Oct 31, 2010

अनाज भले सड़े, पर तुम तो अड़े रहो मुन्ना भाइयो


मोंटेक सिंह जी,
सत् श्री अकाल । हम तो समझ रहे थे कि देश की इस प्रगति के पीछे केवल नरसिंह राव और मनमोहन सिंह जी का ही प्रताप और प्रयत्न है मगर अब जब आप बोले तो पता चला कि इस प्रगति में आपका भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है । इतना बड़ा काम एक दो आदमियों के बस का हो भी नहीं सकता । ठीक भी है, सब को अपने कर्मों के अनुसार मान्यता और यश मिलना ही चाहिए । अब जब भी इस देश की प्रगति का इतिहास लिखा जाएगा तब आपका नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाएगा ।

वैसे तो हम आपसे उम्र में कुछ बड़े ही हैं और बी.ए. में अर्थशास्त्र भी पढ़ा है पर हमें लगा कि यह महान विषय कमज़ोर दिल वालों के लिए नहीं है । इसमें तो आदमी को शांत भाव से कठोर निर्णय लेने वाला होना चाहिए । सो हमने इसे छोड़ ही दिया और एम.ए. में हिंदी साहित्य ले लिया । हम छोटी कक्षाओं में पढ़ा करते थे तो अमरीका की समृद्धि के बारे में भी पढ़ते थे कि अमरीका एक समृद्ध देश है, वहाँ अन्न बहुत पैदा होता है । वहाँ जब बहुत ज्यादा अन्न पैदा हो जाता है तो अन्न के भाव नहीं गिर जाएँ इसलिए अन्न को समुद्र में फेंक दिया जाता है । वाह, क्या समृद्धि है और उसका क्या सदुपयोग है ! हमारे यहाँ तो अन्न को ब्रह्म माना जाता है और उसका सदुपयोग किया जाता है । यदि घर में खाने के बाद कुछ बच भी जाता है तो उसे किसी भूखे को देने की कोशिश की जाती है क्योंकि अन्न व्यर्थ नहीं जाना चाहिए । अन्न की सार्थकता इसी में है कि वह किसी भूखे के पेट में जाए । आपको जो किताबें पढ़ाई जाती थीं उनमें पता नहीं कुछ और होता होगा क्योंकि वे साधारण आदमी नहीं बल्कि बड़े अर्थशास्त्री बनाने वाली होती हैं ।

पहले भूखे को भोजन करना सबसे बड़ा पुण्य माना जाता था । आजकल की बात और है जब बहुत से सिख दाढ़ी रँगने और उसे ट्रिम कराने लग गए हैं, शराब और मांस का भयंकर रूप से सेवन करने लग गए हैं और गालियों का भी जम कर प्रयोग करने लग गए हैं । गुरुद्वारों के चुनावों में सब तरह के हथकंडे अपनाए जाने लगे हैं । हम तो उस समय को याद करते हैं जब भले ही सिख फैशनेबल नहीं थे, बातचीत में अक्खड़ थे मगर दिल से बड़े प्यारे इंसान थे । गुरुद्वारों में जम कर सेवा करते थे और बड़े प्यार से लंगर में लोगों को खाना खिलाते थे । अब समय यह आ गया है कि प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह जी कहते हैं कि भले ही अनाज गोदामों में या खुले में पड़े-पड़े खराब हो जाए मगर उसे गरीब और भूखे लोगों को मुफ्त नहीं बाँटा जा सकता । सर्वोच्च न्यायालय को राजनीति में टाँग नहीं अड़ानी चाहिए । पता नहीं, भूखों के रहते अनाज को सड़ाना कौन सी 'नीति' है और कौनसा 'राज' है । वैसे ठीक भी है, ये सब बातें धर्म का विषय हो सकती हैं मगर अर्थशास्त्र का नहीं । अर्थशास्त्र में तो दो पैसे कमाने की बात होती है भले ही लोग मर जाएँ । आप भी कहते हैं कि महँगाई इसलिए बढ़ रही है कि गाँवों में लोगों की क्रय शक्ति बढ़ गई है ।

ठीक भी है, गाँव के लोग क्या खाने-खर्चने और मौज-मजा करने के लिए हैं ? उनका काम तो अनाज, दूध, फल उगा कर शहर के व्यापारियों को सस्ते में बेचना है जिससे देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हो और शहरों में संस्कृति का विकास हो । नाच-गानों के प्रोग्राम हों, सौंदर्य प्रतियोगिताएँ हों, हजारों करोड़ के तरह-तरह के खेल-कूद हों, पार्टियाँ हों, पेज-थ्री जगमगाता रहे । पहले गाँव के लोग अधनंगे रहते थे, रूखा-सूखा खा कर रह लेते थे तो देश सोने की चिड़िया था । वैसे जो बहुत गरीब होते थे उनके लिए भी पेट भरने के लिए तरह-तरह की व्यवस्थाएँ हुआ करती थीं । जैसे पहले गाँवों में एक जाति हुआ करती थी 'मुसहर' । यह जाति चूहे मार कर खाया करती थी, इससे इनका पेट भी मुफ्त में भर जाता था और सेठ जी के गोदाम में चूहों से नुकसान भी कम होता था । इस व्यवसाय में इन लोगों को शतप्रतिशत आरक्षण भी मिला हुआ था । कभी किसी ने इनके चूहे पकड़ने पर कोई ऐतराज नहीं किया । और ये मजे से अपना पेट फ्री में भरते रहे । एक और जाति हुआ करती थी 'गुबरहा' । यह जाति भी हमेशा मुफ्त का खाती रही । जब खेत में बैलों से गहाकर अनाज निकला जाता था तो इस दौरान बैल मालिक के न चाहने पर भी बहुत सा अनाज खा ही जाया करते थे । इतना अनाज बैलों को पचता नहीं था सो अधिकतर उनके गोबर में साबुत का साबुत आ जाता था । ये 'गुबरहे' कहलाने वाले लोग उस गोबर में से यह अनाज बीन कर उसे धोकर खा लिया करते थे । मालिक इन लोगों से कुछ नहीं लिया करता था और इस प्रकार इनका पेट मुफ्त में भर जाया करता था । कितनी अच्छी व्यवस्था थी ?

हमें लगता है आपमें और मनमोहन सिंह जी में इतनी भी उदारता नहीं है कि इस सड़ रहे अनाज को ही इन लोगों को दे दिया जाए । ऐसे लुटाने के लिए आपको योजना आयोग का उपाध्यक्ष थोड़े ही बनाया गया है । वैसे ये गरीब लोग होते बड़े लीचड़ हैं । नए ज़माने और नए रहन-सहन का इन पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता । ये हजारों साल से वही अनाज खा रहे हैं । रोटी के साथ दाल मतलब कि अनाज के साथ अनाज खाना । यदि सब मनमोहन सिंह जी की तरह से वैकल्पिक भोजन करने लग जाएँ तो कुछ तो महँगाई कम हो । मनमोहन सिंह जी चाहें तो रोजाना बादाम-पिश्ते खा सकते हैं, मगर खाते क्या हैं - खरबूजे के बीज । और वे भी फंगस लगे हुए । यह भी कोई खाना है । खरबूजा खाने वाला गरीब आदमी भी खरबूजे के बीज और छिलके नहीं खाता । वह भी उन्हें फेंक देता है । कोई गाय बकरी खा लेती है । इससे ज्यादा सादगी और क्या हो सकती है ? आप भी ऐसी ही कोई सादगी अपनाते होंगे । वैसे बड़े लोग खाते क्या हैं, सूँघते हैं । खाते तो ये गाँव के गरीब लोग हैं । पता नहीं, पिंडली तक पोले हैं क्या ? और मजे की बात यह है कि इस तरह अधभूखे रह कर भी इनकी जनसंख्या कम नहीं होती । जब कि आप और मनमोहन जी द्वारा लाई गई इस नई अर्थव्यवस्था ने कितने विकल्प दे दिए हैं । उनकी तरफ भी तो ध्यान दिया जा सकता है । कितनी मदिरा की दुकानें हैं, जगह-जगह कोल्ड ड्रिंक की दुकानें है । और फिर सारे दिन अखबारों, टी.वी. विज्ञापनों और सिनेमा में ऐसे-ऐसे चेहरे सारे दिन दिखाई देते रहते हैं जिन्हें देखते ही भूख भागती है । इंटरनेट पर वर्चुअल रीयल्टी में एक गुडिया-बच्ची को दूध पिलाने और उससे खेलने के खेल में एक कोरियाई दंपत्ति इतने मशगूल रहने लगे कि अपनी असली बच्ची को सँभालना ही भूल गए कि बेचारी कुपोषण का शिकार होकर मर ही गई मगर भारत के ये गरीब लोग हैं कि किसी भी बहकावे में नहीं आते और किसी भी तमाशे को देखकर रोटी-रोटी चिल्लाना नहीं छोड़ते ।

इन लोगों का कोई इलाज भी तो नहीं है । अब तो सरकार वोट बैंक के लिए, और अधिक लोगों को सस्ता अनाज देने वाली है । क्या बताया जाए आपकी और मनमोहन जी की कोई सुन भी तो नहीं रहा । आपको और मनमोहन जी को कौनसा चुनाव लड़ना है पर जिन्हें चुनाव लड़ना है उन्हें ये सब नाटक करने ही पड़ते हैं । पर आप चिंता मत कीजिए । बाजार भी उनके ‘मनरेगा’ वाले पैसे झटकने के लिए कोई न कोई योजना बना ही रहा होगा ।

हमारे एक मित्र भी आप जितने पढ़े लिखे तो नहीं पर अपने को अर्थशास्त्री की पूँछ मानते हैं । जब हमने उनसे कहा- बंधु, जब अनाज खुले में सड़ रहा है तो ग़रीबों को क्यों नहीं दे दिया जाता । कम से कम उसे फिंकवाने का खर्चा तो नहीं लगेगा । हमारे मित्र भी आपकी तरह ज्ञानी और हिसाबी आदमी हैं सो कहने लगे- देखो, मुफ्त देने से जनता आलसी हो जाएगी और आलसी जनता इक्कीसवीं सदी में चल नहीं सकती तो बाईसवीं सदी में क्या जाएगी । सो मुफ्त देना ठीक नहीं है । इस अनाज को फिंकवाने के लिए टेंडर छूटेगा उसमें कमाई होगी । फिर उस अनाज को थोड़ा साफ़-सूफ करके और कुछ खुशबू मिलाकर कोई व्यापारी ग़रीबों को कुछ सस्ते दामों में बेच देगा तो अर्थव्यवस्था में गति आएगी और उसमें से पार्टी को चंदा देगा तो लोकतंत्र भी मजबूत होगा ।

आप और मनमोहन सिंह जी इस देश कि जड़ों से चिपके रह कर कुतरते रहिए । पेड़ बहुत बड़ा है मगर 'नित बड़ी होती है', बूँद-बूँद रिसने से घड़ा खाली हो जाता है सो आप लोग तो लगे रहिए 'मुन्ना भाई' । बड़ी मुश्किल से तो यह देश अमरीका की तरह अनाज सड़ाने लायक हुआ है अब किसी भी कीमत पर इसे उस युग में नहीं ले जाया जाने देना चाहिए जहाँ लोग अनाज को किसी भूखे के मुँह में पड़ने की चीज मानते थे ।

