Jan 30, 2012

तोताराम और जूते के फीते


जूते और फीते

१९ जनवरी २०१२ को छिन्दवाड़ा, मध्य प्रदेश में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मध्य प्रदेश के सहकारिता और जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी मंत्री गौरीशंकर चतुर्भुज बिसेन द्वारा एक बालक से अपने जूतों के फीते बँधवाने का समाचार पढ़कर बाल-अधिकारों के समर्थक अन्य लोगों की तरह हमें भी बुरा लगा । अब हमारे लिए यह तो संभव नहीं है कि हम मंत्री से सवाल-ज़वाब तलब करें । हमारे पास तो दो ही रास्ते हैं कि या तो उन्हें पत्र लिख दें या फिर तोताराम से एक्सपर्ट ओपिनियन लें ।

आते ही चाय हाजिर करने से पहले हमने तोताराम से इसी विडंबना का ज़िक्र किया तो कहने लगा- विद्या से सबसे पहले विनय प्राप्त होती है और उसके बाद ही जीवन की सफलता के सारे द्वार खुलते हैं । यदि इस बालक ने वास्तव में ही मंत्री जी के जूतों के फीते बाँधे हैं तो इस बालक का भविष्य बहुत उज्ज्वल है । आज तक जितने लोगों ने जूतों के फीते बाँध कर उन्नति की हैं उतने जूते फेंकने वालों ने नहीं की है । जूते फेंकने वाले दो दिन चर्चित हो जाते हैं मगर जूतों के फीते बाँधने वाले या जूते उठाने वाले जीवन भर मौज करते हैं और सत्ता का सुख भोगते हैं । इमरजेंसी में भी कहा जाता है कि कई वयोवृद्ध नेताओं तक ने संजय गाँधी के जूते उठाए थे और जीवन भर सत्ता में उच्च पदों का सुख भोग था ।

जूते उठाना भक्ति और श्रद्धा का प्रमाण है । आजकल कहाँ मिलते हैं सच्चे जूते उठाने वाले । आजकल तो यदि कोई पैर छूने भी झुकता है तो लगता है कहीं टाँगें ही न खींच ले या जूते पहनाते-पहनाते जूते उठाकर ही गायब न हो जाए या फिर वे जूते कहीं सिर पर न दे मारे । सच्चे भक्त को यह नहीं देखना चाहिए कि स्वामी क्या आज्ञा दे रहा है, उसे तो बस तत्काल उसका पालन करना चाहिए । ऐसे ही सच्चे भक्त के वश में तो भगवान भी हो जाते हैं । कहते हैं भगवान ने कई सच्चे भक्तों की भक्ति से प्रभावित होकर तरह-तरह से स्वयं भक्तों की सेवा की है । कहते हैं कि एक भक्त का तो भगवान ने स्वयं खेत जोता था । मोहम्मद गौरी ने तो अपने सबसे स्वामिभक्त गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का बादशाह बना दिया था । फिर यह नेता तो गौरी शंकर चतुर्भुज बिसेन है । गौरीशंकर अर्थात शिव, चतुर्भुज अर्थात ब्रह्मा और बिसेन अर्थात विष्णु मतलब कि साक्षात् ईश्वर । लोग तो ईश्वर की माया को ही जूते पहनाते हैं, उसके चरणों का स्पर्श करते हैं उसके आगे जूते उतार कर ज़मीन पर बैठते हैं फिर यह तो साक्षात् ईश्वर है ।

ईश्वर ही सब का सच्चा मूल्यांकन कर सकता है तभी इसने एक बार कहा था कि आदिवासियों को समझ नहीं होती या ब्राह्मण जन्म से ही मूर्ख होते हैं । सच है, यदि ब्राह्मणों में ही अकल होती तो राजाओं का मार्गदर्शन करने की बजाय वशिष्ठ या चाणक्य जैसे ब्राह्मण स्वयं राजा नहीं बन जाते ? और फिर इसी के पीछे क्यों पड़ रहा है । जब लालू जी मुख्य मंत्री थे तो उन्होंने भरी सभा में अपने चीफ सेक्रेटरी से अपने लिए खैनी बनवाई थी । सोचो यदि वह पद के अभिमान में आकर ऐसा नहीं करता तो पता नहीं कहा-कहाँ धक्के खाता फिरता । जब कि अब शांतिपूर्वक रिटायर होकर पटना में सुखी जीवन बिता रहा है । अरे, यह तो एक मंत्री था, एक साधारण से एम.एल.ए. या नगरपालिका अध्यक्ष या सरपंच तक को देख ले उसको भी एक नहीं अनेक जूते पहनाने वाले मिल जाएँगे । और तू इस बालक को शोषित क्यों मानता है? हो सकता है यह कोई स्काउट हो जो अपने जूते स्वयं न पहन सकने वाले मज़बूर व्यक्ति की मदद कर रहा हो ।

हम अब तक बोर और दुखी हो चुके थे सो कहा- हम ऐसे मज़बूरों को बहुत जानते हैं । यदि इसी की पार्टी का अध्यक्ष या मुख्यमंत्री आ जाए तो यह खुद उसे जूते पहनाने के लिए भागेगा । लेकिन राहुल गाँधी तो इससे कोई कमतर नेता नहीं हैं मगर पाँच साल पहले हमने उनका एक फोटो देखा था जिसमें वे अपने जूतों के फीते खुद बाँध रहे थे ।

तोताराम कोई चूकने वाल थोड़े ही है, कहने लगा- अरे, जब प्रधान मंत्री बन जाएँ तब देखना ।

अब जो बात भविष्य के गर्भ में है उसको लेकर तो तर्क किया भी नहीं जा सकता । अब तो उत्तर देने राहुल के प्रधानमंत्री बनने का इंतज़ार करना पड़ेगा । वैसे हम व्यक्तिगत रूप से किसी से जूतों के फीते न बँधवाने को सुरक्षा की दृष्टि से एक सतर्कतापूर्ण उपाय मानते हैं ।

तोताराम ने बात समाप्त करते हुए आगे कहा- अरे, जूते पहनाना कई और तरीकों से भी तो हो सकता है ।

अबकी बार हम तोताराम की व्यंजना से असहमत नहीं हो सके ।

२४-१-२०१२

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

तोताराम और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता


तोताराम और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

आज तोताराम ने आने के लिए सूरज के उगने का इंतज़ार नहीं किया । पाँच बजे ही दरवाजा खड़खड़ा दिया । हमें बड़ा अजीब लगा फिर सोचा कोई अत्यावश्यक कार्य आ पड़ा होगा । पूछ तो बोला- जल्दी तैयार हो जा, जयपुर चलना है साहित्यिक उत्सव में । छः बजे वाली पेसेंजर पकड़ लेंगे तो बीस रुपए में ही काम हो जाएगा नहीं तो बाद में बस के साठ रुपए देने पड़ेंगे ।

हमने कहा- अभी तो कोहरा छाया हुआ है, थोड़ा इंतज़ार कर लें तो ठीक रहेगा ।
कहने लगा- कोहरा छँट तो गया, सलमान रुश्दी नहीं आ रहा है । और जहाँ तक यू.पी. में चुनाव के कोहरे के छँटने की बात है तो वह अपना नहीं, नेताओं का सिर दर्द है ।

हमने उत्तर दिया- तो क्या तुझे सलमान रुश्दी की जगह बुलाया है ? बिना बुलाए जाने पर तुझे अंदर कौन घुसने देगा ? और फिर अबकी बार सुरक्षा व्यवस्था भी बहुत कड़ी है ।

बोला- बुलाया तो मुझे साधारण लेखक की हैसियत से भी नहीं गया है और जहाँ तक घुसने की बात है तो तू उसकी चिंता मत कर । जब बँगलादेश से करोड़ों लोग भारत में घुस सकते हैं, सलाही दंपत्ति ओबामा के भोज में घुस सकते हैं, प्रधान मंत्री के कार्यालय में 'मोल' घुस सकता है तो अपन भी घुस ही जाएँगे ।

हमने कहा- और फिर रुश्दी को तो इसलिए बुलाया गया है कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक है जब कि तू तो किसी लम्पट उम्मीदवार तक को वोट के लिए 'ना' नहीं कह सकता ।

तोताराम उखड़ गया- अरे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी डेढ़ हज़ार वर्ष पहले हो चुके, करोड़ों लोगों के श्रद्धास्पद व्यक्ति पर कीचड़ उछालना ही है क्या ? यह तो उपनिवेशवादी देशों की चाल है कि वे ईसाई धर्म के अलावा अपने धर्म या देश को गाली निकालने वाले किसी भी सिरफिरे को उछाल देते हैं । उनके बाप का क्या जाता है ? यदि समरसता भंग होगी तो किसी और की । अच्छा है किसी अन्य धर्म की छीछालेदारी होगी तो उनके धर्म के लिए स्थान की संभावना बनेगी । ऐसे ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास करने वाले हैं तो ईसाई धर्म पर कीचड़ उछालने वाले किसी लेखक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पुरस्कृत क्यों नहीं करते ?

