Sep 28, 2015

व्हिस्की के अवशेष

  व्हिस्की के अवशेष

आज आते ही तोताराम ने बड़े उत्साह से एक समाचार सुनाया- मास्टर, अब इस दुनिया की सभी समस्याएँ सुलझने वाली हैं और इसके बहाने सब के अच्छे दिन आने वाले हैं |

हमने कहा- सेवकों को चिढ़ाने के लिए तू हमेशा 'अच्छे दिन' को बीच में क्यों लाता है ? और किसी तरीके से भी तो बात कही जा सकती है | कह दे महँगाई, बेकारी  कम होने वाली है,अपहरण,चोरियाँ और वहां दुर्घटनाएँ कम होने वाली हैं |

तोताराम ने हमें रोकते हुए कहा- मुझे आगे भी तो कुछ बोलने दे |मैं कह रहा था कि अब इंग्लैण्ड के वैज्ञानिकों ने व्हिस्की के अवशेषों से कार चलाने की तकनीक विकसित कर ली है |

हमने कहा- हमारी तरफ से कार हवा से चले या सरसों के तेल से |हमारे पास कौन सी कार है |और मान ले कहीं कबाड़ में फेंकी हुई कोई कार उठा भी लाएँ तो करेंगे क्या ? हमें कौनसा कहीं जाना है |और अगर कभी निकल भी पड़े तो ज्यादा से ज्यादा जिला पुस्तकालय | और इस बीच में भी किसी वीर जाति के युवक के बाइक भिड़ा देने का खतरा रहेगा | इसलिए यही चबूतरा, तू और चाय भले | भारत की औसत आयु तो जी चुके |अब तो बोनस चल रहा है और फिर इसमें कौन सा तीर मार लिया, तोताराम | व्हिस्की के तो अवशेष ही क्या, 'बस नाम ही काफी है' | ड्राइवर को खाली बोतल दिखा दो तो उसकी कार की स्पीड बढ़ जाती है |ये विदेशी लोग दारू बनाने में भी इतने नाटक करते हैं जैसे चाँद पर कोई अंतरिक्ष यान भेज रहे हों |तो फिर उनकी व्हिस्की का अवशेष भी तो विशेष ही होगा | 

बोला- लेकिन लोग भी तो विदेशी माल के दीवाने हैं अन्यथा तकनीक की अपने यहाँ भी कौन सी कमी है | लोग बिना गाय, भैंस के दूध और घी का धंधा चलाते हैं | बिना भवन, कॉलेज के सीधे-सीधे डिग्री बाँटते देते हैं | बीस-तीस हजार के विदेशी रिवाल्वर जैसे  एटा, इटावा के कट्टे की पाँच हजार में होम डिलीवरी दे देते हैं |  दो मिनट मैगी से भी तेज़ | जैसी चाहे- व्हिस्की, रम, जिन, बोद्का या शैम्पेन माँगो;  दो मिनट में स्पिरिट मिलाकर, लेबल चिपकाकर फटाफट दे देते हैं |मगर कोई चांस तो दे |
कल ही एक सज्जन मिले थे |बता रहे थे कि अपने झुंझुनू जिले के महनसर में एक ठाकुर साहब ऐसी दारू बनाते थे कि पानी के एक ड्रम में उस दारु की एक सींक मिला दो; बस काफी है | उसी के अवशेषों के बल पर आज तक इस देश का लोकतंत्र चल रहा है | किसी चुनाव क्षेत्र में ले जाकर ज़मीन में गाड़ दो तो मतदाता टुन्न होकर जिसे कहो वोट दे देते हैं | ऐसी दारू की पूरी बोतल तो पंचायत से लेकर सबसे बड़ी विधायिका तक के सभी माननीयों के लिए इस पूरी शताब्दी तक पर्याप्त है |

तोताराम ने हमारे चरण-कमल पकड़ते हुए कहा- भ्राता श्री, छोड़िये व्यर्थ की बातें |यदि जिंदा हों तो आप तो उन ठाकुर साहब का पता बताइए |

 

Sep 25, 2015

मुसलमानों का उद्धार

  मुसलमानों का उद्धार

अब तक तोताराम हिंदुत्त्ववादियों की आलोचना-निंदा किया करता था कि ये लोग मुसलमानों से घृणा करते हैं, उन्हें पाकिस्तान भगा देना चाहते हैं | बयानों को देखते हुए तोताराम की बात को काटने के लिए हमारे पास कोई तर्क भी तो नहीं था |

दो दिन पहले समाचार पढ़ा-संस्कारित करने के लिए हरियाणा के मेवात इलाके के फिरोजपुर में देश भर के मुसलमान गौपालकों का एक अखिल भारतीय सम्मलेन किया जा रहा है |हमें बड़ी ख़ुशी हुई | जैसे ही तोताराम आया हमने अखबार उसके सामने रखकर कहा- कि तू जिनकी आलोचना किया करता था वे किस तरह सर्व धर्म और सर्व संप्रदाय समभाव से अपने मुसलमान भाइयों को संस्कारित करने की सोच रहे हैं |

बोला- लगता है,  कोई हिन्दू गाय पालता ही नहीं ?  इसीलिए तो आज तक कोई हिन्दू गौपालक सम्मेलन आयोजित नहीं किया गया | 

हमने कहा- वे तो प्राचीन काल से गाएं पालते-पालते इतने संस्कारित हो चुके हैं कि उन्हें फिर संस्कारित करने की आवश्यकता नहीं है |  वे अब गौपालन की बजाय गौसेवा करते हैं |मुसलमान अभी इतने संस्कारित नहीं हैं कि उन्हें गौशाला अध्यक्ष का पद या गौसेवा का काम दिया जाए | 

और इसके पीछे अपने पिछड़े मुसलमान भाइयों की आर्थिक स्थिति सुधारने का भी महान उद्देश्य छुपा हुआ है |तुझे पता होना चाहिए कि एक गाय अपने सारे जीवन में अपने पालक को २५ लाख रुपए कमा कर देती है |अब यदि विदेश से काला धन नहीं भी आता है तो कोई बात नहीं |एक गाय अधिक से अधिक २५ साल जीती होगी |इस तरह एक गाय मतलब एक लाख रुपया प्रतिवर्ष | एक मुसलमान पाँच गायें पाले और पाँच लाख रुपया प्रति वर्ष कमाए | सड़कों पर गायों फिरते रहने की समस्या भी ख़त्म |और फिर गाय के हर अंग में किसी न किसी देवता का वास है सो पुण्य फ्री में |

बोला-- तो फिर हर हिन्दू विशेषरूप से विश्व हिन्दू परिषद के सदस्य और स्वयंसेवक दो-दो,चार-चार गायें क्यों नहीं पालते ?  

