Feb 27, 2010

होली और संस्कारों का प्रह्लाद



माघ मेला -- हाड़ कँपा देने वाली ठण्ड में ब्रह्ममुहूर्त में गंगा-स्नान । चेतना पर पड़ी भौतिकता की बर्फ के विरुद्ध संकल्प का पर्व । अपने आप से निकलकर सृष्टि के विस्तार में परमेश्वर की अनुभूति का उत्सव ।

मकर संक्रांति -- प्रकृति के सुषुप्तावस्था से निकल कर जागरण की ज्योति में स्नान करने की सीमा-रेखा । निष्क्रियता से सक्रियता में गतिशील होने का बिंदु । इसी बिंदु से प्रारंभ होती है सृष्टि के सृजन-संकल्प की उत्सव-शृंखला । महाभारत-युद्ध के बाद शरशैया पर इसी पुण्य लग्न की प्रतीक्षा करते लेटे थे पितामह भीष्म ।

प्रकृति भी जैसे शीत-समाधि से निकलकर करवटें बदल कर जागने का उपक्रम करने लग जाती है । निराला इसी के स्वागत में गाते हैं- 'द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र ।' नव किसलयों का मार्ग प्रशस्त करने के लिए जीर्ण पत्रों को झरना ही पड़ता है । तभी नव युग के नव विहग वृंद के नव पर नव स्वर मुखरित होंगे ।

इसी क्रम में सबसे पहले आती है शिव-रात्रि । शिव-पार्वती का प्रतीक तो है ही सृजन का प्रतीक । शिव कल्याण के देवता हैं । पता नहीं क्यों कुछ रूढ़ विचारकों ने उन्हें संहारक की भूमिका तक ही सीमित कर दिया । उनका संहार होता ही विकृतियों के ध्वंस पर नई कल्याणकारी सृष्टि का सृजन करने के लिए है । सृजन की ऊर्जा और उसको संतुलित करने का स्पष्ट विधान शिव की आराधना में मिलता है । शिव-लिंग पर जलाभिषेक उसी का प्रतीक है ।

सर्वशक्तिशाली और रुद्र होते हुए भी, शिव सर्वत्र शांत और संतुलित नज़र आते हैं । जब काम का अमंगलकारी रूप उन्हें नहीं सुहाता तो वे उसे भस्म कर देते हैं । 'मानस' में 'काम' की अति का वर्णन करते हुए तुलसी दास जी लिखते हैं-
'अबला विलोकहिं पुरुषमय, जग पुरुष सब अबलामयं ।'
यह तो मर्यादा के लिए अभिप्रेत नहीं है । काम-दहन करके शिव काम का निषेध नहीं कर रहे हैं वरन इस दुर्निवार ऊर्जा को साधने का विधान कर रहे हैं ।

इसी समय में प्रकृति अंगड़ाई लेकर जाग उठाती है । नई कोंपलों में उसके नेत्र निमीलित होते हैं । पलाशवन रक्त कुसुमों से दावाग्नि-दग्ध हो उठता है । पृथ्वी सूर्य के चारों और एक परिभ्रमण पूर्ण कर एक नई इकाई में प्रविष्ट होती है । वृक्षों में उनके तनों में इसके प्रमाणस्वरूप एक नया वलय बनता है । होली आते-आते सृष्टि अपनी समस्त जीर्णता त्याग कर एक नए रूप, एक नई ऊर्जा और एक नई कामना से पूर्ण होकर सृजन के लिए तत्पर होती है ।

हमारे सभी पर्व प्रकृति के साथ-साथ चलते हैं । उन सब की चरम परिणति होली के उत्साह और उल्लास में होती है । होली स्वयं से निकल कर सब में समा जाने का उपक्रम है । कुंठाओं से मुक्त होकर इसी धरती पर वैकुंठ उतार लाने का विधान है । परिवेश और आत्मा का समस्त कूड़ा-कर्कट जलाकर एक नया अध्याय शुरु करने का अवसर है । मगर यह भी विधान है कि होलिका-दहन में संस्कारों का प्रह्लाद सुरक्षित रहे ।

जब होलिका-दहन का 'डांडा' गाड़ा जाता है तो उसके बाद कई दिनों तक गोबर के बडकुल्लों के साथ ही सारे गाँव का कूड़ा-कर्कट भी उस 'डांडे ' के चारों तरफ इकठ्ठा कर दिया जाता है । यह 'डांडा' प्रह्लाद का प्रतीक है । पूर्णिमा को तय लग्न में होलिका-दहन के तत्काल बाद प्रह्लाद के प्रतीक उस 'डांडे' को निकाल लिया जाता है । यही प्रयत्न है कि कल्मष और कुंठा की होलिका का दहन तो हो पर संस्कारों के प्रह्लाद को कोई आँच नहीं आये ।

कुछ कुंठित लोग इसे रिश्तों की शालीनता को तोड़ने का एक मौका समझते हैं । तभी होली के बाद विवेक की देवी सरस्वती की अराधना का पर्व आता है । उल्लास में हमारी मर्यादा स्खलित न हो यही विवेक है, यही संस्कृति है । इसीलिए इसी के बाद आती है 'राम-नवमी' । मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अवतरण का दिन । 'रामायण' में जब सुग्रीव सीता द्वारा फेंके गए आभूषण राम के सामने प्रस्तुत करते हैं और उन्हें पहचानने के लिए कहते है तो लक्ष्मण कहते हैं-
नाहं जानामि केयूरे, नाहं जानामि कुण्डले ।
नूपुरे त्वाभिजानामि नित्यं चरण वंदनात् ॥
अर्थात् न मैं बाजूबन्दों को जानता हूँ और न ही कुण्डलों को । मैं तो प्रतिदिन चरण-वंदना करने के कारण भाभी के दोनों नूपुरों को ही पहचान सकता हूँ । रामचरित मानस में राम और शिव की युति यों ही नहीं है वरन मर्यादा की चरम परिणति का निर्देश करने के लिए भी है ।

भारतीय चिंतन-धारा जहाँ एक तरफ विष्णु के लीला-अवतार कृष्ण को छूती है वही दूसरी और विष्णु के ही अवतार राम की मर्यादा के तट को छूती है । इन्हीं दोनों किनारों के बीच बहने वाली चिंतन और चेतना-धारा ही कल्याणकारी हो सकती है । तटों को तोड़ने के बाद तो नदी माँ कहाँ रहती है वह तो डायन हो जाती है । और विनाश का कारण बनती है । समस्त लीलाओं के बावजूद कृष्ण कहीं मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते । यही विशेषता उन्हें अवतार और हमारा आराध्य बनाती है । राम में तो खैर मर्यादा की चरम सीमा है ही । पुष्प वाटिका में राम और सीता का मिलन, स्वतंत्रता के नाम पर चल पड़ी स्वच्छंदता के इस समय में एक दुर्लभ किन्तु अनुकरणीय उदहारण है । सप्तपदी के समय भी सीता राम के रूप को कंगन के नगों में ही निहारती है । चाणक्य कहते है कि राजा को जितेन्द्रिय होना चाहिए । 'जितेन्द्रिय' राजा का राज ही 'रामराज्य ' हो सकता वरना तो आजकल बड़े-बड़े महामहिमों की लम्पट-लीलाएँ संस्कृति को लज्जित ही करती हैं ।

सृष्टि के सृजन-संकल्प की यह उत्सव शृंखला-- शिव-रात्रि, होली, सरस्वती-पूजा और रामनवमी हमें सृजन में भी संयम, उल्लास में भी अनुशासन और विलास में भी विवेक के संस्कार देने के लिए है । सृजन से विसर्जन तक के चारों पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी संस्कारों और विवेक की प्रक्रिया से गुजरे बिना हासिल नहीं होते ।

ये पर्व, यह उत्सव-शृंखला हमें उन्हीं संस्कारों की और प्रेरित करे, यही अभीप्सित है ।

२६-२-२०१०

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Jhootha Sach

Feb 23, 2010

अतिथि देवो भव

'अतिथि देवो भव' - यह भारत का आदर्श वाक्य है । यहाँ अतिथि को भगवान का दर्ज़ा दिया गया है । अतिथि का अर्थ होता है- अ-तिथि, बिना तिथि, वह व्यक्ति जो बिना सूचना और निमंत्रण के आपके द्वार आ टपकता है । ओबामा ने मनमोहन को भोज दिया । करीब पाँच सौ अन्य लोगों को भी न्यौता गया । अब इन्हें अतिथि कैसे मानें ? जब कि पहले से ही इनको बुलाने का कारण और उसमें छुपी कूटनीति तय थी । सब की टेबिलें और कौन, किसके पास बैठेगा यह भी तय था । हो सकता है कि विशेषज्ञों ने यह भी तय करके दे दिया हो कि कौन कितनी रोटियाँ और कितनी सब्जी खायेगा । गेट पर सबके पास, फ़ोटो देखे गए और शायद मशीनों से यह भी देख लिया गया हो कि किसके पेट और वस्त्रों में कौन से घातक पदार्थ छुपे हैं । जब इतनी सारी बातें पहले से तय हों तो इन्हें अतिथि कैसे माना जा सकता है ।

साहब, अमरीका कहने को ही धनवान देश है हमें तो लगता है कि उसका मन बहुत छोटा है । अपने यहाँ तो अगर कोई सवामणी करता है तो पहले से अनुमान लगा लेता है कि इतने लोग तो बिना बुलाये आयेंगे ही और इतने लोग एक न्यौते में एक आध एक्स्ट्रा को भी लायेंगे ही । कितना मार्जिन रखना पड़ता है ! और वहाँ ओबामा द्वारा मनमोहन को दिए गए भोज में दो प्राणी एक्स्ट्रा क्या आ गए कि सारी दुनिया में हल्ला मच गया । अब सुना है कि इन बेचारों को वहाँ कि जाँच एजेंसी ने पूछताछ के लिए भी बुलाया गया है । एक तो बचारे डिजाइनर कपड़े सिलवा कर, अपना पेट्रोल फूँक कर गए ऊपर से यह फजीता । जब अपने लिए कोई टेबल रिज़र्व नहीं देखी तो चुपचाप एक ड्रिंक लेकर चले गए । हम तो इस 'सलाही' दंपत्ति की सलाहियत पर फ़िदा हैं । वरना भी साहब, अपने यहाँ तो ऐसे ऐसे बेतकल्लुफ लोग आ जाते है जो पहचान लिए जाने पर भी नीची गर्दन करके खाते रहते हैं और पूरा पेट भरकर ही जाते हैं । और मौका लगे तो दो-चार लड्डू जेब में रखकर भी ले जाते हैं ।

हम तो किसी के यहाँ जीमने जाते है तो पहले हिसाब लगा लेते है कि आने-जाने में ओटो का इतना खर्च होगा, गिफ्ट यदि देनी ही पड़े तो कम से कम कितना खर्चा होगा और हम कितने का माल खा पायेंगे । यदि हिसाब-किताब में किसी तरह का घाटा नज़र आए तो अस्वस्थता या व्यस्तता का बहाना बना देते हैं । जहाँ निमन्त्रितों की ही तलाशी ली जाए वहाँ अनिमंत्रितों के सात - जो कि सच्चे अतिथि होते हैं - पता नहीं कैसा व्यवहार किया जाए । हमें तो यदि ओबामा नाश्ते पर बुलायेंगे तो हम तो आने-जाने का किराया एडवांस रखवा लेंगे और जाने से पहले दस बार कन्फर्म करेंगे वरना क्या पता वहाँ पहुँचने के बाद कह दें कि हमने तो जे.रमेश मतलब जयराम रमेश को बुलाया था जोशी रमेश को नहीं ।

अरे भई, जब इतना ही डर लगता है तो काहे की दावत और कैसा जलसा । भिजवा देते मनमोहन जी को पार्सल से परोसा और कर लेते टेलीफोन पर वार्ता । सस्ते में काम हो जाता । अब कहाँ का 'अतिथि देवो भव' । अब तो न्यौता देकर बुलाये गए लोगों की भी मीडिया वाले रोटियाँ गिनते हैं । ऐसे में आदमी क्या ख़ाक खाना खाए । हमारे यहाँ तो भोजन, भजन और भोग सब एकांत के विषय हैं । पर अब तो हरेक भोज से पहले यहाँ तक छपता है कि अमरीका के किस राष्ट्रपति ने भारत के किस प्रधानमंत्री को कब भोज दिया और उसमें क्या-क्या और कितने व्यंजन बनाये गए । यार, खाना खिला रहे हो या एफ.आई.आर. दर्ज कर रहे हो ।

वैसे हमारी इन बातों में कोई खास रुचि नहीं है । हमारी रुचि तो मिशेल ओबामा द्वारा व्हाईट हाउस में उगाई गई सब्जियों के स्वाद में है । कल्पना मात्र से ही मुँह में पानी आ रहा है ।

०२-१२-२००९

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Jhootha Sach

Feb 18, 2010

बुरे फँसे,थरूर जी


थरूर जी,

हमारी ओर से नए साल की बधाई और हार्दिक संवेदनाएँ । आप जब भी कुछ बोलते हैं या अपने ट्विट्टर पर टर्राते हैं तो लोग कुछ न कुछ बहाना बना कर आपकी टाँग खींचने लग जाते हैं । पहले 'केटल क्लास' क्या कह दिया, लोग पायजामें से बाहर हो गए जैसे किसी महाराजा को मवाली कह दिया हो । इस देश के अधिकतर लोग मवेशी नहीं हैं तो और क्या हैं ।

अमरीका में दो तरह की मक्का होती है । एक आदमियों के खाने की और दूसरी जानवरों के खाने की । अपने यहाँ तो एक ही प्रकार की मक्का होती है जिसे आदमी और जानवर समान भाव से खाते हैं । यहाँ पता नहीं, आदमी का स्तर गिर गया है या जानवरों का स्तर ऊँचा हो गया है पर यह तय है कि दोनों एक ही लेवल पर आ गए हैं । कनाडा में भी दो तरह की मटर होती हैं- एक जानवरों के खाने की और एक मनुष्यों के खाने की । उस मटर की दाल की शक्ल कुछ-कुछ तूअर दाल जैसी होती है । सरकार तूअर दाल के लिए हाय-हाय मचाने वाले भारतीयों के लिए वही जानवरों के खाने वाली कनाडा की सस्ती मटर मँगा रही है । अब इसे क्या कहेंगे ? जब आप यहाँ के ग़रीबों को केटल की उपमा दें तो हल्ला और जब सरकार इनको खिलाने के लिए जानवरों वाली दाल मँगाए तो कुछ नहीं । आपने तो उपमा अलंकार का प्रयोग किया था पर सरकार ने तो यहाँ के मनुष्यों को ओफिसियली जानवर स्वीकार कर लिया है और उनके लिए बाकायदा जानवरों के खाने वाली दाल मँगाई जा रही है । आपने तो अमरीका में रहते हुए आदमियों के खाने वाली मक्का ही खाई होगी । हमें तो बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी । मीठी-मीठी सी, पिलपिली सी, लिजलिजी सी ।