किसी पर कीचड़ उछालना, अश्लीलता फैलाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या साहित्य नहीं है । यदि ऐसा ही है तो पूनम पांडे को दैहिक-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम सम्मानित क्यों नहीं किया जाता ? अरे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही देखनी है तो कबीर में देख जिसने मुग़ल शासन में इस्लाम और काशी जैसी पंडितों की नगरी में दोनों धर्मों के पाखंड को ललकारा था, रैदास को देख जिसने गंगा के नाम से आडम्बर फ़ैलाने वालों को कह दिया था- 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' या फिर मीरा को देख जिसने कह दिया था- 'राणा जी म्हारो काईं करसी' । अंग्रेजों के राज में उत्तर प्रदेश से निकलने वाले अखबार 'नव भारत' के एक के बाद चार-चार संपादक देश भक्ति के अपराध में सेल्यूलर जेल में भेज दिए गए थे ।

हम जानते हैं कि हम बहस में तोताराम से नहीं जीत सकते सो बात बदलने के लिए कहा- मगर तोताराम, जयपुर में ठहरेंगे कहाँ ? यदि रेल के प्लेट फ़ार्म पर रात गुजारी तो हो सकता है कि अगले दिन उत्सव में पहुँचने की जगह कहीं ऊपर ही नहीं पहुच जाएँ ।

तोताराम के पास इसका भी उत्तर था, बोला- रुश्दी के लिए जो कमरा बुक करवाया था उसके पैसे तो लग ही गए होंगे । वह नहीं आया तो हम ही उस कमरे में ठहर जाएँगे । आयोजकों का कोई एक्स्ट्रा खर्चा भी नहीं लगेगा ।

हमने कहा- मगर तोताराम यह भी तो हो सकता है कि हम रात को उस कमरे में सोएँ और कोई कट्टरपंथी किसी तरह होटल में घुस कर हमें या तुझे ही रुश्दी समझ कर काम तमाम कर जाए ।

तभी तोताराम ने कहा- बंटी की दादी ने रास्ते के लिए गोंद के कुछ लड्डू बाँधे थे । मैं लाना भूल गया । अभी लेकर आता हूँ । तू तब तक जल्दी से तैयार हो ।

हम तैयार हुए बैठे हैं । उत्सव के समापन का दिन आ रहा है और तोताराम का कहीं पता नहीं ।

२१-१-२०१२

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Jan 27, 2012

राष्ट्रीय-गर्व


राष्ट्रीय-गर्व

नार्वे में बाल विकास में संलग्न संस्था की बंगाली दंपत्ति से उनके बच्चे लेकर किसी 'बाल विकास की विशेषज्ञ' की सँभाल में रख दिया गया, यह घटना पिछले साल मई की है | इस संचार-समृद्ध संसार में भी नार्वे से भारत की जनता तक यह समाचार पहुँचने में आठ महिने लगे | कुछ भी हो, समझौता हो ही गया | अपनी सरकार और विशेष रूप से विदेश मंत्री जी की सक्रियता से हम बहुत प्रभावित हुए | तोताराम के आते ही हमने कहा- देखा, तोताराम अपनी सरकार का रुतबा ? दो-चार दिन में ही समझौता हो गया |

तोताराम स्थाई विपक्ष है | हम जो भी कहते हैं उसे कभी भी स्वीकार नहीं करता | कहने लगा- अरे, नार्वे में स्थित भारतीय दूतावास की निष्क्रियता की बात क्यों नहीं करता ? यदि यह समाचार मीडिया में नहीं आता तो अब भी कुछ होने वाला नहीं था | यह उस दंपत्ति के साथ संवेदना नहीं है बल्कि भद्द पिटने के डर से की गई कार्यवाही है | और यह कोई समझौते का विषय था क्या ? कौन-सा झगड़ा था, यह तो सीधे-सीधे दादागीरी का मामला था | और अब भी क्या कोई नार्वे ने यह थोड़े ही स्वीकार किया है कि उससे गलती हुई है | वह तो अब भी अपनी बात पर कायम है कि बच्चे के साथ अन्याय हुआ | उसे अन्याय से बचाने के लिए बच्चे को उसके माता-पिता को थोड़े ही दिया गया है बल्कि उसके चाचा-चाची को दिया गया है | अब भी किसे पता है कि नार्वे की सरकार कोलकाता में भी उस बच्च्चे के पालन-पोषण की निगरानी नहीं रखेगी ? अब भी हो सकता है कि यदि उसके चाचा-चाची अब भी उस बच्चे को दही-चावल खिलाएँगे तो उनके खिलाफ कार्यवाही नहीं करेगी ?

हमने कहा- भई, जब हम किसी देश में जाते हैं तो उस देश के नियमों को तो मानना ही चाहिए ना ? व्हेन यू आर इन रोम, डू एज रोमंस ड़ू |

तोताराम बिफर गया- हाँ-हाँ, हमें तो रोम में ही क्या, भारत में रह कर भी वैसे ही करना पड़ेगा जैसे रोमंस कहेंगे | यह ताकतवर की टाँग है जो हर हालत में ऊपर ही रहेगी | दूसरे विश्व युद्ध के बाद जर्मनी पर क्या-क्या शर्तें नहीं लादी गई थीं | मगर चलो जर्मनी तो हारा हुआ था पर हम कौनसे हारे हुए हैं जो ज़रा सा भी प्रतिवाद नहीं किया कि बंगाली दंपत्ति की कोई गलती नहीं थी |

ब्रिटेन ने सबसे ज्यादा अत्याचार पंजाब में किए थे | जलियाँवाला बाग कांड वहीं हुआ था | मगर अब भी हीथ्रो हवाई अड्डे पर झाड़ू लगाने वाले अधिकतर लोग पंजाब के ही हैं | जब एलिजाबेथ भारत आने वाली थीं तब लोगों ने बहुत हल्ला मचाया था कि उन्हें जलियाँवाला कांड के लिए माफ़ी माँगनी चाहिए मगर वे स्वर्ण-मंदिर गईं भी मगर माफ़ी माँगना तो दूर की बात, उनके पतिदेव ने तो यहाँ तक कह दिया कि जलियाँवाला कांड में मारे गए लोगों की संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बताई गई है | अब कर लो बात |

अब भी कभी अमेरिका में, तो कभी किसी और योरोपीय देश में जब-तब ऐसे वक्तव्य आते रहे हैं जिनसे हमारा अपमान होता रहता है मगर कभी भी, कुछ भी निर्णायक कभी नहीं हो पाता | अमरीका बहुत बातें करता है मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता की मगर जिस पादरी को कुरान जलानी थी उसने उस समय नहीं तो फिर कुछ दिन बाद कुरान जला ही दी ना ? और उसे दंड नहीं देने की बात आई तो कैसा मासूम बहाना बना दिया कि अमरीकी कानून में कुरान जलाने के बारे में कानून में दंड का कोई स्पष्ट विधान नहीं है पर होलोकास्ट के गलत बताने वाले को दंड का विधान अब भी है | इसका कारण यह है कि वहाँ यहूदी लाबी बहुत शक्तिशाली है | वे तुम्हारे देश की शक्ति को जानते हैं | वे जानते हैं कि यहाँ के नेता अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा और लाभ देखते हैं उन्हें राष्ट्रीय सम्मान या नुकसान की कोई परवाह नहीं है | तभी जब-तब, यहाँ-वहाँ थप्पड़ खाते रहते हैं |

नार्वे या और शक्तिशाली गोरे देश जो रोम में करते हैं वही यहाँ भी करेंगे | और तुम्हें यहाँ भी वही करना पड़ेगा जो रोम में करना पड़ता है | थोड़े दिनों में वे यह नियम भी बना देंगे कि अमुक देश में जाओगे तो अमुक कपड़े पहनने पड़ेंगे, अमुक खाना खाना पड़ेगा, अमुक तरह से बच्चों को पालना पड़ेगा | हो सकता है किसी दिन यह भी हो जाए कि वहाँ अपने हिसाब से पूजा-पाठ भी नहीं कर सको | हो सकता है किसी दिन यह भी कह दें कि ईसाई धर्म स्वीकार करना पड़ेगा | जिनके रीढ़ की हड्डी नहीं होती उनका यही हाल होता आया है और होता रहेगा |

हमने कहा- मगर सब कुछ इस दृष्टि से मत देखो | यहाँ तो कोई ज़बरदस्ती नहीं करता कि पिज्जा खाओ ही, कोकाकोला पिओ ही मगर लोग अपनी मर्जी से जब ऐसा करते हैं तो उन्हें क्या दोष दिया जा सकता है ? यहाँ भी अब स्तन-पान के लिए प्रचार करना पड़ता है | जब लोग अपनी मर्जी से ही स्तन-पान को छोड़ रहे हैं तो क्या किया जा सकता है ?

तोताराम ने उदास होकर कहा- बंधु, जब दूल्हे को ही लार टपकती है तो बारातियों को कौन पूछेगा ? वरना बंगाली दंपत्ति और कुछ नहीं तो इस अमानवीय नियम के विरुद्ध और इस समझौते की आलोचना करते हुए नार्वे वाला काम छोड़ भारत तो आ सकते थे | गाँधी जी ने तो साफ कह दिया था ब्रिटेन के सम्राट को उनसे मिलना हो तो मिलें मगर वे अपनी अधनंगे फकीर वाली पोशाक नहीं छोड़ेंगे | साहस के बिना कोई नहीं सुनता |

चलो, आज गणतंत्र-दिवस है, और कुछ नहीं तो कुर्ता पहन कर ही राष्ट्रीय-गर्व का अनुभव कर लेते हैं |

२६-१-२०१२
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Jan 23, 2012

उम्र का फार्मूला


वैसे तो सभी बातों का हिसाब लगाने के नियम गणित में बने हुए हैं मगर कुछ लोग इन नियमों में विश्वास नहीं करते और अपने हिसाब से नियम बनाते हैं । कुछ महिलाएँ पता नहीं कैसे हिसाब लगाती हैं कि बीस-तीस से ऊपर जाती ही नहीं । कुछ लोग कहते हैं कि पुरुष की उम्र उतनी है जितने का वह अनुभव करता है और औरत की उम्र उतनी है जितने की वह दिखती है । अब इस दिखने में भी कई चक्कर हैं । पता नहीं, यह सिद्धांत मेकअप के बाद दिखने का है या मेकअप से पहले दिखने का है । मेकअप उतारने के बाद अधिकतर महिलाएँ अपनी दादी की उम्र की लगने लग जाती हैं ।

