Jan 24, 2011

'भारत-खोज' का निष्कर्ष

(सन्दर्भ- विकीलीक्स द्वारा दिसंबर २०१० के मध्य में उद्घाटित, राहुल गाँधी द्वारा अमरीकी राजदूत टिमथी को ९-१०-२००९ को लिखे विचार कि 'हिंदू आतंकवाद लश्कर-ए-तैयबा से भी बड़ा खतरा है' । )


प्रिय राहुल बाबा,
पहले हम आपको कभी अपने स्तर पर, और कभी मित्रों के आग्रह पर, शादी के बारे में जानने के लिए पत्र लिखा करते थे । मगर जब से आप 'भारत की खोज' के लिए निकले तब से हमने आपको पत्र लिखना बंद सा कर दिया था क्योंकि भारत की खोज ऐसा अनंत काम है जो कभी खत्म होने वाला नहीं है । उन दिनों तो आपको दाढ़ी बनाने का समय भी नहीं मिलता था । इतिहास में बहुत से लोग हुए जिन्होंने भारत को खोजने में सारी ज़िंदगी लगा दी । कुछ दिनों तो लगा कि अमुक ने भारत खोज लिया है मगर बाद में लोगों ने अपनी-अपनी शोध से यह सिद्ध कर दिया कि जिसे खोजा गया है, वह असली भारत नहीं है । । भारत तो यह है जो हमने खोजा है । कुछ दिनों बाद कोई और महापुरुष अपनी खोज से उसे गलत सिद्ध कर देता है । इस प्रकार भारत की खोज निरंतर चलती रहती है ।

कोलंबस भारत खोजने चला और पहुँच गया वर्तमान अमरीका के पूर्व में हैती द्वीपों में और उसी को भारत मान लिया गया । वह अपने साथ वहाँ के ताँबई रँग के कुछ लोगों को भी ले गया जिन्हें उसने रेड-इंडियन नाम दिया । कुछ लोगों ने विश्वास भी कर लिया मगर कुछ लोगों ने शंका भी की कि सिकंदर का मुकाबला करने वाले, उस समय भी बढ़िया इस्पात बनाने वाले, चीनी बनाने वाले, अष्टाध्यायी लिखने वाले पाणिनी के देश के निवासी ऐसे अधनंगे जंगली जैसे तो नहीं हो सकते । और इसकी पुष्टि तब हुई जब वास्को-डि-गामा वास्तव में भारत से लौट कर गया ।

आज भी इस भारत के बारे में कई विशेषण मिलते हैं- गाँधी का भारत, नेहरू का भारत, इंदिरा का भारत, शास्त्री जी का भारत आदि-आदि । उससे पहले के भी भारत हुए हैं- राम का भारत, कृष्ण का भारत, बुद्ध का भारत, चाणक्य का भारत आदि । जब हम कुछ खोजने जाते हैं तो यह तय है कि हमारे दिमाग में उस वस्तु का कोई स्वरूप होता है । उसी के आधार पर हम उसे ढूँढते हैं । यदि पहले से कोई पृष्ठभूमि नहीं हो तो आदमी खोजने जाए संतरा और उठा लाए गड़तुम्बा ( राजस्थान के रेतीले इलाकों में पाया जानेवाला एक कड़ुआ औषधीय फल ) । इसी तरह यह भी सच है कि इस बड़े काम में कोई दुराग्रह और लालच भी नहीं होना चाहिए । नहीं तो आदमी गुलाबजामुन के भरोसे मींगणे (ऊँट की विष्ठा, जो गुलाबजामुन की शक्ल की होती है ) खा जाता है । तो आपके दिमाग में भी भारत की खोज करते समय कुछ कल्पना तो रही ही होगी ही । अब वह कल्पना क्या थी, किसी को पता नहीं ।

