब किसी यूरोपीय या अमरीकी सुन्दरी की कपड़े उतारने की इच्छा होती है तो कह देती है कि वह पशु क्रूरता के विरुद्ध नग्न होकर प्रदर्शन कर रही है | अरे, मांस खाना छोड़ दो अपने आप बूचड़ खाने बंद हो जाएँगे | चिल्लाएँगे- विदेशी ब्रांड के ठंडे पेयों में केंसर कारक पदार्थ मिले हुए हैं | तो किसने कहा है कि पियो | छोड़ दो | गाँधी वाला उपाय ही चलेगा |

चतुर लोग हमें 'अर्थ आवर' में उलझा कर अनर्थपूर्वक अपनी अर्थ सिद्धि करने में लगे हैं | आँख खोल कर रहो | साधारण आदमी के लिए तो चाहे एक घंटे का अर्थ आवर हो या वर्तमान हो या भविष्य हो, अंधकार पूर्ण ही है | सावधानी से टटोल-टटोल कर चलो नहीं तो पैर ही क्या सिर और कमर भी तुड़वा बैठोगे |

खैर, चल उठ | बैंक चल कर पता कर लें कि नया डी.ए. पेंशन में जुड़ गया कि नहीं ?

२-४-२०१२


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तोताराम के तर्क - संसद के माननीयों की मर्यादा

संसद में १८६ दागी मतलब कि एक तिहाई जेल जाने के योग्य हैं । वैसे किसी सांसद को पकड़ना, उस पर मुक़दमा चलाना और उस पर आरोप तय करना कोई साधारण काम नहीं है । इतना भी तब होता है जब या तो कोई कानून का रखवाला सर पर कफ़न बाँध लेता है या फिर किसी न्यायमूर्ति की आत्मा जिंदा हो जाती है । हालाँकि उस आत्मा को भी तरह-तरह से सुलाने और न माने तो शरीर से भगाने की कार्यवाही करने की तक धमकी दी जाती है । तिस पर भी किसी पर आरोप तय हो जाए तो मतलब कि दाल में काला क्या, सारी दाल ही काली है ।

हम लोकतंत्र की इस साठ-साला उपलब्धि पर कुढ़ रहे थे कि तोताराम आ गया । हम बिना किसी सन्दर्भ के ही उस पर बरस पड़े - तोताराम, इन सब को तो तत्काल जेल में डाल देना चाहिए ।

तोताराम ने उत्तर दिया- बिलकुल, दो-चार आदमियों ने दिल्ली में मज़मा लगाकर 'माननीयों' का जीना हराम कर रखा है । एक तो वैसे ही गठबंधन के मारे हाथ-पाँव फूले हुए हैं । चाहे जिस मंत्री को एक फोन पर हटाना पड़ रहा है । कभी कोई चुपचाप रिटायरमेंट लेने की बजाय, कभी जन्मतिथि तो कभी किसी ज्ञात-अज्ञात रिश्वत की पेशकश करने वाले की बात उड़ा कर, नींद हराम किए हुए है । और ये खोजी लोग दाढ़ी तो दाढ़ी, क्लीन शेव वालों में तिनके ढूँढ़ रहे हैं । बिलकुल, इन्हें तो संसद में लाकर लालू, मुलायम और शरद 'यादव त्रय' के सुपुर्द कर दिया जाना चाहिए । फिर ये चाहें तो इन्हें जेल भिजवाएँ या पागलखाने में डालें या वहीं डंडे या जूते मारें या एटा-इटावा के देसी कट्टे से तत्काल ढेर कर दें ।

हमने कहा- बंधु, हम अन्ना टीम और अन्य अन्नावादियों की बात नहीं कर रहे हैं । हम तो उन 'माननीयों' की बात कर रहे हैं जिन पर बीसियों केस लगे हुए हैं, जिनके नाम से ही भले लोगों की तो बात ही क्या, चम्बल के अच्छे-अच्छे शेर भी घबरा जाते हैं ।

