Dec 31, 2011

स्वागत है नववर्ष तुम्हारा


2012
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, स्वागत है नव वर्ष |

करें कामना, सब को सुखकर हो यह नूतन वर्ष |

कोई भ्रम, शंका हो तो भी बंद न हो संवाद |
आपस में मिल-जुल सुलझा लें हो यदि कोई विवाद |
दुःख-पीड़ा आपस में बाँटें, बाँटें उत्सव-हर्ष |
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, स्वागत है नव वर्ष |

सभी परिश्रम करें शक्ति भर, कोई न करे प्रमाद |
जले होलिका, विश्वासों का बचा रहे प्रह्लाद |
केवल कुछ का नहीं सभी का हो समुचित उत्कर्ष |
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, स्वागत है नव वर्ष |

'स्वार्थ छोड़ कर्त्तव्य करे वह पुरुषोत्तम श्रीराम' |
यह आदर्श हमारा होवे, होंगे शुभ परिणाम |
न्याय-जानकी अपहृत हो तो मिलें, करें संघर्ष |
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, स्वागत है नव वर्ष |


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Dec 27, 2011

तोताराम और विज्ञान


तोताराम और हमारा विज्ञान से संबंध कुछ वैसा ही रहा जैसा कि मायावती और ब्राह्मणों का या कुत्ते और ईंट का या अबदुल्ला और राम मंदिर का या करुणानिधि और रामसेतु का ।

पहले आठवीं के बाद ही वैकल्पिक विषय शुरु हो जाते थे । हम दोनों ने ही गणित के डर से नवीं में साइंस नहीं ली, कोमर्स ली । किसी तरह पास होने लायक नंबर आ गए । उसी दौरान पता चला कि हम दोनों की ही बेलेंस शीट के दोनों तरफ से टोटल नहीं मिलते थे हालाँकि गुरु जी ने बता दिया था कि ऐसी स्थिति में सस्पेंस अकाउंट खोल देना । पढ़ाई में तो ठीक है मगर यदि वास्तव में ही कहीं नौकरी करते हुए ऐसा किया तो जेल तक हो सकती है । हम दोनों ने ही आर्ट्स में जाना ठीक समझा । वहाँ बड़ी सुविधा है कि हिंदी में भीम में दस हजार की जगह नौ हजार हाथियों का बल लिखने पर एक दो नंबर कटने से अधिक कुछ खतरा नहीं, या दोहे में चौबीस की जगह तीस मात्राएँ लिखने पर भी कोई फाँसी लगने वाली नहीं थी । सो इस तरह से हिंदी ने हमारा या हमने हिन्दी का उद्धार किया ।

आजकल विज्ञान का युग है । होता तो पहले भी था मगर आज उसके अलावा और किसी बात पर ध्यान नहीं दिया जाता फिर भले ही उस विज्ञान को पढ़ने वाला डाक्टर किसी को कमीशन के लालच में घटिया दवाएँ ही क्यों न लिख दे या इंजीनीयर उद्घाटन से पहले ही गिर जाने वाला पुल ही क्यों न बनाए । आज कोई भाषा और साहित्य की बात नहीं करता । संवेदना तो खैर, एक प्रगति विरोधी गुण मान ही लिया गया है ।

सो हम भी लोगों की देखादेखी विज्ञान शिक्षा के गिरते स्तर के लिए चिंतिति थे । तभी तोताराम आ गया । हमने कहा- तोताराम आजकल विज्ञान का स्तर बहुत गिर गया है । लोग केवल डिग्री लेने के लिए और फिर नौकरी पाने के लिए विज्ञान पढ़ते हैं इसीलिए हमारे यहाँ दूसरे देशों की तरह कोई खोज और आविष्कार नहीं होते ।