२३-१०-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

खेल, अनुशासन और गौरवान्वित तोताराम


जैसे ही सुरेश कलमाड़ी ने देखा कि राष्ट्र मंडल खेलों में भीड़ नहीं जुट रही है तो ग़रीबों को मुफ्त खेल देखने की सुविधा का ऐलान का दिया । बस, फिर क्या था तोताराम के पाँवों में तो घुँघरू बँध गए और हमारे मना करने पर भी दिल्ली कूच कर ही गया । वहाँ से उसने फोन करके बताया कि पहले तो उसे भिखारी समझकर गेटकीपरों ने अंदर घुसने ही नहीं दिया मगर जब उसने अपनी पेंशन बुक दिखाई तो किसी तरह एंट्री मिली ।

खेल समाप्त हुए दो-तीन दिन हो गए पर तोताराम नहीं आया तो हमने पोती को भेजकर पता करवाया तो मालूम हुआ कि आज शाम तक आने का प्रोग्राम है । शाम को हम चबूतरे पर बैठे थे कि तोताराम आता दिखाई दिया । वह तो सीधा घर जाना चाहता था पर हमने रोक लिया कि जब तक चाय बने कम से कम खेलों के बारे में कुछ तो बताए । तभी हमारा ध्यान उसके गाल की तरफ गया । हमें लगा कुछ सूजन सी आ रही है । कहने लगा- बड़ा शानदार समापन-आयोजन था । सभी ने भारत की प्रशंसा की । कलमाड़ी जी प्रारंभिक शर्म से उबर चुके थे और सबको धन्यवाद दिया और आभार माना । यहाँ तक कि जो उपस्थित नहीं भी थे उनका भी । तू भी चलता तो अच्छा रहता । उसको बीच में ही टोक कर हमने पूछा- तोताराम, यह तेरा बायाँ गाल सूजा हुआ सा कैसे दीख रहा है ?

बोला- खेलों के सफल आयोजन के मेरे गौरवान्वित होने से तुझे ऐसा लग रहा होगा ।

हालाँकि तोतारम का यह बहाना हमें जमा नहीं पर इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि ऐसा मासूम बहाना तो आजतक किसी परकीया के साथ रात गुजार कर लौटे नायक ने भी अपनी पत्नी से नहीं बनाया होगा ।

पर हमने भी पीछा नहीं छोड़ा । ठीक है, मगर यह गर्व तेरे बाएँ गाल को ही क्यों हो रहा है ? दायाँ तो सामान्य दीख रहा है । बोला- भारत एक महान और सबसे बड़ा लोकतंत्र है इसलिए इसमें ऐसा संभव हो जाता है जैसे कि अटल जी के समय में भाजपा के अनुसार सारा देश 'फील-गुड' कर रहा था मगर कांग्रेस को गुड़ फील नहीं हो रहा था । आजकल बिहार में नीतीश कुमार को विकास दीख रहा है मगर राहुल गाँधी को बिहार पिछड़ा नज़र आ रहा है । सो हो सकता है कि मेरे भी बाएँ गाल ने गर्व अनुभव किया हो और दाएँ ने नहीं किया हो ।

तोताराम ने टालने की बहुत कोशिश की मगर जब संभव नहीं हुआ तो बोला- कुछ नहीं । मैं खेल समाप्त होने के बाद वैसे ही घूमता-घामता खेल गाँव की तरफ निकल गया था । तभी ऊपर से एक वाशिंग मशीन नीचे आकर गिरी और उसका हेंडिल टूट कर उछला और मेरे गाल को रगड़ता निकल गया । मगर कोई खास बात नहीं । ऐसा तो हो जाता है ।

हमने कहा- खेलों का सबसे मुख्य उद्देश्य होता है अनुशासन और तेरे आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों का यह अनुशासन है कि उनकी क्रिकेट टीम हार गई तो समान तोड़ कर नीचे फेंक दिया ।


पर तोताराम माना नहीं, कहने लगा- यह तो उनके सबसे अधिक पदक जीतने की खुशी का जश्न था और खुशी में कुछ ऐसा-वैसा हो ही जाता है जैसे कि अपने यहाँ भी कभी-कभी शादी में कुछ लोगों से खुशी में बंदूक छूट जाती है और कोई घायल हो जाता है । पर तुझे आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों की खुशी में भी अनुशासन कायम रखने की भावना को मानना पड़ेगा । वे चाहते तो वह वाशिंग मशीन किसी के सर पर भी पटक सकते थे मगर नहीं उन्होंने कितना ध्यान रखा कि मशीन किसी के सर पर नहीं गिरे ।

हमने खीज कर कहा और कंडोमों से जो गटर बंद हो गए वह क्या था ? ये लम्पट खेलने आए थे या हनीमून मनाने ? तोताराम बोला- इसमें क्या बात है ? काम-क्रीड़ा क्या खेल नहीं है ? और यह तो सोच खिलाड़ियों ने कंडोम का इस्तेमाल किया जो कि आज का सबसे बड़ा अनुशासन है । आजकल कंडोम का इस्तेमाल करने पर कोई भी लम्पटता, लम्पटता नहीं रह जाती वह एक उच्च श्रेणी का अनुशासन हो जाती है । तभी तो माइक फ्लेनल ने खिलाड़ियों के इस कृत्य की प्रशंसा की । और फिर यह तो अपनी-अपनी भावना है । तेरे जैसे नकारात्मक व्यक्ति को कुछ भी सकारात्मक नज़र ही नहीं आता तो कोई क्या करे ?

हमने कहा- तो सकारात्मक चिन्तक जी, यह भी बता दीजिए कि खेल में घोटाले के बारे में आपके क्या विचार हैं ? बोला- देखो, जब कोई बड़ा काम होता है तो कुछ कौए, कुत्ते, भिखारी और बिना बुलाए लोग घुस कर खाना खा ही जाते है । इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता । और मान ले ये लोग और ज्यादा भी खा जाते तो कौन इनका क्या कर लेता ? यह तो इनका आत्मानुशासन था कि इतना ही खाया ।

अब हम और कह ही क्या सकते थे ?

१९-१०-२०१०
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तोताराम का लिबरेशन फ्रंट


आज तोताराम कुछ ज्यादा ही जल्दी में था । अंदर भी नहीं आया । बाहर से आवाज़ लगाई- मास्टर, कोई वार्ता करने वाला तो नहीं आया ? आए तो मेरी तरफ भेज देना । रोजाना चक्कर लगते रहते हैं और आज जब मैं ढूँढ़ रहा हूँ तो पता नहीं सब के सब कहाँ मर गए । मैं ज़रा पिछली गली में देखता हूँ । यदि इधर आ जाएँ तो मेरी तरफ भेज देना । हमने कहा- फिरते तो रहते हैं । पिछली बार जब आए थे तो कह रहे थे- किसी से भी वार्ता करने को तैयार हैं । पर इन दो-चार दिनों में दीखे नहीं । हमें लगता है सारे के सारे कश्मीर की तरफ चले गए हैं । पर तुझे किससे और क्या वार्ता करनी है ?

तोताराम बोला- वार्ता तो नहीं करनी मगर आएँ तो कह देना 'तोतालैंड लिबरेशन फ्रंट' का अध्यक्ष तोताराम अब आजादी से कम पर बात नहीं करेगा । हमने कहा- तोताराम, अब कौन सी आजादी चाहिए ? अब तो आत्मा को इस तन के पिंजरे से आजादी चाहिए सो अपने आप ही मिल जाएगी, आज नहीं तो दो-चार साल बाद । इसके लिए किसी को आमंत्रित करने की क्या ज़रूरत है ? और फिर तेरे लिए किसी के पास कोई गोली फालतू नहीं पड़ी । हाँ, अगर महँगाई इसी तरह से बढ़ती रही तो जल्दी ही कुपोषण ज़रूर तुझे मुक्ति दिला देगा ।

तोताराम कहने लगा- मुझे इस जीवन से आजादी नहीं चाहिए मुझे तो भारत से आजादी चाहिए । तरेसठ बरस से भारत हमें गुलाम बनाए हुए है । अब मैं गुलाम नहीं रहने वाला । अब मैं शांतिपूर्ण पत्थर-फेंक आन्दोलन तब तक जारी रखूँगा जब तक आजादी नहीं मिल जाती ।

हमने कहा- तू कोई गिलानी है जो तुझे गिरफ्तार नहीं किया जाएगा या तेरे खिलाफ देशद्रोह का केस नहीं चलाया जाएगा । अरे, यह अरुंधती भी थोड़ी चर्चित है इस लिए थोड़ा हिचक रहे हैं । और फिर मानवाधिकारों के मसीहा ओबामा जी भी तो आ रहे हैं वरना तो इस पर भी कुछ न कुछ लोग दिखावे का ही सही, एक्शन ले लेते । और तुझे तो किसी छोटे-मोटे स्वयंसेवक से ही मोटर साइकल से टक्कर मरवाकर सलटा देंगे और कोई मुआवाजा भी नहीं मिलेगा । देखा नहीं, पहले तो तस्लीमा को शरण दी फिर वोट बैंक के चक्कर में पता नहीं उसे कहाँ फिंकवा दिया । इनका तो यह हाल है कि कश्मीर खोकर भी यदि अल्पसंखयकों का वोट बैंक पक्का हो जाए और दिल्ली की कुर्सी इनके नाम परमानेंट लिखी जाए तो कोई घाटे वाला सौदा नहीं है । वैसे भी कश्मीर पर खर्च ज्यादा है और कमाई कम । अब तो सारे अर्थशास्त्री बैठे हैं जिन्हें लाज शर्म नहीं जी.डी.पी और विदेशी मुद्रा भंडार की ज्यादा फ़िक्र है । और अगर कश्मीर की समस्या नाक कटवा कर भी सुलझा दी तो अमरीका खुश हो जाएगा । इनकी मोक्ष अमरीका की कृपा में ही है । यह बात और है कि प्रेस की स्वतंत्रता का पोषक अमरीका विकीलीक वाले को गलत तो बता नहीं सकता पर कह रहा है कि इससे अफगानिस्तान में अमरीकी सैनिकों को खतरा हो सकता है । और अंदर खाने बात यह है कि विकिलीक वाले को अपनी जान को खतरा नजर आ रहा है ।

