Dec 31, 2011

स्वागत है नववर्ष तुम्हारा


2012
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, स्वागत है नव वर्ष |

करें कामना, सब को सुखकर हो यह नूतन वर्ष |

कोई भ्रम, शंका हो तो भी बंद न हो संवाद |
आपस में मिल-जुल सुलझा लें हो यदि कोई विवाद |
दुःख-पीड़ा आपस में बाँटें, बाँटें उत्सव-हर्ष |
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, स्वागत है नव वर्ष |

सभी परिश्रम करें शक्ति भर, कोई न करे प्रमाद |
जले होलिका, विश्वासों का बचा रहे प्रह्लाद |
केवल कुछ का नहीं सभी का हो समुचित उत्कर्ष |
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, स्वागत है नव वर्ष |

'स्वार्थ छोड़ कर्त्तव्य करे वह पुरुषोत्तम श्रीराम' |
यह आदर्श हमारा होवे, होंगे शुभ परिणाम |
न्याय-जानकी अपहृत हो तो मिलें, करें संघर्ष |
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा, स्वागत है नव वर्ष |


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Dec 27, 2011

तोताराम और विज्ञान


तोताराम और हमारा विज्ञान से संबंध कुछ वैसा ही रहा जैसा कि मायावती और ब्राह्मणों का या कुत्ते और ईंट का या अबदुल्ला और राम मंदिर का या करुणानिधि और रामसेतु का ।

पहले आठवीं के बाद ही वैकल्पिक विषय शुरु हो जाते थे । हम दोनों ने ही गणित के डर से नवीं में साइंस नहीं ली, कोमर्स ली । किसी तरह पास होने लायक नंबर आ गए । उसी दौरान पता चला कि हम दोनों की ही बेलेंस शीट के दोनों तरफ से टोटल नहीं मिलते थे हालाँकि गुरु जी ने बता दिया था कि ऐसी स्थिति में सस्पेंस अकाउंट खोल देना । पढ़ाई में तो ठीक है मगर यदि वास्तव में ही कहीं नौकरी करते हुए ऐसा किया तो जेल तक हो सकती है । हम दोनों ने ही आर्ट्स में जाना ठीक समझा । वहाँ बड़ी सुविधा है कि हिंदी में भीम में दस हजार की जगह नौ हजार हाथियों का बल लिखने पर एक दो नंबर कटने से अधिक कुछ खतरा नहीं, या दोहे में चौबीस की जगह तीस मात्राएँ लिखने पर भी कोई फाँसी लगने वाली नहीं थी । सो इस तरह से हिंदी ने हमारा या हमने हिन्दी का उद्धार किया ।

आजकल विज्ञान का युग है । होता तो पहले भी था मगर आज उसके अलावा और किसी बात पर ध्यान नहीं दिया जाता फिर भले ही उस विज्ञान को पढ़ने वाला डाक्टर किसी को कमीशन के लालच में घटिया दवाएँ ही क्यों न लिख दे या इंजीनीयर उद्घाटन से पहले ही गिर जाने वाला पुल ही क्यों न बनाए । आज कोई भाषा और साहित्य की बात नहीं करता । संवेदना तो खैर, एक प्रगति विरोधी गुण मान ही लिया गया है ।

सो हम भी लोगों की देखादेखी विज्ञान शिक्षा के गिरते स्तर के लिए चिंतिति थे । तभी तोताराम आ गया । हमने कहा- तोताराम आजकल विज्ञान का स्तर बहुत गिर गया है । लोग केवल डिग्री लेने के लिए और फिर नौकरी पाने के लिए विज्ञान पढ़ते हैं इसीलिए हमारे यहाँ दूसरे देशों की तरह कोई खोज और आविष्कार नहीं होते ।

तोताराम ने अपना मौलिक तर्क दिया । इसका एक कारण तो यह है कि स्कूलों में विज्ञान की प्रयोगशालाएँ होती हैं । इससे भी विज्ञान का स्तर गिर रहा है । हमारे लिए यह एक नया ही तर्क था । हमने कहा- विज्ञान का तो आधार ही प्रयोग है । यदि बच्चा प्रयोग नहीं करेगा तो विज्ञान को समझेगा कैसे ? और नंबर भी कैसे मिलेंगे ।

वह कहने लगा- नंबरों के लिए तो विज्ञान के टीचर से ट्यूशन पढ़ना ज़रूरी है । यदि बच्चा ट्यूशन पढ़ता है तो टीचर अच्छे नंबर दिलवा ही देगा । और फिर प्रयोगशालाएँ दिखाने के लिए होती हैं या फिर उसके उपकरणों की खरीद में पैसा खाने के लिए होती हैं । उनका विज्ञान से कोई संबंध नहीं होता ।


यह फिर आश्चर्य में डालने वाली स्थापना । हमारे आग्रह किए बिना ही तोताराम ने बताया कि दुनिया का सबसे बड़ा वैज्ञानिक हुआ है आइंस्टाइन जिसने कभी प्रयोगशाला का मुँह नहीं देखा । और न्यूटन के लोग गुण गा रहे हैं उसके भी बहुत से सिद्धांत झूठे सिद्ध हो चुके हैं । मैंने कहीं पढ़ा है कि न्यूटन ने कहा था कि यदि किसी कारण से अचानक सूर्य समाप्त हो जाए तो उसी क्षण पृथ्वी अपने परिक्रमा मार्ग से विचलित हो जाएगी मगर आइंस्टाइन ने सिद्ध कर दिया कि नहीं, पृथ्वी को अपने मार्ग से विचलित होने में आठ मिनट लगेंगे क्योंकि सूर्य का प्रकाश भी पृथ्वी तक आठ मिनट में पहुँचता है और इससे तीव्र कोई प्रभाव नहीं हो सकता । अर्थात न्यूटन गलत । और सुन, न्यूटन ने पेड़ के नीचे अपनी प्रयोगशाला में सेब को ज़मीन पर गिरते हुए देखकर गुरुत्त्वाकर्षण का जो सिद्धांत दिया था वह भी झूठा सिद्ध हो गया है ।

अब तो हमारे आश्चर्य की सीमा नहीं रही । हमने कहा- हमने ऐसा कहीं नहीं पढ़ा । यह तो सर्वमान्य और सर्वसिद्ध सिद्धांत है । तोताराम ने कहा- यदि गुरुत्त्वाकर्षण के सिद्धांत को गलत सिद्ध कर दिया तो क्या देगा । हमने कहा- और तो क्या बताएँ मगर आज चाय के साथ पकौड़ी और गज़क भी खिलाएँगे ।

तो तोताराम ने कहा- देख, दिल्ली से जो साधन हमारे तक आने के लिए टपकते हैं वे हमारे तक न आकर बीच में ही कहाँ अटक जाते हैं ? हमने कहा- वे तो बंधु, पंचों, सरपंचों, एम.एल.ए., एम.पी., अधिकारियों और व्यापारियों तक ही रह जाते हैं ।

तोताराम ने जोर से ताली बजाई- तो बस, हो गया ना सिद्ध कि ऊपर से गिरने वाली चीजें धरती तक नहीं आतीं क्योंकि गुरुत्त्वाकर्षण का सिद्धांत गलत है । वैसे और भी बहुत सी चीजें ऊपर की तरफ ही जाती हैं जैसे कि तेल लगाने वाला अपने से ऊपर वाले को तेल लगाता है या नीचे की ली हुई रिश्वत या कमीशन ऊपर और बहुत ऊपर तक जाता है ।

हमारे पास कोई उत्तर नहीं था सो हमें चाय के साथ पकौड़ी बनवानी पड़ीं और गज़क बाज़ार से मँगवानी क्योंकि गज़क घर में नहीं थी । हमें अपने शर्त न हारने का विश्वास था इसलिए वैसे ही ताव में आ गए थे । खैर!

२२-१२-२०११

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Dec 14, 2011

तोताराम का पुनर्जन्म

सवेरे-सवेरे अँगीठी के पास बैठकर चाय पी रहे थे कि कहीं पास से ही कभी कुत्ते के भौंकने और कभी बिल्ली की म्याऊँ की आवाज़ आई । बंद रसोई में कहाँ कुत्ता-बिल्ली ? सो एक-दो बार इधर-उधर देख कर फिर चाय पीने लगे । मगर फिर वही आवाजें । कमरे के दरवाजे के पास देखा तो तोताराम ने फिर म्याऊँ की । हमने पहचान लिया और पूछा- मनुष्य की आवाज़ छोड़ कर यह कुत्ते-बिल्ली की आवाज़ क्यों निकाल रहा है ?

तोताराम ने हमारे प्रश्न का उत्तर देने की बजाय प्रतिप्रश्न उछाल दिया- मास्टर, यह पुनर्जन्म वाला विभाग आजकल किसके पास है ?


हमने कहा- उसी के पास होगा जिसके पास हमेशा से रहा है । यह कोई हिलती-डुलती सरकार तो है नहीं कि कुर्सी को थामने के लिए किसी मंत्री का दर्ज़ा बढ़ाया जाए या किसी जातीय समीकरण को संतुलित करने के लिए या किसी के वोट-बैंक में सेंध लगाने के लिए मंत्रालय का प्रभार बदला जाए । यमराज और चित्रगुप्त की कुर्सियाँ तो स्थाई हैं जैसे कि मुलायम की कुर्सी अभिषेक के लिए, कांग्रेस की राहुल जी के लिए, माधवराव सिंधिया जी की कुर्सी ज्योतिरादित्य के लिए, बाल ठाकरे की उद्धव के लिए, मुरली देवड़ा की अपने युवराज के लिए, प्रकाश सिंह जी की कुर्सी जूनियर बादल के लिए या फारुख अब्दुल्ला की उमर अब्दुल्ला के लिए । मगर वहाँ स्वर्ग में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । मगर तू क्यों पूछ रहा है ?

बोला- मैं अगले जन्म में कुत्ता या बिल्ली बनना चाहता हूँ ।

हमने कहा- तोताराम, मनुष्य जन्म बड़े भाग्य से मिलता है तिस पर ब्राह्मणका जन्म और वह भी भारत भूमि पर जहाँ जन्म लेने के लिए देवता तरसते हैं । फिर तू क्यों पशु-योनि को प्राप्त होना चाहता है ? हाँ, जहाँ तक सुख-सुविधा की बात है तो यह सच है कि ब्राह्मण की स्थिति इस धर्मनिरपेक्ष शासन और समतावादी समाज में कुत्ते-बिल्ली से बेहतर नहीं है । यदि माँगना ही है तो किसी अल्पसंख्यक समाज में जन्म माँग जिन पर आजकल सभी मेहरबान हो रहे हैं , जिनके लिए अलग शिक्षण संस्थान खोले जा रहे हैं, आरक्षण दिया जा रहा है, उनके विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति दी जा रही है जब कि ब्राह्मण को कुछ नहीं मिलता बल्कि तथाकथित प्रगतिवादियों द्वारा अपमानित ऊपर से किया जा रहा है ।


कहने लगा- इसका मतलब कि तू अखबार नहीं पढ़ता । कल ही छपा था कि इटली के एक ९२ वर्षीय महिला ने अपनी करोड़ों की संपत्ति अपनी पालतू बिल्ली के नाम कर दी । यह दुनिया की तीसरे नंबर की धनवान पालतू पशु है । पहले नंबर पर एक जर्मन शेपहर्ड कुत्ता है । क्या पता, अगले जन्म में कुत्ता-बिल्ली बनने पर कोई मेरे नाम पर भी करोड़ों की वसीयत छोड़ जाए । यदि यह नहीं तो कम से कम अगला जन्म तो सुख से कटेगा ।

हमने कहा- इस भ्रम में मत रहना । जैसे गौशाला की गायों का अनुदान और चंदा अध्यक्ष, मंत्री और कोषाध्यक्ष खा जाते हैं वैसे क्या गारंटी है कि इस बिल्ली के नाम किया गया पैसा कोई पशु-प्रेमी एन.जी.ओ. नहीं खा जाएगा ? यह भी नरेगा और बी.पी.एल. जैसा ही षडयंत्र है । वास्तविक पिछड़े, दलितों, गायों और कुत्ते-बिल्लियों की वही हालत रहने वाली है जो हमेशा से रही है ।

तोताराम हार मानने वाला थोड़े ही है, बोला- फिर भी इससे यह तो पता चलता है कि विदेशी कुत्ते-बिल्लियों से कितना प्रेम करते हैं ?

