Apr 21, 2010

असली गरीब

चौपट नगरी में वीकएंड की रात का दूसरा पहर बीत चुका है । चौपट महल के रखवाले ऊँघने लगे हैं । पर महाराज की आँखों में नींद नहीं । सारे सुखों को त्याग कर महाराज कक्ष से बाहर निकले । दबे पाँव चारदीवारी फाँदकर कर जनपथ पर आ गए और छुपते-छुपाते संसद के पिछवाड़े को जाने वाली पगडंडी पकड़ ली । दीवार तक पहुँचने पर चार ईंटें हटाकर गुप्त मार्ग से प्रवेश करके संसद के कुँए के पास जा निकले ।

बड़ी सावधानी से कुँए से 'सत्य का शव' निकाला और कंधे पर डाल कर गुप्त मार्ग से बाहर निकलने लगे । तभी शव में स्थित बेताल बोल उठा- राजन, जब सारी चौपट नगरी वीकएंड मनाती है तब तुम क्यों सारे सुखों को त्याग कर सत्य के शव को ठिकाने लगाने के लिए चल पड़ते हो ? जब कि तुम अच्छी तरह से जानते हो यह सत्य बड़ा चीमड़ है और किसी न किसी बहाने तुम्हारे चंगुल से निकल जाता है । आज फिर तुम इसे उठा कर चल पड़े हो ।

महाराज कुछ नहीं बोले तो बेताल ने कहा- पर तुम्हारी भी क्या गलती । राजा को हर समय सत्य के उठ खड़े होने का डर सताता रहता है । उसके लिए चैन की नींद सोना मुश्किल हो जाता है । मुझे तुमसे पूरी सहानुभूति है । तुम्हारा मन बहलाने और श्रम भुलाने के लिए, लो मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ ।

किसी देश में एक राजा रहता था । वह बड़ा संवेदनशील था । बहुत ज़ल्दी ही किसी का दुःख देखकर वह द्रवित हो जाता था । इसलिए उसके दरबारी उसे ग़रीबों और दुखियों से बचाकर रखते थे । किसी भी कार्यक्रम में लोगों को लाते समय वे यह ध्यान रखते थे कि कहीं कोई गरीब, कुपोषित और बदसूरत व्यक्ति न आ जाए । राजा अपनी सुखी प्रजा को देखकर बहुत खुश होता था ।

दुर्भाग्य से उस देश में गणतंत्र आ गया । लोगों को वोट देने का अधिकार मिल गया । वैसे तो दरबारी यह ध्यान रखते थे कि ग़रीबों के वोटों का ठेका दादाओं को दे दिया जाए और वे उनके वोट उन लोगों के पक्ष में ही डलवा दें जिनके हाथों में राज सदा से सुरक्षित रहता आया है । पर कभी अनचाहा भी हो जाया करता था ।

एक बार चुनाव के दिन चल रहे थे । यूं तो दरबारियों ने रोड शो के समय भी यह इंतज़ाम कर रखा था कि राजा की निगाह ग़रीबों पर न पड़ जाए । पर एक बार राजा की कार अचानक एक ऐसी जगह ख़राब हो गई जहाँ आसपास गरीब लोग रहते थे । ग़रीबों ने राजा की कार को धक्के देकर निकलवाया और स्टार्ट करवाया । राजा ने पूछा- ये किस लोक के प्राणी हैं । तो इन्हें पता चला कि वे उनके ही राज्य के जीव हैं । तो उन्हें लगा कि इनका उद्धार किया जाए । जब उन्होंने अपने दरबारियों से पूछा तो दरबारियों ने सुझाव दिया- महाराज, इनकी जाति को आरक्षण दे दिया जाए । किसी का उद्धार करने का यही उपाय है । महाराज ने उन्हें चौदह प्रतिशत का आरक्षण दे दिया ।

कुछ महिनों के बाद राजा को ध्यान आया कि जिनको आरक्षण दिया उनका कितना उद्धार हुआ । तो उन्होंने फिर उस इलाके का दौरा किया जहाँ उन्होंने ग़रीबों को देखा था । मगर उनकी हालत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था । मगर उस आरक्षण का लाभ उठा कर उसी जाति के धनवान लोग और धनवान हो गए थे । हे राजन, बताओ कि आरक्षण के बाद भी उन ग़रीबों का उद्धार क्यों नहीं हुआ ? यदि तुमने जानते हुए भी सही उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा ।