हमने कहा- हम इतने स्वार्थी नहीं है | हम पहले अपने पिछड़े भाइयों का कल्याण करना चाहते हैं |

बोला- तो एक काम तो किया ही जा सकता है कि सरकार गौशालाओं का अनुदान बंद कर दे और प्रति गाय एक लाख रुपए प्रतिवर्ष के हिसाब से आमदनी मानते हुए उनसे टेक्स वसूले | पुण्य को टेक्स फ्री किया जा सकता है | 

इससे सरकार को जनसेवा के लिए इतने अतिरिक्त संसाधन मिलेंगे कि हमें किसी देश के सामने निवेश के लिए हाथ नहीं  फैलाना पड़ेगा  | 

हमने कहा- तोताराम, यदि हमारे वश में होता तो हम तुझे देश का वित्तमंत्री बना देते |लेकिन यह पद इतना महत्त्वपूर्ण है कि सुब्रह्मण्यम स्वामी तक आस लगाए बैठे हैं |बेचारे को आश्वासन (पता नहीं किसने ) भी दे दिया और अब कोई पूछता नहीं |




Sep 21, 2015

वर्तनी-विवाद

  वर्तनी-विवाद   

आज आते ही तोताराम हमारे सामने एक लिफाफा रखते हुए बोला- देखा, अभी-अभी 'विश्व हिंदी सम्मेलन' में सौ-दो सौ करोड़ को बत्ती लगाकर, हिंदी का हल्ला मचाकर निबटे हैं और यह 'हिंदी की हिंदी' नहीं, आज तेरे लघु भ्राता का जुलूस निकल गया |

हमने उसके हाथ से लिफाफा लेकर देखना चाहा तो कहने लगा- बस, यह समझ ले कि किसी सरकारी या अर्द्ध सरकारी विभाग से आया है | पते में मेरा नाम लिखा है- टोटाराम  |मैंने ज़िन्दगी भर पूरा टेक्स चुकाया, कोई गलत बिल बनाकर भुगतान नहीं उठाया, कभी स्कूल का एक कागज़ या चाक तक घर नहीं लाया | और मुझे ही लिख दिया टोटाराम | क्या मेरे कारण ही इस देश में टोटा आ गया ? अरे, खेतों में बिजली नहीं और नेता जी के घर पर बीस-बीस ए.सी. चल रहे हैं- उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता |आठ लाख की घड़ी और चौबीस हजार के जूते पहनने वाले तथाकथित किसान नेता अपनी कॉलोनी काट चुके खेत पर फसल खराबे का मुआवजा उठा रहे हैं लेकिन कहलाते हैं जन-सेवक | 

हमने कहा- बन्धु, हो सकता है संबंधित विभाग ने तुम्हें 'टोटाराम' लिख कर गरीब होने का प्रमाण-पत्र दे दिया हो जो आगे चल कर किसी सरकारी योजना के लाभ का आधार बने | फायदा ही है | 
बोला- सरकार का इस बारे में गणित साफ़ है |अल्प संख्यक भले ही अढाई लाख रुपए वार्षिक से कम आय का प्रमाण-पत्र देकर बच्चों की पढ़ाई के लिए बिना ब्याज ऋण पाले लेकिन ब्राह्मण को एक लाख रुपए वार्षिक से कम होने पर भी बच्चों को पढ़ाने के लिए कम ब्याज पर भी ऋण नहीं मिलेगा | खैर, कर्ज़ा न दें, नाम की वर्तनी तो सही लिखें  | 

हमने कहा- लेकिन वर्तनी से क्या फर्क पड़ता है ? लड् डू में ह्रस्व उ लगा या दीर्घ- लड् डू तो लड् डू ही रहेगा |

कहने लगा- तो फिर यह 'मीणा/मीना विवाद क्या है ?

हमने कहा- यह वर्तनी का विवाद नहीं है | कोई मीणा लिखता है तो कोई मीना | और कोई मिना लिख दे तो भी न तो परीक्षा में नंबर कटते हैं और न ही तनख्वाह कम मिलती है |वैसे इसमें किसी अधिकारी या पार्टी को दोष देना उचित नहीं है |यह सारी गलती अंग्रेजों की है जिनकी लिपि में ण,ध,ढ,ढ़,ड़,ठ,त,ञ,ङ आदि ध्वनियाँ हैं ही नहीं, और न ही अ,आ,इ,ई,उ,ऊ स्वरों के लिए भी कोई निश्चित चिह्न |इसलिए ये सब चक्कर पड़ जाते हैं | यह शब्द 'मीणा' है और देवनागरी में 'मीणा' ही लिखा जाता है |किसी ने रोमन में लिखा तो mina/meena के अलावा और क्या लिखता ? लगता है, बात कुछ नहीं, किसी खुचड़ बाबू की गलती से यह तमाशा हुआ है |

बोला- वैसे 'मीणा' को 'मीना' लिखने में भी कोई गलती नहीं है क्योंकि मूल शब्द है- मीन | मीन का मतलब है -मत्स्य प्राचीन काल में मीणा राजाओं के ध्वज पर 'मीन' या 'मत्स्य' का निशान होता था | मीणा तो तद्भव है | 'मीना' तत्सम के अधिक निकट होने से अधिक शुद्ध है |

हमने कहा- शब्द का झगड़ा कहीं नहीं है | लाभ मिले तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य  अपने नाम के आगे 'महादलित' लिखने को तैयार हैं |

वैसे मीना कुमारी ने तो कोई लाभ नहीं उठाया |




 

Sep 19, 2015

ज्ञान-पिपासु

  ज्ञान-पिपासु 

विदेशों के कई समाचार पढ़ने को मिलते रहते हैं कि नब्बे वर्ष की एक महिला ने बीस कोशिशों में मेट्रिक की परीक्षा पास की, एक महिला ने द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लेने के लिए अपनी डाक्टरी की पढ़ाई बीच में छोड़ दी और अब आगे की पढाई पूरी करने के लिए फिर कॉलेज में प्रवेश लिया है | जब प्रौढ़ शिक्षा शुरु हुई थी तो अपने यहाँ भी बहुत से वृद्ध रात्रि पाठशाला में जाने लगे थे | हमने और तोताराम भी मध्याह्न भोजन के चक्कर में जुलाई में प्रवेशोत्सव में गए लेकिन पार नहीं पड़ी |

आज कल तो खैर, विश्व विद्यालय ही डिग्रियां बेचने लगे और नेता लोग ऐसे लोगों की  सरकारी मास्टरी में भर्ती भी कराने लगे तो न पढ़ने की ज़रूरत रही और न ही नौकरी की फ़िक्र | दो-दो साल की तनख्वाह अग्रिम दो, डिग्री और नौकरी लो | बी.एड. का यह हाल है कि फीस दो और प्रशिक्षित शिक्षक बन जाओ | प्रशिक्षु कोई और नौकरी कर रहा है और कॉलेज के पास कक्षाएँ लगाने के लिए भवन ही नहीं |दोनों को बिना हर्र फिटकरी अच्छा रंग आ रहा है |

आज जब हम और तोताराम सुबह-सुबह घूम कर आ रहे थे तो एक बालक फ्रेंच कट दाढ़ी में स्कूल ड्रेस में आता दिखा | हमने तोताराम से कहा- बन्धु, क्या तुम्हें यह महानायक जैसा नहीं लग रहा ?