पुरुषों का भी यही हाल है । जब उन्हें गद्दी पर बने रहना है या चुनाव का टिकट चाहिए तो वे अपने को दिल से जवान बताते हैं और बाल रंग कर सीधे तन कर चलते हैं और कभी-कभी जवान दिखने के चक्कर में हाथ-पैर भी तुड़वा बैठते हैं । वैसे कई नेता वास्तव में ही कमाल करते हैं और अस्सी से भी अधिक की उम्र में उनकी सीडियाँ पकड़ी जाती हैं और फिर उन्हें पद त्यागना पड़ता है । जब जेल जाने की नौबत आती है तो सभी अपनी बीस-तीस बीमारियों की लिस्ट थमा देते हैं और बुढ़ापे के आधार पर जमानत या माफ़ी चाहते हैं ।

कुछ लोग नौकरी पाने के लिए एक दो वर्ष कम होने पर भी अपनी उम्र अधिक लिखवा देते हैं और बाद में रिटायरमेंट के समय पछताते हैं कि यदि ऐसा नहीं किया होता तो ठीक होता । कुछ ऐसे कर्मचारी भी देखे गए हैं जिनके लिए किसी शैक्षणिक योग्यता की आवशयक नहीं होती थी तो वे अपनी जो भी उम्र बता दें सो ठीक । ऐसे लोग सत्तर-अस्सी की उम्र तक नौकरी करते देखे जाते थे । आज भी चुनाव लड़ रहे कई नेताओं की कई-कई उम्र बताई गई हैं । पर सही वही होगा जो वे कहेंगे । उन्हें कौन सा रिटायर होना है ?

आवारा जानवरों को न कोई खरीदता है और न बेचता है सो उनके लिए तो कोई फार्मूला नहीं है मगर पालतू जानवरों की उम्र का हिसाब उनके दाँत गिनकर लगाया जाता है मगर जब मुफ्त में मिले तो दाँत भी नहीं देखे जाते जैसे कि दान की बछिया के । हाथी के दो तरह के दाँत होते हैं । पता नहीं उसके कौनसे दाँत गिने जाते हैं ? अब जिनकी उम्र का हिसाब लगाया जाना है उनमें यह भी देखना पड़ता है कि वह जानवर कैसा है ? सीधे जानवर की बात और है पर किसी खूँख्वार से पाला पड़ जाए तो हम दाँत गिनने जाएँ और वह हाथ ही चबा जाए ।


कभी-कभी उम्र घटाकर बताने में फायदा है तो कभी बढ़ाकर बताने में । साधु अपनी उम्र बढ़ाकर बताता है जिससे उसके तप और ब्रह्मचर्य का प्रभाव पड़े । पेशेवर स्त्रियां अपनी उम्र घटा कर बताती हैं । अधिकतर सरकारी कर्मचारियों के लिए यह सुविधा नहीं है कि अपनी उम्र में परिवर्तन कर सकें । अब एक देश की रक्षा करने वाले महाशय की उम्र का सवाल उठ खड़ा हुआ है । दसवीं के प्रमाण-पत्र में कुछ और है और सरकारी फ़ाइल में कुछ और । जब तक एक से फायदा मिलता रहा तो उससे फायदा लिया और जब दूसरी से फायदा मिलने की उम्मीद हुई तो दूसरी पर अड़ गए ।

अरे, भई रिटायर तो होना ही है आज नहीं तो कल । बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी । यह कोई राजनीति तो है नहीं कि भूस भरा हुआ नेता भी गद्दी पर बैठा रहे तो काम चल जाता है क्योंकि वास्तव में उसे कोई काम करना ही नहीं होता । जनता अपनी फाड़ती-सीती है । जिन्हें नेता के नाम से रिश्वत लेनी होती है वह लेता ही रहता है चाहे 'क' के नाम से ले या 'ख' के नाम से ले । पता नहीं, एक साल में क्या हो जाएगा ?

खैर, हम तो आज़ादी से पहले ही स्कूल में भर्ती हो गए थे और उस समय जो मास्टर जी लिख देते थे वही सही । जैसे कि मतदाता पहचान पत्र आदि में जो भी छापने वाले छाप दें, उनकी मर्जी । हमारी पत्नी की उम्र हमसे पाँच साल अधिक छाप दी । अब क्या कहें । राम-राम करके तो पहचान पत्र बना अब उसे ठीक करवाने में उससे भी ज्यादा झंझट । हमने एक बार दिल्ली में अपने सेवाकाल में पैन कार्ड बनवाया । सब कुछ सही लिखकर देने के बावज़ूद हमारे नाम की वर्तनी गलत लिख दी । हम इनकम टेक्स कार्यालय में गए तो बताया गया कि इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता । फोटो तो आपकी ही है ना ? अब हम क्या कहते ? वही पुराना गलत वर्तनी का कार्ड लिए बैठे हैं । वैसे अब तो वह व्यर्थ ही हो चुका है क्योंकि इतनी पेंशन ही नहीं बनती कि टेक्स लगे । पर गलती तो गलती ही है ।

मास्टर जी ने हमारी जन्म तिथि ५ जुलाई लिख दी । शायद उसी दिन एडमीशन हुआ होगा । गिन कर पाँच साल का हिसाब लगा लिया । वैसे हमारा जन्म दिन १८ अगस्त है । यही हाल जन्म के समय का है । हमारी माँ का कहना है जन्म से पहले साढ़े ग्यारह बजे रात को आने वाली गाड़ी आ चुकी थी और हमारी दादी कहती थीं कि गाड़ी जन्म होने के बाद आई थी । इसीलिए हमारे ज्योतिषी चाचा हमारे बारे में कोई निश्चित भविष्य वाणी नहीं कर सके । उनके अनुसार हमें इंजीनीयर होना चाहिए था जब कि हम मास्टर बनकर शब्दों की ठोका-पीटी करते रहे । अगर पता होता कि १५ अगस्त को देश स्वतंत्र होने वाला है तो १५ अगस्त करवा लेते । उससे भी खैर, होना जाना तो क्या था ? पर एक झूठ-मूठ का रोमांच तो ज़रूर हो जाता कि क्या पता, यदि हम इस धरा-धाम पर न आते तो अंग्रेज देश को आज़ाद करते या नहीं ।

वैसे भाई साहब हम तो यह जानते हैं कि यमराज और घरवाली दोनों आपकी सही उम्र जानते हैं । नकली दाँत लगवा कर, बाल काले रँग कर आप इन्हें धोखा नहीं दे सकते । पत्नी को पता है कि आप साठ के हो चुके हैं और यमराज भी सही समय पर आ ही जाएगा । उसे कोई धोखा नहीं दे सकता । फिर कैसी उठापटक ?


किसको धोखा दे रहे  काले रँगकर बाल । 
दोनों ही सच जानते घर वाली औ' काल ॥

१९-१-२०१२

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

तोताराम का विज्ञान प्रधान देश

भारत एक 'प्रधान' देश है इसलिए वह जब चाहे, जिस क्षेत्र में चाहे प्रधान बन जाता है । पहले वह एक कृषि प्रधान देश था । उस समय देश में भुखमरी थी । अनाज विदेशों से आता था । किसी तरह कृषि विश्वविद्यालय खुले, खाद के कारखाने खुले, बीजों में भी सुधार हुआ और कृषि उत्पादों में आत्मनिर्भरता आई । मगर उसे तो एक विकसित देश बनना था सो इतना विकसित हुआ कि अनाज निर्यात किया जाने लगा और इतना निर्यात किया गया कि फिर से उसी अनाज को, उन्हीं देशों से महँगे भावों पर फिर आयात करना पड़ा । अब हालत यह है अनाज गोदामों में सड़ रहा है और लोग भूखे मर रहे हैं । अब उसे यंत्रीकरण में उन्नति करनी थी सो यंत्रीकरण शुरु हुआ और हालत यह हो गई कि कारें बढ़ गईं और सड़कें कम पड़ गईं । कान कम पड़ गए और मोबाइल ज्यादा हो गए । मोबाइल कानों को ढूँढते फिर रहे हैं ।

उसके बाद यह देश एक लोकतंत्र-प्रधान देश बन गया । उसके सारे निर्णय लोकतंत्र के अनुसार लिए जाने लगे- चाहे वह रोटी का प्रश्न हो या फिर रोजी का । अब तो हालत यह है कि भगवान के बारे में भी और यहाँ तक कि न्याय संबंधी निर्णय भी लोकतंत्र अर्थात वोट बैंक के आधार पर लिए जाने लगे हैं । अब इस देश को विज्ञान प्रधान बनाने की जी तोड़ कोशिशें हो रही हैं हालाँकि केमेस्ट्री, भौतिकी आदि किसी के साथ भी विज्ञान नहीं लगा हुआ है जब कि विज्ञान लगा हुआ होने पर भी राजनीति विज्ञान, गृह विज्ञान, भाषा विज्ञान को कोई विज्ञान मानने के लिए तैयार नहीं । अजीब विडंबना है ।

जब से तोताराम ने न्यूटन के गुरुत्त्वाकर्षण के सिद्धांत को झूठ सिद्ध किया है तब से हमने उसे अपने छाया-मंत्रीमंडल में वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त कर लिया है और विज्ञान के बारे में हम हर मामले में उसी से सलाह करते हैं । अभी कोई आठ-दस दिनों पहले कलाम साहब ने कहा कि हमारे देश में शोध और आविष्कार कम होते हैं । सो आज जैसे ही तोताराम आया हमने तोताराम के सामने समस्या रखी तो कहने लगा- कलाम साहब को देश में हो रहे आविष्कारों और खोजों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है, यदि होती तो वे ऐसा नहीं कहते ।

हमने कहा- तोताराम, कलाम साहब तो बहुत अपडेट रहने वाले व्यक्ति हैं । यदि ऐसा कुछ होता तो उनसे क्या छुपा रहता ?

