आदरणीय मनमोहन जी,
आपने १९ दिसंबर २००७ को राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में अगली पंचवर्षीय योजना पर विचार-विमर्श के दौरान बताया था कि महँगाई की मार के लिए तैयार रहें । धन्यवाद । और अब आपने २७ सितम्बर २०१२ को कहा है कि सुधार एक सतत प्रक्रिया है और ये जारी रहेंगे । इसलिए आज फिर से आपको अपनी इस प्रतिबद्धता के लिए बधाई देने का मन हो रहा है । स्वीकार करें ।
इस प्रसंग में एक चुटकला सुनाएँ ? एक किरायेदार ने रात के दो बजे अपने मकान मालिक को जगा कर कहा कि मैं इस महिने का किराया नहीं दे पाऊँगा । मकान मालिक ने पूछा- यह बात तुम काल सवेरे भी कह सकते थे फिर इस समय आने की क्या जरूरत थी ? किरायेदार ने उत्तर दिया- मैं अकले ही इस चिंता में परेशान क्यों रहूँ । सो आपको बताने चला आया ।
तो उस किरायेदार की तरह से आपने भी अपनी चिंता हमारे सर डाल दी । पर याद रखिए हम परेशान होने वाले नहीं हैं । हमें तो पहले ही पता था कि इस या उस कारण से महँगाई बढ़ने वाली ही है । इसे किसी का बाप नहीं रोक सकता । बेकारी कभी कम हुई है ? हमें तो आश्चर्य इस बात का हो रहा है कि आप परेशान और चिंतित हैं । यहाँ तो एक छोटा सा एम.एल.ए. तक चिंतित नहीं है । एक बार सरपंच का चुनाव जीतने के बाद आदमी ज़िंदगी भर जीप में घूमता है । चार चमचे साथ, हाथ में मोबाइल, झकाझक कुर्ता-पायजामा, दिन भर सिगरेट और चाय फिर शाम को दारू । आप तो प्रधान मंत्री हैं । कोई बुरी आदत भी नहीं है । खाना भी कम ही खाते है और गेंहूँ तो और भी कम भी । ज्यूस, फल, मेवे ही खाते होंगे । मोरारजी की गाय तो वह गिज़ा खाती थी कि कल्पना करना तक हमारे बस का नहीं है । और फिर आपको तो अच्छी पेंशन मिलती है । यदि अगली बार प्रधानमंत्री या सांसद भी नहीं रहे तो भी भूतपूर्व की हैसियत से अच्छी-खासी पेंशन मिलेगी । एक-दो पेंशन पहले से भी मिल रही होगी । हमें तो चालीस साल की मास्टरी के बाद कुल छः हजार रुपए पेंशन मिलती है । हम तो उसी में मस्त हैं ।
वैसे महँगाई और बेकारी की चिंता आपने खामखाँ ही की । रोजगार देना न तो सरकार की जिम्मेदारी है और न ही कभी होने वाली । जिसने चोंच दी है, चुग्गा देना उसी की जिम्मदारी है । लोग अपनी फाड़े-सिएँगे । आप तो विकास में लगे रहिए । आजकल तो यहाँ के कारखानों में ही तालाबंदी कोई बड़ी बात नहीं है फिर विदेशी कंपनियों पर तो हमारे नियम लागू भी नहीं होते । इन्हें क्यों हमारा दुःख सताने लगा ? इन्हें न शर्म है, न दया, न जिम्मेदारी । और फिर यहाँ की जनता हर हाल में मस्त है । कितनी ही महँगाई बढ़े पर गुटका, शराब, बीड़ी, सिगरेट, चाय सब चलते रहेंगे । समारोह, शादी, त्योहार, पटाखे, मेले बदस्तूर जारी रहेंगे ।