बोला- लगता तो वैसा ही है लेकिन उन्होंने भले ही वरिष्ठ नागरिक बनने के बाद फिल्मों में जवानी से भी ज्यादा इश्किया हरकतें की हैं लेकिन कभी किसी फिल्म में निक्कर नहीं पहना और धर्मेन्द्र या सलमान की तरह कमीज़ भी नहीं उतारी तो फिर अब निक्कर क्या पहनेंगे ?

हमने कहा- फिर भी पूछने में क्या हर्ज़ है ?

आगे बढ़कर तोताराम ने नमस्ते की और पूछा - बेटे, तुम्हारी वेशभूषा तो विद्यार्थी जैसी है लेकिन दाढ़ी अमिताभ बच्चन जैसी  है | क्या तुम महानायक अमित जी तो नहीं है ?

बच्चा बोला- और क्या तुम्हें अनुपम खेर लगता हूँ ? दाढ़ी तो अब किसी भी हाल में नहीं कटा सकते क्योंकि यदि कटा दें घर वाले ही नहीं पहचानेंगे |और निक्कर पहनकर स्कूल में इसलिए जा रहे हैं कि हम अब भी कला के जिज्ञासु हैं |ज्ञान कभी ख़त्म नहीं होता |और हमारा तो धंधा ही ऐसा है कि नए से नए लटके न करो तो काम नहीं मिलता |
हम तो स्कूल जा रहे हैं डांस और एक्टिंग की नई टेकनीक सीखने के लिए | 

हमने कहा- लेकिन अब तो अखबारों में स्कूलों के विज्ञापन आने बंद हो गए, प्रवेशोत्सव समाप्त हो चुके |मतलब कि सीज़न बीत गया |

महानायक बोले- नहीं,  अभी तो आलिया भट्ट ने डांस और एक्टिंग टीचर बनने की इच्छा भर जताई है | और उसके तत्काल बाद हमने उसके विद्यार्थी बनने की इच्छा ज़ाहिर कर दी है |क्योंकि चालू होते ही तो लाइन लग जाएगी |इसलिए निराशा से बचने के लिए हम अभी से लाइन में लगने के लिए जा रहे हैं |

तोताराम ने बात का सिरा पकड़ा और महानायक से प्रश्न किया- लेकिन लाइन तो वहीं से शुरु होती है जहां आप खड़े हो जाते हैं |

बोले- ये सब 'अच्छे दिनों' वालों की तरह जुमले हैं | ज़िन्दगी की असलियत कुछ और होती है |जैसे जीतने वाली पार्टी का पूर्वानुमान लगाकर दूरदर्शी और अनुशासित सिपाही नेताओं की आत्मा समय से पूर्व 'आवाज़' दे देती है |इसलिए हम भी धंधे में बने रहने के लिए तकनीक में पिछड़ना नहीं चाहते |


हम दोनों सोच रहे थे- क्या नितांत फ़िल्मी अनुभवहीन लोगों के लिए भी एडमीशन का कोई चांस हो सकता है ?

Sep 15, 2015

तोताराम के सीने का नाप

  तोताराम के सीने का नाप 

आज तोताराम अपने नियत समय से कोई दो घंटे विलंब से प्रकट हुआ | एक बड़ा-सा थैला उसकी पीठ पर लदा हुआ था | आते ही उसने थैला बरामदे में रखा और उसमें से सामान निकालने लगा- लोहे और कपड़े के गज और मीटर , लकड़ी के दो तीन फुट, खेतों में पैमाइश करने वाली ज़रीब जिसका आजकल के बच्चे क्या बड़े तक नाम नहीं जानते, उपयोग और प्रत्यक्ष दर्शन तो दूर की बात है |और भी न जाने क्या-क्या |

हमने पूछा- क्या कोई अजायबघर खोल रहा है या फिर कबाड़ी का धंधा शुरु कर दिया है ?

बोला- तुझे धंधे की पड़ी है और यहाँ जान पर बन आई है |

पूछा- क्यों क्या किसी आतंकवादी संगठन ने तुझे मारने जितना महत्त्वपूर्ण समझ लिया है या वित्त मंत्री ने बढ़ा हुआ छः प्रतिशत डी.ए. वापिस ले लिया है ?

कहने लगा- ये सब बकवास छोड़ और नापने के इन सभी यंत्रों से मेरा सीना नाप |

हमें हँसी आ गई | पूछा-क्या तेरे सीने के साइज़ से इस देश के विकास का कोई संबंध है ? तेरा सीना तो वैसे ही २८ इंच का है अर्थात 'बिलो नार्मल'  | पता नहीं तुझे नौकरी के  समय मेडिकल में किसने पास कर दिया ?

बोला- नौकरी तो अब पूरी हुई और पेंशन के लिए मात्र जीवित होना ही  पर्याप्त है, भले कोमा में ही सही |हस्ताक्षर करने लायक नहीं रहेंगे तो अँगूठा लगवा लिया जाएगा जिसके प्रिंट पहले से ही सरकार के पास हैं | लेकिन जिस तरह की बातें सुन रहा हूँ उसको देखते हुए तो यह जीवन ही खतरे में पड़ता लगता है | 

अब तो हमें लगा- वास्तव में ही कोई गंभीर बात है |खोद-खोद कर पूछा तो कहने लगा- एक नेता ने कहा है कि वे ५६ इंच के सीने को ५.६ इंच का कर देंगे |मेरा सीना तो २८ इंच का ही है यदि इस हिसाब से सिकोड़ा गया तो २.८ इंच का ही रह जाएगा |मात्र इतने से सीने से क्या जीवित रहना संभव हो पाएगा ?क्या कहीं कुछ हो तो नहीं गया है ?
ज़रा नाप कर तो देख |

हमने फीता लिया और नापकर कहा- ७०

तोताराम का मुँह खुला का खुला रह गया, बोला- क्या ? ७0 ? मैं क्या कोई सत्ताधारी दल  का  मलाईदार  विभाग का  मंत्री बन  गया  हूँ जो  मेरा सीना अचानक २८ के ७० हो जाएगा ? ला दिखा |लगता है कोई गड़बड़ है |

उसने फीते को उसी  जगह  से पकड़ते  हुए  उलट पलट कर देखा और बोला- एक ज़रा सा नाप नहीं लिया जाता |पता नहीं इतने साल बच्चों को क्या पढ़ाया  होगा ? अरे, यह तू इंच नहीं, सेंटीमीटर वाली साइड से देख रहा है  २८ इंच का ७० सेंटीमीटर नहीं तो और क्या दिखेगा ? यह ७० इंच नहीं, ७० सेंटीमीटर है अर्थात २८ इंच | मतलब न घटा, न बढ़ा | सब सही सलामत है |

हमने कहा- और नहीं तो क्या ? और जो तूने समझा वह तथ्य नहीं, नेता का एक जुमला मात्र था जैसे- काले धन के १५ लाख रुपए या अच्छे दिन या फिर बेटी बचाओ |

