Aug 15, 2013

तोताराम के तर्क और मतिअंध गंधी


मतिअंध गंधी


आज आते ही तोताराम ने कहा- यार मास्टर, इन नेताओं को क्या हो गया है ? बिना सोचे-समझे जो मुँह में आया बोल देते हैं । नरेंद्र मोदी ने ( १२-७-२०१३ को रायटर द्वारा लिए गए एक इंटरव्यू में २००२ के दंगों के बारे में पूछे जाने पर- यदि कोई पिल्ला भी आपकी कार के नीचे आ जाए तो दुःख होता है ) मुसलमानों को 'पिल्ला' कह दिया और कल दिग्विजय सिंह ने २५-७-२०१३ को स्वयं को जौहरी और कांग्रेस की एक भली सांसद मीनाक्षी नटराजन को सौ टंच 'माल' कह दिया । किस सीमा तक गिर गया है राजनीति का स्तर !

हमने कहा-तोताराम, बिहारी का एक दोहा है -
रे गंधी मतिअंध तू अतर दिखावत काहि ।
करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि ।।

और इसी पीड़ा को संस्कृत के कवि ने इस प्रकार कहा है -
अरसिकेषु कवित्त निवेदनं
सिरसि मा लिख, मा लिख, मा लिख ।

यह जो हल्ला मच रहा है वह लोगों के भाषा अज्ञान के कारण मच रहा है । अब चुनाव आ रहे हैं और मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में नहीं बल्कि कांग्रेस और नरेन्द्र मोदी में है । वैसे भी भाजपा में मोदी के अलावा और किसी के बोले हुए को आजकल सुन भी कौन रहा है ? इधर कांग्रेस में दिग्विजय सिंह जैसा परखी जौहरी तथा भाव और भाषा का धनी और कौन है ? और फिर प्रवक्ता होने के कारण बोलना उनकी विवशता है । यह बात और है कि दोनों ही मीठा कहकर सराहने वालों को इत्र को दिखा रहे हैं । भाषा की व्यंजना न समझने वाले इस समय में किसी भी साहित्यिक भाषा बोलने वाले के साथ ऐसा हो जाता है ।

बात १९७४ की है । हम स्टाफरूम में बैठे ऐसे ही सोच रहे थे कि कुछ अवसर होते हैं जब प्रायः उपेक्षित रहने वाले साधारण व्यक्ति के प्रति भी सबका ध्यान चला जाता है जैसे कि जन्म, विवाह, ट्रांसफर और मृत्यु । तभी हमारे मित्र शर्मा जी आ गए । हमने उसी भाव धारा में बहते हुए उनसे कह दिया- देखो शर्माजी, भगवान की क्या लीला है कि वह गधे को भी, एक दिन के लिए ही सही, हीरो बनने का अवसर दे ही देता है । और हमने वे चार अवसर गिना दिए ।

हमारे एक साथी जो हमारे दुश्मन तो नहीं हैं लेकिन उनकी विनोदवृत्ति ने उस दिन दुश्मन की भूमिका निभा दी । बोले- देखा शर्माजी, जोशी आपको गधा कह रहा है । हुआ यूँ कि शर्मा जी का कीनिया के एक इन्डियन स्कूल में सलेक्शन हो गया था और तीसरे दिन वे रिलीव होकर जाने वाले थे । हमें इस बात का पता नहीं था । इस सन्दर्भ में यह मजाक इतना फिट बैठा कि उन्होंने प्राचार्य से हमारी बाकायदा शिकायत की । खुद हमें ज़िंदगी भर अपना दुश्मन मानते रहे और प्राचार्य महोदय हमें ‘लूज़ टाक’ करने वाला । किसी ने हमारा कोई स्पष्टीकरण नहीं सुना ।

इसी तरह १९९५ का दिल्ली कैंट के केन्द्रीय विद्यालय का एक वाकया है । ऐसे ही स्टाफ रूम में हिंदी ज्ञान की चर्चा चल रही थी । हमने कह दिया- उत्तर प्रदेश का तो कुत्ता भी हिंदी जानता है । बस, फिर क्या था, उत्तर प्रदेश के हमारे एक युवा साथी भड़क उठे । कहने लगे- आप उत्तर प्रदेश वालों को कुत्ता कहते हैं ! अब हम उनसे क्या कहते ? बड़ी मुश्किल से हाथ-पाँव जोड़कर पीछा छुड़ाया । प्रतिज्ञा की कि ऐसे भाषा वैज्ञानिकों के सामने चुप ही रहेंगे । मगर आदत पड़ी हुई क्या कभी छूटती है ?