तोताराम ने अपना मौलिक तर्क दिया । इसका एक कारण तो यह है कि स्कूलों में विज्ञान की प्रयोगशालाएँ होती हैं । इससे भी विज्ञान का स्तर गिर रहा है । हमारे लिए यह एक नया ही तर्क था । हमने कहा- विज्ञान का तो आधार ही प्रयोग है । यदि बच्चा प्रयोग नहीं करेगा तो विज्ञान को समझेगा कैसे ? और नंबर भी कैसे मिलेंगे ।

वह कहने लगा- नंबरों के लिए तो विज्ञान के टीचर से ट्यूशन पढ़ना ज़रूरी है । यदि बच्चा ट्यूशन पढ़ता है तो टीचर अच्छे नंबर दिलवा ही देगा । और फिर प्रयोगशालाएँ दिखाने के लिए होती हैं या फिर उसके उपकरणों की खरीद में पैसा खाने के लिए होती हैं । उनका विज्ञान से कोई संबंध नहीं होता ।


यह फिर आश्चर्य में डालने वाली स्थापना । हमारे आग्रह किए बिना ही तोताराम ने बताया कि दुनिया का सबसे बड़ा वैज्ञानिक हुआ है आइंस्टाइन जिसने कभी प्रयोगशाला का मुँह नहीं देखा । और न्यूटन के लोग गुण गा रहे हैं उसके भी बहुत से सिद्धांत झूठे सिद्ध हो चुके हैं । मैंने कहीं पढ़ा है कि न्यूटन ने कहा था कि यदि किसी कारण से अचानक सूर्य समाप्त हो जाए तो उसी क्षण पृथ्वी अपने परिक्रमा मार्ग से विचलित हो जाएगी मगर आइंस्टाइन ने सिद्ध कर दिया कि नहीं, पृथ्वी को अपने मार्ग से विचलित होने में आठ मिनट लगेंगे क्योंकि सूर्य का प्रकाश भी पृथ्वी तक आठ मिनट में पहुँचता है और इससे तीव्र कोई प्रभाव नहीं हो सकता । अर्थात न्यूटन गलत । और सुन, न्यूटन ने पेड़ के नीचे अपनी प्रयोगशाला में सेब को ज़मीन पर गिरते हुए देखकर गुरुत्त्वाकर्षण का जो सिद्धांत दिया था वह भी झूठा सिद्ध हो गया है ।

अब तो हमारे आश्चर्य की सीमा नहीं रही । हमने कहा- हमने ऐसा कहीं नहीं पढ़ा । यह तो सर्वमान्य और सर्वसिद्ध सिद्धांत है । तोताराम ने कहा- यदि गुरुत्त्वाकर्षण के सिद्धांत को गलत सिद्ध कर दिया तो क्या देगा । हमने कहा- और तो क्या बताएँ मगर आज चाय के साथ पकौड़ी और गज़क भी खिलाएँगे ।

तो तोताराम ने कहा- देख, दिल्ली से जो साधन हमारे तक आने के लिए टपकते हैं वे हमारे तक न आकर बीच में ही कहाँ अटक जाते हैं ? हमने कहा- वे तो बंधु, पंचों, सरपंचों, एम.एल.ए., एम.पी., अधिकारियों और व्यापारियों तक ही रह जाते हैं ।

तोताराम ने जोर से ताली बजाई- तो बस, हो गया ना सिद्ध कि ऊपर से गिरने वाली चीजें धरती तक नहीं आतीं क्योंकि गुरुत्त्वाकर्षण का सिद्धांत गलत है । वैसे और भी बहुत सी चीजें ऊपर की तरफ ही जाती हैं जैसे कि तेल लगाने वाला अपने से ऊपर वाले को तेल लगाता है या नीचे की ली हुई रिश्वत या कमीशन ऊपर और बहुत ऊपर तक जाता है ।

हमारे पास कोई उत्तर नहीं था सो हमें चाय के साथ पकौड़ी बनवानी पड़ीं और गज़क बाज़ार से मँगवानी क्योंकि गज़क घर में नहीं थी । हमें अपने शर्त न हारने का विश्वास था इसलिए वैसे ही ताव में आ गए थे । खैर!