तोताराम ने कहा- कलाम साहब बहुत ऊँची बातें सोचते हैं । बड़ी-बड़ी जगहों पर जाते हैं इसलिए उन्हें सामान्य लोगों द्वारा किए जा रहे आविष्कारों की जानकारी नहीं है । वैसे जब कोयले की खानों का राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ था तब भी लोगों ने अपनी वैज्ञानिक प्रतिभा का चमत्कार दिखाया था । तब कागजों में जितने कोयले का उत्पादन हुआ उससे ज्यादा निर्यात कर दिया गया । यह किसी बहुत बड़े वैज्ञानिक चमत्कार से कम है क्या ?
सरकार के बैंकों में, पोस्ट आफिस में जमा करवाने पर रुपया रो-रो कर कोई आठ साल में दुगुना होता है जब कि राजस्थान में एक 'स्वर्ण-सुख' नामक कंपनी ने एक साल में रुपया पन्द्रह गुना करने का वादा किया तो क्या यह मनमोहन जी के अर्थ-विज्ञान से कम है ?

हमने प्रतिवाद किया- मगर रुपया पन्द्रह गुना कहाँ हुआ ?

तोताराम ने उत्तर दिया- पन्द्रह गुना क्या, पन्द्रह लाख गुना हो गया । पता है, कंपनी बनाने वालों ने जितना विज्ञापन और कार्यालय खोलने में खर्च किया और जितना जनता के धन की सुरक्षा करने वालों को दिया उससे तो पन्द्रह लाख गुना से भी ज्यादा हो गया । अब उससे कौन बहस करे ?

हमने विषय का एक और आयाम निकाला- कहा, यह तो धोखाधड़ी है । कोई ऐसा आविष्कार बता जिससे कोई खाने-पीने की चीज़ बढ़ी हो ।

निरुत्तर हो जाने वाला तोताराम नहीं है । कहने लगा- जिस समय देश स्वतंत्र हुआ था उस समय जितना दूध का उत्पादन होता था उससे जाने कितना गुना बढ़ गया है जब कि हमारा देश सबसे ज्यादा चमड़े का निर्यात करता है । गाएँ सड़कों पर धक्के खाती फिरती हैं, गौशालाओं में अनुदान मिलने पर भी भूखी मरती हैं । फिर भी जब कभी कोई त्यौहार आता है तो मावे और दूध की निर्बाध सप्लाई हो जाती है । जितना चाहो पनीर, बटर और घी ले लो । ऐसी घी-दूध की नदियाँ तो कृष्ण के समय में भी नहीं बहती थीं ।

हमारे पास कोई उत्तर नहीं था सो हमने कहा- बंधु, तुम्हारी इन सूचनाओं से हमारा अत्यंत ज्ञानवर्धन हुआ है और कलाम साहब का तो पता नहीं, पर विज्ञान में देश के कम उन्नति करने के कारण हमारे मन में व्याप्त हीन-भावना समाप्त हो गई है और हमें लग रहा है कि गर्व से हमारी छाती कुछ-कुछ चौड़ी भी हो रही है ।

तोताराम ने देश की वैज्ञानिक उपलब्धियों के बारे में आगे बताया कि एक ही स्थान पर दो तरह के गुरुत्त्वाकर्षण बनाए जा सकते हैं । आज भी देश में ऐसे चमत्कारी लोग मिल जाएँगे जो सामान खरीदते समय बाट वाले पलड़े में गुरुत्त्वाकर्षण की मात्रा इतनी बढ़ा देते हैं कि पाँच किलो की जगह सात किलो सामान आ जाता है और बेचते समय सामान वाले पलड़े का गुरुत्त्वाकर्षण इतना बढ़ा देते हैं कि पाँच किलो की जगह तीन किलो सामान की ग्राहक के पल्ले पड़ता है ।

इस देश में वैज्ञानिकों ने ऐसी क्रीम बना ली है जो केवल पाँच रुपए में मिल जाती है और उपयोग करने वाली को चौदह दिन में ही इतना गोरा बना देती है कि उसे तत्काल दूल्हा मिल जाता है या किसी विमानन कंपनी में एयर होस्टेस की नौकरी मिल जाती है । आज तक कोई भी गोरा देश ऐसी क्रीम नहीं बना सका जिससे यह चमत्कार हो सके अन्यथा वे सरलता से सभी अफ्रीकियों को गोरा बना देते और जो एकता ईसाई बनाने पर भी नहीं आ सकी वह आ जाती और फिर सभी काले अफ्रीकी उन्हें अपना ही भाई समझते और गोरों को अफ्रीका से नहीं जाना पड़ता और न ही उन पर रंग भेद का आरोप लगता ।

और फिर यह तो तुम्हें मालूम ही होगा कि बिहार में पशु-पालन विभाग के कर्मचारियों ने नेताओं के निर्देशन में ऐसा स्कूटर बनाया था जिस पर बैठकर भैंस हरियाणा से बिहार जा सकती थीं । उसी काल में ऐसी क्षुधावर्द्धक दवा बना ली थी जिसे खाकर एक मुर्गी आठ सौ रुपए का चारा खा सकती थी । अब यह बात और है कि दो-चार दिन पहले ही बिहार के पशुपालन विभाग के कोई चालीस से अधिक कर्मचारियों को इस आविष्कार के लिए पुरस्कृत किया गया मगर पता नहीं बेचारे लालू जी और जगन्नाथ मिश्र को इस गौरव से क्यों वंचित कर दिया ?

आँगनबाड़ियों में सभी बच्चों को दो-पाँच रुपए में पौष्टिक भोजन खिला कर भी संचालक लोग स्वयं लखपति बन गए हैं । यह क्या किसी चमत्कारिक आविष्कार से कम है ? इतना तो द्रौपदी की अन्नपूर्णा वाली हंडिया से भी संभव नहीं था । कलाम साहब ने तो इतने वर्षों तक दिमाग खपाकर कुछ मिसाइलें बनाईं मगर अपने यहाँ तो ऐसे-ऐसे महापुरुष पड़े हैं जो हजारों किलोमीटर दूर बैठकर शब्दों से ही ऐसे-ऐसे गोले दागते हैं कि सामने वाले का मरण हो जाता है । बाजार ने ऐसे-ऐसे आविष्कार कर लिए हैं कि कोल्हू में डालने की ज़रूरत ही नहीं, दूर से ही चलते फिरते आदमी का तेल निकाल लेते हैं ।

हमने फिर भी पीछा नहीं छोड़ा और कहा- तो फिर तोताराम, हमारे इन वैज्ञानिकों को नोबल पुरस्कार क्यों नहीं मिलता ?

तोताराम ने कहा- अरे, हम ज्ञान के पुजारी हैं । न तो हम किसी पुरस्कार के पीछे भागते हैं और न ही पेटेंट लेकर किसी आविष्कार से पैसे कमाना चाहते हैं । हम तो सर्वजन-हिताय काम करते हैं ।

अब आप ही बताइए कि ऐसे ज्ञानी और तार्किक व्यक्ति से कोई कैसे जीत सकता है ? वैसे हम भी जीत कर तोताराम का मुँह बंद नहीं करना चाहते ।

१९-१-२०१२


पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Jan 22, 2012

बाल-विकास की एक क्रूर अवधारणा


बाल विकास की एक क्रूर अवधारणा
नार्वे में बच्चों के कल्याण के नाम पर बनी एक संस्था है- 'बालक बचाओ संस्थान' । १९ जनवरी २०१२ को एक समाचार पढ़ाने को मिला कि इस संस्थान ने नार्वे में कार्यरत एक बंगाली दंपत्ति अनुरूप भट्टाचार्य और सागरिका भट्टाचार्य से उनके तीन वर्षीय और एक वर्षीय बच्चे को अलग करके उक्त संस्थान द्वारा नियुक्त व्यक्ति के पास भेज दिया गया है ।

दंपत्ति की गलती या अपराध यह था कि वे अपने बच्च्चों को गोद में बैठाकर हाथ से खाना खिलाते थे और रात को बच्चों को अपने साथ सुलाते थे । संस्था की मान्यता है कि हाथ से खाना खिलाने पर बच्चे को अधिक खाना खिलाए जा सकने की संभावना है । उन्हें चम्मच से खाना खिलाया जाना चाहिए था । इसी तरह पता नहीं गोद में बैठाने और साथ सुलाने से कौन सी यौन-मनोवैज्ञानिक समस्या पैदा हो सकती थी । पता नहीं, जब योरप में चम्मच का आविष्कार नहीं हुआ था तब योरप में बच्चों को खाना कैसे खिलाया जाता था और हाथ से खाना खाकर पता नहीं बच्चे कितने मोटे हो जाते होंगे । उनकी निगाह में पशु इसलिए पशु है कि वह अपने बच्चों को चम्मच से खाना नहीं खिलाता और माताएँ अपने बच्चों को अपने साथ सुलाती हैं ।

मानव को सामाजिक प्राणी या सोशियल एनिमल कहा जाता है क्योंकि उसका अपने बच्चों के साथ अधिक से अधिक संसर्ग और सान्निध्य रहता है । माता-पिता विशेषकर माता के अधिक निकट रहने से बच्चे में सुरक्षा की भावना आती है । माँ के प्रेमपूर्ण व्यवहार से वह अधिक संवेदनशील बनता है । और बड़ा होकर समाज के अन्य सदस्यों से सद्व्यवहार करता है । इसके विपरीत तलाकशुदा माता-पिता या माता-पिता के प्यार और संसर्ग से वंचित बच्चे अधिक कुंठित, संवेदनहीन, खूँख्वार, और झगड़ालू होते हैं । अमरीका में घर से बंदूक लाकर स्कूल या बाजार में अंधाधुंध गोली चलने वाले सब बचपन में माता-पिता के प्यार से वंचित रहे बच्चे थे ।

बाल विकास की नार्वे जैसी अवधाराणाओं वाले पश्चिमी देशों में ही आजकल ऐसे शोध भी हो रहे हैं कि जिन बच्चों को माता का साथ, प्यार और संसर्ग बचपन में अधिक मिला होता है वे अधिक योग्य, शांत, सुखी और सुखी वैवाहिक जीवन जीने वाले होते हैं और उनमें कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएँ और कुंठाएँ नहीं होतीं । वे अवसाद से भी कम ग्रसित होते हैं । ये सभी शोध कोई नई बात नहीं हैं वरन ये विश्व के लगभग सभी परम्परागत समाजों के अनुभूत तरीके रहे हैं । पता नहीं, मानव विकास के तथाकथित ठेकेदार संस्थान सहज बाल-विकास में क्यों बाधा डालना चाहते हैं ?

