Sep 30, 2012

मनमोहन सिंह की आर्थिक नीति और देश की रामायण

आदरणीय मनमोहन जी,

आपने १९ दिसंबर २००७ को राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में अगली पंचवर्षीय योजना पर विचार-विमर्श के दौरान बताया था कि महँगाई की मार के लिए तैयार रहें । धन्यवाद । और अब आपने २७ सितम्बर २०१२ को कहा है कि सुधार एक सतत प्रक्रिया है और ये जारी रहेंगे । इसलिए आज फिर से आपको अपनी इस प्रतिबद्धता के लिए बधाई देने का मन हो रहा है । स्वीकार करें ।

इस प्रसंग में एक चुटकला सुनाएँ ? एक किरायेदार ने रात के दो बजे अपने मकान मालिक को जगा कर कहा कि मैं इस महिने का किराया नहीं दे पाऊँगा । मकान मालिक ने पूछा- यह बात तुम काल सवेरे भी कह सकते थे फिर इस समय आने की क्या जरूरत थी ? किरायेदार ने उत्तर दिया- मैं अकले ही इस चिंता में परेशान क्यों रहूँ । सो आपको बताने चला आया । 


तो उस किरायेदार की तरह से आपने भी अपनी चिंता हमारे सर डाल दी । पर याद रखिए हम परेशान होने वाले नहीं हैं । हमें तो पहले ही पता था कि इस या उस कारण से महँगाई बढ़ने वाली ही है । इसे किसी का बाप नहीं रोक सकता । बेकारी कभी कम हुई है ? हमें तो आश्चर्य इस बात का हो रहा है कि आप परेशान और चिंतित हैं । यहाँ तो एक छोटा सा एम.एल.ए. तक चिंतित नहीं है । एक बार सरपंच का चुनाव जीतने के बाद आदमी ज़िंदगी भर जीप में घूमता है । चार चमचे साथ, हाथ में मोबाइल, झकाझक कुर्ता-पायजामा, दिन भर सिगरेट और चाय फिर शाम को दारू । आप तो प्रधान मंत्री हैं । कोई बुरी आदत भी नहीं है । खाना भी कम ही खाते है और गेंहूँ तो और भी कम भी । ज्यूस, फल, मेवे ही खाते होंगे । मोरारजी की गाय तो वह गिज़ा खाती थी कि कल्पना करना तक हमारे बस का नहीं है । और फिर आपको तो अच्छी पेंशन मिलती है । यदि अगली बार प्रधानमंत्री या सांसद भी नहीं रहे तो भी भूतपूर्व की हैसियत से अच्छी-खासी पेंशन मिलेगी । एक-दो पेंशन पहले से भी मिल रही होगी । हमें तो चालीस साल की मास्टरी के बाद कुल छः हजार रुपए पेंशन मिलती है । हम तो उसी में मस्त हैं ।

वैसे महँगाई और बेकारी की चिंता आपने खामखाँ ही की । रोजगार देना न तो सरकार की जिम्मेदारी है और न ही कभी होने वाली । जिसने चोंच दी है, चुग्गा देना उसी की जिम्मदारी है । लोग अपनी फाड़े-सिएँगे । आप तो विकास में लगे रहिए । आजकल तो यहाँ के कारखानों में ही तालाबंदी कोई बड़ी बात नहीं है फिर विदेशी कंपनियों पर तो हमारे नियम लागू भी नहीं होते । इन्हें क्यों हमारा दुःख सताने लगा ? इन्हें न शर्म है, न दया, न जिम्मेदारी । और फिर यहाँ की जनता हर हाल में मस्त है । कितनी ही महँगाई बढ़े पर गुटका, शराब, बीड़ी, सिगरेट, चाय सब चलते रहेंगे । समारोह, शादी, त्योहार, पटाखे, मेले बदस्तूर जारी रहेंगे ।