२२-१२-२०११

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Dec 14, 2011

तोताराम का पुनर्जन्म

सवेरे-सवेरे अँगीठी के पास बैठकर चाय पी रहे थे कि कहीं पास से ही कभी कुत्ते के भौंकने और कभी बिल्ली की म्याऊँ की आवाज़ आई । बंद रसोई में कहाँ कुत्ता-बिल्ली ? सो एक-दो बार इधर-उधर देख कर फिर चाय पीने लगे । मगर फिर वही आवाजें । कमरे के दरवाजे के पास देखा तो तोताराम ने फिर म्याऊँ की । हमने पहचान लिया और पूछा- मनुष्य की आवाज़ छोड़ कर यह कुत्ते-बिल्ली की आवाज़ क्यों निकाल रहा है ?

तोताराम ने हमारे प्रश्न का उत्तर देने की बजाय प्रतिप्रश्न उछाल दिया- मास्टर, यह पुनर्जन्म वाला विभाग आजकल किसके पास है ?


हमने कहा- उसी के पास होगा जिसके पास हमेशा से रहा है । यह कोई हिलती-डुलती सरकार तो है नहीं कि कुर्सी को थामने के लिए किसी मंत्री का दर्ज़ा बढ़ाया जाए या किसी जातीय समीकरण को संतुलित करने के लिए या किसी के वोट-बैंक में सेंध लगाने के लिए मंत्रालय का प्रभार बदला जाए । यमराज और चित्रगुप्त की कुर्सियाँ तो स्थाई हैं जैसे कि मुलायम की कुर्सी अभिषेक के लिए, कांग्रेस की राहुल जी के लिए, माधवराव सिंधिया जी की कुर्सी ज्योतिरादित्य के लिए, बाल ठाकरे की उद्धव के लिए, मुरली देवड़ा की अपने युवराज के लिए, प्रकाश सिंह जी की कुर्सी जूनियर बादल के लिए या फारुख अब्दुल्ला की उमर अब्दुल्ला के लिए । मगर वहाँ स्वर्ग में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । मगर तू क्यों पूछ रहा है ?

बोला- मैं अगले जन्म में कुत्ता या बिल्ली बनना चाहता हूँ ।

हमने कहा- तोताराम, मनुष्य जन्म बड़े भाग्य से मिलता है तिस पर ब्राह्मणका जन्म और वह भी भारत भूमि पर जहाँ जन्म लेने के लिए देवता तरसते हैं । फिर तू क्यों पशु-योनि को प्राप्त होना चाहता है ? हाँ, जहाँ तक सुख-सुविधा की बात है तो यह सच है कि ब्राह्मण की स्थिति इस धर्मनिरपेक्ष शासन और समतावादी समाज में कुत्ते-बिल्ली से बेहतर नहीं है । यदि माँगना ही है तो किसी अल्पसंख्यक समाज में जन्म माँग जिन पर आजकल सभी मेहरबान हो रहे हैं , जिनके लिए अलग शिक्षण संस्थान खोले जा रहे हैं, आरक्षण दिया जा रहा है, उनके विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति दी जा रही है जब कि ब्राह्मण को कुछ नहीं मिलता बल्कि तथाकथित प्रगतिवादियों द्वारा अपमानित ऊपर से किया जा रहा है ।


कहने लगा- इसका मतलब कि तू अखबार नहीं पढ़ता । कल ही छपा था कि इटली के एक ९२ वर्षीय महिला ने अपनी करोड़ों की संपत्ति अपनी पालतू बिल्ली के नाम कर दी । यह दुनिया की तीसरे नंबर की धनवान पालतू पशु है । पहले नंबर पर एक जर्मन शेपहर्ड कुत्ता है । क्या पता, अगले जन्म में कुत्ता-बिल्ली बनने पर कोई मेरे नाम पर भी करोड़ों की वसीयत छोड़ जाए । यदि यह नहीं तो कम से कम अगला जन्म तो सुख से कटेगा ।