हमने कहा- मानव का पशु-प्रेम तो हमेशा से ही रहा है । पहले क्या गाय और कुत्ते के लिए पहली और आखिरी रोटियाँ नहीं बनती थी ? बचपन में जब गली की कुतिया ब्याती थी तो क्या हम उसके लिए आटा, गुड़ और तेल माँग कर नहीं लाते थे, उसके लिए हलवा नहीं बनाते थे ? बल्कि उस समय आज की बजाय पशु और पक्षी प्रेम के अधिक पात्र हुआ करते थे । अब तो लोग कहते हैं कि आवारा पशुओं की नसबंदी कर दी जाए या फिर उन्हें मार ही दिया जाए । पहले कोई राजा ही मृगया करता था मगर आज तो केवल काटने के लिए पशु-पक्षी पाले जाते हैं और वह भी बहुत निर्दयता से । अब तो अमरीका की तर्ज़ पर मुर्गी, सूअर के पालन को फार्मिंग अर्थात खेती कहा जाने लगा है । और तुझे पता है चीन और उत्तर-पूर्व में तो कुत्तों को भी लोग बड़े चाव से खाते हैं । क्या गारंटी है कि किसी महिला की वसीयत की बजाय तुझे काटकर, प्लेट में रखकर किसी को सर्व नहीं कर दिया जाएगा ?

जहाँ तक तू पश्चिमी देशो के पशु-प्रेम की बात करता है तो हमें तो लगता है कि आज की अर्थव्यवस्था और मानवीय स्वार्थ की नीचाताओं के कारण आदमी का आदमी पर से विश्वास उठ गया है । उसे पशुओं की संगति में अधिक सुरक्षा अनुभव होती है अन्यथा मानवीय संवेदना की परिधि में तो मनुष्य, पशु-पक्षी ही क्या समस्त चराचर जगत आ जाता है । हमारे यहाँ तो लोग नदी, पहाड़, कुए, बावड़ी से भी सजीवों का सा व्यवहार किया जाता था ।

वैसे यह धरती नितांत संवेदना शून्य नहीं हुई है । अमरीका का ही एक उदहारण है- कोई बीसेक वर्ष पहले कपड़ों पर इस्त्री करके अपनी जीविका चलाने वाली एक काली, अशिक्षित महिला ने अपनी जीवन भर की कमाई कोई एक लाख डालर के करीब मिसिसिपी की मेम्फिस यूनिवर्सिटी को गरीब बच्चों को छात्रवृत्ति देने के लिए एक कोष की स्थापनार्थ के लिए दे दी ।

तोताराम बोला- तू कुछ भी कह मगर मेरी मान्यता है कि आज भी दुनिया में पशु-प्रेम बचा हुआ है । हर अमरीकी राष्ट्रपति कुत्ता या बिल्ली पालता है और उसका बकायदा नामकरण होता है और उसका पत्रकारों से इंटरव्यू करवाया जाता है । बुश की बिल्ली का नाम 'इण्डिया' था और क्लिंटन के कुत्ते का नाम 'बडी' था । ओबामा के कुत्ते का नाम मुझे याद नहीं है मगर क्या वो किसी से कम स्पृहणीय है ? और अपने यहाँ भी तो धर्मराज अपने कुत्ते को अपने साथ स्वर्ग ले गए थे । आज भी यदि कोई पार्टी के आदेश पर कुत्ते की तरह किसी पर भी भौंकने के लिए तैयार रहता है तो उसे पार्टी प्रवक्ता का पद दे दिया जाता है । यदि वसीयत नहीं, तो किसी पार्टी में प्रवक्ता का दर्ज़ा ही मिल जाएगा । ठीक है तू मेरी मदद नहीं करता है तो मत कर । मैं कोई और जुगाड़ देखूँगा ।

और तोताराम चला गया । मित्र होने के नाते हम तोताराम के कल्याण की कामना करते हैं, मनुष्य जन्म में नहीं तो कुत्ते-बिल्ली के जन्म में ही सही ।

१३-१२-२०११


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Dec 5, 2011

हाथ, हाथी और हाथीपाँव



दिग्विजय जी,

जय माता जी की । माताजी मतलब कि शेराँ वाली, अपन क्षत्रियों की आराध्या । आप का १७ नवंबर २०११ का ट्वीट पढ़ा । वैसे हमें यह ट्वीट वाला धंधा कुछ जँचता नहीं क्योंकि इसमें मेंढक के टर्राने की सी ध्वनि आती है या फिर तोते की टें-टें जैसी दर्दनाक आवाज़ सुनाई देती है । तुलसी बाबा होते तो इस टर्राने में भी वेद-पाठ की ध्वनि सुन लेते मगर हम में इतनी योग्यता कहाँ ? हमें लगता है कि लोग अपने ट्वीट के अनुयायियों के अनुसार अपनी लोकप्रियता मापते हैं । वैसे पाठक कम और दर्शक तो पूनम पांडे के ट्वीट पर भी बहुत जाते हैं मगर वह मामला दूसरा है । और फिर आपको किसी की फोलोइंग की ज़रूरत ही क्या है ? आप तो पहले ही 'दिग्विजय' हैं, दसों दिशाओं को जीते हुए । आजकल तो गली का कुत्ता भी जब देखता है कि गली में कोई दूसरा कुत्ता नहीं है तो अपने को गली का दिग्विजय समझने लगता है ।

हमें राजनीति में कोई रुचि नहीं है क्योंकि हमें बचपन से ही सिखाया गया है कि राजनीति सीधे लोगों के बस का काम नहीं है । इसमें बहुत उल्टा-सीधा करना, कहना पड़ता है ।

तो आपने अपने ब्लॉग में बसपा के एक नारे की पैरोडी की ।
मूल-

चढ़ गुंडों की छाती पर ।
मोहर लगाओ हाथी पर ।

आपकी पैरोडी थी-

गुंडे चढ़ गए हाथी पर ।
गोली खाओ छाती पर ।

वैसे पैरोडी को लोग साहित्य नहीं मानते और यहाँ भी आपने मूल की पैरोडी ही की है । वैसे यह मूल भी किसी पैरोडी से कम नहीं है । एक साथ दो काम कैसे होंगे ? गुंडा कोई मरा हुआ थोड़े ही है ? हिल-डुल रहा होगा । अब ऐसे में मोहर गलत जगह लगाने के चांस रहते हैं । और फिर हाथी पर मोहर लगानी है जिसके लिए कुछ तो ऊँचाई पर जाना ही होगा । यदि सावधानी नहीं रही तो हो सकता है हाथी के पाँव तले शरीर का कुछ हिस्सा कुचल ही जाए ।

खैर, न आपको हाथी पर मोहर लगानी और न हमें । पर आपकी पैरोडी की पैरोडी पढ़ कर अच्छा लगा । चलो किसी में तो कविता के कीटाणु बचे हैं वरना इससे पहले ज़फर ने शायरी की और अंग्रेजों ने रंगून की जेल में डाल दिया । अटल जी ने शायरी की तो लोगों ने उन्हें कवि सम्मेलनों में उलझा लिया । इसके बाद जसवंत सिंह जस्सोल जी ने बजट में कुछ पैरोडी के चिह्न दिखलाए यो शीघ्र ही उन्हें पूर्णतया गद्यात्मक होना पड़ा और वह भी विवादास्पद गद्य । अब आपकी बारी है ।

इब्तदा-ए-इश्क में सारी रात जागे ।
अल्ला’ जाने क्या होगा आगे ?

वैसे कविता में बहुत शक्ति होती है यदि कविता हो तो । बिहारी के एक दोहे ने जयपुर के राजा जयसिंह को अपने कर्तव्य की याद दिला दी थी । रत्नावली के एक दोहे ने तुलसीदास जी को राम भक्ति की ओर मोड़ दिया था । आजकल जो कविता होती है उससे लोग प्रभावित कम और आतंकित अधिक होते हैं और मंच पर कवि के आने से पहली ही खिसकने लग जाते हैं । आप कविता के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं पर आपकी कविता में राजनीति और स्वार्थ अधिक है इसलिए पता नहीं सब को अच्छी लगेगी या नहीं । यहाँ हम तो आपके इस मार्ग पर आने में ही खुश हैं ।

आपकी इस पैरोडी में वैसे तो मात्रा-दोष हो सकता है मगर कविता की तुक और मात्रा को आजकल कम देखा जाता है क्योंकि इतना समय ही किसके पास है ? बस सामने वाले को हलकान कर दे वही कविता श्रेष्ठ है । जैसे कि एक मियाँ जी ने जाट के पग्गड़ को लक्ष्य करके कहा-
जाट रे जाट, तेरे सिर पर खाट ।
जाट ने भी मियाँ की झब्बे वाली टोपी पर तत्काल उत्तर दिया-
मियाँ रे मियाँ, तेरे सिर पर कोल्हू ।

मियाँ ने गलती निकाली- मगर तुक तो नहीं मिली ।
जाट ने कहा- तुक से क्या होता है, जब उठाएगा तब पता चलेगा ।

सो आपकी पैरोडी भी वजनदार तो है ही । और साथ में इसमें आपके क्षत्रियत्व की भी झलक मिल जाती है कि गोली पीठ में नहीं, छाती पर खाओ । काश, इस गोली से बचने का उपाय भी साथ-साथ बता देते । मगर लोकतंत्र में नारे ही होते हैं । गरीब को तो गोली या जूते खाने ही पड़ते हैं चाहे सिर पर हों या पीठ पर या छाती पर । चाहे दिल्ली में हों या लखनऊ में हों । एक किस्सा सुनाते हैं । तब की बात है जब दलितों से बेगार ली जाती थी । इससे तंग आकर एक बेचारा आत्महत्या करने के लिए कुएँ में जा गिरा । वहाँ एक मेंढक ने उससे जाति पूछी और फिर कहा- चल, मुझे अपने सिर पर बैठाकर कुएँ की सैर करा । गरीब को तो कुएँ में भी बेगार । वैसे आपके लिए यह किस्सा नया नहीं होगा क्योंकि आप भी तो राज-परिवार से हैं ना और ऊपर से दिग्विजय ।

माफ करिएगा सिंह साहब, हम पता नहीं किस झोंक में विषय से बहुत दूर निकल आए । शीर्षक तो हाथ, हाथी और हाथी पाँव से शुरु हुआ था और कहाँ कविता और बेगार को ले बैठे । हमारे हिन्दी में बहुत से पर्यायवाची शब्द होते हैं । हमारे यहाँ गुण, आकार, भावना और विचार के अनुसार भी शब्द बना लिए जाते हैं । इसीलिए हिंदी में इतने पर्यायवाची हैं मगर अंग्रेजी में नहीं है । विष्णु के तो हजार नाम हैं । हम जिस तरह से हाथ से काम करते हैं उसी तरह हाथी अपनी सूँड से काम करता है तो इस सूँड को उसका हाथ मानकर उसका नाम हाथी रख दिया और फिर तो गाड़ी चल निकली जैसे हस्त से हस्ती, कर से करी ।

तो हमें तो हाथ वाले आदमी और सूँड से हाथ का कम लेने वाले हाथी में कोई फर्क नज़र नहीं आता । गिलहरी, खरगोश और कुत्ता अपने अगले पाँवों से हाथ का काम लेते हैं । कभी आपने कुत्ते को मिट्टी खोदते देखा है ? लगता है कोई मजदूर फावड़े से मिट्टी खोद कर फेंक रहा है । सूअर अपनी थूथनी से ही काम चला लेता है । कई विकलांग तो पैरों में कलम पकड़ कर लिखते हैं और परीक्षाएँ भी पास कर लेते हैं । कुत्ता तो अपनी पूँछ से ही सारे भाव व्यक्त कर देता है । इसीलिए ही दिल्ली में कुत्तों की पूँछ काटने पर पाबंदी लगा दी गई है । जाने कहाँ-कहाँ से बेचारे कुत्ते अपना भविष्य सँवारने के लिए दिल्ली आते हैं । और जब पूँछ ही नहीं होगी तो अपनी-अपनी हाई कमांड से कैसे संवाद करेंगे और कैसे रिझाएँगे ? हाथ और हाथी की राजनीति आप जानें । हम तो हिंदी के मास्टर रहे हैं सो शब्दों के चक्कर में पड़ गए ।