भारत खोजने की योजना में आप सबसे पहले दलितों के घर जाकर खाना खाया करते थे । वैसे तो आप अपने कार्यक्रम को गुप्त ही रखते थे मगर फोटोग्राफरों को पता नहीं कैसे खबर लग जाती थी कि दूसरे दिन ही अखबारों में फोटो और समाचार आ जाते थे । और मजे की बात यह भी कि उस दलित के घर में आपको खिलाने के लिए सब्जी, परोसने के लिए थाली, और बैठने के लिए चारपाई और उस पर बिछाने के लिए चद्दर भी मिल जाती थी । हमारे यहाँ तो यदि कोई बिना बताए आ जाता है तो चाय पिलाने के लिए पत्ती मिल जाती है तो दूध नहीं मिलता और यदि ये दोनों मिल जाएँ तो चीनी नहीं । और यदि ये तीनों मिल जाएँ तो डालने के लिए ढंग का कोई कप नहीं मिलता । इसलिए हमने तो सब से कह रखा है कि यदि ढंग से चाय पीनी हो तो दो दिन का नोटिस देकर आया करो ।

इसके बाद आपने ब्रिटेन के विदेश मंत्री के साथ मिलकर भारत की खोज शुरु की । ठीक भी है, इस देश में बाहर से बहुत से लोग आए- शक, हूण, मुग़ल, तुर्क आदि मगर वे सब इस देश के हवा-पानी में घुल-मिल गए । लेकिन अंग्रेज आए, तीन सौ बरस इस देश में राज किया मगर उन्होंने कभी अपने को इस देश के हवा-पानी में अपने को घुलने-मिलने नहीं दिया । यहाँ का धन-संपत्ति, संसाधन सूँत कर अपने देश ले गए मगर वे कभी भी अपने को यहाँ का नहीं समझ पाए और स्वतंत्रता के बाद अपने देश चले गए । यूँ तो और भी राजाओं के राज्य बड़े थे मगर इस देश का सबसे बड़ा भूभाग जिस एक शासन के नीचे रहा वह अंग्रेजों का था । उन्होंने यहाँ अपनी शिक्षा पद्धति शुरु की । और इसी मायने में वे दूसरे शासकों से अलग थे । अपनी शिक्षा पद्धति और पाठ्यसामग्री में उन्होंने हमें जो पढ़ाया, वह किसी भी प्रकार से इस देश की आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं था । इनसे पहले राजा कोई भी रहा मगर उसके राज्य की सारी प्रजा एक ही थी- धर्म, जाति के भेदों के बावज़ूद । इन अंग्रेजों ने अपना शासन सुदृढ़ करने के लिए प्रजा को धर्मों और जातियों में बाँटा, योजनाबद्ध तरीके से यहाँ के उद्योग-धंधों को नष्ट किया और एक धनवान देश को दरिद्र बना दिया । यहाँ की ग्रामस्वराज की आत्मनिर्भर व्यवस्था को नष्ट किया । और ‘फूट डालो, राज करो’ का खतरनाक सिद्धांत दिया ।

दुनिया में जहाँ-जहाँ भी गोरे लोगों के उपनिवेश रहे हैं वहाँ उन्होंने एक जैसी ही नीति अपनाई । जब भी उन्हें मज़बूरी में किसी देश को छोड़ना पड़ा तो उन्होंने उसके टुकड़े कर दिए । ऐसा भारत ही नहीं एशिया, अफ्रीका के सभी देशों में भी किया । मगर जर्मनी के दो टुकड़े वे अधिक समय तक बर्दाश्त नहीं कर सके । आज भी यदि ध्यान से देखा जाए तो पता चलेगा कि दुनिया के सारे गोरे एक हैं । वे अब आपस में नहीं लड़ते बल्कि अन्य देशों को लड़ाकर अपने आर्थिक और सामरिक हित साधते हैं । पता नहीं, आपने भारत और अंग्रेजों के इस इतिहास के बारे में कुछ अध्ययन किया या नहीं । हमें लगता है, शायद नहीं, अन्यथा आप भारत की खोज में मिलिबैंड को नहीं हमारे जैसे किसी मास्टर को मार्गदर्शक बनाते । अब ऐसे मार्गदर्शन में आपने कौन सा भारत खोज निकाला पता नहीं, पर आजकल आप दीन-दुखियों के घरों में नहीं जा रहे हैं । हो सकता है कि भारत मिल गया । मगर इसके बाद आपने इन दिनों में जो बयान दिए हैं उनके आधार पर हमें लगता है कि आपने कोई और ही भारत खोज लिया है । यह वह भारत तो नहीं है जिसे हम जानते हैं और इतिहास मानता है ।