वैसे यदि बेकारी और महँगाई के कारणों का विश्लेषण करना चाहें तो सुन लीजिए । आप विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं । हमने भी आज से पैंतालीस बरस पहले बी.ए. में अर्थशास्त्र पढ़ा था । उसमें माल्थस की एक थ्योरी आती है जिसमें वे कहते है कि एक आदमी अगर एक मुँह लाता है तो दो हाथ भी लाता है । बढती जनसंख्या से डरने की जरूरत नहीं है । यह बात उसने योरप के लिए कही थी जहाँ जनसँख्या वृद्धि लगभग स्थिर सी है पर हमने मूर्खों की तरह से उसे अक्षरशः मान लिया और मूर्खों की तरह से पैंतीस करोड़ से एक सौ बीस करोड़ हो गए । और सरकार है कि उसके लिए कोई कठोर कदम उठाने से घबराती है । कौन बिना बात अपनी कुर्सी खतरे में डाले ? अपनी कौनसी जिम्मेदारी है ? जो पैदा करेगा, सो भुगतेगा ।

उलटे वोट बैंक बनाने के चक्कर में सरकारें वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ता, सस्ता अनाज, मुफ्त बिजली, धोती, टेलीविजन बाँटने जैसे हरामखोरी बढ़ाने वाले नुस्खे अपनाती हैं । कांग्रेस ने तो गुजरात में वोट के बदले तेल, दालें, अनाज और केरोसिन का वादा भी किया है । इसके स्थान पर कोई भी नेता इन लोगों को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाने की नहीं सोचता । ठीक भी है, काम की बजाय खैरात बाँटने में घपले की गुंजाइश ज्यादा निकल सकती है । आत्मनिर्भर होने पर क्या पता कोई वोट दे या न दे । दे तो सोच समझकर दे । दोनों ही स्थितियों में भ्रष्ट राजनीति को खतरा नज़र आता है ।

पहले तो मंदी का अर्थ हम यह समझते थे कि सब चीजें सस्ती हो जाएँगी पर अब पता चला कि मंदी का मतलब है- आदमी सस्ता हो जाएगा । उसे टके कोस दौड़ाया जा सकेगा । डबल मार- महँगाई और बेकारी । आपको इस स्थिति के लिए आश्चर्य हो रहा होगा पर हमें कोई शंका नहीं थी । जब यह नई आर्थिक नीति शुरु हुई थी तभी हमारा माथा ठनका था । निवेशकों को आपमें कोई खुशबू थोड़े ही आती है जो नोट लुटाएगा । उसने तो चार के चालीस बनाने के लिए धंधा किया है । अब तक तो जितना लगाया था उससे चालीस गुना कमाकर ले गए । अब तामझाम समेट भी लें तो क्या फर्क पड़ता है ? आपको इनमें कोई परोपकारी संत नज़र आया होगा । हम तो जानते हैं कि हमेशा ही उपनिवेश से पहले निवेशक आते हैं । इतिहास तो यही है । आपने, चिदंबरम जी ने, और स्वर्गीय नरसिंह राव जी ने पढ़ा या नहीं, पता नहीं ।

आप हमेशा कहते हैं कि इस मुक्त बाजार वाली आर्थिक नीति से पीछे नहीं हटा जा सकता । पता नहीं किस का क्या लेकर खा रखा है ? दृढ निश्चय हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है । क्या अंग्रेजों का जाना आसान नज़र आता था ? पर उन्हें जाना पड़ा । यह बात और है कि उनके जाने के बाद जो आए वे उनके भी बाप निकले देश को लूटने के मामले में । और अब भी नेता उन्हीं के एजेंटों के रूप में काम कर रहे हैं । कई नेता तो विदेशी कंपनियों के 'पे-रोल' पर हैं ।

कोई बात नहीं भाई साहब, आप तो रामायण-पाठ चालू रखिए । हमने तो सदा से पीठ खोल कर रखी है डंडे खाने के लिए । फिर चाहे मारने वाले आप हैं या अंग्रेज थे - क्या फर्क पड़ता है ? लोहे का स्वाद तो घोड़े को पता होता है, सवार क्या जाने ? 