इसी शब्द-परिवार से एक बीमारी भी होती है- हाथी पाँव । इसमें बीमार का पाँव हाथी के जैसे मोटा हो जाता है । वैसे वज़न कितना बढ़ता है यह तो कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है । वास्तव में इस बीमारी का मरीज भी किसी न किसी तरह चलता-फिरता और अपना काम करता ही है मगर जब यह बीमारी सरकारों को हो जाती है तो फिर वे कोई भी कदम नहीं उठा पातीं । लोग फरियाद ही करते रहते हैं कि मेरी सरकार, कोई कदम तो उठाओ, कड़ा नहीं तो पिलपिला ही सही मगर उठाओं तो सही । पर कदम है कि उठता ही नहीं । वैसे पैर तो भारी औरतों के भी होते हैं मगर वे भी कदम उठाती ही हैं मगर सरकारों के कदम पता नहीं, कितने भारी हो जाते हैं कि उठते ही नहीं । ऐसे में जनता ही कभी-कभी पकड़ कर उसके कदम उठवाती है । ऐसे में सरकार गिर भी जाती है ।

हमने कभी सुना नहीं मगर जब 'हाथी-पाँव' की बीमारी होती है तो 'हाथी-हाथ' की बीमारी भी होती ही होगी । वैसे बड़े आदमियों का तो क्या हाथ और क्या पैर जो भी भले आदमी पर पड़ जाए तो बस, मामला साफ़ ही समझो । खैर, आप हाथी पाँव के एक मरीज का किस्सा सुनिए । इस बीमारी के कारण उस आदमी का पाँव बहुत मोटा हो गया था । वह जब भी कभी गुस्सा होता तो अपनी पत्नी को कहता- देखा है ना, पाँव ? एक जमा दूँगा तो कचूमर निकल जाएगा । बेचारी डरती रहती । एक दिन उसने कहने की जगह पत्नी को एक लात जमा ही दी । उसके बाद तो पत्नी को पता चल गया कि यह पाँव बस देखने में ही मोटा है । इससे होना-जाना कुछ नहीं । अब तो वह खुद ही पति पर हावी हो गई ।

हमें लगता है कि महँगाई, भ्रष्टाचार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मनमानी के सामने सरकरों की ताकत के 'हाथी-पाँव' का भ्रम भारत में ही नहीं, अमरीका तक में खुल गया है । इसलिए झूठे पाँव पटकने की बजाय जैसे भी कदम उठते हों, उठाना चाहिए वरना बहुत विलंब हो जाएगा ।

२३-११-२०११

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Nov 21, 2011

ब्राह्मण और शंख - मायावती के ढंग


( मायावती ने लखनऊ की एक जनसभा में नारा दिया- ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी दिल्ली जाएगा- १३-११-२०११ )

मायावती जी,
जय भीम, जय अम्बेडकर और जय मान्यवर कांसीराम जी । हम एक सेवा निवृत्त ब्राह्मण बोल रहे हैं । पहले भी आपने सोशिअल इंजीनियरिंग के तहत ब्राह्मणों को आपने साथ जोड़ा था । ठीक भी है, कोई माने या नहीं मगर ब्राह्मण भी इस देश का एक दलित ही है यह बात और है कि उसे अन्य दलितों की तरह पीट-पीट कर तो दला नहीं गया बल्कि प्रणाम, पायलागी करके दलित बनाया गया । कोई भी उत्सव, शादी-विवाह, यज्ञ हो ब्राह्मण को भी दलित की तरह है बचा-खुचा और अनुपयोगी सामान ही दिया जाता रहा है जैसे कि कहते हैं कि “सड़ा नारियल डाल होली में; बेकाम ब्राह्मण की झोली में” । ब्राह्मण को भी यही सिखाया जाता रहा है कि- भैया, दान की बछिया के दाँत नहीं देखे जाते । वैसे ब्राह्मण के पास राजपूतों की तरह न तो तलवार रही कि जबरदस्ती छीन लें और न ही व्यापारियों की तरह तराजू कि तोल और भाव दोनों में डंडी मार कर वसूल ले । आपने पहली बार पिछले चुनावों में ब्राह्मणों को दिलासा दिया तो वे आपसे चिपक गए । मगर उस समय भी हमने शंका व्यक्त की थी कि इन भोले-भाले लोगों के साथ छल मत कीजिएगा ।

आपने छल तो शायद नहीं किया होगा मगर क्या किया जाए आपको मूर्तियाँ लगवाने के चक्कर में समय ही नहीं मिला । अब समय मिला है तो आपने कह तो दिया कि गरीब सवर्णों को भी आरक्षण दिया जाएगा । आरक्षण तो जी, जिनका होता है उन्हीं का होता है । कहने की बात और है । यदि आरक्षण से ही बात बनती तो अब तक बहुत कुछ हो गया होता । मगर एक बार आरक्षण पाकर सवर्ण हो चुके लोगों का पेट ही नहीं भरता और अब उन्हीं कुछ लोगों को बार-बार आरक्षण की मलाई खा-खाकर पतले दस्त हो रहे हैं और वे आंदोलनों के रूप में जिला मुख्यालय से लेकर दिल्ली तक की सड़कों पर पतले दस्त करते फिर रहे हैं ।

दो-अढ़ाई साल पहले अम्बिका सोनी और कपिल सिब्बल ने कहा था कि सभी ग़रीबों को बहुत कम ब्याज पर शिक्षा ऋण दिया जाएगा । आरक्षण तो खैर, संभव नहीं है । आप जानती हैं कि किसी के भी आरक्षण कोटे से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती । राजस्थान में गूजरों के आन्दोलन के समय मीणों को लगा था कि कहीं उनके कोटे में से तो नहीं काट लिया जाएगा सो उन्होंने पहले से ही शोर मचाना शुरु कर दिया तो किसी को उस तरफ देखने का भी साहस नहीं हुआ । तो क्या आप समझती हैं कि किसी और के कोटे में से कुछ खुरचकर आप या केन्द्र सरकार सवर्णों या ब्राह्मणों को आरक्षण दिलवा देंगे । प्रेक्टिकल बात यह है कि आप अम्बिका सोनी और कपिल सिब्बल द्वारा की गई और फिर ठंडे बस्ते में डाली गई योजना को ही चालू करवा दें । सभी ब्राह्मण और मेहनती और ईमानदार सवर्ण खुश हो जाएँगे । पर उसमें यह खतरा है कि कहीं उसका श्रेय केन्द्र सरकार न ले जाए । मगर निश्चिन्त रहिए, यदि आपने वह योजना लागू करवा दी तो लोग उसका श्रेय आपको ही देंगे क्योंकि लोग बैंकों में दो साल से पूछ-पूछ कर यह मान चुके हैं कि वह कोई योजना थी ही नहीं । बस, गरीब सवर्णों को गरीबी के जल में खड़ा रखने के लिए अकबर ने महल का दीया दिखाया था ।



तो आपने नारा दिया है कि 'ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी दिल्ली जाएगा' । आप सोचती हैं कि दिल्ली में हाथी नहीं हैं ? हम तो समझते हैं कि सारे हाथी तो दिल्ली में ही बैठे हैं और उनका रंग सफ़ेद है । आप जिस हाथी को दिल्ली भेजना चाहती हैं वह किस रंग का है ? अब रंग से क्या लेना, सफ़ेद हो या नीला, हाथी तो हाथी है । चूहा तो है नहीं जो दो दानों से पेट भर जाएगा । खाना तो मण दो मण ही है, चाहे किसी भी रंग का हाथी हो । लोकतंत्र रूपी दानवीर सम्राट ने इस देश की गरीब जनता रूपी ब्राह्मण को यह हाथी दान में दे दिया और मर गए । अब इस हाथी का चारा जुटाते-जुटाते ब्राह्मण की लँगोटी तक उतर गई है । अब आप उससे शंख बजवाना चाहती हैं ।

शंख बजाने में बहुत जोर लगता है, मैडम । राजा की तो हाथी पर बैठकर सवारी निकलती है पर यह तो ब्राह्मण ही जानता है कि शंख बजाने में कितना जोर लगता है ? आँतें बाहर निकल आती हैं । फूँक ऊपर से ही नहीं नीचे से भी निकलने लग जाती है । कई दिन तक गला दुखता रहता है । व्यापारियों ने एक वक्त का खाना खिला कर ब्राह्मणों से अटूट लक्ष्मी का आशीर्वाद ले लिया । राजा ब्राह्मणों से शंख बजवा कर गद्दी पर सवार हो गए और ब्राह्मण वैसा का वैसा है । उसे शंख बजाने के सिवा कुछ करने लायक छोड़ा भी तो नहीं चालाक लोगों ने वरना जब ब्राह्मण के पास शस्त्र और शास्त्र दोनों थे तब तक न तो कोई उसे उल्लू बना सका और देश भी दुष्टों से बचा रहा । अब जब ब्राह्मण नेताओं का शंख बजने वाला हो गया तब से वह हाथ फैलाए ही घूमता है ।



वैसे ब्राह्मण का काम शंख बजाने का ही रहा है पर वह हमेशा ही चुनावों में शंख बजाने वाला नहीं रहा है । चाणक्य ने विलासी और दुष्ट नन्द का शंख बजा दिया था । परशुराम ने सहस्रार्जुन जैसे डाकू और नीच राजा का शंख बजा दिया था । शंख विजय पर भी ब्राह्मण ही बजाता है तो मरने पर भी शंख ब्राह्मण ही बजाता है । अब ब्राह्मणों के पास अपने शंख नहीं रह गए हैं । वे तो दूसरों के दिए हुए शंख बजा रहे हैं । कहते हैं, भूखा ब्राह्मण जोर-जोर से भजन करता है । अब आप भूखें ब्राह्मणों से शंख बजवा रही हैं । बजाएँगे ये ब्राह्मण शंख, और जोर-जोर से बजाएँगे । मगर आप हर बार इनसे भूखे पेट शंख बजवा कर इनकी फूँक ही नहीं निकलवा दीजिएगा नहीं तो फिर अंतिम समय में भी कोई शंख बजाने वाला नहीं मिलेगा ।

हमने बचपन में ब्राह्मण और शंख की एक कहानी सुनी थी । (कृपया पूरी कहानी पढ़ें, नये ट्विस्ट हैं) एक ब्राह्मण, जैसा कि होना चाहिए, गरीब था और आरक्षण आज की तरह उस समय भी उसके लिए नहीं था । मगर घर तो ब्राह्मणी को चलाना होता था सो एक दिन उसने उसे धक्का देकर घर से निकल ही दिया कि कुछ कमाकर लाओ । अब ब्राह्मण के पास कौन-सा बी.पी.एल. कार्ड था जो सस्ता अनाज ले आता या उस कार्ड को ही गिरवी रखकर सौ-दो सौ रुपए उधार ले आता । बिना सोचे समझे चल पड़ा और चलते-चलते पहुँच गया करुणा के निधि समुद्र के पास और जाप करने लगा । पता नहीं, समुद्र को दया आई या वह ब्राह्मण के जोर-जोर से किए जा रहे जाप के कारण परेशान हो गया सो उसने ब्राह्मण को वरदान माँगने के लिए कहा ।


अब ब्राह्मण कौन-सा 'राजा' की तरह लाख दो लाख करोड़ की गिनती जनता था । उसके यहाँ तो केवल भोजन की समस्या थी सो कहा- हे समुद्र देवता, मुझे और कुछ नहीं चाहिए बस, भोजन का इंतज़ाम कर दीजिए । समुद्र ने उसे एक छोटा सा पद्म नाम का शंख दिया और कहा- दिन में दो बार इसकी पूजा करके भोजन माँग लेना, मिल जाएगा । रास्ते में ब्राह्मण को एक जन सेवक के यहाँ ठहरना पड़ गया । जनसेवक ने ब्राह्मण का बहुत सम्मान किया और धीरे-धीरे बातों-बातों में सब कुछ जान लिया । रात को जब ब्राह्मण सो गया तो उसने उसका वह शंख निकाल लिया और उसकी जगह उसी आकार का एक और शंख रख दिया । अगले दिन ब्राह्मण जन सेवक को धन्यवाद देकर चला गया ।