आपकी भारत की खोज का निष्कर्ष है कि 'हिंदू आतंकवाद लश्कर-ए-तैयबा से भी बड़ा खतरा है' । लगता है कि या तो हमें भारत का गलत इतिहास पढ़ाया गया है या फिर आपको । हमने जो इतिहास पढ़ा उसमें यह कहीं नहीं पढ़ा कि इस देश के राजा इस देश से बाहर गए हों और वहाँ जाकर कत्ले-आम मचाया हो और उस देश के लोगों का जबरन धर्म परिवर्तन करवा दिया हो और उस देश की संपत्ति लूटकर यहाँ ले आए हों । जब कि आज के योरप की सारी समृद्धि का मूल आधार एशिया और अफ्रीका के देशों के धन और संसाधनों की सैंकडों वर्षों की निरंतर और निर्दय लूट है । यहाँ का तख्ते ताउस और कोहीनूर हीरा पता है आजकल कहाँ है ? ब्रिटेन के म्यूजियम में रखी प्राचीन मूर्तियाँ और अन्य दुर्लभ कलाकृतियाँ कहाँ की हैं ?

इस देश पर एक हज़ार वर्षों तक विदेशियों का शासन रहा है । क्या कोई देश इस दुनिया में हैं जिस पर इतने लंबे समय तक विदेशी शासन रहा हो और वहाँ के लोगों ने विद्रोह नहीं किया हो ? आज किस देश में बहुसंख्यकों के अलावा कितने राष्ट्रपति, शासक पार्टी के अध्यक्ष और मंत्री अल्पसंख्यक समुदाय के हैं ? किस मुस्लिम देश में हिंदुओं को इतने अधिकार हैं जितने यहाँ मुसलमानों को प्राप्त हैं ? किस देश में अल्पसंख्यकों की ( विशेषकर हिंदुओं की ) संख्या बढ़ी है ? बल्कि समाप्ति के कगार पर है । किस देश में अल्पसंख्यकों को तीर्थ यात्रा करने के लिए सरकारी सहायता और विशेष पैकेज दिया जाता है ? किस देश में बहुसंखय्क अपने ही देश में अल्पसंख्यकों द्वारा भगा दिए गए हों और उस पर न तो सरकार बोली हो और न ही बहुसंख्यकों ने कोई आन्दोलन किया हो ?

आपको एक उदाहारण बताते हैं, आपको शायद महत्त्वपूर्ण कामों में पढ़ने-सुनने का समय न मिला हो । पाकिस्तान का एक यूसुफ नामक व्यक्ति जर्मनी चला गया और वहाँ जाकर ईसाई बन गया । इसके बाद वह पाकिस्तान लौट आया तो उसे फिर से मुसलमान बनने के लिए बाध्य किया गया और न बनने की स्थिति में जान से मारने की धमकी दी गई क्योंकि इस्लाम में धर्म परिवर्तन की छूट नहीं है । उसे वापिस सुरक्षित जर्मनी ले जाने के लिए योरप के देशों ने मदद की नहीं तो क्या होता, कल्पना करना कठिन नहीं है ? यहाँ से कब कौन गया किसी दूसरे देश का धर्म परिवर्तन करवाने के लिए ? चीन, जापान, कम्बोडिया, लाओस, लंका, म्यांमार आदि में जो बौद्ध धर्म फैला है वह उन्होंने अपनी मर्जी से स्वीकार किया है । वैसे नहीं जैसे योरप, अफ्रीका, भारत में ईसाइयत और इस्लाम फैले हैं । क्या किसी भारतीय राजा ने 'जजिया' जैसा कर लगाया विधर्मियों पर ? आज भी जजिया कर हटाने वाले अकबर को कट्टर मुसलमान काफ़िर मानते हैं । उनके हिसाब से तो जजिया लगाने वाला, बाप को कैद करके और भाइयों को मारकर गद्दी पर बैठने वाला कट्टर औरंगजेब ही सच्चा मुसलमान है । राम ने तो जीतने के बाद किष्किन्धा का राज सुग्रीव को और लंका का राज विभीषण को दे दिया । कृष्ण ने भी कभी कंस, जरासंघ और शिशुपाल के राज पर कुदृष्टि नहीं डाली । पाकिस्तान में आज भी सुन्नी आतंकवादी शियाओं की हत्या कर रहे हैं । भारत के ही एक अभिन्न अंग में देश का झंडा फहराने और सुप्रीम कोर्ट से फाँसी की सज़ा पाए व्यक्ति को फाँसी दिए जाने पर जम्मू कश्मीर के नेता आग लग जाने की धमकी दे रहे हैं । क्या यही है इस देश के धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की उपलब्धि ? और क्यों ? क्या कभी अपने विचार किया ? आप को लोग भारत का भावी प्रधान मंत्री मानते हैं । क्या इसी भाव से आप इस देश का शासन चलाएँगे कि हिंदू आतंकवाद लश्कर-ए-तैयबा से बड़ा खतरा है । अब तक कितने हिंदू आतंकवादी घटनाओं में पकड़े गए हैं ? जब कि मुसलमान आतंकवादी यहाँ से लेकर ग्वांटेनामो तक की जेलों में बंद हैं ।