तोताराम ने थोड़ा विलोम साँस छोड़ते हुए कहा- तो तुझे भी गंगा की सफाई जैसा कोई काल्पनिक जुकाम हो गया दीखे । क्या गंगा के उद्धार के लिए अनशन करने वाले का नाम जानता हैं ? नहीं ना ? और या तो वह मर जाएगा या फिर ज़बरदस्ती उसका अनशन तुड़वा दिया जाएगा । और सब कुछ पुनः वैसे ही चलने लग जाएगा । इस मुक्त बाजार में दो जून की रोटी जुटाने में ही आदमी को इतना व्यस्त कर दिया गाया है कि उसे देश क्या, खुद के जीने-मरने तक की खबर नहीं है । क्या गंगा और क्या संसद - किस किस की खबर रखेगा बेचारा ।

और फिर भई, इस देश में कानून का शासन है । आरोप का क्या है कोई भी, कभी भी, किसी पर भी लगा या लगवा सकता है ? अब भई, राम की तरह एक धोबी के कहने मात्र से सत्ता-सीता को त्याग दिया तो चल लिया लोकतंत्र । और मान ले, कोर्ट ने आरोप तय भी कर दिए तो क्या, आरोप सिद्ध तो नहीं हुए । बिना आरोप सिद्ध हुए किसी माननीय को दागी कहना कहाँ तक उचित है ? जब देश की सर्वोच्च संस्था उन्हें अब भी 'माननीय' कह कर संबोधित कर रही है तो तुझे क्या अधिकार है उन्हें चोर, हत्यारे, बलात्कारी कहने का । अरे, यह तो उनकी भलमनसाहट है कि अभी तक दिल्ली में धरने पर बैठकर आरोप लगवाने वालों और तेरे जैसे समर्थकों की अभी तक 'टें' नहीं बुलावा दी । वरना जो किसी डीजल का अवैध धंधा रोकने वाले या अवैध खनन में बाधा डालने वाले अधिकारी को सरे आम मरवा सकते हैं और कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका, तो तेरे जैसे के लिए तो सौ रुपए की सुपारी भी बहुत । कोई भी छुटभैया रास्ते चलते स्कूटर भिड़ा कर तेरा काम तमाम कर जाएगा और पता भी नहीं चलेगा । 'माननीयों' को अपने लाइसेंसी हथियार या जनता द्वारा लोकतंत्र की रक्षा के लिए दिए गए धनुष-बाण, तलवार और गदाएँ निकालने की तो नौबत ही नहीं आएगी ।

और मान ले इन सबको संसद से निकाल भी दिया गया तो फिर कौन से राजा हरिश्चंद्र ले आएगा तू चुन कर । उन्हीं में से तो चुनना है । साँपसिंह, नागनाथ या फिर बिच्छू भैया । कोई भला आदमी न तो जीवन भर में चुनाव लड़ने लायक पैसे जुटा सकता और न ही इस अधर्म-युद्ध में उतरने का साहस कर सकता है । और मान ले यदि दिनमान उल्टा हुआ और खड़ा भी हो गया तो जीतेगा नहीं, या कोई 'भाई' एक धमकी में ही उसे बैठा देगा ।

ये एक तिहाई तो घोषित 'माननीय' हैं और जो अभी आरोपित होने से बच गए हैं, जो भूतपूर्व 'माननीय' हैं और जो सत्ता-मद में शीघ्र ही अपनी लीला दिखाने वाले हैं उनका तो हिसाब ही नहीं लगाया है तूने । अरे, जैसा भी है दुनिया को दिखाने को लोकतंत्र तो है । जैसे भी हैं चुनाव तो होते हैं । भले ही चुनाव में चालीस प्रतिशत मतदान ही होता हो और उसमें भी आधा नकली और आधा दारू के नशे में और उसमें भी जीतने वाले को बीस प्रतिशत वोट ही मिलें हों पर वह उस इलाके का चुना हुआ प्रतिनिधि ही माना जाएगा ना ? पति कैसा भी हो, पति ही होता है । उसके नाम से स्त्री माँग तो भरती है । अवैध संतान को भी नाम तो मिल जाता है । लफंगों से कुछ तो बचाव होता है । भले ही पिता ने पैसा लेकर बूढ़े के पल्ले बाँध दिया हो । तभी शास्त्रों में कहा गया है-