तोताराम ने एक लम्बी साँस ली और बोला- जान बची |अब इसी ख़ुशी में चाय तो मँगवा  ले |और याद रहे मोदी जी वाली नहीं, एकदम साधारण, सामान्य, हमेशा जैसी |




Sep 14, 2015

रोटी की भाषा बनाम जीवन की भाषा

रोटी की भाषा बनाम जीवन की भाषा

जन्म से पूर्व से न भी मानें तो, जन्म के बाद से तो निश्चित रूप से शिशु अपने आसपास के व्यक्तियों की बातें, अन्य विभिन्न जीवों की आवाजें और विविध ध्वनियाँ सुनता और समझता रहता है |सुनते समय वह उन्हें देखता भी है और फिर उनके अनुकरण पर स्वयं भी संबंधित ध्वनि-अवयवों का सही उपयोग करते हुए, वांछित उतार-चढ़ावों के साथ उसका उच्चारण करने का प्रयत्न भी करता है |उनके अर्थों और भंगिमाओं को भी समाहित करता है |यह उसके जीवन की भाषा है जिसमें वह सभी अभिव्यक्तियों को समझता है और खुद को भी अभिव्यक्त करता है |उसके सुख-दुःख, उल्लास, अवसाद, संकेत, व्यंजना सभी उसके संवाद के व्यक्त और अव्यक्त अंग बनते चले जाते हैं |यह उसकी अभिव्यक्त का एक संपूर्ण और लगभग सही रूप होता है |

इसके बाद वह अपने विद्यार्थी जीवन में विभिन्न विषयों की शब्दावली और उसका उपयोग सीखता है |इसके बाद वह इस ज्ञान से अपना जीविकोपार्जन करता है |इसके दौरान वह विभिन्न प्रकार के लोगों से इसी सिलसिले में संवाद भी करता है |इस प्रकार उसकी भाषा का विस्तार होता चलता है |कभी-कभी वह अपने ज्ञान वर्द्धन, व्यापार, जीविका के लिए अन्य भाषा के संपर्क में आता है |पहले यह सभी के साथ नहीं होता था क्योंकि व्यक्ति का क्षेत्र अपने आसपास तक ही सीमित होता था |इसलिए एक भाषा से ही उसका काम चल जाता था |

पहले भी विद्वान लोग, अन्य भाषाओं में संचित ज्ञान  को प्राप्त करने और उसका लाभ अपने समाज को पहुँचाने के लिए कई-कई भाषाएँ सीखते थे |बहुभाषा-भाषी विद्वानों द्वारा विश्व में ज्ञान का प्रचार-प्रसार हुआ |भारत में इस्लाम के आगमन से पूर्व भी अरब देशों और उनके माध्यम से भारत का मध्य एशिया और योरप  से  संपर्क हुआ और ज्ञान का आदान-प्रदान हुआ |चीन आदि देशों से भी बहुत से जिज्ञासु और विद्वान भारत में आए और उनके माध्यम से भारत और पूर्वी देशों में बौद्ध धर्म, दर्शन और ज्ञान-विज्ञान का आदान-प्रदान हुआ |उस समय के विद्वान प्रायः बहुभाषी हुआ करते थे |इसके बाद योरोपीय देशों से सीधा संपर्क और फिर उनके यहाँ उपनिवेश स्थापित होने के कारण उनके प्रशासन तंत्र और व्यवस्था में  जीविका और ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश के लिए उनकी भाषाओं का यहाँ प्रचार हुआ जिनमें अंग्रेजी प्रमुख थी |इससे भारत का सीधा विस्तार योरप में भी हुआ |फलस्वरूप दोनों ही पक्ष लाभान्वित हुए |

इतना होने के बावजूद हमारे लिए अन्य भाषाएँ मात्र ज्ञान और जीविका की भाषाएँ रहीं |  मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषा या यहाँ स्थापित हो चुके विदेशी शासक की भाषा जानने वाले भी अपना जीवन अपनी भाषा में ही जीते थे और शेष समाज के साथ अपनी मातृभाषा में ही संवाद करते थे |मुग़ल काल में अरबी, फारसी आदि भाषाएँ जानने वाले भारतीय हिन्दू और मुसलमान सभी की जीवन की भाषा अपनी मातृभाषा ही रही | इसप्रकार किसी अन्य  भाषा ने कभी हमारे जीवन, संस्कृति, समाज, शिक्षा, दर्शन और मूल्यों को प्रभावित नहीं किया |इसलिए एकाधिक भाषाएँ जानने के बावजूद हम अपनी भाषा, समाज,संस्कृति और देश से विच्छिन्न नहीं हुए |

अंग्रेजों के शासन काल में एक विशेष परिवर्तन आया या उन्होंने सायास किया या यहाँ के पढ़े-लिखे लोगों ने अपने भौतिक स्वार्थों, नौकरी, हीनभावना आदि के कारण अतिरिक्त उत्साह से अपनाया |अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति और पाठ्यक्रम ही शुरू नहीं किए बल्कि एक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद भी स्थापित किया जिसके तहत  भारत के समस्त ज्ञान,भाषा,संस्कृति को, योरप और विशेषकर ब्रिटिश ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति और नस्लीय श्रेष्ठता आदि की तुलना में निम्नतर सिद्ध किया गया |तत्कालीन व्यवस्था में अपने आर्थिक, सामाजिक, शासकीय रुतबे को बढ़ाने के लिए उस समय के समृद्ध और शिक्षित लोगों ने अंग्रेजी भाषा, सभ्यता-संस्कृति को पूरी लगन और मन से अपनाया तथा जहाँ-जहाँ तक उनके हाथ और प्रयत्न पहुंचे, इसे स्थापित किया |

स्वाधीनता के बाद होना यह चाहिए था कि हम इस देश की सभी भाषाओं में समस्त ज्ञान-विज्ञान का अनुवाद करते और सभी को उनकी मातृभाषा में सर्वोच्च ज्ञान प्रदान करते | विश्व की अन्य  भाषाएँ भी सिखाते जिससे वे अपने ज्ञान का विस्तार करते और सभी प्रकार से स्वयं भी लाभान्वित होते और देश को भी लाभान्वित करते लेकिन ऐसा नहीं हुआ |ज्ञान की एक मात्र  भाषा अंग्रेजी को मान लिया गया और सभी भारतीय भाषाओं को ज्ञान और सम्मान दोनों के लिए अयोग्य  करार दे दिया गया |