वैसे यदि बेकारी और महँगाई के कारणों का विश्लेषण करना चाहें तो सुन लीजिए । आप विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं । हमने भी आज से पैंतालीस बरस पहले बी.ए. में अर्थशास्त्र पढ़ा था । उसमें माल्थस की एक थ्योरी आती है जिसमें वे कहते है कि एक आदमी अगर एक मुँह लाता है तो दो हाथ भी लाता है । बढती जनसंख्या से डरने की जरूरत नहीं है । यह बात उसने योरप के लिए कही थी जहाँ जनसँख्या वृद्धि लगभग स्थिर सी है पर हमने मूर्खों की तरह से उसे अक्षरशः मान लिया और मूर्खों की तरह से पैंतीस करोड़ से एक सौ बीस करोड़ हो गए । और सरकार है कि उसके लिए कोई कठोर कदम उठाने से घबराती है । कौन बिना बात अपनी कुर्सी खतरे में डाले ? अपनी कौनसी जिम्मेदारी है ? जो पैदा करेगा, सो भुगतेगा ।
उलटे वोट बैंक बनाने के चक्कर में सरकारें वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ता, सस्ता अनाज, मुफ्त बिजली, धोती, टेलीविजन बाँटने जैसे हरामखोरी बढ़ाने वाले नुस्खे अपनाती हैं । कांग्रेस ने तो गुजरात में वोट के बदले तेल, दालें, अनाज और केरोसिन का वादा भी किया है । इसके स्थान पर कोई भी नेता इन लोगों को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाने की नहीं सोचता । ठीक भी है, काम की बजाय खैरात बाँटने में घपले की गुंजाइश ज्यादा निकल सकती है । आत्मनिर्भर होने पर क्या पता कोई वोट दे या न दे । दे तो सोच समझकर दे । दोनों ही स्थितियों में भ्रष्ट राजनीति को खतरा नज़र आता है ।
पहले तो मंदी का अर्थ हम यह समझते थे कि सब चीजें सस्ती हो जाएँगी पर अब पता चला कि मंदी का मतलब है- आदमी सस्ता हो जाएगा । उसे टके कोस दौड़ाया जा सकेगा । डबल मार- महँगाई और बेकारी । आपको इस स्थिति के लिए आश्चर्य हो रहा होगा पर हमें कोई शंका नहीं थी । जब यह नई आर्थिक नीति शुरु हुई थी तभी हमारा माथा ठनका था । निवेशकों को आपमें कोई खुशबू थोड़े ही आती है जो नोट लुटाएगा । उसने तो चार के चालीस बनाने के लिए धंधा किया है । अब तक तो जितना लगाया था उससे चालीस गुना कमाकर ले गए । अब तामझाम समेट भी लें तो क्या फर्क पड़ता है ? आपको इनमें कोई परोपकारी संत नज़र आया होगा । हम तो जानते हैं कि हमेशा ही उपनिवेश से पहले निवेशक आते हैं । इतिहास तो यही है । आपने, चिदंबरम जी ने, और स्वर्गीय नरसिंह राव जी ने पढ़ा या नहीं, पता नहीं ।
आप हमेशा कहते हैं कि इस मुक्त बाजार वाली आर्थिक नीति से पीछे नहीं हटा जा सकता । पता नहीं किस का क्या लेकर खा रखा है ? दृढ निश्चय हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है । क्या अंग्रेजों का जाना आसान नज़र आता था ? पर उन्हें जाना पड़ा । यह बात और है कि उनके जाने के बाद जो आए वे उनके भी बाप निकले देश को लूटने के मामले में । और अब भी नेता उन्हीं के एजेंटों के रूप में काम कर रहे हैं । कई नेता तो विदेशी कंपनियों के 'पे-रोल' पर हैं ।
कोई बात नहीं भाई साहब, आप तो रामायण-पाठ चालू रखिए । हमने तो सदा से पीठ खोल कर रखी है डंडे खाने के लिए । फिर चाहे मारने वाले आप हैं या अंग्रेज थे - क्या फर्क पड़ता है ? लोहे का स्वाद तो घोड़े को पता होता है, सवार क्या जाने ?