बाल-विकास या मानव-विकास का सबसे मज़बूत घटक है सुखी, संतुष्ट, जिम्मेदारीपूर्ण पारिवारिक और वैवाहिक जीवन जो कि संयुक्त परिवार के टूटने और जीवन में उपभोक्तावादी, बाजारवादी धारणा आने से समाप्त सा हो चला है । उसे बचाने का प्रयत्न होना चाहिए । इसके लिए आवश्यक है कि विवाह को मात्र यौनेच्छा के लिए होने वाला एक सामान्य मिलन नहीं माना जाना चाहिए । यह पशुओं जैसी एक सामान्य प्रक्रिया नहीं है बल्कि समाज को एक जिम्मेदार नागरिक देने की एक जटिल, श्रम और समय-साध्य प्रक्रिया है ।

जब हम कोई विशेष प्रकार का बीज, वृक्ष या जीव विकसित करना चाहते हैं तो बड़ी सावधानी से नर और मादा घटकों का चयन करते हैं और नियंत्रित और विशिष्ट परिवेश में उन्हें तैयार करते हैं तो मनुष्य के विकास के लिए ऐसी सावधानी क्यों नहीं बरतना चाहते ? इसी बात को ध्यान में रखते हुए मानव समाज में अच्छे और जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिए विवाह का विधान किया गया था और उसके लिए बहुत से पथ्य और परहेजों का विधान किया गया था अन्यथा संतानोत्पत्ति तो सभी जीवों में होती ही रहती है । कौन मक्खी-मच्छरों के जीने, मरने, पैदा होने और नस्ल की फ़िक्र करता है पर मानव की बात और है क्योंकि उसे मच्छर-मक्खी की तरह महत्त्वहीन नहीं माना जा सकता । मानव अपने हर निकृष्ट और उत्कृष्ट रूप में दुनिया को किसी भी हद तक प्रभावित कर सकता है ।

इसी बात को ध्यान में रखते हुए मनुस्मृति में कई प्रकार के विवाहों का विधान किया गया है और उनके संस्कारों, पारिवारिक पृष्ठभूमि, विचार, कर्म आदि के मेल या बेमेल होने के करण पड़ने वाले संभावित परिणामों के आधार पर उन्हें श्रेष्ठ और निकृष्ट बताया गया है । जब भी इन नियमों का उल्लंघन किया गया है तो कोई न कोई असामान्य स्थिति ही पैदा हुई है । आजकल युवक-युवतियाँ केवल बाहरी आकर्षण, कद-काठी, पद, वेतन आदि देखकर शादी कर लेते हैं मगर जब शारीरिक आकर्षण कम होना शुरु होता है तब बेमेल वैचारिकता के दुष्प्रभाव प्रकट होने शुरु होते हैं और ऐसे अधिकतर विवाहों का अंत तलाक में होता है ।

आजकल विवाहों का असफल होना ही समाज में नई पीढ़ी में बढ़ती हुई विकृतियों, हिंसा, संवेदनहीनता, कुंठा और अपराधों का करण है । सभी बच्च्चों को आपसी समझ से प्रेमपूर्वक रहकर उनका पालन-पोषण करने वाले माता-पिता चाहिएँ । सिंगल पेरेंट्स के बच्च्चों में ऐसी समस्याएँ अधिक मिलती हैं और ऐसी स्थिति अधिक तलाकों वाले देशों और समाजों में सबसे अधिक है । जब कि यह भी सच है कि ऐसे देशों में भी सामान्य समाज उसी नेता को पसंद करता है जिसका वैवाहिक जीवन आदर्श हो क्योंकि सभी लोगों की आंतरिक कामना तो यही होती है कि उनका पारिवारिक जीवन शांत और सुखी हो । तभी भले ही अंदर खाने कुछ भी हो गया हो मगर कभी भी, किसी भी राष्ट्रपति ने अपने पारिवारिक छिद्र प्रकट नहीं होने दिए । इसीलिए हिलेरी ने सब कुछ जानते हुए भी अपने पति का साथ दिया । अमरीका में स्थानीय चुनावों में उम्मीदवार अपनी योग्यताओं में इस बात को शामिल करते हैं कि वे पिछले 'इतने' वर्षों से सफल वैवाहिक जीवन जी रहे हैं ।

अब यह बात और है कि हर बार परिवार नामक संस्था को बचाने की बात करते हुए भी किसी राष्ट्रपति ने भी इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया बल्कि लगता है कि तलाक को अधिक स्वाभाविक और सरल बनाया जा रहा है । अमरीका में अपने भूतपूर्व पार्टनर को दी जाने वाली भरण-पोषण की राशि स्थानीय प्रशासन के पास जमा करवानी पड़ती है । फिर स्थानीय प्रशासन उसमें से अपना दो-चार प्रतिशत कमीशन काट कर संबंधित पक्ष के पास भिजवाता है । सरकारों और वकीलों ने मिलकर यह आमदनी का एक धंधा बना रखा है । अमरीका में सबसे अधिक वकील तलाक के धंधे में ही लगे हुए हैं । और यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि सभी देशो की सरकारों में वकील ही सबसे ज्यादा होते हैं क्योंकि कानून को जानने वाला ही उसकी ऐसी-तैसी करने की योग्यता रखता है । अपराधियों और वकीलों की दोस्ती स्वाभाविक होती है ।

अमरीका में गुलामी के लिए नीग्रो को पकड़ लाया गया । उनसे पैदा होने वाले बच्चों को उनके माता-पिता से अलग करके किसी एक बुढ़िया के पास रखा जाता था क्योंकि उनके मालिकों का मानना था कि साथ रहने से बच्चों और माता-पिताओं में पैदा होने वाला लगाव कहीं इतनी एकता न बढ़ा दे कि उनकी सम्मिलित शक्ति उस गुलाम प्रथा के लिए खतरा बन जाए । इस ज़बरन तोड़ी गई परिवार प्रथा और संतान और माता-पिता के स्वाभाविक संबंधों का अभाव गुलामों की संततियों में कई तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याओं का कारण बना । आज अमरीका की जेलों में अस्सी प्रतिशत कैदी काले ही हैं । और मज़े की बात यह है कि आगे चलकर इन्हीं गोरे मालिकों ने इन काले लोगों को, मूल कारणों का विश्लेषण किए बिना, इन्हीं कमियों के आधार पर एक घटिया नस्ल सिद्ध करने का प्रयास किया ।

जब पालने के लिए कोई कुत्ते या तोते का बच्चा लाया जाता है तो कहा जाता है कि बच्चे को उसकी आँखें खुलने और माता-पिता के संपर्क में आने से पहले ही ले आया जाना चाहिए । इसलिए अमरीका जैसे देशों में, पता नहीं किसका पालतू बनाने के लिए, बच्चे को पैदा होते ही माता की गोद की स्वाभाविक गरमी और स्नेह से दूर पालने में सुलाया जाता है । छोटे बच्चे को भी रात होते ही माता-पिता गुड-नाइट कह कर एकांत कमरे में छोड़कर चले जाते हैं । पता नहीं, अकेला बच्चा एकांत रात में किन भयों, अवसादों और दुस्वप्नों से जूझता होगा । पता नहीं, अबोध किस पाप के फलस्वरूप बाल-विकास की इस बचकानी अवधारणा का दंड भोगता है ?

हमारे यहाँ मनुष्य को झूठे माया-मोह से बचाने के लिए ज्ञानी कहते हैं कि हंस अकेला आता और अकेला जाता है । पूर्वी देशों में यह ज्ञान लोगों को पता नहीं कितना हुआ है मगर पश्चिमी देशों में तो बच्चे को पैदा होते ही इस ज्ञान की कठिन साधना शुरु कर देनी पड़ती है । और उसी के परिणाम स्वरूप वह १८ वर्ष का होते ही सारे बंधनों से आज़ाद हो जाता है फिर चाहे माता-पिता मरें या जिएँ । इन बच्चों का इतने निरपेक्ष भाव से पालन करने वाले माता-पिता किस मुँह से बच्चों से आशा कर सकते हैं कि वे बुढ़ापे में उनका सुख-दुःख पूछें । गैर-जिम्मेदारी की इस परंपरा का प्रसाद तो सभी को भुगतना पड़ता ही है ।

सारे संबंधों से मुक्त, अकेली पीढ़ी भले ही कुंठा और अवसाद से ग्रसित हो, किसी के प्रति भी उत्तरदायी न हो मगर ऐसा समाज बाजार के बहुत काम की चीज है । बाज़ार का पालतू बनाने के लिए ही उसे अपने माता-पिता और सभी संबंधियों से दूर करके निपट अकेला बना दिया जाता है । ऐसा अकेला व्यक्ति बिना कुछ सोचे-समझे अपनी सारी आमदनी और अक्ल कभी भी विज्ञापनों के चक्कर में आकर बाज़ार पर न्यौछावर कर सकता है । जब किसी के प्रति दायित्व ही नहीं होगा तो किसके लिए बचाने और किसके सोचने की ज़रूरत है । और यही तो बाजार चाहता है । अब यह सोचना हमारा काम है कि इसमें कौन किस तरह से सहभागिता कर रहा है और उससे किस तरह से बचें । सरकारों के भरोसे रहने से कुछ नहीं होगा क्योंकि ये तो उन्हीं बाजारों के मालिकों के यहाँ गिरवी रखी हुई हैं ।

२१-१-२०१२


पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

आत्मा के आहत होने का मौसम


जयपुर में एक बड़ा लेखकीय सम्मलेन शुरु हो गया है और विवाद भी । जब चार बर्तन एक जगह होते हैं तो खड़कते ही हैं, तो ये तो बुद्धिजीवी हैं । इनके पास झूठे अभिमान के अलावा और है ही क्या ? कर्म करके कुछ कमाते तो झूठा अभिमान दूर होता, मिलकर कोई सत्कार्य करते तो प्रेम-भाव पनपता । मगर ये सब तो अपने-अपने कूप के मेंढक हैं । तुलसीदास ने तो रामचरित महाकाव्य लिखा मगर विनम्रता का हाल यह कि कहते हैं- इसमें मेरा कुछ भी नहीं है यह तो मैनें विभिन्न पूर्ववर्ती ग्रंथों से प्रेरणा पाकर लिखा है - नाना पुराण निगमागम....