ब्राह्मण बड़ी अकड़ से घर पहुँचा जैसे कोई घोटालिया नेता जमानत पर तिहाड़ से निकलता है । ब्राह्मणी को बड़े रोब से कहा- जल्दी से पानी गरम कर, नहा-धोकर पूजा करनी है । उसके रोब के सामने ब्राह्मणी से मना करते नहीं बना । ब्राह्मण ने बड़ी अदा से पूजा की और फिर शंख से खाने के लिए निवेदन किया मगर यह क्या ? खाना तो दूर कोई आश्वासन भी नहीं निकला । एक बार, दो बार मगर भोजन नहीं निकालना था सो नहीं निकला । ब्राह्मणी ने फिर ब्राह्मण महाराज को धक्के देकर निकल दिया ।

अब तो ब्राह्मण गुस्से में समुद्र के पास पहुँचा और बोला- मैं तो तुम्हें देवता समझता था, तू तो नेताओं का भी बाप निकला । वे आश्वासन तो देते हैं मगर इस शंख ने तो मनमोहन जी की तरह चुप्पी भी नहीं तोड़ी । समुद्र ने कहा- अब मेरे पास और कुछ तो नहीं है पर यह एक केवल आश्वासन देने वाला शंख है । इसे ले जा और उसी जन सेवक के यहाँ रुकना । शायद वह इसके चक्कर में आ जाए और तेरा वह शंख दे दे और यह ले ले क्योंकि इन दोनों की शक्ल और आकार बिलकुल एक जैसे हैं ।

ब्राह्मण उसी जनसेवक के घर रुका और अब की बार बिना बताए ही शंख निकाल कर उसकी पूजा की । शंख ने जोर से कहा- माँग ब्राह्मण, माँग । क्या चाहिए ? ब्राह्मण ने कहा- महाराज, ब्राह्मण को क्या चाहिए, बस दो रोटी । शंख ने गुस्से से कहा- अरे मूर्ख ब्राह्मण, माँगा तो भी क्या माँगा, दो रोटी । अरे, तू यदि कामनवेल्थ गेम्स की अध्यक्षता माँगता, २ जी स्पेक्ट्रम माँगता तो वह भी मिल जाता । ब्राह्मण ने कहा- ठीक है, महाराज, आपको कष्ट दिया । शांत होइए । अब यहाँ क्या, घर चल कर ब्राह्मणी से पूछ कर ही माँग लूँगा । और जनसेवक से कहा- भक्त, थोड़ा सुस्ता लेता हूँ, थोड़ी देर में जगा देना । सेवक ने शंख अपने हवाले किया और वैसा ही एक और शंख ब्राह्मण से सिरहाने रख दिया । कुछ देर बाद ब्राह्मण अपने घर के लिए चल पड़ा ।

ब्राह्मण के साथ फिर धोखा हुआ । सेवक ने जो शंख रखा था वह एकदम साधारण शंख था । न रोटी देता था और न ही आश्वासन । अब जनसेवक के पास रोटी देने वाला शंख भी था और जनता को बढ़ चढ़ कर झूठे आश्वासन देने वाला शंख भी । रोटी भी उसकी और गद्दी भी उसकी । और ब्राह्मण तो जैसा था वैसा का वैसा ही रहा ।

अब तो दोनों ही शंख आपके पास हैं । अब आप इससे जो चाहे बजवाइए मगर कुछ खाने को तो दीजिए- आधी और रूखी ही सही ।

१४-११-२०११

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Nov 17, 2011

भँवरा-भँवरी प्रकरण - देव और दुर्दैव


देव और दुर्दैव

जगह-जगह प्रचलित हुए देह दिखाऊ वस्त्र ।
कर्मों में श्रद्धा नहीं, देह हो गई अस्त्र ।
देह हो गई अस्त्र , देह से देव रिझाएँ ।
बदले में धन, पद पाकर चर्चित हो जाएँ
कह जोशी कविराय राह यह बहुत विकट है ।
शुरू-शुरू में मज़ा अंत में पर संकट है ।

१६-११-२०११



अज़ब गठजोड़

अखबारों में छप रहे रंडी एवं भाण्ड ।
या फिर चर्चित हो रहे भँवरा-भँवरी कांड ।
भँवरा-भँवरी कांड, मिलें सीडी पर सीडी ।
इनसे क्या सीखेगी सोचो अगली पीढ़ी ।
कह जोशी कविराय अज़ब गठजोड़ हो गया ।
लोकतंत्र की खुजली, नेता कोढ़ हो गया ।
१६-११-२०११

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Nov 13, 2011

नेता और कामी waicharik nibandh

आज राजस्थान को भँवरी के भँवर ने अपनी लपेट में ले रखा है लेकिन यह कोई पहला और एकमात्र किस्सा नहीं है । पद, प्रभुता,धन पाकर बहुत कम लोगों का दिमाग ही ठिकाने रहता है । अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति क्लिंटन, इटली के विदा होने वाले प्रधान मंत्री बर्लुस्कोनी, अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व अध्यक्ष, इज़राइल के सज़ा भुगत रहे प्रधान मंत्री, पूर्व राज्यपाल तिवारी, उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी या दिल्ली के युवा नेता सुशील शर्मा की सुशीलता किसी को भूली नहीं है । ये कुछ नाम हैं जो आज के नेताओं के चरित्र की एक झलक देते हैं ।

चाणक्य ने जब चंद्रगुप्त को उस पर लगने वाले प्रतिबंधों और उसके कर्तव्यों के बारे में बताया तो उसने कहा कि फिर राजा बनने से क्या फायदा ? तो चाणक्य ने कहा- तुम राजा अपने सुख के लिए नहीं बनोगे । राजा का कर्त्तव्य तो सेवा करना है । उसे जितेन्द्रिय होना चाहिए । सदाचार राजा ही नहीं बल्कि समाज के सभी सदस्यों के लिए अभिप्रेत है । संयम और आत्मानुशासन के बिना न तो व्यक्ति सुखी और सम्मानित हो सकता है और न ही राजा अपनी प्रजा के सामने कोई आदर्श उपस्थित कर सकता है ।

गोस्वामी तुसलीदास जी ने अपने रामचरित मानस में स्थान-स्थान पर इसी प्रकार के सदाचार की बात कही है । यह बात और है कि तथाकथित प्रगतिशील या दलित-हितैषी उनकी निंदा करते नहीं अघाते, किन्तु यदि ध्यान से सोच-विचार किया जाए तो तुलसी की बात शत-प्रतिशत सही है । रामचरित मानस किसी अदृश्य स्वर्ग के लिए नहीं वरन इसी जीवन को स्वर्ग के समान बनाने के लिए श्रवणीय और आचरणीय है । स्थान-स्थान पर वे ऐसे संकेत देते हैं । इस आलेख में हम उन्हीं पर विचार करना चाहेंगे ।

उत्तरकांड में काकभुशुंडी जी गरुड़ जी से कहते हैं  - जिसके मन में हित चिंतन है वह कभी दुखी नहीं होता क्योंकि हम प्रायः अपने दुःख से दुखी नहीं होते बल्कि दूसरों के सुख से अधिक दुखी होते हैं; जिसके पास (भक्ति रूपी ) पारस मणि हैं वह दरिद्र कैसे हो सकता है, दूसरों से द्रोह करने वाला कभी निश्चिन्त नहीं हो सकता, और काम-लोलुप कभी अकलंकित नहीं रह सकता क्योंकि उसकी कामुकता कभी न कभी उसे कलंकित कर ही देती है -

परद्रोही कि होहिं निःसंका । 
कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ।

अरण्य कांड में जब राम सूर्पनखा को लक्ष्मण के पास भेजते हैं तो लक्ष्मण उसे कहते हैं कि मैं तो राम का दास हूँ और तुम उस दास के साथ कैसे सुखी हो सकती हो-

सेवक सुख चह मान भिखारी । 
व्यसनी धन शुभ गति व्यभिचारी ।
अर्थात सेवक को सुख, भिखारी को मान, बुरी आदत वाले को धन, व्यभिचारी को शुभ गति, लोभी को यश और अभिमानी को सदाचार नहीं मिलता । यदि ये इनकी आशा करते हैं तो वह आकाश से दूध निकालने के समान है ।

जब राम द्वारा खर दूषण के वध के बाद सूर्पनखा रावण के दरबार में अपना दुःख सुनाती है तब भी वह कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त करती है, वैसे उसका खुद का आचरण भी कोई अच्छा नहीं था । यहाँ वास्तव में तुलसीदास जी ही बोल रहे हैं-
संग ते जती, कुमंत्र से राजा । 
मान ते ज्ञान, पान ते लाजा ।
अर्थात कुसंग से तपस्वी, बुरी सलाह से राजा, अभिमान से ज्ञान और मदिरा पान से लज्जा नष्ट हो जाती है । जितने भी तथाकथित बड़े लोग अपमानित हुए हैं उनके साथी या सलाहकार बुरे व्यक्ति थे और वे स्वयं शराब पीते थे और कलंकित व्यक्ति भी । इसीलिए कहा गया है राजा को भले व्यक्तियों को अपने साथ रखना चाहिए मगर जब राजा या नेता खुद भले होंगे तभी तो उनके आसपास भले लोग इकट्ठे होंगे ना । जैसे नेता, वैसे ही उनके छुटभैय्ये ।

दशरथ के मरने के बाद वसिष्ठ जी भरत को समझाते हुए कहते हैं कि राजा दशरथ चिंतनीय और सोचनीय नहीं हैं उन्होंने तो अपने व्रत का पालन किया है और राम के प्रेम में अपना शरीर त्यागा है । सोचनीय तो वेद न जानने वाला ब्राह्मण; धर्म छोड़कर विषयासक्त होने वाला; नीति न जानने वाला राजा; बूढ़ा और धनवान किन्तु कंजूस; वाचाल, ज्ञान का अभिमान करने वाला; गुरु की आज्ञा न मानने वाला और व्रत तोड़ने वाला विद्यार्थी; पति को धोखा देने वाली, कलहप्रिय और मनमर्जी करने वाली स्त्री हैं क्योंकि वे अवश्य ही अपने दुष्कर्मों के कारण नष्ट, दुखी और अपमानित होंगे । ऐसे मामलों में शामिल स्त्रियाँ भी कहीं न कहीं ऐसी ही स्त्रियों की श्रेणी में आती हैं ।

इसीलिए तुलसीदास जी इन सब संकटों का उपाय बताते हुए कहते हैं-

बिनु संतोष न काम नसाहीं । 
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।
संतोष अपने परिवार, पत्नी, धन, पद, जन्म, पति सब के अर्थ में है ।

क्या यह संभव है कि लोकतंत्र में हम नेता का चुनाव इन गुणों के आधार करें और क्या पार्टियाँ टिकट इन गुणों के आधार पर न देकर, जाति-धर्म-धन और बदमाशी के नाम पर देती हैं और येन केन प्रकारेण जीतने वालों का एक झुण्ड बना कर अपने और उनके स्वार्थ और लिप्साओं की पूर्ति का दुष्चक्र रचती हैं ?