खैर, 'रामायण-पाठ' वाली बात स्पष्ट करके कथा समाप्त करें । एक चरवाहा था । उसकी बकरी बीमार पड़ी । वह पंडित जी के पास गया । पंडित जी ने कहा- रामायण का पाठ किया कर । चमत्कार ! इधर रामायण शुरु और उधर एक बकरी मर गई । बेचारा चरवाहा फिर पंडित जी से पास गया । पंडित ने कहा- चिंता मत कर, भगवान पर भरोसा करके रामायण चालू रख । रामायण चलती रही और बकरियाँ मरती रहीं । अंत में सारा रेवड़ निबट गया । एक मेमना बचा । अब चरवाहे के पास कोई काम नहीं । सो घुटनों में सर दिए बैठा था कि मेमना उसके पास चला आया । मेमना तो चंचल होता ही है । लगा उसका मुँह चाटने । चरवाहे को गुस्सा आ गया । कहने लगा- साले, क्यों मरने के काम करता है ? 'रामायण' ने तो बड़े-बड़ों को निबटा दिया । तू तो एक चौपाई का भी नहीं है ।
सो आप तो आर्थिक सुधारों का 'रामायण-पाठ' चालू रखिए । रेवड़ का तो राम रखवाला है ।
२८ सितम्बर २०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
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इस प्रसंग में एक चुटकला सुनाएँ ? एक किरायेदार ने रात के दो बजे अपने मकान मालिक को जगा कर कहा कि मैं इस महिने का किराया नहीं दे पाऊँगा । मकान मालिक ने पूछा- यह बात तुम काल सवेरे भी कह सकते थे फिर इस समय आने की क्या जरूरत थी ? किरायेदार ने उत्तर दिया- मैं अकले ही इस चिंता में परेशान क्यों रहूँ । सो आपको बताने चला आया ।
तो उस किरायेदार की तरह से आपने भी अपनी चिंता हमारे सर डाल दी । पर याद रखिए हम परेशान होने वाले नहीं हैं । हमें तो पहले ही पता था कि इस या उस कारण से महँगाई बढ़ने वाली ही है । इसे किसी का बाप नहीं रोक सकता । बेकारी कभी कम हुई है ? हमें तो आश्चर्य इस बात का हो रहा है कि आप परेशान और चिंतित हैं । यहाँ तो एक छोटा सा एम.एल.ए. तक चिंतित नहीं है । एक बार सरपंच का चुनाव जीतने के बाद आदमी ज़िंदगी भर जीप में घूमता है । चार चमचे साथ, हाथ में मोबाइल, झकाझक कुर्ता-पायजामा, दिन भर सिगरेट और चाय फिर शाम को दारू । आप तो प्रधान मंत्री हैं । कोई बुरी आदत भी नहीं है । खाना भी कम ही खाते है और गेंहूँ तो और भी कम भी । ज्यूस, फल, मेवे ही खाते होंगे । मोरारजी की गाय तो वह गिज़ा खाती थी कि कल्पना करना तक हमारे बस का नहीं है । और फिर आपको तो अच्छी पेंशन मिलती है । यदि अगली बार प्रधानमंत्री या सांसद भी नहीं रहे तो भी भूतपूर्व की हैसियत से अच्छी-खासी पेंशन मिलेगी । एक-दो पेंशन पहले से भी मिल रही होगी । हमें तो चालीस साल की मास्टरी के बाद कुल छः हजार रुपए पेंशन मिलती है । हम तो उसी में मस्त हैं ।
वैसे महँगाई और बेकारी की चिंता आपने खामखाँ ही की । रोजगार देना न तो सरकार की जिम्मेदारी है और न ही कभी होने वाली । जिसने चोंच दी है, चुग्गा देना उसी की जिम्मदारी है । लोग अपनी फाड़े-सिएँगे । आप तो विकास में लगे रहिए । आजकल तो यहाँ के कारखानों में ही तालाबंदी कोई बड़ी बात नहीं है फिर विदेशी कंपनियों पर तो हमारे नियम लागू भी नहीं होते । इन्हें क्यों हमारा दुःख सताने लगा ? इन्हें न शर्म है, न दया, न जिम्मेदारी । और फिर यहाँ की जनता हर हाल में मस्त है । कितनी ही महँगाई बढ़े पर गुटका, शराब, बीड़ी, सिगरेट, चाय सब चलते रहेंगे । समारोह, शादी, त्योहार, पटाखे, मेले बदस्तूर जारी रहेंगे ।
वैसे यदि बेकारी और महँगाई के कारणों का विश्लेषण करना चाहें तो सुन लीजिए । आप विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं । हमने भी आज से पैंतालीस बरस पहले बी.ए. में अर्थशास्त्र पढ़ा था । उसमें माल्थस की एक थ्योरी आती है जिसमें वे कहते है कि एक आदमी अगर एक मुँह लाता है तो दो हाथ भी लाता है । बढती जनसंख्या से डरने की जरूरत नहीं है । यह बात उसने योरप के लिए कही थी जहाँ जनसँख्या वृद्धि लगभग स्थिर सी है पर हमने मूर्खों की तरह से उसे अक्षरशः मान लिया और मूर्खों की तरह से पैंतीस करोड़ से एक सौ बीस करोड़ हो गए । और सरकार है कि उसके लिए कोई कठोर कदम उठाने से घबराती है । कौन बिना बात अपनी कुर्सी खतरे में डाले ? अपनी कौनसी जिम्मेदारी है ? जो पैदा करेगा, सो भुगतेगा ।