वृद्ध रोगबस जड़ धनहीना । अंध बधिर क्रोधी अति दीना । ।
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना । नारि पाँव जमपुर दुःख नाना । ।

और फिर जनता के ये खसम तो माशा’अल्लाह हट्टे-कट्टे, घोषित आमदनी से हजार गुना अधिक धनवान हैं । ये तो जमपुर के दुःख भोगने का इंतज़ार करने तक का समय भी नहीं देंगे । इसी जन्म को नर्क बना देंगे । इसलिए इन सर्वशक्तिमान, तेजस्वी संतों का अपमान करने का साहस करके क्यों अपनी दुर्गति को निमंत्रण दे रहा है । शांति से रहेगा तो क्या पता, अस्सी बरस की उम्र भी पा जाएगा और तब पता हैं, पेंशन एक झटके में ही सवाई हो जाएगी ।

हमने कहा- तोताराम, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ये जो सांसदों पर लगे आरोपों से अपने को मुक्त मानते हैं वे सभी दूध के धुले जन-सेवक अलग हो जाएँ और ईमानदारों की एक नई पार्टी बना लें । लोकतंत्र की गंगा की पूर्ण सफाई हो जाए ।

तोताराम बोला- लोकतंत्र की गंगा की तो बात नहीं जानता पर इन ईमानदारों की ज़रूर सफाई हो जाएगी । अब तो एक तिहाई ही गिनती में हैं, शेष एक तिहाई ढके छुपे हैं । यदि स्पष्ट विभाजन हुआ तो संसद में इन्हीं दागियों का तीन चौथाई बहुमत नज़र आएगा और तब ये संविधान ही बदल देंगे । अब तो जीतने के नाम पर ही अपराधियों को टिकट दिया जाता है फिर तो यह होगा कि अपराधों की गिनती और गंभीरता के आधार पर टिकट मिलेगा ।

हमने तोताराम के इस सकारात्मक चिंतन में बाधा डालते हुए कहा- और वह अरबों-खरबों का काला धन जो इन लोगों ने घपले करके कमाया है ?

तोताराम ने कहा- ज़रा ठंडे दिमाग से सोच । यदि इन्होंने धन कमाया है तो क्या उन नोटों को खाएँगे ? कभी भी खर्च करेंगे तो इसी जनता में आएगा ना ? यदि खर्च नहीं करेंगे तो एक प्रकार से देश की बचत ही तो हो रही है । और फिर इनमें अधिकतर का धन इसी देश में है । ये नए-नए सेवक हैं और शुद्ध देशी । अभी इनके इतने संपर्क सूत्र विदेशों में नहीं है कि किसी विदेशी बैंक में जमा कराएँ । और यदि चुनाव में खर्च करेंगे तो भी फिर इसी जनता में आएगा ना ? जुलूस, रैली, झंडे बैनर उद्योग का विकास होगा । यदि देसी दारू में लगेगा तो कुटीर उद्योगों का विकास होगा ।

हमने चिढ़ कर कहा- तो फिर पोर्न गेट कांड के बारे में भी अपने एक्सपर्ट कमेन्ट दे ही दे । तो बोला- उसमें तो कोई बात ही नहीं है । आजकल विज्ञापनों और टी.वी. में जो दिखाया जा रहा है वह किसी भी पोर्न फिल्म से कम नहीं है और फिर ‘डर्टी पिक्चर’ को राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत किया जा सकता है तो फिर देखने में ही क्या हो गया ? और तुझे क्या पता कि वह कोई पोर्न फिल्म ही देख रहे थे, किसी राज्यपाल या स्वामी की सी.डी. भी तो हो सकती है । किसी पूनम पांडे का वीडियो भी तो हो सकता है । वैसे आजकल राजनीति में ऐसे 'माननीयों' के पास कोई खास काम भी तो नहीं है । जहाँ तक विकास का सवाल है तो दिन में तो दूना ही होता है, चौगुना तो रात में होता है ।

हमने कहा- तोताराम, मान लेते हैं कि हम और ये अन्नावादी जो कह रहे हैं वह गलत है । सब बेकार में सांसदों पर आरोप लगा रहे हैं जब कि इनमें कोई दोषी नहीं हैं तो फिर ये अन्ना का लोकपाल विधेयक मान क्यों नहीं लेते ? बिल से सदाचारियों को डरने की क्या ज़रूरत है ?