ईसाई धर्म में तो मनुष्यों को भगवान की भेड़ें ही माना गया है । इन्हीं भेड़ों की ऊन उतारने के लिए तरह-तरह के धार्मिक सज्जन सारी दुनिया में घूम रहे हैं । लोग अपने नाम के आगे 'सिंह' लगाते है । कोई उनसे पूछे - सिंह का अर्थ क्या मनुष्य होता है ? सोरव गांगुली और मंसूर अली खान (सैफ अली खान के पिताश्री ) को लोग 'टाइगर' कहते हैं पर वे साहित्य और अंग्रेजी समझते हैं इसलिए नाराज़ नहीं हुए । हम भी भाषा के अध्यापक रहे हैं, भले ही अंग्रेजी के न सही । भाषा के मामले में इस देश में बड़ी समस्याएँ आती हैं । लोग भाषा नहीं समझते और साहित्यिक भाषा तो बिल्कुल भी नहीं । और साहित्यिक अंग्रेजी तो बिल्कुल-बिल्कुल भी नहीं । और आप लाचार हैं अपने लेखक होने और अंग्रेजीदाँ होने से । तो भुगतो भाई ।

अभी पिछले दिनों आपने नेहरू जी के बारे में कुछ क्या कह दिया, लोगों ने बिना सोचे-समझे बवाल खड़ा कर दिया । अब नेहरू जी होते तो आपकी अंग्रेजी समझते । अंग्रेजी को सही न समझने वाले लोग किस तरह से परेशानी खड़ी कर देते हैं, इसके लिए हम आपको कुछ लोककथाएँ सुनायेंगे जिससे आपको भारत के अंग्रेजी के लोकानुभावों का पता चलेगा । उससे आपको अंग्रेजी और लोक के सम्बन्ध का ज्ञान होगा जायेगा जो आपके आगे काम आएगा- ट्विटर पर टर्राने में ।

पर पहले हम हिन्दी से जुड़ा एक अनुभव बताना चाहेंगे । उन दिनों हम दिल्ली में थे । बहस तो आजकल गाँवों तक में होने लगी है सो दिल्ल्ली तो राजधानी है । स्टाफ रूम में बात हिन्दी ज्ञान की चल रही थी । भाग लेने वालों में एक उत्तर प्रदेश के सज्जन भी थे । हमने कहा- भाई, उत्तर प्रदेश का तो कुत्ता भी हिन्दी जानता है । वे सज्जन हम पर चढ़ दौड़े- आप उत्तर प्रदेश वालों को कुत्ता कहते हैं । हम में काटो तो खून नहीं । हमने तो अपने हिसाब से उत्तर प्रदेश के हिन्दी ज्ञान की प्रशंसा की थी और तिस पर सुनने को यह मिला । अब आप अनुमान लगा लीजिये कि भारत में अंग्रेजी की टाँग तोड़ने वालों को किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता होगा ।

किसी गाँव में एक लड़का रहता था । वह अपने गाँव का सबसे ज्यादा अंग्रेजी पढ़ा हुआ बालक था-छठी पास । वह जब गाँव के लोगों से अंग्रेजी में बातें करता तो लोग कुछ नहीं समझते । लड़का बहुत परेशान रहता । एक बार उस गाँव में एक अंग्रेज भटकता हुआ आ गया और लोगों से अंग्रेजी में कुछ कहने लगा । लोग कुछ नहीं समझे । तब उन्हें उस लड़के की याद आई । लड़के को बुला कर लाये और कहा - अब इस अंग्रेज से बात कर । लड़के ने भिड़ते ही गाय पर दस वाक्य उस अंग्रेज को सुना दिए । अंग्रेज पहले तो हक्का बक्का रह गया फिर अंग्रेजी में और कुछ बोला । लडके ने स्कूल में याद की हुई 'बीमारी के कारण तीन दिन की छुट्टी की अप्लीकेशन' फटाफट सुना दी । अब तो अंग्रेज को गुस्सा आ गया । उसने लडके को एक झांपड़ रसीद कर दिया । लोगों ने मजाक उड़ाते हुए कहा- 'देख लिया ना । बहुत अंग्रेजी झाड़ता था ।' लड़के कहा- उसने अंग्रेजी में कमी के कारण झांपड़ नहीं मारा । वह तो कह रहा था- मूर्ख, इतनी अच्छी अंग्रेजी जानते हुई भी तू यहाँ इन जाहिलों में क्यूँ पड़ा है । चल मेरे साथ इंगलैंड । पर मुझे गाँव से बहुत प्रेम है सो में गाँव छोड़ कर जाना नहीं चाहता ।

इसी तरह अंग्रेजी की एक और लघु कथा है- एक सियार किसी शहर में जाकर नब्बे घंटे में अंग्रेजी बोलने का प्रमाण-पत्र ले आया और अपनी पत्नी पर रौब ज़माने लगा- 'अब मैं अंग्रेजी जान गया हूँ । दूसरे देशों का तो पता नहीं, पर भारत में मुझे कोई ऐसे-वैसे टरका नहीं सकता । यह देख प्रमाण-पत्र मतलब कि पट्टा ।' तभी शहर की तरफ से कुछ कुत्ते दौड़ते हुए आये । सियार सिर पर पैर रख कर भागा । पत्नी ने कहा- 'ए जी, आप भाग क्यों रहे हैं । इनको अपना पट्टा दिखाते क्यों नहीं ।' सियार ने दौड़ते हुए कहा- 'ये तो अनपढ़ लोग हैं । अंग्रेजी क्या समझेंगे । इनके मुँह लगने से कोई फायदा नहीं । भागने में ही सार है ।' सो भाई साहब, ये भारत है । इसलिए यहाँ दूसरी ही अंग्रेजी चलती है ।

हमारे हिसाब से तो आप संयुक्त राष्ट्र संघ में ही मज़े में थे । आराम से अच्छी तनख्वाह पेलते और किताबें लिखते और ट्विटर पर टरटराते । संसद रहते हुए किताबें और वह भी अंग्रेजी में लिखकर तो अडवानी जी और जसवंत सिंह तक चक्कर में पड़ गए । हमारी मानो तो छोड़ो यह लोकसभा की सदस्यता और दे दो इस्तीफा । पेंशन तो मिलेगी ही, मुफ़्त की यात्रा और मेडिकल फेसेलिटी ऊपर से । जहाँ तक खाने का सवाल है दिल्ली में संसद के आसपास ही कहीं बस जाइए और दोनों समय खाना खाइए साढ़े-बारह और साढ़े बारह रुपये मतलब कि पच्चीस रुपये रोज़ में । और क्या चाहिए ?

यहाँ के आटे, दाल, प्याज़,आलू, चीनी के भाव बताकर हम आपका मूड बिना बात खराब नहीं करना चाहते ।

१२-१-२०१०

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Jhootha Sach

Feb 17, 2010

मायावती की सुरक्षा-व्यवस्था और रोज़गार-सृजन योजना


मायावती जी,
नमस्कार । हम तो आपके प्रशंसक हैं ही और अब जब आपने मूर्तियों की सुरक्षा व्यवस्था के लिए सुरक्षा बल गठित करने की घोषणा की तो हम तो आपके भक्त ही हो गए । पर हम अंधभक्त नहीं हैं । हम तो आराध्य के गुण दोषों को परख कर फ़ैसला करते हैं । देखा-देखी जय बोलने वाले हम नहीं हैं ।

यूँ तो गणतंत्र दिवस पर तथाकथित जनकल्याणकारी योजनाओं की घोषणाएँ करने की परंपरा है पर हम इन घोषणाओं की पोल जानते हैं । पर २६ जनवरी २०१० को आपने अपनी, कांसीराम जी और अम्बेडकर जी की मूर्तियों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा बल गठित करने की जो घोषणा की है वह एकदम अनोखी, धाँसू और छाती पर चढ़कर बोलने वाली है । सिर पर चढ़ कर बोला हुआ क्या पता ऊपर ही ऊपर निकल जाये पर छाती पर चढ़ कर बोला गया तो सुनना ही पड़ता है । जब आप मूर्तियाँ लगवा रही थीं तो लोग कितनी तरह की बातें कर रहे थे- देश के धन का अपव्यय है, मायावती अपने प्रचार के लिए जनता का पैसा फूँक रही है । अब उन्हें समझ में आ गया होगा कि यह प्रदेश के पिछड़ों को रोज़गार देने का एक कल्याणकारी कार्यक्रम था । ये हावर्ड से पढ़कर आये लोग क्या समझें । ये देशी नुस्खे हैं- सस्ते, सुन्दर और टिकाऊ । पर हम तो जानते थे कि आप प्रचार पाने के ऐसे फालतू तरीकों में जनता का पैसा खर्च नहीं कर सकती । अब देखिये ना, हो गई सबकी बोलती बंद ।


इस तरीके से हम बिना प्रदूषण फैलाए ही अपने देश के सभी लोगों को ही नहीं, दुनिया के सभी बेरोजगारों को रोज़गार दे सकते हैं । भारत में नए-पुराने करके कोई एक सौ नेता और नेतनियाँ तो ऐसे होंगे ही जिनकी पूजा करके इस देश की जनता प्रेरणा, गौरव और शांति प्राप्त कर सके । और बारह सौ लोगों के बीच कम से कम एक मूर्ति तो चाहिए ही । और एक सौ प्रकार की महान विभूतियों की एक-एक मूर्ति तो लगेगी ही । इस प्रकार हमें अपने देश में ही सवा करोड़ मूर्तियाँ चाहियें । इसके बाद जैसे-जैसे और लोग महान होते जायेंगे वैसे-वैसे आवश्यकता भी बढ़ती जायेगी । इस प्रकार यह मूर्ति बनाने का, लगवाने का, उनकी रक्षा का, साफ़-सफ़ाई का, पूजा का काम इतना बड़ा है कि कल्पना करके ही चक्कर आने लग जाते हैं जैसे कि भगवान का विराट रूप देखकर अर्जुन को आने लगे थे ।

हमें लगता है कि इस योजना से सारे संसार के लोगों को काम मिल जायेगा । इसके बाद भी लोग कम पड़ जायेंगे । तब तो लोगों को ज्यादा से ज्यादा जनसंख्या बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देना पड़ेगा । हमें लगता है कि तब भी आपूर्ति नहीं हो पाएगी । तब हो सकता है हमें मानव संसाधन के लिए अन्य ग्रहों में खोज करनी पड़े ।

अभी देश में जितनी मूर्तियाँ, पूजास्थल हैं वे कम पड़ रहे हैं । देश की जनसंख्या के हिसाब से इनकी संख्या नहीं बढ़ रही है । इसीलिए समाज में अशांति और तनाव है । यह तो आजकल डाक्टर भी मानने लगे हैं कि पूजा और भक्ति से मानसिक तनाव दूर होता है । पर आज तक किसी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया । आपने ध्यान तो दिया पर आपके पास इतने साधन भी तो नहीं हैं । इसके लिए वर्ल्ड बैंक से कर्जा लिया जाना चाहिए ।

कुछ लोग कहते हैं कि भगवान तो हमारे मन में है । उसकी मूर्तियाँ बनाने से क्या फायदा । ब्रह्म तो निर्गुण है, निराकार है, अनाम है, अरूप है । हिंदू लोग तो काफ़िर हैं । मूर्ति पूजते हैं । इनसे कोई पूछने वाला हो अरे भाई, तो फिर तुम क्यों काबा, हरमिंदर साहब, गया, चर्च, येरुसलम जाते हो । क्यों चर्चों, मस्जिदों, मंदिरों, पुस्तकों पर हमले से उबल पड़ते हो । यह सब मूर्ति पूजा नहीं तो और क्या है । मूर्ति की शक्लें अलग-अलग हो सकती हैं । वहाँ जाकर धंधा तो सब वही करते हैं । वह निर्गुण क्या बिना जीव और जगत के तुम्हारी समझ में आ जायेगा । अरे ब्रह्म के होने का पता तुम्हें किससे लगता है ? माया से ।

माया ही ब्रह्म का प्रकट रूप है । वह भी उतनी ही आराध्या है जितना कि ब्रह्म । कुछ लोग इस तथ्य को नहीं समझ पाते और कभी ब्रह्म और कभी माया की तरफ भागते हैं । और इस चक्कर में उन्हें कुछ भी नहीं मिलता । तभी कहा गया है ना- दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम । आपने जो मूर्तियाँ बनवाई हैं वे दोनों का समन्वय हैं- माया (वती) और (कांसी) राम ।

किसी भी देश में जनता को दो ही चीजें चाहियें- रोज़गार और सुरक्षा । और बाकी नाचने, गाने, लड़ने, झगड़ने, मरने, मारने, बीवी को पीटने और बच्चे पैदा करने के मामले में भारत की जनता स्वावलंबी है । इसके लिए उसे किसी विदेशी तकनीकी की ज़रूरत नहीं है । आज तक दुनिया के किसी देश ने अपनी जनता को रोज़गार देने के लिए इतनी बड़ी, सरल, पारदर्शी, और एक साथ ही आध्यात्मिक और भौतिक योजना नहीं बनाई ।