आज भी अधिकतर हिंदू शांत और ‘सर्व धर्म समभाव’ में विश्वास करने वाले हैं । यदि नहीं होते तो इस देश में इतनी शांति नहीं होती और न ही इतने वर्षों तक इस देश में मुस्लिमों और अंग्रेजों का शासन रह पाता । यदि कुछ हिंदुओं ने सरकार की छद्म धर्मनिरपेक्षता की नीति से कुढ़ कर कोई तथाकथित अतिवादी कदम उठाया है तो अभी तो उन्हें कोर्ट से सजा भी नहीं हुई है और फिर क्या इतने से हिंदू लश्कर-ए-तैयबा के तुल्य हो गए ? आप जैसे भावी प्रधानमंत्री और इतने उच्च राजनीतिक परिवार के सदस्य को तात्कालिक लाभ के लिए इतना अपरिपक्व बयान नहीं देना चाहिए । इतना बड़ा बयान उगलने के बाद निगला भी नहीं जा सकता । आप जिस भारतीय जनता पार्टी को काटने के लिए ऐसे बयान दे रहे हैं उस भारतीय जनता पार्टी को इस देश के बहुसंख्यक समाज ने विवादित ढाँचे को गिराने के कारण ही नकारा है । इससे बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है हिंदुओं के सहनशील, धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील होने का ? विवादित ढांचे को ढहाने की जितनी निंदा यहाँ के हिंदुओं ने की है उसकी हजारवें हिस्से जितनी भी निंदा किसी भी देश के मुसलमान ने बामियान में बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ने और पाकिस्तान में शियाओं पर हमले और तालिबानों द्वारा स्कूलों पर बम डालने और बुरका न पहनने पर किसी महिला नाक-काटने पर की है ?

इस देश की आत्मा को समझिए । दुनिया में यही एक संस्कृति है जो दिल से शांति में विश्वास करती है और कट्टर नहीं है । यदि यह समाप्त हो गई तो यह दुनिया और अधिक बर्बर और खतरनाक हो जाएगी, अनुकरण करने के लिए कोई आदर्श ही नहीं बचेगा । मिली बैंड के मार्गदर्शन में भारत को जानने की बजाय खुले दिमाग से इस देश के प्राचीन साहित्य, दर्शन और अध्यात्म का अध्ययन कीजिए तो आपको एक सम्यक दृष्टि मिलेगी । और यदि आपको किसी अर्जुन सिंह की दृष्टि से या पाकिस्तान की किसी टेक्स्ट बुक से भारत को जानना है तो बात और है । हम अब सत्तर के पेटे में चल रहे हैं, इसलिए कुछ नहीं कहा जा सकता है । कुछ समय निकाल कर हमारे साथ बिताइए । हम विश्वास दिलाते है कि आपको नुकसान नहीं होगा ।

और विकिलीक्स द्वारा उद्घाटित उक्त विचार आपने ९ अक्टूबर २००९ अमरीकी राजदूत टिमथी को ही क्यों लिखे ? उनसे बड़ा ज्ञानी और भारत का हितचिन्तक आपको और नहीं मिला ? क्या अमरीका के विश्व शांति, इस्लामी आतंकवाद और कश्मीर में उसकी भूमिका के बारे में आपको किसी भले आदमी ने कुछ नहीं बताया ?