तोताराम झुँझलाया- लोकपाल, लोकपाल । क्या है लोकपाल ? इससे पहले जाने कितने ही 'पाल' भरे पड़े हैं यहाँ । आठ दिक्पाल अर्थात दिग्गज पृथ्वी को थामे हुए हैं पर क्या भूकंप या भूचाल आने से रुक गए ? 'महिपालों' अर्थात पृथ्वी का पालन करने वालों के रहते पृथ्वी का कैसा पालन हो रहा है, देख ही रहे हो ? द्वारपालों के होते हुए क्या घुसपैठिए देश में, दलाल सेना में और पी.एम. ऑफिस में ‘मोल’ नहीं घुस गए ? डाकपाल, लेखपाल, लेखापाल जाने कितने 'पाल' हैं । राज्यपालों के रहते हुए लोकतंत्र की कितनी रक्षा हो गई ?

अरे, और कोई काम नहीं है क्या ? अभी तो बेअंत के हत्यारे को, कसाब को, अफज़ल को धार्मिक सद्भाव (?) और जन भावना के नाम पर क्षमा करना है जैसे कि पहले शाहबानो के केस में कानून का सत्यानाश किया था और संतुलन बनाने के लिए राम मंदिर का ताला खुलवाकर एक नई खाज लगा दी थी । और फिर अब तो महिलाओं के कल्याण के लिए 'लिव इन रिलेशनशिप' जैसे पवित्र कार्य को कानूनी बनाना है । बेचारे समलैंगिक जाने कितने वर्षों से अपने इस सहज, स्वाभाविक और अध्यात्मिक प्रेम को मान्यता मिलने का इंतज़ार कर रहे हैं । भले ही धारा ३७० न हटे मगर इनके लिए धारा ३७७ को तो हटाना है ना । देश को विकसित बनाने के लिए अमरीका की तरह इन समलैंगिकों को विवाह का अधिकार देने का बिल भी पास कारवा है । हिंदुओं में तलाक को उसी तरह से सरल बनाना है जैसे कि इस्लाम में फोन पर तीन बार तलाक कहने से तलाक हो जाता है । और तू लोकपाल, लोकपाल की ही रट लगाए जा रहा है ।

और सुन ले अभी ये जो सुधारक समर्थकों की भीड़ देखकर जोश में आ रहे हैं बाद में ओम पुरी की तरह बयान बदलते फिरेंगे । खैर, गुस्सा थूक और एक किस्सा सुन-

एक गरीब आदमी थोड़ी सी देसी पिए हुए या फिर शायद भूख के कारण लड़खड़ाता हुआ सड़क पर जा रहा था । तभी एक नेताजी के सुपुत्र की गाड़ी तेज गति से उधर से निकली । उस व्यक्ति को कोई खास चोट तो नहीं लगी लेकिन उसके झपाटे से वह गिर ज़रूर गया और भयभीत होकर चिल्लाने लगा । लोग पूछते मगर वह चिल्लाए ही जा रहा था । तभी एक पुलिस वाला नेता जी के बेटे को सलामी देकर वहाँ पहुँचा तो वह भी उस दुर्घटना से बचे आदमी का तमाशा देखने लगा । आदमी था कि चिल्लाए जा रहा था । अंत में पुलिस वाले ने उसे एक ठोकर मारी और डाँटा- साले, क्या पें-पें लगा रखी है । बताता क्यों नहीं, कहाँ लगी है ?

