May 5, 2010

टाइगर ट्रबल - बाघ की बदहाली


मुकेश अम्बानी जी,

जय श्रीनाथ जी । आप बाघ दर्शन के शौकीन और श्रीनाथ जी के भक्त और हम उसी राजस्थान के निवासी जहाँ आप बाघ और श्रीनाथ जी के दर्शन करने आते हैं । सो आपको पत्र लिखने की सोच ली । आप मार्च के अंत में बैंगलोर आए आई.आई.एम. में और कहा कि भारत दुनिया का 'इकोनोमिक टाइगर' है

आप ने तो साहित्यिक तरीके से अपनी बात कही पर इस देश में लोगों की भाषा बस फिल्मों तक ही रह गई है । वे साहित्यिक भाषा समझते ही नहीं । इसीलिए अंग्रेजी में अपनी बात कहने वाले बेचारे थरूर जी के पीछे पड़ जाते हैं । आपके पीछे तो कोई भी नहीं पड़ा पर हमें इसके बारे में कुछ कहना है ।

पहले लोग भारत को सोने की चिड़िया कहते थे । हमने तो नहीं देखा पर इतना ज़रूर जानते हैं कि दुनिया के लोगों ने इसे वास्तव में सोने चिड़िया समझ कर दूर देशों से आकर इसके पंख नोंच लिए । और अब उसका कहीं अवशेष नज़र नहीं आता । अब आप इसे टाइगर मतलब कि बाघ बता रहे हैं और मज़े की बात देखिए कि लोग बाघों के पीछे भी पड़े हुए हैं । इनकी संख्या दिन पर दिन काम होती जा रही है ।

पहले क्रिकेट में एक नवाब हुआ करते थे । एक बार बेचारे भूख के मारे एक हिरण का शिकार करने क्या चले गए लोगों ने चक्कर में डाल दिया । अब लोगों से कोई पूछने वाला हो कि भाई टाइगर है तो घास तो खाएगा नहीं । खाएगा तो हिरणों को ही । मज़े की बात देखिए कि लोग हिरणों की तो फ़िक्र करते हैं पर राष्ट्रीय पशु बाघ के खाने के बारे में कुछ भी नहीं सोचते । इस प्रकार से वैसे ही बाघों के भूखे मरने की नौबत आ गई है तिस पर शिकारी पीछे पड़े हुए हैं । अरे भाई, और भी पौष्टिक पदार्थ हैं पर नहीं, कहते हैं कि बाघ ही हड्डी में यह तत्व होता है और बाघ की खाल में यह कमाल । शामत बेचारे बाघ की । कहाँ छुप जाए ।

एक बार सल्लू मियाँ को भी टाइगर बनने का शौक चर्राया । और टाइगर बनने के लिए हिरण का शिकार करना ज़रूरी हो जाता है सो मियाँ पहुँच गए आपने दोस्तों को लेकर जोधपुर । वहाँ हिरण का शिकार किया, वहीं पकाया और खाया । जब वहाँ के लोगों ने विरोध किया तो दिन में तारे नज़र आ गए । कई दिनों तक जेल में मच्छरों से जूझते रहे । सुना है अभी तक मामला लटका हुआ है । उन्हें पता नहीं कि राजस्थान में अब भी कुछ ऐसा है जो पैसों से नहीं नापा जा सकता ।

एक और टाइगर हैं सौरव गांगुली । अच्छे भले खिलाड़ी हैं पर पता नहीं लोगों को टाइगर से क्या दुश्मनी है कि पहले ग्रेग चेपल पीछे पड़ गया और अब अपने वाले । सो निकाल कर ही छोड़ा टीम से । अब बेचारे जीविकोपार्जन के लिए आई.पी.एल. में मोदी का पट्टा डलवाए घूम रहे हैं इधर से उधर । क्या हालत हो गई है टाइगरों की । सो जब से आपने भारत को एक बाघ या टाइगर कहा है हम तो चिंतित हो गए हैं । योरप-अमरीका की बात तो छोड़ें, चीन-पाकिस्तान ही पीछे पड़े हुए हैं ।

एक है टाइगर वुड्स । पता नहीं किस जंगल में कौन सा खेल खेलता है । अरे भाई, टाइगर है तो वुड्स मतलब कि जंगल में ही तो रहेगा । मगर यह शहर में आ गया और बाकायदा घर-गृहस्थी भी बसा ली मगर जंगल वाली आदत नहीं छोड़ी तो यह सब तो होना ही था । सोचता था मैं तो टाइगर हूँ मेरा कोई क्या कर लेगा । मगर पहले बाहर वाली और फिर उसके बाद घरवाली टाइगरनी ने ऐसा पंजा मारा जो टी.वी. पर रोता हुआ माफ़ी माँगता फिरा । खेल में भी हारा । हारना ही था । जो ज्यादा टाइगर बनता है उसकी यही हालत होती है ।