हमने कहा- इस भ्रम में मत रहना । जैसे गौशाला की गायों का अनुदान और चंदा अध्यक्ष, मंत्री और कोषाध्यक्ष खा जाते हैं वैसे क्या गारंटी है कि इस बिल्ली के नाम किया गया पैसा कोई पशु-प्रेमी एन.जी.ओ. नहीं खा जाएगा ? यह भी नरेगा और बी.पी.एल. जैसा ही षडयंत्र है । वास्तविक पिछड़े, दलितों, गायों और कुत्ते-बिल्लियों की वही हालत रहने वाली है जो हमेशा से रही है ।

तोताराम हार मानने वाला थोड़े ही है, बोला- फिर भी इससे यह तो पता चलता है कि विदेशी कुत्ते-बिल्लियों से कितना प्रेम करते हैं ?

हमने कहा- मानव का पशु-प्रेम तो हमेशा से ही रहा है । पहले क्या गाय और कुत्ते के लिए पहली और आखिरी रोटियाँ नहीं बनती थी ? बचपन में जब गली की कुतिया ब्याती थी तो क्या हम उसके लिए आटा, गुड़ और तेल माँग कर नहीं लाते थे, उसके लिए हलवा नहीं बनाते थे ? बल्कि उस समय आज की बजाय पशु और पक्षी प्रेम के अधिक पात्र हुआ करते थे । अब तो लोग कहते हैं कि आवारा पशुओं की नसबंदी कर दी जाए या फिर उन्हें मार ही दिया जाए । पहले कोई राजा ही मृगया करता था मगर आज तो केवल काटने के लिए पशु-पक्षी पाले जाते हैं और वह भी बहुत निर्दयता से । अब तो अमरीका की तर्ज़ पर मुर्गी, सूअर के पालन को फार्मिंग अर्थात खेती कहा जाने लगा है । और तुझे पता है चीन और उत्तर-पूर्व में तो कुत्तों को भी लोग बड़े चाव से खाते हैं । क्या गारंटी है कि किसी महिला की वसीयत की बजाय तुझे काटकर, प्लेट में रखकर किसी को सर्व नहीं कर दिया जाएगा ?

जहाँ तक तू पश्चिमी देशो के पशु-प्रेम की बात करता है तो हमें तो लगता है कि आज की अर्थव्यवस्था और मानवीय स्वार्थ की नीचाताओं के कारण आदमी का आदमी पर से विश्वास उठ गया है । उसे पशुओं की संगति में अधिक सुरक्षा अनुभव होती है अन्यथा मानवीय संवेदना की परिधि में तो मनुष्य, पशु-पक्षी ही क्या समस्त चराचर जगत आ जाता है । हमारे यहाँ तो लोग नदी, पहाड़, कुए, बावड़ी से भी सजीवों का सा व्यवहार किया जाता था ।

वैसे यह धरती नितांत संवेदना शून्य नहीं हुई है । अमरीका का ही एक उदहारण है- कोई बीसेक वर्ष पहले कपड़ों पर इस्त्री करके अपनी जीविका चलाने वाली एक काली, अशिक्षित महिला ने अपनी जीवन भर की कमाई कोई एक लाख डालर के करीब मिसिसिपी की मेम्फिस यूनिवर्सिटी को गरीब बच्चों को छात्रवृत्ति देने के लिए एक कोष की स्थापनार्थ के लिए दे दी ।

तोताराम बोला- तू कुछ भी कह मगर मेरी मान्यता है कि आज भी दुनिया में पशु-प्रेम बचा हुआ है । हर अमरीकी राष्ट्रपति कुत्ता या बिल्ली पालता है और उसका बकायदा नामकरण होता है और उसका पत्रकारों से इंटरव्यू करवाया जाता है । बुश की बिल्ली का नाम 'इण्डिया' था और क्लिंटन के कुत्ते का नाम 'बडी' था । ओबामा के कुत्ते का नाम मुझे याद नहीं है मगर क्या वो किसी से कम स्पृहणीय है ? और अपने यहाँ भी तो धर्मराज अपने कुत्ते को अपने साथ स्वर्ग ले गए थे । आज भी यदि कोई पार्टी के आदेश पर कुत्ते की तरह किसी पर भी भौंकने के लिए तैयार रहता है तो उसे पार्टी प्रवक्ता का पद दे दिया जाता है । यदि वसीयत नहीं, तो किसी पार्टी में प्रवक्ता का दर्ज़ा ही मिल जाएगा । ठीक है तू मेरी मदद नहीं करता है तो मत कर । मैं कोई और जुगाड़ देखूँगा ।