उलटे वोट बैंक बनाने के चक्कर में सरकारें वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ता, सस्ता अनाज, मुफ्त बिजली, धोती, टेलीविजन बाँटने जैसे हरामखोरी बढ़ाने वाले नुस्खे अपनाती हैं । कांग्रेस ने तो गुजरात में वोट के बदले तेल, दालें, अनाज और केरोसिन का वादा भी किया है । इसके स्थान पर कोई भी नेता इन लोगों को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाने की नहीं सोचता । ठीक भी है, काम की बजाय खैरात बाँटने में घपले की गुंजाइश ज्यादा निकल सकती है । आत्मनिर्भर होने पर क्या पता कोई वोट दे या न दे । दे तो सोच समझकर दे । दोनों ही स्थितियों में भ्रष्ट राजनीति को खतरा नज़र आता है ।
पहले तो मंदी का अर्थ हम यह समझते थे कि सब चीजें सस्ती हो जाएँगी पर अब पता चला कि मंदी का मतलब है- आदमी सस्ता हो जाएगा । उसे टके कोस दौड़ाया जा सकेगा । डबल मार- महँगाई और बेकारी । आपको इस स्थिति के लिए आश्चर्य हो रहा होगा पर हमें कोई शंका नहीं थी । जब यह नई आर्थिक नीति शुरु हुई थी तभी हमारा माथा ठनका था । निवेशकों को आपमें कोई खुशबू थोड़े ही आती है जो नोट लुटाएगा । उसने तो चार के चालीस बनाने के लिए धंधा किया है । अब तक तो जितना लगाया था उससे चालीस गुना कमाकर ले गए । अब तामझाम समेट भी लें तो क्या फर्क पड़ता है ? आपको इनमें कोई परोपकारी संत नज़र आया होगा । हम तो जानते हैं कि हमेशा ही उपनिवेश से पहले निवेशक आते हैं । इतिहास तो यही है । आपने, चिदंबरम जी ने, और स्वर्गीय नरसिंह राव जी ने पढ़ा या नहीं, पता नहीं ।
आप हमेशा कहते हैं कि इस मुक्त बाजार वाली आर्थिक नीति से पीछे नहीं हटा जा सकता । पता नहीं किस का क्या लेकर खा रखा है ? दृढ निश्चय हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है । क्या अंग्रेजों का जाना आसान नज़र आता था ? पर उन्हें जाना पड़ा । यह बात और है कि उनके जाने के बाद जो आए वे उनके भी बाप निकले देश को लूटने के मामले में । और अब भी नेता उन्हीं के एजेंटों के रूप में काम कर रहे हैं । कई नेता तो विदेशी कंपनियों के 'पे-रोल' पर हैं ।
कोई बात नहीं भाई साहब, आप तो रामायण-पाठ चालू रखिए । हमने तो सदा से पीठ खोल कर रखी है डंडे खाने के लिए । फिर चाहे मारने वाले आप हैं या अंग्रेज थे - क्या फर्क पड़ता है ? लोहे का स्वाद तो घोड़े को पता होता है, सवार क्या जाने ?
खैर, 'रामायण-पाठ' वाली बात स्पष्ट करके कथा समाप्त करें । एक चरवाहा था । उसकी बकरी बीमार पड़ी । वह पंडित जी के पास गया । पंडित जी ने कहा- रामायण का पाठ किया कर । चमत्कार ! इधर रामायण शुरु और उधर एक बकरी मर गई । बेचारा चरवाहा फिर पंडित जी से पास गया । पंडित ने कहा- चिंता मत कर, भगवान पर भरोसा करके रामायण चालू रख । रामायण चलती रही और बकरियाँ मरती रहीं । अंत में सारा रेवड़ निबट गया । एक मेमना बचा । अब चरवाहे के पास कोई काम नहीं । सो घुटनों में सर दिए बैठा था कि मेमना उसके पास चला आया । मेमना तो चंचल होता ही है । लगा उसका मुँह चाटने । चरवाहे को गुस्सा आ गया । कहने लगा- साले, क्यों मरने के काम करता है ? 'रामायण' ने तो बड़े-बड़ों को निबटा दिया । तू तो एक चौपाई का भी नहीं है ।
सो आप तो आर्थिक सुधारों का 'रामायण-पाठ' चालू रखिए । रेवड़ का तो राम रखवाला है ।
२८ सितम्बर २०१२
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