इस योजना से रोजगार मिलने की विपुल संभावनाएँ तो सिद्ध हो गईं । अब सुरक्षा की बात करें । प्राचीन काल में कहते हैं कि यह देश विकसित था, सोने की चिड़िया था । पर इसका कारण कोई नहीं जानता । इसका सीधा सा कारण था कि यहाँ दुनिया में सबसे ज्यादा मूर्तियाँ थीं । इस देश की उन्नति से जलने वाले लोग दूसरे देशों से आये और यहाँ की मूर्तियों को तोड़ डाला क्योंकि उस काल के अदूरदर्शी राजाओं ने मूर्तियों की सुरक्षा के लिए लोगों को कोई प्रशिक्षण नहीं दिया । जो अपनी मूर्तियों की रक्षा नहीं कर सकता वह देश गुलाम नहीं होगा तो और क्या होगा । इसलिए यह देश गरीब और गुलाम हो गया । अपनी रक्षा करने लायक भी नहीं रहा । किसी तरह गाँधी जी की पूजा करके आज़ाद हुआ । फिर तो देश में मूर्तियाँ लगाने का सिलसिला चालू हुआ तो अब देख लीजिए हम दुनिया की एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था बन गए हैं । चीन और पकिस्तान की छोटी-मोटी छेड़छाड़ के अलावा देश पर कोई हमला नहीं हुआ । जब इतनी मूर्तियाँ होंगी, उनकी सुरक्षा व्यवस्था होगी तो लोगों को सुरक्षा करने का अनुभव होता जाएगा तो वे देश की ही नहीं अपनी रक्षा भी अच्छी तरह से कर सकेंगे ।

काबुल में लोगों ने बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ तो बनवा लीं पर सुरक्षा की व्यवस्था नहीं की तो लोगों ने तोड़ ही डाली ना । इसलिए जितना मूर्तियाँ बनवाना ज़रूरी है उतना ही सुरक्षा व्यवस्था करना भी ज़रूरी है । मूर्तियों के बारे में हम आपको एक सलाह और देना चाहते हैं । आप अमरीका नहीं गईं । हम जाकर आये हैं । हमने वहाँ कई राष्ट्रपतियों की मूर्तियाँ पहाड़ों में उकेरी गईं देखी हैं जैसे कि काबुल में बुद्ध की मूर्तियाँ जिन्हें तालिबानों ने तोड़ दिया था ।

अमरीका में कोई राष्ट्रपति तीन-तीन बार राष्ट्रपति नहीं बना और जिन की मूर्तियाँ बनी हैं उनके समय अमरीका की जनसँख्या यू.पी. के बराबर भी नहीं थी । आप तीन-तीन बार यू.पी. की मुख्य मंत्री बनीं तो इस उपलब्धि के लिए क्या आपकी मूर्ति किसी पहाड़ पर नहीं उकेरी जा सकती ? पर क्या बताया जाये सारे पहाड़ तो उत्तरांचल में चले गए । बुंदेलखंड में कुछ पहाड़ बचे हैं तो आप बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने की बात कह रही हैं । बुंदेलखंड बने उससे पहले किसी पहाड़ पर पहले अपनी मूर्ति तो उकेरवा लीजिए । वैसे समय का कुछ पता नहीं । ईराक में सद्दाम की मूर्तियों को तोड़ कर घसीटा गया । रूस में मार्क्स की मूर्तियाँ हटवा दी गईं । कुछ निराशावादी लोग कहते हैं-

बादे फ़ना फजूल है नामो निशाँ की फ़िक्र
जब हम नहीं रहे तो रहेगा मज़ार क्या ।
पर इतनी सी बात के लिए वर्तमान कर्तव्य को तो नहीं छोड़ा जा सकता न ।

इसलिए भले ही आपसे जलने वाले कुछ लोग इसका विरोध करें । पर हम पूरे मन से आपके साथ हैं । अगर ज़रूरत हो तो हम आपका मुक़दमा भी लड़ सकते हैं पर क्या बताएँ हमारे पास डिग्री नहीं है । फिर भी हम आपके पक्ष में लेख तो लिख ही सकते हैं । पर सारे अखबार और पत्रिका वाले तो मनुवादी हैं । आपके पक्ष में हमारा लिखा हुआ कौन छापेगा । पर हम छपने के लिए सत्य के साथ समझौता तो नहीं कर सकते ।

इस सन्दर्भ में हम आपको यह भी बताना चाहते हैं कि हमने कई महीनों पहले आपको एक पत्र लिखा था जिसमें हमने बताया था कि कैसे मूर्तियाँ लगवाने और उनकी रक्षा के लिए गार्ड नियुक्त करके किस प्रकार देश की बेरोज़गारी की समस्या हल की जा सकती है । पहले तो हम यही सोचते रहे कि पत्र आपके तक पहुँचा नहीं होगा इसीलिए तो कोई कार्यवाही नहीं हुई । और बेकार में ही डाक विभाग वालों को दोष देते रहे । हम उनके भी आभारी हैं कि उन्होंने पत्र पहुँचा दिया । और आपके भी कि आपने ऐसे अच्छे सुझाव को महत्व देकर उस पर ठोस कार्यवाही भी की ।

क्या इस उपलब्धि के प्रचार के लिए, बेरोजगार व असुरक्षित लोगों के कल्याण की योजनाओं पर समर्थन जुटाने के लिए एक अखबार नहीं निकाला जा सकता ? हमारी प्रतिभा का अनुमान तो आपको हमारे सुझावों से हो ही गया होगा । हमसे अधिक योग्य व्यक्ति ऐसे अखबार के लिए और कौन हो सकता है । हम इसके लिए अपनी संपादकीय सेवा देने के लिए तैयार हैं । संपादकों ने हमारी बहुत सी रचनाएं लौटाई है । हम उनसे तो बदला नहीं ले सकते पर यह कुंठा किसी और पर तो उतार ही सकते हैं ।

२-२-२०१०

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Jhootha Sach

इंग्लिश की माया


मायावती जी एंड चन्द्रभान जी,
नमस्कार । १७-१-२-१० को अखबार में समाचार पढ़ा । दिल गार्डन-गार्डन हो गया । हम तो एकदम लम्बलेट हो गए मतलब कि फ्लेट हो गये । अब तक तो हम आपके ही मुरीद थे पर अब तो चन्द्रभान जी के भी फैन हो गए । चाहते तो हम उन्हें इंग्लिश में पत्र लिख सकते थे पर हम जानते है कि हमारी इंग्लिश कितनी कठिन होती है । हमारी इंग्लिश से डरकर ही हमें और हमारे दो साथियों को हमारे गुरुजनों ने इतना निरुत्साहित किया कि हमने हिन्दी को अपना लिया और जीवन भर पंडित जी कहलाते रहे । न तो ट्यूशन ही मिली और न ही रुतबा । हम अपनी हिन्दी भक्ति को देश भक्ति का कोई महान काम समझते रहे । हिन्दी में एम.ए. किया और मेरिट में भी आ गए । पिताजी को जब यह समाचार सुनाया तो वे बोले- अंग्रेजी में एम.ए. करते तो कोई बात थी । हमें बड़ा गुस्सा आया । पर आज समझते हैं कि वे कितना सही कहते थे ।

तो हम अपने तीन साथियों की अंग्रेजी से गुरुजनों के जलने की बात बताते हैं । हमारे एक मित्र के पास हिंदी से अंग्रेजी की डिक्शनरी थी वह उसमें से अंग्रेजी के नए-नए शब्द छाँट-छाँट कर मास्टर जी से पूछा करता था । एक दिन उसने क्लास में अपना अंग्रेजी ज्ञान बघारा, बोला- सर जी आज तो बड़ी सिफलिस पड़ रही है । मास्टर जी ने सिफलिस का मतलब तो स्पष्ट नहीं किया पर उसे बेवकूफ कहकर ज़रूर बैठा दिया । हमारे एक दूसरे मित्र ने स्पेलिंग याद करने का नया तरीका निकला । वह वाटर को 'वाटेर' बोला । मास्टर जी ने टोका तो बोला- पर मास्टर जी, इससे स्पेलिंग अच्छी तरह से याद हो जाती है । मास्टर जी ने कहा- लोग तेरी बात पहले सुनेंगे या स्पेलिंग देखेंगे ? उसका जोश भी ठंडा पड़ गया ।

हमारे साथ उन दोनों से बड़ा हादसा हुआ । हम अपनी ननिहाल गए हुए थे । हमारी ननिहाल हरियाणा में हैं । जहाँ हम से भी ज़्यादा अंग्रेजी जानने वाले पड़े हैं । वहाँ किसी के यहाँ तार आया । कोई पढ़ने वाला नहीं मिला तो हम से पूछ लिया । तार पढ़ सकते हो ? हम आठवीं क्लास में पढ़ते थे और हमें तीन दिन की छुट्टी के लिए एप्लीकेशन पूरी तरह याद थी सो हम अपने अंग्रेजी ज्ञान पर शंका कैसे बर्दाश्त कर सकते थे । सो हमने चेलेंज स्वीकार कर लिया और तार पढ़ने लगे । तार में लिखा था- धापली नोट फीलिंग वेल । कम सून । हमने फटाफट पढ़ दिया- धापली नोट मतलब धापली नहीं है मतलब मर गई । और फीलिंग वेल मतलब कि कुएँ में गिर गई । समाचार सुनते ही सब रोने लगे । तभी हमारे मामा जी आगये । उन्होंने तार पढ़ कर पूछा- किस बेवकूफ़ ने पढ़ा है ? हमारा नाम आना ही था । मामा जी ने हमें दो थप्पड़ लगा दिए और हिदायत दी कि जब तक ठीक से अंग्रेजी नहीं आये तब तक तार-वार मत पढ़ना । तो इस प्रकार हमारे अंग्रेजी सीखने के उत्साह का जनाजा निकल गया ।

आपका समाचार पढ़ने के बाद हमने सोचा है कि अपना शेष जीवन अब अंग्रेजी के लिए ही समर्पित कर देंगे । अब हम अंग्रेजी में ही खायेंगे, पियेंगे, रोयेंगे, जीयेंगे, मरेंगे । पत्नी को भी कह दिया है कि अब आगे से सब्जी भी अंग्रेजी में ही काटा करना, अंग्रेजी में ही आटा गूँधना, अंग्रेजी में ही रोटी बेलना । अंग्रेजी में ही गाय का गोबर थापा कर और यहाँ तक कि पोते-पोतियों को शू-शू भी अंग्रेजी में ही करवाया करना । अब देखो वह कितना हमारी आज्ञा का पालन करती है ?

अंग्रेजी का महत्व किसी से छुपा नहीं है- अगर अंग्रेज अंग्रेजी नहीं जानते तो क्या आधी दुनिया पर राज कर सकते थे । जहाँ-जहाँ अंग्रेजी बोली जाती है वहाँ न तो बेकारी है, न गरीबी और न ही अपराध हैं । अंग्रेजी के कारण ही उनके राज में सुख शांति थी । ब्लडी, बास्टर्ड, गेट आउट सुन कर अच्छे-अच्छों की हवा खिसक जाती थी । उन्होंने अग्रेजी की दो किताबें बनवाई । एक तो वह जिसमें- ब्लडी, बास्टर्ड, गेट आउट, फ़ूल जैसे शब्द थे, दूसरी किताब में सर, यस, थैंक यू, वेरी गुड जैसे शब्द थे । पहली किताब वे उन अंग्रेजों को पढ़ाते थे जिन्हें यहाँ शासन करने के लिए भेजते थे और दूसरी किताब हमें पढ़ाते थे । हम उन्हें 'सर' कहते रहे और वे हमें 'बास्टर्ड' कहते रहे और मज़े से राज चलता रहा । अब हम सब उनकी किताब पढ़ेंगे और एक दूसरे पर रौब जमायेंगे ।

चन्द्रभान प्रसाद जी ने अंग्रेजी का मंदिर बनाने की बात कही है । बहुत खूब । अब हर गाँव में मंदिर होगा, हर मंदिर में पुजारी होगा, प्रसाद की दुकानें होंगी, माला, धूप-दीप बिकेंगे, मंदिरों की रक्षा के लिए पुलिस होगी । सोचिये इस एक बात से ही कितने रोज़गार एक ही झटके में ही सृजित हो जायेंगे । यह तो अंग्रेजी की शुरुआत मात्र का चमत्कार है । जब सब अंग्रेजी पढ़ जायेंगे तो क्या होगा ? कल्पना मात्र से ही गर्दन मुर्गे की तरह फूल जाती है । जब सब अंग्रेजी पढ़ जायेंगे तो हमारे उन पापों का भी प्रक्षालन हो जायेगा जो हमने अंग्रेजी का विरोध करने और हिन्दी का प्रचार करने में किये हैं ।

किसी चीज का महत्व तभी होता है जब वह हमारे पास हो और दूसरों के पास न हो । इसलिए यह भी होना चाहिए कि अब तक जिनको अंग्रेजी से वंचित रखा गया है उन्हें अंग्रेजी पढ़ायी जाये और जो अब तक अंग्रेजी पढ़ते रहे हैं उनके बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये ।

अंग्रेजी का मंदिर बनाने के लिए वास्तुविद इंग्लैंड से ही बुलाया जाये, वरना यहाँ के मनुवादी पंडित कुछ ऐसा नक्शा बना देंगे कि बच्चे अंग्रेजी तो पढ़ नहीं पायेंगे और हिन्दी भी भूल जायेंगे सो अलग । उस मंदिर में जो मूर्ति लगे उसके लिए इंग्लैंड की सरकार से पूछा जाये कि वह मूर्ति किस प्रकार की बनेगी । उस मूर्ति के दाईं ओर मैकाले ओर बाईं और चद्रभानजी की मूर्ति लगे क्योंकि अब तक वे ही भारत में मैकाले की जयन्ती मनानेवाले एक मात्र व्यक्ति हैं । हमें अंग्रेजी के मंदिर में पुजारी बननेका अवसर दिया जाये क्योंकि एक तो हम रिटायर हैं, दूसरे हमने 'अंग्रेजी की आरती' भी अभी से ही लिख कर रख ली है । कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं जैसे-
जय अंग्रेजी माता
मैया, जय अंग्रेजी माता
जो कोई तुझको ध्याता
अफसर बन जाता
मैया, जय अंग्रेजी माता

अंग्रेजी में डाँटो
तो हर कोई थर्राता
तेरे कारण सबमें
अनुशासन आता
मैया जय अंग्रेजी माता

और भी कुछ है-

जय अंग्रेजी मैया
मैया, जय अंग्रेजी मैया
तुझको बोले उसकी
पार लगे नैया
जय अंग्रेजी मैया