तोताराम कहने लगा- मैं भी तो इसीलिए कह रहा हूँ कि अभी मौका है । गोरे लोगों का तो इतिहास ही यही रहा है कि पहले तो किसी देश को छोड़ो मत और अगर छोड़ना ही पड़ जाए तो ऐसा सत्यानाश करके जाओ जो कि सँभल ही नहीं पाए । यह तो वियतनाम का दम था जो बीस बरस अमरीका से लड़कर भी एक हो गए । भारत में भी तो जाते समय छः सौ रियासतों को स्वतंत्रता दे गए कि तुम्हारी मर्जी हो तो भारत या पाकिस्तान में मिलो और चाहे तो आजाद हो जाओ । जिन राजाओं और नवाबों ने दारू पीने और लडकियाँ उठवाने के अलावा कुछ नहीं किया वे स्वतंत्र देश के सपने देखने लगे । यह तो भला हो पटेल का जो यह खाज मिटा गए वरना सोच इस देश में और छः सौ देश होते तो क्या हालत होती । नेहरू इंग्लैण्ड में पढ़े थे और योरप की संस्कृति से प्रभावित थे सो जबरदस्ती मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए । और वहाँ क्या हुआ यह किसी से छिपा नहीं । यदि रूस नहीं होता तो अमरीका कभी का वहाँ चुनाव करवा कर कश्मीर को अपना बगलबच्चा बना लेता । इसके बाद तो नेहरू जी को भी समझ आ गई और हिम्मत करके गोवा वाले मामले को निबटा दिया । उस समय भी अमरीका ने जो रूप दिखाया पता नहीं, ये सरकारें क्यों उसे भूल जाती हैं । उस समय अमरीका ने अपने जहाज गोवा में टाँग अड़ाने के लिए भेज दिए थे । वह तो नासर ने उन्हें स्वेज नहर पर ही रोक दिया नहीं तो नज़ारा ही कुछ और होता । और बंगला देश की आजादी के समय भी उसने अपना सातवाँ बेड़ा भेज ही दिया था । उस समय भी इंदिरा की हिम्मत और रूस ने लाज रख ली ।

अब तो ऐसी सरकार है जिससे चूहा भी नहीं डरता । चीन को देख, अब तक फारमोसा को अपना हिस्सा मानता है और देख लेना कभी न कभी उसे अपने में मिला भी लेगा । अरुणाचल पर दावा जता ही रहा है । कश्मीर वालों को स्टेपल वीसा देता है । और हम हैं कि अब भी उसके तलवे सहला रहे हैं । हांगकांग निन्यानमे साल की लीज पर था और समय पूरा होते ही ब्रिटेन ने उसे चीन को सौंप दिया । अगर यही मामला भारत के साथ होता तो तकते रहते मुँह । चीन को कोई नहीं कहता कि तिब्बत में चुनाव क्यों नहीं करवाता । इसलिए सोचता हूँ कि इस नपुंसक सरकार के रहते मैं भी एक अलग राष्ट्र की माँग कर ही दूँ । इस धुप्पल में अपन भी आजीवन राष्ट्रपति बन जाएँगे और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी अपने ही बच्च्चों का राज ।

हमने कहा- तोताराम, अपनी सरकार ने पहले से ही जाति, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, मंदिर-मस्जिद के आधार पर देश को बाँट रखा है अब तू भी क्यों देश के जले पर नमक छिडक रहा है ?

तोताराम कहने लगा- तू कहता है तो ठीक है । अलग राष्ट्र की माँग नहीं करूँगा मगर यह याद रखना कि अब यह देश टुकड़े-टुकड़े होकर ही रहेगा । क्या तुझे कश्मीर में पडगाँवकर के नेतृत्व में गए प्रतिनिधि मंडल की बातों से समझ में नहीं आ रहा ? ये सब घुटने टेकने की तैयारी है । वरना सरकार की मर्जी के खिलाफ ऐसे वक्तव्य कोई दे सकता है क्या ? एक मात्र महिला सदस्य राधा कुमार ने तो कह ही दिया है कि संविधान में संशोधन किया जा सकता है । कैसा संशोधन ? यही कि जो भी आजादी माँगे उसे दे दो और पीछा छुड़ाओ । जहाँ तक कमाई की बात है तो ‘मनरेगा’, खानें और सरकारी-उद्योग विक्रय और खेल आयोजनों में भी कर लेंगे ।

हमने कहा- तोताराम, तुम्हारी बातें सुनकर हमने तो चक्कर आने लग गए हैं । भगवान करे, ऐसा कभी न हो । और यदि इसकी ज़रा भी संभावना है तो हमें तो अभी उठा ले ।

२८-१०-२०१०

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Oct 30, 2010

तोताराम की सीटी


कल तोताराम आया तो पता नहीं क्यों ओठों को गोल करके सीटी बजाता रहा । चाय भी सीटी बजा-बजा कर ही ठंडी की । हमें तो वैसे ही लग रहा था जैसे कि कई लोग बैठे-बैठे टाँग हिलाते रहते है मानों लकवे का दौरा पड़ने वाला हो । मगर जब ऐसे व्यक्तियों के साथ रोज बैठना हो तो फिर इतना अजीब नहीं लगता । सो हमें भी तोताराम की अजीब हरकतें इतनी अजीब नहीं लगती जितना कि किसी और को लग सकती हैं ।

आज तो उसकी सीटी बजाने की अदा कुछ ज्यादा ही अजीब थी । सीटी बजाने के साथ-साथ वह कमर भी मटका रहा था और दाएँ हाथ की तर्जनी में चाबी का एक छल्ला भी घुमाता जा रहा था । और कोई दिन होता तो शायद हमें इतना बुरा नहीं लगता मगर हुआ यूँ कि कल रात सपने आते रहे । कभी हाजी मस्तान, कभी हर्षद मेहता, कभी तेलगी, कभी लालू, कभी सुखराम, कभी शिबू सोरेन, कभी ललित मोदी, कभी जय ललिता और भी जाने कौन-कौन दिखते रहे । सब कुछ होच-पोच । मगर यह तय है कि नींद ठीक से नहीं आ पाई । इसलिए सर भारी था । सो हमने चिढ़कर तोताराम की कमर में अंगुली से घोंचा मारा- यह क्या जनखों की तरह कमर हिला रहा है ? सीटी बंद कर और ठीक से खड़ा रह ।

तोताराम भी चिढ़ गया, बोला- 'यह सरकारी आज्ञा है । १ नवंबर तक तो यह सीटी ऐसे ही बजेगी । उसके बाद देखी जाएगी' । सीटी बजाने की सरकारी आज्ञा ! हमारी कुछ समझ में नहीं आया । और पूछा तो कहने लगा- सरकार ने २५ अक्टूबर से १ नवंबर तक 'सीटी बजाओ सप्ताह' घोषित किया है । और एक टोल फ्री नंबर भी दिया है । यदि मुझे ज्यादा परेशान करेगा तो उसी नंबर पर फोन कर दूँगा ।

हम अपनी हँसी नहीं रोक सके, कहा- क्या उस विज्ञापन को ध्यान से पढ़ा ? वह यह सीटी बजाने के लिए नहीं है । उस सीटी का मतलब है- 'व्हिसल ब्लोइंग' कि यदि आपको कहीं भ्रष्टाचार की जानकारी मिले तो इस नंबर पर फोन कीजिए । जिससे सरकार को भ्रष्टाचार से लड़ने में मदद मिले । क्योंकि सरकार तो अब भ्रष्टाचार से लड़ नहीं सकती क्योंकि सरकार में तो खुद सारे के सारे कीचड़ में धँसे लोग बैठे हैं । कोई एक आध है भी तो बेचारा लंका में विभीषण की तरह अपनी जान बचाए नौकरी कर रहा है । कहाँ का भ्रष्टाचार-निरोध और कैसी व्हिसल ब्लोइंग ।

तुझे याद नहीं, स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना में एक इंजीनीयर था सत्येन्द्र दुबे । उसने बहुत चुपके से भ्रष्टाचार के खिलाफ व्हिसल बजाते हुए तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी जी को एक पत्र लिखा था । जिसे उन्होंने उन्हीं सरकारी अधिकारियों को जाँच के लिए भेज दिया जिनकी मिली भगत और छत्रछाया में यह सब चल रहा था । बस फिर क्या था, जाँच तो हुई नहीं बल्कि वह खबर ठेकेदारों तक पँहुच गई और उन्होंने दो छोटे-मोटे अपराधियों को सुपारी दे दी और फिर व्हिसल बजाने वाले इंजीनीयर का बाजा बज गया । वरना सीधी सी बात है कि इन छोटे-मोटे अपराधियों को स्वर्णिम चतुर्भुज से क्या लेना-देना । मगर उन दोनों को फाँसी की सजा देकर कानून ने अपना चेहरा उजला कर लिया । इसलिए याद रख, कोई भी भ्रष्टाचार पूरे तंत्र की मिलीभगत के बिना नहीं चल सकता । इसलिए क्यों व्हिसल बजा कर मरने के काम कर रहा है । बड़े भ्रष्टाचार को तो छोड़ । तू खम्भे पर कुण्डी डालकर किसी बिजली चोरी करने वाले की खबर बिजली विभाग को करके देख । चेकिंग करने वाले पहले उस चोरी करने वाले को फोन करेंगे कि 'भैया, तोताराम ने तेरी शिकायत की है सो अपनी कुण्डी हटा ले । हम आ रहे हैं' । चोर तो नहीं पकड़ा जाएगा पर शाम तक वह चोर तेरी टाँगें ज़रूर तोड़ देगा ।



तोताराम फिर भी सीटी बजाता रहा । हमने पूछा तोताराम, तुझे डर नहीं लगता ? कोई भ्रष्ट तेरा सर फोड़ दे तो ?तोताराम बोला- नहीं, मैं किसी से नहीं डरता ।

तभी दरवाजे पर एक जोर की ठोकर लगी और दहाड़ती आवाज़ आई- 'अरे, यो कोण सिटी बजा रिया है ? के गड़बड़ हो री है' ? बाहर निकल कर देखा तो एक नेतानुमा ठेकेदार खड़ा था ।

उसे देखकर तोताराम कहने लगा- अजी ठेकेदार जी, यहाँ कौन सीटी बजाएगा । मैं तो इस मास्टर को 'थ्री इडियट्स' वाला गाना सुना रहा था- ऑल इज वेल भैया, ऑल इज वेल । भला आपके होते क्या गड़बड़ हो सकती है ? सब कुछ वेल ही होगा ।

अब तोताराम की सीटी ही नहीं फूँक भी बंद हो चुकी थी ।

२७-१०-२०१०

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Oct 25, 2010

5000 व्यंजन और गिनीज बुक में नाम


२० अक्टूबर २०१० प्रातः आठ बजे ।

आज भी सदैव की भाँति तोताराम आया मगर बैठने से पहले ही उसने प्रश्न किया- मास्टर बता, व्यंजन कितने होते हैं ? हमें हँसी आ गई- अरे, बछिया के ताऊ, चालीस बरस हिंदी पढ़ाता रहा, अब रिटायर हुए आठ बरस से अधिक हो गए और आज पूछ रहा है कि व्यंजन कितने होते हैं ? क्या स्वर-व्यंजन जाने बिना ही इतने बरस बच्चों को हिंदी पढ़ाता रहा ? वैसे अब तुझे स्वर-व्यंजन जानने की क्या ज़रूरत आ पड़ी ? क्या हिंदी की कोई ट्यूशन मिल गई है ? ट्यूशन तो अंग्रेजी और साइंस-मैथ्स में मिलते हैं । हिंदी का क्या है वह तो अपनी मातृभाषा है और मातृभाषा का सत्यानाश करने का सभी को अधिकार है । फिर भी तेरी आत्मा की शांति के लिए बता देते हैं कि व्यंजन तेंतीस होते हैं और यदि संयुक्ताक्षरों को भी शामिल करना चाहे तो तीन और जोड़ ले । वैसे यदि मन में श्रद्धा हो तो कबीर की तरह अढ़ाई अक्षरों में ही काम चल सकता है- आधा प, रे और म ।