अब स्थिति यह है कि लोग अपनी उन्नति और बेहतर रोजगार के लिए कोई भारतीय भाषा नहीं बल्कि अपने बच्चो को अंग्रेजी तथा  कोई अन्य विदेशी भाषा सिखाना चाहते हैं |बड़ी कंपनियों के बड़े अधिकारियों का तो यह हाल है कि उनके बच्चे ऐसे तथाकथित बड़े स्कूलों में पढ़ते हैं जहाँ कोई भी भारतीय भाषा नहीं पढ़ाई जाती |अपने घरों में वे अंग्रेजी  का ही प्रयोग करते हैं |और इस प्रकार अपने बच्चों के एक बहुत ही उज्ज्वल भविष्य का सपना देखते हैं |लेकिन इस सारे प्राणायाम के बावजूद न तो वे बच्चे बहुत योग्य निकल रहे हैं, न ही उनमें सामाजिकता विकसित होती है, और न ही उनका अपने माता-पिता और परिवार के अन्य लोगों से कोई जुड़ाव बन पा रहा है | संस्कृति तो उनकी कोई है ही नहीं | वस्त्रों, फिल्मों और नए-नए मोबाइलों के अतिरिक्त उनके पास कोई विषय ही नहीं है |जीवन से भी कोई बहुत संतुष्ट हैं |कुल मिलाकर उनका जीवन बहुत एकांगी और कुंठित है |कहें तो, वे जीवन जी ही नहीं रहे हैं |इस नकली जीवन के चक्कर में वे असली जीवन से परिचित ही नहीं हो पाए | क्योंकि उनके पास जीवन की भाषा  ही नहीं थी |

उनके अभिभावकों ने एक बेहतर आर्थिक भविष्य के लिए अंग्रेजी सीखी लेकिन उनके पास अपनी एक भाषा थी, एक संस्कृति थी, एक पारिवारिक संबंधों की परंपरा थी |ये अभिभावक अपने बहुभाषी  ज्ञान, पारिवारिक संबल और संस्कृति के बल पर ठीक-ठाक नौकरियों तक पहुंचे, विदेश भी गए, आरामदायक जीवन भी जी रहे हैं |ऐसे में वे सोचते हैं कि यदि उनके माता-पिता अंग्रेजी में पढ़े होते, कई भाषाओं का बोझ नहीं रहा होता तो शायद वे आकाश के तारे तोड़ लाते |इसलिए वे अपने बच्चों को अंग्रेज बनाना चाहते हैं |फिर यह अंग्रेजी चाहे- yes, no, thank you, very good, bloody, bastard, get out तक ही हो लेकिन भारतीय भाषाओं से दूर रहें |क्योंकि उनके  जीवन में जो कुछ कमी रह गई है वह भारतीय जड़ों के कारण ही है |वे हर तरह से उससे दूर जाना चाहते हैं और अपने बच्चे की समस्त शक्ति अंग्रेजी सीखने और अंग्रेजी जीने में ही लगाना चाहते हैं |

यह सच है कि अधिकतर विद्वान,वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ एक से अधिक भाषाएँ जानते हैं और वे बहुभाषी होने के कारण एक भाषी से अधिक सक्षम होते हैं | पता नहीं, प्रवासी भारतीय बच्चे कब पूरी तरह से अमरीकी या अंग्रेज बनेंगे लेकिन उनके भारतीय संस्कृति, अपनी भाषा और जड़ों से उखड़ने का काम तो लगभग पूरा हो चुका है |हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भले ही हम हजार वर्षों तक कहीं विदेश में रह लें लेकिन हमें माना तो अपनी नस्ल के कारण भारतीय ही जाएगा |

यदि अंग्रेजी या कोई अन्य भाषा सीखने से हमारे लिए ज्ञान और समृद्धि के द्वार  खुलते हैं तो उसे सीखने में कोई बुराई नहीं है लेकिन वह रहेगी हमारे लिए आदेश लेने और देने की भाषा ही |जीवन मात्र आदेश लेना और देना ही नहीं है |जीवन तो सम्पूर्ण रूप से एक दूसरे के कहे और अनकहे भाव लोक को समझना और उसके जीवन में शामिल होना है | और यह किसी अन्य भाषा में नहीं हो सकता |हम रोटी के लिए जीवन को न छोड़ें |रोटी ज़रूरी है लेकिन इतनी भी नहीं उसके लिए जीवन को ही भुला दिया जाए |

किसी को भी उसकी अपनी भाषा अभिव्यक्ति का वह भाव लोक प्रदान करती है जिसे मात्र शब्द और अनुवाद व्यक्त नहीं कर पाते |राजस्थान में कहावत है- मेऊ तो बरस्या  भला, होणी हो सो होय |अर्थात बरसात होना शुभ है जब कि ब्रिटेन में (अंग्रेजी में ) 'रेनी डेज़' परेशानी का समय माना जाता है |वहाँ 'सन्नी डेज़' सुख का समय है |हमारी भाषा के बिम्ब, मुहावरे, कहावतें, कविताएँ, दोहे, शे'र कुछ शब्दों में ही वह बात समझा देते हैं जिसके लिए हमें अन्य भाषा में बहुत से शब्दों की ज़रूरत पड़ेगी फिर भी बात अधूरी रह जाएगी |ग़ालिब के एक शे'र का संकेत 'कौन जीता है...', या 'आँखों में तो दम है' कह देता है वह किसी विदेशी भाषा में हम एक पैराग्राफ में भी नहीं कह सकते |यह है अपनी भाषा की व्यंजना |

पेट के लिए भाषा, संस्कृति छोड़ देने की मज़बूरी या लालच आज सभी देशों में और समाजों में दिखाई दे रहा है |इसलिए जिनकी भाषा अंग्रेजी है वे भी जीवन की भाषा वाली अंग्रेजी से दूर होते जा रहे हैं |आज सभी देशों और समाजों में जीवन की भाषाएँ समाप्त हो रही हैं | शेष है तो केवल नौकरी की भाषाएँ जिनमें  आदेश लिए और दिए जा रहे  हैं |कहीं व्यक्ति-व्यक्ति के बीच सच्चा और दिली संवाद नहीं है |सुख-दुःख में शामिल होने वाली भाषा न पढ़ी जा रही है, न बोली जा रही है |वे ही रटे-पिटे , अर्थ खो चुके शब्द हैं जिनसे किसी का कोई जुड़ाव नहीं हो पाता |हम जीवन की भाषा खोते जा रहे हैं इसलिए जीवन भी हमारे हाथों से फिसलता जा रहा है | सभी देशों के विचारवान लोगों को जीवन की भाषा, संस्कृति, परिवार और सामाजिकता खतरे में नज़र आ रही है |जीवन की  भाषा के अभाव में लोग एक भाषी होते हुए भी सही तरह से संवाद तक नहीं कर पाते |इसी कारण समस्या को समझना और समझाना मुश्किल होता जा रहा है |इसलिए छोटी-छोटी बात पर गुस्सा जाते हैं और सामान्य रूप से सुलझाई जा सकने वाली समस्या भी बड़ा विकट रूप ले लेती है |

इसलिए ज़रूरी है कि अपनी आवश्यकताओं को इतना न बढाएं कि उनकी पूर्ति के लिए दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ जाएं |जीवन, वस्तुएँ जुटाने या जीने की तैयारी का नाम नहीं है |जीवन हर पल जीने के लिए है और शांति और संतोष से जीने के लिए है |
तुलसी कहते हैं-
बिनु संतोस न काम नसाहीं |
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं |

इसलिए सायास समय निकाल कर जीवन और उसकी भाषा से जुड़ना ज़रूरी है  |पिछली पीढ़ी के लोग कोई सुपर मैन नहीं थे जो कई भाषाएँ सीख लेते थे और नौकरी के बाद जीवन में भी लौट आते थे |जीवन की यह भाषा अपने जातीय जीवन के साहित्य, लोक गीत-संगीत, दर्शन, मुहावरे, कहावतें,उद्धरण और सुभाषितों में मिलेगी |न तो सस्ते, समय बिताऊ कहानियों, चुटकलों में मिलेगी और न ही पैसे कमाऊ फिल्मों में |

जब हम जीवन की भाषा बोलेंगे, तो शायद वे बहुत सी समस्याएँ भी कम हो जाएँगीं जो उचित संवाद के अभाव में हमें बहुत बड़ी लग रही थीं |और तब हम जीवन के सुख-दुखों को एक दूसरे के साथ मिल-बाँट कर जीवन का वास्तविक आनंद ले सकेंगे |

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पेट पालन के लिए कोई भी भाषा सीखें लेकिन  उसे जीवन की भाषा न बनाएं |  जीवन के सुखो-दुखों की अभिव्यक्ति केवल मातृभाषा में ही हो सकती है |
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Sep 13, 2015

कुछ भी खिला-पिला दे लेकिन.....

  कुछ भी खिला-पिला दे लेकिन....

हालाँकि अभी भादों का महिना चल रहा है लेकिन हमारे इलाके में वर्षा ऋतु समाप्त हो चुकी है | मई-जून की सी गरमी पड़ रही है |  दोपहर में बाहर निकला संभव नहीं है इसलिए मजबूरन घंटे-दो घंटे की झपकी ले लेते हैं | कोई दो बजे पोती ने आकर हमें जगाया- बाबा, दरवाजे पर बिना जूते, पगड़ी और फटी धोती पहने, गरीब-सा, दुबला-पतला एक आदमी खड़ा है और आपसे मिलना चाहता | अपना नाम सुदामा बताता है |

हमें नरोत्तमदास का खंड काव्य 'सुदामा चरित्र' याद आ गया जो कभी १९५४ में सातवीं क्लास में पढ़ा था | लेकिन हम तो द्वारकाधीश कृष्ण नहीं हैं और हमारा कोई सुदामा नाम का मित्र भी नहीं रहा |फिर भी उत्सुकतावश आगंतुक को बुलाया तो देखा, तोताराम ! 

हम कृष्ण की तरह दौड़ कर उसे बाहों में भरते उससे पहले ही वह हमारे चरणों में गिर पड़ा |हमने कहा- तोताराम यह क्या है ?


बोला- है क्या ? तुम्हारा नाम रमेश है और रमेश विष्णु का पर्याय होता है |विष्णु ने राम,कृष्ण के रूपों में अवतार लिए हैं | तो मेरे लिए तो तू ही राम और कृष्ण है | मैं तुम्हारा मित्र सुग्रीव हूँ, बाल-सखा सुदामा हूँ |
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हमने बात को बढ़ने से रोकने के लिए कहा- ठीक है, मित्र सुदामा | कहो, कैसे आना हुआ ? और यह तुम्हारी बगल में क्या है ? क्या भाभी ने फिर हमारे लिए चावल दिए हैं ? हमारी बात का उत्तर दिए बिना ही तोताराम अन्दर जाकर पत्नी से दो कप ले आया और अपनी बगल में दबा थर्मस खोलते हुए बोला- मित्र, आज मैं तुम्हारे लिए चाय लाया हूँ | तुम्हारी भाभी ने विशेषरूप से तुम्हारे लिए बनाकर भेजी है |कहती थी- रोज उनके यहाँ जाकर चाय पीते हो, शर्म नहीं आती ?  |आज तो उनके लिए मेरे हाथ की बनी चाय ले जाओ | 

हमने कहा- तोताराम, तू भले ही हमें मैगी खिला दे, कोकाकोला पिला दे, आंगनवाडी में पकने वाला पोषाहार खिला दे, मध्य प्रदेश में सरकारी नसबंदी शिविर में लगाया गया इंजेक्शन लगा दे | यह चाय पिए बगैर ही हमसे इसके बदले में बचा हुआ एक और लोक ले ले लेकिन हम यह चाय नहीं पी सकते |

बोला- क्यों ऐसी क्या बात है ?

हमने कहा-बन्धु, इस समय चाय इस देश के लिए बहुत भारी पड़ रही है | इसका क़र्ज़ चुकाए नहीं चुक रहा है | कल को तू कहेगा- द्रौपदी का चीर बढाया तो मेरी चाय के बल पर, गीता का उपदेश दिया तो मेरी चाय के बल पर |और अगर इस जन्म की बात करेगा तो कहेगा कि रमेश जोशी एम.ए. हिंदी में मेरिट में आया तो मेरी चाय के बल पर | इस एक चाय में तू हमारी सारी उपलब्धियों का कचरा कर देगा | हम नहीं पिएँगे तेरी चाय |

तोताराम ने हमारे पकड़ते हुए कहा- बन्धु, यह किसी नेता का वक्तव्य नहीं है जो बदल जाए ; यह तुम्हारे लघु भ्राता और बालसखा का तोताराम का वचन है | किसी से चाय की चर्चा भी कर दूँ तो तेरा जूता और मेरा सिर |

हमने कहा- ठीक है, तू किसी से इसके बारे में कुछ नहीं कहेगा लेकिन आजकल इस देश में  चाय  के  साथ एक चक्कर और भी चल रहा है | लोग अपने सहयात्रियों  को नशीली चाय पिलाकर  बेहोश करके लूट भी लेते हैं | तू बुरा नहीं है फिर भी ज़माना खराब है | इसलिए चाय तो हम नहीं ही पिएँगे |

तोताराम ने चाय थर्मस में डाली, थर्मस को बगल में दबाया और बिना कुछ कहे चला गया |

Sep 11, 2015

शराब, साहित्य और शौर्य

  शराब, साहित्य और शौर्य 

इस शीर्षक में केवल समास ही नहीं एक सामासिक संस्कृति भी झलकती है | शराब विभिन्न विचारधाराओं, जातियों, समाजों,धर्मों आदि के भेद को समाप्त कर देती है |भले ही दो देश या पड़ोसी या चार भले आदमी साथ मिल बैठ नहीं सकते लेकिन चार शराबी सारे भेदों के बावजूद शाम को मिल बैठ ही लेते हैं |और जब थोड़ा शुरूर आ जाता है तो, न तो अपने गिलास का ध्यान रहता है और न ही अपने पराए का ख्याल |
जीवित तो जीवित, निर्जीवों तक के साथ अन्तरंग रिश्ते स्थापित कर लेते हैं |