खैर, 'रामायण-पाठ' वाली बात स्पष्ट करके कथा समाप्त करें । एक चरवाहा था । उसकी बकरी बीमार पड़ी । वह पंडित जी के पास गया । पंडित जी ने कहा- रामायण का पाठ किया कर । चमत्कार ! इधर रामायण शुरु और उधर एक बकरी मर गई । बेचारा चरवाहा फिर पंडित जी से पास गया । पंडित ने कहा- चिंता मत कर, भगवान पर भरोसा करके रामायण चालू रख । रामायण चलती रही और बकरियाँ मरती रहीं । अंत में सारा रेवड़ निबट गया । एक मेमना बचा । अब चरवाहे के पास कोई काम नहीं । सो घुटनों में सर दिए बैठा था कि मेमना उसके पास चला आया । मेमना तो चंचल होता ही है । लगा उसका मुँह चाटने । चरवाहे को गुस्सा आ गया । कहने लगा- साले, क्यों मरने के काम करता है ? 'रामायण' ने तो बड़े-बड़ों को निबटा दिया । तू तो एक चौपाई का भी नहीं है । 

सो आप तो आर्थिक सुधारों का 'रामायण-पाठ' चालू रखिए । रेवड़ का तो राम रखवाला है ।

२८ सितम्बर २०१२

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Sep 13, 2012

ड्रिंक और डेमोक्रेसी उर्फ़ बराक ओबामा की बीयर

ओबामा जी,
थ्री चीयर्स । आशा है चुनाव अभियान अच्छी तरह से चल रहा होगा । दिन, चुनावी वादों से लोगों को बहलाने में और शाम, बीयर पीने-पिलाने में गुजर रहे होंगे । हमें विश्वास है कि आप निश्चय ही चुनाव जीतेंगे । जब से क्लिंटन जी ने दो-दो टर्म कुर्सी पकड़े रखने का चलन शुरू किया है तब से कोई भी दो टर्म से पहले पीछा नहीं छोड़ रहा है । आपके दो टर्म के बाद फिर रिपब्लिकन आने ही हैं जैसे तमिलनाडु की जनता जयललिता और करुणानिधि के बीच पेंडुलम की तरह झूल रही है वैसे ही अमरीकी जनता डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन की बीच धक्के खा रही है । बारी-बारी से नागनाथ जी और साँपनाथ जी में से ही किसी एक को आना है । हम तो आपके जन्म (१९६१) से पहले ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव कराते रहे हैं । २००२ में रिटायर होने के बाद इस लोकतान्त्रिक कर्म से पीछा छूटा है ।

हम अपने इसी अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि यह चुनाव आप ही जीतेंगे । इसीलिए हमने आपको शुरु में ही थ्री चीयर्स कह दिया । यह आपकी विजय के लिए भी है और आपकी बीयर के लिए भी जिसके बारे में अभी २ सितम्बर २०१२ को समाचार आया है कि आप व्हाईट हाउस में अपनी कोई निजी नुस्खे वाली बीयर बनाते हैं और पीते हैं (वीडियो)। जिस तरह से आपने बीयर को राष्ट्रीय सम्मान दिया है वह अनोखा, अद्भुत और अभूतपूर्व है । वैसे यह ओपन सीक्रेट है कि ड्रिंक और डेमोक्रेसी का हमेशा से घनिष्ट संबंध रहा है । हमारे यहाँ तो उम्मीदवार चुनाव के लिए फार्म भरने बाद में जाता है और दारू का भण्डारण पहले करता है । सभी दारू का खुला प्रयोग करते हैं । सभी मतदाता जिससे भी मिले दारू लेते हैं और उसी मधुमती भूमिका में वोट डाल आते हैं । अब नशे की स्थिति में कौन सा बटन दबा, किसे पता ? जो जीत जाता है- सब यही कहते हैं कि हमने उसे ही वोट दिया था । मगर जीतने वाला जानता है कि जीती दारू है । हमारे एक मित्र, जिन्हें हम पूनम पांडे की तरह पूरी पारदर्शिता से जानते थे, की एक बार एक साथ कई अखबारों और पत्रिकाओं में कई गज़लें छपीं तो हमने कहा- बंधु, आजकल तो बहुत छप रहे हो तो वे सकुचाकर बड़ी ईमानदारी से बोले- भाई साहब, आप तो जानते हो । मैं क्या, बोतल छप रही है ।