आदमी ने ध्यान से रक्षक जी की तरफ देखा और कहा- पता नहीं, साहब । आप जहाँ कह दें, वहीं लगी है ।

३०-३-२०१२
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Apr 5, 2012

कला और कलाकार का सम्मान

अमित जी,
नमस्ते । हम आपके फैन हैं मगर वैसे नहीं जैसे कि आपको मंदिर या मोम की मूर्तियों में कैद करने वाले । हम तो आपकी कला के फैन हैं इसीलिए समय-समय पर आपको नेक सलाह देते रहते हैं पर यह सलाह भी ऐसी चीज है कि एक तो लोग बिना माँगे देने लगते हैं या फिर सलाह भी फालतू । अब देखिए ना, लोग हैं कि सचिन को सलाह दिए जा रहे हैं कि रिटायर हो जाओ । अरे भाई, यह कोई सेनाध्यक्ष जैसी कोई सरकारी नौकरी है क्या, कि एक निश्चित दिन रिटायरमेंट लेना ही पड़ेगा । यह तो अपना निजी वेंचर है जब तक मर्जी हो खेंचते रहो । और जब ऑफर आ रहे हैं, चाहे वे एक्टिंग के हों या क्रिकेट के, तो फिर लगे रहो मुन्ना भाई ।

हमें न तो सचिन के खेलते रहने से ऐतराज़ है और न आपके सत्तर के पेटे में राम-राम करने की उम्र में तीन-तीन शिफ्ट में काम करने से तकलीफ । हमने तो कल एक अखबार के मुखपृष्ठ पर उस अखबार के नाम के पास ही छपे आपके एक विचार को पढ़ कर यह पत्र लिखने का सोचा । विचार क्या था, चीत्कार था - एक कलाकार का, कला और कलाकार की इस देश में उपेक्षा को लेकर । आपने बताया कि जब एक कलाकार समर्पण के साथ अपनी प्रस्तुति देता है तो लोगों का ध्यान उसकी कला की ओर न होकर कहीं और होता है तो लगता है कि इस कला-प्रेमी देश में कलाकारों का सम्मान खत्म हो गया है । बड़ा दुःख हुआ इस दर्दनाक स्थिति को जानकर ।

हम भी एक छोटे-मोटे कलाकार हैं मगर पैसे लेकर प्रस्तुति नहीं देते । पैसे लेकर प्रस्तुति देने वाले कलाकार का बड़ा मरण हो जाता है । ढंग की प्रस्तुति न दो तो फिर लोग बुलाएँगे नहीं और यदि बुलाने वालों से यह कर दो कि तुम ढंग से क्यों नहीं सुनते हो तो भी वे फिर नहीं बुलाएँगे । हर हालत में मरण । हमने अपने कई मित्रों को, जो कि मंचीय कवि हैं, कई सेठों के घर पर उनके ड्राइंग रूम में फरमाइश पर कविता सुनाते देखा है और उसी दौरान सेठ जी पादते जाते हैं और कहते जाते हैं- हाँ, तो वो फलाँ कविता सुनाइए, अलाँ कविता सुनाइए । और बेचारे कवि महोदय को सुनानी पड़ती है । पेट का सवाल जो है । यह पेट भी साला, बहुत बदमाश चीज़ है । आदमी को जाने क्या-क्या नाच नचाता है । तभी रहीम जी ने पेट को संबोधित करते हुए यह दोहा लिखा था-

कहु रहीम या पेट ते क्यों न भयो तू पीठ ।
रीते मान बिगाड़िहैं भरे बिगाड़ै दीठ ।।
अर्थात, रहीम जी कहते हैं कि हे पेट तू पीठ क्यों नहीं हुआ? पेट खाली हो तो मान बिगाड़ता है, भरा हो तो नज़र बिगाड़ता है ।

अब भाई साहब, पेट भरे तो मुक्ति मिले । पेट का न होना तो संभव नहीं । और जब पेट बड़ा हो जाता है तो किसी भी तरह से छुटकारा नहीं मिलता । न पेट भरे और न जान छूटे । कबीर जी का पेट बहुत छोटा था । आधी और रूखी में ही भर जाता था और वह आधी भी अपने करघे पर बुने हुए कपड़े की कमाई की होती थी । सो किसी सेठ के घर जाकर भजन गाने की नौबत नहीं आई ।