१८-१२-२०१०

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Jan 19, 2011

चीयर लीडर्स का औचित्य

तोताराम को आने में शायद आज ठण्ड के कारण विलंब हो रहा है । पत्नी मकर संक्रांति के तिल के लड्डुओं पर उसका इंतज़ार कर रही है । हमने उद्घाटन करने की सोची तो कहने लगी- पहले ब्राह्मण को तो खिला दें, फिर खाना । आते ही उसने तोताराम के सामने लड्डू रखे तो हमारी तरफ देख कर बोला- भाभी, कहीं ये लड्डू २-जी स्पेक्ट्रम, कामन वेल्थ गेम्स, आदर्श सोसाइटी या इंडियन प्रीमियर लीग के घोटाले के पैसों के तो नहीं है ? ऐसा दाना सत्ताधारियों को तो पच सकता है मगर तोताराम को नहीं ।

हमने कहा- तोताराम, घोटाले के पैसों से दोनों हाथों से लड्डू खाने का सौभाग्य महान जन-सेवकों के अलावा और किसे मिल सकता है ? हमने तो सेवा कहाँ जीवन भर नौकरी की है । दसों नाखूनों की कमाई है । खा ले, कुछ नहीं होगा । तोताराम ने लड्डू खाना शुरु किया । हमने पूछा- तोताराम, आई.पी.एल. के कमिश्नर चिरायु अमीन और बी.सी.सी.आई. के अध्यक्ष शशांक अत्रे से कल पत्रकारों ने पूछा कि चीयर लीडर्स से क्रिकेट को क्या फायदा हो रहा है तो बेचारे कोई ज़वाब नहीं दे सके । बगलें झाँकने लगे । इस बारे में तेरा क्या ख्याल है ?

तोताराम ने एक छोटा लड्डू पूरा का पूरा मुँह में ठूँसते हुए कहा- तू नहीं समझेगा । इसे बिजनेस की भाषा में वेल्यू एडीशन कहते हैं । एक चीज के साथ और कई चीजें भिड़ा देना । अब बता, मोबाइल फोन बातें करने के लिए होता है फिर उसमें गाने सुनने का क्या मतलब है ? अरे, लोग फोन नहीं करेंगे तो गाने ही सुनेंगे । ज़रूरी बातें तो किसी के पास हैं नहीं फिर भी फोन तो बिकेगा । बातें करने के लिए नहीं तो गाने सुनने के लिए ही सही । टी.वी. या अखबार से पत्रकारों के लिए तो कैमरे वाले फोन का औचित्य समझ में आता है मगर साधारण आदमी के लिए उसका क्या उपयोग है ? फीचर्स बढ़ाते जाएँगे मगर कीमत कम नहीं करेंगे । तू समझता है कि मंदिर में सारे भक्त ही जाते हैं ? नहीं, अस्सी प्रतिशत तो जूते चुराने, जेब काटने और लड़कियाँ छेड़ने जाते हैं । क्रिकेट देखने जाने वाले क्रिकेट कम समझते हैं । उनके लिए तो यह आउटिंग का एक बहाना है । भीड़ और आइसक्रीम और पोपकोर्न मजा लेना होता है । और फिर पैसे हैं तो उनका करें भी तो क्या ? तेरे जैसे तो फ्री में टिकट मिले तो भी नहीं जाते । बता, कामन वेल्थ गेम्स में टिकट नहीं बिकीं तो ग़रीबों के लिए फ्री कर दिया था फिर भी तू क्यों नहीं गया ?