और तोताराम चला गया । मित्र होने के नाते हम तोताराम के कल्याण की कामना करते हैं, मनुष्य जन्म में नहीं तो कुत्ते-बिल्ली के जन्म में ही सही ।

१३-१२-२०११


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Dec 5, 2011

हाथ, हाथी और हाथीपाँव



दिग्विजय जी,

जय माता जी की । माताजी मतलब कि शेराँ वाली, अपन क्षत्रियों की आराध्या । आप का १७ नवंबर २०११ का ट्वीट पढ़ा । वैसे हमें यह ट्वीट वाला धंधा कुछ जँचता नहीं क्योंकि इसमें मेंढक के टर्राने की सी ध्वनि आती है या फिर तोते की टें-टें जैसी दर्दनाक आवाज़ सुनाई देती है । तुलसी बाबा होते तो इस टर्राने में भी वेद-पाठ की ध्वनि सुन लेते मगर हम में इतनी योग्यता कहाँ ? हमें लगता है कि लोग अपने ट्वीट के अनुयायियों के अनुसार अपनी लोकप्रियता मापते हैं । वैसे पाठक कम और दर्शक तो पूनम पांडे के ट्वीट पर भी बहुत जाते हैं मगर वह मामला दूसरा है । और फिर आपको किसी की फोलोइंग की ज़रूरत ही क्या है ? आप तो पहले ही 'दिग्विजय' हैं, दसों दिशाओं को जीते हुए । आजकल तो गली का कुत्ता भी जब देखता है कि गली में कोई दूसरा कुत्ता नहीं है तो अपने को गली का दिग्विजय समझने लगता है ।

हमें राजनीति में कोई रुचि नहीं है क्योंकि हमें बचपन से ही सिखाया गया है कि राजनीति सीधे लोगों के बस का काम नहीं है । इसमें बहुत उल्टा-सीधा करना, कहना पड़ता है ।

तो आपने अपने ब्लॉग में बसपा के एक नारे की पैरोडी की ।
मूल-

चढ़ गुंडों की छाती पर ।
मोहर लगाओ हाथी पर ।

आपकी पैरोडी थी-

गुंडे चढ़ गए हाथी पर ।
गोली खाओ छाती पर ।

वैसे पैरोडी को लोग साहित्य नहीं मानते और यहाँ भी आपने मूल की पैरोडी ही की है । वैसे यह मूल भी किसी पैरोडी से कम नहीं है । एक साथ दो काम कैसे होंगे ? गुंडा कोई मरा हुआ थोड़े ही है ? हिल-डुल रहा होगा । अब ऐसे में मोहर गलत जगह लगाने के चांस रहते हैं । और फिर हाथी पर मोहर लगानी है जिसके लिए कुछ तो ऊँचाई पर जाना ही होगा । यदि सावधानी नहीं रही तो हो सकता है हाथी के पाँव तले शरीर का कुछ हिस्सा कुचल ही जाए ।

खैर, न आपको हाथी पर मोहर लगानी और न हमें । पर आपकी पैरोडी की पैरोडी पढ़ कर अच्छा लगा । चलो किसी में तो कविता के कीटाणु बचे हैं वरना इससे पहले ज़फर ने शायरी की और अंग्रेजों ने रंगून की जेल में डाल दिया । अटल जी ने शायरी की तो लोगों ने उन्हें कवि सम्मेलनों में उलझा लिया । इसके बाद जसवंत सिंह जस्सोल जी ने बजट में कुछ पैरोडी के चिह्न दिखलाए यो शीघ्र ही उन्हें पूर्णतया गद्यात्मक होना पड़ा और वह भी विवादास्पद गद्य । अब आपकी बारी है ।

इब्तदा-ए-इश्क में सारी रात जागे ।
अल्ला’ जाने क्या होगा आगे ?