आपको अपने जीवन की एक सच्ची घटना सुनते हैं । बात १९८२ की है । हम उन दिनों पोर्ट ब्लेयर जाते हुए कलकत्ता में रुके हुए थे । वहाँ हमने एक हास्य कवि सम्मलेन का समाचार पढ़ा । उसमें हमारे राजस्थान के एक प्रसिद्ध हास्य कवि भी भाग ले रहे थे जो हमारे वरिष्ठ मित्र भी थे । हमें उनसे मिलने का लालच हुआ सो पहुँच गए उनके पास वहीं मंच के पीछे ड्रेसिंग रूम में । जहाँ वे एक अन्य कवि से साथ ड्रेसिंग कर रहे थे मतलब कि हम-पियाला हो रहे थे । हमने पूछा- गुरु, यह क्या ? माँ सरस्वती का ऐसा चरणामृत ? कहने लगे- क्या करूँ एक ही कविता को बार-बार सुनाते हुए डर लगता है कि कहीं हूट न हो जाऊँ ? सो डर भगाने के लिए एक आध पैग लगाना पड़ता है ।

इसके बाद उन्होंने हमें भी मंच पर आमंत्रित किया । चूँकि हम उन श्रोताओं के लिए नए थे सो उन्होंने हमें हूट करना चाहा और कविता से पहले ही हू-हू करना शुरु कर दिया । हमने बिना घबराए उनको डाँटने के लहजे में कहा- सुनो, मैं पैसे लेकर सुनाने नहीं आया हूँ । तुम्हें सौ बार सुनना हो तो सुनो नहीं तो मैं नहीं सुनाऊँगा । श्रोता शांत हो गए और फिर हमने अपनी कविता सुनाई और वह लोगों को पसंद भी आई । यह बात और है कि हमारे उन कवि मित्र ने हमें पारिश्रमिक के दो सौ रुपए भी दिलवाए । यदि हम पैसे लेकर आए हुए कलाकार होते तो हमसे ऐसा साहस कभी नहीं होता कि श्रोताओं को झिड़क सकते । तो यह है बंधु, निष्कामता की शक्ति ।

हमने मुगल-ए-आज़म फिल्म देखी थी । कैसे और किन परिस्थितियों में देखी यह बताने की ज़रूरत नहीं है । आपने भी ज़रूर देखी होगी । उसमें सलीम युद्ध में विजय प्राप्त करके कई बरसों बाद लौटा है और जोधाबाई तानसेन से इस उत्सव को यादगार बनाए के लिए कुछ विशेष सुनाने के लिए कहती है । रात हो चुकी है । महल की मुँडेरों पर दिए झिलमिला रहे हैं । अंदर का कुछ नहीं दिखाई दे रहा है । बस, वहीं दीवार के पास तानसेन गाते दिख रहे हैं- 'शुभ दिन आयो रे' ।

तो यह है दरबारी कलाकारों का हाल । हाल हमेशा से ही यही रहा है । यदि आज हो रहा है तो कौनसी नई बात है । उन्हीं मुगल-ए-आज़म, जिल्ल-ए-सुभानी अकबर के दरबार का एक और किस्सा है । तब अकबर की राजधानी फतेहपुर सीकरी हुआ करती थी । उन्होंने कृष्ण भक्ति के अष्टछाप के कवियों में से एक को उनका गाना सुनने के लिए राजधानी बुलवा भेजा । बेचारे कवि को आना पड़ा । मगर इस प्रकार के शाही सम्मान से परेशान थे । वे अकिंचन भक्त थे । रास्ते भर सोचते और कुढ़ते हुए पहुँचे और पता है, महाशय ने वहाँ जाकर क्या सुनाया? बोले -
संतन को सीकरी सों का काम ।
आवत जात पनहियाँ टूटें, बिसर जात हरि नाम ।


बादशाह और सारा दरबार सुन्न । अकबर ने उन्हें क्षमा माँगकर विदा किया । अब सोचिए कि उनकी जगह कोई इनाम-इकराम का लालची होता तो क्या ऐसे कह सकता था ?