अंग्रेजी का महत्व इसीसे सिद्ध होता है कि बहादुर शाह ज़फर, झाँसी की रानी, तांत्या टोपे आदि अंग्रेजी नहीं जानते थे । अगर अंग्रेजी जानते होते तो कभी अंग्रेजों से नहीं हारते । गाँधीजी, नेहरू जी, अम्बेडकर जी अंग्रेजी जानते थे इसलिए आज़ादी मिल गई । आज दुनिया में जितने भी देश विकसित हैं सब में अंग्रेजी में ही काम होता है, चाहे जापान हो या फ़्रांस, इटली हो या रूस, चीन हो या जर्मनी ।

हमारे एक साथी बहुत फास्ट अंग्रेजी बोलते हैं सो प्रिंसिपल उनसे डरते थे । उन्हें कभी कुछ नहीं कहते थे जब कि हमने जब-तब हिन्दी में डाँटते रहते । अंग्रेजी की शक्ति का हमें तब पता चला जब हम अपने गाँव से पिलानी होते हुए भिवानी जा रहे थे । रास्ते में एक व्यक्ति बस में सवार हुआ । कंडक्टर को लगा कि वह पीछे से कहीं से आ रहा है सो उसने पीछे से टिकट माँगी । पिलानी से बैठे अंग्रेजी जानने वाले एक विद्यार्थी ने उसे देखा था कि वह पिलानी से बैठा था । सो वह उस व्यक्ति का पक्ष लेकर कंडक्टर से अंग्रेजी में उलझ गया और कंडक्टर की बोलती बंद हो गई । वह कंडक्टर हिंदी से हमारे वश में आने वाला नहीं था । जब प्रधान मंत्री बनने का अवसर आया तो देवी लाल जी को मना करना पड़ा । अगर उन्हें अंग्रेजी आती होती तो वे ही प्रधान मंत्री बनते ।

और कोई करे न करे पर हम आपके इस कदम का पूर्णतया समर्थन करते हैं । भले ही हिंदी दिवस न मनाने की हमारी बात कोई न माने पर हम यह तो कर सकते हैं कि लार्ड मैकाले के जन्म दिन २५ अक्टूबर को 'दलित सशक्तीकरण दिवस' के रूप में तो मना ही सकते हैं ।
जय मैकाले, जय अंग्रेजी ।

२०-१-२०१०

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Feb 15, 2010

जूता गिरा रे, सार्कोजी जी के द्वार पे


हिलेरी जी,
नमस्ते । हमने महात्मा गाँधी की पुण्य-तिथि पर अखबार में समाचार पढ़ा और फोटो भी देखे । आप सार्कोजी जी के निवास 'एलिसी पेलेस' में प्रवेश कर रही थीं कि पता नहीं, कैसे आपका जूता गिर गया । यह कोई आतंकवादी गतिविधि नहीं थी । अच्छा हुआ कि सार्कोजी जी ने आपको थाम लिया वरना तो पैर में मोच आ ही जाती । ऊँची एडी के सेंडिलों में यही एक खराबी है कि ज़रा सा बेलेंस बिगड़ा नहीं कि पैर में ऐसी मोच आती है कि बस कुछ पूछिए ही मत । और फिर आपका काम ठहरा सारी दुनिया में घूमना । सवेरे पेरिस में तो दोपहर अफगानिस्तान में, वहाँ की रिपोर्ट लेकर शाम को फिर वाशिंगटन । क्या ज़िंदगी है । भले ही कहीं भी जाओ, कैसे भी सुविधाजनक होटल में रुको, कितना भी टी.ए., डी.ए. मिले पर घर का सुख तो घर का ही होता है । पर क्या किया जाये, देश और मानवता की सेवा तथा विश्वशांति के लिए महान लोग कष्ट उठाते ही हैं । यह कोई बड़ी घटना नहीं है पर मीडिया वालों को तो अपना अखबार बेचना है इसलिए, जिसका दुनिया के भले-बुरे से कुछ भी सम्बन्ध भले ही न हो पर बतियाने के लिए लोगों को कुछ न कुछ मिल जाये, ऐसा कुछ न कुछ, परोसते ही रहते हैं । यह दुनिया बातों से ही अपना दिल बहला कर जी रही वरना उसके लिए स्वार्थी राजनीति ने कुछ छोड़ा ही नहीं है ।

अरे भई, जूता निकल गया, आपने उसे उठाकर फिर पहन लिया । आदमी दिन में दस बार जूते उतारता है और पहनता है । यह भी कोई समाचार है । पर बड़े लोगों और वे भी अमरीका के, उनका छींकना, खाँसना भी दुनिया को इधर-उधर कर सकता है । अच्छा हुआ कि जूता वहीं गिरा और सही सलामत मिल गया वरना तो खिसकी चीज़ वापिस कहाँ आती है ? हमें इस बारे में कुछ नहीं कहना । पर यह भी है कि किसी घटना से आदमी को अपने अनुभव याद आ जाते हैं और फिर तो दिमाग चलने लग जाता है ।

एब बार दिल्ली में बस से उतरते हुए हमारी एक चप्पल बस में ही छूट गई । हम चिल्लाते ही रह गए पर बस वाले ने हमारी फ़रियाद नहीं सुनी । हम कई दिनों तक उसी समय उस बस को देखने स्टेंड पर जाते । लोगों ने पता नहीं क्या-क्या नहीं कहा । कइयों ने तो यहाँ तक आरोप लगा दिया कि मास्टर पता नहीं, किसके चक्कर में बस स्टेंड पर खड़ा दिखता है । हालाँकि हमारी चप्पल डेढ़ सौ रुपये की ही थी पर हमारे लिए तो उस समय डेढ़ सौ भी बहुत थे । चूँकि एक ही जोड़ी थी सो उसी समय नई खरीदनी पड़ी । सुनते हैं कि बड़े लोगों के पास तो बीस-तीस जोड़ी जूते होते हैं और एक जोड़े की कीमत कई हज़ार रुपये होती है । खैर जी, भगवन का शुक्र है कि न तो चोट आई और न ही जूते को कोई नुकसान पहुँचा ।


हमारे यहाँ मंदिर में जूते उतार कर जाना पड़ता है । बड़े लोगों को दर्शन कराने में तो पुजारी भेदभाव कर जाते हैं पर जूते उतारने के मामले में कोई रियायत नहीं होती । आपके तो चर्च में भी लोग जूते पहन कर चले जाते हैं । सर्दी भी तो बहुत पड़ती है । अगर जूते उतारने की शर्त रख दी जाये तो हो सकता है कि सर्दी-सर्दी लोग चर्च में ही न जाएँ ।

जब बुश यहाँ आये तो उनका राजघाट जाने का प्रोग्राम भी बना और जब बुश साहब कहीं जा रहे हैं तो सुरक्षा चेकिंग तो तगड़ी होगी ही । और ऊपर से 9/11 का कटु अनुभव । हालाँकि गाँधी जी ने अंग्रेजों को सत्याग्रह से ही भगाया था पर जिसने इतने बड़े साम्राज्य को परेशान कर लिया उसके पास पता नहीं व्यापक विनाश का कौन सा नया हथियार निकल आये । सो राजघाट पर सुरक्षा चेकिंग के लिए आपके वहाँ के कुत्ते और सुरक्षा अधिकारी गए । हालाँकि वेतन और सुविधाओं को देखते हुए तो वे कुत्ते भी किसी अधिकारी से कम नहीं थे । वे सभी गाँधी जी की समाधि पर जूतों सहित चढ़ गए । लोगों ने बड़ी आलोचना की क्योंकि वे यह नहीं जानते कि आप लोगों के यहाँ जूते उतारने की आदत नहीं है । पर मेरे ख्याल से किसी की समाधि पर तो वहाँ भी लोग जूते लेकर क्या चढ़ते होंगे ।

हमारी मंशा कहीं भी इस घटना से मज़े लेने की नहीं है । किसी की परेशानी पर हँसना भला कहाँ की इंसानियत है । हम तो वैसे ही बात कर रहे हैं । हमें बचपन में अपने बड़े भाई के पुराने जूते पहनने के लिये दिए गए । जूते हमारे नाप के नहीं थे । बार-बार निकल जाते थे । अब हम दस बरस के बच्चे, जूते सँभालें कि अपना बस्ता । भाई साहब ने एक बड़ा सरल उपाय बता दिया । सो हम आपको भी बता देते हैं । जेब में थोड़ी सी रुई या कोई पुराना कपड़ा रखना चाहिए और जब भी लगे कि जूता ढीला है और निकल सकता है तो झट से जूता खोला, कपड़ा ठूँसा और फिर पहना और बस हो गया । ये हमारे देसी नुस्खे हैं । आप लोग क्या जानें ।

यह कोई बड़ी घटना नहीं थी । आप अब तक भूल भी गयी होंगी । पर हमारे ऐसी घटनाएँ बड़े दूरगामी प्रभाव रखती हैं । एक सुन्दरी का झुमका गिर गया और वह भी बरेली के बीच बाज़ार में । एक तो झुमका वैसे ही झूमता और चाहने वालों को झुमाता रहता है । हो सकता है कि झुमका नया-नया हो जिसे दिखाने के लिए सुन्दरी जान बूझ कर भी गर्दन हिला रही होगी । ऐसे में झुमके को तो गिरना ही था । अब मेडम, झुमके जैसी कीमती चीज और वह भी बाजार में, कहाँ मिलने वाली थी, ना मिली । अब आलम यह है कि पचास साल बाद भी वह आपको गाती मिल जायेगी- 'झुमका गिरा रे, बरेली के बाजार में' । अब कोई क्या करे, तुम्हारी गलती, तुम्हीं भुगतो ।

एक और भोली बालिका का किस्सा है । वह भी कोई पिछले पचास बरसों से चिल्ला रही है- 'ढूँढो-ढूँढो रे साजना, मोरे कान का बाला' । अब साजना अपना घर संभालें कि उसका बाला ढूँढे । पर वह है कि अब भी गा रही है- ढूँढो रे साजना । साजना अस्सी के हो गए हैं और वे सत्तर की । पर बाला का वह बाला है कि अभी तक नहीं मिला । हम मदद भी करना चाहते तो कैसे करते । हम तो उस समय बीस साल के नहीं थे । पर किसी ज़रूरतमंद की मदद करना इंसान का फ़र्ज़ तो है ही ।

हम मौके का इंतज़ार करते रहे । मौका भी आया पर उस समय हम सेवानिवृत्ति के करीब पहुँच चुके थे फिर भी हमने हौसला किया और उस करुण पुकार की तरफ दौड पड़े । बालिका चिल्ला रही थी- 'भरतपुर लुट गया हाय मोरी अम्मा' । हमने कहा- बालिके, घबराओ नहीं हम आ गए हैं । कौन है जिसने तुम्हारा भरतपुर लूटा है ? किधर भागा है? पर आश्चर्य, बालिका हँसने लगी और बोली- ताऊ, तू जा यहाँ से । यह भरतपुर ना तो अम्मा के बस का है और ना ही तेरे बस का । क्यों दाल-भात में मूसलचंद बन रहा है ।

अब देख लिया ना ? भलाई का तो ज़माना ही नहीं रहा । इसीलिए अब चाहे किसी का भरतपुर लुटे या रामपुर,अपन किसी के फटे में टाँग नहीं फँसाते । छोरी जाने और उसका भरतपुर जाने ।

पर आपका मामला दूसरा है । आप तो विश्व शांति के लिए भागी फिर रही हैं । अब जूता निकला या निकाला पर बाहर तो आ ही गया । अब इसका सदुपयोग कीजिए । जूते में बड़ी शक्ति है । जूते मार-मार कर अंग्रेजों ने भारत के सभी लोगों में भाईचारा पैदा दिया । अब उनके जाते ही हम किसी जूते के अभाव में फिर से बिखरने लगे हैं । एक नेत्री तीन वर्णों को चार जूते मारकर मुख्य मंत्री बन गई । एक पत्रकार ने गृहमंत्री पर एक जूता उछाल कर दो सांसदों की उम्मीदवारी केंसिल करवा दी ।

और जिन तालिबानों को पैसा देकर आप मनाने के लिए सोच रही हैं वे कोई ऐसे-वैसे नहीं है । आप क्या उन्हें जानती नहीं ? आपके ही तो सिखाये-पढ़ाये हुए हैं । अब हिम्मत है तो इस जूते से ही उनका इलाज़ कीजिए । वियतनाम की तरह मैदान छोड़ कर मत भागिए वरना तो लोग आप से डरना बंद कर देंगे ।

हमारे यहाँ तो कहावत है- 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते' । आगे आपकी मर्जी । हम तो उत्तर पश्चिम से आने वाली इस आफत से, जैसे भी बन पा रहा है, निबट ही रहे हैं ।

२-२-२०१०

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Feb 14, 2010

अच्छा तालिबान


[सन्दर्भ- अमरीका ने अफगानिस्तान के थ्रू अच्छे तालिबानों को हथियार छोडने के बदले नकद, ज़मीन, नौकरी और राजनीति में हिस्सेदारी देने की पेशकश की, २७-१-२०१ ]

1.
हुआ यूँ कि रात को दो बजे ही नींद खुल गई । जब कई देर तक नींद नहीं आई तो सोचा कि कुछ पढ़ ही लें । पढ़ते-पढ़ते चार बज गए । सोचा अब क्या सोएँगे । सो किताब बंद करके लेट गए कि थोड़ी देर में दूध वाला आएगा तो चाय बनायेंगे । पर ऐसी नींद लगी कि पता नहीं कि कब दूधवाला आ गया और कब अखबारवाला । पत्नी ने धीरे से कान के पास मुँह लाकर कहा- सुनते हो, किसी ने बाहरसे आवाज़ दी पर तुम्हारी तो नींद ही नहीं खुली । मुझे रसोई में आवाज़ सुनी तो दरवाज़ा खोला । तो क्या देखती हूँ कि एक पतला सा दाढ़ी वाला आदमी दरवाजे पर खड़ा है, कह रहा है- क्या उस्ताद साहब घर पर तशरीफ फ़रमा हैं ? उन्हें बाहर भेजिए । मैनें पूछा तुम कौन हो तो बोला- हम अच्छे तालिबान हैं ।

हमारा तो दिमाग चकरा गया । तालिबान और अच्छे । वकील और सच्चा, डाक्टर और संवेदनशील, नेता और ईमानदार । कैसा विरोधी बातों का संगम है । लोग कहते हैं कि अधिकतर साँप ज़हरीले नहीं होते पर भाई साहब, ज़हरीला है कि नहीं यह तो बाद में पता चलेगा पर उससे पहले ही आदमी डर के मारे मर जायेगा । तालिबान तो तालिबान है क्या अच्छा और क्या बुरा । कहा भी है- 'काटे, चाटे स्वान के दुहूँ भांति विपरीत ' । न डरने का नाटक करते हुए कहा- अच्छा तालिबान है तो उसे कुर्सी पर बैठाओ और चाय बना दो । पर उसके सामने काला कम्बल ओड़कर जाना क्योंकि सुनते हैं कि वे परदे के बड़े पाबंद होते हैं । पढाई को भी पसंद नहीं करते सो पूछे तो कह देना कि मैं तो अंगूठा छाप हूँ । नहीं तो पता नहीं तुम्हें गोली ही न मार दे ।

बाहर आकर देखा तो आकार प्रकार से लगा कि एक तालिबान के दो पीस कर दिए हों । लगता था कि वह खड़ा हुआ भी ओसामा की कमर तक ही आएगा । फिर भी सावधानी बरतते हुए ढंग से ही बात शुरू की- तो अच्छे तालिबान साहब, आप खड़े क्यों हैं । तशरीफ़ फ़रमायें ।

उसने अपना टोपा कुर्सी पर रख दिया । हमने फिर कहा- अजी, तशरीफ़ रखिये । तो उसने अपना कोट उतार कर कुर्सी पर रख दिया । बड़ा अजीब लगा कि यह शख्स क्या कर रहा है । हमने ज़रा जोर से कहा- अरे मियाँ, तशरीफ़ रखिये ना । इस पर उसे भी ताव आगया । कहने लगा- अब इससे ज्यादा तशरीफ़ रखकर सर्दी में मरना है क्या ?