 हजार नौकरी लेकिन मरने-मारने की भी क्या नौकरी ? कैसे कोई शराब के बिना किसी को मार सकता है ? तभी फिल्मों में जब कोई किसी की हत्या करने जाता है तो पहले एक बोतल बिना पानी के चढ़ाता है  | हमारे एक कवि मित्र हैं जो अपनी दो-चार कविताओं के बल पर भारत क्या विदेश-यात्रा तक कर आए हैं |भले ही लोग उनकी उम्र का लिहाज़ करके जूते नहीं फेंकते लेकिन कवि महोदय जानते हैं कि वे एक ही कविता पिछले पचास वर्षों से सुना-सुनकर श्रोताओं पर अत्याचार कर रहे हैं |पहले वे सूफी थे लेकिन एक बार उनसे मिलने गए |उस समय में वे मंच पर उतरने की तैयारी कर रहे थे अर्थात एक अन्य कवि के साथ एक ही गिलास में लगे हुए थे |हम यह पहली बार देख रहे थे |पूछने पर बोले- क्या करूँ बन्धु, अब डर लगने लगा है कि कहीं दर्शक हूट न कर दें सो थोड़ा साहस जुटा रहा हूँ |

अब विश्व हिंदी सम्मलेन से एक दिन पहले पूर्व सेना प्रमुख और वर्तमान मंत्री जी ने कह दिया कि पहले साहित्यकार सिर्फ खाने के लिए आते थे और शराब पीने के बाद ही काम के बारे में बातें करते थे | हमारे हिसाब से पहले शराब और फिर खाना होना चाहिए अन्यथा खाना खाने के बाद शराब पीने से उल्टी होने की संभावना रहती है | साहित्यकार खाने और शराब के बाद कम से कम बातें तो करते हैं |यह  बात और है कि बात क्या होती है यह न तो खुद उन्हें पता होता है , न सुनने वालों को और न ही उन्हें बुलाने वालों को |  ये बेचारे साहित्यकार कम से कम उस सलाही से तो ठीक ही हैं जो बिना बुलाए ओबामा द्वारा दी गई पार्टी में आया और शराब पीकर चला गया |


अरे भाई, कैसे भी हैं , कैसे भी करके घुसे हैं , कहने को तो तुम्हारे मेहमान ही हैं | होना तो यह चाहिए था कि प्रेम से ठहराते और जाते समय सब को एक-एक क्रेट व्हिस्की का दे देते |सच मानिए, ज़िन्दगी भर सारे देश में आपके गुण गाते फिरते |एक ने तो अपनी पीड़ा भी सुना दी कि लेखकों तो सस्ते किस्म की दारू मिलती है | वैसे यदि इन सम्मेलनों से ही कुछ होता तो अब तक पता नहीं विश्व शांति, पर्यावरण सुधार, हिंदी का विकास आदि न जाने क्या-क्या हो चुका होता |ठीक है, काम निबटा |अब इसके बिल बनाएँ और अगले सम्मेलन के लिए बजट आवंटन जुगाड़ें |

वैसे यदि शराब इतनी ही बुरी है तो क्यों राष्ट्राध्यक्षों के भोज में परोसी जाती है ? इस्लाम और सिक्ख धर्म में इसे हराम माना जाता है फिर भी सेना में समान भाव सबको दी जाती है और सेवन की जाती है | यदि इतनी ही बुरी है तो इसे बंद क्यों नहीं कर दिया जाता ? लेकिन बंद कैसे करें,कमाई का जरिया जो है |बिहार के एक जिले सहरसा में ही एक अरब रुपए का राजस्व मिलता है | अब जोड़ लो सारे देश का | 

वैसे हमारा मानना है कि सबसे बड़ा नशा तो धर्म और संस्कृति  का है जिसके बल पर सारी नेतागीरी हो रही है और चुनाव जीते जा रहे हैं |लगता कुछ नहीं, करना कुछ नहीं; बस अहंकार और गर्व जागृत कर दो और लोग बावले हो जाएंगे | बस, हो गया काम |

Sep 9, 2015

धोती :व्यापक विनाश का हथियार

    धोती  :  व्यापक  विनाश का हथियार 

तमिलनाडु में क्रिकेट क्लब में आयोजित एक समारोह में उच्च न्यायालय  के एक जज  हरिपरंथम को धोती पहने हुए होने के कारण अन्दर नहीं घुसने दिया गया | इस खबर को पढ़कर हमारा तो सिर  भन्ना गया | तोताराम और हमारी दौड़ तो मस्जिद तक भी नहीं है | तो दिल्ली और इंग्लैण्ड तक कहाँ होगी ? एक दूसरे से दुःख-दर्द की बातें कर लेते हैं, बस | 
आते ही हमने अखबार उसके सामने रख दिया | 
बोला- मुझे पता है | दुःखी होने की आवश्यकता नहीं है | सबके अपने-अपने नियम हैं |इसी में संतोष कर ले कि मुख्य-द्वार पर यह नहीं लिखवाया - 
 'कुत्तों और धोती पहनने वालों का प्रवेश वर्जित है' |
अमरीका जाने वाले अडवाणी, जोर्ज फर्नान्डीज़, अब्दुल कलाम ही क्या, शंकराचार्य तक की तलाशी ली जाती है, भारतीय राजनयिक की पगड़ी और केविटी चेक हो सकती है, लेकिन पोप और इंग्लैण्ड की महारानी की कोई तलाशी नहीं ले सकता | कोई गोरा अमरीकी पिस्टल और जिंदा कारतूस लेकर प्लेन में चढ़ जाए तो उसे उसकी भूल मानकर क्षमा कर दिया जाता है |हम मंदिर या किसी की समाधि या मज़ार पर जूते उतार कर जाते हैं  लेकिन बुश के सुरक्षा दस्ते के कुत्ते सुरक्षा कारणों से गाँधी की समाधि पर चढ़ सकते हैं  |  अपने-अपने नियम हैं | अब यदि क्रिकेट क्लब वाले धोती नामक इस व्यापक विनाश के हथियार के साथ अन्दर नहीं  जाने देते तो यह उनका व्यक्तिगत मामला है | वैसे भी जो जींस न पहने, तिरंगे पर बोतल रखकर दारु न पिए, अधनंगी लड़कियों के साथ डांस न करे, जो मैच फिक्सिंग या सट्टे में शामिल न हो वह क्लब में जाए ही क्यों, दूसरों का मज़ा बिगाड़ने के लिए ?

हमने कहा- लेकिन वहाँ कोई क्रिकेट का कार्यक्रम नहीं था | वहाँ तो किसी पुस्तक का विमोचन होना था | और फिर यह बता, धोती कोई आर.डी.एक्स. है या ए.के. ४७ है जिससे किसी को खतरा हो सकता है ? 