तोताराम ने हाथ जोड़ कर कहा- भ्राता श्री, यदि आप अपनी वाणी को विराम दें तो मैं कुछ और निवेदन करूँ ? मेरा मंतव्य आपके इन हिंदी वाले व्यंजनों से नहीं था । मैं तो खाने वाले व्यंजनों के बारे में आपकी कुछ जनरल नॉलेज बढ़ाना चाहता था पर आप मौका ही नहीं दे रहे हैं ।

हमने कहा- खाना, खाने में क्या है ? खाना तो आदमी जीने के लिए खाता है सो जो भगवान समय पर दे दे वही उसकी कृपा है । वैसे कबीर जी ने तो सब्जी की भी ज़रूरत नहीं समझी । वे तो कहते हैं कि -
आधी और रूखी भली, सारी तो संताप ।
जो चाहेगा चूपड़ी बहुत करेगा पाप ॥

और यदि भगवान रोटी के साथ दाल भी दे दे तो ज्यादा मत इतराओ और मन को भक्ति में लगाओ । ‘दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ । और अपने यहाँ तो सबसे बड़ा सवाल केवल दो रोटी का माना जाता है । सो हमारे हिसाब से तो दो ही व्यंजन होते हैं दाल और रोटी । यदि तू 'पानी' को भी जोड़ना चाहे तो तीन समझ ले ।

तोताराम हमारे चरण छूकर चलने को हुआ- अब तुझसे बात करने का कोई फायदा नहीं । अच्छा जय राम जी की । हमने ज़बरदस्ती उसका हाथ पकड़ कर बैठाया, कहा- मुँह में आई बात कह ही देनी चाहिए । कहने लगा- मैं तो कहना ही चाहता हूँ पर तू मौका दे तब ना । बात यह थी कि अब तक का अधिक से अधिक व्यंजनों का रिकार्ड ४६०० व्यंजनों का है पर यह पता नहीं किसके नाम है ? अब अपने 'डबल श्री' मतलब कि श्री श्री रवि शंकर जी के अहमदाबाद स्थित नित्यप्रज्ञ नामक चेले का कार्यक्रम है कि २ नवंबर को अहमदाबाद में 'अन्नं ब्रह्म' नामक कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा जिसमें ५००० व्यंजनों का विश्व रिकार्ड बनाया जाएगा । और फिर इस कार्यक्रम का गिनीज बुक में नाम आ जाएगा ।

हमने कहा- इस कार्यक्रम का उद्देश्य गिनीज बुक में में शामिल होना है या गरीब बच्चों को भोजन कराना है ? यदि किसी भूखे को भोजन कराना ही उद्देश्य है तो फिर न तो गिनीज बुक में नाम की ज़रूरत है और न ही किसी अखबार में समाचार की । भोजन कराओ और भगवान को धन्यवाद दो दो कि उसने तुम्हें यह पुण्य कमाने का अवसर दिया और छुट्टी ।

तोताराम को खीज हुई, कहने लगा- तेरी दुनिया बहुत छोटी है । तुझे क्या पता नाम क्या होता है और नाम का मजा क्या होता है ? जब किसी का नाम गिनीज बुक में आ जाता है तो उसका खुद का ही नहीं देश का नाम रोशन हो जाता है । इसीलिए तो कोई मूँछ बढ़ा रहा है, कोई नाखून । कोई सबसे छोटी पेंटिंग बना रहा है तो कोई चावल के एक दाने पर गीता लिख रहा है ।

हमने कहा- न तो उस गीता को कोई आसानी से पढ़ सकता और न ही उस पेंटिंग को कोई अच्छी तरह से देख सकता । जब दो रुपए में अच्छी-भली गीता और पेंटिंग बाजार में मिल जाती हैं तो इस सारे तमाशे का फायदा क्या ? अरे, हजार किलो का एक लड्डू बना कर क्या होगा ? आखिर में उसे खाना तो तोड़ कर ही पड़ेगा ना ? ये सब भरे पेट वालों की कुंठाएँ है । जो कोई ढंग का काम नहीं कर सकता वह ऐसे ही उलटे काम करके चर्चित होना चाहता है । देखा नही, योरप और अमरीका में 'पेटा' ( People for Ethical Treatment of Animal ) के नाम पर लोग कपड़े उतार कर फोटो खिंचवा कर चर्चित हो रहे हैं और अखबार वाले उन्हें अपनी साईट पर डाल कर अपनी टी.आर.पी. बढ़ा रहे हैं । जिन्हें कपड़े उतारने हैं वे किसी भी नाम से उतार देते हैं । राखी सावंत की बात और है । वह जानती है कि केवल कपड़े उतारने से बात नहीं बनेगी सो उसे पशुओं पर क्रूरता करने वालों को डराने के लिए अपने शरीर पर धारियाँ बनवा कर बाघ बनना पड़ा ।

तोताराम ने फिर हाथ जोड़े तो हम उसका इशारा समझ गए और चुप हो गए । कहने लगा- मैं साधारण लोगों की बात नहीं कर रहा हूँ । मैं तो श्री श्री रविशंकर जी की बात कर रहा हूँ । वे बड़े महान संत हैं । आज तक राम, कृष्ण, वाल्मीकि, कबीर, रैदास, मीरा, तुलसी, सूर, नानक किसी के नाम के आगे एक भी श्री नहीं लगा और इनके आगे दो-दी श्री हैं । भैया, कुछ तो बात होगी ना वरना किसके लगते हैं दो-दो 'श्री' ? मायावती जी तो कांसीराम के अलावा किसी को मान्यवर नहीं मानतीं और 'जी' भी केवल अडवाणी जी और अटल जी से पहले लगाती हैं । मुलायम सिंह को तो तू-तड़ाक से संबोधित करती हैं । और फिर तेरे कबीर, रैदास को कौन जानता है विदेश में ? श्री श्री जी तो हवाई जहाजों में घूमते हैं सारी दुनिया में । सैंकडों एकड़ में उनका आश्रम है बैंगलोर में, जहाँ तेरे जैसे तो क्या, बहादुर शाह ज़फर तक को भी दो गज ज़मीन नहीं मिलती । बैंगलोर में दो गज ज़मीन न मिलने के दर्द में ही तो उसने वह गज़ल लिखी थी- ‘दो गज ज़मीन भी न मिली कूए यार में ‘ ।

हमने कहा- भाई, हमें तो सबसे अच्छे व्यंजन सुदामा के चावल, विदुर पत्नी के केले के छिलके और करमा बाई का खिचड़ा लगा जिसे भगवान ने खुद बड़े चाव से खाया । श्री श्री जी के इन व्यंजनों का क्या ? कल को कोई और छः हजार व्यंजनों का रिकार्ड बना देगा तो ये कहीं गुमनामी में चले जाएँगे । भाव बड़ी चीज है, न कि नाटक और गिनीज बुक में नाम । जिसका स्वार्थ होता है वह नाम बेचता है । पहले तुमने किस नालंदा, तक्षशिला और स्कूल-कालेज का आइ.एस.ओ. सर्टिफिकेट देखा था ? आजकल जिस का भी थोड़ा बहुत नाम चल जाता है वह च्यवनप्राश बेचने लग जाता है । हम तो भैया, एक बार गए थे जीवन की कला सीखने एक कार्यक्रम में । दस दिन के पाँच सौ रुपए भी ले लिए और बताया क्या कि सब में एक ही ब्रह्म होता है । अरे भाई, जब सब में एक ही ब्रह्म है तो फिर हमसे पाँच सौ रुपए क्यों लिए ? यदि लिए तो कोई बात नहीं मगर कार्यक्रम के बाद आधे-आधे कर लेते । फिर बताया- ऐसे साँस लो । कोई इनसे पूछने वाला हो कि साँस ही आ रही होती तो किस लिए तुम्हारे पास आते ? साँस बंद हो रही थी तभी तो तुम्हारे पास आए थे । फिर भी कोई बात नहीं । मगर ये पाँच हजार व्यंजन कौन-कौन से हैं ? उन सबके नाम तो बता ।

तोताराम कहने लगा- मुझे तो क्या, इनके नाम तो खुद नित्यप्रज्ञ जी को भी नहीं मालूम होंगे । इतने शब्दों के बल पर तो आदमी मज़े से डबल एम.ए.कर सकता है ।

हमने कहा- तो फिर ऐसा कर, नित्यप्रज्ञ जी को एक पत्र लिख दे कि वे इन व्यंजनों की एक सचित्र पुस्तक छपवा दें । बहुत चलेगी । वैसे तो व्यंजनों को देख-सुन कर कोई पेट थोड़े ही भरता है फिर भी और कुछ नहीं तो लोग उत्सुकतावश ही सही, खरीद ज़रूर लेंगे । वैसे यदि तुझे व्यंजनों के बारे में अधिक जानना है तो तेरी भाभी से एक लिस्ट बनवा देंगे । जब चंडीगढ़ में अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्रित्व में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था तो सोनिया जी के सादगी के आदेश के कारण केवल ७५ व्यंजन बनवाए गए थे तो हमने वैसे ही तेरी भाभी से चर्चा कर दी थी तो उसने केवल दाल, रोटी और पानी से ही बने जिन पचास-साठ व्यंजनों की सूची गिना दी उसे याद करके अब भी हमने चक्कर आ जाते हैं ।

तोताराम को उत्सुकता हुई । कहने लगा- दो-चार के नाम तो बता । हमने कहा- यह सब ब्रेक के बाद ।

ब्रेक कितना लंबा चलेगा, यह भविष्य के गर्भ में है ।

२१-१०-२०१०

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Oct 24, 2010

बैंगलोर, बीजिंग और बराक ओबामा

ओबामा जी,
नमस्ते । पहले ग्रामोफोन हुआ करता था । अपने समय का एक बहुत ही चमत्कारी आविष्कार । किसी इक्के-दुक्के के पास ही हुआ करता था । बड़ा तामझाम था । कोई दस किलो की मशीन तिस पर उसके रिकार्ड (डिस्क),सुई जिसे दस-पाँच गानों के बाद बदलना पड़ता था और बीच-बीच में हेंडल घुमा कर चाबी भरना । इन सब के बावजूद क्या जलवा होता था ग्रामोफोन का ! लोग शादी-विवाह में लाउड स्पीकर पर रिकार्ड बजवाया करते थे । आप सोच रहे होंगे कि यह मास्टर किस लिए अमरीका के राष्ट्रपति को इस पुराने ग्रामोफोन के बारे में बता रहा है जब कि आज के युवकों ने न तो इसे देखा है और न ही गाने सुनने के लिए इसके मोहताज हैं । आज तो एक बीस ग्राम का मोबाइल फोन जेब में रखा और दो तार कान में घुसेड़े और हो गए चालू । मजे से इस भरी दुनिया से अलग । गाने सुनो, गर्दन हिलाओ, अँगुलियों से घुटने पर तबला बजाओ, और ज्यादा ही मन-पसंद गाना आ जाए तो कमर भी मटकाओ । कुछ पुराने लोग भले की समझें कि कहीं इस छोकरे को मिर्गी का दौरा तो नहीं पड़ने वाला है ?