यह खेल तेरे जैसों के लिए नहीं है । यह तो धनवानों का खेल है । अब इतना अधिक क्रिकेट होने लगा कि लोगों की रुचि कम होने लगी तो कुछ तो करना ही था ना, खेल की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए । अब जब वहाँ सुन्दरियाँ नाचेंगी, उछलेंगी तो वे भी देखने चले जाएँगे जिन्हें क्रिकेट और गिल्ली डंडे में फर्क नहीं मालूम । सौंदर्य की भाषा और खेल सब जानते हैं । कोई हारे या जीते, लड़कियों को देखकर पैसे वसूल हो जाते हैं । और यही धंधे की ईमानदारी है कि ग्राहक यह न कहे कि पैसे बेकार गए । पैसे वसूल हो जाने चाहिएँ, चाहे खेल से हों या दर्शन से हों । और फिर मैच के बाद में भी एक और कार्यक्रम होता है रात को । उसकी एक टिकट अस्सी-नब्बे हजार की होती है । जिसमें छुट्टी की दारू मिलती है और सुंदरियों की निकटता भी । देखा नहीं पिछले दिनों, युवराज और श्रीसंत जैसे क्रिकेट खिलाड़ी कैसे लड़कियों पर गिरे पड़ रहे थे । ये ऊँचे धंधों की बातें हैं, तेरे बस की नहीं हैं । तू तो जा, अंदर से एक लड्डू और ले आ ।

हमने कहा- यह तो त्यौहार की इज्ज़त का ख्याल करके बना लिए वरना महँगाई को देखते हुए इस दिन उपवास किया जाना चाहिए ।

बोला- वैसे यदि एक लड्डू और होता तो बातों का आनंद और बढ़ जाता जैसे कि चीयर लीडर्स से क्रिकेट का । खैर, कोई बात नहीं, तेरी जिज्ञासाओं को तो शांत करना ही है । देख इससे रोजगार सृजन भी होता है जैसे कलकत्ते के सोनागाछी और दिल्ली के स्वामी श्रद्धानंद मार्ग पर तलब के मारों के कारण दारू, फूल, इत्र बेचने वालों और भडुओं को रोजगार मिलता है । सब जगह खेती ही देखेगा तो पड़ ली पार ? ये नए ज़माने के रोज़गार हैं । और फिर चीयर्स लीडर्स तो एक प्रतीक हैं, एक भावना हैं, यह कहीं भी हो सकती है, किसी भी रूप में हो सकती है । बात बिना बात ताली बजाने वाले, अखबारों में बधाई सन्देश छपवाने वाले, जन्म दिन पर बधाई देने वाले, पचास साठ किलो का केक काटने वाले, जुलूस निकालने वाले लोकतंत्र के चीयर लीडर्स ही तो हैं । सोमनाथ दादा ने तो संसद में साफ-साफ इन्हें चीयर लीडर्स कह ही दिया था । अब उनके नाम बताने से ही क्या होगा ? अब संसद न चलने देने वाले और वहाँ हल्ला मचाने वाले, फर्नीचर तोड़ने वाले एक अलग मिजाज़ के चीयर लीडर्स ही तो हैं । यदि ये खूबसूरत हों तो और मज़े की बात है ।



किसी कार्यक्रम में छाँट-छाँट कर सुन्दर लड़कियाँ रखी जाती हैं- द्वीप प्रज्ज्वलन के समय मंत्री जी को मोमबत्ती पकड़ाने के लिए, स्वागत में माला पहनाने के लिए, ओलम्पिक में भी पदक देते समय थाली में पदक लेकर चलने के लिए सुन्दर लड़कियाँ ही तो छाँटी जाती हैं । दुकान के सेल्स काउंटर पर यदि सुन्दर लड़कियाँ बैठी हों तो ग्राहक मोल-भाव नहीं करता और मुस्कराहट और शक्ल पर लुटता रहता है । बड़ा अफसर अपनी प्राइवेट सेक्रेटरी गुण नहीं, सुंदरता के आधार पर चुनता है । कई बार तो विज्ञापन में ही लिखा होता है- वांटेड ए प्राइवेट सेक्रेटरी; यंग, प्रेजेंटेबल एंड ब्यूटीफुल । अब क्या मुझसे ही सब कुछ कहलवाएगा ?