वैसे कविता में बहुत शक्ति होती है यदि कविता हो तो । बिहारी के एक दोहे ने जयपुर के राजा जयसिंह को अपने कर्तव्य की याद दिला दी थी । रत्नावली के एक दोहे ने तुलसीदास जी को राम भक्ति की ओर मोड़ दिया था । आजकल जो कविता होती है उससे लोग प्रभावित कम और आतंकित अधिक होते हैं और मंच पर कवि के आने से पहली ही खिसकने लग जाते हैं । आप कविता के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं पर आपकी कविता में राजनीति और स्वार्थ अधिक है इसलिए पता नहीं सब को अच्छी लगेगी या नहीं । यहाँ हम तो आपके इस मार्ग पर आने में ही खुश हैं ।

आपकी इस पैरोडी में वैसे तो मात्रा-दोष हो सकता है मगर कविता की तुक और मात्रा को आजकल कम देखा जाता है क्योंकि इतना समय ही किसके पास है ? बस सामने वाले को हलकान कर दे वही कविता श्रेष्ठ है । जैसे कि एक मियाँ जी ने जाट के पग्गड़ को लक्ष्य करके कहा-
जाट रे जाट, तेरे सिर पर खाट ।
जाट ने भी मियाँ की झब्बे वाली टोपी पर तत्काल उत्तर दिया-
मियाँ रे मियाँ, तेरे सिर पर कोल्हू ।

मियाँ ने गलती निकाली- मगर तुक तो नहीं मिली ।
जाट ने कहा- तुक से क्या होता है, जब उठाएगा तब पता चलेगा ।

सो आपकी पैरोडी भी वजनदार तो है ही । और साथ में इसमें आपके क्षत्रियत्व की भी झलक मिल जाती है कि गोली पीठ में नहीं, छाती पर खाओ । काश, इस गोली से बचने का उपाय भी साथ-साथ बता देते । मगर लोकतंत्र में नारे ही होते हैं । गरीब को तो गोली या जूते खाने ही पड़ते हैं चाहे सिर पर हों या पीठ पर या छाती पर । चाहे दिल्ली में हों या लखनऊ में हों । एक किस्सा सुनाते हैं । तब की बात है जब दलितों से बेगार ली जाती थी । इससे तंग आकर एक बेचारा आत्महत्या करने के लिए कुएँ में जा गिरा । वहाँ एक मेंढक ने उससे जाति पूछी और फिर कहा- चल, मुझे अपने सिर पर बैठाकर कुएँ की सैर करा । गरीब को तो कुएँ में भी बेगार । वैसे आपके लिए यह किस्सा नया नहीं होगा क्योंकि आप भी तो राज-परिवार से हैं ना और ऊपर से दिग्विजय ।

माफ करिएगा सिंह साहब, हम पता नहीं किस झोंक में विषय से बहुत दूर निकल आए । शीर्षक तो हाथ, हाथी और हाथी पाँव से शुरु हुआ था और कहाँ कविता और बेगार को ले बैठे । हमारे हिन्दी में बहुत से पर्यायवाची शब्द होते हैं । हमारे यहाँ गुण, आकार, भावना और विचार के अनुसार भी शब्द बना लिए जाते हैं । इसीलिए हिंदी में इतने पर्यायवाची हैं मगर अंग्रेजी में नहीं है । विष्णु के तो हजार नाम हैं । हम जिस तरह से हाथ से काम करते हैं उसी तरह हाथी अपनी सूँड से काम करता है तो इस सूँड को उसका हाथ मानकर उसका नाम हाथी रख दिया और फिर तो गाड़ी चल निकली जैसे हस्त से हस्ती, कर से करी ।