और एक ये महान लेखक हैं कि अपनी एक-दो किताबें लिए घूमते हैं जिन्हें इन लोगों ने खुद ही एक दूसरे की किताब को नहीं पढ़ा होगा । और आशा यह करते हैं कि सब कहें कि उन्होंने उसकी किताब को पढ़ा है और वह उसे आज तक लिखी गई सब किताबों से श्रेष्ठ लगी । जहाँ जनता के पढ़ने का सवाल है तो जनता ने इनका नाम ही नहीं सुना होगा ।

इस उत्सव को एशिया का सबसे बड़ा साहित्यिक उत्सव माना जा रहा है । उत्सव शब्द से जैसी ध्वनि निकलती है यह भी उससे भिन्न नहीं है । उत्सव में तमाशा अधिक होता है । ऐसे तमाशे में खाना-पीना, स्वागत-सत्कार मुख्य होता है । इसके बाद और इसके दौरान खाने-पीने, ठहराने की व्यवस्था, उपहार आदि की चर्चा होती है । दर्शनीय स्थानों के भ्रमण की योजना बनती है । पत्नी या बच्चों की बताई लिस्ट के अनुसार खरीददारी होती है । यदि शौक हुआ, और बुद्धिजीवी हैं तो होना ही चाहिए, तो राजस्थान की रजवाडी दारू की कुछ बोतलें खरीदी जाएँगी । जिन्होंने बुलवाया है उन्हें अपने यहाँ भी ऐसे ही आयोजन करके बुलवाने का आश्वासन दिया जाएगा । जहाँ तक किताबों को खरीदने की बात है तो कोई किसी की किताब नहीं खरीदेगा और यदि किसी ने भेंट स्वरूप चिपका ही दी तो उसे बिना पढ़े ही होटल के कमरे में ही छोड़ दिया जाएगा । यदि किसी नामी आदमी की हुई तो साथियों को दिखाकर रौब ज़माने के लिए रख लिया जाएगा । यदि कोई प्रकाशक आया होगा तो लेखक उससे चिपकने की कोशिश करेंगे । यदि किसी प्रसिद्ध लेखक ने लिफ्ट दे दी तो अपनी किताब छपवाने का जुगाड़ करेंगे । सुन्दर लेखिकाओं के भाषण पर अधिक तालियाँ बजेंगी । और इस तरह से साहित्य और साहित्यकारों के मिलन और विकास का उत्सव समाप्त हो जाएगा ।

जैसा कि हमेशा होता है कुछ लोगों के आत्मसम्मान को ठेस लगेगी यदि उन्हें उनकी मनपसंद की दारू नहीं मिलेगी या बोलने के लिए अधिक समय नहीं दिया जाएगा या उनकी आशानुरूप प्रशंसा नहीं होगी । वास्तव में ऐसे आयोजन चर्चित और दर्शनीय लोगों के होते हैं । इनमें अनुकरणीय होना आवश्यक नहीं होता । जहाँ तक अभिव्यक्ति की बात है तो यह लिखकर ही नहीं होती दिखकर और दिखाकर भी हो सकती है । जब ऐसे उत्सवों का विस्तार वहाँ तक हो जाएगा तो पूनम पांडे, मल्लिका सेरावत और राखी सावंत भी मुख्य आकर्षण हो जाएँगी ।

अब तो महान मनीषी सलमान रुश्दी जी के पधारने और न पधारने पर सस्पेंस चल रहा है । आखिर किसी भी साहित्यिक उत्सव की सफलता ऐसे ही महान लोगों की उपस्थिति पर निर्भर करती है । उनके जैसे लोगों से प्रेरणा लेकर ही तो महान रचनाएँ लिखी जाती हैं । तुलसीदास जी ने इतनी रचनाएँ कीं मगर न तो किसी बुकर ने पुरस्कार दिया और न ही किसी खुमैनी ने फतवा दिया । तुलसीदास जी ने तो जो कुछ लिखा, वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि इधर-उधर पुराणों से लेकर छपवा लिया । जब कि रुश्दी जी ने तो सब कुछ मौलिक लिखा है । और मौलिक भी इतना कि उसकी कल्पना तक उनके अलावा और कोई नहीं कर सकता । जिस तरह कि कुछ लोग एक खास सर्ग के लिए 'कुमारसंभव' को पढ़ते हैं उसी तरह अधिकतर लोग रुश्दीसाहब की 'शैतानी आयतों' को एक खास प्रसंग की लीला के लिए पढ़ते हैं भले की अंग्रेजी में होने के कारण उन्हें पूरा-पूरा आनंद आए या नहीं । पता नहीं, जनता की साहित्यिक समझ बढ़ाने के लिए ऐसे साहित्यिक उत्सवों के आयोजकों ने अपने कार्यक्रमों में ऐसे महान ग्रंथों का विश्व की अधिकांश भाषाओं में अनुवाद करवाने का प्रावधान रखा है या नहीं ? वैसे होना तो चाहिए साहित्य के विकास के लिए ।

जहाँ तक हमारी थोड़ी सी जानकारी है वहाँ तक रुश्दी साहब विख्यात कम और कुख्यात अधिक हैं । उन्होंने चार-पाँच औरतों या लड़कियों को फँसाया । कुछ लोग कहते हैं कि उन लड़कियों या औरतों ने ही कुछ दिन मुफ्त के पैसे पर ऐश करने के लिए रुश्दी को उल्लू बनाया । ऐसे रसमय कृत्यों में रुचि लेने वाले लोगों के लिए तो रुश्दी जी हीरो से कम नहीं है । औरतें यह देखने के लिए कि उसमें ऐसा क्या है जो औरतें टूटी पड़ रही हैं और पुरुष यह देखने के लिए कि यहाँ तो एक भी पटाना संभव नहीं हो पाया और यह पट्ठा पाँच-पाँच कबाड़ बैठा । यह कोई नहीं सोचता कि इसे पाँच-पाँच उल्लू बनाकर भाग गईं ।

सुना है कि इस आयोजन में कुछ आत्माएँ रुश्दी जैसे इस्लाम विरोधी को बुलाए जाने से आहत हो रही हैं और कुछ आत्माएँ उनके न आने के दुःख से आहत हो रही हैं । उनके न आने से न तो धर्म के रक्षकों का रुतबा बढ़ेगा और न ही आ जाने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा हो जाएगी । वैसे रुश्दी के आने से धर्म कोई संकट में नहीं पड़ जाएगा और न ही न आने से साहित्य का कोई अपकार हो जाएगा । २००८ में भी इस उत्सव में कुछ हिंदी और राजस्थानी आत्माएँ आहत हुई थी । सुना कि उनको बोलने का समय कम दिया गया या नहीं दिया गया । हमें विश्वास है कि वे आत्माएँ आहत होने के बावज़ूद फिर इस कार्यक्रम में अवश्य आई होंगी । ठंड में दारू का पाना महत्त्वपूर्ण होता है और फिर ऐसे उत्सवों में शामिल होने से ही तो व्यक्ति मान्यता प्राप्त लेखक और बुद्धिजीवी प्रमाणित होता है ।

सुना है कि इस उत्सव में हिंदी, अंग्रेजी और राजस्थानी साहित्य के उद्धार का भी कोई घोषित एजेंडा है । गुप्त एजेंडे का पता नहीं । वैसे इसमें हिन्दी के भी नाममात्र के लोग आते हैं और राजस्थानी के तो पता नहीं केवल खाने भर के लिए ही बुलाए जाते हैं क्या ? आज तक किसी का भाषण या नाम तो विशिष्टता से पढ़ने में आया नहीं । और फिर ऐसे उत्सवों के आयोजकों के लिए हिंदी और राजस्थानी ही क्या सभी भारतीय भाषाएँ अछूत हैं । ऐसे आयोजकों और तथाकथित साहित्यकारों को उनके साहित्य की सामाजिक उपादेयता के लिए नहीं बल्कि भारत और भारत की सामाजिक संस्कृति को तुच्छ, उपेक्षणीय और पिछड़ी सिद्ध करने के लिए अंग्रेजी और विशेष कर ब्रिटेन के प्रकाशकों और बुद्धिजीवियों की ओर से श्रेष्ठ सिद्ध किया जाता है और पैसे के बल पर बड़े और भव्य आयोजन करवाकर चर्चित किया जाता है । जिस प्रकार कि सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारतीय सुंदरियों को पुरस्कृत करके भारत में विदेशी सौंदर्य-प्रसाधनों का बाजार तैयार करना है उसी तरह ऐसे आयोजनों से भारत की मूल धारा के साहित्य को बरतरफ करना है ।