हमने उसे पहचान लिया और उसकी दाढ़ी खींचते हुए कहा- अरे तोताराम ! यह क्या नाटक है ।

बोला- अफगानिस्तान जा रहा था, सो आ गया । तू चले तो तुझे भी ले चलूँ । चलना है तो तैयार हो जा ।

हमने कहा- तेरा दिमाग खराब है क्या ? एक तो वैसे ही बिना पासपोर्ट के क्या, पासपोर्ट होने पर भी सीमा पर कोई भी पाकिस्तानी पुलिस वाला पकड़ कर जेल में डाल देगा ।

तोताराम बोला- अब वह बात नहीं है, अब तो अमरीका ने पकिस्तान को कह दिया है कि कहीं से भी, कोई भी अच्छा तालिबान मिले तो तुरंत पकड़ कर हाज़िर करो । हम कह देंगे कि हम अच्छे तालिबान हैं और हम अफगानिस्तान की मुख्य धारा में शामिल होना चाहते हैं । बस वे हमें नेटो सेना के कमांडर के सामने हाज़िर कर देंगे और वह हमें दस-बीस लाख रुपये और बीस-तीस बीघा ज़मीन दे देगा ।

हमने कहा - तोताराम हमें न तो पश्तो आती है और न ही फ़ारसी, और फिर उन उजड्ड लोगों के बीच अपनी पार भी नहीं पड़नी । पाँच-सात बरस बचे हैं सो यही काट लेंगे ।

तोताराम बोला- तो क्या मुझे बसना है वहाँ । अरे, नकद पैसे जेब के हवाले करेंगे और ज़मीन जितने में बिकेगी बेच-खोच अपना आ जायेंगे इधर ।

हमने कहा- पर अगर उसने कहा- बंदूक जमा करवाओ तो क्या कहेंगे ।

तोताराम बोला- इसमें क्या है । कह देंगे- अजी, हम तो आपका प्रस्ताव सुनकर ही इतने अच्छे बन गए कि बंदूक वहीं फेंक दी और पूरे सूफ़ी बन कर आगये आपकी शरण में ।

हमने कहा- तोताराम, अभी तो प्रस्ताव आया है । ज़रा इंतज़ार करलें । ठंडा करके कहना ठीक रहेगा वरना मुँह जल जायेगा ।



2.
अगर समझाने से ही मान जाये तो तोताराम ही क्या । बोला- मास्टर यह ज़माना धीरज का नहीं है । चतुर सम्पादक किसी नेता के मरने का इंतज़ार नहीं करते, वे तो उसके बीमार होते ही देहांत का विशेष परिशिष्ट तैयार कर लेते हैं । समझदार माता-पिता बच्चा पैदा होते ही एडमीशन के लिए उसके नाम का रजिस्ट्रेशन करवा देते हैं । आजकल समय का बड़ा महत्व है । सुना नहीं, नायक कहता है- मेहंदी लगाके रखना, डोली सजाके रखना, लेने तुझे ओ गोरी, आयेंगे तेरे सजना, । पता नहीं कौनसा सर्वार्थ-सिद्धि योग मिस हो रहा है ।

हमने सोचा कि यह मानने वाला नहीं है । हमारा मन भी अपने बाल-सखा को अकेले अफगानिस्तान जाने देने का नहीं हो रहा था सो दोनों तरफ के किराये और खाने-खर्चे के लिए दो हज़ार रुपये जेब में डाले और कम्बल कंधे पर डाल चल पड़े तोताराम के साथ अफगानिस्तान के लिए ।

सोच रहे थे कि पता नहीं बार्डर पार करने में कितनी परेशानी आयेगी । पर वहाँ तो नज़ारा ही कुछ और था । लाइन लगी हुई । वाघा बार्डर पर इतना ही पूछा- क्या अच्छे तालिबान हो ? हमने एक स्वर से कहा- जी हाँ । और आगे बढ़ गए । उस तरफ मतलब कि पाकिस्तान में भी यही हाल था । वहाँ भी चेकिंग-वेकिंग कुछ नहीं बल्कि बड़े आदर से स्वागत किया- 'खुशामदीद, अच्छे तालीबान जी ' । हमारा तो दिल गदगद हो गया । सीमा पर पता नहीं क्यों लोग गोलीबारी की झूठी खबरें फैलाते हैं । यहाँ तो बड़ा सभ्य वातावरण है । कितने प्यार से पेश आ रहे हैं लोग जैसे कि हम शादी में आये हैं । हमने पूछा- बिरादर, आपको कैसे पता चला कि हम अच्छे तालिबान हैं । उसने उत्तर दिया- यहाँ तो २७ जनवरी की रात से ही आने वालों का ताँता लगा हुआ है । सभी अच्छे तालिबान हैं । हमें लगा कि अमरीका तालिबानों को बिना बात ही बदनाम कर रहा है । दूर-दूर तक कहीं भी कोई बुरा तालिबान दिखाई नहीं देता ।

प्रहरी ने हमारी तन्द्रा भंग की- अरे भई अच्छे तालिबानों, क्या सोच रहे हो । वो सामने जो बस खड़ी है उसमें घुस जाओ वरना भीड़ और बढ़ जायेगी । पर बस में भी कहाँ जगह थी । किसी तरह छत पर चढ़ गए । अफगानिस्तान जाकर देखा तो नज़ारा ही कुछ और था । हजारों लोग कम्बल ओढ़े एक मैदान में बैठे थे । हम भी उनमें शामिल हो गए । शाम को जाकर कहीं हमारा नंबर आया ।

तम्बू में दाखिल हुए । वहाँ एक अमरीकी अधिकारी बैठा था । उसने जाते ही फटाफट पूछा-
अधिकारी- तुम्हारा नाम ?
तोताराम ने कहा-जी, मेरा नाम 'तोताराम अच्छा तालिबान' है ।
हमने कहा- जी मेरा नाम रमेश जोशी है । इसके अलावा हमारे दोनों के रेज्यूमे एक ही हैं । सो तोताराम ही ज़वाब दे देगा ।
अधिकारी- तुमने अब तक बुरका न पहनने के जुर्म में कितनी महिलाओं के नाक-कान काटे ?
तोताराम- जी हमने ऐसा कोई काम नहीं किया ।
अधिकारी- कितने मदरसों को बम से उड़ाया ?
तोताराम- जी हमने कहा ना हम अच्छे तालिबान हैं । हम ऐसा कैसे कर सकते हैं ।
अधिकारी- कितने भीड़ भरे स्थानों पर बम रखे और उस हादसे में कितने लोग मरे ?
तोताराम- जी, हम वास्तव में अच्छे तालिबान हैं ।

अधिकारी ने खा जाने वाली नज़रों से तोताराम को देखा और चिल्लाता हुआ सा बोला- तो फिर क्यों यहाँ हमारी खोपड़ी खाने आ गया । यहाँ कोई खैरात बँट रही है क्या । चला आया अच्छा तालिबान । तेरे जैसे अच्छे तालिबान हमारे यहाँ क्या कम हैं । पैसा ही लुटाना होता तो उन्हीं को न दे देते पैकेज । अरे, हम तो उन लोगों को ढूँढ रहे हैं जो हमारी जान खा रहे हैं , जिनके कारण हम यहाँ फँसे पड़े हैं । जितना खर्चा हो रहा है उसको देखते हुए तो यह पैकेज देना सस्ता सौदा है । हो सकता है कि पैसे के लालच में ये लोग आ जाएँ । पहले भी तो पैसे के बल पर ही तो इनको तालिबान बनाया था । अब ये अच्छे तालिबान बन जाएँ तो हम यहाँ से बोरिया बिस्तर समेटें । दस साल हो गए इस साँप-छछूँदर के खेल में हलकान होते हुए ।

तोताराम ने कहा- तो हुजूर, हमारे लिए क्या हुक्म है ?
अधिकारी- हुक्म यही है कि जल्दी से खिसक लो । तुम लोग वास्तव में भले आदमी लगते हो नहीं तो बिना पासपोर्ट घुस आने के जुर्म में कभी का अंदर करवा दिया होता ।

हम और तोताराम इतना डर गए थे कि पता नहीं कब बस में बैठे और कब वाघा बार्डर पहुँच गए ।


3.
बार्डर वाले ने हमें पहचान लिया और बोला- लगता है भागते-भागते आये हो । ज़रा सुस्ता लो । उसने हमारे लिए चाय मँगवाई । किसी तरह जान में जान आई । हमारे मन में उसके लिए बड़ा आदर उमड़ आया । हमने कहा- भैया, कुछ भी कहो, अपने वाला अपने वाला ही होता है । भले ही हमें राजनीति ने अलग कर दिया पर आज से बासठ साल पहले हम एक देश के नागरिक थे । आखिर कुछ तो रिश्ता है ही । उस अमरीकी ने तो ऐसा डाँटा कि बस कुछ मत पूछो । और एक तुम हो कि चाय पिला रहे हो ।


उसने बात बदली- तो पैकेज कितना मिला ?
हमने अपना दुखड़ा रो दिया- अरे कैसा पैकेज । जान बच गई सो क्या कम है ? बिना बात दो हज़ार की चपत लग गई । अब तक आने और खाने में एक हज़ार खर्च हो गए । अब जो एक हज़ार बचे हैं वे जाते में खर्च हो जायेंगे ।
उसने कहा- जान बच गई सो बड़ी बात है । जान है तो ज़हान है । पैसा का क्या, पैसा तो हाथ का मैल है । क्या जान बचने की खुशी सेलेब्रेट नहीं करेंगे ?

और उसने हम दोनों की जेब से सारे रुपये निकाल लिए और हँसते हुए बोला- बिरादर, अब इसे आप चाहे जान बचने का शुकराना समझ लो, चाहे बिना पासपोर्ट सीमा पार करने का जुर्माना, चाहे हमारे क्रिकेट खिलाड़ियों को आई.पी.एल. में न खरीदने का हरजाना समझलो । आखिर उनका भी तो टी.ए.डी.ए. खर्च हुआ था भारत आने-जाने में ।

इधर आये तो हमारा फुल बाडी एक्सरे हुआ । जैसे ही एक्स रे केबिन से बहार निकले तो अधिकारी ने घूरा- पैकेज कहाँ है ? हमने कहा- पैकेज । अरे साहब, कहाँ का पैकेज । हमारे एक हज़ार तो जाते समय खर्च हो गए और जो आने के लिए एक हज़ार रखे थे वे पकिस्तान के अधिकारी ने ले लिए ।

अधिकारी ने कहा- कोई बात नहीं । कुछ नहीं तो इधर से गुजरने के शुल्क के रूप में अपनी-अपनी कम्बलें यहाँ रख दो ।

अब बिना पैसे और कम्बल के ये दो बुद्धू कब और कैसे घर लौटेंगे ? भगवान ही जानता है ।


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Jhootha Sach

Feb 10, 2010

ज़रदारी - सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं

ज़रदारी जी,
क्या बताएँ । नए बरस की क्या तो शुभकामनाएँ दें और किस तरह विश करें । 'आदाब' तो कहने की ज़रूरत ही नहीं क्योंकि 'दबाने' की तो आप हमेशा से ही सोचते रहे हैं । इसमें आपकी की ज्यादा गलती नहीं क्योंकि आपको परंपरा से ही यह सिद्धांत मिला है । वैसे यह सिद्धांत कोई विशेष लाभकारी नहीं रहा पर नया सोचने की क्षमता सभी में नहीं होती । ज़्यादातर लोग लीक पर ही चलते हैं । पर जो कहा गया है उस पर भी विचार कर लें-
लीक-लीक गाड़ी चले लीकन चले कपूत ।
इतने लीक न चालसी सायर, सिंह, सपूत ॥

सभी न सायर होते हैं, न सिंह और न सपूत ।

आपकी और हमारी भाषा में कोई खास फरक नहीं है और न ही संस्कृति में । इसलिए आशा है कि समझ तो लेंगे पर आचरण तो किसी का अच्छा भाग्य होता है तो करता है । हमें तो लगता है कि आपकी हालत दुर्योधन जैसी है । वह कहता है - 'जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति, जानामि अधर्मं न च मे निवृत्ति ।'
धर्म को जानता हूँ पर उसमें मन नहीं लगता और अधर्म को भी जानता हूँ पर उससे मेरा छुटकारा नहीं ।