महाराज चौपटादित्य ने कहा- हे बेताल, सरकार के ग़रीबों का उद्धार करने में कहीं कोई कमी नहीं है । जिसको धन की जितनी ज्यादा चाह है वह उतना ही गरीब है । शास्त्रों में कहा गया है- 'जिनको कछू न चाहिए सो ही साहंसाह ।' जो लोग रूखी सूखी खाकर, राम का नाम लेकर सो जाते हैं, और अगले दिन सुबह फिर रोटी के जुगाड़ में निकल जाते हैं उनके पास संतोष का धन है । आगे भी शास्त्रों में कहा गया है- 'जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान' । अतः जिनको तुम गरीब कहते हो वे सच्चे धनी हैं । गरीब तो वे सेठ, नेता, अधिकारी और दलाल है जो सारे दिन हाय धन, हाय धन चिल्लाते रहते हैं । सो आरक्षण का लाभ यदि इन्हीं गरीब लोगों तक पहुँचा है तो इसमें गलती देखने की क्या बात है । जो गलती देखते हैं वे ही अज्ञानी है ।

महाराज चौपटादित्य का उत्तर सुन कार बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

२०-८-२००८

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Jhootha Sach

Apr 20, 2010

न रुपया लिया, न दिया

थरूर जी,
आपने परसों कहा कि आपने आई.पी.एल. के मामले में आपने न रुपया लिया और न दिया । आप जैसे संतों के पुण्य प्रताप से ही यह धरती थमी है । कबीर कहता है- 'कुछ लेना न देना, मगन रहना' । आपने भी न कुछ लिया और न दिया । तभी तो मगन रहते हैं । कभी ट्विट्टर लिखना, कभी ऐसी अंग्रेजी झाड़ना जो हम जैसों को समझ में न आए । और फिर सफाई देना । फकीरों की बात लोग समझते ही कहाँ हैं । समझने वाले उनकी गाली का भी कोई काम का मतलब निकाल लेते हैं और सच्चे ज्ञान का आनंद लेते हैं । संत, फकीर कौन सी नौकरी करते हैं जो हिसाब-किताब रखेंगे । जो चाहिए सो भक्त लोग दे जाते हैं फिर क्यों कमाने, सामान लाने, पकाने, बर्तन साफ करने के चक्कर में पड़ना । तभी गाते रहते थे- कुछ लेना न देना मगन रहना ।

हम तो पेंशन आने से पहले ही हिसाब किताब लगाने लग जाते हैं कि इस बार किसका उधार बाकी रखना है और किसको थोड़ा सा देकर टरकाना है । और पेंशन भी कौन कोई घर आकर दे जाता है । पहले ऐसा प्रावधान था कि दस रूपए एक्स्ट्रा लेकर बैंक का का कोई कर्मचारी घर आकर ही पेंशन का रुपया दे जाता था । पर अब वह प्रावधान भी नहीं रहा । अब तो लम्बी लाइन लगानी पड़ती है । कभी-कभी तो नंबर ही नहीं आता और ऐसे ही वापिस आना पड़ता है । पर आपकी बात और है ।

हमारे एक प्राचार्य थे जो तीन सौ नंबर का ज़र्दे का पान खाते थे और विल्स की सिगटर पीते थे । वे कभी बाज़ार नहीं जाते थे । रोज़ उनका एक भक्त चार पान बँधवाकर और विल्स का एक पेकेट लाकर रोज़ उनकी टेबल पर रख दिया करता था । ऐसी स्थिति में पैसों को हाथ लगाने की क्या ज़रूरत । बदले में उसे कभी क्लास में जाने को नहीं कहते थे । और कभी परचेजिंग करनी होती तो वही भक्त करता था । इस प्रकार बिना कागजी कार्यवाही के ही सब कुछ चलता रहता था । अगर भगवान की दया से सबके साथ ही ऐसा होने लगे तो रुपए को हाथ लगा कर क्या करना । रुपया कोई खाने या चाटने की चीज़ तो है नहीं । ऐसे ही एक साधू महाराज भी पैसे को हाथ नहीं लगते थे । जब कोई भक्त कुछ भेंट करना चाहता तो उनके चेले कहते- तुम्हें पता नहीं, महाराज माया को हाथ नहीं लगते । इस दान पात्र में डाल दो ।

एक बात और । उन दिनों हम अंडमान में थे । वहाँ एक अधिकारी निरीक्षण करने के लिए आए । हम उनको वहाँ के एक सरकारी कृषि फार्म में घुमाने के लिए ले गए । वहाँ उन्होंने अंडमान की काली मिर्च और लौंग की बहुत बड़ाई की । हम समझ गए और उनके लिए कुछ लौंग और काली मिर्च बँधवा ली । इसी तरह शाम को उन्होंने वहाँ के सीपी के गहनों की बहुत चर्चा की तो हमारे प्राचार्य समझ गए और उनके लिए एक सेट मँगवा दिया । सेट देखकर वे कहने लगे- यह चाँदी के तारों में गुंथा हुआ होता तो अच्छा रहता क्योंकि दिल्ली में इस काम के जानकर थोड़े ही मिलेंगे । इसके बाद उनके लिए चाँदी के तारों में गुंथा हुआ सेट लाया गया । उन्होंने भी पैसों के हाथ नहीं लगाया । पर सबकी ऐसी किस्मत कहाँ होती है । आप ने भी न रुपए लिए और न दिए । ज़रूरत भी क्या थी ।

एक बहुत बड़े राज्य के मुख्य मंत्री थे । अब तो नहीं रहे । अल्लाह उन्हें जन्नत बक्शे । उनका बेटा जीवन बीमा का धंधा करता था । सो वे यही कहते थे कि जीवन का क्या भरोसा । सो हर आदमी को जीवन बीमा अवश्य करवाना चाहिए । काम करवाने आने वाले समझ जाते थे और लम्बी-चौड़ी रकम का बीमा करवा लेते थे । पैसे को हाथ लगाने की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी । पुराने ज़माने में मास्टर लोग न तो ट्यूशन करते थे और न ही किताबें-नोटबुक बेचकर पैसे कमाते थे । जिधर भी निकल जाते कोई दूध दे देता था तो कोई छाछ । कोई लौकी दे देता था तो कोई भुट्टे । इसी तरह ज़िंदगी चल जाती थी । कभी मास्टर जी की बेटी की शादी होती तो भी लोग अपनी श्रद्धा अनुसार मदद कर ही देते थे । उस समय न तो मास्टर जी की ज़रूरतें ज्यादा होती थी और न ही लोग कोई हिसाब-किताब करते थे । पर आजकल तो मामला करोड़ों का है सो हम क्या बताएँ । हम तो छात्रों और उनके पिताओं की छोटी-मोटी भक्ति का ही हिसाब किताब जानते हैं । फिर भी यह तो आपके अनुसार सच ही है कि आपने न रुपए लिए और न दिए ।

पर सब न तो आपकी तरह होते हैं और न ही हमारी तरह । आजकल लोग तो एक चाय का भी हिसाब रखते हैं । और आप तो फँस गए मोदी जी से । क्या समझते हैं- व्यापारी, दुकानदार और लाला एक-एक पैसे का हिसाब रखते हैं । जो ग्राहक खरीददारी करने वाला दिखाई नही देता उसे ठंडा-गरम पिलाना तो दूर की बात है पानी के लिए भी नहीं पूछते । सो आप क्या समझते हैं कि मोदी जी ने कोई हिसाब-किताब नहीं रखा होगा । अब समय आने पर सारा बही-खाता निकाल कर दिखा देंगे । और आप जानते हैं कि लाला की बही को तो कोर्ट भी मानता है । कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनका कहना ही बही होता है । कांग्रेस के लम्बे समय तक कोषाध्यक्ष रहे सीताराम केसरी जी के बारे में कहा जाता है कि 'न खाता न बही जो केसरी जी कहें जो सही' ।

संत कहते हैं- 'बही लिख-लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ लुटाना है' । पर सबको थोड़े ही यहीं लुटाना है । जिनको आपने साथ ले जाना या किसी मित्र को देना है उन्हें तो हिसाब रखना ही पड़ता है । हिसाब तो आपने भी रखा होगा । तभी तो गिन कर 'स्वेट शेयर' वापिस कर दिए ।

अब आप जाने या फिर मोदी जी या फिर भगवान । हम तो क्या कहें पर अपने साठ साल के अखबार पढ़ने के अनुभव के आधार पर यही कह सकते हैं कि आपको चिंता करने की ज़रूरत नहीं । आज तक किसका क्या हुआ है जो आपका होगा । आपने इस्तीफा दे दिया और विपक्ष चुप हो गया । बात ख़त्म ।

हम तो तुलसी दास जी शब्दों में कह सकते है- 'जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई' । मतलब कि जैसे-जैसे लाभ होता है या पैसा आता है उतना ही लोभ बढ़ता जाता है । यदि आदमी पकड़ा नहीं जाता है तो समझ लेना चाहिए कि भगवान किसी बड़े गड्ढे में ले जाकर गिराने वाला है । हममें तो इतनी ही समझ है थरूर जी, आगे आप जानें ।

१८-४-२०१०

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Jhootha Sach

आल इन वन

चौपट नगरी में वीकएंड की रात का दूसरा पहर बीत चुका है । चौपट महल के रखवाले ऊँघने लगे हैं । पर महाराज की आँखों में नींद नहीं । सारे सुखों को त्याग कर महाराज कक्ष से बाहर निकले । दबे पाँव चारदीवारी फाँदकर कर जनपथ पर आ गए और छुपते-छुपाते संसद के पिछवाड़े को जाने वाली पगडंडी पकड़ ली । दीवार तक पहुँचने पर चार ईंटें हटाकर गुप्त मार्ग से प्रवेश करके संसद के कुँए के पास जा निकले ।

बड़ी सावधानी से कुँए से 'सत्य का शव' निकाला और कंधे पर डाल कर गुप्त मार्ग से बाहर निकलने लगे । तभी शव में स्थित बेताल बोल उठा- राजन, जब सारी चौपट नगरी वीकएंड मनाती है तब तुम क्यों सारे सुखों को त्याग कर सत्य के शव को ठिकाने लगाने के लिए चल पड़ते हो ? जब कि तुम अच्छी तरह से जानते हो यह सत्य बड़ा चीमड़ है और किसी न किसी बहाने तुम्हारे चंगुल से निकल जाता है । आज फिर तुम इसे उठा कर चल पड़े हो ।

महाराज कुछ नहीं बोले तो बेताल ने कहा- पर तुम्हारी भी क्या गलती । राजा को हर समय सत्य के उठ खड़े होने का डर सताता रहता है । उसके लिए चैन की नींद सोना मुश्किल हो जाता है । मुझे तुमसे पूरी सहानुभूति है । तुम्हारा मन बहलाने और श्रम भुलाने के लिए, लो मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ ।

सेवानगर में एक सेवक रहता था । वैसे तो उसका नाम सेवाराम था पर वह आपने को सेवा सिंह कहता था । सेवा सिंह इसलिए कि कुछ तो उसका स्वास्थ्य अच्छा था दूसरे बचपन में पढ़ाई में कमज़ोर होने के कारण उसने आपने समवयस्कों के बीच स्वयं को दादागीरी के बल पर स्थापित भी कर लिया ।

सेवा सिंह का जीवन बड़ा रोमांचक रहा । उसे किसी के नीचे काम करना अच्छा नहीं लगता था । इसलिए उसने अपना स्वयं का काम शुरु किया । सबसे पहले वह सिनेमा हाल पर टिकटों का ब्लेक किया करता था मगर जब से टीवी पर सीडी से सिनेमा देखने का चलन शुरु हुआ तो सिनेमा हाल बंद होने लगे तो उसका धंधा कहाँ से चलता ।

इसके बाद उसने देसी दारू का धंधा शुरु किया । उसका मानना था कि इससे देसी तकनीक का विकास होगा, विदेशी मुद्रा की बचत होगी, अपने आसपास के कुछ लोगों को रोजगार भी दिया जा सकेगा और सबसे बड़ी बात कि आज के टेंशन के ज़माने में सस्ते में लोगों का टेंशन दूर कर सकेगा । वैसे वह किसी का जायज़ हक़ मारने के पक्ष में भी नहीं था सो नेताओं और पुलिस वालों को पहले तोड़ की बोतल गिफ्ट कर देता था । धीरे-धीरे उन लोगों की माँग बढ़ती गई तो मुनाफा कम होने लगा सो सेवा सिंह ने अपना धंधा बदल लिया ।

तीसरा धंधा उसने पिछड़े इलाकों से लड़कियाँ उठवाने का किया । यह काम भी वह सेवा मानकर ही करता था । इससे माँ-बाप की दहेज़ की समस्या हल हो जाती थी और धंधे में जम जाने के बाद लड़कियाँ अपने घर वालों को कुछ भेजने भी लगती थी जिससे उनके घर की अर्थव्यवस्था भी सुधर जाती थी । और आज के ज़माने में बदरंग होते जा रहे जीवन में कुछ उल्लास का संचार भी हो जाता था । पर चूँकि उसका यह धंधा कुटीर स्तर पर चलता था इसलिए लोग उसे अच्छा नहीं मानते थे और फिर एड्स वाले भी बिना बात हल्ला मचाते थे सो पुलिस वालों ने उसे सहयोग नहीं दिया । और वह धंधा भी सेवा सिंह को बंद करना पड़ा ।

अंत में उसने अपने घर पर ही जुआ खिलाने का काम शुरु किया । कुछ दिन तो चला पर जब से लोग घर पर बैठे-बैठे ही मोबाइल पर सट्टा और शेयर का धंधा करने लगे तब से उसे भी छोड़ना पड़ा । राजनीति में भी जाने की कोशिश की पर लोगों ने अपना खुद का तंत्र इतना विकसित कर लिया है कि जेल में बैठे-बैठे ही सुपारी दे देते हैं, किसी भले उम्मीदवार को फोन पर धमका कर ही नाम वापस करवा देते हैं तो उस जैसे ज़मीनी कार्यकर्ता के भाव गिर गए ।

हे राजन, क्या तुम ऐसे पुरुषार्थी, मेहनती और सेवाभावी व्यक्ति की सहायता करने के लिए कुछ नहीं कर सकते ? यह आदमी दिल का बुरा नहीं है । जो काम करता है उसे बड़ी सेवा भावना से करता है । पर क्या किया जाए वह इन कामों के अलावा कुछ और धंधा जानता भी तो नहीं ।

महाराज चौपटदित्य ने कहा- मुझे तो यही आश्चर्य है कि ऐसा गुणी आदमी अब तक देश के चर्चित और भद्र लोगों में शामिल कैसे नहीं हो पाया । उसे चाहिए कि जैसे भी हो कुछ लोगों को इकठ्ठा करके क्रिकेट की एक टीम बना ले । टीम जीते या नहीं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता पर उसकी लड़कियाँ सप्लाई करने, दारू परोसने और जुआ खिलाने और टिकटों का काला धंधा करने की सभी योग्यताओं का पूरा-पूरा सदुपयोग हो जाएगा । इससे वह भद्र जनों में तो तत्काल ही शामिल हो जाएगा । हो सकता है कि इस खुराफात-खेल की राजनीति के समय में मंत्री भी बन जाए ।

महाराज चौपटादित्य का उत्तर सुनकर बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

१८-४-२०१०

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Jhootha Sach

Apr 19, 2010

चोगा, टोपी और बर्बरता

जयराम रमेश जी,
जय राम जी की । आप २ अप्रेल को भोपाल आए, वन अधिकारियों के दीक्षांत समारोह में डिग्रियाँ बाँटने के लिए । आजकल तो तथाकथित महँगे अमरीकी पैटर्न स्कूल वाले, प्ले ग्रुप वाले बच्चे तक का ग्रेज्यूएशन समारोह करने लग गए । यह तो खैर असली का दीक्षांत समारोह था ।

जब आपका दीक्षांत समारोह हुआ होगा तब तो आप बड़ी अदा से चोगा पहन कर गए होंगे और फ़ोटो भी खिंचवाया होगा । हमने भी कोई अड़तालीस बरस पहले दीक्षांत समारोह में भाग लिया था । टोपी तो नहीं थी पर चोगा ज़रूर था । सो फ़ोटो भी खिंचवाया और कोई दसेक बरस तक बड़े अंदाज में दीवार पर टाँग कर भी रखा । इसके बाद जब एम.ए. की डिग्री लेने गए तो यूनिवर्सिटी वालों ने चोगे का फैशन ही ख़त्म कर दिया सो हम डिग्री लेने ही नहीं गए । डाक से ही मँगवा ली दस रुपए भेज कर । अब तो हम, हमारे बच्चे और बहुओं की ही इतनी डिग्रियाँ हो गईं कि दीवार पर टाँगने की लिए जगह ही नहीं बची । इन भोपाल वालों ने अभी तक चोगा और टोपी लागू कर रखे हैं और वह भी राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा के शासन में । हमें लगता है कि कहीं आपने भाजपा के इस राष्ट्रवाद की पोल खोलने के लिए तो स्टेज पर ही चोगा नहीं उतार फेंका ?

वैसे भोपाल में भी गरमी कोई कम नहीं पड़ती पर आपके लिए तो वहाँ स्टेज पर कूलर या ए.सी. का इंतज़ाम होगा । हमने तो गरमी में भी नेताओं को सूट पहने देखा है । हमारी बात और है हम तो गर्मियों में घर पर बस एक लुंगी में रहते हैं । भले ही लोग हमें असभ्य कहें । आजकल सलमान खान के शर्ट उतारने के कारण स्टेज पर कपड़े उतारने का भी फैशन चल पड़ा है । गाँव में तो कहा जाता है कि सबसे बड़ा कौन ? सबसे बड़ा नंगा । राजनीति में ही देख लीजिए जो नंगई करता है उसकी पूछ ज्यादा होती है । नंगे से तो कहते हैं भगवान भी डरता है । धोती के भीतर तो सभी नंगे होते हैं पर मंच पर कपड़े उतारना बड़े साहस का काम है । हम तो क्या बताएँ, चालीस बरस मास्टरी की पर कभी क्लास में सोने का साहस नहीं कर सके । कभी मंच पर कविता भी पढ़ी तो बड़ी शालीनता से । और हमारे ही कई साथी मंच पर ही पी लेते थे और कभी-कभी तो मंच पर ही उलटी भी कर देते थे । वे अभी तक कवि-सम्मेलनों से पैसे कूट रहे हैं और हम हैं कि केवल लिखते हैं । ठीक भी है, साहस के बिना कुछ नहीं होता ।

आपने चोगे को गुलामी और बर्बरता का प्रतीक बताया । अंग्रेजों की सीधी गुलामी तो खैर अब नहीं है पर अब वह हमारे दिमागों में घुस गई है । हमें अपने देश का कुछ भी अच्छा नहीं लगता और बाहर का गोबर भी आदरणीय समझते हैं । तभी आपको याद होगा हमारे एक मंत्री जी हालेंड से गोबर का आयात करने के लिए समझौता कर आए थे । हमें आपके बयान के बाद यह भी डर था कहीं कोई यह न कह दे कि इस बयान से ईसाइयों की धार्मिक भावना आहत हुई है । और मज़े की बात देखी कि उसके अगले दिन ही एक पादरी महोदय का बयान आ गया और आप भी उस बयान के बाद चुप हो गए । अच्छा किया, नहीं तो क्या पता थरूर वाली हालत हो जाती । कहा भी गया है कि सबसे भली चुप । आस्कर फर्नांडीज को देख लीजिए चुपचाप अपना काम कर रहे हैं और हर हालत में मज़े में रहते हैं ।

वैसे जहाँ तक चोगों के अत्याचारों की बात है तो कोई भी धर्म इससे मुक्त नहीं है । कोई उन्नीस तो कोई बीस । सारे योरप में लाखों लोगों को धर्म विरोधी कह कर मारा ही गया था । भारत में ईसाई और मुस्लिम क्या लोग अपनी मर्जी से बने हैं ? सभी धर्मों के ठेकेदार लम्बे चोगे ही पहनते हैं । चोगों के नीचे बहुत कुछ छुप जाता है । नोट, चाकू और बंदूक तक । और जहाँ तक चरित्र की बात है तो हजारों पादरी बच्चों के यौन शोषण के चार्ज भुगत रहे हैं, सजा का पता नहीं, होगी या नहीं । फिर भी भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है इसलिए हम केवल अपने धर्म को ही गाली निकाल सकते हैं । किसी और धर्म की सच्ची गलती भी नहीं गिना सकते ।

हमारे यहाँ तो प्राचीन काल में बच्चे आश्रमों में एक लँगोटी लगा कर ही शिक्षा पूरी कर लेते थे । न गुरुओं को चोगों की ज़रूरत थी और न बच्चों को । आज तो निजी स्कूल प्ले ग्रुप के बच्चों तक का टाई से गला घोंट देते हैं ।

आगे आपने एक बात बड़ी मजेदार कही कि टोपी की क्या ज़रूरत है । टोपी तो कार्यक्रम के अंत में केवल उछालने के काम आती है । जहाँ तक अपनी टोपी उछालने की बात है तो क्षमा किया जा सकता है पर आज कल तो लोग दूसरों की टोपी उछालने में ज्यादा रुचि लेते हैं । इसीलिए आजकल नेता लोग टोपी नहीं पहनते हैं । पर उछालने वालों को टोपी नहीं मिलती तो वे संसद में कुर्सियाँ ही उछालने लग जाते हैं । अब भी टोपी केवल वे नेता ही पहनते हैं जो लोगों को इस भ्रम में रखना चाहते हैं कि इसके नीचे अभी तक बाल हैं, मैं अभी तक पूरी तरह गंजा नहीं हुआ हूँ । जिनके सिर पर काले, घने, चमकदार बाल हैं वे बालों का स्टाइल बिगड़ जाने के डर से टोपी नहीं पहनते । वे अपनी जेब में कंघा रखते हैं ।

कभी सेवादल का कार्यक्रम हो तो अध्यक्ष को दिखाने के लिए स्वयंसेवक टोपी पहनते हैं, भाजपा वाले संघ के कार्यक्रम में टोपी पहनते है, मुलायम जी को लोहिया के चक्कर में कभी-कभी साइकल पर बैठ कर रैली निकालने के समय पहननी पड़ती है । बाकी सभी दल टोपी की इस बंदिश से मुक्त हैं ।

वैसे हमारा तो यह कहना है कि ज्ञान न तो डिग्री में है और न डिग्री टोपी और चोगे में है । सच्चा ज्ञान तो कर्म में है । आप फोरेस्ट की डिग्री लेने वालों को यह समझाते कि वनों को कटने मत देना, वनों और वन्य जीवों का सरंक्षण करना । पर असलियत तो यह है कि जब नेता ही रिश्वत लेकर वनों की अवैध कटाई करवाते हैं तो वन अधिकारी बहती गंगा में हाथ क्यों नहीं धोएँगे ।

आप की चोगे वाली बात पर हम तो अपना एक शे'र अर्ज़ करना चाहेंगे-
ऊपर से जो ठहरी दीखे, झील वही तूफ़ानी है ।
लम्बे चोगे, उजली दाढ़ी करतूतें शैतानी हैं ।

५-४-२०१०

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Jhootha Sach

करि आए प्रभु काज

चौपट नगरी में वीकएंड की रात का दूसरा पहर बीत चुका है । चौपट महल के रखवाले ऊँघने लगे हैं । पर महाराज की आँखों में नींद नहीं । सारे सुखों को त्याग कर महाराज कक्ष से बाहर निकले । दबे पाँव चारदीवारी फाँदकर कर जनपथ पर आ गए और छुपते-छुपाते संसद के पिछवाड़े को जाने वाली पगडंडी पकड़ ली । दीवार तक पहुँचने पर चार ईंटें हटाकर गुप्त मार्ग से प्रवेश करके संसद के कुँए के पास जा निकले ।

बड़ी सावधानी से कुँए से 'सत्य का शव' निकाला और कंधे पर डाल कर गुप्त मार्ग से बाहर निकलने लगे । तभी शव में स्थित बेताल बोल उठा- राजन, जब सारी चौपट नगरी वीकएंड मनाती है तब तुम क्यों सारे सुखों को त्याग कर सत्य के शव को ठिकाने लगाने के लिए चल पड़ते हो ? जब कि तुम अच्छी तरह से जानते हो यह सत्य बड़ा चीमड़ है और किसी न किसी बहाने तुम्हारे चंगुल से निकल जाता है । आज फिर तुम इसे उठा कर चल पड़े हो ।

महाराज कुछ नहीं बोले तो बेताल ने कहा- पर तुम्हारी भी क्या गलती । राजा को हर समय सत्य के उठ खड़े होने का डर सताता रहता है । उसके लिए चैन की नींद सोना मुश्किल हो जाता है । मुझे तुमसे पूरी सहानुभूति है । तुम्हारा मन बहलाने और श्रम भुलाने के लिए, लो मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ ।

एक प्रतिबद्ध जनसेवक थे । जैसे आत्मा विभिन्न रूपों में इस मृत्यु लोक में भटकती रहती है पर कभी उसे शांति नहीं मिलती उसी तरह से वे भी छात्र नेता, पंच, सरपंच, एम.एल.ए., एम.पी, मंत्री, राज्यपाल आदि विभिन्न रूपों में राजनीति के भव-सागर में भटकते रहे पर कभी सेवा करना नहीं छोड़ा । सेवा का मेवा उनके रोम-रोम से टपक रहा था । उम्र पचासी से भी ऊपर । अब भी वे यही आस लगाए हैं कि क्या पता कोई राष्ट्रपति के रूप में ही उन्हें देश-सेवा करने के लिए बुला ले । उनकी जितनी उम्र है उतने में तो साधारण आदमी दो-दो जन्म भुगत लेता है । उनके चहरे पर अब भी दमक है और माथे से ओज टपकता है । वे अधमुँदी आँखों लेटे हैं जैसे कि कोई शेर खा-पीकर जंगल में निश्चिन्त विश्राम कर रहा हो । विभिन्न प्रकार के लोग आते हैं और अपने-अपने अनुसार प्रणाम, जुहार करते हैं । वे किसी के लिए हाथ उठा देते हैं, किसी के लिए आँख झपका देते है, किसी को आँख उठाकर देखते है और किसी के लिए वह भी नहीं । सेवा का एक प्रभा मंडल उनके चारों और जगमगा रहा है ।