बोला- इसे तू क्या समझेगा ? इसे क्रिकेट की जन्मभूमि ब्रिटेन ही समझ सकता है या फिर उसके मानस-पुत्र | और फिर जब धोती आती है तो उसके साथ और भी बहुत सी खतरनाक चीजें आ जाती हैं जैसे- टोपी, पगड़ी, देसी जूते, खादी, मातृभाषा, भारतीय संस्कृति, स्वदेशी, स्वाभिमान आदि | धोती पहनने वाले  तिलक, गोखले, लाला लाजपतराय, गाँधी, राजेंद्र प्रसाद, पटेल आदि ने ही तो  अंग्रेज बहादुर का जीना हराम कर दिया था | जिन्ना जैसों से उन्हें कभी कोई परेशानी नहीं रही |और फिर इन धोती वालों की देखा-देखी एशिया और अफ्रीका के देशों को भी स्वाधीनता की बीमारी लग गई और देखते ही देखते योरप के सारे उपनिवेश हाथ से निकल गए | 

आज भी धोती वाले अन्ना जैसे लोग ही उपभोक्तावाद,  बाजारवाद और आर्थिक उपनिवेशवाद के लिए खतरा बने हुए हैं | इन्हें विज्ञापन और विलासिता के साधनों से उल्लू नहीं बनाया जा सकता | इस प्रकार के लोगों की क्लब और माल्स में कोई रुचि नहीं होती | ये हजारों रुपए खर्च करके न होटल में जाना पसंद करते हैं और न ही क्रिकेट मैच देखना |ये हर समय मितव्ययिता के बारे में सोचते हैं | इनके भरोसे अर्थव्यवस्था का विकास नहीं किया जा सकता | धोती एक वस्त्र नहीं, एक मनोवृत्ति का प्रतीक है जो भारत को विकसित बनाने की राह में सबसे बड़ी बाधा है |

हमने कहा-तोताराम, हम तो तुम्हारे तर्क से कनफ्यूज़  हो गए हैं कि अच्छे दिन धोती पहनकर आएँगे या भारत की धोती उतरवाकर  ? 
 

Sep 7, 2015

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ

आज तोताराम ने आते ही कहा-आज एक और जुमले का हस्र सुन | 
हमने कहा- बन्धु, आजकल  तो सभी तरह से समाचार देने के बावजूद कुछ अखबार 'नो निगेटिव न्यूज' का जुमला जोड़ने लगे हैं तो तू क्यों हमारे दिन की शुरुआत 'भ्रम-भंजन' से करना चाहता है ? कम से कम चाय तो शांति से पी लेने दे | 

बोला- चाहे रस्सी हो या साँप,  जितना जल्दी पता चल जाए, ठीक है | बिना बात का टेंशन तो ख़त्म हो |बात एक तरफ हो जानी चाहिए | अपने राजस्थानी में कहावत है- के तो सीता सतवंती, के फरड़क राण्ड |घिचपिच नहीं |

हमने  कहा- यदि भ्रम दूर हो गया तो फिर न तो लम्पट बाबाओं को कोई भगवान मानेगा, न नेताओं को सेवक और रक्षक | जन्नत का अस्तित्त्व भी तो भ्रम के बल पर ही  है | सुंदरी भी तभी तक सुंदरी है जब तक मेकअप का भ्रम है | भ्रम नहीं रहेगा तो कौन शादी के बूर (चोकर ) के लड्डू कौन खाएगा ?

फिर भी मजबूरन, लगभग ठंडी होने को आ रही चाय एक तरफ रखते हुए, हमने तोताराम को  कविता में स्वीकृति दी-
हे भ्रम-भंजक, हे लघु भ्राता |
जुमला-सत्य सुनावहु ताता |

कहने लगा- शायद तुमने समाचार नहीं पढ़ा | समाचार,  विश्वसनीयता का दावा करने वाले एक अखबार ने छापा है |स्थान का नाम तो नहीं दिया लेकिन केन्द्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गाँधी के अनुसार दुष्कर्म, छेड़छाड़ और महिलाओं के साथ मारपीट की घटनाएँ तब तक होती रहेंगी जब तक  दुनिया में मर्द और औरत हैं |जैसे कि कभी गृहमंत्री होते हुए अडवाणीजी ने कहा था- आतंकवाद तो ग्लोबल फिनोमिना है |सो इन्होंने भी एक ग्लोबल फिनोमिना बता दिया | अब जो अटल सत्य है उसके लिए इनको कुछ दोष भी तो नहीं दिया जा सकता |

हमने कहा- और यह कभी संभव नहीं हो सकता कि किसी देश या समाज में केवल मादा ही रहें या नर ही नर रहें | और मान ले यदि ऐसा संभव हो भी गया इन सत्कर्मों के लिए तो देश के न्यायालयों तक ने विपरीत लिंगी होने की बाध्यता भी ख़त्म कर दी है | लेकिन मंत्री हैं, सेवक है, विकास और सुशासन के मुद्दे पर चुने गए हैं तो यह नहीं हो सकता कि कोई उपाय नहीं बताया हो |

बोला- बताया है ना | कहा है- देश के हर गाँव में बारहवीं पास और इक्कीस वर्ष के अधिक की आयु की एक लड़की को पुलिस की ट्रेनिंग दी जाएगी | फिर यह लड़की उस गाँव की लड़कियों को सेल्फ डिफेन्स (आत्म-रक्षा )की ट्रेनिंग देगी |

हमने कहा- यह तो ज़िम्मेदारी से बचने वाली बात हुई जैसे कि खुद में तो रोजगार के अवसर सृजित करने की क्षमता है नहीं सो विदेशी उद्योगपतियों को बुला लो | वे लोगों को कम वेतन देंगे, हाड़-तोड़ काम लेंगे और जब जी चाहेगा निकाल देंगे |और श्रेय ये ले लेंगे कि देखो बेरोजगारी कम कर दी | 

कहने लगा-देश में कम से कम पाँच लाख गाँव  हैं  | सो  पाँच लाख लड़कियों को नौकरी तो मिलेगी | उसके बाद भी सफलता नहीं  मिली तो हर छेड़ी जा सकने योग्य लड़की को सरकारी सब्सीडी से एक-एक बंदूक दिलवा दी जाएगी |यह  बात और है कि  वे गोलियाँ और बंदूकें काम करेंगी या नहीं जैसे कि मध्य प्रदेश में परिवार नियोजन शिविर वाली दवाइयों ने जान बचाने की बजाय  महिलाओं जान  ही ले ली |लेकिन  'मेक  इन  इण्डिया'  के  तहत  विदेशी निवेश तो आ जाएगा |

हमने कहा- वैसे तोताराम, हमें लगता है- सरकार  ने  बहुत सफाई से अपने नारे में ही सब कुछ स्पष्ट लिख दिया है जैसे चतुर  कम्पनियां 'कंडीशन्स अप्लाई' के बहाने पतली गली निकल लेती हैं | 
 'बेटी बचाओ' का अर्थ है- हे अभिभावको, बेटी को बदमाशों से बचाने की ज़िम्मेदारी आपकी ही है |सरकार के भरोसे मत रहना  |सरकार को और भी बहुत से महत्त्वपूर्ण काम हैं |
और  'बेटी पढाओ' का अर्थ है- हे अभिभावको, अपनी बेटी को पढ़ाओ भी तुम खुद ही  क्योंकि हमने  परीक्षा और भर्ती घोटाले  करके  जो अध्यापक लगवाए हैं  उनके वश का पढ़ाना नहीं है  |