राजनीति में चुनाव के समय अमिताभ बच्चनों, युक्ता मुखियों, हेमा मालिनियों, स्मृति ईरानियों, गोविंदाओं, धर्मेंद्रों, शक्ति कपूरों आदि को लाना चीयर लीडरों का सहारा लेना ही तो है । अमरीका में राष्ट्रपति के चुनावों में ‘सारा पालिन’ को लाना भी ऐसी ही हरकत थी वरना उसने तो दुनिया का नक्शा भी ठीक से नहीं देखा है । आजकल फिल्मों के प्रमोशन के लिए हीरो लोग सिनेमा हालों के सामने खड़े होकर हजामत बना रहे हैं यह भी चीयर लीडरी का एक रूप है । जिनके पास ज्यादा पैसा है वे शादियों में बोलीवुड के बादशाहों को नाचते हैं यह भी चीयर लीडरों का एक उपयोग है । और तो और याद कर, हमारे बचपन में राम लीलाओं में नए गानों पर नाचने वाले लौंडे भी तो उस समय के चीयर लीडर्स ही तो थे । राम के राज्याभिषेक में जितने रुपए नहीं आते थे उससे ज्यादा इन लौंडों के नाच में आ जाते थे । सो सभी को धंधा ज़माने के लिए चीयर लीडर्स चाहिएँ । सभी अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार इनका उपयोग करते हैं ।

और फिर जब बल्लेबाज या बालर चीयर लीडर्स के कारण चूक जाता है तो क्रिकेट सच में ही अनिश्चितताओं का खेल बन जाता है और यही तो इस खेल का रोमांच है । और फिर क्रिकेट तो इस देश का धर्म है और धर्म के मामले में सब जायज़ है जैसे मंदिरों में देवदासियाँ या चर्च में नन्स । इससे रुक्ष भक्ति में थोड़ा लालित्य आ जाता है । अब बता, शादी में घोड़े और बैंड बजे की क्या भूमिका होती है ? इसका विवाह के सफल होने या न होने से कोई संबंध है ? मेहनत करने वाले मेहनत करते हैं फिर भी संतान होने पर हिजड़े आते ही हैं । स्कूल कालेजों में मिस फ्रेशर या मिस फर्स्ट ईयर का चुनाव होता है । क्या इसका शिक्षा से कोई संबंध है ? चीयर लीडर्स का होना भी ऐसी ही एक सांस्कृतिक गतिविधि है । इससे अधिक इसके औचित्य के बारे में तुझे और क्या प्रमाण चाहिए ?

हमने कहा- तोताराम, तेरी बात कुछ हद तक मान लेते हैं । दाल में नमक तो चलता है । कहा भी गया है कि बिना नामक के कैसा भोजन मगर केवल नमक तो नहीं खाया जा सकता ना ? बिना पौष्टिक भोजन के केवल नामक खाकर तो वही हालत हो जाएगी कि ....भूके नूं गश आ गया' ।

१४-१-२०११

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महँगाई बढ़ने के 'मन' मोहक कारण

आदरणीय मनमोहन जी,
सत् श्री अकाल । आप महान अर्थशास्त्री हैं इसलिए अर्थ के बारे में जो कुछ कहते हैं उसमें कुछ न कुछ अर्थ अवश्य छुपा होता है । आपने एक बार कहा था- पैसे पेड़ों पर नहीं लगते । ठीक भी है, यदि पैसे पेड़ों पर लगते होते तो किसानों के पास पैसे होते । पैसे तो सत्ता की अमर बेल पर लगते हैं । मोबाइल और कम्प्यूटर में से निकलते हैं । स्पेक्ट्रम और कामनवेल्थ गेम्स में से निकलते हैं, क्रिकेट की फ्रेंचाइजी में से निकलते हैं । पर लोग हैं कि मेहनत मजदूरी में से पैसे निकालने की सोचते हैं । आपने लोगों की पैसे की इस ललक को पूरा करने के लिए नरेगा जैसी योजना चलाई और लोगों के पास इतना पैसा आ गया कि प्याज, दाल, अनाज खरीदने लगे । अब महँगाई तो बढ़नी ही थी । अरे, हजारों वर्षों से आधी और रूखी रोटी खाते आ रहे थे । अब भी अगर वैसे ही काम चलाते रहते तो क्या बिगड़ जाता ?