सो हम तो कहते हैं कि आप पिछली बार भी दारू के बल पर ही जीते थे और इस बार भी दारू के बल पर ही जीतेंगे । आप कहेंगे कि आपने पिछले चुनावों में तो दारू की कोई बात नहीं की थी । लेकिन याद कीजिए आपने कहा था- वी कैन । आपके चुनावी नारे वाले 'कैन' का क्या मतलब होता है पता नहीं, लेकिन बीयर का 'कैन' सभी समझते हैं और उसी की आशा में लोगों ने आपको वोट दे दिया । अब आपने अपने किसी आदमी से सूचना के अधिकार के तहत एक अप्लीकेशन लगवा कर, ईमानदारी का नाटक करते हुए अपना बीयर वाला नुस्खा जग-जाहिर कर दिया । वैसे यदि आपमें जन-कल्याण का इतना ही ज़ज्बा होता तो व्हाईट हाउस में चुपचाप दारू बनवा कर मज़े से पीते रहने की बजाय अंदर बीयर का एक बड़ा सा ओवर-हैड टेंक बनवा देते और उसका एक कनेक्शन बाहर लगवा देते । जिसका मन हो नल खोले और मस्त हो जाए । यदि आप ऐसा करते तो यह नौबत ही नहीं आती । लोग वैसे ही आपको आजीवन राष्ट्रपति बना देते । वैसे इसमें जनता का जाता भी क्या । होना तो वही है जो इस देश की विभिन्न लॉबियाँ जैसे गन लॉबी, पेट्रोल लॉबी, कार लॉबी, कोल्ड ड्रिंक लॉबी, पिज्जा लॉबी आदि चाहेंगी ।
अमरीका की राजनीति में ऐसा कहा जाता है कि जनता उसी को वोट देती है जिसके साथ उसे बीयर पी सकने की उम्मीद होती है । आप जनता के इस विश्वास पर खरे उतरेंगे । बुश साहब ने तो सुनते हैं कि आखिरी वक्त में तौबा कर ली थी और इन रोमनी महाशय के बारे में तो लोग जानते ही हैं कि ये पीते नहीं ।

सोचिए बिना दारू के क्या जीवन ? कहाँ से हिम्मत आए और कहाँ से ताज़गी और कहाँ से दिन भर भौंकने और धक्के खाने की शक्ति । हमारे इलाके से तो एक सज्जन चुनाव में खड़े हुआ करते थे । उनके हर चुनाव कार्यालय में दारू का अटूट भंडार रहता था । कोई भी आए, कितनी भी पिए, पूरी छूट । वे खुद भी हर चुनाव सभा की समाप्ति पर अगली सभा के लिए जाते समय कार में बैठकर पीते हुए जाते थे । और इस तरह से हर सभा में वैसे ही तरोताज़ा और मस्त । कभी चुनाव नहीं हारे । सो आप तो दारू की सप्लाई बनाए रखिए ।

हमारे बच्चन जी ने ऐसे ही नहीं कहा है- ‘मंदिर मस्जिद बैर कराते, प्यार कराती मधुशाला’ । न पीने वाले के मन में भले ही खोट आ जाए लेकिन हम-पियाला लोगों को देखिए कैसे खुद से पहले, साथ वाले को बढ़-चढ़कर खिलाने-पिलाने की हसरत रहती है । कहने को तो कोई यह भी कह सकता है कि राष्ट्रपति होकर घर में दारू बनाते हैं । तो इसमें क्या है हमारे यहाँ भी ठाकुर लोग अपने घरों में दारू बनाया करते थे । कुछ वर्षों पहले राजस्थान में उन्हें 'रजवाड़ी दारू' के नाम से लाइसेंस दिया गया था । अमरीका में भी राष्ट्रपति को अपने नुस्खे और अपने नाम की दारू बनाने और बेचने का अधिकार होना चाहिए । वैसे तो इस साली कुर्सी में ही इतना नशा है कि आदमी को होश नहीं आता लेकिन जनता के पास तो पाँव के नीचे ज़मीन ही नहीं । ऐसे में उसमें क्या नशा ? उसके तो होश तक हिरण हो रहे हैं । इसलिए उसे तो वास्तविक दारू चाहिए गम गलत करने के लिए । सत्ताओं के भरोसे किसके गम दूर हुए हैं ?