बात यह है मियाँ, कि इस ग्रामोफोन में एक बड़ी खराब बात थी कि जब इसका रिकार्ड खराब हो जाता था तो फिर वह सुई उसकी कुंडली में घूम कर गाना सुनाने के बजाय बार-बार घूम कर एक ही जगह आती रहती थी तो गाना आगे बढ़ने की बजाय एक-दो शब्दों को ही दुहराने लगता था जैसे- 'एक दिल के..दिल के..दिल के...' जिससे दर्द भरे गीत को सुनते हुए भी लोगों को हँसी आ जाती थी । तब माइक पर रिकार्ड बजाने वाला दौड़कर आता और उसे आगे बढ़ाता या उस रिकार्ड की साइड बदलता था ।

अब हमें मुख्य बात पर आ ही जाना चाहिए वरना हो सकता है आपको गुस्सा ही आ जाए । बात यह है कि उस रिकार्ड की तरह हर आदमी, देश, सिद्धांत या धर्म के रिकार्ड भी, बिना नई और प्रगतिशील सोच के खराब हो जाते हैं और फिर जब चाहे वे किसी एक जगह पर आकर फिर दिल के..दिल के.. दिल के ..गाने लगते हैं जो पहले तो हास्य पैदा करता है और फिर चिढ़ । अमरीका का भी बार-बार अपने बच्चों को बैंगलोर और बीजिंग का डर दिखाना, बुश साहब के ज़माने का, खराब हुआ रिकार्ड है । आप इसे बार-बार बजा कर क्यों तमाशा करते हैं ? पर जब कोई नया कार्यक्रम नहीं होता या कुछ करते हुए नज़र आने की मज़बूरी आ पड़ती है या फिर आदमी बोर होने लगता है तो ऐसे समय में यह पुराना रिकार्ड ही काम आता है । जैसे कि कोई मेहमान आ जाए और उससे बात करने को कुछ नहीं हो तो मेजबान उसे कोई शादी या किसी कार्यक्रम का एल्बम पकड़ा देता है कि देखता रह बेटा और होता रह बोर । सो ऐसे पुराने रेकार्डों को भी कभी फेंकना नहीं चाहिए, पता नहीं कब काम आ जाएँ ?

जब आप सत्ता में आए थे तब आपको लगा होगा कि आप बहुत कुछ कर सकते हैं मगर अब आपको समझ में आ गया कि किया तो कुछ जा नहीं सकता तो समय बिताने के लिए यह बुश वाले रिकार्ड की अन्त्याक्षरी ही शुरु कर दी जाए । हमारे पड़ोस में भी जब कोई समस्या आ जाती है तो कश्मीर का पुराना रिकार्ड शुरु हो जाता है । जब चुनाव आते हैं तो कोई मंदिर और राष्ट्रीय संस्कृति और अस्मिता का रिकार्ड बजाना शुरु कर देता है तो कोई धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता-विरोध का अपना रिकार्ड शुरु कर देता है । किसी का अपना दलितों और मनुवादियों को जूते मारने का रिकार्ड है जिसे चुनाव के समय पर निकाल लिया जाता है । किसी को चुनाव के समय देश के विकास के लिए किसी दलित को प्रधान मंत्री बनाने की आवश्यकता अनुभव होती है मगर किसी दलित का नाम सुझाने की बात आती है तो पता चलता है कि उनके अलावा भारतीय राजनीति में कोई दलित है ही नहीं । जब अटल जी पहली बार विदेश मंत्री बने तो कहा करते थे कि अब वे भारत की विदेश नीति बदल देंगे पर फाइलें देखने पर पता चला कि संभव नहीं है सो उसी नेहरू जी वाली नीति पर ही चलते रहे । यह बात और है कि अब मनमोहन जी ने भाजपा वाली सारी दक्षिणपंथी नीति ही अपना ली तो अब भाजपा के पास कोई कार्यक्रम रहा ही नहीं ।

तो आप भी बुश जी वाला ही रिकार्ड बजा रहे हैं कि पढ़ो, नहीं तो तुम्हारी नौकरियाँ भारत और चीन के युवक ले जाएँगे । अरे भाई, ये भारत और चीन के बच्चे तो पहले यहाँ सारे सुख और जवानी की मौज-मस्ती छोड़ कर कठोर परिश्रम करके पढ़े और फिर अपने माँ-बाप की खून पसीने की कमाई खर्च करके आपके वहाँ पढ़ने गए । वहाँ भी इन्होनें छोटे-मोटे काम किए, बहुत सादगी से रह कर पढ़े और जब नौकरी की बात आई, तो वहाँ के मालिकों को ये ज्यादा मेहनती और सस्ते लगे, सो रख लिया । अब आप समझते है कि चीन और भारत के ये युवक आपके बच्चों की नौकरियाँ खा जा रहे हैं । अगर अमरीका के गोरे बच्चे भारत और चीन के बच्चों के बराबर पैसे लेकर वैसा ही काम करने को तैयार होंगे तो किसी भी अमरीकी मालिक को भारत और चीन से कोई लगाव नहीं है । उसे तो काम और कमाई चाहिए । पहले बुश और अब आप, जब भारत और चीन का नाम लेकर बात करते हैं तो उससे अच्छा सन्देश नहीं जाता । इससे अमरीकी बच्चे भारत और चीन के बच्चों को अपना दुश्मन समझने लग जाते हैं जो कि किसी देश की सामाजिक समरसता के लिए ठीक नहीं है । हमें लगता है कि कहीं न कहीं आस्ट्रेलिया में भारतीय युवकों के प्रति घृणा का यह भी एक कारण हो । छोटे नेता तो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए ऐसे ओछे स्टेटमेंट देते रहते ही हैं । बड़े नेता भी इससे अछूते नहीं हैं । आपका इरादा ऐसा नहीं है मगर बार-बार ऐसे वक्तव्यों से यह सन्देश जाना असंभव नहीं है ।

कुछ शिक्षाएँ या कौशल तो ऐसे हैं जो किसी भी जीव को उसके माता-पिता उसे सिखाते ही हैं । पशु-पक्षियों में यह प्रवृत्ति सहज होती है । वे अपने शिशुओं को भोजन ढूँढ़ना, शिकार करना, अपना बचाव करना, आवास खोजना या बनाना आदि सिखाते हैं और कुछ बच्चे अपने परिवेश से सीखते हैं । जो नहीं सीखते वे नष्ट हो जाते हैं । मानव समाज उनसे कुछ अधिक संलिष्ट हो गया है इसलिए वह दूसरों के लिए काम करके अपनी नौकरी या जीविका अपनाता है । आज आदमी यह नहीं सोचता कि उसे अपने लिए क्या चाहिए बल्कि यह सोचता है कि कौन सा काम सीखकर नौकरी मिलेगी । इस प्रकार वह अपने लिए नहीं सीखता और एक प्रकार से गुलाम हो रहा है । भले ही उसे उपभोक्तावादी संस्कृति 'स्वतंत्रता' का नाम दे । मगर इस संस्कृति में किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं होती जब कि गुलाम के प्रति भी उसके मालिक की कोई न कोई जिम्मेदारी तो होती ही है, भले ही वह अपने स्वार्थ के लिए ही हो । इस दृष्टि से यह आज की तथाकथित मुक्त अर्थव्यवस्था बहुत गैरजिम्मेदार है जो स्वतंत्रता का केवल भ्रम देती है । पहले जब किसान मिश्रित खेती करता था और अपने समाज के साथ मिलकर रहता था तब वह आत्मनिर्भर और सामाजिक था मगर अब औद्योगीकरण और बाज़ार ने उसे भी किसी बड़ी कंपनी का बंधुआ मजदूर बना दिया है ।

इस व्यवस्था में न तो कारीगर को अपने कार्य की सम्पूर्णता और कर्ता होने का सुख मिलता है और न ही उसे समाज में वह सम्मान मिलता है जो एक सर्जक को मिलना चाहिए । उत्पाद कंपनी के नाम से बिकता है और उसके असली निर्माता की पहचान ही समाप्त हो गई है । खैर, काम कोई भी हो, जीविका का कोई भी साधन हो मगर फिर भी आदमी को आदमी की ज़रूरत होती है । मानव का विकल्प रोबोट नहीं हो सकता । पुत्र-पुत्री द्वारा की गई सेवा का विकल्प किराये की नर्स नहीं हो सकती । माँ के हाथ के खाने की बात ही कुछ और होती है । मेकडोनाल्ड उसका स्थान नहीं ले सकता । यद्यपि बाजार कहता है कि तू किसी की चिंता क्यों करता है 'मैं हूँ ना' । पैसा फेंक और जो चाहे हाजिर है ।
पुरानी जीवन शैली में कहा गया है कि अनुशासन ही सभी गुणों, शिक्षाओं और समाज के सुखी होने का आधार है । हमारे यहाँ भी कहा गया है-
लालयेत् पंच वर्षाणि, दस वर्षाणि ताडयेत् ।
प्राप्ते तु षोडषे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ॥

अर्थात पाँच वर्ष तक बच्चे को लाड़-प्यार दो, अगले दस वर्ष तक अनुशासन में रखो और सोलह वर्ष का होने पर उसके साथ मित्र के समान व्यवहार करो । मतलब कि बच्चे को मित्र के समान समझदार बनने के लिए पाँच वर्ष तक प्यार और दस वर्ष तक अनुशासन चाहिए । इसका मतलब यह नहीं है बाद में प्यार समाप्त हो जाना चाहिए । प्यार तो जीवन भर रहता है । उसके बिना तो जीवन से बड़ा कोई दंड नहीं रह जाएगा । मगर लाड़-प्यार को नियंत्रित किए बिना अनुशासन सिखाना मुश्किल हो जाता है । इसीलिए राजा लोग भी अपने राजकुमारों को किसी ऋषि के आश्रम में पढ़ने के लिए भेजते थे जहाँ रहकर वह आज्ञा-पालन, कठिन परिश्रम करना, खेती करना, पशु-पालन करना, भिक्षा माँगने के बहाने समाज की सही स्थिति जानना सीखता था । आज के धनवानों के बच्चों को अपने सुख और मौज-मज़े के अलावा दीन-दुनिया की खबर ही नहीं रहती । वह अपने सुख के लिए सारी दुनिया को फूँकने में भी नहीं हिचकता । ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात तो बहुत दूर की है । जहाँ-जहाँ भी उपभोक्तावाद की अति होती है वहाँ ऐसे ही हृदयहीन लोग पैदा होंगे । महलों में रहकर अनावश्यक लाड़-प्यार में पलने वाले ही कौरव बन कर निकलते हैं । पांडव तो वन में घूम-घूम कर, विघ्न-बाधाओं को चूम-चूम कर ही बनते हैं । यही अनुशासन है ।