इस देश के (हम अविभाजित भरत की बात कर रहे हैं ) लगभग सभी संत कहते आये हैं - 'सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं ।' यह बात सिकंदर को भी समझ में आई पर बड़ी देर से । मरते समय उसने कहा था कि उसके हाथ उसके ज़नाज़े से बाहर निकाल कर ले जाया जाये जिससे लोग समझ लें कि विश्व विजेता सिकंदर अपने साथ कुछ नहीं ले जा रहा है ।

अब आप भारत के साथ हज़ार साल तक युद्ध लड़ने की बात कर रहे हैं (७ जनवरी २०१०)। आपने अपने ससुर साहब ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो का भी उल्लेख किया । यदि आप नहीं करते तो हम करते । अल्लाह उन्हें जन्नत बक्शे । उनके समय शुरु हुए युद्ध का क्या परिणाम हुआ और उसके बाद उन्हें आपने ही बिरादर राष्ट्रपति से क्या-क्या न सहना पड़ा, उसकी चर्चा करके क्यों पुराने घावों को कुरेदा जाये । फिर भी आदमी चाहे तो भूतकाल से कुछ शिक्षा तो ले ही सकता है । इतिहास इसीलिए पढ़ाया जाता है । कुछ लोग ठोकर खाकर समझ जाते हैं, कुछ दूसरे को ठोकर खाते देखकर समझ जाते हैं और कुछ इतने दृढ़निश्चयी होते हैं कि बार-बार ठोकर खाकर उसी 'बोरवेल' में जा गिरते हैं ।

इतिहास में बड़े-बड़े लड़ाके हुए हैं जिन्होंने लाखों की सेना सजाकर कूच किया और दुनिया को रौंद डाला । न खुद चैन से जिए और न औरों को जीने दिया । चंगेज़ खान, तैमूरलंग, मोहम्मद गौरी, मोहम्मद गज़नवी, बाबर, तातार, शक, हूण आदि-आदि । इनमें से अधिकतर को यह देश बहुत अच्छी तरह से जानता है क्योंकि इसीने सबसे ज्यादा भोग है । पर उसी इलाके से ख्वाजा साहब भी तो आये थे जिनकी मज़ार पर आकर सभी लोग सज़दा करते है- क्या हिन्दू और क्या मुसलमान । इसी इलाके में गुरु नानक हुए हैं जिनका सबसे प्रिय शिष्य था मरदाना । कबीर के बारे में अभी तक यह तय नहीं हुआ है कि वे हिन्दू थे या मुसलमान पर इतना तय है कि सभी उनके शिष्य थे और सभी उन्हें गुनगुनाते हैं । आपने इनके बारे में पढ़ा भी है या नहीं । हम पक्के तौर पर कह सकते हैं कि यदि पढ़ा है तो भी गुना तो बिलकुल ही नहीं ।

वैसे आपको पढ़ने-गुनने की ज़रूरत भी क्या है । जागीरदार परिवार से हैं । न खाने की कमी रही, न पीने की । जब कोई कमी ही न लगे तो बिना बात दिमाग खपाने की क्या ज़रूरत । ये तो कबीर जैसे ही होते हैं जो जागते हैं और रोते हैं (शायद आप जैसे खाते-सोते लोगों के लिए) । युद्ध लड़ने की बात वही कर सकता है जिसे वास्तव में युद्ध में जाना, मरना या घायल नहीं होना पड़ता है । साधारण लोगों को तो आपने पेट के लिए कोई रोज़गार चाहिए । घर पर भूखे मरने से तो अच्छा है कि सेना में जाकर रोटी खाते हुए मरें । युद्ध में कोई किसी को मारना नहीं चाहता पर जब सामने से कोई बंदूक लेकर आ जाता है तो अपनी जान बचाने के लिए डर के मारे गोली चलानी ही पड़ती है । दोनों तरफ के ही वीरों का यही हाल है । सच है, अगर आदमी को बिना लड़े कोई रोज़गार मिल जाए तो आदमी युद्ध में कभी नहीं जाये । तभी तो आपने कभी नेताओं और सेठों के बच्चों को सेना में भर्ती होते देखा है ? वे तो सेना में सप्लाई का ठेका लेते हैं, हथियारों की खरीद में कमीशन खाते हैं । लोग तो पैसे के लिए अस्पताल की दवाओं में ही पैसा खा जाते हैं फिर हथियारों का काम तो करोड़ों का होता है । यदि दस प्रतिशत भी खाएँ तो सात पुश्तों का इंतज़ाम हो जाता है । खाए बिना स्विस बैंक में खाते कैसे खुलते हैं ।

तो आप भारत से हज़ार साल तक युद्ध लड़ना चाहते हैं । इसमें आपने स्पष्ट भी कर दिया है कि भुट्टो का मतलब भी वास्तविक युद्ध ही था कोई वार्ता-शार्ता न समझ ले । लड़ने के लिए हथियार ही तो चाहियें सो अमरीका और चीन देने के लिए तैयार हैं ही । पहले भी देते रहे हैं, अब भी देंगे । वैसे हथियारों की क्या कमी है । आतंकवाद से लड़ने के नाम पर आ तो रहे हैं और रूस से लड़ने के लिए आये हुए हथियार भी अब तक कहाँ ख़त्म हुए हैं । हमारा तो इतना ही कहना है कि हथियारों का कमीशन ही इकठ्ठा करते रहेंगे या कभी शांति से बैठ कर उस कमीशन का उपभोग भी करेंगे । जीवन अनंत नहीं है । आप तो हज़ार बरस की बात करते हैं पर खबर तो पल भर की भी नहीं है । बेनजीर ने भी कब सोचा था कि चुनाव वे जितायेंगी, लाटरी आपके नाम की निकाल आयेगी । यदि बेनजीर होती तो आपको यह पद कभी नहीं मिलता ।

हमें तो जीवन का ज्यादा विश्वास नहीं है । हम तो सोने से पहले भगवान को सारा हिसाब देकर सोते हैं । क्या पता अगले दिन उठें या नहीं । आप पता नहीं, कोई अमर फल खाकर आये हैं क्या जो हज़ार साल लड़ने की सोचते हैं । वैसे हिटलर, अमरीका कोई भी तो इतना लम्बा युद्ध नहीं लड़ सका । फ़्रांस और इंग्लैंड भी कभी हज़ार साल का युद्ध लड़ने की बात करते थे पर अब देखिये दाँत काटी रोटी है । यदि लड़ते रहते, जो कि संभव नहीं है, तो शायद दोनों में से कोई भी आज नहीं होता ।

हम तो कहते हैं कि युद्ध में घायल होने वालों, मरने वालों और उनके परिवारों के बारे में सोचिये, पाकिस्तान के आर्थिक दृष्टि से पिछड़े, गरीब, और बेकार, अशिक्षित लोगों के बारे में सोचिये । पर इस रास्ते में एक ही ख़तरा है कि कहीं अशोक बन गए तो ? फिर तो चैन की नींद गायब हो जायेगी और प्रजा के भले की सोचते-सोचते ही रात कट जायेगी ।

पर उसमें जो मज़ा है उसे व्यक्ति भगवान की कृपा से ही जान सकता है और प्राप्त कर सकता है ।

८-१-१०

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टक्कर

माननीय पोप बेनेडिक्ट सोलहवें जी,
नमस्ते । हमें लगता है कि योरप में नामों की बड़ी कमी है इसीलिए लुई दसियों, जार्ज दसियों और आप बेनेडिक्ट सोलहवें और आगे भी न जाने कितने होंगे । पोप जोन पॉल द्वितीय ही हुए । हमें यह सब कुछ समझ में नहीं आया । समझ तो दुनिया में बहुत कुछ नहीं आया । पर किस-किस के लिए परेशान हों । फिर भी मानव स्वभाव है कुछ न कुछ सोचता तो है ही । काम की बात नहीं तो फालतू की बातें सोचेगा । खैर, नए वर्ष की बधाई ।

हम तो आप पर एक महिला के कूद पड़ने की बात से परेशान थे । पता नहीं उसे क्या सूझी । अरे, कूदना ही था तो ऊँची कूद कूदती, लम्बी कूद कूदती, पोलवाल्ट कूदती । अच्छा कूदती तो इनाम मिलता, स्वास्थ्य अच्छा रहता । यदि आत्महत्या ही करनी थी तो कुएँ में कूदती । यदि भारत में बोरवेल में कूदती तो इससे ज्यादा प्रसिद्धि मिलती । यदि कोई बात ही मनवानी थी तो किसी पानी की टंकी पर चढ़ कर कूदने की धमकी देती तो भी कुछ न कुछ हासिल होता । बीरू ने तो टंकी पर चढ़ कर कूदने की धमकी देकर बसंती को हासिल कर लिया ।

पता नहीं ऐसी ऊटपटांग महिला वेटिकन में कैसे पहुँच गई । लगता है आपके यहाँ सुरक्षा व्यवस्था ठीक नहीं है । आपकी व्यवस्था को क्या दोष दें, हमारे यहाँ खुद व्यवस्था ठीक नहीं है । दूसरों को उपदेश देना सरल है-
पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥

इसलिए आपको उपदेश दे रहे हैं । आपके यहाँ पता नहीं, हमारे यहाँ तो मंदिरों पर अधिक हमले हो रहे हैं । क्या अक्षर धाम, क्या बनारस का संकटमोचन, क्या अयोध्या का राम मंदिर । पहले भी हमारे यहाँ मंदिरों पर हमले होते रहे हैं- सोमनाथ, मथुरा आदि तो इतिहास में दर्ज़ हैं और टूटी हुई मूर्तियाँ तो लाखों की संख्या में ही इस देश में आज भी जहाँ-तहाँ म्यूजियमों में पड़ी धर्मान्धता की कहानी कह रही हैं । इसलिए अपने वेटिकन की सुरक्षा व्यवस्था बढ़ाइए । दुष्टों और मूर्खों का कोई ठिकाना नहीं । कब, कहाँ, क्या कर गुजरें । आज एक महिला कूदी है कल को कोई और भारी व्यक्ति कूद पड़े ।

जब कोई सूचना देकर कूदे तो आदमी सावधान भी हो जाये पर जब आदमी अपने हिसाब से आराम से जा रहा हो और ऊपर से कोई पचास-साठ किलो की चीज़ गिर पड़े तो बहुत मुश्किल हो जाती है । पर साहब आपकी ताकत की दाद देनी पड़ेगी कि एक पचास-साठ किलो की महिला के ऊपर कूद पड़ने के बावजूद आप तत्काल उठ गए और शांत भाव से अपने नियत स्थान पर गए और भाषण दिया, और तो और उसकी चर्चा भी नहीं की । हमारे यहाँ तो उसी दिन एक महामहिम पर तीन-तीन महिलाएँ कूद पडीं तो इतना झटका लगा कि बेचारे दो हज़ार किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में जा पड़े । पर ताकत में तो वे भी कम नहीं थे । बाल भी बाँका नहीं हुआ । मुस्कराते रहे । वैसे साधारण जीवन में तो आदमी पर एक महिला ही कूद पड़े तो ज़िंदगी भर के लिए चाल टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है, गृहस्थी का बोझा उठाते-उठाते ।

स्त्री-पुरुष ही क्या, इस ज़माने में और भी तरह-तरह की टक्करें होती ही रहती हैं । बसों, रेल गाड़ियों की टक्करें तो आम बात है । कभी सामने से तो कभी पीछे से । एक बार तो हरियाणा में दो हवाई जहाजों की आमने-सामने टक्कर हो गई । इसी साल की बात है कि अंतरिक्ष में रूस और अमरीका के यानों की टक्कर हो गई मतलब कि शीत युद्ध वाली आदत अब भी कायम है । कुछ लोग नशे में ज़बरदस्ती टक्कर लेते फिरते हैं फिर यह नशा चाहे धन का हो या पद का हो या दादागीरी का हो या जवानी का हो । पर एक बात गौर करने की है कि चाहे जानवरों की कितनी ही भीड़ हो पर उनमें इस तरह की टक्करें नहीं होतीं ,क्योंकि उन्होंने सह अस्तित्व को जीवन में उतार रखा है । जब आदमी मिल कर नहीं चलता है तो टक्कर होना भी स्वाभाविक है ।

तो साहब, भगवान की मर्जी । जो होना था सो हुआ । यह तो खैर वह जानबूझकर कूदी थी सो उसे दोष दिया जा सकता है पर मान लो अगर आकाश से बिजली गिर पड़े, ऊपर से कोई हवाई जहाज ही गिर पड़े, जिस मकान में रह रहे हैं उसी की छत गिर पड़े तो क्या कर लेंगे । आशा है आपको कोई चोट नहीं आई होगी । ज़ल्दी में पता नहीं लगता, पर बाद में चोट कराँसती है । चोट पर घी-हल्दी बहुत फायदा करती है । अकरकरा घोल कर पीना भी ठीक रहता है । आप तो खैर, झेल गए पर बेचारे फ्रांसीसी कार्डिनल रोजर एचिगेरे की तो कूल्हे की हड्डी ही टूट गई । आशा है कि प्लास्टर लगवा दिया होगा । हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वे भी ज़ल्दी ही ठीक हो जाएँ ।

यह महिला पिछले साल भी उछल-कूद मचा चुकी है यहीं वेटिकन में । उसे अस्पताल में भरती करा दिया गया है । ठीक है, पर हमें लगता है कि उसकी समस्या कोई सांसारिक नहीं है वरना तो वह भी खुद अस्पताल जा सकती थी । हमें लगता है कि उसकी समस्या कोई आध्यात्मिक है, तभी न आपके पास आई थी । कम से कम एक बार पूछ तो लीजिये कि समस्या क्या है । वह तो हो सकता है कि गलती कर गई, पर आप तो ईश्वर-पुत्र ईसा मसीह के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने उन्हें फाँसी देने वालों के लिए भी भगवान से क्षमा की प्रार्थना की थी ।

वैसे महिलाओं के बारे में सही बात कहते हुए भी महिलावादियों से डर लगता है कि पता नहीं, महिला-स्वतंत्रता की आड़ में किस की टाँग खींचने लग जाएँ ।