इसलिए आप भी सभी नेताओं की तरह केवल उजले सपनों की ही नहीं बल्कि व्हाईट हाउस की बोतल वाली रजवाड़ी बीयर पिलाते रहिए और चुनाव जीतकर लोकतंत्र को सुरक्षित रखते रहिए । वैसे लोकतंत्र हमेशा सुरक्षित रहता है- कभी डेमोक्रेट का तो कभी रिपब्लिकन का । कुल मिलाकर लोकतंत्र को कभी कोई खतरा नहीं । हो सके तो हमारे जैसे आपके शुभेच्छु को व्हाईट हाउस में खींची बीयर का एक क्रेट भिजवा दें तो यहीं घर बैठे ही आपकी जीत को अभी एडवांस में ही सेलेब्रेट कर लें वरना जीत के बाद कौन किसे याद रखता है ?

वैसे भी न तो आपको तीसरी बार चुनाव में खड़े होना और न हम रिजल्ट वाले दिन यहाँ रहने वाले क्योंकि हमारा वापसी का टिकट नवंबर में है ।

2012-09-11
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Sep 11, 2012

साइलेंस इज गोल्डन

मनमोहन जी,
आपके चुप रहने पर भारत के विरोधी दल विशेष रूप से भाजपा और उसके सहयोगी दल हल्ला मचा रहे हैं और अब तो आपकी अमरीकी अखबारों में होने वाली निंदा का सन्दर्भ भी देने लगे हैं । आजकल हम अमरीका में हैं लेकिन हमने तो कहीं भी आपकी कोई निंदा नहीं सुनी । अरे, यहाँ जब लोगों को अपने बीवी-बच्चों से बात करने की फुर्सत नहीं है तो किसके पास फुर्सत है किसी की निंदा करने की । जिनके पास कोई काम नहीं, वे ही समय बिताने के लिए ऐसी अन्त्याक्षरी कर रहे हैं । जब खुद सत्ता में आ जाएँगे तो अभिनन्दनों और विदेश यात्राओं से ही फुर्सत नहीं मिलेगी । 

यहाँ तो आपकी बात तो दूर, हमने सोनिया जी के आने-जाने की ही कोई खबर नहीं पढ़ी । वैसे भी आजकल यहीं क्या, भारत तक में अखबार और किताबें पढ़ना बंद हो चुका है फिर किसी एक दिन के कोई एक अखबार में कोई कुछ लिख देता है तो क्या फर्क पड़ता है । अब तक तो उस दिन का अखबार कूड़ा उठाने वाला ट्रक लेकर कहाँ लैंड फिलिंग में डाल चुका होगा । और फिर समझदार लोग जानते हैं कि अमरीका में आपकी आलोचना इसलिए हो रही कि आपने हवाई जहाजों का ठेका उसे देने की बजाय फ़्रांस को दे दिया । अब यह तो नहीं हो सकता कि आप सारे ठेके अमरीका को ही दे दो । और भी देश हैं । राजनीति में बेलेंस बनाकर रखना ही पड़ता हैं ।