उपभोक्तावाद नहीं चाहता कि कोई भी इस प्रकार से संवेदनशील बने । यदि लोग संवेदनशील बन गए तो अपनी सारी तनख्वाह अपने लिए फूँकने से पहले, आदमी परिवार के बारे में दस बार सोचेगा । बस, यही आदमी उपभोक्तावाद के लिए सबसे बड़ा खतरा है । हमारे बचपन में माता-पिता बच्चे को स्कूल छोड़ने जाते तो गुरुजी से कहते थे- गुरुजी, मांस-मांस आपका और हड्डी-हड्डी हमारी । इसका मतलब यह नहीं था कि गुरुजी कोई मांस का व्यापार करने वाले होते थे । इसका मतलब यह होता था कि गुरु जी बच्चे को अनुशासित बनाने के लिए जो भी कठिन जीवन का विधान करें, उससे माता-पिता को कोई ऐतराज नहीं होता था ।

पुरानी शिक्षा पद्धति में सबसे मुख्य बात होती थी- आज्ञापालन । उपमन्यु की कथा आती है । उसे खाने में बहुत रुचि थी जो गुरु के अनुसार अनुशासन और शिक्षा में सबसे बड़ी बाधा थी । सो उन्होंने उसकी इस आदत को सुधारने के लिए उसे खाना नहीं दिया । फिर भी उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा । पूछा तो पता लगा कि वह दुबारा भिक्षा माँग कर ले आता था । गुरु जी ने कहा कि वह दुबारा भिक्षा माँग कर नहीं लाएगा । फिर भी बालक उपमन्यु मस्त । जाँच की तो पाया कि वह गायों का दूध पी लेता है । गुरु जी उसके लिए भी मना किया क्योंकि दूध पर तो सबसे पहला अधिकार गाय के बच्चे का होता है । फिर भी बालक उपमन्यु पर कोई असर नहीं । वह बछड़ों के दूध पीते समय गिरने वाले झाग को चाट लेता था । गुरु जी ने उसके लिए भी मना कर दिया । अब तो उपमन्यु के सारे रास्ते बंद हो गए । एक दिन भूख से व्याकुल होकर उसने कोई जंगली पौधा खा लिया जिससे उसकी दृष्टि चली गई और वह रास्ता देख न पाने के कारण एक कुएँ में गिर गया । गुरु कोई जल्लाद नहीं थे । वे तो उसे अनुशासन सिखा रहे थे । शाम को जब गाएँ अकेली ही लौट आईं तो गुरु को चिंता हुई । वे उपमन्यु को खोजने के लिए अँधेरी रात में ही चल पड़े । जंगल में जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई तो एक कुएँ में से आवाज़ आई- गुरु जी मैं यहाँ हूँ । गुरु जी ने पूछा- तुम इस कुएँ में कैसे गिर गए तो उपमन्यु ने सारी बात बताई । गुरु जी ने उसे मन्त्र बताया जिसे जपने से देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार प्रकट हुए और उपमन्यु को एक दवा देकर कहा- इसे खालो । तुम्हारी दृष्टि वापिस आ जाएगी । उपमन्यु ने कहा- मैं गुरु जी को अर्पित किए और उनके अपने हाथ से दिए बिना कुछ नहीं खाऊँगा । इतना कहते ही उपमन्यु की दृष्टि वापिस आ गई । उसकी प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा पूरी हुई ।

खाने के बारे में इतनी बार गुरुजी की आज्ञा न मानने पर भी गुरुजी उसे माफ क्यों करते रहे क्योंकि भले ही उसकी खाने की अतिरिक्त रुचि खत्म नहीं हुई थी मगर वह सच बोल रहा था और सच बोलना मनुष्य का सबसे गुण है । तभी कहा गया है-
साँच बरोबर ताप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदय साँच है ताके हिरदय आप ॥

आपके देश का ध्येय वाक्य है- ‘इन गोड वी ट्रस्ट’ । गोड को किसने देखा है ? मगर सत्य तो साक्षात् देखा जा सकता है और इसीलिए हमने तो सत्य को ही भगवान माना है । तभी हमारा ध्येय वाक्य है- ‘सत्यमेव जयते’ । यह बात और है कि अब वह हमारे देश में भी कम ही देखने को मिलता है । सत्य और अनुशासन की शुरुआत घर से ही होती है । मगर आजकल कौन सा घर ? आपके यहाँ तो पचास प्रतिशत बच्चों को असली माता-पिता ही उपलब्ध नहीं हैं । जब माता-पिता ही असली नहीं हैं तो फिर कौन सी चीज है जो असली बची होगी । परिवार को बचाइए, बच्चों को अनुशासन सिखाइए, खुद के अलावा किसी और के बारे में भी सोचना सिखाइए । यह तो पता नहीं कब और कैसे होगा और उसे करने के लिए आपकी उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था कितनी छूट देगी मगर जहाँ तक भारत और चीन से डरने की बात है तो आप निश्चिन्त रहिए ।

चीन और भारत में अभी इनकी पुरानी संस्कृति की जड़ें पूरी तरह से उखड़ी नहीं है । वैसे चीन के बारे में तो हम ज्यादा नहीं जानते पर अब पढ़ा है कि वहाँ भी तलाक दस प्रतिशत बढ़ गए हैं और वहाँ भी लड़कियाँ खुले हाथ कर्च करने के लिए सेक्स बेचने लगी हैं । भारत के बारे में हम कह सकते हैं कि आप निश्चिन्त रहिए । यह एक नंबर का नकलची देश है । जब अंग्रेज यहाँ आए तो इसने अंग्रेजों से ज्यादा अंग्रेज बनने में देर नहीं लगाई । अब रंग का तो ये क्या करें लाख फेयरनेस क्रीम लगाने पर भी प्रिंस चार्ल्स जैसा नहीं हो पा रहा है । मगर जहाँ तक अंग्रेजी और उनके तौर-तरीकों की बात है तो हम उनके भी बाप हैं । अब हम पर अमरीका बनने का नशा सवार है सो हम बहुत जल्दी ही अमीरीकी विकृतियों में अमरीका से भी आगे निकल जाएँगे । अब हमारे बच्चों को माँ के हाथ की गरम रोटी की बजाय बासी पिज्जा और बर्गर अच्छे लगते हैं । अब हम छाछ, शिकंजी की जगह कोकाकोला पीना ज्यादा पसंद करते हैं । धोती बाँधना किसी को नहीं आता । अब बच्चे माता-पिता के चरण छूने में शर्म महसूस करते हैं और दूर से ही 'हाय' करके काम चलाना चाहते हैं । अब लड़के-लड़कियों का देर से घर आना बुरा नहीं समझा जाता । बल्कि यूँ कहिए कि उनको कुछ कहते हुए माँ-बाप को डर लगने लगा है क्योंकि अब हमारे यहाँ भी माता-पिता अधिकार की जगह बाल-अधिकार अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं । न माता-पिता बच्चों को डाँट सकते हैं और न ही अध्यापक । मोहल्ले का बड़ा-बुजुर्ग तो कुछ कहने का अधिकार रखता ही नहीं । अब ब्रह्मचर्य एक पुरातनपंथी धारणा मानी जाने लगी है । अब यहाँ भी भाई-बहनों से निकटता की बजाय गर्ल और बॉय फ्रेंड का चलन चल पड़ा है । आपके यहाँ की तरह अब यहाँ भी लड़के-लडकियाँ शराब और सेक्स को एक शैक्षणिक गतिविधि मानने लगे हैं । अब देश की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटियों में कंडोम बेचने वाली मशीनें लग गई हैं । छोटे-छोटे कस्बों में सांस्कृतिक गतिविधियों के अंतर्गत सौन्दर्य प्रतियोगिताएँ होने लगी हैं । ब्रह्ममुहूर्त में उठना पिछड़ेपन की निशानी हो गई है । समलैंगिकता की वकालत की जाने लगी है । बिना शादी किए साथ रहना प्रगतिशीलता कहा जाने लगा है ।

अब हमारे यहाँ भी शिक्षा में रटने को हटा दिया गया है जब कि एक अध्यापक होने के नाते हम कह सकते है कि शिक्षा और जीवन में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे बिना सोचे समझे रटना और मानना पड़ता है । बड़े होकर तर्क करने लायक बनने पर ही तर्क सार्थक होता है, नहीं तो वह सीखने में बाधा ही डालता है । क्या आज भी हम डाक्टर या और किसी विशेषज्ञ की बात बिना तर्क के नहीं मानते ? जीवन में बहुत कुछ अपरिवर्तनीय है । वह अपरिवर्तनीय ही सत्य और ईश्वर है । मगर आज स्वतंत्रता के नाम पर उसी पर सबसे ज्यादा प्रश्न उठाए जा रहे हैं । पहले तो हम ब्रेन ड्रेन की चिंता किया करते थे मगर अब तो ब्रेन को पूरी तरह भोग की ड्रेन में ही डाल दिया गया है । इसलिए आप भारत के ब्रेन से मत घबराइए ।

आज हमारे यहाँ भी बच्चों क्या, बड़ों को भी कोई बात समझाने के लिए फिल्मी लोगों को लाया जाता है । सो आपको इस जगद्गुरु से घबराने की ज़रूरत नहीं है । यह तो कान में मोबाइल की घुंडी ठूँसे गाने सुनने में व्यस्त है, लेडी 'गा-गा' के लटके-झटकों में लस्त-पस्त है, बीयर और बर्गर में मस्त है । अब चाहे अमरीका या कोई और कपड़े ही क्यों न उतार ले जाए ।

वैसे कहा गया है कि 'सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया' ।
मगर हम तो इतने आशावादी हैं कि होश तो कभी भी आए, अच्छा ही है ! विनाश के बाद भी तो नई सृष्टि शुरु होती है कि नहीं ?