कहते हैं कि पैसा कमाना सरल है मगर उसे ढंग से खर्च करना आना बहुत मुश्किल है । भारत के इन परंपरागत गरीबड़ों के साथ यही मुसीबत है । जितना कमाते हैं उसका अधिकांश, यहाँ तक कि सारा का सारा खाने में खर्च कर देते हैं । सेठों, नेताओं, बड़े अधिकारियों को देखो, खाने पर आमदनी का दो प्रतिशत भी खर्च नहीं करते । अरे, शरीर तो नश्वर है, इसे पाल कर क्या होगा ? खाए-पिए का क्या है, गले से नीचे गया और मिट्टी । अब सांसदों को देखो, संसद की कैंटीन की बारह रुपए की सस्ती थाली खाकर काम चलाते हैं और इन मूर्खों को होटल का तीस रुपए का डोसा चाहिए, बाजार की सत्तर रुपए किलो की दाल चाहिए ।

उपभोक्ता-संस्कृति का सिद्धांत है कि जितना उपभोग होगा, अर्थव्यवस्था को उतनी ही गति मिलेगी । ठीक है उपभोग करो मगर इतनी तो अक्ल होनी चाहिए कि किसका उपभोग करो । आपने यह तो नहीं कहता कि सारा का सारा खाने में ही खर्च कर दो । पर इनको तो केवल तीन चीजें याद रहती हैं- नून, तेल, लकड़ी । अरे, इस उदारवादी, वैश्विक, मुक्त अर्थव्यवस्था ने कितनी चीजें उपलब्ध करवा दी हैं । मगर उनकी तरफ इन, नरेगा में सौ दिन काम करके चाँदी कूटने वाले, मूर्खों को इतना भी पता नहीं है कि इतने-इतने फीचर्स वाले मोबाइल हैंड सेट आने लगे हैं कि बस कुछ मत पूछो । दिन भर गाने सुनो, फोटो खेंचो, एस.एम.एस. करो, फोन पर ही ईमेल कर दो, खबरें पढ़ लो, एक रुपए से भी कम में देश में कहीं भी तीन मिनट बात करो जब कि एक लिफाफे का पाँच रुपया लगता है और पहुँचने की कोई गारंटी नहीं । कितने सस्ते कम्प्यूटर आ गए हैं, और दिल्ली में तो अब सुनते हैं कि इंटरनेट भी फ्री होने जा रहा है । सारे दिन सर्फिंग करे, ट्विट्टर पर टर्राएँ, फेस बुक पर जाएँ, फ्री में अखबार पढ़ें । और भी इतना कुछ है कम्प्यूटर पर कि बस देखते रहो खाने का तो समय ही नहीं बचेगा । एक से एक बड़े एल.सी.डी. टी.वी. आ गए हैं और उन पर सैंकडों चेनल । चेनल बदलने में ही सारा दिन निकल जाए । और चेनलों पर कैसे-कैसे सुन्दर-सुन्दर देवी-देवता विभिन्न रूपों में प्रकट होते हैं कि देखने से भूख भागे । और फिर दारू हैं, बीड़ी-सिगरेट हैं, कोकाकोला है, क्रिकेट है, चीयर लीडर्स हैं, सिनेमा है, नाच-गाना है, सांस्कृतिक कार्यक्रम हैं, फैशन शो हैं । इन्हें देखो, इनमें पैसा खर्च करो । कुछ मन के लिए भी खर्च करो । नेहरू जी ने एक बार कहा था कि यदि मेरे पास दो पैसे हों तो मैं एक पैसा गेहूँ और दूसरा पैसा गुलाब खरीदने में खर्च करूँगा । मगर ये हैं कि सौ रुपए रोजाना मिलने पर भी सारे के सारे इसी पापी पेट में भकोसने में खर्च करते हैं ।

महँगाई, भ्रष्टाचार और आतंकवाद तो ग्लोबल फिनोमिना हैं इसलिए इनको दूर करने में प्रशासन की शक्ति लगाने की बजाय मीडिया द्वारा जनता में यह चेतना जागृत की जाए कि वह अपने इस अनाप-शनाप पैसे को किस तरह समझदारी से खर्च करे ? जब तक यह मूर्ख जनता समझदार नहीं हो जाए तब तक आप एक काम करिए, इन लोगों को चिदम्बरम जी से एक बजट बनवा कर दे दीजिए कि ये किस प्रकार से अपना पैसा खर्च करें ?

१३-१-२०११

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