अब आजकल कोई महानायक या किंग या बादशाह पैसे के लालच में किसी सेठ के बेटे की शादी में उसके फार्म हाउस में या जन्म दिन पर किसी बाहुबली या धनबली के घर नाचने जाएगा, तो फिर ध्यान से सुनने या न सुनने या कलाकार और कला के सम्मान के बारे में मुँह नहीं खोल सकता । मुँह माँगे पैसे लेकर मुन्नी बाई नहीं कह सकती कि यह ड्रेस नहीं पहनूँगी या कपड़े नहीं उतारूँगी या बेड रूम सीन नहीं करुँगी ।

वैसे आपकी बात ठीक भी है कि लोग कला को गंभीरता से नहीं लेते । जब राष्ट्रपति के भाषण को ही लोग ध्यान से नहीं सुनते, विधान सभा में बैठकर पोर्न वीडियो देखते हैं या सोते नज़र आते हैं तो आप-हम जैसे कलाकार तो किस खेत की मूली हैं । यह बात राजनीति में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी लागू होती है । ज़माना खराब है लोग भगवान के घर में भी लड़कियाँ छेड़ने और जूते चुराने जाते हैं ।

हमारे गाँव में एक कथावाचक जी आया करते थे गरमी की छुट्टियों में । विशेष रूप से महिलाएँ गरमी की लंबी दुपहरी बिताने के लिए कथा सुनने के लिए जाया करती थीं । जैसे आजकल लोग समय बिताने के लिए फिल्मी गीतों की अन्त्याक्षरी किया करते हैं । वे महिलाएँ भी अपने साथ कुछ टाइम पास ले जाया करती थीं मतलब कि काचरी छीलना या कैर चूँटना जैसे काम । हमने महात्मा जी को कई बार कहते सुना था- माता-बहनो, आप कथा सुनने आती हैं या कैर चूँटने ? मगर किसी पर कोई असर नहीं पड़ता था । इन सब समस्याओं के बावज़ूद महात्मा जी ने कभी कथा सुनाना बंद नहीं किया । कथा नहीं सुनाते तो खाते क्या ?

इसके विपरीत हमने परम संत रामसुखदास जी को भी सुना है । वास्तव में संत थे । न बच्चे, न बीवी, न कोई संपत्ति, न कोई घर, न कोई आश्रम । एक भगवा धोती जिसे आधा कमर से लपेटते और आधा शरीर पर ओढ़ लेते थे । एक जोड़ी खड़ाऊँ और एक कमंडल । न फोटो खिंचवाते थे और न किसी से पैर छुआते थे । उन्हें कभी किसी को कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी कि शांत रहें या ध्यान से सुनें । जब बोलते थे तो लगता था कि इस दुनिया में ही नहीं हैं । न किसी की तरफ देखना और न कोई अनावश्यक शारीरिक हरकत । और आजकल के च्यवनप्राश बेचने वाले, करोड़ों अरबों के आश्रमों के मालिक बाबाओं को, लोगों को रिझाने के लिए सत्संग से पहले ब्यूटी पार्लर में जाना पड़ता है, चुटकले सुनाने पड़ते हैं । कई तो भीड़ जुटाने के लिए सुन्दर चेलियाँ भी रखते हैं ।

तो बंधु, जब तक कोई शौक धंधा नहीं बनता तब तक ही खैर है । अन्यथा तो धंधे के सारे नाटक करने ही पड़ते हैं और पैसे देकर पधारे दर्शकों के अनुसार नाचना ही पड़ता है । उनके नाटक और नखरे सहने ही पड़ते हैं । तभी हमारा मानना है कि कलाकार को अपना पेट पालने के लिए कुछ और करना चाहिए और फिर अपनी मनमर्ज़ी से अपने शौक के लिए सम्मान पूर्वक जो चाहे करे । कहीं मानापमान का प्रश्न ही नहीं उठेगा । हमें तो लगता है कि पैसे के लिए नाचने वाले कोई भी हों - पूनम पांडे और राखी सावंत और मुन्नी या शीला या चिकनी चमेली या जलेबी बाई से भिन्न नहीं हैं - भाँड तो भाँड ही होता है फिर क्या फर्क पड़ता है कि उसकी फीस सौ रुपए है या सौ करोड़ ?

जय राम जी की ।

२८ मार्च २०१२


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