एक और टाइगर है महाराष्ट्र में । अब तो बूढ़े हो गए हैं । कभी दहाड़ लेते हैं पर बच्चे उनकी दहाड़ सुनकर डरने की बजाय हँसते हैं ।

इस वक़्त तो भारत क्या, आप ही हमें तो टाइगर बने हुए नज़र आते हैं । कभी चार सौ करोड़ की नाव खरीदते हो, कभी दस हज़ार करोड़ का बँगला बनवाते हो । सो आपको यह देश भी टाइगर नज़र आता है । पर अगर हमसे पूछो और सच्ची पूछो तो हालत बहुत ख़राब है । आर्थिक, सामाजिक और नैतिक सब । अब हम तो भैया एक किस्सा सुना सकते हैं । किस्सों से ही जी बहलाकर ज़िंदगी कट रही है वरना और किस सरकार का सहारा है अपने साथ ।

तो एक घटना सुनाते हैं । हमारे यहाँ से जब दिल्ली जाते हैं तो एक स्टेशन आता है रेवाड़ी । जब भिवानी जाते थे अपनी ननिहाल तो यह स्टेशन रास्ते में आता था । यहाँ की रेवड़ी प्रसिद्ध हुआ करती थी । हालाँकि अब समझ में आया कि वे स्वाद तो नहीं थी पर चूँकि उस स्टेशन पर और कुछ मिलता ही नहीं था । आलू की सब्जी और पूड़ी मिलती थीं पर दोनों ही बेस्वाद । और चाय की तो बात ही मत पूछिए । हमें लगता है कि सृष्टि के आदि काल के समय पर ही रेवाड़ी स्टेशन पर चाय बेचने वालों ने करोड़ों लीटर चाय इकट्ठी बनवा कर रख ली होगी जिसे आज भी बेच रहे हैं और अनन्त कल तक बेचते रहेंगे । इससे प्रमाणित होता है कि उस स्टेशन की चाय का स्वाद आज भी वही है जो १९५२ में था । ऐसा क्वालिटी कंट्रोल बहुत दुर्लभ होता है । पर रेवाड़ी के चाय वालों ने इसे मेनटेन कर रखा है ।

एक बार हम अपने एक वरिष्ठ मित्र के साथ दिल्ली जा रहे थे । रेवाड़ी को तो बीच में आना ही था । शाम चार बजे का टाइम । हर तरह से चाय का टाइम । पर उस स्वाद को याद करके न पीने का मन बना लिया । हमारे मित्र ने कहा- ऐसी बात नहीं है । यहाँ अच्छी चाय भी बनती है पर वह कोई -कोई ही बनाता है और विशेष रूप, विशेष रेट लेकर बनाता है । हमने कहा- बात रेट की नहीं है बात चाय की है । अच्छी हो तो पैसे की कोई बात नही । इंजन की तरफ वाले सिरे पर एक रेहड़ी वाला था जिसे हमारे मित्र ने टाइगर के नाम से संबोधित किया । उसने हमारे मित्र को सेल्यूट मारी और कहा- बस गुरुजी, दो मिनट । चाय वास्तव में अच्छी थी । हमने भी उससे नज़दीकी बढाने की गरज से कहा- भाई, अगर तुम्हारे बारे में पूछना हो तो क्या पूछें ? वह बोला- साहब, दिन में तो छोटू है मेरा नाम पर शाम को आठ बजे के बाद टाइगर हो जाता हूँ । एक ही आदमी दिन में कुछ और शाम को कुछ । सो मुकेश बाबू, यह तो दुनिया है । फिरती-घिरती छाया है । न तो कोई टाइगर है और न कोई बकरी । यह तो समय -समय की बात है ।

क्या यह दुनिया शिकार और शिकारी के अलावा किसी और अच्छे रिश्ते से नहीं चल सकती ? क्या दुनिया को मुट्ठी में बंद किये बिना काम नहीं चल सकता ? और क्या दुनिया किसी की मुट्ठी में बंद हो सकती है ? दुनिया तो बड़ी चीज़ है एक क्षण को तो हम नहीं रोक सकते । मुट्ठी से फिसल जाता है । हमारी तो टाइगर बनने की इच्छा नहीं है । हम तो इसी जूण में ठीक हैं । और टाइगर बन कर किस का शिकार करना है ? माने, तो सभी तो अपने हैं ।

१०-४-२०१०
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