महिलाओं के बारे में लगभग सभी देशों और धर्मों में कोई बहुत अच्छी बातें नहीं कही गईं हैं । हो सकता है कि इसमें पुरुषों की अपनी कुंठा काम कर रही हो । पता नहीं गलती किसकी थी, पर विश्वामित्र जैसे ऋषियों तक को चक्कर में डाल दिया महिलाओं ने । हमारे यहाँ तो जिसकी भी तपस्या भंग करवानी होती है तो इंद्र इन्हीं को भेजता है । आजकल मीडिया वालों ने इस प्रकार की गतिविधियों का नाम 'स्टिंग आपरेशन' रख दिया है । बेचारे आदम को भी तो स्वर्ग के बगीचे से इसी जीव ने नीचे धरती पर ला पटका । पर सारा दोष इसी जीव को देना भी तो ठीक नहीं क्योंकी 'मेरी' भी तो महिला ही थी । यदि यह जीव नहीं होता तो आप-हम सब इस दुनिया में आते ही कैसे ।

हमारा तो कहना है कि उस महिला का हालचाल भी पूछें और यदि संभव हो तो उसकी मदद भी करें । क्या पता, उसकी भी कोई हड्डी टूट गई हो ।

२७-१२-२००९

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Feb 9, 2010

वेलेंटाइन डे उर्फ़ वेल हटाइन डे

मिस्टर सार्कोजी
बधाई हो । आपने जून २००९ में कहा था- फ़्रांस में बुर्का स्वागत योग्य नहीं है । इसके बाद १३ नवम्बर २००९ को 'फ़्रांस की राष्ट्रीय पहचान' पर आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि फ़्रांस में सिर और बदन ढँकने वाले परिधान बुर्के के लिए कोई जगह नहीं है । फिर जनवरी २०१० के प्रथम सप्ताह में कहा कि बुर्का पहनने पर सात सौ पोंड का और बुर्का पहनने के लिए बाध्य करने वाले पर दुगुना जुर्माना लगाया जायेगा । इसके बाद संसद ने आपके इस प्रस्ताव का समर्थन भी कर दिया । मतलब कि आप एक निश्चित योजना के अनुसार बढ़ रहे हैं । वैसे अपनी किसी भी योजना को राष्ट्रहित और किसी बड़े आदर्श से जोड़ देना चाहिए । जब ज़मीन घेरनी हो तो उस पर कोई धार्मिक स्थान बनाना चाहिये । किसी दूसरे धर्म वाले से व्यक्तिगत दुश्मनी निकालनी हो तो अपने धर्म की बेइज़्ज़ती का मुद्दा बनाना चाहिए । यदि चुनाव में खड़े होना है और अपने कर्मों पर विश्वास नहीं है तो जाति के उद्धार की बात करनी चाहिए । सो आपने भी बुर्के को हटवाने के लिए फ़्रांस की पहचान को मुद्दा बनाया । फ़्रांस की पहचान की चिंता आप नही करेंगे तो क्या तोगड़िया जी करेंगे ? हमारी बात और है, हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता पहले बुश करते थे अब ओबामा कर रहे हैं ।

वैसे जहाँ तक सिर और पूरा शरीर ढँकने वाले कपड़े पहनने की बात है तो सारे संसार में ही औरतें और मर्द सभी सिर ढकते ही थे । आज भी पोप और नन्स का पहनावा इस का प्रमाण है । अन्य सम्प्रदायों में भी धार्मिक अधिकारी सिर ढकते ही हैं । जिसे किसी भी प्रकार काबिले-ऐतराज़ नहीं माना जाता । पर चूंकि अब देश की पहचान का सवाल आ गया तो फिर कोई समझौता नहीं न हो सकता ।

वैसे हमारे गाँधीजी तो कहा करते थे कि जब भी सांप्रदायिक चिह्न समाज में भेद-भाव फैलाने का काम करने लग जाएँ तब वे त्याज्य हो जाते हैं । वे स्वयं धर्म का कोई चिन्ह धारण नहीं करते थे । मज़े कि बात देखिये कि आज जितना सांप्रदायिक उत्पात दुनिया में कभी नहीं था और आज ही दुनिया इन तथाकथित पहचानों के चक्कर में सबसे ज्यादा है । इसका कारण कहीं से भी धार्मिक नहीं है बल्कि आर्थिक और राजनीतिक है । आज धर्म के द्वारा ही चंदा मिलता है और कहीं न कहीं सत्ता की राह भी इसी के थ्रू खुलती है । पहले तो पोप का दर्ज़ा राजा से भी बड़ा था । कट्टर देशों में आज भी राजा इन लोगों को संतुष्ट रखने में ही भलाई समझता है । इनके ठाठ और ठेकों की जाँच कोई नहीं करता । दुनिया में लाखों करोड़ डालर, पोण्ड और दीनारों का धंधा है यह । मुफ़्त का ठाठ ऐसे ही थोड़े छोड़ सकता है कोई ।

तो हमें विश्वास है कि आप फ़्रांस की पहचान को बचाने वाले इस 'वेल हटाइन ' कार्यक्रम में अवश्य सफल होंगे । 'वेल हटाइन' आप समझ ही गए होंगे । 'वेल' मतलब कि पर्दा और 'हटाइन' मतलब कि हटाना अर्थात् 'पर्दा हटाना' । अगर फ़्रांस में बुरके को ग़ैर कानूनी घोषित करना हो तो उसके लिए 'वेलेंटाइन डे' उर्फ़ 'वेल हटाइन डे' को ही चुनियेगा । हमारे अनुसार तो वेलेंटाइन डे का त्यौहार भी सभी प्रकार के 'वेल' अर्थात् 'पर्दे' हटाने का दिन है ।

हमारे यहाँ तो बेचारा नायक चिल्लाता ही रह जाता है कि- 'ये पर्दा हटा दो, ज़रा ज़लवा दिखा दो' । और नायिका है कि उससे भी ज़ोर की आवाज़ में चिल्लाती है- 'पर्दे में रहने दो, पर्दा ना उठाओ । परदा जो उठ गया तो भेद खुल जायेगा' । गाने तो दोनों अभी तक सुन रहे हैं । पर अभी तक यह दावे से नहीं कह सकते कि पर्दा उठा या नहीं । यदि परदा उठ गया तो उठने पर भेद खुला या नहीं ? यदि खुल गया तो वह कौन सा भेद था ? हमारे हिसाब से तो सबके वही दो हाथ-पैर, दो आँखें, एक नाक दो कान होते हैं । पता नहीं, नायिका कौन सा भेद छुपाना चाहती है और नायक पर्दा हटवाकर कौन सा ज़लवा देखना चाहता है ।

पर अब तो हमारे यहाँ भी लड़कियाँ छोटे से निक्कर और छोटी सी बिना बाँहों की कमीज़ में नज़र आने लगी हैं । हमारे यहाँ बुर्का और घूँघट अभी भी हैं पर बिना किसी कानून के ही धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं । आपकी तरह कानून बनाने की मज़बूरी नहीं आई । आपकी फ़्रांस की पहचान की बात हम बाद में करेंगे पर अभी तो पर्दा हटाओ अभियान पर ही ध्यान केन्द्रित करें । सो आप बुर्का पहनने जैसी आपराधिक गतिविधि को रोकने के लिए कानून बनाने में ज़ल्दी करें और इस वेलेन्टाइन डे को यह कानून लागू कर ही दें । इस वेलेन्टाइन डे से बुर्का पहनने के अपराध में जो जुर्माना वसूला जाये उसे लँगोटी लगाये, सार्वजनिक रूप से चूमा-चाटी करते, फ़्रांस की पहचान को बचाए रखने वाले जोड़ों को पुरस्कार स्वरूप दे दिया जाये जिससे वे ठण्ड से बचने के लिए दारू खरीद सकें और ठण्ड लग जाने पर जुकाम की दवा का प्रबंध कर सकें क्योंकि हमारे यहाँ तो अभी ठण्ड जम कर पड़ रही है । आपके फ़्रांस में तो और भी ज्यादा ठण्ड पड़ रही होगी । ऐसे में कम कपड़े पहनने की फ्रेंच-संस्कृति को बचाना बड़े साहस का काम है ।

कुछ लोग कहते हैं कि जब से अमरीका में आतंकवाद की घटना हुई है तब से सारे गोरे देश इस्लाम से बहुत डरने लग गए हैं । इस्लाम के प्रतीकों में भी उन्हें व्यापक विनाश के हथियार नज़र आने लगे हैं । सभी गोरे देशों ने अफ्रीका और एशिया के देशों पर राज किया और वहाँ के कच्चे माल के साथ-साथ वहाँ के लोगों को भी सस्ती मज़दूरी के लिए ले आये । उस समय किसी को भी न तो उनके रीति-रिवाजों, धार्मिक-स्थानों और पहनावे से डर लगा और न ही उनके काले बुर्के से । अब हालत यह है कि डेनमार्क में मस्ज़िदों की मीनारों से भी डर लगने लगा है । जब अमरीकी काले लोगों को मज़दूरी करवाने के लिए गुलाम बना कर ले गए थे तब वे बोझा नहीं थे मगर अब 'व्हाइट मैन्स बर्डन' बन गए हैं । पर हम इस बात से सहमत नहीं हैं । आप तो फ़्रांस की संस्कृति और मूल्यों की रक्षा के लिए यह पर्दा हटवाने की कोशिश कर रहे हैं ।

कुछ लोग परदे को भी संस्कृति से जोड़ देते हैं । हमारे यहाँ तो शादी के बाद पत्नी पति तक को भी तब तक अपना मुँह नहीं दिखाती जब तक वह उसे मुँह दिखाई नहीं दे देता । अन्य औरतें भी जब नई दुल्हन का मुँह देखना चाहती हैं तो उन्हें भी मुँह-दिखाई का नेग देना पड़ता है । हालाँकि हमारे यहाँ तो पुरानी औरतों को तो ऐसा अभ्यास हो गया है कि वे घूँघट निकाल कर भी सारे काम आसानी से कर लेती हैं । आजकल कई महिलाएँ घूँघट निकाल कर सरपंची तक कर रही हैं । कई साहसी महिलाएँ तो घूँघट निकाल कर आपने ससुर तक से लड़ भी लेती हैं । इस प्रकार अपनी संस्कृति की रक्षा भी कर लेती हैं और अपने सशक्तीकरण का भी प्रमाण दे देती हैं । फिर भी आजकल कोई भी पर्दा प्रथा का समर्थन नहीं करता । शर्म तो आँखों की होती है । बेशर्म परदे में भी सभी खुराफातें कर जाती है और शर्म वाली खुले मुँह भी गलत काम नहीं करती ।

घूँघट अर्थात् पर्दे के कुछ फायदे भी हैं । झीने घूँघट में सारी कमियाँ छुप जाती हैं । पहले, दिन में तो पत्नी का मुँह देखने का अवसर ही नहीं मिलता था । रात तो अवसर मिलता था तो लगता था कि आज ही पहली बार मिल रहे हैं । ज़िंदगी भर आकर्षण बना रहता है । तभी हमारे यहाँ एक गीत है- 'थारै घूँघटिये मैं सोळा सूरज ऊग्या ए मरवण' । पहले यह सब चलता था पर अब तो एक सूरज से ही ग्लोबल वार्मिंग का खतरा हो गया है । सोलह को कौन बर्दाश्त करेगा । सौंदर्य पूरा ही एक साथ दिख जाये तो उसका आकर्षण ख़त्म हो जाता है । तभी अंग्रेजी में भी तो कहा गया है- हाफ कंसील्ड एंड हाफ रिवील्ड । कभी आधे घूँघट में से, एक आँख से झाँकती नायिका का चित्र देखा है ? आपके योरप में पूरा चेहरा ही क्या सारा शरीर ही सारे दिन दिखता रहता है । चोली और चड्डी बस इतनी सी रहती है कि कानूनी रूप से गुप्त अंग न दिखें । वैसे कोशिश यही रहती है कि सब कुछ पारदर्शी हो जाये । राजनीति और अर्थ व्यवस्था में जहाँ पारदर्शिता होनी चाहिए वहाँ तो हज़ार चोरी और जहाँ थोड़ी बहुत लाज-शर्म होनी चाहिए वहाँ कोई सीमा नहीं । हमें लगता है कि यह जो एक दो सेंटीमीटर कपड़ा बचा है वह भी ज़ल्दी ही गायब हो जायेगा । ऐसी संस्कृति की यही परिणति होनी है । तब शायद बाज़ार तन ढँकने के धंधे से कमाई करने की रणनीति बनाएगा ।

वैसे घूँघट के नुकसान भी हैं । एक फिल्म आई थी- घूँघट, जिसमें घूँघट के चक्कर में दुल्हिनें ही बदल गई थीं । यदि घूँघट या पर्दा होता तो आप कार्ला ब्रूनी का सौंदर्य और उसकी फिगर कैसे देख पाते ? और कैसे यह महा-मिलन हो पाता ? हो सकता है कि आपको अपनी पहली दोनों पत्नियों को इतनी पारदर्शिता से देखने का अवसर नहीं मिला हो । आपने उनकी फिगर का अनुमान ३६-२४-३६ का लगाया हो और निकली हो ३४-३२-३५ । अब इतना बड़ा अन्याय कैसे सहा जाये । कोई कह सकता है कि इसमें बच्चों की क्या गलती । पर बच्चों का क्या । अपना भी तो कोई जीवन होता है । पर अगर कार्ला की फिगर वह नहीं रही तो ? पर कार्ला चतुर है । वह आपको ढीला नहीं छोड़ेगी और 'सी-बीच' पर तो जाने ही नहीं देगी वरना क्या पता वहाँ और कोई माडल दिख जाये ।

फ़्रांस में इस समय केवल १९०० बुरका पहनने वाली बची हैं । वे भी धीरे-धीरे कम हो जायेंगी । पर तब तक क्या पता बुर्के में छुप कर कोई आतंकवादी पुरुष ही आ जाये तो ? वैसे असली मुद्दा बुर्का है भी नहीं, मुद्दा तो आतंकवाद है ।

बहुत हो गया । फिलहाल तो सब कुछ ठीक है । क्यों आपके नए नए वेलेंटाइन में बाधा डालें ।

