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बोला- लेकिन उस अधिकारी ने क्या गलत कहा ? जब दूसरा भारी बहुमत से जीत गया तो छोडो कुर्सी और जाओ अपने घर. लेकिन नहीं साहब, हम तो अपने को जीता हुआ मानते हैं. अरे भाई मानने से क्या होता है ? मानने को तो हम भी अपने को खुद मानते हैं.  

हमने कहा- हमें तो अपनी पेंशन मिल रही है. उसमें काम चला लेंगे जैसे हमारे मित्र जो तीन बार अकादमी के अध्यक्ष रहे. जब-जब, बारी-बारी सरकार बदलती वे एक बार अध्यक्ष बनते और दूसरी बार इस्तीफा देते. लेकिन कभी इस तरह निकाले जाने की नौबत नहीं आने दी. ये राजनीतिक नियुक्तियां विधवा-पेंशन है जिसे कभी भी लात मारकर नकारा जा सकता है. 

बोला- इस बहम में मत रहना. राष्ट्रहित को समर्पित सरकार है. राष्ट्रहित में कुछ भी कदम उठा सकती है. डी.ए. फ्रीज़ पड़ा है कि नहीं आठ महीने से. क्या कर लिया किसी ने ?  कौन बोलकर राजद्रोह के अपराध में बिना मुकदमे के हिरासत में ही सड़ना चाहेगा !

इसलिए यदि महामहिम पान की पीक थूकना चाहें और आसपास पीकदान न हो तो निः संकोच तत्काल अपना मुँह खोल देने वाला ही सबसे अधिक फायदे में रहता है.