११-११-२०११


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Nov 12, 2011

'अग्नि'पुराण - मिट जाते सब भेद



मिट जाते सब भेद
( स्वामी बिग बॉस से बाहर- ११-११-२०११ )

निभता बोलो किस तरह स्वामी-सुन्दरि संग ।
इनका चोला लूज़ है उनकी चोली तंग ।
उनकी चोली तंग, भंग दोनों ने खाई ।
उधर रूप का नशा, इधर ऊँची संताई ।
कह जोशी कविराय त्याग देते सब कपड़े ।
मिट जाते सब भेद, खतम हो जाते झगड़े ।







 कपिल-कील 
( अग्निवेश अन्ना से पैर पकड़ कर क्षमा माँगने को तैयार मगर पहले बताना होगा कि -'वह कपिल कौन है' -११-११-२०११ )

सुंदरियों में गए थे बन कर बहुत दबंग ।
दो दिन में ढीले पड़े, स्वामी जी के रंग ।
स्वामी जी के रंग, काफ़िये तंग हो गए ।
हीरो बनने के सब सपने भंग हो गए ।
जोशी, स्वामी भले पैर पड़ माफ़ी माँगें ।
माफ करें अन्ना पर 'कपिल-कील' पर टाँगें ।


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Nov 11, 2011

'अग्नि'पुराण - स्वामी और बिग बॉस



अंदर 

( बिग बॉस में शामिल हुए स्वामी अग्निवेश- ८ नवंबर २०११)
सुंदरियों में जा घुसे स्वामी अग्निवेश ।
दोनों को लज्जित किया - उम्र, संत का वेश ।
उम्र, संत का वेश, व्यंग्य में 'गर हँसती है ।
तो स्वामी सोचे सुन्दरि मुझ पर मरती है ।
जोशी कवि बौड़म ना कुछ समझा ना बूझा ।
इनमें चाकू कौन, कौन इनमें खरबूजा ।






बाहर

(अग्निवेश बिग बॉस से बाहर-११ नवंबर २०११ )
स्वामी अग्निवेश को बुरा न समझो कोय ।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ।
पढ़े सो पंडित होय, सुन्दरी अगर पढ़ाए ।
तो स्वामी क्या लल्लू भी पंडित हो जाए ।
जोशी अंदर गए बहुत स्वामी जी तनकर ।
चौबे बाहर हुए फटाफट दुब्बे बनकर ।



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शांति-पुरुष और विकास-पुरुष



(मनमोहन ने मालदीव सार्क सम्मेलन में पाकिस्तानी प्रधान मंत्री युसूफ राजा गिलानी को 'शांति-पुरुष' कहा- १० नवंबर २०११)


(1)
शांति-पुरुष यूसुफ रज़ा, औ' विकास के आप ।
इससे बढ़कर और क्या, हो सकता अभिशाप ।
हो सकता अभिशाप, भेजते वे आतंकी ।
बात-बात में देते रहते हमको धमकी ।
जोशी, और आपकी छाया में महँगाई ।
बढ़ती है दिन रात, देश की शामत आई ।





(2)
दो महान आत्मा मिलें, तो हो शांति-विकास ।
लेकिन दोनों के यहाँ, केवल भ्रान्ति-विनाश ।
केवल भ्रान्ति-विनाश, वहाँ भी हालत खस्ता ।
और यहाँ भी जीना महँगा, मरना सस्ता ।
कह जोशी कविराय, आप यदि पीछा छोड़ें ।
तो दोनों की जनता, शायद बेहतर सोचे ।

११ नवंबर २०११

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Oct 27, 2011

यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?


[ यह पिता श्री बजरंगलाल जोशी जी की १९४४ में लिखी कविता है जिनकी मार्च २०१४ में जन्म शताब्दी है । दीपावली पर उनकी यह रचना पाठकों के साथ बाँटना चाहता हूँ ]

यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?

पहनकर नव वस्त्र-भूषण पान कर अभिमान-हाला ।
कर रहे पूजन धनिक श्री को चढ़ाते पुष्पमाला ।
फैलता चहुँ ओर जिनसे दीपमाला का उजाला ।
दीखतीं ऐश्वर्य से परिपूर्ण ऐसी सौधमाला ।
दीनता का कर रहीं उपहास घबराता कसाला ।

यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?

पर उधर तो दृश्य ही दयनीयता का है निराला ।
दीन-जन श्री को चढ़ाने को खड़े ले अश्रुमाला ।
भग्न जिनके झोंपड़ों में भर रहा तम घोर काला ।
वस्त्र-भूषण की कथा क्या, जल रही जहँ भूख-ज्वाला ।
क्या हँसाएगी दिवाली जब रुलाता है दिवाला ।

यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?

शुभ्र-वस्त्र-सुसज्जिता फिरती नवेली कामिनी हैं ।
सज अनेकों भूषणों से घूमती गजगामिनी हैं ।
मुस्कराकर दिल चुराती अहा, ये मधुहासिनी हैं ।
डालतीं निज माँग में सिंदूर ये सौभागिनी हैं ।
पूजतीं पति संग में श्री को सजा के दीपमाला ।

यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?

पर उधर तो बाल विधवाएँ बहातीं अश्रुधारा ।
शून्य जिनका दिल उन्हें है शून्य ही संसार सारा ।
देखके त्यौहार होता और भी दुःख हीनता का ।
भोगतीं अभिशाप हिंदू जाति की संकीर्णता का ।
सुक्ख में ही सुख बढ़ाती, दुःख में दुःख दीपमाला ।

यह सुरंगी दीपमाला या दुरंगी दीपमाला ?

-   स्वर्गीय श्री बजरंगलाल जोशी
१९४४

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Oct 22, 2011

कानून बनाम नीति - जन्नत की हकीकत ( अमरीका यात्रा के अनुभव )

कानून बनाम नीति ( अमरीका यात्रा के अनुभव )

आप हम सब जानते हैं कि भारत में सड़क पर घायल किसी व्यक्ति की सहायता करने में लोग इसलिए संकोच किया करते हैं कि कहीं पुलिस जाँच के नाम पर सहायता करने वाले को ही न फँसा दे किन्तु नैतिकता और मानवीयता यही कहती है कि सबसे पहले मनुष्य की जान बचाई जाए । उसके लिए कानून की धाराएँ जानने की प्रतीक्षा नहीं की जाए । आदमी की मृत्यु कानून के फैसले की प्रतीक्षा नहीं करेगी ।

हमारी नीति कथाओं में और संतों के जीवन के ऐसे अनेक उदहारण भरे पड़े हैं जहाँ मानव क्या, जीव मात्र की सेवा को ही सबसे बड़ी भक्ति, धर्म और नैतिकता माना गया है । एक प्रसिद्ध उदाहारण है भाई कन्हैया का है जो गुरु गोविन्द सिंह जी का सेवक था और उनके साथ रहता था । एक बार युद्ध में दौरान कुछ लोगों ने गुरु जी से शिकायत की- गुरुजी, कन्हैया घायल शत्रु सैनिकों को पानी पिलाता है । गुरु जी ने जब कारण पूछा तो कन्हैया ने उत्तर दिया- मुझे तो कोई शत्रु-मित्र नहीं दिखाई देता । मुझे तो प्यासे दिखाई देते है सो उन्हें पानी पिला देता हूँ ।

गुरुजी ने उसके सेवा-भाव और सच्चे मानव-धर्म के विवेक को समझ कर अपनी जेब से मरहम की एक डिबिया निकाली और कहा- भाई कन्हैया, जब किसी को पानी पिलाते हो तो उसके घावों पर यह मरहम भी लगा दिया करना ।

गुरु और उनके सेवक दोनों को ब्रह्मज्ञान था ।

यहाँ गत महिने एक स्थानीय रेडियो कार्यक्रम आ रहा था जिसमें बताया गया कि किस तरह पिछले १५ अगस्त को एक भारतीय इंजीनीयर टेनिस खेलते हुए हृदयाघात के कारण वहीं गिर गया । उसके साथियों ने तत्काल फोन किया और स्थानीय हस्पताल का हेलीकोप्टर आया और पाँच मिनट के भीतर उसका इलाज शुरु हो गया । हृदयाघात इतना गंभीर था कि यदि थोड़ा-सा भी विलंब हो जाता तो जीवन बचाना मुश्किल था । डाक्टरों ने एक नई तकनीक अपनाई कि उसके शरीर का तापमान इतना कम कर दिया कि उसके हृदय को पूर्ण विश्राम मिल गया उसके के बाद चिकित्सा की गई । मरीज बच गया । इस घटना के बाद उस व्यक्ति के मन में यहाँ की व्यवस्था के प्रति श्रद्धा होना स्वाभाविक है । मैं भी उस व्यक्ति से मिला । वह हमारी ही कोलोनी में रहता है और मूलतः केरल का रहने वाला है ।

 भारत से यहाँ अमरीका में पढ़ने के लिए आने वाले विद्यार्थियों को कुछ छात्रवृत्ति तो मिल जाती है मगर उन्हें अपने गुजारे के लिए वहीं कहीं आसपास कुछ न कुछ काम करना पड़ता है । चूँकि यहाँ छोटे-मोटे कामों के लिए भी दूर-दूर जाना पड़ता है जो कि पैदल संभव नहीं है । इसलिए ये छात्र आपस में मिलजुल कर कोई पुरानी कार खरीद लेते हैं । और उसीसे मौका लगने पर दूर-दूर तक घूमने के लिए भी निकल जाते हैं । दिन में विभिन्न दर्शनीय स्थानों को देखते हैं और रात में एक स्थान से दूसरे स्थान की लंबी यात्राएँ करते हैं । जवानी के जोश में थकान की भी परवाह नहीं करते ।

बेटे ने बताया कि उसके कुछ साथी एक बार कार से मिसिसिपी से न्यूयार्क जा रहे थे । रात में थके हुए और उनींदे होने के कारण कार चला रहे छात्र को झपकी आ गई और कार डिवाइडर ( सड़क विभाजक) से टकरा गई । ऐसे में इनके बस का तो कुछ नहीं था मगर पीछे से आ रहे किसी ट्रक वाले ने इस दुर्घटना को देख लिया और इमरजेंसी वालों को फोन किया । तत्काल एक हेलीकोप्टर आया और इन विद्यार्थियों को अस्पताल में भर्ती करवाया । सब की जान बच गई ।

 भारत में बड़े-बड़े आदमियों को मिलने वाली सुविधाओं की बात नहीं है । पर जब साधारण भारतीय लोगों के साथ ऐसी परिस्थिति में जो कुछ होता है उसकी कल्पना करके और उससे इन घटनाओं की तुलना करके शर्मिंदगी और दुःख दोनों होते हैं । और तब इस देश के प्रति मन भक्ति-भाव से भर उठता है ।


२९ सितम्बर को संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिण-पूर्वी राज्य टेनेसी की ओबियन काउंटी (जिले) के साउथ फुल्टन कस्बे के पास के एक गाँव की घटना है । जीन क्रेनिक नाम के एक व्यक्ति का पौत्र घर का कुछ कूड़ा इकठ्ठा करके पास में ही जला रहा था । उस आग ने पता नहीं, कैसे घर को अपनी लपेट में ले लिया । यहाँ के घर लकड़ी के बने होते हैं । इसके कई कारण हैं - एक तो लकड़ी के घर सस्ते पड़ते हैं, दूसरे ऐसे घरों में, वातानुकूलन के नियमों के अनुसार ऊर्जा कम खर्च होती है ।

जीन क्रेनिक ने फायर ब्रिगेड वालों को फोन किया । तत्काल गाड़ी आ गई । घर बड़ी तेज़ी से जल रहा था और शीघ्र ही फायर ब्रिगेड वालों के देखते-देखते जल कर ख़ाक हो गया । घर का मालिक आग बुझाने के लिए गुहार लगाता मगर फायर ब्रिगेड वाले उस घर के आसपास तो पानी डालते पर जल रहे घर को नहीं बुझाया । दरअसल वे बगल वाले घर को जलने से बचा रहे थे । तो क्या कारण था कि उन्होंने जल रहे घर को नहीं बचाया ?

बात यह थी कि जल रहे घर के मालिक के आग से सुरक्षा के लिए करवाए गए बीमा की अवधि समाप्त हो गई थी इसलिए कानूनन उसे बुझाने की उनकी जिम्मेदारी नहीं थी बल्कि बीमा करवाए बगल वाले घर को बचाने की थी । मकान मालिक बीमा की किस्त मय-ब्याज के जमा करवाने तो तैयार था मगर उन्होंने उसकी एक नहीं सुनी गई ।

चिकित्सक, वकील और आग बुझाने वालों की एक शपथ भी होती है जो उन्हें कानूनी से ज्यादा मानवीय और नैतिक बनाने वाली होती है मगर इनकी मानवीयता और नैतिकता कहाँ चली गई ? हमने अपने बचपन में गाँव के आग की कई घटनाएँ देखी हैं जब खबर मिलते ही, बिना किसी के कहे और कोई पूछताछ किए, लोग ज़मीन से सौ फुट नीचे से बड़ी मुश्किल से खींचा गया अपना अमूल्य पानी लेकर दौड़ पड़ते थे । और इस घटना के समय पानी था, बुझाने वाले थे मगर बिना पैसे किसी को कुछ भी सेवा देने की, आग बुझाने वाली कंपनी के मालिक की तरफ से आज्ञा जो नहीं थी ।

भारत में तो फायर ब्रिगेड विभाग की तरफ से ऐसी कोई शर्त नहीं होती । कारण यह है कि यहाँ यह सेवा सरकारी है जिसमें लापरवाही हो सकती है किन्तु इस काम के लिए पैसे नहीं माँगे जा सकते । अमरीका कल्याणकारी राज्य नहीं है और यहाँ की लगभग सभी सेवाएँ ठेके पर निजी हाथों में हैं । उनका आदर्श सेवा नहीं, 'पहले पैसा फिर भगवान' है ।

आजकल 'वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करो' आन्दोलन के बारे में जब ओबामा से पूछा गया तो उन्होंने कहा था कि कोरपोरेट का लालच अनैतिक है मगर गैरकानूनी नहीं । क्या अर्थ है इसका ? जो नैतिक नहीं है, क्या वह कानून उचित है ? क्या उस कानून से उसे बनाने और बनवाने वालों के अलावा और किसी का भला हो सकता है ? और ऐसा कानून क्या सरकारों और निजी क्षेत्र की मिलीभगत नहीं माना जा सकता ? क्या सरकार का काम कानून में नैतिकता का समावेश करना नहीं है ? यदि यह काम सरकार नहीं करेगी तो कौन करेगा ? यदि नैतिकता की स्थापना नहीं हो सकती तो सरकार की आवश्यकता क्या है ? और उसके पदाधिकारियों को क्या अधिकार है जनता के टेक्स के धन से ऐश करने का ?

तुलसी कहते हैं-
राज नीति बिनु, धन बिनु धरमा । 
प्रभुहि समरपे बिनु सत्करमा । 

अर्थात् नीति बिना का राज्य, बिना धर्म का धन और बिना भगवान को समर्पित किया गया (सकाम) कर्म, व्यर्थ है ।

क्या सभ्य और सुसंस्कृत होने का दंभ भरनेवाले मानव समाज के सभी कर्मों और संस्थानों के कार्यों के मूल्यांकन का आधार नैतिकता नहीं होना चाहिए ?

लगता है, कहीं अमरीका जैसे तथाकथित विकसित देश के बारे में उपजी श्रद्धा कहीं भय में तो नहीं बदलने लगी ?

१५ अक्टूबर २०११


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ज़िम्मेदारी: शरद पवार उवाच


( महँगाई कम करना मेरा काम नहीं- शरद पवार, १९-१०-२०११ )

महँगाई से नहीं है मुझको कोई काम ।
जानें मोहन या प्रणव या फिर जाने राम ।
या फिर जाने राम, हमें तो अन्न उगाना ।
औ' भरकर गोदामों में फिर उसे सड़ाना ।
कह जोशी कविराय सड़े को फिर फिंकवाना ।
पड़े ज़रूरत तो फिर बाहर से मँगवाना ।

१९-१०-२०११

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Oct 4, 2011

दो रोटी का सवाल

दो रोटी का सवाल/ जन्नत की हकीकत / अमरीका यात्रा के अनुभव

आदमी के साथ हर हालत में कोई न कोई सवाल जुड़ा ही रहता है । एक सवाल हल होता है तो दूसरा तैयार । 'गई खिज़ाँ तो बहारों ने परेशान किया' की तर्ज़ पर । मगर रोटी का सवाल उतना ही पुराना है जितनी कि कृषि-व्यवस्था । उससे पहले कोई और लोकप्रिय सवाल रहा होगा मगर यह तय है कि वह भी रहा होगा खाने से संबंधित ही । जिनके लिए खाने की समस्या नहीं है उनके सवालों में विविधता होती है जैसे कि अबकी बार ‘बिग बॉस’ का विजेता कौन बनेगा, या ऐश्वर्या के लड़का होगा या लड़की, जुड़वाँ होंगे या एक ही, लिज़ हर्ले की शेन वार्न से बात सगाई से आगे बढ़ेगी या नहीं, यदि शादी होगी तो कितने दिन चलेगी आदि-आदि या कि अमरीका में आजकल प्राइम टाइम पर चल रही 'क्यूटेस्ट कैट' प्रतियोगिता में कौन सी बिल्ली विजेता बनेगी ?

आजकल किसी न किसी रूप में रोटी से जुड़ा एक सवाल, योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दिए गए उस हलफनामे के बाद , जिस पर मनमोहन सिंह जी के हस्ताक्षर भी हैं और मोंटेक सिंह जी की सहमति भी और जिसमें कहा गया है कि शहर में रोजाना ३२ रु. और गाँव में २५ रु. रोज़ खर्च करने वाला गरीब नहीं माना जा सकता; उछल रहा है । वैसे जहाँ तक गरीब को अमीर मानने की बात है तो यह वास्तव में बहुत दुखदाई है । जब गरीब को धनवान कहा या माना जाए तो उसे अंदर से कितना दुःख होता है यह वही जानता है । पेट में चूहे कूद रहे हों और आप उस गरीब के सौभाग्य के गीत गाएँ तो कष्ट तो होगा ही । हाँ, धनवान को गरीब कहलाने में फायदा ज़रूर है । आयकर वालों की निगाह से बचेगा, चोरों का निशाना नहीं बनेगा, हो सकता है बी.पी.एल. कार्ड भी बन जाए । तभी तो धनवान अपने घरों के नाम 'भवन' नहीं बल्कि 'कुटीर' रखते हैं और अपने घर को 'गरीबखाना' कहते हैं ।

इस ३२-२५ रु. वाली बात को लेकर न जाने कौन-कौन ऐरे-गैरे लोग इन दोनों सज्जनों के पीछे पड़ गए । कइयों ने तो इन्हें ३२-३२ रु. के मनीआर्डर भी भेज दिए कि ३२ रु. रोज में काम चला कर दिखाओ । इन ३२ रु. भेजने वालों को पता नहीं कि सेवा करने वाले बहुत बुरे होते है । वे बिना एक पैसा लिए भी सेवा कर ही देते हैं । कई तो सेवा के इतने शौकीन होते हैं कि यदि सरकार चाहे तो वे उसे किसी भी पद पर देश की सेवा करने के लिए अपनी तरफ से पैसा तक देने को तैयार हैं । ३२ रु. तो बहुत बड़ी बात है, इन संतों ने तो दिल्ली के गुरुद्वारों में लंगर छककर, मुफ्त में देश की सेवा की है ।

इनसे ३२ रु. की बात करने वालों ने यह नहीं सोचा कि ये लोग बड़े अर्थशास्त्री हैं । मोंटेक सिंह जी राज्यों को योजना की राशि बाँटते हैं जो हजारों करोड़ में होती है । मनमोहन सिंह जी ने रिजर्व बैंक, वर्ल्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में काम किया है और अब भी अपने देश से अधिक, दुनिया के दूसरे देशों को अपने आर्थिक अनुभव और प्रतिभा का लाभ देकर उनकी अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए सारी दुनिया में घूमते फिर रहे हैं जिसमें कोई भी काम हजारों करोड़ से कम होता ही नहीं है । इन ३२-२५ रु. के पीछे पड़े लोगों को यह समझना चाहिए कि जो जैसा काम करने का अभ्यस्त होता है उसे वैसा ही काम दिया जाना चाहिए । अब कब्र खोदने वाले को आँखों के रेटिना का ऑपरेशन करने का काम दिया जाएगा तो यही होगा जो गरीबी-रेखा खींचने में हुआ । इन ३२ रु. भेजने वालों के पीछे तो आयकर विभाग के खोजी कुत्ते छोड़ दिए जाने चाहिएँ ।

वैसे इस मामले में चिंता करने की कोई बात नहीं है । अपने पास राहुल गाँधी जैसे ज़मीन और दलितों से जुड़े नेता उपलब्ध हैं जिन्होंने दलितों के यहाँ खाना खाकर देश की सेवा की है । वे जानते हैं कि वास्तव में भारत में एक व्यक्ति कितने रुपए में काम चला सकता है । वैसे यह बात और है कि गरीबी की सही रेखा तय होने के बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि कार्ड किसे मिलेगा और वह उस कार्ड का कितना लाभ उठ पाएगा ? जहाँ राशन कार्ड बनवाने, वोटर लिस्ट में नाम लिखवाने में ही सही आदमी को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह वही जानता हैं । हाँ, सुनते हैं, बँगला देश से आने वालों को इस काम में कोई परेशानी नहीं होती ।

यहाँ तक गाँवों में बी.पी.एल. कार्ड बनवाने के लिए अपने-अपने मापदंड हैं । उस व्यक्ति को गरीब से ज्यादा अपनी पार्टी का, अपनी जाति का या फिर किसी खास जाति का होना चाहिए । कभी-कभी तो बी.पी.एल. का कार्ड बनवा कर राशन की दुकान वाला ही अपने पास रख लेता है और कार्ड धारक को कुछ रुपए महिने के दे देता है, कुछ के कार्ड गिरवी रखे रहते हैं, कुछ दारू के बदले में अपना कार्ड बेच देते हैं । अधिकतर कार्डों पर मिलने वाले सामान का जिला मुख्यालय पर ही सौदा हो जाता है जिससे व्यर्थ के ट्रांसपोर्ट का खर्चा बच जाता है । अब गरीबी की नई परिभाषा से कितना और किसको फायदा होगा यह तो भगवान ही जाने मगर गाँवों में चुनावों में बढ़ते धन-बल से और सेवा के क्षेत्र में लोगों की बढती रुचि इस बात का प्रमाण है कि सेवा से मिलने वाला मेवा अब ऊपर से नीचे तक पहुँचने लगा है । लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए यह बहुत आवश्यक है । और हम देख रहे हैं कि आम आदमी भले की कुपोषित हो मगर लोकतंत्र अवश्य मज़बूत हो रहा है और मज़बूत भी इतना कि उसे आँख दिखाने वालों को रामलीला मैदान ही नहीं बल्कि अमरीका के 'वाल स्ट्रीट' तक में खुले आम गरिया सकता है ।

हम गणित में सदा से ही बहुत कमजोर रहे हैं इसलिए हम हर तरह के सवालों से घबराते रहे हैं । पहले आठवीं कक्षा के बाद हाई स्कूल (नवीं-दसवीं ) में ही वैकल्पिक विषय लेने होते थे । हमने अपने साथियों की देखा देखी वाणिज्य विषय ले लिया मगर हालत वही हुई जो होनी थी । किसी तरह राम-राम करके 'बही-खाता' में पचास में से अठारह नंबर आए । हमारे बही-खाता वाले गुरु जी ने कहा- बेटा, यह काम तेरे बस का नहीं है । तू हिंदी, अंग्रेजी, समाजशास्त्र विषय ले ले । भीम में दस हजार हाथियों की जगह नौ हज़ार हाथियों का बल भी लिख देगा तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, दोहा चौबीस की जगह तीस या बीस मात्रा का भी चलेगा मगर यदि जैसी बेलेंस शीट तू यहाँ बनाता है वैसी यदि कहीं नौकरी में बनाई तो जेल में जाएगा ।

हम भले ही अर्थशास्त्र या बही-खाते के विद्वान नहीं बने मगर हमने महँगाई और गरीबी को अपनी योग्यता से सदा ही मात दी है, उसे छकाया है । जितनी महँगाई बढ़ी हमने उतने ही अपने पाँव सिकोड़ लिए और अब कछुए की तरह अपने खोल में घुसे पड़े जीवन के दिन गिन रहे हैं मगर न तो सरकार को बदनाम किया और न ही अपने आत्मबल को कम होने दिया । इस काम में हमें कबीर जैसे महापुरुषों से हमेशा ही मदद मिली है । उन्होंने हमें सिखाया है-

आधी और रूखी भली सारी तो संताप ।
जो चाहेगा चूपड़ी तो बहुत करेगा पाप ।।
और हम संताप और पाप से बचते चले आ रहे हैं ।

इसी तरह से एक और कवि ने हमें तत्त्व ज्ञान दिया-

रूखी-सूखी खाय कर ठंडा पानी पी ।
देख पराई चूपड़ी क्यूँ ललचावे जी ।।

जैसे भारत महान है वैसे हमारे जैसे इसके निवासी भी महान हैं । अकाल, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कामचोरी, हजार वर्षों के लगातार अल्पसंख्यक और विदेशी शासन से शोषित होकर भी, किसी ज़माने की सोने की चिड़िया रहे इस देश का सामान्य आदमी किसी तरह अपने ईमान, अपनी इज्ज़त और अपनी इंसानियत को बचाने के लिए प्रयत्नशील है ।


वैसे जहाँ तक इस 'मनहूस दो रोटी के सवाल' की बात है तो हमें नहीं लगता कि इसका कुछ होगा भी क्या ? इस मामले में हमें एक अजीब संयोग देखिए कि अमरीका जैसे धनवान और आर्थिक महाशक्ति देश में भी 'दो रोटी का सवाल' 'वाल स्ट्रीट' के धरने में उठने लगा है । जिस दिन भारत में योजना आयोग का गरीबी की रेखा वाला मामला उछला उसी समय संयुक्त राज्य अमरीका में भी सी.एन.एन. में यह बहस चल रही थी कि फूड स्टाम्प के तीस डालर प्रति सप्ताह की राशि पर आश्रित व्यक्ति कैसे खाना खा सकता है ?

सी.एन.एन. की एक प्रोड्यूसर हैं शैला स्टीफन । उन्होंने अपने ब्लॉग में २१ सितम्बर २०११ को एक पोस्ट लिखी- 'कुड यू ईट ऑन ३० डालर अ वीक' ?

अमरीका में २०११ की जनगणना के अनुसार ४.६२ करोड़ लोग गरीब हैं । याहू के अनुसार यह संख्या ८ करोड़ है । ४.९९ करोड़ लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं है । ध्यान रहे, अमरीका में यदि स्वास्थ्य बीमा नहीं है तो इलाज़ एक बहुत बड़ी समस्या है । यहाँ इलाज़ में बीमा कंपनी वाले और अस्पताल वाले मिल कर खूब पैसा कमाते हैं । वे बिना बीमा वालों का इलाज़ करने में कोई रुचि नहीं लेते और यदि करते भी हैं तो इतना महँगा कि मरीज को बिना इलाज़ के मरना ही अधिक फायदे का काम लगता है ।

अमरीका में ४ करोड़ लोग फूड स्टाम्प पर गुजर करते हैं मतलब कि इन्हें ३० डालर प्रति सप्ताह में अपना भोजन का खर्चा चलाना पड़ता है । इस शैला स्टीफन के ब्लॉग में कुछ बताते हैं कि उन्हें अपने बच्चों को खाना खिलाने के लिए कभी-कभी खुद को भूखा रखना पड़ता है । अपने महान देश की तरह यहाँ भी दुकानदार फ़ूड स्टाम्प पर मिलने वाली खाद्य वस्तुओं के स्थान पर सिगरेट और दारू भी सरलता से उपलब्ध करवा देते हैं जिससे गरीबी के बावज़ूद भविष्य उज्ज्वल दिखाई देने लगता है, भले ही कुछ देर के लिए ही सही । बहुत से लोग इसमें अपने अनुभव बताते हैं कि किस प्रकार इस राशि में भी काम चलाया जा सकता है ? इस बारे में जो एक राय सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी वह यह कि यदि लोग एक साथ मिलकर खाद्य सामग्री अधिक मात्रा में खरीद कर लाएँ और फिर घर पर खाना बनाएँ तो खाना सस्ता और पौष्टिक बनेगा तथा इससे मोटापा भी नहीं बढ़ेगा मगर यहाँ की कमज़ोर पारिवारिक व्यवस्था और बाज़ार से बना बनाया खाना खरीदकर खाने की संकृति ने न तो अधिकतर लोगों को खाना बनाना सीखने का अवसर दिया और न ही सहयोग की भावना विकसित होने का ।


अमरीका की एक और बहुत बड़ी समस्या है कि यहाँ बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित बाज़ार ने खतरनाक साजिश करके किसानों को इस कदर अपना बँधुआ गुलाम बना रखा है कि वे सीधे उपभोक्ताओं से संपर्क भी नहीं कर सकते । किसानों को बड़ी-बड़ी बीज, खाद, कीटनाशक आदि बनाने वाली कंपनियाँ इस तरह की शर्तों पर कर्ज़ा देती हैं कि उनके जाल से निकलना संभव नहीं है । किसानों को उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ही उनकी मनमानी शर्तों पर अपना माल बेचना पड़ता है । वे चाहें तो भी उपभोक्ताओं को अपनी तरफ से कोई माल नहीं बेच सकते । बाज़ार में कहीं भी आपको गेहूँ, चना, मक्का, सोयाबीन आदि अपने असली रूप में नहीं मिलेंगे । यदि कम्पनियाँ बेचेंगी भी तो वे मनमाने दामों पर और कुछ वेल्यू ऐड करके कि साधारण आदमी के लिए बहुत महँगा ही पड़े । तब गेहूँ का दाम आटे से भी ज्यादा देना पड़ेगा । मतलब कि उपभोक्ता को मूल वस्तु से दूर ही रखा जाएगा । यदि ऐसा न हो तो लोग शायद गेहूँ खरीद कर सस्ता दलिया और आटा बना लें, सोयाबीन खरीदकर अंकुरित कर लें और सस्ता प्रोटीन प्राप्त कर लें । चावल-दाल लाकर सस्ती खिचड़ी बना सकते हैं । इससे किसानों को भी फायदा हो सकता है और उपभोक्ताओं को भी सस्ता पड़ सकता है और तब शायद तीस डालर सप्ताह में भी लोग खाना खा सकें मगर बाज़ार ऐसा कभी नहीं होने देगा । उपभोक्ताओं और किसान का एक दूसरे से दूर रहना ही उसकी सफलता के लिए ज़रूरी है । और फिर बड़े-बड़े नेता कभी न कभी इन्हीं कंपनियों के कर्मचारी रह चुके हैं । अब भी उनके पास इन कंपनियों के शेयर हैं । और फिर हफ्ता भी मिलता हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।

अमरीका में किसी भी देश से अधिक कृषि योग्य एवं सर्वाधिक उपजाऊ ज़मीन और पर्याप्त पानी है । यहाँ दुनिया में सबसे अधिक मक्का होता है जिसे खाने के अलावा जानवरों को खिलाने और ईंधन बनाने के काम में लिया जाता है । दुनिया का आधा सोयाबीन और दसवाँ भाग गेहूँ होता है जिसमें से खाने के बाद निर्यात किया जाता है । दुनिया का आधा सोना, दुगुनी चाँदी, सारी दुनिया जितना ताँबा, जस्ता और जिंक है । इतनी समृद्धि के बावज़ूद अमरीका में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अपराध और असंतोष है तो आखिर हुआ क्या ? क्या पिछले कुछ वर्षों से वहाँ की धरती ने फसलें उगाना बंद कर दिया या वहाँ के लोग आलसी हो गए या कोई अकाल पड़ गया, कोई प्राकृतिक विपदा आ गई ? ऐसा तो कुछ नहीं हुआ । तो फिर इसका कारण कहीं और है ।

अमरीका के पास दुनिया का दसवाँ हिस्सा पेट्रोल है मगर वह सारी दुनिया का एक चौथाई पेट्रोल काम में लेता है । विकासशील देशों में सस्ते मज़दूर मिलने के कारण यहाँ के उद्योगपतियों ने दूसरे देशों में कारखाने लगाए जिससे यहाँ के मज़दूर बेकार हो गए । बहुत अधिक मशीनीकरण के कारण बहुत कम लोगों को काम देकर, बहुत अधिक सामान तैयार होने लगा जिनमें अधिकतर सामान गैर-ज़रूरी है जिसका बिकना कठिन हो गया । इसे कारखाने मंदी कह कर मज़दूरों की छँटनी करने लगे जिससे और अधिक बेकारी फ़ैलने लगी । सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों से चुनाव में चंदा लेती है और वैसे भी उनकी शक्ति इतनी अधिक है कि सरकार को उसके विरुद्ध कोई भी जनहित का कदम उठाने में डर लगता है ।

इन 'फूड स्टाम्प' पर गुजारा करने वाले गरीब लोगों के लिए भी कार ज़रूरी है क्योंकि बाज़ार इतनी दूर-दूर हैं कि यदि किसी के पास पैसे हों लेकिन कार न हो तो खाना खरीदने के लिए बाज़ार भी नहीं जा सकता । क्या खाना न खरीद सकने वाले लोगों के लिए कार रखना संभव है ? जो ४.६२ करोड़ लोग गरीब हैं उनमें विवाहितों में गरीबी का प्रतिशत केवल ५.८% है जब कि तलाकशुदा लोगों में यह प्रतिशत २६ है । नस्ल के हिसाब से देखा जाए तो गोरों और एशिया के लोगों में गरीबी क्रमशः ८.६ और ९.८% है और इन्हीं नस्लों में एकल अर्थात तलाकशुदा परिवारों का प्रतिशत भी सबसे कम है । इसीलिए सुखमय पारिवारिक जीवन के कारण खर्चा कम होने से वे अपने बच्चों को शिक्षा भी अच्छी दिला सकते है । तभी इन्हीं दो नस्लों में शिक्षा का प्रतिशत भी सबसे अधिक है ।

इस प्रकार माना जा सकता है कि यदि पारिवारिक जीवन सुदृढ़ हो, घर पर खाना बने, शिक्षा हो, समझ, विवेक हो तो इस समस्या से किसी हद तक पार पाया जा सकता है । फिर भी सबसे अधिक आवश्यक यह है कि व्यक्ति की अनियंत्रित और अनावश्यक इच्छाओं पर नियंत्रण हो । समाज में संकल्प, सहयोग और संयम हो ।

आज भी अमरीका में जर्मन मूल का 'आमिश' नामक एक समाज है जो योरप में इसे धर्म के अंतर्गत जेकब अन्नान द्वारा शुरु की गई एक शाखा के अनुयायी हैं और वे १८वीं शताब्दी के शुरु में योरप के अन्य देशों के लोगों की तरह स्वीडन, जर्मनी आदि देशों से आकर अमरीका के ओहायो,आयोवा, पेंसिल्वेनिया,इलिनोय आदि राज्यों में बसे हैं । ये धन के लालच में नहीं बल्कि अपनी धार्मिक स्वतंत्रता को बचाने के लिए अमरीका आए थे । हालाँकि उनके समाज के कुछ सदस्य तथाकथित मुख्य धारा अर्थात सुविधाभोगी समाज का अंग बन जाते हैं फिर भी उस आमिश समाज के अधिकतर लोग आज भी अपने अलग-थलग इलाकों में रहते हैं, बहुत कम मशीनों का उपयोग करते हैं, कठिन श्रम करते हैं, बिना रासायनिकों के जैविक खेती करते हैं, धंधा बन चुकी डाक्टरी पद्धति से अपना इलाज़ भी नहीं करवाते । एक बार सरकार ने उन पर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाने के नाम पर टेक्स लगा दिया । बेचारों को टेक्स देना पड़ा मगर बाद में किसी ने जब मुक़दमा कर दिया कि जब ये आपकी इस सुविधा का लाभ ही नहीं उठाते तो फिर इनसे टेक्स क्यों लिया जाए तो फिर वह टेक्स वापिस किया गया । उनमें तलाक और यौन बीमारियाँ बहुत कम है । उनका पारिवारिक जीवन बहुत सुदृढ़ है । वे बहुत अच्छे कारीगर, ईमानदार और परिश्रमी लोग हैं । इसलिए वे तथाकथित सुविधासंपन्न शेष लोगों से अधिक स्वस्थ और सुखी हैं । उनमें न तो भुखमरी है, न बेरोज़गारी और न ही अपराध हैं । किसी भी काम के लिए यदि संभव हो तो लोग ही उन्हें लाते है क्योंकि उनके पास कारें नहीं हैं । उन्हें लाइए, उन्हें खाना खिलाइए । वे मन लगाकर सस्ते में काम करेंगे और फिर शाम को उन्हें वापिस उनके घर छोड़ आइए ।

आपको आज के अमरीका में भी ऐसे किसी समाज के होने पर आश्चर्य हो सकता है मगर यह सच है । और क्या यह सीधी, सरल और श्रमजीवी व्यवस्था इस कृत्रिम, शोषक, भूख और विषमता का सृजन करने वाली व्यवस्था में अनुकरणीय नहीं हो सकती ?

आप क्या सोचते हैं ?