तो हमें तो हाथ वाले आदमी और सूँड से हाथ का कम लेने वाले हाथी में कोई फर्क नज़र नहीं आता । गिलहरी, खरगोश और कुत्ता अपने अगले पाँवों से हाथ का काम लेते हैं । कभी आपने कुत्ते को मिट्टी खोदते देखा है ? लगता है कोई मजदूर फावड़े से मिट्टी खोद कर फेंक रहा है । सूअर अपनी थूथनी से ही काम चला लेता है । कई विकलांग तो पैरों में कलम पकड़ कर लिखते हैं और परीक्षाएँ भी पास कर लेते हैं । कुत्ता तो अपनी पूँछ से ही सारे भाव व्यक्त कर देता है । इसीलिए ही दिल्ली में कुत्तों की पूँछ काटने पर पाबंदी लगा दी गई है । जाने कहाँ-कहाँ से बेचारे कुत्ते अपना भविष्य सँवारने के लिए दिल्ली आते हैं । और जब पूँछ ही नहीं होगी तो अपनी-अपनी हाई कमांड से कैसे संवाद करेंगे और कैसे रिझाएँगे ? हाथ और हाथी की राजनीति आप जानें । हम तो हिंदी के मास्टर रहे हैं सो शब्दों के चक्कर में पड़ गए ।

इसी शब्द-परिवार से एक बीमारी भी होती है- हाथी पाँव । इसमें बीमार का पाँव हाथी के जैसे मोटा हो जाता है । वैसे वज़न कितना बढ़ता है यह तो कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है । वास्तव में इस बीमारी का मरीज भी किसी न किसी तरह चलता-फिरता और अपना काम करता ही है मगर जब यह बीमारी सरकारों को हो जाती है तो फिर वे कोई भी कदम नहीं उठा पातीं । लोग फरियाद ही करते रहते हैं कि मेरी सरकार, कोई कदम तो उठाओ, कड़ा नहीं तो पिलपिला ही सही मगर उठाओं तो सही । पर कदम है कि उठता ही नहीं । वैसे पैर तो भारी औरतों के भी होते हैं मगर वे भी कदम उठाती ही हैं मगर सरकारों के कदम पता नहीं, कितने भारी हो जाते हैं कि उठते ही नहीं । ऐसे में जनता ही कभी-कभी पकड़ कर उसके कदम उठवाती है । ऐसे में सरकार गिर भी जाती है ।

हमने कभी सुना नहीं मगर जब 'हाथी-पाँव' की बीमारी होती है तो 'हाथी-हाथ' की बीमारी भी होती ही होगी । वैसे बड़े आदमियों का तो क्या हाथ और क्या पैर जो भी भले आदमी पर पड़ जाए तो बस, मामला साफ़ ही समझो । खैर, आप हाथी पाँव के एक मरीज का किस्सा सुनिए । इस बीमारी के कारण उस आदमी का पाँव बहुत मोटा हो गया था । वह जब भी कभी गुस्सा होता तो अपनी पत्नी को कहता- देखा है ना, पाँव ? एक जमा दूँगा तो कचूमर निकल जाएगा । बेचारी डरती रहती । एक दिन उसने कहने की जगह पत्नी को एक लात जमा ही दी । उसके बाद तो पत्नी को पता चल गया कि यह पाँव बस देखने में ही मोटा है । इससे होना-जाना कुछ नहीं । अब तो वह खुद ही पति पर हावी हो गई ।

हमें लगता है कि महँगाई, भ्रष्टाचार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मनमानी के सामने सरकरों की ताकत के 'हाथी-पाँव' का भ्रम भारत में ही नहीं, अमरीका तक में खुल गया है । इसलिए झूठे पाँव पटकने की बजाय जैसे भी कदम उठते हों, उठाना चाहिए वरना बहुत विलंब हो जाएगा ।

२३-११-२०११

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