२१-९-२०१०

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Oct 6, 2010

महारानी एलिजाबेथ को नेक सलाह

मैडम एलिजाबेथ,

नमस्ते । हमारे बचपन में आप ब्रिटेन ही नहीं, भारत की भी महारानी थीं पर वह समय हमें पूरी तरह याद नहीं क्योंकि उस समय आप से ज़्यादा महात्मा गाँधी की जय गूँज रही थी । ब्रिटेन में राजशाही तो खैर बहुत पहले मिट चुकी पर जिस तरह म्यूजियम में पुरानी चीजों का महत्त्व होता है वैसे ही आपको एक विचित्र वस्तु की तरह सजा कर रख छोड़ा है, पर यह सजावट है बहुत महँगी । साठ लाख पौंड तो युवराज को ही मिलता है । राजपरिवार पर तो पता नहीं कितना खर्चा बैठता होगा । हमारे यहाँ भी पहले राजा हुआ करते थे । राज चला गया, प्रीवी-पर्स बंद हो गया पर वे अब भी महाराजा ही कहलाते हैं । भोली जनता अब भी उन्हें वही दर्जा देती है । हमारे यहाँ जो समझदार राजे-रजवाड़े थे, वे अपने महलों में होटल खोल कर बैठ गए । जो ज़्यादा समझदार थे वे राजनीति में आ गए और अब भी राजसी रुतबा भोग रहे हैं ।

हमने पहली बार आपको जनवरी १९६१ में देखा था जब आप ड्यूक के साथ आई थीं और जयपुर महाराजा और महारानी के साथ खुली जीप में शेर का शिकार करने के लिए, वाया सवाईमाधोपुर, रणथम्भौर जा रही थीं । उस समय आपकी उम्र कोई चालीस के आसपास थी और हमारी यही कोई उन्नीस । तब आपका क्या रुतबा था ! वाकई महारानी लग रही थीं । कई दिनों तक सवाईमाधोपुर के काला-गोरा भैरूं जी वाले गेट के बाहर एक तिबारे-नुमा स्थान पर हनुमान जी मूर्ति के साथ रखा आपका फ़ोटो भी हम कई बरसों तक देखा करते थे । अब तो वे पुजारी जी भी नहीं रहे और हो सकता है कि उनके बेटे-पोतों ने आपके स्थान पर डायना या मल्लिका शेरावत की फ़ोटो लगा ली हो । अब आपकी उम्र सन्यास आश्रम की हो चुकी है पर राजा के लिए सन्यास लेना मरने से भी अधिक पीड़ादायक काम है । वैसे अब तो भारी ताज पहनने से आपकी गर्दन में भी दर्द होने लगता होगा ।

आपसे ज़्यादा फ़िकर हमें प्रिंस चार्ल्स की है । वे बेचारे महाराजा बनने के इंतजार में साठ पार करने वाले हैं । जरा, सोचिये ! बेचारे ताज पहनने की ललक को बार-बार सेहरा पहन कर मिटा रहे हैं । अगर वे महाराजा बन गए होते तो इस तरह बार-बार शादी करने, इश्क फरमाने, तलाकशुदा औरत से शादी करने जैसे घटिया काम तो नहीं करते । महाराजा बनने से थोड़ी बहुत तो गंभीरता आती ही । पर अब तो वे अपने आप को प्रिंस ही मानते हैं । जवान, खिलन्दड़ा । पर उम्र तो उम्र है । कहीं स्वयं को जवान मानकर ज्यादा उछल-कूद की तो हड्डी तुड़वा बैठेंगे । साठ साल की उम्र में पता नहीं हड्डी ढंग से जुड़ेगी भी या नहीं । इस उम्र में हमारे यहाँ तो लोग चार धाम की यात्रा पर जाने का प्रोग्राम बनाने लग जाते हैं और प्रिंस हैं कि कोमिला की ही बावन-कोसी परिक्रमा कर रहे हैं ।

इसलिये हम आपको नेक सलाह दे रहे हैं कि आप सन्यास ले लें और बाबा आमटे जैसा कोई पुण्य कार्य पकड़ लें । बड़ा सुख मिलेगा । उन देशों में - विशेषरूप से एशिया, अफ्रीका के जिन देशों पर आपने राज किया है और जिनको चूस कर भी नहीं छोड़ा - जाइए और उन देशों के दुखी लोगों की सेवा कीजिए । आत्मा को बड़ी शान्ति मिलेगी । ये भौतिक ताज और राज सच्चा सुख नहीं देते । सेवा से बड़ा सुख और कुछ नहीं है । उससे जो मेवा मिलेगा वह अंगूर और बादाम से भी मीठा और पौष्टिक होगा । इससे आपके पूर्वजों की आत्मा को भी शान्ति मिलेगी और आपको भी स्वर्ग प्राप्त होगा । आपकी आँखों के आगे ही प्रिंस भी जिम्मेदार और समझदार हो जायेंगे । हालाँकि ब्रिटेन में राजा को कोई अधिकार नहीं होते फिर भी पद तो पद ही होता है । बेचारे बूढ़े प्रिंस को भी अवसर दीजिये । भगवान आपको शतायु करे पर प्रिंस का भी तो ख्याल कीजिए ।

अब तो नई बहू भी आने वाली है । पता नहीं कैसा सलूक करे आपके साथ । इसीलिए समय रहते महारानी से राजमाता बन जाइए । राजमाता का पद भी कोई कम नहीं होता । जैसे माँ बनने का मज़ा है वैसे ही दादी बनने का मज़ा भी कुछ और ही है । महारानी बनी रह कर दादी होने का असली मज़ा नहीं लिया जा सकता । दादी होने का असली मजा तो सब जिम्मेदारियों से मुक्त होकर पोतों को परियों की कहानी सुनाने में है । प्रिंस का पहले वाली पत्नी का बेटा तो अब दारू पीकर इश्क लड़ाने लग गया है । क्या पता, कोमिला ही आपको एक प्यारा सा पोता दे दे । आप दादीत्व से अपने जीवन को आनंदमय कर लीजिये । पर उससे पहले आप फैसला तो कीजिए, महारानी से पक्की दादी बनने का ।

१७ - २ - २००५

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Oct 5, 2010

स्वागत और धन्यवाद प्रेम पत्र


किसी भी कार्यक्रम के दो भाग होते हैं मगर वे एक दूसरे से भिन्न नहीं होते जैसे कि जन्म और मरण, आदि और अंत, रेल का गार्ड और ड्राइवर, उठाला और द्वादशा । स्कूलों में वार्षिक उत्सव के समय प्रिंसिपल स्वागत करता है और अंत में वाइस-प्रिंसिपल धन्यवाद ज्ञापन करता है । कई स्वागत करने वाले और धन्यवाद ज्ञापन करने वाले इतने महान या विनीत होते हैं कि उनके स्वागत और धन्यवाद 'कार्यक्रम' से भी लंबे हो जाते हैं जैसे कि वी.पी. सिंह की 'मंजिल से ज्यादा सफ़र' या किसी चूहे से ज्यादा उसकी लंबी पूँछ । स्कूल के वार्षिकोत्सव में एक और भी महत्वपूर्ण कार्यक्रम होता है प्रिंसिपल द्वारा वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करना । यह स्वागत और धन्यवाद से भी अधिक रोचक होता है इसलिए संचालक पहले ही घोषणा करता है कि अभी प्राचार्य महोदय विद्यालय का वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करेंगे मगर आप कहीं जाइएगा नहीं क्योंकि उसके बाद आज का सबसे मनोरंजक कार्यक्रम अमुक-अमुक होगा ।

तो कॉमन वेल्थ गेम्स का उद्घाटन हो गया । सबसे पहले कलमाड़ी जी बोले । जिसमें स्वागत, धन्यवाद, सफाई, माफ़ी सब कुछ था । बीच-बीच में जहाँ दर्शक 'हो-हो' कर रहे थे उसके अर्थ वे और दूसरे सभी समझ रहे थे । अब इस के बाद द्वादशवें दिन कौन क्या बोलेगा पता नहीं पर ऐसा लग रहा है कि सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा । उद्घाटन के इस अवसर पर तो कलमाड़ी जी तथा और सब ने भी ऐसे बहुतों का उल्लेख छोड़ दिया जो बहुत ज़रूरी था । खेलों से पहले मणिशंकर जी ने कहा था कि वे इन खेलों कि असफलता की कामना करते हैं मगर जब हमने उन्हें समझाया कि आप पहले भी खेल-मंत्री रह चुके हैं और किसे पता है कि आगे इस देश में ओलम्पिक खेल भी हों और उनका भार आपको ही सँभालना पड़ जाए सो इतना ताव नहीं खाना चाहिए । उन्होंने हमारी बात को समझा और इंद्र देव को आदेश दिया कि वे खेलों के समय वर्षा करके बाधा न डालें । और चूँकि इंद्रदेव उनके अंडर में ही आते हैं सो उन्होंने वर्षा करके खेल नहीं बिगाड़ा । सो कलमाड़ी जी को सबसे पहले तो मणिशंकर जी को धन्यवाद देना चाहिए था । क्योंकि अभी तो और ग्यारह दिन बाकी हैं, सो जल्दी से भूल सुधार लें । और यह तो सब जानते हैं कि - “ब्याह बिगाड़ें दो जने, के मूँजी, के मेह” (शादी तो दो जने बिगाड़ते हैं, कंजूस या बारिश)

इसके बाद उन कुत्तों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए जिन्होंने एक हफ्ते से खेल-गाँव में प्रवेश नहीं किया । यदि प्रवेश किया भी तो बिस्तरों पर नहीं चढ़े । यदि बिस्तरों पर चढ़े भी तो पैर पोंछ कर चढ़े । टॉयलेट में गए नहीं, गए तो मल-मूत्र नहीं किया, यदि किया तो करने के बाद फ्लश चला दिया । मक्खी-मच्छरों को भी धन्यवाद दिया जाना चाहिए था कि खिलाड़ियों के आने के बाद से वे किसी कमरे में नहीं घुसे । यदि घुसे भी तो बी.बी.सी. वालों की नज़र बचाकर क्योंकि इन खेलों की सारी व्यवस्था की फ़िक्र सबसे ज्यादा बी.बी.सी. वालों को ही है । तभी तो वे एक-एक कमरे में घुस-घुस कर देखते रहे कि कहाँ क्या हो रहा है । अब भी वे कल ही खबर लाए हैं कि एक खिलाड़ी को डेंगू हो गया है । हम तो कहते हैं कि यदि किसी खिलाड़ी को दस्त नहीं लगें या दो से ज्यादा दस्त लग जाएँ तो इसमें कलमाड़ी की गलती है और भारत की अक्षमता । यदि यहाँ से जाने के बाद यदि किसी खिलाड़ी को एक साल तक बुखार भी हो जाए तो यह भारत की ही अक्षमता मानी जानी चाहिए । इसलिए बी.बी.सी. वालों को भी धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने डेंगू का एक ही मरीज ढूँढ़ा । अगर दस-बीस ढूँढ़ लेते तो कोई क्या कर सकता था ? इसी तरह से किसी कमरे से किसी मच्छर की फोटो ही ले आते तो ? वे चाहते तो किसी कुत्ते से कोई रहस्योद्घाटक साक्षात्कार भी ले सकते थे ।