मोदी जी के साथ भी यही हुआ । बिना सोचे समझे जिसे देखो पीछे पड़ गया । किसी ने भी इस 'भी' पर ध्यान नहीं दिया । उनकी व्यंजना थी कि कुत्ते के बच्चे के मरने पर 'भी' दुःख होता है तो इंसान के मरने पर दुःख न होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । दिग्विजय सिंह जी ने अपनी बात कहने से पहले ही कहा था कि वे एक जौहरी हैं । और फिर मीनाक्षी नटराजन को 'सौ टंच माल' कहा । अब जौहरी के लिए सौ टंच माल से श्रेष्ठ चीज और क्या हो सकती है ? एक टाइपिस्ट से सुहागरात को उसकी पत्नी ने पूछ- तुम मुझे कितना प्यार करते हो ? टाइपिस्ट ने उत्तर दिया- जितना अपने नए टाइप राइटर से । अब यदि पत्नी उससे इस बात पर झगड़े कि उसे टाइप राइटर क्यों कहा तो आप इसे क्या कहेंगे ? यह आपके भाषा-ज्ञान पर निर्भर करता है ।

चुनाव आ रहे हैं । किसी के पास कोई कल्याणकारी कार्यक्रम और सद्दिच्छा नहीं है । किसी के पास भी सत्कर्मों की दौलत तो है नहीं और न ही जनता के पास कोई विकल्प । अब ले देकर बयानों, आलोचनाओं और गाली-गलौच का ही सहारा रह गया है । एक कहता है- तू चोर है, तो दूसरा कहता है-तू भी तो चोर है । सर्वोच्च न्यायलय यह संज्ञान लेने में सक्षम नहीं है कि जब दोनों ही चोर हैं तो क्यों न इन्हें चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया जाए और जनता को इन्हीं चोरों में से किसी को चुनना है । यदि किसी ने भी वोट नहीं दिया तो सिक्का उछालकर हैड-टेल करके इन्हीं में से कोई न कोई सिंहासन पर बैठ जाएगा । जिस मीडिया को इमेज बनाने का ठेका दिया गया है वही इन्हें, बयानों से ऐसे ही जनहितकारी कीचड़ निकालकर उछालने की, राय देता है । लोकतंत्र का समुद्र-मंथन चल रहा है जिससे निकलने वाले अमृत, कल्पवृक्ष, कामधेनु, लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, ऐरावत आदि देवगण ले जाएँगे; वारुणी पीकर बूथ लेवल के कार्यकर्ता असुर उत्पात मचाएँगे और बचा हलाहल विष जिसे जनता के सिवा और कौन पिएगा ?

जहाँ तक मोदी जी, दिग्विजय जी या किसी और राजनीतिक संत के शब्दों की बात है तो क्या अन्यथा लेना । जिसकी जैसी औकात और नीयत होती है उसके शब्दों का बिना कहे भी वही अर्थ निकलता है जो निकलना चाहिए । जब कबीर स्वयं को 'राम का कुत्ता' कहता है तो कुछ भी अन्यथा समझ में नहीं आता । और इन संतों के कर, मुख, चरण किसी को भी कमल कहे जाने पर कीचड़ के अलावा और कुछ ध्यान में ही नहीं आता ।

इतने प्रवचन के बाद जैसे ही हमने एक कामर्सियल ब्रेक लिया तो देखा कि तोताराम वैसे ही उठकर जा चुका है जैसे कि सत्ताविहीन हो चुके दल को छोड़कर रामविलास पासवान या अजित सिंह चले जाते हैं ।

हमें विश्वास है कि मोदी जी और दिग्विजय सिंह जी हमारे इस आलेख से अपने को 'मतिअंध' कहा गया मानकर नाराज़ नहीं होंगे ।

२६-७-२०१३



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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Aug 13, 2013

गरीबी : एक मानसिकता



जब से राहुल बाबा ने गरीबी को एक मानसिकता मानते हुए कहा है कि इसका रूपए या रोटी की कमी जैसी भौतिक स्थितियों से कोई संबंध नहीं है तब से लोग उनका मज़ाक उड़ा रहे हैं । अब ऐसे लोगों को कौन समझाए कि यह कितना गहरा और गतिशील आर्थिक दर्शन है । मुक्त अर्थव्यवस्था के गहरे पानी में पैठकर निकाला गया मोती है ।