आप अपनी आलोचना करने वालों को आपके बारे में बुश साहब और ओबामा जी द्वारा दिए गए वक्तव्य दिखा सकते हैं लेकिन उससे भी कोई फायदा नहीं क्योंकि जिसे आलोचना करनी है वह तो करेगा हीआपने तो बाप-बेटे की वह कहानी पढ़ी ही होगी जिसमें वे अपने गधे के साथ बाजार जा रहे हैं । बेटा गधे पर बैठा था और बाप पैदल । उन्हें देखकर बुजुर्गों ने कहा कैसा ज़माना आ गया है कि बाप पैदल चल रहा है और बेटा गधे पर बैठा है । बेटे ने बाप को गधे पर बैठा दिया और खुद पैदल चलने लगा । आगे कुछ औरतें मिलीं और कहने लगीं- देखो, बुड्ढे को शर्म नहीं आती । खुद तो ठाठ से गधे पर बैठा है यह मासूम बच्चा पैदल चल रहा है । तो पिता-पुत्र दोनों गधे पर बैठ गए । तो लोगों ने कहा- अरे ठीक है, अपना जानवर है पर क्या बेचारे जानवर को मार ही देंगे, देखो दो-दो लदे हुए हैं । कुढ़कर दोनों पैदल चलने लगे तो लोगों ने कहना शुरु कर दिया- कैसे बेवकूफ हैं जो जानवर होते हुए भी पैदल चल रहे हैं । 


सो हमारे अनुसार आप उन आप्त वाक्यों की तरह ठीक कर रहे है- 'जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले' या 'कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना' । मीना कुमारी की भी एक बहुत हिट फिल्म है- मैं चुप रहूँगी । और फिर भारतीय कहावतों में ही नहीं, अंग्रेजी में भी कहा गया है- स्पीच इज सिल्वर, साइलेंस इज गोल्डन । सो ऐसे ही थोड़े कहा है ? दुनिया की सारी अर्थव्यवस्था ही सोने के आधार पर चलती है । और अगर सोने का दूसरा अर्थ लिया जाए तो अधिक सोने वाला दीर्घायु होता है जैसे कि अपने खोल में छुपा कछुआ । सोने से ताज़गी आती है, स्लीपिंग ब्यूटी सबसे सुन्दर मानी जाती है । जब डाक्टरों को कुछ समझ में नहीं आता तो वे मरीज को सोने की दवा दे देते हैं ।

आप तो नरसिंह राव जी की पसंद है और उन्हीं के आग्रह पर ही इस पिछड़े देश को अपने आर्थिक सुधारों द्वारा विश्व-पटल पर स्थापित करने के लिए मंत्रीमंडल में शामिल हुए । हमने 'राजनीति में आए' नहीं कहा क्योंकि राजनीति में तो आप न तब थे और न अब । हमें आपके दक्षिण दिल्ली से विजय कुमार मल्होत्रा के सामने लड़े गए आपके लोकसभा-चुनाव की याद है । जब 'नर सिंह' होकर भी राव साहब कभी नहीं दहाड़े तो आप ही को क्या पड़ी है । जैसे उन्होंने मौन के बल पर पाँच साल शांति से निकाल दिए तो आपके भी पन्द्रह बरस निकल जाएँगे । यदि आप भी इन्हीं लोगों की तरह झखते रहते तो उलझे रहते मगर यह मौन का ही प्रताप है कि लोग कोमनवेल्थ गेम्स, टू जी भूल चुके हैं सो कुछ दिन में यह 'कोयला' भी भूल जाएँगे ।

हमारे एक मित्र थे । वे मास्टरी के अलावा एक्स्ट्रा इनकम के लिए डाक्टरी में हाथ आजमा लिया करते थे । एक बार एक रोगी को बुखार था सो उन्होंने इंजेक्शन लगा दिया और दुर्भाग्य से वह इंजेक्शन पक गया । मरीज कहने लगा- मास्टर जी, बुखार की तो देखी जाएगी आप तो मेरा यह जो इंजेक्शन पक गया है इसे ठीक कर दो । सो आप निश्चिन्त रहिए । इसी सिद्धांत के आधार पर सब ठीक हो जाएगा ।

और फिर यह भी है कि अधिक बोलने वाले की कोई सुनता भी नहीं । जो कम बोलता है उसका एक-एक शब्द लोग ध्यान से सुनते है, तरसते है जैसे कि अटल जी के बोलते-बोलते बीच में आने वाले ब्रेक के दौरान लोग अगले शब्द की कितना उत्सुक होकर प्रतीक्षा करते थे ? जैसे कि 'पाकीज़ा' में 'पायल निगोड़ी' में । सुषमा स्वराज के लंबे और ओजस्वी भाषण पर कैसे आपका वह शे'र 'माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूँ मैं' भारी पड़ा था । ऐसे ही जब कोई चंदा या भीख माँगने आता है तो जो लोग उसको समझाने लगते हैं वे उलझ जाते है और जो उनकी किसी बात का उत्तर नहीं देते उनका पीछा जल्दी छूट जाता है । कालीदास की विद्वान बनने से पहले की कहानी तो सब जानते ही हैं कि वे मौन रहे और विद्यावती से जलने वाले विद्वानों ने ही कालीदास के संकेतों का अर्थ लगाकर कैसे विद्यावती को हरा दिया और कालीदास को जिता दिया । सो आप भी दिग्विजय सिंह जैसे मनीषियों की व्याख्या-क्षमता पर विश्वास कीजिए और चुप रहिए । वैसे हमें विश्वास है कि आप हमारी सलाह के बिना भी इस व्रत और समाधि को भंग नहीं करते । हम तो कहते है कि आप तो गाँधी जी के तीन बंदरों की तरह बोलना ही क्या, सुनना और देखना भी बंद कर दीजिए । और हमारा तो मानना है कि व्यक्ति सच्चे मौन में तभी तक रह सकता है जब तक वह सुनना और देखना बंद रखता है ।

एक कहानी है । एक राजा के सिर में सींग थे लेकिन किसी को पता नहीं था । एक बार एक नाई ने उनकी हजामत बनाते हुए उन सींगों को देख लिया । उस गरीब का तो यह देखकर पेट ही फूल गया । किसी को बताए तो राजा का डर और न बताए तो पेट दर्द । अंत में सुनसान स्थान पर जाकर एक पेड़ से लिपटकर उसे अपनी बात कह दी । अब संयोग देखिए कि उस पेड़ की लकड़ी से एक कारीगर ने एक सारंगी बनाई । जब उसे बजाया जाता तो उसमें से आवाज़ निकलती- राजा के सिर में सींग । सो कहीं भी, कभी भी, कुछ भी बोला हुआ पता नहीं कब दुःख दे जाए इसलिए सबसे भली चुप ।

आप तो जानते हैं कि साधना और भक्ति में बाधा डालने के लिए इंद्र तरह-तरह के भूत-प्रेत, शैतान और अप्सराएँ भेजता है लेकिन सच्चे साधक निर्विकार भाव से साधना में लीन रहते हैं । वाचाल लोग मौन का महत्त्व क्या जानें ? जब बाहर के शोर से विरत होकर साधक स्वयं में स्थापित होता है तो 'अनहद' नाद सुनता है । तब सहस्रार से अमृत झरता है । जैसे योगासनों में सबसे कठिन है शवासन वैसे की सबसे बड़ी साधना है- मौन व्रत । गाँधी जी का भी अनशन के बाद दूसरा सबसे बड़ा हथियार मौन ही था ।

गाँधी को कुछ आलोचकों ने 'मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी' कह-कह कर उन्हें एक 'प्रतीक' बना दिया । किसी का जीते जी प्रतीक बन जाना सबसे बड़ी उपलब्धि है । भले ही आपका पूनम पांडे के साथ कोई संबंध नहीं है लेकिन मान लीजिए कि जब कोई ‘चिकनी चमेली’ या ‘शीला की जवानी’ या ‘बीड़ी जलाइले’ जैसा महान गीतकर यह लिखे-
मैं पूनम पांडे हो गई रे
पप्पू तेरे कारण ।
तो पूनम पांडे का अर्थ बताने की जरूरत नहीं रह जाती । वह एक क्रिया का पर्याय बन गई है । यही जीते जी प्रतीक या मिथक बनना है । आप भी उस ऊँचाई तक पहुँच गए है सो हमारे हिसाब से तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है जो महात्मा गाँधी के बाद केवल आपको ही हासिल हुई है ।

मुबारक हो ।

2012-09-08

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