कार्यक्रम शांति से समाप्त होने पर पड़ोसी, पुलिस, जनता और भी कई भूले-भटके प्रेतों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए पर अभी तो कार्यक्रम शुरू ही हुआ है । हम तो इस कार्यक्रम के उद्घाटन के बारे में एक बात कहना चाहते हैं कि एक लाख किलोमीटर के करीब यात्रा करके जो बेटन लाया गया उसके बारे में कहा गया था कि इसमें महारानी का सन्देश है जिसे प्रिंस चार्ल्स पढ़ कर सुनाएँगे । बेचारे खिलाड़ी उस बेटन को बड़ी सावधानी से उठाए हुए थे कि कहीं महारानी का सन्देश गिर न पड़े । सावधानी के चक्कर में बेचारे खिलाड़ी ढंग से दौड़ भी नहीं पा रहे थे । बेटन लिए हुए दौड़ते खिलाड़ियों की वही हालत हो रही थी जैसी कि विष्णु भगवान द्वारा दिए गए तेल के कटोरे को ब्रह्मा जी तक पहुँचने में नारद जी की हो रही थी । पर जब सुशील कुमार ने बेटन प्रिंस चार्ल्स को दिया तो उन्होंने उसे एक तरफ अटका दिया और जेब से महारानी का सन्देश निकाल कर पढ़ने लगे । भाई, यदि उस बेटन में महारानी का सन्देश था ही नहीं तो पहले ही बताना चाहिए था । बेचारे खिलाड़ी बिना बात ही तनकर-अकड़कर दौड़ रहे थे । यदि पहले ही पता होता तो कम से कम खिलाड़ी ज़रूरत पड़ने पर उसे बगल में दबाकर शंका-समाधान भी कर सकते थे । बेचारे वैसे ही दाबे दौड़ रहे थे ।

वैसे अब तो टेक्नोलोजी इतनी विकसित हो गई है कि उद्घाटन के समय वे सीधा ही लन्दन से बोल सकती थीं और सभी दर्शक उसे उसी समय सुन सकते थे । मगर उस स्थिति में हमारे महाप्रभु ब्रिटेन का इतना प्रचार कैसे हो पाता ? इसी लिए सारे साधन होते हुए भी चुनावों में नेता लोग रोड़ शो करते हैं फिर चुनाव जीतने के बाद भले ही पाँच साल तक अपने कमरे में दलालों के अलावा किसी को घुसने हीं दें । अमेरिका में भी राष्ट्रपति का चुनाव नवंबर में होने के बावज़ूद राष्ट्रपति शपथ लेता है जनवरी में क्योंकि किसी समय, जब आवागमन के तेज साधन नहीं थे, तब चुने हुए राष्ट्रपति को राजधानी पहुँचने में जनवरी आ गई होगी । मगर आज जब चुना हुआ राष्ट्रपति वहीं है और नई ड्रेस पहन कर राष्ट्रपति भवन के चक्कर लगा रहा है, कि कब मौका मिले और अंदर घुसूँ, तब भी वह अंदर जनवरी में ही घुस पाएगा क्योंकि पहले की कोई मजबूरी में शुरु हुई प्रथा आजतक चल रही है । यदि हम कोई पुराना रीति-रिवाज मानते हैं तो उसे पिछड़े हुए लोगों का अंधविश्वास कहा जाएगा ।

चलो जी, भगवान की दया से सब काम ठीक-ठाक निबट जाए और बेचारे कलमाड़ी जी को फाँसी पर नहीं चढ़ना पड़ा । रही बात खेलों के संपन्न होने के बाद जाँच-पड़ताल की, तो 'जो बीत गई सो बात गई' या 'बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय', मतलब कि अब ओलम्पिक की सोच कि किसे, किसका ठेका मिलेगा ? अपना काम तो देश पर गर्व करना है सो अब भी कर रहे हैं और तब भी करेंगे । रही बात महँगाई की तो वह तो इन खेलों के बाद और बढ़ेगी जैसे कि बँगला देश की स्वतंत्रता के बाद बढ़ी थी । खेल देखने की बात है तो या तो वे देखेंगे जिन्हें फ्री पास मिले हैं या जिनका खर्चा सरकार भरेगी या जिन के पास दो नंबर का पैसा है । आपके-हमारे लिए तो इतनी महँगी टिकट खरीदना और फिर दिल्ली में इस समय कहीं ठहरना संभव हो नहीं सकता । कल किसी के घर जाकर उद्घाटन-समारोह देख लिया, यही क्या कम है ? और फिर शास्त्रों ने कहा है कि व्यक्ति को द्रष्टा होना चाहिए और इस दुनिया को खेल मानकर तटस्थ भाव से देखना चाहिए सो देख रहे हैं । ग़ालिब के शब्दों में- 'होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे' ।
बाज़ार से गुजरना पड़ रहा है और खरीददार हो पाना संभव नहीं है ।

४-१०-२०१०

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Oct 3, 2010

कामनवेल्थ और बूढ़े युवराज का स्वागत प्रेम पत्र

[पिछले कॉमन वेल्थ गेम्स के बाद प्रिंस चार्ल्स की भारत यात्रा पर लिखा लेख - १-४-२००६ ]


प्रिंस चार्ल्स जी,
योरप तो गोरे लोगों का था ही । अमरीका की खोज करके उस पर काबिज हो गए । आस्ट्रेलिया पर भी गोरे लोगों ने कब्ज़ा कर लिया । अब बचे अफ्रीका और एशिया सो ये गोरे लोगों के उपनिवेश रहे हैं । इस प्रकार सारे ही संसार पर गोरे लोगों का कब्जा रहा । उन देशों के राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी उनका शोषण कर रहे हैं । अब इसे उपनिवेश नहीं, व्यापार का नाम दिया गया है । आपका देश, ब्रिटेन मतलब कि ग्रेट ब्रिटेन ही गोरेपन का प्रतीक है । आपके राज में कभी सूरज नहीं डूबता था । हाल में ही संपन्न हुए राष्ट्र मंडल खेलों अर्थात कामनवेल्थ गेम्स से पाठकों को खबर हुई होगी कि इन खेलों में पूर्व में ब्रिटेन-अधिकृत इकहत्तर देशों ने भाग लिया ।

कभी-कभी इन देशों के तथाकथित देश भक्त लोग गोरे प्रभुओं के स्मृति चिन्हों, स्थानों के नाम बदलकर स्वाभिमान का नाटक करते हैं । इसी से कुछ होना होता तो अब तक कुछ हो गया होता । असली ज़रूरत तो अंग्रेजी भाषा, रहन-सहन, खान-पान को बदलने की है मगर यह सब, हो सकता है कि, कट्टरपन लगने लग जाए । यदि देखा जाए तो इस मामले में अमरीका सबसे कट्टर है । वैसे अमरीका भी ब्रिटेन के अधीन था । ब्रिटेन उसके लिए कुछ नहीं करता था, बस टेक्स वसूलता था । सो एक दिन अमरीका के ब्रिटिश मूल के अंग्रेजों ने ब्रिटेन के राजा को टेक्स देना बंद कर दिया और स्वतंत्र हो गया । बहुत सस्ते में ही स्वतंत्रता मिल गई ।

पर अमरीका ने अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए जो कुछ किया इसे सुनिए । इसने अपनी भाषा को अमरीकन इंग्लिश कहा, और उसके उच्चारण, स्पेलिंग, व्याकरण अपने अनुसार बदल लिए । सारे संसार से उल्टे, वहाँ वाहन दाहिनी तरफ चलते हैं, स्विच ऊपर करने पर बंद होते हैं । अब भी वहाँ सारे संसार से अलग गैलन, पाइंट, पाउंड, औंस, यार्ड, फुट, इंच, मील चलते हैं । क्रिकेट की तरह उन्होंने अपने लिए बेस-बॉल का आविष्कार किया । फ़ुटबाल को वे फ़ुटबाल नहीं, सॉकर कहते हैं । और वे कॉमनवेल्थ गेम्स में भी शामिल नहीं होते । उन्हें इन खेलों में भाग लेने से अपनी गुलामी की याद आती है ।

और एक हम हैं कि जो अंग्रेजी बोलकर, अंग्रेजों से हाथ मिलाकर धन्य हो जाते हैं । कोई भी कॉमनवेल्थ सम्मलेन होता है तो महारानी प्रिंसिपल की तरह बीच में बैठती हैं और शेष देशों के राष्ट्राध्यक्ष मास्टरों, क्लर्कों और चपरासियों की तरह खड़े होकर फोटो खिंचवाते हैं । इस प्रकार कॉमनवेल्थ का मतलब हुआ कि हमारी वेल्थ तो हमारी है ही बाकी तुम्हारे वाली कॉमन है । कहीं हम अपने भूतपूर्व और वर्तमान आदरणीयों को भूल न जाएँ इसलिए कभी महारानी और नहीं तो आप अपनी भूतपूर्व या वर्तमान पत्नी के साथ यहाँ आते रहते हैं । और हम आपका राजसी अंदाज में स्वागत करके धन्य हो जाते हैं ।

सो हे अभी-अभी आकर गए, दो जवान बेटों के बाप, साठ वर्षीय, दो बच्चों की तलाकशुदा माँ के पति, प्रिंस चार्ल्स, आपकी जय हो । अब की बार आप नवसंवत्सर पर पधारे । हम तो अब तक ईस्वी सन को ही जानते थे । उसी में सारे कार्य करते, सोते-जागते, मरते-जीते थे । हालाँकि ईसा मसीह से पाँच सौ बरस पहले महावीर, बुद्ध हो चके हैं । उससे दो हजार वर्ष पहले की हडप्पा और मोहनजोदारो की सभ्यता है । उससे पहले के राम, कृष्ण, द्वारिका और सेतुबंध हैं । पर आपकी इच्छानुसार यहाँ ईस्वी सन ही चलता है ।

आपने हमें नवसंवत्सर के अवसर पर जयपुर में अपना स्वागत करने का सौभाग्य प्रदान कर जगद्गुरु भारत और नवसंवत्सर को गौरवान्वित किया । इसके लिए हम आपके आभारी हैं । भले ही हमारे सर्वाधिक पूज्य देवता राम, कृष्ण, शिव, विष्णु सभी साँवले हैं पर आज हम फेयर एंड लवली क्रीम लगाकर गोरे होने के लिए मरे जा रहे हैं । हो सके तो कोई ऐसा आविष्कार करवाइए कि हम सब काले-कलूटे लोग आपकी तरह गोरे और बन्दर जैसे मुँह वाले हो जाएँ । सच, इस काले रंग से बड़ी हीनभावना आती है । आपने गाँवों को देखा, आँगन लीपती ग्राम वधू को देखा, यहाँ कि कलाकृतियाँ स्वीकार कीं, जयपुर की गलियों में हेरिटेज वाक किया, सिंहासन पर बैठे और हाथियों से सलामी ली । हम पुनः आपके आभारी हैं ।

और अंत में एक बात और । एक बार पहले जब आप आए थे तो पद्मिनी कोल्हापुरे ने आपका चुंबन ले लिया था हालाँकि चितौड़ की पद्मिनी होती तो स्वयं पर आपकी छाया भी नहीं पड़ने देती । यह चुंबन आप पर कर्जा था सो आपने यहाँ की एक महारानी को चूम कर वह हिसाब बराबर कर दिया । पर अब आप यात्राएँ कम किया कीजिए । साठ पार कर गए हैं । अब घर बैठकर भगवान का नाम लीजिए । अब हमें अपनी गुलामी की याद दिलाने के लिए डायना के जवान पुत्रों को अपनी नवीनतम प्रेमिकाओं के साथ भेजा कीजिए । युवाओं को आँखें सेंकने और अखबार वालों को फोटो छापने में कुछ तो मजा आएगा ।

१-४-२००६
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