कहते हैं जब संवत १९५६ में भारत में भयंकर अकाल पड़ा था तब लोग अपनी अंटी में रूपए दबाए हुए मँहगाई का रोना रोते-रोते भूखे मरते-मरते ही मर गए । अरे, जब तक पैसे थे तब तक मज़े से मालपुए खाते, उसके बाद उधार लेकर खाते, फिर भीख माँगकर खाते और जब भीख भी मिलनी बंद हो जाती तो चोरी करते, डाका डालते मगर खाते और ठाठ से खाते-पीते । 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्' नाम का भी तो कोई दर्शन है और इसी भारत का है । कुछ भिखारियों को देखिए- दिन भर भीख माँगते हैं लेकिन शाम को दारू पीकर फिल्म देखने जाते हैं । नरेन्द्र मोदी, नीतीश कुमार, सुशील मोदी, शरद यादव आदि के पास क्या कोई पैसे का अभाव है जो आधी-अधूरी दाढ़ी बनाते हैं । गरीबी की मानसिकता जो ठहरी । दाढ़ी बनाने में कंजूसी से कितना फर्क पड़ जाएगा । चार बाल उखाड़ने से क्या मुर्दे का वज़न कम हो जाता है ? लेकिन क्या किया जाए, हजार कोशिशों के बावजूद मन के अन्तरतम में घुसी गरीबी अपना असर दिखा ही देती है । वरना चिदम्बरम जी को देखिए, अरबों रूपए का घाटे का बजट बनाकर भी दिन में तीन बार दाढ़ी बनाते हैं ।

अमरीका एक धनवान देश इसलिए है कि वहाँ लोग कमाने से पहले खर्चने की सोचते हैं, कई-कई क्रेडिट कार्ड रखते हैं और जब तक कोई भी उन्हें उधार देता है, लेते चले जाते हैं और मज़े करते हैं । फूड-स्टाम्प से भोजन की बजाय दारू खरीद लेते हैं । जब अमरीका के ट्विन टावर पर हमला हुआ तो बुश साहब ने कहा था- जाओ, बाजारों में जाओ और खूब खर्चो क्योंकि आज अमरीका पर खतरा है । और एक हमारा देश है कि सारे दिन गरीबी का रोना रोता रहता हैं । जब-तब प्रधान मंत्री मितव्ययिता के उपदेश देते रहते हैं । चमड़ी जाय लेकिन दमड़ी न जाय । एक सेठ ने अपने मुनीम से पूछा- मुनीम जी, हिसाब लगाकर बताइए कि हमारे पास कितनी संपत्ति है ? मुनीम ने कहा- सेठ जी, यदि आपकी सात पीढ़ियाँ भी कभी कुछ न करे और खूब मज़े से रहें तो भी कोई कमी नहीं पड़ेगी । सेठ जी ने घबराकर कहा- तो मुनीम जी आठवीं पीढ़ी का क्या होगा ?

नेहरू जी जब प्रधान मंत्री नहीं बने थे और स्वतंत्रता के आन्दोलन में लगे हुए थे और आमदनी का कोई जारिया नहीं था तब भी दिन में एक बार दाढ़ी ज़रूर बनाते थे । कपड़े भी बढ़िया और टिपटॉप पहनते थे । और एक गाँधीजी को देखिए केवल धोती पहनते थे और वह भी आधी । जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने थे तब वे किसी भी लाभ के पद पर नहीं थे लेकिन दाढ़ी बनाने में कभी कंजूसी नहीं की और एक राहुल गाँधी हैं कि घर मे दो-दो सांसद हैं, और न बीवी-बच्चों का कोई खर्चा फिर भी दो पैसे बचाने के लिए समय पर दाढ़ी भी नहीं बनाते । अमिताभ बच्चन को देखिए, बहू बेटा हीरो-हीरोइन, खुद महानायक हैं, फिल्मों और विज्ञापन से नोट कूट रहे हैं, पत्नी सांसद फिर भी मियाँ कंजूस इतने कि आधी ही दाढ़ी बनाते हैं । मन के गरीब । उत्तराखंड के विपदाग्रस्त लोगों के लिए दान भी दिया तो क्या ? दो पुरानी कमीजें । हैसियत और नीयत में बहुत अंतर है । और हम जानते थे इनके पिताजी को, थे तो मास्टर लेकिन दिन में दो बार दाढ़ी बनाते थे और ठसके से रहते थे ।