आज के अखबार में लिखा है कि इस उत्सव में कबीर, मीरा और रैदास की महक भी रहेगी । हम तो यह समझ नहीं पा रहे हैं कि ढाई आखर प्रेम के पढ़ने-पढ़ाने वाले, आधी और रूखी में संतोष करने वाले और अपनी चदरिया को ज्यों की त्यों धर जाने वाले कबीर; और अपने मन के चंगेपन के कारण कठौती में ही गंगा उतार लेने वाले, पारस को भी अपने छप्पर में ही टँगे पड़े रहने देने वाले रैदास; गिरधर के रंग में रँग कर, उसके चरणामृत के नाम से विष पीकर भी अमर हो जाने वाली मीरा को ये, अपनी चादर को साफ़ दिखाने के लिए दूसरों की चादर को गन्दा करने वाले लोग, क्या समझ पाएँगे । चर्चा करके इन महान आत्माओं को कष्ट ही पहुँचाएँगे ।

वैसे ये महान आत्माएँ अपनी सार्थकता के लिए ऐसे आयोजनों और ऐसे साहित्यकारों की मोहताज भी नहीं हैं ।

२०-१-२०१२

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Jan 15, 2012

जारवा शोषण और तथाकथित करुणा की पड़ताल


अभी दो-चार दिन पहले खाने की वस्तुओं के बदले अंडमान के जारवा आदिवासियों का अर्द्ध नग्न नृत्य देखते हुए विदेशियों का वीडियो लीक होने से आदिवासी शोषण के विरुद्ध मानवीय करुणा का जो ज्वार सा उठा दिखाई दे रहा है वह शीघ्र ही बैठ जाएगा । स्थानीय प्रशासन ने इस कृत्य के लिए कुछ लोगों को गिरफ्तार किया है, जाँच के लिए हो सकता है दिल्ली से भी कोई टीम जाए मगर अंततः न तो कोई परिणाम निकलेगा और न ही भविष्य के लिए कोई सार्थक कदम उठेगा और न ही सुविधाभोगी, तथाकथित सभ्य लोगों की मनोवृत्ति में कोई अंतर आएगा ।





इस बहाने आदिवासी जनसंख्या की स्थिति, परिस्थिति पर नज़र डाली जा सकती है । अंडमान-निकोबार द्वीप-समूह में छः प्रकार के आदिवासी रहते हैं जिनमें चार ग्रेट अंडमानी, ओंगी, जारवा और सेंटीनल नेग्रितो नस्ल के और दो निकोबारी और शोम्पेन मंगोल नस्ल के हैं । ग्रेट अंडमानी और निकोबारी कपड़े पहनते हैं और शेष चार केवल गुप्तांगों पर घास-फूस बाँधते हैं ।

ग्रेट अंडमानी- कोई दो सौ बरस पहले दस हजार की संख्या में थे । अब ये ग्रेट अंडमान द्वीप में रहते हैं । इनकी संख्या के घटने का करण बाह्य लोगों के संपर्क से मिली यौन व्याधियाँ माना जाता है । आज इनकी संख्या कोई ४० है ।
ओंगी- ये लिटिल अंडमान में इनके लिए बसाई गई बस्ती में रहते हैं । इनकी संख्या कोई एक सौ है । इनके लिए एक सहकारी समिति भी बनाई गई है मगर उसका फायदा संचालकों को ही अधिक हो रहा है ।
जारवा- ये साउथ और मिडिल अंडमान में रहते हैं । इस इलाके में सड़क निर्माण भी किया गया जो इन्हें पसंद नहीं आया था । इनकी संख्या ४०० के लगभग है । प्रशासन के निरंतर प्रयत्नों के कारण ये लोगों के कुछ निकट आए हैं ।
सेंटीनल- इनका एक अलग द्वीप है जिस कारण ये अधिक सुरक्षित हैं और इनका कोई बाह्य संपर्क नहीं है । इनकी संख्या अनुमानतः २५०-३०० है ।

शेष दो निकोबारी और शोम्पेन मंगोल नस्ल के हैं । शोम्पेन संख्या में कोई ४०० हैं । इनमें अधिकतर शांत और शर्मीले हैं । कुछ आक्रामक भी हैं मगर अब ये निकट की बस्ती के लोगों के संपर्क में आ रहे हैं ।


निकोबारी जनसंख्या में सबसे अधिक ५४००० हैं । इनके गाँव, बस्तियाँ हैं, ये स्कूल जाते हैं और कुछ सरकारी नौकरियों में भी हैं । इन्हीं के एक प्रतिभाशाली बालक रिचर्डसन को अंग्रेजों ने पढ़ने के लिए बाहर भेजा गया जो बड़ा होकर पादरी बना और उसी के प्रभाव से सभी निकोबारी ईसाई बन गए । बाद में रिचर्डसन को स्वतंत्र भारत की संसद के लिए सदस्य भी मनोनीत किया गया ।

अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें
अंग्रेज़ी में एक व्यङ्ग्य लेख यहाँ पढें



यहाँ के आदिवासियों का बाहरी दुनिया से संपर्क कोई एक सौ साल पुराना है । इसके परिणाम भी, जो कोई बहुत सुखद नहीं रहे, इन्हें भोगने पड़े । समाजशास्त्रीय विकास का एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि किसी का विकास करने के लिए उसे आवश्यक औजारों की सुविधा उपलब्ध कराई जाए । उसके जीवन में अधिक हस्तक्षेप नहीं किया जाए और यह सारी प्रक्रिया धीमी, लंबी, स्वाभाविक और समय-साध्य होनी चाहिए अन्यथा आधुनिकीकरण की तीव्र आँधी में सब कुछ गड़बड़ हो सकता है और उससे नुकसान ही अधिक होता है ।

अफ्रीका में पश्चिमी देशों ने वहाँ मूल निवासियों का या तो शोषण किया या फिर धर्मान्तरण जो उनके लिए लाभदायक नहीं रहा । यहाँ के नीग्रो नस्ल के निवासी संसार के सबसे पुराने मानव हैं और इनके अपने परिवेश में विकसित हुई अपनी संस्कृति, सामाजिक जीवन, मूल्य और कला-कौशल रहे हैं मगर विकसित औजारों, सेनाओं और शक्ति-संपन्न नस्ल के शासकों ने इन्हें मानव का दर्ज़ा भी नहीं दिया । योरप ने अफ्रीका के खनिज पदार्थों और कृषि उत्पादों का अपने विकास के लिए शोषण किया और यही करण है कि यह महाद्वीप आज भी विपन्न बना हुआ है । वहाँ की बुश-मैन जाति के लोगों का तो अंग्रेज लोग एक जंगली जानवर की तरह शिकार तक किया करते थे ।



यदि हम अपने यहाँ के आदिवासियों की बात करें तो पाएँगे कि यहाँ के शहरी लोगों ने इनके भोलेपन का फायदा उठाकर इनके उत्पादों को सस्ता ख़रीदा, खूब धन कमाया और इनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा किया और इन्हें विस्थापित होने और शहरों में सस्ते मजदूरों के रूप में भटकने के लिए विवश कर दिया । वर्तमान में नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की समस्या के मूल में भी यही कारण है भले ही आज इस समस्या का रूप विकृत और विशाल हो गया है ।

जिन तथाकथित आदिवसियों का आरक्षण के कारण विकास हो गया है, जो संगठित हो गए हैं वे अब लगातार लाभ उठाए चले जा रहे हैं और अपने वोट-बैंक के बल पर सत्ता का भयादोहन कर रहे हैं मगर शेष आदिवासियों की हालत अच्छी नहीं है । उनके नाम पर योजनाएँ बनती हैं, बजट आता है जिसे नेता और अधिकारी खा जाते हैं ।

कोई चार दशक पहले मध्य प्रदेश के एक अधिकारी ब्रह्मदत्त शर्मा ने अधिकारियों द्वारा आदिवासियों के शोषण का मामला उठाया था मगर कोई कार्यवाही तो दूर उसी को चतुर अधिकारियों ने मानसिक रूप से अस्वस्थ घोषित करवा दिया । आज भी भोले-भाले और भले आदिवासियों के श्रम, संसाधन और यौवन का शोषण जारी है । इनके नाम पर भेजी गई वस्तुएँ भी इन्हें नहीं मिलतीं । यह भी किसी से छुपा नहीं है आज भी आदिवासी इलाकों की लड़कियाँ शहरों के वेश्यालयों में बेची जाती है ।

इन इलाकों में जाने वाले कोई न तो तीर्थयात्री हैं और न ही कोई अध्यात्मिक प्राणी या समाज-शास्त्री वरन तमाशबीन, चक्षु-भोग करने वाले या फिर आदिवासियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को सस्ते में खरीद कर धंधा करने वाले लोग हैं ।

ठीक है कि विदेशों में यह वीडियो लीक होने से हमें शर्म अनुभव हो रही है परन्तु क्या इन आदिवासियों के प्रति हमारी स्वयं की दृष्टि भी मानवीय है ? या हम भी इनको एक तमाशे के रूप में ही देखते हैं । क्या हम भी इनके उत्पाद, चित्र, वीडियो बेचकर या इन पर किताब लिखकर कहीं रोमांच तो नहीं बेच रहे ?