अच्छा तो 'हैप्पी वेल हटाइन डे' ।

२८-१-२०१०

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Feb 2, 2010

बदी में से नेकी - महँगाई के फ़ायदे


आज कई बरसों बाद इतनी ठण्ड पड़ रही थी । कोई दो डिग्री तापमान था । न तो बिजली थी और न ही सूर्य भगवान उदय हुए थे । ठण्ड से बचने का पारंपरिक उपाय अपनाने लगे । झाड़ू से गली के पालीथीन और गुटकों के रेपर इकट्ठे किये और उनमें माचिस लगा दी । लपट उठी और सर्दी तत्काल कम हो गई । बड़ा सुकून मिला । हमें लगा, अंग्रेजी में शायद 'रेग्स टु रिचेज' इसी को कहते हैं । लोग बेकार ही प्लास्टिक संस्कृति की आलोचना करते हैं ।

तभी तोताराम प्रकट हुआ । आते ही पूछने लगा- किस का पुतला जला रहे हो ? हमने कहा- पुतला जलाने से क्या होता है ? अगर कुछ होता हो तो समझले हम महँगाई का पुतला जला रहे हैं, अर्थव्यवस्था का पुतला जला रहे हैं । पर हमें लगता है, जितना किसी का पुतला जलाया जाता है वह उतना ही प्रबल हो जाता है । जैसे किसी नेता का पुतला जलाया जाता है या जिस नेता पर जितने ज्यादा केस चलते हैं वह अगले चुनाव में उतने ही ज्यादा वोटों से जीतता है । अब तो खैर, लोग इतने निराश हो गए हैं और विपक्षी नेता तक इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि महँगाई के विरुद्ध कोई आन्दोलन चलाना तो दूर, चूँ तक नहीं कर रहे हैं । लगता है कि सबकी मिलीभगत है । समझ ले हम तो अपनी रिटायर्मेंट की राशि का पुतला जला रहे हैं । पिछले हफ्ते चीनी चालीस रुपये लाये और कल शाम को पूरे पैंतालीस देकर आये हैं । समझले एक हफ्ते में ही अपने मंथली इनकम स्कीम वाले रुपये बीस प्रतिशत घट गए । इसे कहते हैं जादू- राजनीति और अर्थव्यवस्था के प्रगतिशील गठबंधन का ।

तोताराम ने कहा- राजा, जनता के माता-पिता के सामान होता है । उसका कोई भी कार्य भले ही हमें शुरु में बुरा लगे पर अंततः जनता की भलाई के लिए ही होता है । रामचरित मानस में जब नारद जी विश्वमोहिनी पर आसक्त हो गए थे और उससे विवाह करना चाहते थे तो भगवान ने उन्हें वानर का रूप प्रदान कर दिया । विश्वमोहिनी से विवाह तो दूर, उलटे उनका उपहास और हुआ । कुद्ध होकर नारद जी ने भगवान को श्राप दिया कि आपने मुझे वानर का रूप प्रदान करके मेरा मजाक उड़ाया है तो आप भी पत्नी का वियोग सहेंगे और वानर ही आपकी सहायता करेंगे ।

जब रामावतार में सीता का हरण हुआ और भगवान राम सीता की खोज में व्याकुल होकर भटक रहे थे तो नारद उनके पास गए और पूछा- हे भगवान, जब मैं विश्वमोहिनी से विवाह करना चाहता था तो आपने मुझे विवाह क्यों नहीं करने दिया ? भगवान राम ने उत्तर दिया- हे नारद, मुझे अपने भक्त उसी प्रकार प्रिय होते हैं जैसे कि लोकतंत्र में राजा को उसकी प्रजा या माता को उसका पुत्र । जब बालक अग्नि को छूने के लिए दौड़ता है तो वह उसको ज़बरन रोकती है । यदि उसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वह उसके भले के लिए उस फोड़े पर चीरा लगवा देती है । इसी प्रकार मैंने तुम्हारे भले के लिए ही तुम्हें विवाह नहीं करने दिया ।

इसी प्रकार हे मास्टर, सरकार भी हमारी माता के सामान है जो हमारे भले के लिए ही चीनी और अन्य खाद्य पदार्थ महँगे करवा रही है जिससे हम शुगर और हृदय रोगों से बचे रहें । जब आज से दस बीस बरस बाद देखेगा कि तुझे इस प्रकार की कोई बीमारी नहीं हुई है तब तुझे सरकार के जनता-प्रेम का पता चलेगा । यह सरकार द्वारा की गई हमारी केयर का ही परिणाम है कि हम मोटापे की बीमारी से मुक्त हैं वरना अमरीका में तो चालीस प्रतिशत लोग मोटापे की बीमारी से ग्रसित हैं ।

पुराने लोग कहा करते थे कि नेकी बदी में से निकलती है । पहले हम समझा करते थे कि क्या फालतू बात है । भला बदी में से नेकी कैसे निकल सकती है । आज उस कहावत का मर्म समझ में आया । और हमने तोताराम के थ्रू सरकार को धन्यवाद दिया ।

१५-१-२०१०
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Jhootha Sach

Feb 1, 2010

बचो, बधाईगीरों से सोनिया जी !

सोनिया जी,
नए वर्ष की बधाई । वैसे तो हमें बधाई बहुत पहले ही दे देनी चाहिए थी पर हम बधाई जैसी औपचारिकताओं में विश्वास नहीं करते । वैसे तो इस देश में ही क्या, सारी दुनिया में ही बधाई का धंधा बड़े ज़ोरों पर है । स्वार्थी लोग किसी भी तरह बड़े लोगों के संपर्क में आना चाहते हैं और फिर उस संपर्क का आर्थिक लाभ उठाना चाहते हैं । अब देखिये न, ओबामा ने सलाही को नहीं बुलाया था पर पहुँच गए श्रीमान बीवी को लेकर सज-धज कर और जाकर तपाक से हाथ मिला ही लिया ओबामा से । यह तो मीडिया वालों ने पकड़ा दिया वरना वे तो सिक्योरिटी वालों को चकमा दे चुके थे । इस देश, मतलब कि, भारत में भी ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है । इनका धंधा ही यह है ।

यदि आप अख़बार देखती होंगी तो पता चलेगा कि किस-किस बात के लिए छोटे-छोटे शहरों में लोग आपको किस-किस काम के लिए बधाई दे रहे हैं । इस प्रकार ये लोगों में, आपका भक्त होने और आपके नज़दीक होने का, भ्रम फैलाते हैं । वैसे इनमें से अधिकतर कोई हाड़तोड़ मेहनत नहीं करते, पर इनके ठाठ देखिये । दिन में चार बार कुरता बदलते हैं । आम आदमी का सारे दिन काम करने पर भी गुज़ारा नहीं चलता पर इनको रेली, बधाई, शुभकामनाओं, जुलूसों में भाग लेने से ही फुर्सत नहीं है । पता नहीं किस तरह से इनकी गृहस्थी की गाड़ी चलती है । इन्होंने अच्छे-अच्छों को डुबो दिया । इसलिए इनसे सावधान रहिये ।

हमें इंदिरा जी के समय की बात याद है । जब १९७५ में जज सिन्हा ने उनके खिलाफ़ फैसला दिया तो उन्हें इसका सम्मान करते हुए इस्तीफ़ा दे देना चाहिए था और नए चुनाव करवाने चाहिए थे । ऐसा करने पर वे पुनः जीत कर आतीं पर उन चमचों में इतना धैर्य कहाँ जो उनकी आड़ में अपनी रोटियाँ सेक रहे थे । तो उन्होंने उन्हें समझाया कि इस देश की जानता चाहती है कि आप त्याग पत्र नहीं दें और इमर्जेंसी लगा दें । जब इमर्जेंसी लगी तो किसी ने भी उन्हें सच नहीं बताया कि इमर्जेंसी की आड़ में लोग क्या-क्या खुराफातें कर रहे हैं । वे तो उन्हें यही समझाते रहे कि जनता बहुत प्रसन्न है । समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों के झूठे-मूठे प्रतिनिधि मंडलों को ले जाकर उनसे मिलवाते रहे और उन्हें यह विश्वास दिलाते रहे कि जनता उनके साथ है , पर स्थिति इसके विपरीत थी ।जब चुनाव का परिणाम आया तो बात साफ़ हो गई । इस देश में अधिकतर नेताओं ने नेहरू परिवार की आड़ में अपने स्वार्थ साधे हैं और स्वार्थ के लिए ही संकट आने पर डूबती नाव को छोड़ कर भाग भी गए हैं ।

हमें विश्वास है कि आप पुराने अनुभवों से लाभ उठाकर समझदार हो गई हैं । इसलिए फालतू लोगों को मुँह नहीं लगाती हैं फिर भी मानव स्वभाव है । प्रशंसा सब को अच्छी लगती और आदमी झूठे प्रशंसकों के जाल में आ ही जाता है । यह देखना ज़रूरी है कि प्रशंसा या निंदा कौन कर रहा है । यदि कोई निस्वार्थ व्यक्ति प्रशंसा कर रहा है तो उसी रास्ते पर चलते रहिये और यदि कोई निस्वार्थ आदमी आलोचना कर रहा है तो गंभीर चिंतन करिए कि कहाँ गलती या कमी है । स्वार्थी आदमी की निंदा या प्रशंसा का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि उसके दोनों ही काम स्वार्थ के लिए होते हैं । इसलिए हम जैसे निस्वार्थ व्यक्ति की भी बात सुन लिया कीजिए ।

कुछ दिनों पहले पढ़ा था कि ३७५०० किलोमीटर लम्बे राष्ट्रीय राज मार्ग पर हर २५ किलोमीटर पर आपके और मनमोहन जी के फ़ोटो वाले २०x१० फुट के होर्डिंग लगेंगे । इनकी संख्या १४८८ होगी और हरेक होर्डिंग पर दो लाख रुपये का खर्चा आएगा । कुल ३० करोड़ का तमाशा होगा और उसमें निश्चित्त रूप बीस करोड़ रुपये किसी न किसी धन्धेबाज की जेब में जायेंगे । एक बार एड्स अवेयरनेस प्रोग्राम के तहत देश में जागृति फ़ैलाने के लिए जगह-जगह करोड़ों रुपये के होर्डिंग लगे थे । पता नहीं कितने के, कितने होर्डिंग लगे और कितने ही बिल पास होने के तत्काल बाद वापिस गोदाम में पहुँच गये, अगले किसी जागृति कार्यक्रम में उपयोग में लाने के लिए । यही हाल इन बिलबोर्डों का भी हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं । और मानलें कि ऐसा नहीं हुआ और ये होर्डिंग अनन्त काल तक लगे भी रहे तो भी अंततः इनकी क्या उपयोगिता है । भूखे लोगों को यह कभी अच्छा नहीं लगेगा । इतने रुपयों में इस देश के ग्रामीण इलाकों में छः हज़ार लोगों के सिर पर काम चलाऊ छत हो सकती है । तब आपकी और मनमोहन जी की तस्वीर लोगों के दिल में होगी । दिल वाली तस्वीर ही स्थाई होती है ।

हम नेहरू जी का ज़माना याद करते हैं तो पाते हैं कि उस ज़माने में होर्डिंग तो दूर, चुनावों में गाँव में मुश्किल से दस बीस पोस्टर आते थे जिनमें केवल नेहरू जी का फ़ोटो और दो बैलों की जोड़ी का निशान होता था और छपा होता था- कांग्रेस को वोट दें । हमारे पिताजी वह पोस्टर लाये थे और गत्ते पर चिपका कर बैठक में टाँग दिया था । तो यह था दिल में टंगा फ़ोटो । हम तो उसी दिन के इंतजार में हैं कि आपका फ़ोटो उसी तरह लगे । ये होर्डिंग वाले फ़ोटो तो कोई भी पैसे वाला लगवा सकता है । पर ये ज्यादा टिकाऊ नहीं होते । आपके और मनमोहन सिंह जी के फ़ोटो लगवाने की यह महान सूझ युगद्रष्टा कमल नाथ जी की ही होगी ।

कमल नाथ जी के बाप का क्या जाता है । उलटे कोई न कोई फायदा ही होगा क्योंकि ठेका भी तो उनके ही किसी न किसी भक्त को मिलेगा । जनता का पैसा है उसे किसी न किसी बहाने खर्च करना ज़रूरी है तभी तो कुछ मिलेगा । यूँ ही तो नहीं कहा गया है कि - बाँटन वारे को लगे ज्यों मेहंदी को रंग । सभी लगे हैं अपने-अपने हाथ पीले करने में । इन्हें रंगे हाथों कौन पकड़ सकता है ।

आपने उन बिलबोर्डों पर अपनी फ़ोटो लगाने से मना कर दिया है । अच्छा किया पर हम जानते हैं कि ये बगुला भगत मानने वाले नहीं हैं । किसी न किसी बहाने आप को खुश करने और जेब भरने के दोनों ही काम ये किसी न किसी तरह करके ही रहेंगे । पहले यह काम राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण करने वाला था अब कोई प्राइवेट ठेकेदार करेगा पर खर्चा तो लगेगा ही ना । राजमार्गों पर ही क्या, सभी जगहों पर लोगों को रास्ता ढूँढ़ने के लिए सूचनाएँ चाहियें ही । इसलिए फ़ोटो ही नहीं, अपव्यय को भी ड्राप करवाइए । सो सूचनाएँ तो लगवाइये ही, इसमें किसी को क्या ऐतराज़ हो सकता है बल्कि सुविधा ही होगी । राज मार्ग से जहाँ भी किसी गाँव या शहर का रास्ता फटता है वहाँ वहाँ बड़ा सा बोर्ड लगवा दीजिये, बस काफ़ी है ।

धन का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए । धन हवा में पैदा नहीं होता उसके लिए मानव का पसीना बहता है । कमीशन खाने वालों को क्या पता कि धन कैसे सृजित होता है । वे तो हर काम, अपने कमीशन को ध्यान में रख करके ही करते हैं ।

आपने किसी भी भारतीय से ज्यादा भारत को समझा है । फालतू बात न करना और काम करना । हम आपका फ़ोटो बिलबोर्डों पर नहीं, लोगों की आँखों में खुशियों की चमक के रूप में देखना चाहते हैं ।

आपमें और मायावती जी में फर्क है । होना भी चाहिए । और वह दिखना भी चाहिए ।

इसलिए फिर कहते हैं कि बचो सोनिया जी, बधाईगीरों से मतलब उठाईगीरों से ।

९-१-२०१०
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