सुनते हैं- हैदराबाद के निज़ाम बड़े कंजूस थे । जब भी उनके यहाँ कोई सिगरेट पीने वाला मेहमान आता था तो उसके जाने के बाद वे उसकी पी हुई सिगरेट के ठूँठे उठाकर पिया करते थे । चीनी आक्रमण के समय बहुत से गरीब-अमीर लोगों ने राष्ट्रीय रक्षा कोष में जी खोल कर चन्दा दिया लेकिन निज़ाम साहब ने क्या कहा- मैं गरीब आदमी हूँ , मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है । उस समय एक व्यक्ति ने उन्हें एक पैसे का मनीआर्डर भेजा था ।

हमारे ख्याल से भारत के लोगों की नीयत में ही गरीबी है । एक बार एक आदमी रोटी पर रोटी का ही एक टुकड़ा रखे हुए खाना खा रहा था । रोटी का कौर तोड़ता, रोटी पर रखे टुकड़े से छुआता, कौर को मुँह में रखता और फिर सी-सी करता । दूसरा आदमी उसे देख रहा था । उसे बहुत आश्चर्य हो रहा था । उसने रोटी खा रहे आदमी से पूछा- सी-सी क्यों कर रहे हो ? वह बोला- मिर्च बहुत तीखी है । उसने फिर पूछा- मिर्च तो कहीं दिखाई नहीं दे रही है । पहले वाला आदमी कहने लगा- सब्जी नहीं है इसलिए मैं मिर्च की कल्पना करते हुए रोटी खा रहा हूँ । दूसरे ने कहा- भले आदमी, जब कल्पना ही कर रहे हो तो मिर्च क्यों, रबड़ी की कल्पना करो । पहले ने कहा- नहीं, भाई, मैं गरीब आदमी हूँ । रबड़ी की कल्पना करने की मेरी हैसियत नहीं है । तो यह है वह गरीब मानसिकता जिसकी ओर राहुल बाबा संकेत कर रहे थे । सुनते हैं जय ललिता के पास दस हजार साड़ियाँ और साढ़े सात हजार सेंडिल हैं लेकिन इतनी कंजूस हैं कि कभी एक साथ दो साड़ियाँ और दो जोड़ी सेंडिल नहीं पहने ।

अब एक ऊँचे, सकारात्मक और धनवान मानसिकता वाले रईस का उदाहरण देखिए । एक बार एक बच्चा हाँफते हुए घर पहुँचा और अपने पिता से बोला- पिताजी, आज मैंने दो रूपए बचा लिए । पिता ने पूछा- कैसे ? बेटे ने उत्तर दिया- आज मैं, रिक्शे से घर आने की बजाय एक रिक्शे के पीछे-पीछे दौड़ता हुआ घर आ गया । खानदानी रईस पिता ने उसे एक झाँपड़ मारते हुए कहा- गधे के बच्चे, करवा दिया ना खानदान की इज्ज़त का कचरा । लोग क्या समझ रहे होंगे । अगर दौड़ना ही था तो कम से कम टेक्सी के पीछे तो दौड़ता । बचत भी की तो दो रूपए की । टेक्सी के पीछे भागता हुआ आता तो बीस रूपए बचते । करा दिया ना अठारह रूपए का नुकसान । हम खानदानी रईस हैं । कभी छोटी-मोटी बचतों के पीछे नहीं जाते ।

सो हमें चाहिए कि अपनी गरीबी वाली मानसिकता छोड़ें और टेक्सी के पीछे भाग-भाग कर अपना आर्थिक स्तर बढ़ाएं । गरीबी का रोना रो कर भावी प्रधान मंत्री को दुखी और देश को बदनाम न करें । इसी सकारात्मक और समृद्ध चिंतन के चलते सोचते हैं कि सत्रह हज़ार रूपए मासिक की इस मोटी पेंशन का आखिर करेंगे क्या ? कब तक बसों में धक्के खाकर गरीबी का नाटक करते रहेंगे । एक-दो प्लेन खरीद ही लें ।

७ अगस्त २०१३

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