इस प्रसंग में सत्तर के दशक में प्रशासन द्वारा संपर्क के दौरान पोर्ट ब्लेयर लाए गए और बाद में अपने इलाके में पहुँचा दिए गए, दो-तीन जारवा युवकों की जीवन शैली का एक उदाहरण विचारणीय है । इन्हें जब खाने के लिए कुछ केले दिए गए तो इन्होंने वे अपने में सब से बड़े व्यक्ति को दे दिए और फिर उसी ने सब को केले वितरित किए । इनमें से एक को जब दस्त लगने लगे तो उन्होंने केले के छिलके भून कर खाए जिससे दस्त ठीक हो गए । इससे हमें समझना चाहिए कि इनकी भी अपनी एक समाज-परिवार व्यवस्था है, जीवन-मूल्य और समस्याओं के समाधान हैं जिनसे यदि चाहें तो हम भी स्वावलंबन, अस्तेय, अपरिग्रह और सहयोग सीख सकते हैं ।

ये कोई हिंस्र, जंगली जानवर या तमाशा नहीं है ।

फ़िलहाल तो अनुभव यही है कि जिन-जिन के भी विकास या संरक्षण की योजनाएँ बनीं हैं उनका हश्र कोई अच्छा नहीं हुआ - चाहे राष्ट्रीय पक्षी हो, राष्ट्र भाषा हो, पर्यावरण हो, गंगा हो, गिद्ध हो, बाघ हो, शिक्षा हो, राष्ट्रीय एकता हो, संस्कृति हो, धार्मिक और जातीय सद्भाव हो या ऐसा ही कुछ और ।



[1979 से 1985 तक लेखक पोर्ट ब्लेयर में हिन्दी अध्यापन में संलग्न था ]

१४ जनवरी २०१२

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Jan 14, 2012

सौदेबाजी की समझ


आदरणीय कलाम साहब,
आदाब । अखबार में आपका इंटरव्यू पढ़ा । आपने कहा कि यदि किसान समझदारी से सौदा कर सकें तो एफ. डी. आई. फायदेमंद हो सकती है मगर सौदा करने की समझ सभी में नहीं होती । सौदेबाजी के बारे में हमें अपनी माँ की एक बात याद आती है । उस समय के हमारे राजस्थान में लोग लकड़ियों में खाना पकाते थे । आजकल तो खैर पर्यावरण की रक्षा करने के चक्कर में सारे जंगल काट डाले गए । लकड़ी अनाज के भाव हो गई है । सर्दी में तापने के लिए सिगड़ी जलाने के लाले पड़ गए हैं । लकड़ी के कोयले तीस रुपए किलो हो गए हैं और बिजली का तो यह हाल है कि वह नेताओं के दर्शन की तरह दुर्लभ हो गई । और फिर हमारी हैसियत मुकेश अम्बानी की तरह तो है नहीं कि एक महिने में सत्तर लाख की बिजली फूँक सकें । सुना है सरकार ने जनता की सुरक्षा को दरकिनार करके परमाणु बिजली घर बनाने की ठान ली जब कि दुनिया के बहुत से उन्नतिशील देश परमाणु घरों को बंद करने की सोच रहे हैं । बिजली तो जिनको मिलनी हैं उन्हें ही मिलेगी । हाँ, कभी रेडियेशन हुआ तो ज़रूर ग़रीबों के हिस्से में भोपाल की गैस की तरह केवल मौत ही आ जाएगी ।

तो बात सौदेबजी की चल रही थी । उन दिनों किसान ऊँटों पर लकड़ी लाद कर बेचने के लिए आते थे । माँ ने एक लकड़ी वाले से मोल पूछा । वह उन लकड़ियों के पौने दो रुपए माँग रहा था । माँ को पौने दो रुपए ज्यादा लगे । उसने कहा- पौने दो रुपए तो नहीं देंगे यदि लेने हों तो दो रुपए दे सकते हैं । उसे क्या ऐतराज हो सकता था ? जैसे ही वह लकड़ी उतारने लगा, पिताजी आ गए । उन्होंने लकड़ी वाले को डाँटा और लकड़ी वापिस लदवा दीं । तो साहब भारतीय किसान की मोल भाव करने की क्षमता तो हमारी माँ की तरह है । वह बेचारे वालमार्ट और टारगेट से क्या खाकर मोल-भाव और सौदेबाजी करेगा ।

वह बेचारा पहले ही महँगी बिजली, महँगी खाद, बीज और कीटनाशक के चक्के में इतना खर्च कर चुका होता है कि उसे तो जल्दी से जल्दी अपनी फसल बेचने की फ़िक्र रहती है और इसी का फायदा बनिए, जमाखोर उठाते हैं । वही चीज यदि किसान दो महिने बाद लेने जाता है तो ड्योढे दामों में मिलती है । न किसान को फायदा और न ही उपभोक्ता को । बीच वाले मज़े करते हैं ।

आप सोच रहे होंगे कि बड़ी विदेशी दुकानें आने से उपभोक्ता को फायदा होगा । तो हो सकता है कि दो-चार प्रतिशत का फायदा शुरु-शुरु में हो जाए मगर अंत में ग्राहक जैसे अपने यहाँ के दुकानदारों की चालाकियों का शिकार होता है वैसे ही विदेशी दुकानदारों की चालाकी का शिकार होगा । अमरीका में इन्हीं बड़े-बड़े दुकानदारों का राज है । वहाँ भी हमने देखा है कि एक बार सेव की फसल बहुत अच्छी हुई । किसान पचास सेंट में सेव बेचने पर मज़बूर हो गया मगर दुकानों पर वही सेव दो डालर में बिक रहा था



एक बार इन्हीं बड़ी कंपनियों में से एक ने पंजाब में टमेटो कैचअप बनाने का कारखाना लगाने का प्रचार किया और कहा कि किसान टमाटर लगाएँ, उन्हें बहुत फायदा होगा । किसानों ने जम कर टमाटर लगाया और फिर कंपनी ने किसी बहाने से टमाटर खरीदने से मना कर दिया या कम ख़रीदा । गुस्साए किसानों ने टमाटर सड़कों पर फेंक दिया । इसी तरह से किसानों के मसीहा चरण सिंह के समय में भी ठीक भाव न मिलने पर किसानों ने गन्ना खेतों में ही जला दिया । कभी आपने किसानों के इस दर्द के बारे में सोचा है ?

हमारे शेखावाटी में प्याज बहुत होता है । हमें याद है कि एक किसान मंडी में प्याज बेचने गया । वहाँ भाव पूछने पर पता लगा कि उस प्याज से तो ट्रेक्टर का भाड़ा भी नहीं निकलेगा । वह वहाँ से खिसक लिया । ट्रेक्टर वाला वापिस उसके घर पहुँचा और भाड़ा वसूल लिया । ऐसी ही समझदारी की सौदेबाजी हमारे नेता भी करते हैं । जब कभी फसल अच्छी हो जाती है तो सस्ते भावों में निर्यात कर देते हैं और फिर वही गेहूँ महँगे भाव से आयात कर लेते हैं । यह तो आप ही जानें कि यह मूर्खता है या घोटाला मगर ऐसा एक नहीं, कई बार हुआ । चाहें तो शरद पवार जी से पूछ लें । साधारण किसान का तो यही हाल है । बड़े किसान-नेताओं के फार्म हाउसों में ज़रूर इतना अनाज होता है कि वे उससे सैंकडों करोड़ का काला धन सफ़ेद कर लेते हैं ।

और फिर साहब, किसान का काम तो कच्चा काम होता है । यदि सब्जी को औने-पौने भाव में न बेचे तो शाम तक वह फेंकने लायक हो जाती है । दूध भी वह कौनसा दस पाँच दिन रख सकता है । यह कोई टेलीविजन, मोबाइल, कम्प्यूटर या कार तो है नहीं कि आज नहीं तो छः महिने बाद बेच दी । कौन से चूहे खा जाएँगे या सड़ गल जाएँगे । और यदि किसान फसल का स्टोक भी करे तो कितने दिन । यह तो सरकार की ही क्षमता है कि वह करोड़ों रुपए का अनाज सड़ा दे । किसान को तो रोज कुँवा खोदना और रोज पानी पीना है ।

आप सोचते होंगे कि बड़े विदेशी दुकानदारों को बुलाने से बिचौलिए खत्म हो जाएँगे । हो सकता है कि कुछ कम हो जाएँ मगर उपभोक्ताओं को कोई खास फायदा नहीं होने वाला है । यदि ऐसा होता तो अमरीका के किसान की हालत अब तक सुधर गई होती । मगर ऐसा नहीं है । किसान तो किसान है चाहे भारत का हो या अमरीका का । गरीब को तो स्वर्ग में भी बेगार ही मिलती है । एक बेगारी दलित के परेशान होकर कुँए में कूदने का किस्सा तो आपको मालूम ही होगा । वहाँ कुँए में मेंढक उसके सिर पर सवार हो गया और कहने लगा- मुझे मुफ्त में कुँए की सैर करा ।

यदि आप किसानों का दर्द दूर करना चाहते हैं तो एफ. डी.आई. का समर्थन करने की बजाय किसान को समय पर अच्छा बीज, खाद और कीटनाशक दिलवाने का प्रबंध करवाएँ । मंडी से बिचौलियों को दूर करें, भण्डारण की सुविधा दिलवाएँ और राजनीति को किसानों के हितों से खेलने से रोकें । किसान की सौदेबाजी के चक्कर में मत डालिए । उसकी जान तो खेती करने में ही निकल जाती है । सौदेबाजी तो नेताओं और व्यापारियों के बस का काम है जो जब चाहें लोकतंत्र को बचाने के नाम पर मंत्री पद का सौदा करते हैं या सरकारी कारखानों को सस्ते में खरीद लेते हैं ।

हमें आपकी ईमानदारी और योग्यता पर पूरा विश्वास है । आप भारत को २०२० तक विकसित करने का सपना देखने वाले हैं । विदेशी कंपनियों को देश के सिर पर बैठाने से कुछ नहीं होने वाला । विदेशी कंपनियों के यहाँ आने का परिणाम इतिहास का साधारण विद्यार्थी भी जानता है । अमरीका की हालत किसी और ने नहीं बल्कि उसी की बड़ी कंम्पनियों ने खराब की है । जो अपने देश के नहीं हुए वे आपके कैसे हो जाएँगे ?

३०-१२-२०११

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach