Feb 29, 2012

खुराफात की जड़

मनमोहन पा’ जी,
सत् श्री अकाल । मार दिया पापड़ वाले को उस्ताद । हम तो समझे थे कि आप में दम ही नहीं है । आप कुछ भी कहते हैं तो उसी एक स्वर में कहते हैं जैसे कि डिक्टेशन लिखवा रहे हों । पता नहीं यह बात जिसके लिए हम आप पर कुर्बान हुए जा रहे हैं वह आपने किस लहज़े में कही है मगर बात है दमदार । मज़ा आ गया । अब आप जड़ की तरफ जा रहे हैं तो समस्या के हल की भी उम्मीद की जानी चाहिए । अपने तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के विरोध के पीछे अमरीका स्थित तीन एन.जी.ओ. का हाथ बताया है । अच्छा हुआ जो दिग्विजय सिंह जी इस समय यू.पी. में व्यस्त हैं । यदि थोड़ा सा भी ठाले हुए होते तो वे इसमें भी आर.एस.एस. का हाथ ढूँढ़ लेते । खैर ।

वैसे यह भी बताया गया है कि ये एन.जी.ओ. भोजन का लालच देकर लोगों को आन्दोलन में लाते हैं । तो यह तो देखिए भाईजान, लोकतंत्र में यह तो स्वाभाविक है । अपन भी तो चुनाव सभा में, जुलूस में पैसे देकर ही तो तथाकथित समर्थकों को लाते हैं । हमने आपको दक्षिण दिल्ली के लोकसभा के चुनावों में एक ट्रक में दिल्ली कैंट से पालम की तरफ जाते देखा था । गिनकर पाँच आदमी थे । आपने पैसा भी तो नहीं खर्चा । आजकल फ्री में क्या मिलता है ? ये कुडनकलम वाले तो केवल खाने के लालच में ही आते हैं । कश्मीर में भी तो पत्थर फेंकने के ही दो सौ रुपए रोज के लेते हैं । इसमें वैसे अपनी भी गलती तो है ही कि हमने जनता को इतना सस्ता बना दिया कि बिना सोचे समझे, केवल खाने के लिए ही किसी के भी साथ चल पड़ती है ।

आपके बयान के एक दिन बाद ही नारायणसामी जी ने उन सेवाभावी संस्थानों के चोगे को भी फाड़ दिया और बताया कि इन तीन संस्थानों को अमरीका और स्केंडिनेवियन देशों से पैसा मिलता है । इन संस्थानों की, बाहरी रूप से दिखावे के लिए, विकलांगों की मदद करना और कोढ़ उन्मूलन जैसी गतिविधियाँ हैं मगर ये इस देश और समाज के लिए खुद ही कोढ़ बनी हुई हैं । अंदरखाने परमाणु संयंत्र विरोध ही नहीं पता नहीं जाने क्या-क्या गतिविधियाँ चलाती हैं । ध्यान रहे, यह संयंत्र अमरीका के पुराने विरोधी रूस द्वारा लगाया जा रहा है ।

आप तो अमरीका में अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष में भी रहे हैं तो फिर अमरीका की कौन सी ‘मुद्रा’ आपसे छिपी होगी ? आपने तो उसे हर मुद्रा में देखा होगा । हम तो जो थोड़ा बहुत जानते हैं वह बस अखबारों में पढ़े तक ही सीमित है । उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि अमरीका किसी का दोस्त नहीं है । वह अपने मतलब का यार है । संयुक्त राष्ट्र संघ के थ्रू कश्मीर पाकिस्तान को नहीं सौंपा जा सका तो यह रूस की कृपा थी वरना तो अमरीका ने कोई कसर थोड़े ही छोड़ी थी । हालाँकि हम यह नहीं कहते कि रूस कोई परमार्थ कर रहा था । फिर भी यह तो विचारणीय है कि हमें किससे क्या फायदा या नुकसान हुआ ?

जहाँ तक विकास में सहयोग देने की बात है तो याद कीजिए कि मिस्र को आस्वान बाँध बना कर देने का समझौता करके भी अमरीका उसे टरकाता रहा और अंत में रूस से उसे बनाने का समझौता हुआ तो ऐसे ही कुछ संगठनों से विरोध करवाया गया कि इस बाँध की डूब में एक पुराना धार्मिक स्थान आ रहा है इसलिए यह बाँध नहीं बनाया जाना चाहिए । तब रूस ने अपनी उन्नत तकनीक से उस ढाँचे को बड़ी सावधानी से वैसे का वैसा उठा कर अन्यत्र स्थापित किया तो बाँध बना । स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद नेहरू जी ने भारत में बड़े-बड़े आधारभूत उद्योग लगवाने की योजना बनाई जिसके तहत इस्पात के कई बड़े-बड़े कारखाने जैसे भिलाई, दुर्गापुर आदि कई विकसित देशों ने बनाए । अमरीका को भी इनमें से एक कारखाना बोकारो में लगाना था मगर इसमें भी इसने वही मिस्र वाला हथकंडा अपनाया और कई वर्षों तक अटकाए रखा । अंत में इसे भी रूस की सहायता से ही बनाया गया । तो ये दो उदहारण हैं अमरीका के दूसरे देशों के विकास में रुचि लेने के ।

वैसे यदि परमाणु ऊर्जा की बात करें तो हमें परमाणु ऊर्जा बेचकर धंधा करने वाले देशों के, अपने ही देश में, नए संयंत्र लगाने की योजनाएँ निरस्त कर दी गई हैं और पुरानी योजनाओं का कार्यकाल नहीं बढ़ाया जाएगा । जापान के परमाणु संयंत्र में रिसाव की घटना पुरानी नहीं है । रूस में भी ऐसी घटना चेरनोबिल में हो चुकी है ।

जहाँ तक सुरक्षा की बात है तो जापान से ज्यादा हम क्या कर सकेंगे । और फिर इन संयंत्रों की सुरक्षा की जिम्मेदारी तो लगाने वाले देशों की होगी फिर चाहे वह रूस हो या अमरीका हो । अमरीका की जेम्मेदारी का उदहारण है भोपाल की गैस दुखान्तिका । अमरीका में सबसे बड़ी रासायनिक दुर्घटना जब हुई थी उसमें ३०० लोग मरे गए थे । उसके बाद वहाँ ऐसे कारखाने लगाने बंद कर दिए गए । फिर विदेशी निवेश से उपकृत करने के नाम पर ऐसे कारखाने विकासशील देशों में लगाए जाने लगे जैसे भारत में यूनियन कार्बाइड । यूनियन कार्बाइड ने अपनी सुरक्षा जिम्मेदारी कैसे निभाई और उसमें हमारे जनसेवकों ने कैसी संवेदनशीलता दिखाई यह सब जानते हैं । एक मुख्य मंत्री के एंडरसन से व्यक्तिगत संबंध थे जिसके चलते ही एक एस.पी. और जिला कलेक्टर ने विशेष कार और फिर विशेष विमान द्वारा उसे दिल्ली पहुँचाया । जहाँ वह राष्ट्रपति से मिला और विधिवत विदा हुआ ।

अमरीका और उसके अन्य मित्र देशों के सहायता प्राप्त ऐसे संस्थान ऐसे आंदोलनों को ही मदद नहीं देते बल्कि वे संतों के वेश में विदेशी सहायता से और भी खतरनाक गतिविधियों में संलग्न हैं । क्या इस दृष्टि से भी इन संस्थानों पर नज़र रखी जाएगी ? इन पश्चिमी गोरे देशों से ही नहीं बल्कि इस्लामिक देशो से भी यहाँ ऐसे ही परोपकारी कार्यों के लिए सहायता आती है । इसलिए यह आवश्यक है कि विदेशों से आने वाले एक-एक डालर का हिसाब रखा जाना चाहिए । इनका भी बकायदा ऑडिट होना चाहिए और यदि इनके कोई धार्मिक संस्थान हैं तो वहाँ भी तिरुपति और वैष्णो देवी की तरह सरकारी ट्रस्ट क्यों नहीं बना दिए जाते जिनमें दूसरे धर्मों के या नास्तिक लोग भी बोर्ड में बैठें हो ? किसी खास तरह की धार्मिक शिक्षा यदि दी जानी ज़रूरी है तो उसे केवल धर्म तक ही रखा जाना चाहिए । ऐसे धार्मिक स्कूलों को किसी भी नौकरी के लिए मान्यता नहीं दी जानी चाहिए ।

और फिर यह भी तो सोचा जाना चाहिए कि क्या इनके देशों में विकलांग या कोढ़ी या अशिक्षित नहीं है जो ये दयालु, दानवीर इस देश में आते हैं या यहाँ के संगठनों को पैसा देते हैं । विदेशी पैसा ऐसी ही खुराफातें फ़ैलाने के लिए और भी बहुत सी संस्थाओं के पास आ रहा है । ऐसे विदेशी पैसे से कोई भी देश-हित का काम नहीं हो रहा है । या तो यह पैसा धर्मान्तरण के काम आता है या फिर आतंकवादी और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को प्रोत्साहन देने में काम आता है । सेवा और धर्म के नाम पर विदेशी पैसे से चलने वाली गतिविधियों के स्टाइल में फर्क हो सकता है । कोई दादागिरी से तो चुप्पम-चुप्पा मगर देश का कोई भला इनसे नहीं हो रहा है । क्या महाशक्ति बनने के दंभ भरने वाला देश के लिए, अपने लोगों को छोटी-मोटी सुविधा देना भी विदेशी कुधन के बिना संभव नहीं है ?

तुलसीदास जी ने कहा है- तुलसी देखि सुवेष भूलहिं मूढ़, न चतुर नर ।

सो प्राजी, इन विदेशी सहायता प्राप्त लंबे चोगे वाले संतों के वेश से चक्कर में मत आइए । रावण भी सीता के हरण के लिए साधु के वेश में ही आया था ।

अपनी चिरपरिचत शांत शैली में ही सही मगर हिम्मत करो भाई जान ! जो बोले सो निहाल, सतश्री अकाल । सो सतश्री अकाल बोल कर इस खुराफात की जड़ पर चला ही दीजिए कुल्हाड़ी । फिर देखिए कैसे तस्वीर बदलती है । हम जैसे भी हैं , आपके साथ हैं । बस, एक ही लफड़ा है कि क्या वोट बैंक की राजनीति, कुर्सी को खतरे में डाल कर, राष्ट्रहित के मंगलकारी मार्ग पर चलने देगी या नहीं ?

२५-२-२०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

नकद नारायण

प्रणव दादा,
नमस्कार । हालाँकि कुछ पत्रकारों ने आपके अगले राष्ट्रपति बनने के कयास उछाल दिए हैं पर हम उसके बारे में आपको यह पत्र नहीं लिख रहे हैं क्योंकि अब आपके लिए यह पद भी कोई बड़ा नहीं रहा गया है । आप वित्तमंत्री रहते हुए भी देश की अमूल्य सेवा कर रहे हैं ।

अभी आपने २० फरवरी २०१२ को ओरिएंटल बैंक ऑफ कामर्स के ७० वें स्थापना दिवस पर गुडगाँव में कहा कि देश की जन कल्याणकारी योजनाओं में गरीबों को सब्सीडी देकर जो वस्तुएँ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत वितरित की जाती है उसमें एक लाख करोड़ की वस्तुएँ वितरित करने में ६०-७० हज़ार करोड़ रुपए खर्च हो जाते हैं । सब्सीडी की यह राशि सीधे ही उन लोगों के बैंक खातों में भेज दी जाए तो फिर हर साल यह खर्चा नहीं लगेगा । हाँ, एक बार ज़रूर ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर को विकसित करने में ६०-७० हज़ार करोड़ रुपए लगेंगे मगर इस राशि की भरपाई एक साल में ही हो जाएगी । फिर तो हर साल या तो ६०-७० हज़ार करोड़ की बचत होगी या गरीबों को और ६०-७० हज़ार करोड़ सहायता के रूप में दिए जा सकेंगे ।

क्या गज़ब का आइडिया है उस्ताद ! एक पंथ दो काज नहीं, एक पंथ नौ काज समझो । बस, हमें तो यही चिंता है कि फिर बँटवारे के इस धंधे में लगे नेताओं और दलालों का क्या होगा ? हालाँकि ये चतुर लोग 'आप डाल-डाल हैं तो वे पात-पात' हैं फिर भी उनको अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने में कुछ समय तो लगेगा ही ।

हमारा मानना है कि जब से दुनिया में राज-काज का विकास हुआ है तब से सारा झगड़ा बाँटने या वितरण का ही रहा है । लोग उत्पादन से ज्यादा वितरण या बाँटने में ही रुचि लेते हैं क्योंकि ' बाँटन वारे को लगे ज्यों मेहँदी को रंग' और सेवक कहलाते हैं मुफ्त में । बाँटने के इतिहास में सबसे प्रसिद्ध कहानी एक बंदर की है जिसे पहली-दूसरी के हर बच्चे को पढ़ाया जाता है मगर मज़े की बात है कि कोई इससे शिक्षा नहीं लेता और बार-बार उसी बंदर के पास जाता हैं बँटवारे के लिए और बंदर मज़े से आज तक सारी रोटी खाता आ रहा है । गोरे उपनिवेशवादियों ने तो सभी जगह जहाँ भी वे गए इसी 'बाँटो और राज करो' की नीति को अपनाया और मज़े किए । जब उपनिवेश खत्म होने लगे तो उन देशों को बाँट दिया, एक के चार देश बना दिए । अब उन्हें आपस में लड़ा कर हथियारों का धंधा करके खरबों कमा रहे हैं । उनसे स्वतंत्र हुए देशों के नेता भी अब उनकी ही तरह अपनी जनता को जाति-धर्म के नाम पर बाँट कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं ।

इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा है-

मुखिया मुख सो चाहिए खान पान को एक ।
पाले पोसे सकल अंग तुलसी सहित विवेक ॥
मगर कहाँ मिलते हैं ऐसे मुखिया ? लोग तो जब भी कुछ बाँटने का मौका मिलता है तो अंधे की तरह सारी रेवड़ी अपनों को ही बाँट देते हैं । और इन अपनों में कौन होते हैं- अपने ही परिवार के लोग । उनका पेट भरे तो किसी और का नंबर आए ना । अपनी जाति वाले तक टापते रह जाते हैं ।

खैर, अब आपकी यह योजना बहुत बढ़िया है । इससे हमें एक किस्सा याद आगया । हुआ यूँ कि मुर्गीखानों का निरीक्षण करने के लिए एक अधिकारी गया । उसने एक से पूछा- मुर्गियों को क्या खिलाते हो ? एक ने ज़वाब दिया- बाजरा । अधिकारी ने कहा- यह ठीक नहीं है । इससे मुर्गी को दस्त लग सकते हैं । फिर दूसरे से पूछा- तुम क्या खिलाते हो ? उसने कहा- ज्वार । अधिकारी ने उसको लताड़ा- इससे मुर्गी को कब्ज हो सकती है । तीसरा व्यक्ति सब देख सुन अनुभवी हो गया था । उसने कहा- साहब, मैं तो मुर्गी को कुछ नहीं खिलाता । सबको पाँच-पाँच रुपए दे देता हूँ । इनका जो मन होता है बाजार में जाकर खा आती हैं ।

तो आप भी अनुभवी हो गए हैं सो गरीबों को सब्सिडी देकर फ्री हो जाइए । उनकी मर्जी जो चाहें, जहाँ से चाहें लें और मौज करें । बाज़ार की जैसी मर्जी वैसा वह करे । आपकी तरफ से तो हो गया कल्याण । न कोई जाँच और न कोई घपला । और फिर नकद का मज़ा ही कुछ और है । तभी नकद को 'नारायण' कहा गया है । नारद शायद इसीको हर समय अपनी वीणा पर भजते रहते हैं । और भी कहा गया है- 'नौ नकद, न तेरह उधार' ।

अब सोचिए कि जब पहले सब्सीडी की चीजें दुकान पर खरीदने जाते थे तब कभी तो दुकान खुली नहीं मिलती थी, खुली होती थी तो सामान नहीं होता था, यदि सामान हुआ तो सड़ा गला होता था और तोल में भी कम । अब सीधा बैंक में पैसा पहुँच जाएगा । जब मर्जी हुई निकाल लिया । वरना पहले गेहूँ खरीदो, सिर पर उठा कर ले जाओ फिर किसी को कम भाव में बेचो और तब कहीं शाम को दारू की थैली का इंतज़ाम होता था । अब आप ही सोचिए इतने झंझटों के बाद क्या मज़ा रह जाता होगा पीने का ।

अब सीधे बैंक जाओ, पैसा निकालो, ठेके वाले के आगे फेंकों, थैली लो और मज़े करो ।

आप तो सब्सीडी की सारी वस्तुओं का ही नहीं बल्कि जननी सुरक्षा योजना, स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या के हिसाब से मध्याह्न भोजन का पैसा, वृद्धावस्था पेंशन का पैसा, मुफ्त दवाओं की राशि और भी कुछ बनता हो तो उसका भी नकद पैसा सीधे बैंक में भिजवा दीजिए ।

जय नकद नारायण ।

और फिर उसके बाद तो दारू के ठेकेवाले बैंक के पास ही अपने आप ही दुकान लगा लेंगे और फिर सारा नहीं तो आधा पैसा तो आबकारी टेक्स के रूप में फिर सरकार के पहुँच ही जाएगा । वैसे जनता को इसी तरह भिखमंगा और बेवड़ा बनाए रखना ज़रूरी है । यदि इसे आत्मनिर्भर बना दिया गया तो फिर ये न तो किसी की सुनेंगे और न किसी का वोट बैंक बनेंगे । फिर नेता-राजा , युवराजों को कौन पूछेगा ।

नारायण, नारायण । बोल सच्ची सरकार की जय । सच्चे दरबार की जय ।

२४-२-२०१२

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Feb 24, 2012

तोताराम का सूर्य नमस्कार

आज ठंड कुछ कम थी सो तोताराम जल्दी आ गया और कहने लगा- आज चाय बाद में पियेंगे । पहले छत पर चल कर सूर्य नमस्कार करेंगे । सूर्य नमस्कार करने से कमर नहीं झुकती ।

हमने कहा- बुढ़ापे में कमर झुकना स्वाभाविक है और फिर इस दुनिया में जीने के लिए कमर का थोड़ा झुका रहना ज़रूरी भी है । जो लोकतंत्र में कमर सीधी रखना चाहता है उसे बेकार में ही बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । कमर सीधी रखने के चक्कर में ही हमें धक्के खाने पड़े । यदि कमर झुका कर चलते तो अपने शहर में ही सारी सरकारी नौकरी पूरी कर लेते ।

तोताराम बोला- तू कभी भी अभिधा में बातें नहीं करेगा । जब देखो किसी भी बात में व्यंजना झाड़ने लगता है । अरे, मैं सीधी सी बात कह रहा हूँ- सूर्य नमस्कार करने चलें । इससे स्वास्थ्य ठीक रहता है , बस ।

तोताराम का कहना मान कर छत पर चले गए और जैसे ही दोनों हाथ जोड़ कर सूर्य नमस्कार करना शुरु किया तो एक जोर की आवाज़ आई- तुम कौन हो ?

हमने कहा- तोताराम, यह तो कमाल हो गया । स्वास्थ्य-वास्थ्य की तो बाद में देखी जाएगी मगर यहाँ तो हाथ जोड़ते ही भगवान से कनेक्शन जुड़ गया । हम दोनों ने गद्गद् होकर कहा- प्रभु, हम आपके भक्त हैं ।

उधर से आवाज़ आई- भक्त-वक्त कुछ नहीं, तुम दोनों का धर्म और जात क्या है ?

हमने कहा- भगवन, अमरीका से लेकर भारत तक सभी देश धर्म निरपेक्ष हैं इसलिए आप धर्म और जात की बातें करके संविधान और मानवाधिकारों का उल्लंघन न करें । बिना बात कोई कार्यकर्त्ता आप पर जनहित याचिका डाल देगा और आप बिना बात तारीखें भरते फिरोगे । कोई वरदान-शरदान देना हो तो हम अपनी लिस्ट निकालें ।

सूर्य भगवान भी जिद पर आ गए, कहने लगे- यदि ब्राह्मण हो तो ठीक है, नहीं तो कोई न कोई फतवा या धर्माज्ञा ज़ारी हो जाएगी और तुम दोनों भागते फिरोगे ।

हमने कहा- प्रभु, आप तो सारी दुनिया के हो । आपको नमस्कार करके तो मनुष्य आप के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है और मान लीजिए यदि कोई इतना ही कृतघ्न हो कि आपको प्रणाम भी न करे तो भी इस ऊपर-नीचे होने से व्यायाम तो हो ही जाएगा । और ईश्वर तो सब को दिखाई नहीं देता और उसे अनुभव करना कृतज्ञता और ज्ञान के बिना संभव नहीं है मगर आप तो साक्षात् देवता हो । रोज सुबह शाम दिखाई देते हो । यदि रात को यहाँ दिखाई नहीं देते तो दुनिया के दूसरे भाग में चमकते हो । आप न हों तो यह दुनिया ठंड में जम कर खत्म हो जाएगी । यदि आप नहीं हों तो पृथ्वी पर जीवन ही नहीं होगा । आप तो सब के हो । किसी एक धर्म या जाति के थोड़े ही हो ।

सूर्य भगवान कहने लगे- यह मुझसे क्या पूछते हो ? जिन्हें सूर्य नमस्कार से ऐतराज़ है उनसे पूछो ।

हमने कहा- प्रभु, सारे धर्म मानते हैं कि ईश्वर एक है । और आप तो एक हो यह सब को दिखाई देता ही है । आपके बारे में तो शंका का प्रश्न ही नहीं है । यदि पानी हिंदू है, आब मुसलमान है और वाटर क्रिश्चियन है तो बात और है । वैसे इसका भी रास्ता निकला जा सकता है । हिंदू सूर्य नमस्कार कर लें, मुसलमान 'अफताब-आदाब' कर लें और क्रिश्चियन 'सन-सेल्यूटेशन' कर लें । फिर तो हमारे खयाल से कोई झगड़ा नहीं रहेगा ।

अब तो सूर्य भगवन को थोड़ा स गुस्सा आ गया और थोड़ी तेज आवाज़ में बोले- यह अपनी मास्टरी वाले नाटक छोड़ो और राजनीति को समझो । यदि लोग इसी तरह से अपने विवेक से निर्णय लेने लगे तो धर्म का धंधा करने वाले क्या खाएँगे और नेताओं का वोट बैंक कैसे बनेगा ? फिर तो देश-दुनिया के सारे काम ही उचित-अनुचित के आधार पर होने लगेंगे । लोग ऐसे ही सोच समझकर निर्णय करने लगे तो हथियारों के तो कारखाने ही बंद हो जाएँगे । दुनिया का सारा बना-बनाया सिस्टम ही होच-पोच हो जाएगा ।

बस, यदि हिंदू और ब्राह्मण हो तो नमस्कार करो वरना अपनी चटाई समेटो और नीचे जाकर चाय पिओ और फालतू की चर्चा करो ।

हम दोनों ने तत्काल नीचे चले जाने में ही भलाई समझी । आस्तिक होने के कारण हमें डर भी लग रहा था और टाँगें भी काँप रही थीं ।

२३-२-२०१२
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Feb 22, 2012

तोताराम की टी.डी.पी.


आज तोताराम कागजों का एक बण्डल लेकर हाज़िर हुआ और हमसे पढ़ने का आग्रह करने लगा मगर दूसरों का लिखा पढ़े वह भी लेखक होता है ? और आजकल चूँकि हम अपने को लेखक मानने लगे हैं सो उसका आग्रह अनसुना कर दिया और बड़े बेमन से कहा- तू ही सुना दे क्या लिखा है ?

तोताराम ने भी अधिक कष्ट नहीं किया और कहा- बात यह है कि मैनें एक पार्टी बनाई है ।
हमने कहा-पार्टियों की क्या कमी है पहले से ही ए. से जेड. तक सैंकडों जनता, समाज, लोक, शक्ति और कांग्रेस आदि पार्टियाँ हैं । तेरे एक और पार्टी बनाने से क्या फर्क पड़ जाएगा ? फिर भी बता दे क्योंकि तू बताए बिना तो मानेगा नहीं ।

उसने कहा- मेरी पार्टी का नाम होगा टी.डी.पी. ।

हमने कहा- इस नाम की पार्टी तो पहले से मौजूद है- तेलगू देशम पार्टी ।

बोला- है मगर यह तो शोर्ट फॉर्म है मेरी पार्टी का पूरा नाम है 'तोताराम दारू पार्टी' और उसका चुनाव चिह्न होगा 'बोतल' ।

हमने कहा- यह तो समाज विरोधी और अनैतिक है । शराब तो आत्मा और शरीर दोनों का नाश करती है । गाँधी जी ने भी कहा था कि यदि मैं एक दिन के लिए भी देश का डिक्टेटर बन जाऊँ तो शराब बंद करवा दूँगा ।

तोताराम कहने लगा- तभी तो नहीं मिला कोई भी पद । बस, राष्ट्रपिता बना कर खुश कर दिया और आजकल घर में पिता की कितनी चलती है, सब जानते हैं । राहुल गाँधी ने भी कुछ वर्षों पहले कहा था कि युवा कांग्रेस में शराब पर प्रतिबन्ध और खादी की अनिवार्यता रहेगी मगर क्या किसी ने मानी ? और अब तो २२ जनवरी २०१२ को खबर आई है कि कांग्रेस की चुनाव सामग्री भी दारू के कार्टनों में बंद होकर लखनऊ जा रही थी सो पुलिस और दारू समर्थक पीछे लग लिए ।

हमने कहा- मगर उनमें दारू थी तो नहीं ना ? लोग काला धन पूजा घर में भगवान की मूर्ति के नीचे रखते है । अवैध वस्तु सब्जी और फलों के बीच दबाकर ले जाई जाती है । अरे, दारू के खाली डिब्बे सस्ते में मिल गए होंगे सो उनमें रखकर ले गए । उनके मन में चोर होता तो ऐसा क्यों करते ?

बोला- यह एक तकनीक भी तो हो सकती है कि अगली बार जब वास्तव में ही दारू के कार्टनों में दारू ही ले जाई जाएगी तो लोग समझेंगे कि चुनाव सामग्री होगी और कोई कुछ शक नहीं करेगा । और पुलिस तो हर सत्ताधारी की सेवा करती है वरना और सब सूफी हैं क्या ? भैया, भले ही फिर चाहे पाँच साल हराम की खाएँ मगर चुनाव के दिनों में सभी पार्टियों के कार्यकर्ता हाड़ तोड़ मेहनत करते हैं । यदि दो घूँट न लें तो अगले दिन उठना भी मुश्किल हो जाए । हाथी से भी दिन भर काम लेने के बाद शाम को एक बोतल रम की दी जाती है । और फिर दारू इतनी ही बुरी है तो कौन मना करता है सभी पार्टियाँ अपने-अपने राज्यों में कर दें बंद । और बंद करने से ही कौन सा फर्क पड़ जाएगा । गुजरात में दारू बंदी है मगर जब, जहाँ जिस ब्रांड की चाहो ले लो । बस, दो पैसे ज्यादा लगेंगे । वैसे दारू से ही तो एक्साइज़ आता है जिससे जन-कल्याण के कार्य किए जाते हैं ।

हमने कहा- क्या ख़ाक जनकल्याण होता है ? अरे, दारू पीने से जितने अपराध और बीमारियाँ होती उनके इलाज में ही आमदनी से ज्यादा खर्च हो जाता है । और फिर जब हमेशा दारू बुरी नहीं है तो फिर चुनाव के समय में ही क्या खास बुराई आ गई ? बिना दारू के ही जनता कौन सी बढ़िया सरकारें चुन लेगी ? चाहे दारू पीकर चुनो, चाहे बिना पिए; आने तो वही नागनाथ के भाई साँपनाथ । फिर जनता को दो-चार दिन के लिए ही सही अच्छी दारू तो मिलेगी ।

अब तो तोताराम उछल पड़ा, बोला- देख ले, आ गया ना मेरी ही राह पर । क्यों चिंता करता है, चाहे जितने प्रबंध करने का दिखावा कर लें मगर दारू-बल, धन-बल, परिवार-बल और बाहु-बल के प्रभाव में कोई अंतर नहीं आने वाला है ।

हमने कहा- मगर चुनाव आयोग तेरी ऐसी पार्टी को मान्यता नहीं देगा जो सीधे-सीधे दारू की बात करती है ।

बोला- क्यों नहीं देगा ? जब अल्प संख्यकों को आरक्षण की घूस दी जा रही है, लेपटोप का लालच दिया जा रहा है, टी.वी., मुफ्त बिजली और पानी की बात की जा रही है तो दारू में ही क्या खराबी है ? यह तो इस देश में सच्ची शांति, सम-भाव और तनाव मुक्तता लाएगी । दारू पीने वाले कभी भी महँगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन नहीं करते, एक ही प्याले में हिंदू और मुसलमान पी लेते हैं और सारी समस्याओं को दो पेग लगाते ही भूल जाते हैं । तभी इसे मधु कहा है । मधु से ही जीवन में मधुरता आएगी ।

हमने कहा- एक तो वैसे ही अब चुनाव होने वाले हैं तो पार्टी बनाने का क्या फायदा, दूसरे यदि तेरी इस पार्टी को मान्यता मिल भी गई तो एक भी सीट तुझे नहीं मिलने वाली क्योंकि नाम से ही क्या होता है वास्तव में तेरे पास मतदाताओं को दारू पिलाने के लिए पैसे हैं क्या ?

फिर भी तोताराम ने हिम्मत नहीं हारी,बोला- रामविलास के पास कौन से बीस एम.पी. हैं मगर दिल्ली में कार्यालय तो मिला हुआ है । क्या पता, मेरी पार्टी को भी दिल्ली में कार्यालय ही मिल जाए ?

हमने अब कुछ न कहना ही उचित समझा क्योंकि ऐसे आशावादी का कोई कुछ नहीं कर सकता ।

२४-१-२०१२
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Feb 21, 2012

तोताराम - कंडीशंस अप्लाई


कंडीशंस अप्लाई

सोच रहे थे कि बैंक में जाकर पासबुक पूरी करवा लें और यह भी पता कर आएँ कि नया डी.ए. इस महिने लग रहा है या नहीं मगर क्या करें,आज तोताराम नहीं आया । और अकेले जाने का मन नहीं किया सो तोताराम को साथ लेने उसके घर पहुँचे गए । पता चला कि आज तोताराम अपने कमरे में ही बंद है । न नहाया और न नाश्ता ही किया है । अजीब सा लगा ।

दरवाजा खुलवाया तो देखा तोताराम कुछ लिखने में व्यस्त है । पास में ही कैलक्यूलेटर पड़ा है और बीसियों कागज इधर-उधर बिखरे पड़े हैं । पूछा- क्या चक्कर है ? किसी को वेलेंटाइन डे का सन्देश लिख रहा है क्या ? इतना कन्फ्यूजन तो किसी पहले प्रेमपत्र के लेखन में भी नहीं होता है ।

तोताराम ने कोई उत्तर नहीं दिया मगर हमने अपने अनुमान जारी रखे,पूछा- क्या यू.पी. के चुनावों का हिसाब लगा रहा है कि राहुल बाबा कितने सफल होंगे या नए डी. ए. का कैलक्यूलेशन कर रहा है या कहीं अपने जन्म तिथि बदलने की कोई योजना बना रहा है कि अपने को सत्तर से अस्सी का सिद्ध करके एक ही झटके में अपनी पेंशन एक चौथाई बढ़वा लेगा ?

तोताराम ने कागज फेंक दिए और हमारी तरफ हिकारत की दृष्टि से देखते हुए बोला- बस,वही मास्टर वाली सोच । डी.ए. और पेंशन से आगे जाता ही नहीं । अरे,आज का अखबार देखा कि नहीं ? सी.बी.आई. के डाइरेक्टर ने बताया है कि भारत का २४ लाख करोड़ से भी ज्यादा रुपया स्विस बैंक में है । अन्य विदेशी बैंकों और घरेलू तहखानों में पड़े धन का हिसाब तो उन्होंने लगाया ही नहीं है । खैर,उसका हिसाब तो बाद में देखा जाएगा । अभी तो मैं इस २४ लाख करोड़ वाले का हिसाब लगा रहा हूँ कि अपने हिस्से में कितना आएगा ?

कभी इतना बड़ा हिसाब लगाया नहीं ना सो बार-बार शून्य लगाते,गिनते सिर में चक्कर सा आने लगता है । लगता है धरती घूम रही है । करोड़-अरब और खरब के बाद शंख तक आते-आते दिमाग में ढपोर शंख सा बजने लगता है । रामदेव तो खैर किसी खास योगासन के बल पर इससे भी बड़ा हिसाब लगाकर भी नोर्मल है । ये अधिकारी लोग भी विदेशी तरीके से गिनती करने लगते हैं । सीधे -सीधे तुलसीदास जी की तरह नहीं कह देते कि 'पदम अठारह जूथप बंदर' । पहले जब अडवाणी जी ने हिसाब लगाया था तो साफ बता दिया था कि काला धन आ जाने के बाद किसी को ३० वर्ष तक टेक्स नहीं लगाना पड़ेगा । अब भी सी.बी.आई. के डाइरेक्टर बता देते कि एक भारतीय के हिस्से में इतना रुपया आएगा तो कम से कम मेरा आधा दिन तो खराब नहीं होता ।

तभी तोताराम की पत्नी चाय ले आई । चाय की चुस्की लेकर हमने कहा- तोताराम,मान ले यदि यह असंभव संभव हो भी गया तो तू क्या समझता है कि तुझे तेरा हिस्सा मिल जाएगा ? फिर इस धन से कल्याणकारी योजनाएँ बनेगीं और फिर आधे से ज्यादा धन काला होकर फिर स्विस बैंक में जाएगा । जब इसे वहीं रहना है तो क्यों लाने,जमा करवाने के चक्कर में पड़ा जाए । बार-बार रुपए को डालर में बदलने में भी तो कम से कम दस प्रतिशत का फर्क पड़ जाता है ।

तोताराम ने कहा- भले ही मुझे अपना हिस्सा न मिले पर धन तो आना ही चाहिए क्योंकि इन देशों का कोई भरोसा नहीं ।

हमने कहा- तोताराम ऐसा नहीं सोचना चाहिए । जिन देशों का पैसा वहाँ रखा है वे अविकसित या विकासशील देश हैं और जहाँ रखा है वे सब विकसित देश हैं । उन्हें क्या कमी है जो बेईमानी करेंगे ?

तोताराम ने पलटी मारी- इन विकसित देशों की भी हालत बहुत खराब है । तभी न पहले हवाई जहाज देने में नाटक करने वाले इंग्लैड,अमरीका,फ़्रांस सब रेहड़ी पर हवाई जहाज रखे दिल्ली के चक्कर लगा रहे हैं । पैसा देखकर जब अमीरी में ही दिमाग ठिकाने नहीं रहता तो आज कल तो इन देशों में मंदी चल रही है । कहीं यह न कह दें हमारे यहाँ कोई कुछ नहीं रखकर गया । काले धन वाले भी फिर छाती ठोककर कुछ नहीं कह सकेंगे । और अब तो जर्मनी ने भी चीन से यूरोप की सहायता करने के लिए साफ़ साफ़ गुहार कर दी है । कहीं उनकी नज़र हमारे पैसे पर ना पड़ जाये ।

हमने कहा- तोताराम,फिर भी अन्तराष्ट्रीय स्तर पर इतना विश्वास तो करना ही पड़ता है ।

तोताराम बोला- बहुत देखा है इन विश्वसनीयों को । प्लासी के युद्ध से पहले सेठ अमीचंद से समझौता किया था मगर युद्ध जीतते ही फिर गए अपनी जुबान से । और अमीचंद को आत्महत्या करनी पड़ी । ठीक है,अमीचंद ने गद्दारी की थी भारत से मगर समझौता तो समझौता ही होता हैं ना । और फिर ये सब काम अंग्रेजी में करते हैं । ऐसी अंग्रेजी लिखी होगी कि हमारे रामदेवों,लालुओं,मुलायमों और मायावतियों को कुछ समझ में नहीं आना । और यदि चिदंबरम और मनमोहन जी की मदद से कुछ समझ में आ भी गया तो कहीं,किसी कोने में,सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी न पढ़ी जा सकने वाली छपाई में,छपा हुआ दिखा देंगे- 'कंडीशंस अप्लाई' । और फिर उन कंडीशंस में देश की कंडीशन खराब हो जाएगी ।

बात तो तोताराम की ठीक ही है मगर जन-धन सेवकों को समझ में आए तब ना ।

१४-२-२०१२

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Feb 19, 2012

माँगन मरण समान है - नवयुग के भिखारी

कबीर जी के गुरु जी ने उन्हें सीख दी थी-
माँगन मरण समान है मत कोई माँगों भीख ।
माँगन से मारना भला यह सत्गुरु की सीख ॥

कबीर जी ने यह सीख मानी और जीवन भर उसे निभाया । कपड़े बुनते रहे और आधी और रूखी खाते रहे । कुछ न बन पाए । ज़िंदगी भर जुलाहे के जुलाहे ही बने रहे । इसलिए उनका बेटा भी जुलाहा ही रहा । कुछ मुख्यमंत्री संत्री बन जाते तो बेटा भी उपमुख्यमंत्री बन जाता । मगर धीरे-धीरे लोगों ने खोज की कि ‘जी, भीख तो भगवान ने भी माँगी थी राजा बलि से और उस चक्कर में अपनी ऊँचाई भी घटानी पड़ी’ । मगर मज़े की यह बात हुई कि भीख मिल जाने पर फिर अपने असली रूप में आ गए । विष्णु भगवान ने यह भीख अपने लिए नहीं बल्कि परमार्थ ले लिए माँगी थी । तभी यह फार्मूला चल निकला कि

मर जाऊँ माँगूँ नहीं अपने तन के काज ।
परमारथ के कारने मोहिन आवे लाज ॥

सो लोगों ने लाज-शर्म त्याग कर परमार्थ के नाम पर माँगना शुरु कर दिया । भले ही लोग आलोचना करने लगे कि वह तो अपने बच्चों को साथ लेकर भीख माँगती है या उसे तो भीख माँगने की आदत है । मगर भीख माँगना चालू है और वह भी अपने घर से खर्चा करके, कार में बैठकर, हवाई जहाज, हेलीकोप्टर में उड़-उड़ कर । बच्चों ही नहीं, बेटे-बेटी, पत्नी और यहाँ तक कि किराए पर भीड़ जुटाकर, सुन्दरियाँ तक ला-लाकर भीख माँगना जारी रखा है जैसे कि कविसम्मेलनों में माँग कम होने पर कोई बूढ़ा कवि अपने साथ एक सुन्दर कवियित्री को रखकर कविसम्मेलन कबाड़ता है ।

लोग बेकार ही इस युग को कलयुग कहकर बदनाम कर रहे हैं जब कि परमार्थ के लिए इतने कष्ट उठाने वाले तो सतयुग में भी नहीं हुए थे । हमें सतयुग की तो याद नहीं है मगर पहले आम चुनाव की ज़रूर याद है । तब लोग माँगते भी ठसके से थे । जैसे कि हमारे मोहल्ले में एक साधु आया करते थे जो घर के आगे खड़े होकर बोलते थे- सत्त राम । कोई यदि भीख लाने में देर कर देता था तो चल पड़ते थे । वैसे ही पूरे गाँव में राजनीतिक पार्टियों के मुश्किल से दो-चार पोस्टर ही दिखाई देते थे । लिखा होता था 'कांग्रेस को वोट दो' या 'राम राज का यही निशान, उगते हुए सूर्य भगवान या फिर कहीं कहीं स्टेंसिल से दीवारों पर छपे गए हँसिया-हथौड़ा या कभी-कभी कोई रात में दीवारों पर लिख जाता था- ‘अपना वोट किसको दें, दीपक के निशान को’ आदि-आदि । यह बात और है कि अब न सूर्य है और न दीपक मगर अजीब कमाल है कि अँधेरे में ही खिलना चाहता है । अब न बैल हैं न किसान और न ही हल । एक हाथ है, पता नहीं स्टॉप का साइन है या झाँपड का संकेत । जब हल, किसान ही नहीं तो हँसिये की ज़रूरत? मगर है । पता नहीं किसी की गर्दन काटने के लिए है क्या ? अब तो हाथी घूम रहे है यदि कहीं कोई फसल उगी हुई हो तो उजाड़ने के लिए । कोई साइकिल पर पोस्टमैन की तरह लैपटॉप का आश्वासन बाँटता फिर रहा है ।

आज प्रतियोगिता इतनी बढ़ गई है कि जिसे देखो परमार्थ के लिए भीख माँगने के लिए निकल पड़ा है । अच्छे भले खानदानी भिखारियों का मार्केट बिगाड़ दिया । अब भीख माँगना भी आसान नहीं रहा । बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं । बड़ा खर्चा बढ़ गया है । पहले पार्टी का नाम लिख दिया जाता था और दयालु लोग भीख दे दिया करते थे । अब तो भीख देने वाले कहने लगे हैं कि तुम भीख लेकर सेवा करोगे और सेवा से मेवा मिलता है सो हमें तो अपने हिस्से का मेवा अभी दे जाओ; भले ही वह नकद न हो, लेपटाप के रूप में हो, साइकिल के रूप में हो, दारू के रूप में हो । अब किसको क्या-क्या दो । और देने के बाद भी वोट की कोई गारंटी नहीं है । कहीं दारू के नशे में टुन्न होकर पोलिंग के दिन सोते ही रह जाएँ । और तिस पर चुनाव आयोग का डंडा ऊपर से ।

नए-नए रूप धारण करने पड़ते हैं- कभी धर्म निरपेक्ष, कभी जातिवादी, कभी गरीब प्रेमी, कभी साम्प्रदायिकता विरोधी, कभी सिर पर पगड़ी बाँधनी पड़ती है तो कभी टोपी पहननी पड़ती है । कभी कोई तलवार थमा देता है तो कभी कोई धनुष-बाण । अब किसे चलाना आता है ? सब को टेंशन बना रहता है कि कहीं किसी की आँख न फोड़ दे या कहीं अपनी ही अँगुली न कटवा ले । भीख माँगना न हुआ नौटंकी हो गई । बहुरूपिया भी इतने वेश नहीं बदलता । पहले इतनी कठिनाई कहाँ थी- बस, फटे-पुराने कपड़े और चेहरे पर थोड़ा दीनता का भाव ले आए और हो गया काम । वैसे पहले के भिखारी धनवान होते भी नहीं थे सो ज्यादा मेकअप करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती थी । आजकल तो अधिकतर होते करोड़पति हैं और नाटक करना पड़ता है भिखारी का । बड़ा मुश्किल काम है मगर क्या किया जाए, सेवा का चस्का है ही ऐसा । एक बार लग गया तो छूटता ही नहीं, भले ही भीख न मिले तो दानदाता की कनपटी पर कट्टा ही रखना पड़े । मगर भीख तो चाहिए ही । सेवा जो करनी है ।

छः दशक पहले भीख माँगने का चक्कर ही नहीं था । साहब बहादुर डाइरेक्ट खेतों से ही भीख उठवा लिया करते थे । अब ज़रा प्रोसीज़र लंबा हो गया है । पहले सरकारी खरीदी होगी, फिर गोदामों में जाएगा, फिर नरेगा और मध्याह्न भोजन का कार्यक्रम बनेगा फिर अनाज इश्यू होगा फिर कहीं उसमें से अपने हिस्से की भीख मिलेगी । और कहीं किसी सिरफिरे ने कुछ भाँजी मार दी या किसी पत्रकार ने पोर्न गेट की तरह कैमरे में कैद कर लिया तो बिना बात की झाँय-झाँय । और फिर चुनाव भी ससुर आए दिन लगे ही रहते हैं । कभी विधान सभा तो कभी लोकसभा, कभी पंचायत तो कभी नगर निकाय । एक बार भीख माँगकर पाँच साल तसल्ली से खाने भी नहीं देते ।

क्या किया जाए । लोकतंत्र जो ठहरा । यह सब तो बर्दाश्त करना ही पड़ेगा । बिना सेवा किए मेवा तो दूर, कोई घास भी नहीं डालता । और जहाँ तक काम का सवाल है तो अपने को इसके सिवा कुछ आता तो भी नहीं । चलो कुछ भी हो, लोग कुछ भी कहें । धंधा तो धंधा है, भीख हो या जेब काटना । उठो प्यारे, चलो भीख माँगने । एक बार मिल जाए फिर कौन पूछता है कि भीख माँगने रावण आया था या सुदामा ।

एक चरवाहे की कहानी है । उसकी बकरी ब्याने वाली थी । ज़रा मुश्किल हो रही थी । कभी मेमने के पैर थोड़े से बाहर निकलते और कभी अंदर हो जाते । चरवाहा बड़ा परेशान । संकट में ही तो भगवान याद आते हैं सो बोलने लगा प्रसाद - कभी सौ का तो कभी दो सौ का । उसकी पत्नी ने कहा- तेरी बकरी तो पचास की भी नहीं है और तू प्रसाद बोल रहा है सौ-दो सौ का । क्यों घाटा खाने पर तुला हुआ है । चरवाहे ने उत्तर दिया- एक बार बच्चा बाहर आ जाने दे फिर हनुमान जी और शिवजी सब को देख लूँगा ।

सो एक बार पोलिंग हो जाने दीजिए फिर ढूँढते रहिएगा इन भिखारियों को । पता नहीं, कहाँ मुन्नी बाई से बँगलों में बैठे झंडू बाम मलवा रहे होंगे ?

१६-२-२०१२

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Feb 13, 2012

तोताराम के तर्क - गुनाह बेलज्ज़त

तोताराम के आते ही हमने उसके सामने चाय के साथ लड्डू का एक टुकड़ा रखते हुए कहा- ले, सेलिब्रेट कर ।

खुश होने की बजाय तोताराम उफन पड़ा- क्या सेलिब्रेट करूँ? क्रिकेट में भारत का इंग्लैण्ड के बाद अब आस्ट्रेलिया में सूपड़ा साफ़ या भारत का फ़्रांस के साथ ५०४ अरब रुपए का विमान समझौता?

हमने कहा- ये सब अपने मतलब की बातें नहीं हैं । तू तो डी.ए. की सात परसेंट की एक नई किस्त सेलिब्रेट कर । रात को ही न्यूज थी । अभी अखबार आया जाता है, विश्वास नहीं हो तो पढ़कर कन्फर्म कर लेना ।

'अच्छा'- कहते हुए तोताराम झूमने सा लगा और फिर एक तरफ झुकता हुआ गिरने को हुआ । हमने उसे थामकर वहीं चबूतरे पर लिटाया और पोती को जल्दी से ब्लड प्रेशर नापने वाला यंत्र लाने को कहा तो तोताराम ने इशारे से मनाकर दिया । हमें लगा कोई बड़े खतरे की बात नहीं है । फिर भी कहा- कुछ बोल भी तो सही जिससे कुछ तसल्ली हो ।


तो बोला- एम.एम. का पाठ.... एम.एम.
हमनें सोचा- यह महामृत्युंजय का शोर्ट फॉर्म होगा, सो कहा-ठीक है, अभी शुरु करते हैं महामृत्युंजय का पाठ । 



तोताराम ने गर्दन हिला दी और चुप हो गया । तब तक पत्नी चाय ले आई । तोताराम ने चाय पी और खखार कर उठ बैठा ।

हमने सहानुभूति दिखाते हुए कहा- क्या पहले भी कभी ऐसा हुआ है? आज ही किसी अच्छे से डाक्टर के पास चलते हैं और पूरा चेकप कराते हैं । लापरवाही ठीक नहीं ।

तोताराम ने धीरे-धीरे बोलते हुए कहा- वैसे तो सब कुछ ठीक है । पर अचानक डी.ए. की किस्त की सुनकर आँखों के आगे अँधेरा छा गया और चक्कर आ गया ।
हमने कहा- खुश होने की बात पर चक्कर? तू भी अजीब है ।

बोला- अजीब का पता तो जब थोड़ी देर में लाला की दुकान पर जाएगा तब पता चलेगा । उसने पहले से ही पन्द्रह प्रतिशत भाव बढ़ाकर तैयार कर लिए होंगे । मीडिया को देने से पहले सरकार लाला को खबर देती है । सात प्रतिशत महँगाई बढ़ने का मतलब है हमारी ताकत पन्द्रह प्रतिशत कम होना । अब सोच ऐसे ही बैठे बिठाए साल में दो बार महँगाई भत्ता बढ़ता है और अपनी रिटायरमेंट की पोस्ट ऑफिस में जमा राशि की ताकत तीस प्रतिशत कम हो जाती है ।

हमने कहा- लेकिन महँगाई बढ़ने पर भत्ता भी तो बढ़ता है । क्या फर्क पड़ता है?
तोताराम ने ऐतराज़ किया- पड़ता है, बहुत फर्क पड़ता है । यह ठीक है कि कुछ नेताओं के चहेते, कुछ दादा टाइप, कुछ वोट बैंक के अम्मर बकरे सरकारी नौकरी में मौज कर रहे हैं, कुछ साहसी और नेताओं और अफसरों के चमचे घूस भी खाते हैं मगर अधिकतर ईमानदार कर्मचारी काम भी करते हैं, घर से दूर कठिन स्थानों में रहकर सेवा अंजाम दे रहे हैं । उनके लिए तो यह महँगाई भत्ते और वेतन आयोग का चक्कर ऐसी हड्डी है जिसे चबाते रहो और अपना ही खून चाटते रहो । यह बड़ा दुष्चक्र है । इसका कहीं अंत नहीं है । बस, समझो कि न तो मरीज़ ठीक होता है और न मरता है । डाक्टर और दवा वालों का धंधा चलता रहता है । जब नौकरी शुरु की थी तब जितना दूध लाते थे आज भी उतना ही दूध आता है । बस, फर्क इतना है कि अब पानी अधिक होता है । पानी तक भी ठीक है मगर अब तो उसके सिंथेटिक होने का भी खतरा रहता है यह एक प्रकार से नशीली चाय पिलाकर माल उड़ा ले जाने वाली हरकत है ।

और फिर तुमने कभी यह भी सोचा है कि जिन को इस वैश्वीकरण के समय में नौकरी या मज़दूरी नहीं मिलती, वे कहाँ जाएँ? । कौन सी सरकारी नौकरी है जो भत्ता बढ़ जाएगा । ऐसे लोगों के नाम पर जो अरबों-खरबों का दान-पुण्य करने वाली योजनाएँ बनती हैं उनका पैसा भी अधिकतर नेता लोग ही खा जाते हैं । ऐसे गरीब लोग कहाँ जाएँ? जब यह देश आज की तरह तथाकथित रूप से विकसित नहीं था तब कोई गरीब को दो मुट्ठी आटे से या और भी इसी तरह से कुछ मदद कर दिया करता था मगर अब तो हाल यह है कि बीस-तीस हज़ार रुपए महिने के कमाने वाले भी गिनकर रोटियाँ बनाते हैं । किसी की क्या मदद करेंगे । मेरे ख्याल से अपनी वह एक सौ रुपए महिने की नौकरी वाला समय ही अच्छा था । आज जब सरकार के आँकडे बताते हैं कि भारत में प्रतिव्यक्ति आय पचास हजार सालाना हो गई तो उसके साथ-साथ किसानों की आत्महत्या और भूख और कुपोषण से मरने के भी समाचार कम नहीं होते ।

यदि यह मुक्त अर्थव्यवस्था इसी गति से बढती चली गई तो वह दिन दूर नहीं जब हम बाज़ार से पाँच किलो आटा और पाँव भर सब्जी लेकर आएँगे और कोई उसे रस्ते में ही लूट लेगा । जहाँ तक कानून व्यवस्था की बात है तो वह हमेशा एक जैसी ही रहती है जैसी आज वैसी ही कल । बड़े लोगों को तो खैर, तब भी सुरक्षा मिल जाएगी पर अपना क्या होगा? हम तो कहते हैं भैय्या, छोड़ो यह महँगाई भत्ता और पे-कमीशन, क्रिकेट, कोकाकोला, मोबाइल, ट्विटर और छम्मक-छल्लो । बस, आप तो यह कर दो कि हर पेट को रोटी, पढ़ने वाले को स्कूल और मरीज को इलाज मिल जाए ।

हमारे पास तोताराम के प्रश्नों और शिकायतों का तो कोई हल नहीं था मगर फिर भी बात बदलकर माहौल ठीक करने के लिए कहा- तू वह महामृत्युंजय के जाप वाली क्या बात कर रहा था?

बोला- एम.एम. से मेरा मतलब मनमोहन का जाप करने से था क्योंकि देश में इस संवेदनहीन मुक्त बाजार की गंगा को लाने वाले भागीरथ वे ही हैं । क्या पता, जाप से प्रसन्न होकर केवल 'मन-मोहन' ही नहीं, कुछ 'तन-मोहन' का भी इंतज़ाम कर दें । वैसे पता तो जब कुछ होगा तभी चलेगा क्योंकि शक्ल और शब्दों से तो पता चलता नहीं कि रो रहे हैं या हँस रहे हैं? कृपा करेंगे या क़त्ल?

खैर, एक छोटी सी क्षणिका सुन ।
हमने पूछा- किसकी है?
बोला- खाकसार की है ।


हमने तोताराम को बहुत सी कविताएँ सुनाई हैं तो फिर उसे मना कैसे कर सकते थे और फिर कुछ उत्सुकता भी थी । क्षणिका इस प्रकार है-

मनमोहन जी,
आप सात प्रतिशत महँगाई भत्ते की खबर उड़ा देते हैं
और परचून वाले लालजी पन्द्रह प्रतिशत महँगाई बढ़ा देते हैं ।
आप देने वाले और वे लेने वाले,
हमें इस लेन-देन के बीच फँसाना छोड़ दीजिए
हो सके तो
हमारे इस महँगाई भत्ते को लालाजी की दुकान से जोड़ दीजिए ।


२-२-२०१२
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Feb 12, 2012

विकास, विकासशील और विकसितtotaram

हमने तोताराम से प्रश्न किया- तोताराम, यह देश सुनते हैं, प्राचीन काल में एक विकसित देश था मगर अब आजादी के बाद साठ से भी अधिक वर्ष बीत गए मगर यह विकासशील ही बना हुआ है तो फिर विकसित कब होगा?

तोताराम ने कहा- देखो, विकासशील बने रहने में गति है । यदि विकसित हो गया तो गति रुक जाएगी और पतन शुरु हो जाएगा । अब देख लो ना, जो देश विकसित हो चुके अब पतन की ओर जा रहे हैं । योरोपीय यूनियन कर्ज़ा दे रही है, बेल-आउट पैकेज दिए जा रहे हैं । मगर बधिया ऐसी बैठी कि उठने का नाम ही नहीं ले रही है । इससे तो हम विकासशील अच्छे जो रेंग तो रहे हैं ।

और फिर सोच 'शील' को त्यागना कहाँ तक उचित है? भले ही कुछ भी हो जाए मगर महान लोग और महान देश कभी 'शील' को नहीं छोड़ते । यह बात और है कि 'प्रगतिशील' होकर घोटालों के गड्ढे में गिर पड़ें या पंचशील के चक्कर में चीन से पिट जाएँ या पाकिस्तान घुसपैठ करे या चीन अरुणाचल पर दावा ठोंकने लगे या पृथ्वीराज की तरह बंदी बनाकर काबुल-कंधार ले जाए जाएँ और आँखें ही फोड़ दी जाएँ ।

हमने कहा- लेकिन अपने कलाम साहब तो कह रहे थे कि २०२० तक विकसित हो जाएँगे । अब २०२० में देर ही कितनी है? बस अगले पे-कमीशन के आने तक की बात ही तो है ।

तोताराम ने कहा- कलाम साहब आशावादी व्यक्ति हैं और चाहते हैं कि लोग निराश न हों इसलिए हिम्मत बँधा रहे हैं वैसे अभी तक तो उस विकास की कोई झलक भी दिखाई नहीं दे रही है । यदि घोटालों का साइज़ देखें तो कह सकते हैं कि देश विकसित हो रहा है । पहले जितना जी.डी.पी. हुआ करता था उतने का तो छोटा-मोटा मंत्री या मुख्यमंत्री घोटाला कर जाता है । और हर दिन घोटाले का साइज़ बढ़ता ही जा रहा है । इसे चाहे तो विकास मान ले ।

मुझे तो यह देश विकासशील नहीं बल्कि एक 'पिछड़न शील' देश है । पिछड़ता ही जा रहा है । स्वतंत्रता के समय थोड़े से लोग पिछड़े या अविकसित थे जिन्हें आरक्षण देकर ऊपर उठाने की योजना थी । अम्बेडकर भी सोचते थे कि दस साल में यह काम हो जाएगा । मगर साठ साल में भी गाड़ी आगे बढ़ने की बजाय पीछे ही खिसकती जा रही है । जिनको आरक्षण दिया गया वे तो आगे बढ़े ही नहीं बल्कि और नए-नए लोग पिछड़े बनते जा रहे हैं । अटल जी ने चुनाव के समय 'अन्य पिछड़े' खोज लिए । अब दलितों के अलावा 'महा-दलितों' का भी पता चला है । दूध, खेती और पशुपालन का अच्छा-भला धंधा करने वाले गूजर भी इतने पिछड़ गए कि रेल की पटरियों पर रहना-खाना करने की नौबात आ गई ।

यहाँ के भारतीयों को मानवता की सेवा करने वाले पादरियों और अंग्रेज बहादुर ने विकसित बनाने के लिए ईसाई बनाया । जब मुसलमान यहाँ आए तो वे शासक जाति के थे और इसी आधार पर विकसित भी हो गए । मगर अब पिछड़ गए । जैनियों के आदिदेव राजा थे और जैन लोग अच्छे व्यापारी और समृद्ध थे । बौद्ध-धर्म के प्रवर्तक भी राजा थे । बौद्ध भी पिछड़े नहीं माने गए थे । सरदार लोग तो खैर मेहनती हैं और अपनी मेहनत के झंडे भारत ही नहीं, विदेशों में भी गाड़े । कोई भी सरदार भिखारी नहीं मिलता था मगर लोकतंत्र और जन-कल्याण के इन मसीहाओं के प्रयत्नों से वे भी अब पिछड़ गए । और अब इन्हें अल्पसंख्यकों के नाम से विशेष पैकेज देना पड़ रहा है । अब जब यह हाल है तो फिर विकसित देश बनने की बात तो भूल जा । यदि विकासशील का दर्ज़ा ही बना रहे तो बड़ी बात है । जिस तरह से गरीब, बेकार, कुपोषित बढ़ रहे हैं, गरीब-अमीर का अन्तर बढ़ रहा है उस हिसाब से तो मामला घाटे में अर्थात माइनस में चला जाएगा ।

हमने कहा- तोताराम, तू समझदार है, ज्ञानी है, दुनिया भर की ऊँच-नीच जानता है, तेरे पास सारे आँकड़े हैं । कुछ तो सोच कि यह देश पिछडने की बजाय धीरे-धीरे ही सही आगे बढ़े ।

हमारी इस प्रशंसा से लगा कि तोताराम का आकार कुछ बढ़ने लगा है । अगर थोड़ी और प्रशंसा की तो शायद फूलकर कुप्पा हो जाए । कहने लगा- मास्टर, इस संसार में सब कुछ है । यदि कारण है तो कार्य भी है । बीमारी है तो इलाज़ भी है, चोंच है तो चुग्गा भी है । बस, देखने वाली दृष्टि, समझने वाली बुद्धि और निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए ।

अब हमारी भी उत्सुकता बढ़ गई, आग्रह किया कि बता तो सही उपाय । जब उपाय का पता चलेगा तो उस पर आचरण करने वाले भी पैदा हो जाएँगे ।

बोला- यदि कट्टर पंथी मानें तो जितने भी पिछड़े, दलित, महादलित, अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति-जन जाति, मुसलमान, सिक्ख, पारसी, बौद्ध, ईसाई हैं सब को पकड़ कर उनकी खोपड़ी घुटा दो, जनेऊ पहना दो, ब्राह्मण बना दो फिर देखो कि कैसे 'पिछड़-प्रूफ' बन जाते हैं । भले ही भूखे मरें, अपने राज्य से डरा कर भगा दिए जाएँ, बेकार हों, कुपोषित हों, अशिक्षित हों, प्रताड़ित हों, भीख माँगते हों, जीमने के न्यौते की बाट देखते हों, बी.पी.एल. का कार्ड न बने- कुछ भी हो जाए मगर पिछड़ नहीं सकते और न ही अल्पसंख्यक बन सकते ।

हमने कहा- तोताराम, बात तो तुम्हारी ठीक है मगर फिलहाल वोट बैंक के हिसाब से फिट नहीं बैठ रही है ।

६-२-२०१२
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तोताराम के तर्क - साहब बहादुर नाराज़ हैं

हम अखबार पढ़ने में व्यस्त थे कि तोताराम ने आकर झिंझोड़ा- किस दुनिया में खोया है, तुझे पता नहीं साहब बहादुर नाराज़ हैं ।

हमने कहा- कौन साहब बहादुर? अब कोई भी अपना साहब नहीं है भगवान के अलावा । अब हम किसी के नौकर नहीं हैं जो किसी साहब की नाराज़गी की चिंता करें । जो असली साहब है वह सब कुछ जानता है । वह न तो किसी जाति को ध्यान में रखकर फैसला देता है और न किसी पार्टी का पक्ष लेता है । उसका कोई फैसला गलत नहीं होता । उसके घर देर हो सकती है मगर अंधेर नहीं है । वह अंतर्यामी है । सब कुछ जानता है । और जहाँ तक अपनी बात है तो हम जानते हैं कि हम कोई गुनाह नहीं कर रहे हैं । हमारी बेलेंसशीट में कोई सस्पेंस अकाउंट नहीं है ।

तोताराम ने हमें रोका- अपनी ही कहता जाएगा या मेरी भी सुनेगा । मैं तुम्हारे किसी साहब की बात नहीं कर रहा हूँ । मैं तो अपने गौरांग महाप्रभु अंग्रेज साहब बहादुर की बात कर रहा हूँ जिन्होंने हमें सभ्य और शिक्षित बनाया ।

हमने कहा- अरे, उन्हें तो विदा हुए साठ से भी ज्यादा वर्ष हो चुके हैं । अब हम खुद अपने साहब बहादुर हैं । अब हम एक सर्व-प्रभुता संपन्न राष्ट्र हैं ।

तोताराम ने हमारी बात काटने के लिए तर्कों की झड़ी लगा दी- कैसा प्रभुता-संपन्न राष्ट्र? क्या है तुम्हारी राष्ट्रभाषा? एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल जी के भाषण के अलावा कहाँ, कब, किस देश में बोली तुम्हारे किसी नेता ने तुम्हारे देश की कोई भाषा? तुम्हारे देश में पैसा रखने लायक कोई भरोसे का बैंक तक नहीं है । लोगों को मज़बूरी में अपना पैसा स्विस बैंक में रखना पड़ता है । आजादी के बाद तुम्हें कोई ढंग का भारतीय मिला गवर्नर बनाने के लिए? यह तो बेचारे माउंटबेटन ने काम चला दिया नहीं तो पता नहीं, कितने दिन तुम्हें बिना गवर्नर के रहना पड़ता । अब भी तुम ब्रिटिश गुलामी के प्रतीक 'कामन वेल्थ' से मुक्त नहीं हो सके । जब भी सम्मलेन होता है तो बीच में प्रिंसिपल की तरह बैठी होती है महारानी और अगल-बगल मास्टर की तरह खड़े होते हैं प्रधान मंत्री जी ।

हमने कहा- तोताराम, ये सब नीतिगत बातें हैं इनके बारे में हम क्या कह सकते हैं । वैसे हमें तो तुम्हारे साहब बहादुर के नाराज होने का कोई कारण नज़र नहीं आता । अब भी ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी सबसे अधिक बिकती है । होने को तो भारतीयों द्वारा संपादित की हुई डिक्शनरियाँ भी हैं लेकिन हमने उन्हें कभी डिक्शनरी माना ही नहीं । भले ही १८५७ की क्रांति को ग़दर कहे, भगत सिंह को आतंकवादी बताए, भारतीय भाषाओँ को वर्नाक्यूलर ( असभ्य लोगों की बोली ) बताए, वेदों को चरवाहों के गीत बताए मगर इन्साक्लोपीडिया तो ब्रिटानिका का ही खरीदते हैं ना? अब भी यहाँ शेक्सपियर कालिदास से बड़े नाटककार माने जाते हैं । भले ही अमरीका ने अपनी इंग्लिश बना ली हो मगर हम अब भी क्वींस इंग्लिश के दीवाने हैं । अब भी ऑक्सफोर्ड के पढ़े लोग ही हमारे भाग्य विधाता हैं ।

अंग्रेजों ने दुनिया के बहुत से देशों में राज किया और वहाँ के लोगों की भाषा को धक्का मारकर अंग्रेजी स्थापित किया जिससे उनका उद्धार हो सके । दुनिया के किसी भी देश ने इण्डिया की तरह अंग्रेजी को सम्मान नहीं दिया । क्या दुनिया के किसी देश में अंग्रेजी-माता का मंदिर है? । जब कि दलितों के उद्धारकर्त्ता, दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के चन्द्रभान जी ने अंग्रेजी का मंदिर बनवाया है ।

अब भी हमारे देश का उन्हीं साहब बहादुर का दिया नाम 'इण्डिया' चल रहा है । ब्रिटेन से ज्यादा चर्च इस देश में हैं । भले ही वैष्णो देवी या तिरुपति के मंदिर का आडिट होता हो मगर हमने कभी किसी पादरी या फादर से यह नहीं पूछा कि प्रभु, आपके पास वेटिकन से कितना पैसा आता है और आप उसे कैसे खर्च करते हैं? क्या गोरे देशों में कोई दुखी या बीमार और अशिक्षित नहीं है जो आप इस देश के सुदूर इलाकों में आदिवासियों की सेवा करने आते-जाते हैं? कभी नहीं पूछा कि थोड़े दिन बाद ही वे लोग भले ही विकसित हों या न हों मगर ईसाई क्यों बन जाते हैं । कभी जाँच नहीं कि इस देश में लाखों चर्च हैं जिनमें से कितनों के पास ज़मीन का पट्टा है । किस गोरे देश में हिंदुओं को विशेष आर्थिक पैकेज दिया गया है बल्कि उनका तो तरह-तरह से अपमान होता है । नार्वे में कहते हैं तुम्हें अपने बच्चों को खाना खिलाना तक नहीं आता । हम बच्चों को अपने पास रखकर खाना खाना सिखाएँगे । और हम उन्हें विशेष आर्थिक पैकेज देते हैं । साहब बहादुर जैसा गोरा बनने के लिए हजारों करोड़ की क्रीम हम खरीदते हैं । हमने अब तक अपना 'लीवर' तक विकसित नहीं किया । उन्हीं के 'लीवर' से काम चला रहे हैं । पहले वह 'लीवर' 'लिमिटेड' था अब अनलिमिटेड हो गया है ।

हमें तो साहब बहादुर के नाराज़ होने का कोई कारण नज़र नहीं आता । फिर भी यदि तुझे कोई और गुप्त कारण मालूम हो तो बता? मनमोहन जी से अपना चिट्ठी-पत्री का रिश्ता है और वे भी अध्यापक रहे हैं सो डिपार्टमेंट के आदमी भी हैं । कोई हो सकने वाली बात होगी तो मना नहीं करेंगे । कुछ भी हो अंग्रेज अपने पुराने राजा रहे हैं, सलाम के लिए क्यों मियाँ जी को नाराज़ किया जाए ।

तोताराम ने कहा- बात जितनी छोटी तू समझ रहा है उतनी छोटी है नहीं । हुआ यह कि जब ओबामा जी आए थे तब उन्हीं के आसपास फ्रांस, चीन, रूस के बड़े नेताओं के साथ-साथ ब्रिटेन के प्रधान मंत्री जी भी आए थे तो क्या वे मनमोहन जी की दावत खाने के लिए आए थे क्या? वे सब अपना हथियारों का धंधा करने के लिए आए थे । अब ब्रिटेन, फ़्रांस के पास उपनिवेश तो रहे नहीं । अब ले देकर हथियारों का धंधा ही तो बचा है जिसके बल पर अपनी अर्थव्यवस्था को टिकाए हुए हैं ।

भारत से विमानों के एक बड़े सौदे पर सब की आँख थी । अब १ फरवरी २०१२ को उसे फ़्रांस ले भागा तो दुःख तो होगा ही । भले ही फ़्रांस और ब्रिटेन गोरे लोगों के देश हैं और द्वितीय विश्व के मित्र राष्ट्र हैं मगर भाई, धंधा तो धंधा है । ५०४ अरब रुपए का सौदा कोई छोटी-मोटी बात है क्या? इसीलिए अब ब्रिटेन में यह बात उठ रही है कि भारत की अर्थव्यवस्था कमजोर नहीं है तो अब उसे दी जा रही ब्रिटिश सहायता बंद कर दी जानी चाहिए हालाँकि यह सहायता उतनी सी ही है जितना कि किसी दूकानदार द्वारा ग्राहक को चाय पिलाना । पर इससे नाराज़गी का तो पता चलता ही है ।

तोताराम ने कहा-और अमरीका भी इससे खुश नहीं है ।


हमने कहा- अब उसे क्या हो गया? अभी तो अरबों का परमाणु समझौता किया है । उसे तो भारत में कोल्ड ड्रिंक, पिज्जा और केंटकी चिकन बेच कर ही खुश हो जाना चाहिए । सब कुछ हमारा, खाने पीने वाले भी हमारे उसका तो बस ट्रेडमार्क है और हर साल अरबों की कमाई । अब भारत के बाज़ारों में अमरीका के खिलौने, चिप्स, चोकलेट, किताबें सब आ गए हैं । हमारे लोगों के लिए बचा ही क्या है?


तोताराम ने कहा- भई, तुम मानो या न मानो मगर उसने शक्ति संतुलन के नाम पर पाकिस्तान को एफ-१६ विमान देकर संकेत तो दे ही दिया है ।

हमने कहा- तोताराम, वैसे तो ये देश विश्वशांति की बात करते हैं मगर करते हथियारों का धंधा हैं? ये ही तो देशों को लड़वाते हैं और फिर ये ही उन्हें हथियार बेचते हैं । हथियार कोई खाने के काम तो आते नहीं, मारने के काम ही आते हैं । और फिर ये हथियार भी कोई नए थोड़े ही बेचते हैं । पुराने हथियार फेंकने की बजाय हम जैसे देशों को बेच देते हैं । वरना यदि ये देश चाहें तो कम से कम भारत और पाकिस्तान का झगड़ा तो खत्म करवा ही सकते हैं । इन्हीं के तो बोए हुए हैं ये बीज ।

तोताराम बोला- वाह, अपने ही हाथों कोई अपनी मौत बुलाएगा क्या? यदि हथियार, कोल्ड-ड्रिंक, फास्ट फूड, दारू, सिनेमा, सौंदर्य का धंधा बंद हो गया तो ये तो भूखे मर जाएँगे । लड़ाई-झगड़े के बिना वकील और बीमारियों के बिना डाक्टरों का काम कैसे चलेगा?

हमने कहा- एक से खरीदो तो दूसरा नाराज़, दूसरे से खरीदो तो तीसरा नाराज़, तीसरे से खरीदो तो पहला नाराज़ । अब बता यह कैसे हो सकता है कि भारत इन सभी देशों से हथियार खरीदता रहे । अब जो खरीद रहा है वह भी जाने कितने ज़रूरी कामों की कटौती करके खरीद रहा है । लोगों को खाने को पूरी सी रोटी नहीं हैं और ५०४ अरब रुपए के विमान ख़रीदे जा रहे हैं । और यहीं कोई बस थोड़े है । यह तो अनंत सिलसिला है । इस दुष्चक्र से बचने का क्या उपाय है, तोताराम?

तोताराम ने कहा- उपाय है तो सही, पर पता नहीं मनमोहन जी मानेंगे या नहीं और ये देश भी उतने से सन्तुष्ट होंगे या नहीं?

हमने कहा- फिर भी बता तो सही ।

बोला- देश का रक्षा बजट का पैसा इन देशों को दे दो और भारत की रक्षा की जिम्मेदारी इन्हें सौंप दो । न कोई घोटाला होगा और न बोफोर्स की तरह कोई कमीशन का झंझट ।

हमने कहा- बात तब भी नहीं बनेगी क्योंकि तब ये उस पैसे के लिए आपस में लड़ने लग जाएँगे । पैसे भी जाएँगे और हमारी समस्या ज्यों की त्यों ।

'तो क्या, सी.बी.आई. को जाँच सौंप देंगे या कोई आयोग बैठा देंगे । चलता रहेगा मामला । कम से कम सरकार को तो कोई दोष नहीं देगा' - तोताराम का उत्तर था ।

२-२-२०१२
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तोताराम का ट्वीट

आज तोताराम के आने के समय तोताराम तो नहीं आया मगर उसके स्थान पर उसका पोता बंटी हमारे नाम तोताराम का एक रुक्का लेकर आया जिस पर लिखा था- 'तोताराम का ट्वीट' | अभी तक तो हमने अमिताभ बच्चन, पूनम पांडे, मंदिरा बेदी, बिपाशा बासु, कबीर बेदी, राखी सावंत, दिग्विजय सिंह और अब रुश्दी के ही ट्वीट पढ़े थे कम्प्यूटर पर, मगर कागज की चिप्पी पर ट्वीट एक नई बात थी | वैसे ट्वीट एक सस्ता और उल्लू बनाने वाला साधन निकल आया है | पढ़ने वाला यह समझता है कि ट्वीट लिखने वाली हस्ती केवल उसी से मुखातिब है और उसे अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों में शामिल कर रही है | जब कि वह हस्ती अपने फुर्सत के समय दो लाइनें यूँ ही लिखकर डाल देती है जैसे कि 'आज दिल्ली पहुँची हूँ | यहाँ मुम्बई से अधिक ठण्ड है | आज पिताजी का जन्म दिन है | बच्ची बहुत प्यारी है | आप सब को दिवाली की बधाई | आज कुछ करने का मन नहीं है | आज देर तक सोऊँगी | मुझे खाने में केवल खिचड़ी बनानी आती है | फलाँ हीरोइन मेरे सामने कुछ नहीं है | वह मुझसे जलती है | मैं नंबर की दौड़ में नहीं हूँ | अभी शादी का कोई इरादा नहीं है' |

अब इन बातों का क्या तो महत्त्व है और क्या ही पाठकों को इनकी ज़रूरत? अरे भई, तू खिचड़ी बना या पराँठा, ट्वीट पढ़ने वाले को तो कुछ मिलना नहीं | शादी करो न करो, पाठकों का इससे क्या संबंध है और न ही पाठक तुमसे शादी करने के उम्मीदवार | और यदि कोई पाठक ऐसा मान लेता ही तो उससे बड़ा गधा और कोई नहीं | पर साहब निठल्लों की कमी नहीं है इस दुनिया में | इन हस्तियों की सूक्तियों को पढ़ने के लिए रोज़ हजारों की संख्या में चले ही आते हैं |

हमने तोताराम के पोते बंटी से कहा- बेटा, यह कोई ट्वीट नहीं है | दादाजी से कहना कि यदि ट्वीट करने का शौक है तो कम्प्यूटर ख़रीदे | इस तरह किसी व्यक्ति के हाथ भेजे गए सन्देश को आजकल कूरियर कहते हैं | यह तो लोकल और घर का है सो कोई पैसा नहीं लगा वरना बिना बात पाँच रुपए लग जाते |

हमने उस पुर्जे को पढ़ा | बिलकुल वही सब कुछ था जो रुश्दी के ट्वीट में था, बस नाम का फर्क था- रुश्दी की जगह तोताराम और राजस्थान सरकार की जगह रमेश जोशी | लिखे का सार यह था कि मैं जयपुर साहित्य उत्सव में इसलिए भाग नहीं ले सका कि मास्टर रमेश जोशी ने मुझे डरा दिया था कि यदि तू वहाँ जाएगा और रुश्दी वाले कमरे में ठहरेगा तो हो सकता है कि रुश्दी के भ्रम में कोई तेरी हत्या न कर दे |

तभी तोताराम प्रकट हुआ, बोला- मैं भी इसके साथ हूँ | भले ही मेरे पास कम्प्यूटर नहीं है और मैनें इसे लिखित रूप में किसी सन्देश वाहक के हाथ भेजा है मगर फिर भी तू इसे वैसे ही ट्वीट मान जैसे कि भारत के साहित्य प्रेमियों, राजस्थान प्रशासन के नाम रुश्दी का ट्वीट | उसे भी गुमराह किया गया और तुमने भी मुझे गुमराह किया कि जयपुर जाने पर मेरी सुरक्षा को खतरा है | यदि रुश्दी को राजस्थान प्रशासन और मुझे तू नहीं डराता तो कोई एक तो जयपुर पहुँचता | अब न तो मैं पहुँच सका और न ही रुश्दी | अब आयोजकों का कमरे का किराया बेकार ही लगा ना? और रुश्दी के लिए बनवाया गया खाना भी बेकार गया होगा | और अगर उन्हें भेंट देने के लिए रजवाड़ी दारू की बोतल खरीद ली गई होगी तो उसका भी पता नहीं क्या हुआ होगा?

और मान ले पैसा आयोजकों के घर का नहीं था, अनुदान का रहा होगा या फिर दारू के विज्ञापनों से आया होगा, खाना भी किसी ने खा ही लिया होगा मगर रुश्दी जी के न आने से, उनके मार्ग-दर्शन के अभाव में भारतीय साहित्य का जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई कैसे होगी? आज तक राजस्थान के साहित्यकार या तो राजाओं की प्रशंसा, युद्धों का वर्णन लिखते रहे या फिर नीति और वीर रस के दोहे-सोरठे लिखते रहे या फिर मीराबाई 'मेरे तो गिरधर गोपाल' गाती रही | कहीं कोई 'शैतानी आयतों' जैसी रस-वर्षा नहीं | भारतीय साहित्य में भी वही आत्मा-परमात्मा, पुराण, उपनिषद, और चरवाहों के वैदिक गाने | ठीक है, कहीं कहीं वस्त्र-हरण और चीर-हरण जैसे प्रसंग हैं मगर उनको भी अध्यात्म से जोड़ कर मज़ा किरकिरा कर दिया | कहीं रुश्दी के साहित्य और जीवन जैसा बिंदासत्त्व, रस-टपकाऊ मदहोश बनाऊ लम्पटत्त्व नहीं |

अब तक हम तोताराम के एकालाप से दुखी हो चके थे सो हमने उसे रोककर अपनी बात शुरु की- देखो तोताराम, साहसी और सच्चे लोग न तो सरकारों से सुरक्षा माँगते हैं और न ही किसी धमकी से घबराते हैं | कबीर ने न तो किसी 'उत्सव' के निमंत्रण का इंतज़ार किया और न धमकियों की परवाह की | लुकाठी लेकर बाज़ार में खड़े होकर गरजते रहे, पंजाबी के कवि पाश को क्या पता नहीं था कि उसकी जान को खतरा है? इंदिरा गाँधी को भी कुछ लोगों ने सलाह दी थी कि वे अपनी सुरक्षा से सिक्ख कर्मचारियों को हटा दें मगर उन्होंने इसे एक बचकानी बात माना | गाँधी जी की सभा में बम फेंका गया फिर भी न तो उन्होंने कोई सुरक्षा प्रबंध किए और न ही अपने कार्यक्रम में कोई परिवर्तन किया | मीरा को तो राणा ने साफ़ धमकी दे ही रखी थी पर क्या मीरा ने साधु संगत छोड़ दी या गिरधर गोपाल से नाता तोड़ लिया? रुश्दी का यह नाटक चर्चा में रहने के लिए है जैसे कि राखी सावंत, विपाशा बसु, पूनम पांडे बोलें तो खबर और न बोलें तो खबर | दीपिका रणवीर के साथ घूमे तो लोगों को चैन नहीं और यदि रणवीर उसके पैर छू ले तो भी हाय-तौबा | और लोग भी कुछ तो कहेंगे ही चाहे रुश्दी आए या नहीं आए |

और भैया, यदि यहाँ के साहित्य प्रेमियों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और रुश्दी से मिलने वाले साहित्यिक और शालीनता के मार्ग-दर्शन के अभाव का इतना ही दुःख है और रुश्दी भारतीय साहित्य का कोई मार्ग-दर्शन करना ही चाहते हैं तो कोई गुरु-मन्त्र अब लिख कर भिजवा दें | किसने मना किया है?

तोताराम ने अपना ट्वीट-पत्र हमारे हाथ से छीन लिया और बोला- बहुत हो गई बकवास, अब चाय तो बनवा ले |

२३-१-२०१२
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Feb 6, 2012

मोटापा : एक बाज़ार निर्मित समस्या


मोटापा : एक बाज़ार निर्मित समस्या

अमरीका के ओहायो राज्य में एक बच्चे को उसके माता-पिता से अलग करके उसे 'चाइल्ड प्रोटेक्टिव सर्विस' की देखरख में दे दिया गया है । यह ओहायो राज्य का पहला मामला है । कहा गया है कि माता-पिता की खान-पान में लापरवाही से इस आठ वर्षीय बच्चे का वजन २०० पाउंड हो गया ।

हमारे नानाजी के एक मित्र थे । वे एक भूतपूर्व सैनिक थे । प्रथम विश्व युद्ध में भाग ले चुके थे । हमारे नानाजी वैद्य थे । उन्होंने नानाजी से अपनी तकलीफ बताई कि उन्हें अब एक पाव ( २५० ग्राम ) घी भी नहीं पचता । कोई अस्सी बरस की उम्र में भी उन्हें इतना घी नहीं पचाने की शिकायत थी तो पता नहीं, जवानी में कितना घी खाते होंगे । हमारे नानाजी तब दिन में दो रोटियाँ खाते थे- एक सुबह और एक शाम को क्योंकि वे बहुत अधिक शारीरिक श्रम नहीं करते थे । अपने मित्र को उन्होंने यह कहकर समझाया कि आजकल शुद्ध घी कम ही मिलता है सो कम खाना ही ठीक रहेगा ।

हमारी बहू डाक्टर है । वह जब-तब हमें घी और नमक कम खाने की सलाह देती रहती है । हम उसकी चिंता समझते हैं । हमारे पिता जी जीवन भर नमक और घी खूब खाते रहे । वे पचहत्तर वर्ष की उम्र में भी लकड़ियाँ फाड़ने का शौक रखते थे । हमें भी जब तक दाल में दो चम्मच घी नहीं डाले जाएँ मज़ा ही नहीं आता । बाजरे की रोटी हो तो भले ही एक रोटी पर चार चम्मच घी लगा दिया जाए, हम अब भी खा और पचा लेते हैं । अब भी हम अपने सभी काम स्वयं करते हैं । दो-तीन किलोमीटर जाना हो तो हमें किसी वाहन की आवश्यकता नहीं महसूस नहीं होती । दस-बारह किलो वज़न उठाकर चलने में कोई थकावट नहीं होती । आगे की राम जाने मगर अभी तक तो कोई परेशानी नहीं है ।

भोजन में घी भी ज़रूरी है मगर कितना, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कितना शारीरिक श्रम करते हैं । पहले बहुत कम लोगों को घी खाने को मिलता था । इसलिए जब भी मौका मिलता था लोग जमकर खाते थे और उन्हें कुछ भी नहीं होता था । जाड़े में सभी लोगों की, यदि संभव हो तो, यह कोशिश रहती थी कि दो-चार किलो घी के लड्डू बनवा कर खाए जाएँ । मगर आजकल के आदमी की व्यस्तता इतनी बढ़ गई गई कि दिन और रात, सर्दी और गरमी को अनुभव करने का समय ही नहीं है और मौसम के अनुसार भोजन के बारे में सोचना और खाना भी उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा । संपूर्ण रूप से देहवादी होने पर भी आज के आदमी के पास ब्यूटी पार्लर में जाने, दस तरह की क्रीमें और तेलों के बारे में सोचने के लिए समय और पैसा है मगर भोजन के मौसम, स्वाद और पौष्टिकता के बारे में सोचने का पता नहीं ज्ञान नहीं है या समय नहीं है । मगर यह सच है कि व्यक्ति का भोजन स्वाद और पौष्टिकता की दृष्टि से घटिया होता जा रहा है । हर मौसम के स्थानीय फल और सब्जी हमारे भोजन में होने चाहिएँ । वे हमारी सभी आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं ।

आजकल लोगों को पता ही नहीं है कि किस मौसम का क्या फल और सब्जी होते हैं । जो थोड़े से भी साधनसंपन्न है वे या तो बेमौसम की चीजें खाते हैं या फिर बाज़ार के फास्ट फूड खाते हैं । बाज़ार में मिलने वाले ऐसे ही पदार्थ, बेमौसम के महँगे खाद्य पदार्थ उनके लिए अपने स्टेटस को दिखाने के साधन बन गए हैं । खाने का समय भी तय नहीं है । बहुत कम लोग ऐसे हैं जो हमेशा घर का बना खाना शांति से बैठकर खाते हैं । टी.वी. देखने, बिना बात एस.एम.एस. करने या कम्प्यूटर पर बैठने का समय है पर पता नहीं, ऐसी क्या मज़बूरी है कि केवल शांति से बैठकर चबा-चबा कर खाने का समय नहीं है । भोजन के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अन्य स्वास्थ्य समस्याओं ही नहीं बल्कि मोटापे का भी कारण बन रहा है । यदि पैसा अधिक है तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप खूब खाएँ बल्कि खाना अपनी उम्र और शारीरिक मेहनत करने के अनुपात में खाना चाहिए । जिनको कम खाना चाहिए वे अधिक खाने से होने वाली समस्याओं से पीड़ित हैं और जिन्हें अधिक प्रोटीन और वसा चाहिए वे बेचारे पूरा भोजन न खाने मिल पाने के कारण कुपोषित हो रहे हैं । यही करण है कि मोटापा कम करवाने का व्यवसाय आजकल एक अरबों डालर का धंधा बन गया है ।

यह तो अभी पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाए भारत जैसे समाजों के माध्यम वर्ग की समस्या है । तथाकथित विकसित देशों की इस समस्या के आयाम कुछ और हैं । जिन्होंने दर्द दिया है वे ही उस दर्द की दवाएँ बेच रहे हैं जैसे कि एक पुरानी फिल्म का गाना है- 'तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना' । इस समस्या की जड़ है बाजार के वे बहुराष्ट्रीय विक्रेता जिन्होंने परिवारों की परंपरागत भोजन व्यवस्था को लगभग समाप्त कर दिया है । ये बड़ी कम्पनियाँ खाद्य पदार्थों को किसानों से सीधे खरीद लेती हैं और उन्हें वेल्यू एडीशन के फंडे ( फंदे ) के तहत परिष्कृत या संवर्धित करके बेचती हैं । इसका अर्थ यह है कि वे आपको गेहूँ नहीं बल्कि ब्रेड या बन या बिस्किट या बनी बनाई रोटियाँ बेचती हैं । आप चाहकर भी बाज़ार में गेहूँ नहीं पा सकते क्योंकि किसानों से पूर्व में ही किए गए समझौते के तहत ये सारा गेहूँ खरीद लेते हैं । यही हाल अन्य सभी खाद्य पदार्थों का है । अब ये कम्पनियाँ जो कुछ बनाकर बेचेंगी वही आपको खाना पड़ेगा ।

आप न तो अपने घर पर कोई चीज बना सकते और न ही उसकी शुद्धता के बारे में जान सकते । रेपर पर यह तो लिखा होगा कि इसमें इतना फैट है मगर यह पता नहीं लगाया जा सकता कि यह गाय का घी है या किसी मरे हुए सूअर की चर्बी । दूध भी डिब्बों में बंद मिलेगा और इस प्रकार तैयार किया हुआ कि पन्द्रह दिन तक खराब नहीं हो । स्वाभाविक रूप से तो दूध इतना टिकाऊ नहीं होता । उसमें कुछ न कुछ ऐसे केमिकल मिलाए जाएँगे जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं । इसी तरह जो मांस बिकता है वह पता ही नहीं लगता कि क्या है और किस तरह तैयार किया गया है । लोग डिब्बों में बंद सामान लाते हैं और भगवान के भरोसे खा लेते हैं । तभी इतनी बीमारियाँ फ़ैल रही हैं । जिन जानवरों को पालकर यह मांस तैयार किया जाता है उन्हें हिलने डुलने तक नहीं दिया जाता है और जल्दी से जल्दी मोटा करने के लिए जाने क्या-क्या खिलाया जाता है । इंग्लैण्ड में 'मैड काऊ' बीमारी बाज़ार की इन्हीं बदमाशियों का नतीजा था । यह तो बड़े स्तर पर कुछ पकड़ में आ गया तो सब को पता चल गया । वरना अब भी इन बाज़ारों में क्या-क्या और कैसा बेचा जा रहा है, किसी को पता नहीं । इन बड़ी कंपनियों में बड़े-बड़े लोगों और राष्ट्र के कर्णधारों तक के शेयर हैं इसलिए सब की मिली भगत है । इसलिए न तो पता चलने दिया जाता है और न ही पता चलने पर कोई निर्णायक कार्यवाही हो पाती है ।

जानवरों को जल्दी से मोटा करने के लि जो पदार्थ खिलाए जाते हैं, उनका मांस खाने से बच्चों को भी जल्दी से मोटापा आता है जो कि स्वाभाविक नहीं है । साथ ही बच्चों में जो जैविक परिवर्तन होते हैं वे बच्चों के विकास को असामान्य रूप से असंतुलित कर देते हैं । उनका अस्वाभाविक रूप से शारीरिक विकास तो हो जाता है मगर उस अनुपात में मानसिक विकास नहीं हो पता । मनुष्य के बच्चे का जिस तरह स्वाभाविक विकास होता है उस तरह से इन बच्चों का नहीं होता ।

गत महिनों में भारत में भी महँगाई कम करने के बहाने से जिन बड़ी कंपनियों को लाने की तैयारी चल रही थी और जिसे चुनावों के डर से एक बार ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है वे महँगाई तो क्या कम करेंगी बल्कि बिचौलियों से बचने वाले पचास प्रतिशत में से कुछ समय के लिए ग्राहकों को पाँच दस प्रतिशत सस्ता दे देंगी मगर उसके बाद फिर वही अपनी मनमानी करेंगी और इनसे व्यक्तिगत रूप से आभारी बनी हुई सरकारें कुछ नहीं कर सकेंगी । तब भारत में जो कुछ थोड़ा सा घर, चूल्हा, स्वयं ख़रीदे खाद्य पदार्थों से बना, शुद्ध भोजन का रिवाज़ बचा है वह भी विदेशों की तरह से डिब्बा बंद हो जाएगा और तब यहाँ भी पता नहीं चलेगा कि आप क्या खा रहे हैं । इन कंपनियों का आना केवल छोटे व्यापारियों का खात्मा ही नहीं है बल्कि हमारी परिवार-व्यवस्था और भोजन की संस्कृति पर भी बहुत बड़ा आघात होगा । तब भोजन से न तो माता का संबंध होगा और न चूल्हे का । भोजन के समय सबके जुटने और साथ भोजन करने की अवधारणा भी समाप्त हो जाएगी ।

यह वही बाज़ार होगा जो पहले गृहणियों को बताता था कि क्या आपका जीवन चूल्हे-चाकी में पिसने के लिए बना है । आपको स्वतंत्रता चाहिए । इसलिए हम ( बाजार ) आपको गृहस्थी के कामों से निजात दिलाने वाले उत्पाद बेचेंगे । फिर वे ही कहने लगे कि अब हम आपको खाली समय में मन बहलाने के साधन बेचेंगे । जब लोग मोटे होने लगे तो अब वे कहते हैं कि हम आपको क्रीम निकला दूध बेचेंगे और वह क्रीम अलग से बेचकर पैसे कमाएँगे सो अलग । फिर उन्होंने ही आपको फिट रखने वाली मशीनें बेचनी शुरु कर दीं । मतलब कि हम जैसे कहें करते चलिए । आपको न तो सोचना है और न ही हम आपको सोचने लायक छोड़ेंगे ।

यदि लोग अपने घरों में ही भोजन की कूटने, पीसने आदि की तैयारियाँ करें तो भोजन की स्वास्थ्य-वर्धकता, स्वच्छता बढ़ जाएगी बल्कि उसके लिए चाव और आनंद भी बढ़ जाएगा । ताजा भोजन की बात ही कुछ और होती है उसे डिब्बा बंद भोजन करने वाले तो भूल ही चुके होंगे । ऐसे भोजन से मोटापा नहीं बढ़ेगा और वह सस्ता भी पड़ेगा । मगर तब बाजार का क्या होगा ? आदमी का क्या है ? वह तो बाजार के लिए मुर्गी, सूअर और गिनी पिग से अधिक नहीं है । अमरीका में बहुत से लोग जो फूड स्टाम्प से काम चला रहे हैं उन्हें ज्यादा मुश्किल इसलिए आ रही है कि वे न तो भोजन बनाना जानते हैं और न ही उन्हें भोजन का कच्चा माल इन बड़ी किराना कंपनियों के कारण बाजार में मिल पाता है ।

यदि नहीं समझे तो आप भी अमरीका जैसी स्थिति के लिए तैयार रहिए ।

वैसे जो सरकार एक बच्च्चे के वजन बढ़ने के कारण इतनी संवेदनशीलता दिखाने का नाटक कर रही है वह अपनी पारिवारिक और बाजार व्यवस्था को क्यों नहीं सुधारती ? क्यों आदमी को पेट भरने मात्र के लिए इतना दौड़ाया जा रहा है ? क्यों भोजन को एक पारिवारिक उत्सव जैसा रूप नहीं देती जिसमें सब्जियों को काटने-छीलने, साफ करने, आटा गूँदने, रोटी बेलने, सेकने, परोसने और साथ खाने के बाद बर्तन साफ करने जैसे सभी काम खुद करें तो सभी सदस्य कितना कुछ सीखेंगे और रिश्तों में और भोजन में कितना रस घुलेगा जिसमें परिवार के सभी सदस्य के पारिवारिक संबंध भी मज़बूत होंगे और लोगों का स्वास्थ्य भी सुधरेगा ।
। जब होटलों तक में भोजन का समय निश्चित होता है तो फिर घर को सड़क किनारे का ढाबा जैसा बनाने की क्या मज़बूरी आ गई ।
वैसे पारिवारिकता कम होने से व्यक्ति की सामाजिकता भी कम होती चली जाती है और इस कमी से उपजी कुंठा को दूर करने के लिए वह पशु की तरह अकेला होकर आहार, निद्रा और मैथुन में ही अपनी सारी शक्ति लगा देता है जिसका परिणाम मोटापे, अवसाद और शारीरिक व्याधियों में होता है । इसलिए इन सब समस्याओं का हल व्यक्ति को सामाजिक बनाने की शुरुआत परिवार से ही करना आवश्यक है जिसके लिए बाजार द्वारा फैलाई जा रही व्यक्तिवादिता से नहीं बल्कि मानव विकास के शाश्वत और मूल सिद्धांत 'सामूहिकता' को अपनाना आवश्यक है । मनुष्य को केवल खाना खाने ही नहीं, खिलाने के आनंद से भी परिचित कराया जाए । उपवास का भी कोई शारीरिक ही नहीं मानसिक अर्थ भी है । यह केवल डाइटिंग ही नहीं है । उपवास भी एक अध्यात्मिक अनुभूति हो सकती है । ये सब मनुष्य के समझने के लिए ही हैं । पशु को यदि खूँटे से बाँध कर नहीं रखा जाए तो उसे भी इन पशुतुल्य मनुष्यों वाली समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता ।

अभी कुछ दिनों पहले ही अमरीका की केलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के रॉबर्ट लस्टिंग के नेतृत्त्व वाली शोध टीम का एक आलेख 'नेचर' नामक पत्रिका में छपा है जिसमें बताया गया है कि अमरीका की दो तिहाई आबादी आदर्श वज़न के हिसाब से 'अधिक वज़न' वाली है और उसका आधा अर्थात अमरीका की एक तिहाई आबादी ( दस करोड़ ) मोटों की श्रेणी में आती हैं । साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि अमरीका के स्वास्थ्य बजट का ७५ प्रतिशत भोजन-जनित बीमारियों के इलाज़ पर खर्च हो जाता है । और इसका कारण भी बताया गया है कि इसके लिए भोजन कंपनियाँ जिम्मेदार हैं ।

सच है कि इन शक्तिशाली कंपनियों ने सरकार की नीतियों, टूटते परिवारों और अपने अर्थ और विज्ञापन के बल पर भोजन को एक पारिवारिक उत्सव की बजाय एक मशीनी उत्पाद बना दिया है । ऐसे में उस समाज की सांस्कृतिक कमजोरी भी सिद्ध होती है कि वहाँ के पारिवारिक संस्कार बाजार की इस हवा का तनिक भी सामना नहीं कर सके ।

इस दृष्टि से अब बाज़ार के सामने हमारी संस्कृति की भी परीक्षा का समय आन उपस्थित हुआ है ।

अच्छा हो कि सब कुछ लुटाने से पहले ही होश में आ जाएँ ।

२७-१-२०१२

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ओल्ड इज गोल्ड : इज बींग सोल्ड उर्फ़ स्थानं प्रधानं



भले ही ओल्ड माता-पिता या पति-पत्नी का आज के ज़माने में महत्त्व कम हो रहा हो मगर कहने वाले कहते हैं कि पुरानी शराब और पुरानी प्रेमिका का कोई मुकाबला नहीं । खैर, यह आलेख ऐसे किसी रोमांटिक विषय के बारे में नहीं है । यह तो पुरानी वस्तुओं के बाजारीकरण के बारे में है । जब से म्यूज़ियम और पुरानी चीजों की नीलामी करने वाले संस्थानों का जाल फैला है तब से बहुत कुछ सामान पुरानी वस्तुओं का धंधा करने वालों और उनके लिए ऐसी वस्तुएँ उपलब्ध करवाने वाले चोरों की भेंट चढ़ने लगा है ।

अभी एक सूचना है कि अंडमान के सेल्यूलर जेल में सुरक्षित, वीर सावरकर से संबंधित सामान मुम्बई में बनाए गए स्मारक के लिए ले जाए जा रहे हैं । इस आलेख में इसी सन्दर्भ में, इस समस्या पर एक बड़े आयाम पर, बात रखने की कोशिश की गई है और इस पर सभी की, विशेषरूप से अंडमान कम्यूनिटी के सदस्यों से प्रतिक्रिया की आशा है ।

दुनिया का सबसे बड़ा म्यूज़ियम ब्रिटेन का नेशनल म्यूज़ियम है जिसमें दुनिया के विभिन्न देशों से ज़बरदस्ती या चुराकर लाई गई वस्तुएँ हैं जिन्हें देखने के लिए दुनिया के लाखों दर्शक जाते हैं । इसी तरह से योरप के और भी बहुत से देशों में अपने-अपने उपनिवेश रहे देशों से लाई गई बहुत सी वस्तुएँ हैं । वास्तव में इन वस्तुओं पर उनके मूल देशों का ही अधिकार है और होना भी चाहिए किन्तु इन देशों की दादागीरी के चलते कोई भी इन देशों को उन वस्तुओं को लौटाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता । अमरीका में भी वहाँ के म्यूज़ियमों में विभिन्न देशो की अमूल्य वस्तुएँ हैं । अमरीका दूसरे देशों में उपनिवेश तो नहीं रहे किन्तु उसके शौकिया या व्यावसायिक संग्रह्कर्त्ताओं ने पैसे के बल पर लोगों को अपने देशों से चुरा कर विभिन्न पुरातन और अमूल्य एवं दुर्लभ वस्तुओं को उनके हाथों बेचने के लिए प्रेरित किया ।

यदि आज भी किसी देश की कोई पुरातन मूर्ति किसी विदेशी के पास पाई जाती है तो यह सच है कि वह उसने चोरों से ही खरीदी है क्योंकि कोई भी पुजारी या भक्त उसे किसी भी कीमत पर चुरा कर नहीं बेचेगा । और खरीदने वाले को भी यह सोचना चाहिए कि भारत में देवताओं की मूर्तियाँ घरों में संग्रह करने या म्यूज़ियमों में रखने के लिए नहीं वरन मंदिरों में स्थापित करने के लिए बनाई जाती हैं और प्राण-प्रतिष्ठा होने की बाद तो उन्हें किसी भी कारण से स्थानान्तरित नहीं किया जाता, जगन्नाथ जी की मूर्तियों को कुछ समय के लिए किसी उत्सव विशेष के लिए ले जाए जाने जैसे अपवादों के अलावा । क्या अमरीका और योरप के, अन्य देशों के पुरातन भारतीय देवताओं की मूर्तियाँ खरीदने वालों को यह पता नहीं है ? उन्हें सब पता है किन्तु उनके मन में भारतीय आस्था के प्रति कोई सम्मान नहीं है । उनके लिए यह भी अन्य व्यापारों की तरह से एक व्यापार है । और कुछ संशोधन के साथ कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि 'एवरीथिंग इज अनफेयर इन वार एंड बिजनेस' ।

यदि इस्लाम में मूर्तियों का विरोध नहीं होता तो शायद भारतीय मूर्तियों के सबसे बड़े म्यूज़ियम मुस्लिम देशों में होते । अमरीका के स्मिथसोनियन संग्रहालय में एक शिव का सर था । अंगकोरवाट मंदिर से चुराई गई मूर्तियों का एक कैटेलॉग पहुँचा जिसमें यह सर भी था । चूँकि यह अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा था सो उसे वापस करना पड़ा, मगर ये तो अपवाद हैं ।

मूर्तियाँ, किले, महल, वस्त्र, गहने आदि किसी स्थान का इतिहास होते हैं और वे उसी स्थान की उपज होते हैं । वे किसी उपभोग की वस्तु की तरह नहीं होते जिनका उत्पादन और व्यापार किया जाए । इसलिए उनका स्थान और महत्त्व उसी परिवेश में है । अगर अमरनाथ के शिवलिंग की प्रतिकृति, कहीं वैज्ञानिक उपायों से बर्फ जमाकर बना भी ली जाए तो वह न तो अमरनाथ है और न उसका वह महत्त्व है । आप उसे एक अजूबे के रूप में देख सकते हैं । कोई मक्का-मदीने की नक़ल अपने यहाँ बना ले तो वह उसका विकल्प नहीं हो सकता और न ही वहाँ के निवासी और उस धर्म के अनुयायी इसे बर्दाश्त करेंगे । यदि ऐसा हो सकता और उचित होता तो जापान के लोग अपने वहीं बौद्ध-गया की प्रतिलिपि बना लेते और बौद्ध-गया में आने का कष्ट नहीं उठाते । इसी तरह सिक्ख ननकाना साहिब ( अब पाकिस्तान में ) जाने की बजाय यहीं बना लेते वैसा ही गुरुद्वारा । पाकिस्तान वाले भी अजमेर वाले ख्वाज़ा का स्थान अपने वहीं बना सकते थे । कुछ लोग भक्तों की श्रद्धा का फायदा उठाकर जहाँ चाहें मेहंदीपुर वाले बालाजी या तिरुपति मंदिर बना कर बैठ जाते हैं । क्या कहीं अन्य देश में वेटिकन का होना अजीब नहीं लगेगा । यह बात और है कि एक बार भक्तों की सुविधा के लिए तिरुपति भगवान के मुख्य-मंदिर के कुछ पुजारी लोग उनका डुप्लिकेट बनाकर अमरीका के डेट्रोइट शहर में ले गए । पता नहीं, यह भगवान का विस्तार था या भक्तों द्वारा पैसे के बल पर प्राप्त की गई सुविधा या पुजारियों का लालच । किन्तु मेरा मानना है और आप भी इससे सहमत होंगे कि 'स्थानं प्रधानं ' ।

अब यदि सावरकर से संबंधित वस्तुओं को मुम्बई ले जाने की बात पर आएँ तो आप भी मानेंगे कि सावरकर इस देश के एक महान और अद्वितीय देशभक्त थे । उनके लिए महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देश के प्रत्येक देशभक्त के मन में श्रद्धापूर्ण स्थान है । इसीलिए मुझे याद कि संभवतः १९८१ या ८२ में महाराष्ट्र के कुछ उत्साही श्रद्धालु पोर्टब्लेयर आए थे और अपने साथ वीर सावरकर की आवक्ष प्रतिमा लाए थे जिसे एक समारोह में सेल्यूअर जेल के सामने स्थापित किया गया था । मुझे भी उस कार्यक्रम में शामिल होने का सौभाग्य मिला था ।

उन लोगों की श्रद्धा प्रणम्य है किन्तु सेल्यूलर जेल, पोर्ट ब्लेयर में सावरकर द्वारा प्रयुक्त या संबंधित वस्तुएँ वहीं शोभा देती हैं । आप यदि इन वस्तुओं को मुम्बई ले भी जाएँगे तो उसे वास्तविक अर्थ, प्रभाव और अनुभूति देती वह कुख्यात जेल, वह सागर तट कहाँ से लाएँगे ? जितने सावरकर महाराष्ट्र में हैं उन्हें उतना वहाँ रहने दें और जितने वे अंडमान में हैं उन्हें उतना अंडमान में रहने दें । इससे लोगों की श्रद्धा और सावरकर के महत्त्व में क्या फर्क पड़ जाएगा ? कुछ नहीं, किन्तु तब हम सावरकर के दो टुकड़े कर देंगे । गाँधी के जन्म को पोरबंदर का सौभाग्य रहने दें और उनके बलिदान को दिल्ली का इतिहास । मेरा तो यहाँ तक मानना है कि किसी भी देश या स्थान पर बने किसी भी निर्माण को हम उस समय के सत्य की तरह क्यों नहीं देख सकते ? क्यों उसे गुलामी या गौरव का प्रतीक बनाने के चक्कर में पड़ते हैं ?

एक बार कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर ने अंडमान में कहा था कि यहाँ सावरकर की जगह गाँधी जी प्रतिमा लगानी चाहिए । अब उन राजनीति के अंधे व्यक्ति को कौन समझाए कि गाँधी जी का अंडमान से क्या संबंध है ? ठीक है, गाँधी इस देश के एक महान नेता हैं किन्तु वे अंडमान में सावरकर और सुभाष की तरह प्रासंगिक नहीं हो सकते । हाँ, पोर्ट ब्लेयर में हिंदी साहित्य कला परिषद के पास ही स्थित लाइट-हाउस सिनेमा के सामने गाँधी जी की एक प्रतिमा लगी हुई है और उस इलाके का नाम मोहन नगर भी है । जिससे किसी को भी ऐतराज़ नहीं है । यह बात और है कि उस समय उस इलाके में गाँधी जी को श्रद्धांजलि-स्वरूप स्मगलिंग का सामान, अवैध दारू और ताज़ा कटे, चमड़ी उधेड़े साबुत सूअर बिकते थे । अब पता नहीं, गाँधी जी के सिद्धांतों का उस इलाके में और कितना विकास हो गया होगा ? ये बातें २६ वर्ष पुरानी हैं । पता नहीं, मणिशंकर जी की निगाह में यह सब आया या नहीं या फिर वे सावरकर और गाँधी जी का विवाद खड़ा करने के लिए ही गए थे ।

निष्कर्षतः सावरकर जी का सभी सामान सेल्यूलर जेल में ही रहना चाहिए । वहीं उसकी शोभा और महत्त्व है । यदि ज्यादा ही श्रद्धा है तो उनके सामानों की प्रतिकृतियाँ बनवाई जा सकती हैं । वैसे जो आनंद पैदल तीर्थ यात्रा में है वह हवाई जहाज से या फिर उस स्थान का चित्र देखने में या उसकी प्रतिकृति में नहीं है । श्रद्धेय के चरणों में भक्त जाए, न कि सुविधा के लिए श्रद्धेय को अपने पास बुलाने का दंभ पाला जाए ।

पता नहीं, यह श्रद्धा है या इसमें कहीं दूरगामी राजनीतिक लाभ उठाने की मंशा भी छुपी हुई है जैसे कि वोट के लिए राम मंदिर, अम्बेडकर और अल्पसंख्यक का राग अलापना ।

ऐसे तमाशों और अधकचरे कामों के अलावा, क्या देश के लिए प्राण देने वाले और उसे एक गौरवशाली राष्ट्र बनाने का सपना देखने वाले देशभक्तों के आदर्शों को देश के मानस में उतारने का कोई सार्थक और ईमानदार तरीका नहीं हो सकता ?

३-२-२०१२

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Feb 5, 2012

आई.आई.टी. में प्रवेश की नई नीति


आई.आई.टी.में प्रवेश की नई नीति

३१ जनवरी २०१२ की एक सूचना के अनुसार आई.आई.टी. की नई प्रवेश नीति घोषित हुई है जिसके अनुसार अब परीक्षा के साठ प्रतिशत अंक होंगे और उनमें बारहवीं की परीक्षा के ४० प्रतिशत अंक भी जोड़े जाएँगे ।

आई.आई.टी. अर्थात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान भारत ही नहीं दुनिया के मान्य संस्थान हैं । भारत की स्वतंत्रता के बाद दूरदर्शी प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कई विकसित देशों की सहायता से उच्च अध्ययन के कई संस्थान स्थापित करवाए थे जिनमें ये आई.आई, टी. भी थे । हालाँकि स्वतंत्रता से पहले भी कई दूरदर्शी लोगों ने ऐसे श्रेष्ठ कार्य किए थे जिनमें टाटा द्वारा स्थापित बैंगलोर का भारतीय विज्ञान संस्थान मुख्य है । इन सभी संस्थानों का भारत की वैज्ञानिक उन्नति में बड़ा योगदान रहा है ।

आई.आई.टी. की कुल संख्या बहुत वर्षों तक केवल पाँच ही रही । इसके बाद अब बहुत से अन्य कालेजों को भी आई.आई.टी. का दर्ज़ा दे दिया गया । दर्ज़ा और बात है और वास्तव में वह होना और बात है । यह तो कुछ वर्षों बाद सिद्ध होगा कि ये कालेज कितने आई.आई.टी. बन पाए?

आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षाओं में पहले बारहवीं के अंकों की कोई न्यूनतम सीमा तय नहीं थी । उसके बाद इसे ६० प्रतिशत कर दिया गया । अब शायद कुछ और बढ़ा कर ७० प्रतिशत कर दिया गया है । आई.आई.टी. के आशार्थी के लिए यह प्रतिशत कोई अधिक नहीं है जब कि आजकल ८०-८५ प्रतिशत वालों तक को धक्के खाने पड़ रहे हैं । यह बात और है कि गली-गली में खुल गए दुकान टाइप कालेजों में किसी भी प्रतिशत पर प्रवेश मिलने की सुविधा के बावज़ूद सीटें खाली जा रही हैं ।

आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षाएँ कुल मिलाकर विवादों से मुक्त रही हैं जब कि आजकल प्रशासनिक परीक्षाओं तक के पर्चे आउट होने के समाचार पढ़ने को मिल जाते हैं । हो सकता है कि आज जब गली-गली में गारंटी से प्रवेश दिलाने वाले कोचिंग संस्थानों के विज्ञापन आ रहे हैं और कुछ तो करोड़ों कमा रहे हैं तो इसे असंभव नहीं माना जा सकता कि वे थोड़ी-बहुत सेंध नहीं लगा पाते होंगे । फिर भी कुल मिला कर परिदृश्य निराशाजनक नहीं है । कभी-कभी आई.आई.टी. में भी कुछ, गैर-इरादतन ही सही, गड़बड़ी होने से पूर्णतया इंकार नहीं किया जा सकता । इसका एक सच्चा उदहारण है कि एक छात्र को सी.बी.एस.ई. की दसवीं की परीक्षा में मेरिट में स्थान मिला, राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा में छात्रवृत्ति मिली, बारहवीं में भी मेरिट में स्थान मिला किन्तु आई.आई.टी. में प्रथम प्रयास में कहीं भी स्थान नहीं मिला । इसके बाद दूसरे प्रयास में पूरे देश में प्रथम ५० में स्थान मिला । पहले वर्ष भी वह छात्र प्रथम १०० में अपना स्थान निश्चित मान रहा था । यह बात समझ से परे हैं एक वर्ष में ही क्या जादू हो गया कि एक वर्ष पहले कहीं भी स्थान न पाने वाला छात्र प्रथम ५० में स्थान पा गया? चूँकि आई.आई.टी. में अब भी पुनर्मूल्यांकन की व्यवस्था नहीं है इसलिए सत्य का पता नहीं चल सकता । इसे किसी कम्प्यूटर पर काम करने वाले की भूल मान कर ही संतोष किया जा सकता है, न कि इस आधार पर आई.आई.टी. पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाया जा रहा है । चूँकि आई.आई.टी. में कभी बारहवीं के अंकों के आधार पर प्रवेश का नियम नहीं रहा है और न ही किसी दुर्गम स्थान के नाम पर बिना प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हुए प्रवेश की अनुकम्पा । इसलिए उनका स्तर बना रहा ।

उत्तर-पूर्व तथा देश के कुछ स्थानों में यह व्यवस्था थी, शायद अब भी हो, कि बारहवीं के अंकों के आधार पर कुछ मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में प्रवेश दिया जाता था । इसमें क्या बुराई हो सकती है, इसे वहाँ रह चुका या भोग चुका व्यक्ति ही जान सकता है । ऐसे स्थानों पर उच्च पदस्थ अधिकारियों ने इन नियमों की ऐसी मनमानी व्याख्या करवाई कि उनके बच्चे इन दूरस्थ स्थानों की कोई भी असुविधा भोगे बिना दिल्ली में रहकर पढ़ते रहे और उन्हें दूरस्थ स्थानों में सेवा कर रहे अभिभावकों और दूरस्थ स्थानों में पढ़ रहे उनके बच्चों के ऊपर, इन स्थानों के बच्चों के लिए आरक्षित सीटों पर, कई उच्च अधिकारियों के बच्चों को मेडिकल और इंजीनियरिंग में प्रवेश मिल गया ।

इन दूरस्थ स्थानों के बच्चों के लिए देश के सभी क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कालेजों तथा कुछ अन्य कालेजों में भी सीटें आरक्षित हैं किन्तु अधिक मारामारी मेडिकल सीटों के लिए है क्योंकि मेडिकल की सीटें बहुए कम हैं । ऐसी स्थिति में कई तरह के प्रपंच होते हैं जिनका कुछ अनुमान यहाँ के लोग भी सरलता से लगा सकते हैं जैसे कि साइंस में प्रेक्टिकल के अंक । विज्ञान के अध्यापक प्रायः प्रेक्टिकल के अंकों के बल पर ही टयूशन पकड़ते हैं और बच्चों को ढंग से न पढ़ा कर भी भयादोहन करके अनुशासन कायम किए रहते हैं । बाहर से प्रेक्टिकल की परीक्षा लेने आए परीक्षकों को खुश करके अच्छे अंक दिलवाने के नाम पर बच्चों से चंदा वसूल किया जाता है । जिनके हाथ में बच्चों के प्रेक्टिकल के अंक होते हैं या और किसी तरह से छात्र के परिणाम को प्रभावित कर सकने की क्षमता होती है वे प्रायः छात्रों का शोषण करते हैं । शोध छात्रों विशेषकर छात्राओं का कई तरह से शोषण होता है । रिसर्च करवाने वाले गाइड किस प्रकार शोधार्थियों से बँधुआ मज़दूरों जैसा सलूक करते हैं यह पी.एच.डी. किए हुए डाक्टर लोग ज्यादा जानते होंगे ।

जब विश्वविद्यालय स्तर पर यह हाल है कि विभागाध्यक्ष अपने पुत्रों या पुत्रियों को आतंरिक मूल्यांकन के बल पर टॉप करवा देते हैं और योग्य छात्र टापते रह जाते हैं तो स्कूली स्तर पर, जिसमें हर वर्ष २०-३० लाख विद्यार्थी बैठते हैं और जो देश के सुदूर स्थानों में फैले हुए हैं और परीक्षाओं में नक़ल करवाने और तरह-तरह के हथकंडे अपनाना कोई छुपी हुई बात नहीं है तो फिर यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि बारहवीं के चालीस प्रतिशत अंकों का वेटेज कोई घटिया परिणाम नहीं देगा?

अपने अध्यापकीय जीवन के अनुभव के आधार पर मैं बहुत से उदाहरण दे सकता हूँ । मैं एक ऐसे विद्यार्थी को जानता हूँ जिसने उस स्थान से बारहवीं की परीक्षा दी जहाँ नंबरों के आधार पर मेडिकल में सीट मिलती थी । उसे फिजिक्स की लिखित परीक्षा में विद्यालय में सबसे अधिक अंक मिले किन्तु प्रेक्टिकल में उस विद्यार्थी से भी कम अंक मिले जो लिखित परीक्षा में फेल हुआ था । इसे क्या कहा जाए? कारण, वह न तो किसी अध्यापक के पास ट्यूशन पढ़ रहा था और न ही उसके पिता के पास गुरुजी को प्रभावित कर सकने जितने धन या पद की शक्ति थी ।

इस सन्दर्भ में याद करें कि पाकिस्तान के एक न्यायाधीश महोदय ने अपने प्रभाव का उपयोग करके बोर्ड की परीक्षा में अपनी बेटी के नंबर बढ़वा लिए थे । इसी प्रकार एक राज्य में एक मेडिकल कालेज है जिसमें मनेजमेंट कोटे की सीटें मंत्रीगण अपने बच्चों के लिए जुगाड़ लेते हैं । एक बार दुखी होकर मनेजमेंट वालों ने कहा- हम मनेजमेंट कोटा समाप्त कर रहे हैं तो मंत्री जी ने कहा- फिर हमारे बच्चे कहाँ जाएँगे? तो यह भी एक झलक है प्रवेश की । एक और घटना है एक दूरस्थ स्थान की जहाँ के लिए दिल्ली के लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज में एक सीट आरक्षित है । एक नेताजी ने अपनी बच्ची का वहाँ एडमीशन करवा दिया । बच्च्ची ने एक-दो बार फेल होकर कालेज छोड़ दिया । कालेज वालों ने कहा- कम से कम ऐसे बच्चे तो भेजें जो पास तो हो जाए । बिना बात एक सीट खराब की । मगर किस पर असर पड़ने वाला है? विचार करें ।

यदि आई.आई.टी. अपना स्तर बनाए रखना चाहते हैं तो उन्हें यह कदम नहीं उठाना चाहिए । आतंरिक मूल्यांकन को इतना महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए । इससे देश में परीक्षाओं में और विशेष रूप से आतंरिक मूल्यांकन में हो रहे घपलों को और बल ही मिलेगा । यदि संस्थान वाले यह सोचते हैं कि प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने वाले बच्चे अपनी बारहवीं की परीक्षा को गंभीरता से नहीं लेते तो उन्हें प्रवेश परीक्षा के लिए बारहवीं में ७५ प्रतिशत अंक अनिवार्य कर देने चाहिएँ । आई.आई.टी. के आशार्थी के लिए ये अंक कोई बहुत अधिक नहीं हैं जब कि इतने अंक आजकल सामान्य हो गए हैं ।

( इसके विषय में पाठकों, विशेषरूप से विद्यार्थी और अभिभावक क्या सोचते हैं? यह जानने की उत्सुकता रहेगी । )

५ फरवरी २०१२

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Feb 2, 2012

तोताराम का मन्त्र जाप

टी.वी. पर साहित्य उत्सव में गुलज़ार साहब को सुना । पता नहीं वे नज्में थी या कविताएँ मगर चूँकि गुलज़ार साहब की थीं तो श्रवणीय तो होंगी ही । बूढ़े पेड़ , उस पर लटकी बूढ़ी चुड़ैलों आदि के बारे में कुछ था । वैसे तो दोषपूर्ण या निर्दोष किसी भी तरह के सपने अब आने बंद हो गए हैं । आते भी हैं तो महँगाई के सपने आते हैं । पहले इनसे डर लगता था पर जब से अपनी गर्दन मनमोहन सिंह जी और मुक्त बाजार को सौंप दी है तब से डर लगना भी बंद हो गया है । जब डर से मुक्ति नहीं दिखती तो फिर डर से भी समझौता हो जाता है । बकरा कब तक डरेगा ..'बलि का एक दिन मुअय्यन है , नींद फिर कब तलक नहीं आती' । मगर गुलज़ार साहब वाली बूढ़ी चुड़ैलों ने रात में कई बार दर्शन दिए । विनोबा वाले झोले में अपनी किताबें डाले , भयंकर मेकअप किए हुए उत्सव में अपना कोई पुराना चाहने वाला ढूँढती घूम रही थीं । बार-बार नींद उचटने से सुबह समय से आँख नहीं खुलीं ।

जब खुलीं तो लगा चबूतरे पर कोई मन्त्र-जाप सा कर रहा है और थोड़ी देर फुसफसाने के बाद 'ओम फट' जैसी कुछ ध्वनि निकाल रहा है । हमने बिना देखे ही कहा- बाबा , क्यों ठण्ड में यहाँ बैठकर हम पर पाप चढ़ा रहे हो । कुछ ठंडी रोटी , पुराना कपड़ा चाहिए तो कहो और फिर कहीं धूप में जाकर बैठो ।

तभी वह आकृति अपनी चद्दर उतार कर खड़ी हो गई और कहने लगी- मैं कोई भिखमंगा नहीं हूँ । मैं तो तोताराम हूँ । पता चला कि तू अभी तक सो रहा है सो यहाँ 'कोलावेरी डी' गाने की प्रेक्टिस कर रहा था । हमें बड़ा अज़ीब लगा । हमने 'कारे कजरारे’ को राष्ट्रगीत का दर्ज़ा हासिल करते हुए देखा है , ‘करोड़पति कुत्ते’ ( स्लम डॉग मिलेनियर ) के गाने 'जय हो' को कांग्रेस द्वारा चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए नाव बनाते हुए भी देखा है और खैर भाजपा तो पैरोडी बनाने में सबसे होशियार है ही । सुना है उसने अब गोवा में 'कोलिवेरी डी' गाने की ट्यून और शब्दों को 'कमलवाली दी' करके फिट कर दिया है मगर तुझे कौन सा चुनाव जीतना है जो राम-नाम का जाप करने की उम्र में 'कोलावेरी' के चक्कर में पड़ा है ?

तोताराम ने कहा- समझदार आदमी को समय के साथ चलना चाहिए । यदि गोबर खाने का फैशन है तो गोबर खाने में नहीं हिचकना चाहिए । ओपरा विनफ्रे के आने से भारतीय साहित्य का कौन सा भला हो जाएगा मगर वह चर्चित है सो हर जगह महत्त्वपूर्ण और भीड़ जुटाने के लिए आवश्यक हो जाती है । यदि तू माइकल जेक्शन या लेडी गागा के बारे में नहीं जानता तो कोई तुझे भले लोगों में बैठने भी नहीं देगा ।

अमिताभ बच्चन कौन सा किशोर है जो 'कोलावेरी' सुनकर उछल रहा है । भाई , हर आदमी को बिकाऊ चीज से शिक्षा लेनी चाहिए । जो दिखता है सो बिकता है और जो बिकता है सो कमाता है और जो जितना ज्यादा कमाता है वह उतना ही बड़ा माना जाता है । अमिताभ बच्चन की विशेषता यही है कि वह अब भी कई बड़े-बड़े हीरो से ज्यादा कमा रहा है । और उसी क्रम में वह 'कोलावेरी डी' पर जान छिड़क रहा है । तुझे पता होना चाहिए कि आई.आई.एम. में भी 'कोलावेरी डी' के प्रसिद्ध होने और कमाई करने के मूल कारणों की खोज की जा रही है । तेरे मन्त्रों और भजनों ने आज तक कितनी कमाई कर ली ? तभी तो उन पर शोध करना तो दूर किसी ढंग के कार्यक्रम में उनके केसेट तक नहीं बजाए जाते ।

अब तो हमसे भी नहीं रहा गया , कहा- क्या पैसा ही सब कुछ है ? यदि सरकार को दूध से ज्यादा शराब से कमाई हो रही है तो शराब दूध से श्रेष्ठ नहीं हो जाती । कल को यदि पूनम पांडे को एक फिल्म के पचास करोड़ मिलने लग जाएँगे तो क्या उसके कपड़े उतारने और यू ट्यूब पर अपने वीडियो डालने की कला को स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया जाना चाहिए ? और ये मनेजमेंट कालेजों वाले कोई मानवता का कल्याण करने के लिए नहीं बैठे हैं । यहाँ तो ऐसे लोग तैयार किए जाते हैं जो मोटा पैकेज देने वाली कंपनियों के मुनाफे के लिए ग्राहकों को ज़हर तक खिला देने की योग्यता रखते हों । पेप्सी वाली इंदिरा नूई क्या किसी जनकल्याण के कारण फ़ोर्ब्स की दुनिया की पावरफुल महिलाओं की सूची में है ? नहीं , वह तो अपने मालिक के मुनाफे के लिए लोगों में केंसर फ़ैलाने वाले ठंडे की बिक्री बढ़ाने के करण है ।

तोताराम कौनसा चूकने वाला था , बोला- हो सकता है आज तुझे मेरी बात ठीक नहीं लगती हो मगर यदि इसी तरह बाज़ार का दबदबा बढ़ता गया तो यह भी असंभव नहीं है ।

हम क्या कहते- बस , इतना ही कह पाए कि तोताराम शुभ-शुभ बोलो ।

२२-१-२०१२

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