२ अक्टूबर, २०११
गाँधी जयन्ती

रमेश जोशी

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Sep 19, 2011

उपभोक्तावाद के अभिमन्यु / जन्नत की हकीकत / अमरीका यात्रा के अनुभव

 उपभोक्तावाद के अभिमन्यु / जन्नत की हकीकत / अमरीका यात्रा के अनुभव

आजकल अमरीका के ओहायो राज्य की सम्मिट काउंटी के स्टो कस्बे में हूँ । छोटे पौत्र नीरज और निरंजन नज़दीक के पब्लिक स्कूल में क्रमशः दूसरी और के.जी. में पढ़ते हैं । अपने भारत में पब्लिक स्कूल का मतलब होता है- निजी महँगे स्कूल । 'तीन लोक से मथुरा न्यारी' की तर्ज़ पर अमरीका में 'पब्लिक स्कूल' का मतलब होता है- सरकारी स्कूल । वैसे देखा जाए तो ठीक भी है, जिसमें 'साधारण पब्लिक' जा सके उसी का नाम 'पब्लिक स्कूल' होना चाहिए । भारत की दृष्टि से देखा जाए तो यह भी ठीक है कि जिस स्कूल का सारा काम सरकार की किसी सहायता के बिना, उस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों ( उस स्कूल की पब्लिक ) के पैसों से चलता हो उसे पब्लिक स्कूल कहना ठीक ही है ।

नाम के अलावा एक भिन्नता और भी है कि भारत में पब्लिक स्कूल ( निजी स्कूल ) वाले विभिन्न व्यापारिक संस्थाओं से मिलकर उनके विज्ञापन करते हैं और बिना कोई टेक्स दिए पैसे कमा लेते हैं । इन स्कूलों में एन.सी.ई.आर.टी या एस.सी.ई.आर.टी. की किताबें नहीं, बल्कि निजी प्रकाशकों की कहीं घटिया किन्तु महँगी किताबें बच्चों को खरीदवाई जाती हैं और स्कूल प्रशासन पर्याप्त कमीशन खाता है । मैंने बैंगलोर में देखा कि एक स्कूल, बच्चों को 'रीबोक' के महँगे जूते खरीदने के लिए बाध्य करता है । पता नहीं, जूतों की कीमत का पढ़ाई से क्या संबंध है ? हाँ, पद या चाँदी के जूते के बल पर बोर्ड और विश्वविद्यालयों से मिलकर नंबर अवश्य बढवाए जा सकते हैं । हमारे ज़माने की बात और थी कि हमने पाँचवी कक्षा तक बिना जूतों के ही पढ़ाई कर ली थी । सुदामा तो नंगे पाँवों ही कृष्ण से मिलने में सफल हो गए थे ।

भारत में सरकारी स्कूलों में बाहरी विज्ञापन एजेंसियों की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि सरकार ही सारा खर्चा उठाती है । वहाँ विज्ञापन का धंधा निजी स्कूल करते हैं । यहाँ बात उलटी है । यहाँ निजी स्कूल ज़म कर पैसा लेते हैं और बच्चों को दबाकर पढ़ाते हैं । उन्हें विज्ञापनों से पैसे कमाने की आवश्यकता नहीं पड़ती । यहाँ सरकारी स्कूल स्थानीय, प्रांतीय और केन्द्र सरकार की सहायता से चलते हैं । और सब जानते हैं कि सभी सरकारों की नज़र में शिक्षा पहली प्राथमिकता नहीं है बल्कि कहा जाए तो एक बेमन से किया गया कार्य है जो वोट के लिए करना पड़ता है । और अब तो अमरीका की अर्थव्यवस्था गिरावट की ओर है ? समय पर वर्षा, किसान-मज़दूर की मेहनत और भूमि की उपजाऊ-शक्ति और अपार खनिज सम्पदा के बावज़ूद अमरीका में अर्थिक स्थिति खराब होने का क्या कारण है, यह एक अलग और आश्चर्यजनक विषय है ।

भले ही बड़े-बड़े सी.ई.ओ. और नेता पूरी सुविधाएँ, वेतन, बोनस और पेंशन पेल रहे हैं मगर आर्थिक मंदी के बहाने से सरकारी विद्यालयों का बजट ज़रूर कम किया जा रहा है । इसलिए सरकारी स्कूल अपनी आय बढ़ाने के लिए ऐरे-गैरे सब से विज्ञापन लेकर धन जुटाने में लगे हैं । वैसे यह बात नहीं है कि अच्छी आर्थिक स्थिति में भी यहाँ के स्कूल विज्ञापन का सहारा नहीं लेते थे ।

तो बात पौत्रों के स्कूल की हो रही थी । वे दोनों ३ सितम्बर २०११ को जब स्कूल से आए तो दोनों के पास कोई छः-सात सौ पेज की एक किताब थी जिसे वे अपनी किताब मानकर गौरवान्वित हो रहे थे क्योंकि यहाँ बच्चों को न तो किताबें लेकर स्कूल जाना पड़ता है और न ही किताबें लेकर स्कूल से आना पड़ता है । यदि कोई थोड़ा बहुत गृह कार्य दिया भी जाता है तो एक अलग से पन्ने पर ।

यह किताब बच्चों को मुफ्त दी गई थी । जब ध्यान से देखा तो पाया कि यह कोई किताब नहीं बल्कि विभिन्न व्यापारिक प्रतिष्ठानों के 'खरीद-कूपनों' का संग्रह था जिन्हें दिखाकर आप कुछ प्रतिशत छूट पर खरीददारी कर सकते हैं । खरीददारी में छूट का क्या मतलब होता है यह आज के ज़माने में भारत में कौन नहीं जनता ? क्या कभी कोई व्यापारी किसी को कोई छूट दे सकता है ? हमारा तो मानना है कि यदि कोई व्यापारी बिलकुल मुफ्त में भी कोई चीज दे रहा है तो भी नहीं लेनी चाहिए क्योंकि व्यापारी किसी और को तो क्या, अपने बाप तक को भी कुछ फ्री नहीं देता ।

फ्रेंकफर्ट के हवाई अड्डे पर आधा लीटर पानी के पाँच डालर लेने वाली बाजारी सभ्यता में कुछ भी फ्री होने की उम्मीद वैसे ही है जैसे कि किसी बाजारी औरत से ब्याहता पत्नी जैसी वफ़ा की उम्मीद करना । हमारी उम्र के लोगों को याद होगा कि जब भारत में चाय नई-नई चली थी तब चाय वाले बाजार में लोगों को मुफ्त चाय पिलाया करते थे । और आज ब्याज सहित सब कुछ निकाल लिया कि नहीं ? हालत यह कि आज लोगों को दो-तीन सौ रुपए किलो में जो चाय बेची जा रही उसकी भी शुद्धता की गारंटी नहीं है ।

किताब के मुख-पृष्ठ पर लिखा था- 'एंटरटेनमेंट २०१२' / 'द एक्रन एरिया संस्करण' / 'ओवर $ २१,९०० सेविंग्स इनसाइड' । एक्रन ओहायो राज्य के इस जिले-सम्मिट का एक शहर है जहाँ विश्वविद्यालय भी है । जब इस इलाके के लिए एक संस्करण छपा है तो सारे अमरीका में पता नहीं कितनी करोड़ इस प्रकार की विज्ञापन पुस्तकें छपी होंगी ? यदि आप इस पुस्तक में दिए गए सभी कूपनों का 'सदुपयोग' (?) करें तो आप कोई बाईस हज़ार डालर बचा सकते हैं । आर्थिक मंदी से जूझ रहे अमरीका के लिए कितना सरल उपाय है और भारत जैसे मुक्त और पारदर्शी होकर बाज़ार में बैठे देश के लिए कितना प्रेरणादायी ।

बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती । के.जी. का छात्र पौत्र निरंजन थोड़े बहुत अक्षर ही पढ़ना जानता है मगर उसकी समझ और दृष्टि इतनी सूक्ष्म है कि वह अनुमान से ही बहुत कुछ पढ़ लेता है । उसे एक फोटोस्टेट किया हुआ कागज भी उस विज्ञापन पुस्तिका के साथ दिया गया जिसमें विभिन्न प्रसिद्ध 'फास्ट फूड चेनलों' के प्रतीक चिह्न छपे हुए थे ।

'फास्ट फूड वाले इन चेनलों के बारे में सब जानते हैं कि यह फूड सस्ता तो ज़रूर होता है लेकिन स्वास्थ्यप्रद नहीं । इसमें बहुत ही घटिया चिकनाई का उपयोग किया जाता है । एक साथ ही लाखों पिज्जा या बर्गर कारखानों में बनते हैं और फ्रीज़रों में पड़े रहते हैं । जहाँ आवश्यकता होती है वहाँ, बड़े-बड़े ट्रेलरों से पहुँचा दिया जाता है । जब भी ग्राहक माँगता है तत्काल गरम करके दे दिया जाता है, फास्ट । वैसे अमरीका में सभी पिज्जा या बर्गर ऐसे ही नहीं आते । ऐसे भी भोजनालय हैं जहाँ तत्काल अच्छी सामग्री से आपके सामने ही ताज़ा भोजन तैयार किया जाता है मगर वे इन चेनलों वाले फूड की तरह न तो सस्ते होते हैं और न ही फास्ट ।

तो बच्चे को मिले कागज में फूड चेनलों के प्रतीक चिह्न कुछ इस क्रम से रखे गए थे कि उसी क्रम से बोलने पर एक शिशु गीत जैसा कुछ बनता था । बच्चे निरंजन को स्कूल से आते-आते यह गीत पूरी तरह से याद हो गया था । गीत कुछ इस प्रकार से बनता है-

डीयर फेमिली,
आई कैन सिंग दिस सोंग ओर बुक !
प्लीज लिसन टू मी रीड/सिंग !
यू कैन ईवन सिंग अलोंग विथ मी !

बर्गर किंग, बर्गर किंग, टाको बेल, बर्गर किंग ।
बर्गर किंग, बर्गर किंग, टाको बेल, बर्गर किंग । ।

मेकडो ऽऽऽ नल्ड मेकडो ऽऽऽ नल्ड ।
टाको बेल, बर्गर किंग ।

मेकडो ऽऽऽ नल्ड, मेकडो ऽऽऽ नल्ड ।
टाको बेल, बर्गर किंग ।


अब देखिए, कहाँ तो हम शिशु-गीतों के द्वारा, सोने के लिए तैयार, बच्चे के कोमल मन को चाँद, तितली और परियों के रंगीन और मधुर संसार में ले जाते हैं और कहाँ उसे सोते हुए भी किसी खास कंपनी के अविश्वसनीय और अप्रामाणिक और हो सकता है कि हानिकारक खाद्य पदार्थों से बाहर नहीं निकलने देना चाहते । यह शिक्षा है या आनंद या एक बाल-मन के साथ क्रूर व्यापारिक खेल जो विद्यालयों के माध्यम से खेला जा रहा है ? हो सकता है कि एक वर्ग ऐसा भी हो जिसे इसमें कोई बुरी नज़र नहीं आती हो जैसे कि सूअर की कल्पना कीचड़ से आगे नहीं हो सकती । हो सकता है कि पाठकों को याद हो कि देश की स्वतंत्रता की स्वर्ण जयन्ती पर १५ अगस्त १९९७ को आधी रात को आयोजित संसद के विशेष सत्र में लता मंगेशकर द्वारा एक गीत गया जाना था और उसके पास कोकाकोला का एक विज्ञापन लगाए जाने की योजना थी । भगवान का शुक्र है कि देश इस राष्ट्रीय शर्म से बच गया ।

८ सितम्बर २०११ को  बच्चे एक और पम्पलेट लेकर आए जो फास्ट फ़ूड वालों के शैक्षणिक सरोकारों को और अधिक मुखरता से प्रकट करते हैं । पम्पलेट का फोटोस्टेट नीचे दिया जा रहा है ।


विज्ञापन का एक प्रसिद्ध वाक्य है जो कहता है कि 'कैच देम यंग' मतलब कि गर्भावस्था में ही अभिमन्यु की तरह उसे मेकडोल्नल्ड के चक्रव्यूह में घुसा दो जिससे वह तो क्या उसकी सात पीढियाँ तक बाहर न निकल सकें ।

इसी अमरीका में बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो इस फास्ट फूड संस्कृति के खिलाफ हैं और बहुत से निजी स्कूलों में अभिभावकों के कहने पर वहाँ की विद्यालय कैंटीनों में बच्चों को फास्ट फूड और कोक उपलब्ध नहीं करवाए जाते ।

अमरीका के स्कूलों के माध्यम से बाल-मन में विज्ञापनों की इस घुसपैठ से आप कहाँ तक सहमत हैं ?

१२ सितम्बर २०११

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