लोग कहते हैं कि अब वे बूढ़े हो गए हैं । और वे हैं कि अब भी सेवा की ललक दिल में फुदकती है । उनका बेटा भी उन्हीं की परंपरा को आगे बढ़ा रहा है और मंत्री है । अब उनका पोता भी पच्चीस बरस का हो गया है । आजकल लोग युवाओं की बात बहुत करते हैं । यदि युवाओं से ही कोई तीर मारा जाना है तो उनके पोते में क्या कमी है । इसी उम्र में हत्या, बलात्कार और डाके के दसियों केस लगे हैं ।

पर लोग हैं कि उन पर परिवारवाद का आरोप लगा रहे हैं । पर लोग यह क्यों नहीं समझते कि जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के साथ ही देश सेवा का व्रत ले लिया हो वे अब सेवा के अलावा कुछ करने लायक भी तो नहीं रह गए हैं । अब तो बस सेवा की कुछ ऐसी आदत हो गई है कि जब तक किसी की सेवा नहीं कर लो तब तक नींद ही नहीं आती । सारे परिवार का यही हाल है । पर सेवा ऐसे ही नहीं की जा सकती । उसके लिए कोई न कोई पद चाहिए जैसे कि जनता को लूटने या रिश्वत लेने के लिए पुलिस की वर्दी चाहिए । व्यापारियों से रिश्वत लेने के लिए फ़ूड इन्स्पेक्टर या ड्रग इन्स्पेक्टर का पद चाहिए । आजकल सेवा करने के लिए लोग नकली इन्स्पेक्टर या नकली थानेदार बनकर आते हैं । कभी-कभी पकड़े भी जाते हैं पर बाद में उनका कुछ नहीं होता क्योंकि उनकी सेवा की लगन देखकर तंत्र उन्हें छोड़ देता है । आज कल तो हालत यह हो गई है कि यमदूत भी नकली आ जाते हैं और किसी भी गरीब को समय से पहले भी पकड़ ले जाते हैं । बड़े आदमी के यहाँ तो ये जाने का साहस नहीं करते और कभी कोई पहुँच भी गया तो उनके कमांडों ही गेट पर परिचय पत्र माँग लेते हैं ।

सो वे अपने पोते के लिए किसी पद या लाइसेंस की चिंता या चिंतन की तन्द्रिल मुद्रा में झूल रहे थे तभी एक मरियल सा आदमी भागा-भागा आया और बोला- हुजूर, माई-बाप, गज़ब हो गया । कुछ लोग दस-बीस जीपों में भर कर आ रहे हैं । वे दारू भी पिए हुए हैं । वे बाज़ार में तोड़-फोड़ मचा रहे हैं । सब तरफ अफरा-तफरी मची हुई है । उन्होंने मेरी भी रेहड़ी के पाँच किलो केले लूट कर खा लिए । मैंने पैसे माँगे तो मुझे दो थप्पड़ भी रसीद कर दिए ।

वे खुल कर हँसे और अपने पास खड़े एक सेवक से उस रेहड़ी वाले को एक सौ रुपए देने को कहा । रेहड़ी वाला भौचक्का । आजतक इतना तत्काल न्याय तो धरमराज के ज़माने में भी नहीं सुना था । वे बोले- इनमें से पचास रूपए तेरे केलों के हैं और पचास तेरे दो थप्पड़ों की भरपाई के ।

बेताल ने पूछा- हे महाराज, बताइए कि इसमें हँसने की क्या बात है ? क्या वे जन सेवक इतने न्याय प्रिय हैं ? क्या उन्हें ग़रीबों के प्रति इतनी सहानुभूति है ?

महाराज चौपटादित्य ने कहा- हे बेताल, जैसे सीता की सुधि लेकर आए बन्दर, भालुओं और अंगद ने सुग्रीव के मधुबन में तोड़-फोड़ मचाई और जब रखवालों ने मना किया तो उनकी पिटाई कर दी-
रखवारे जब बरजन लागे । मुस्टि प्रहार हनत सब भागे ॥
जो न होति सीता सुधि पाई । मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥

इसलिए यदि नेताजी के पोते और उसके साथियों ने उत्पात मचाया और रेहड़ी लूट ली और रेहड़ी वाले को दो थप्पड़ लगा दिए तो उसमें कोई बुराई नहीं है । यह तो बच्चों की खुशी का इज़हार है । तुम्हें भी इससे खुश होना चाहिए ।

महाराज का उत्तर सुन कर बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

५-३-२००९


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बड़े बेआबरू होकर

थरूर जी,
जय श्रीराम । यह तो होना ही था । हमें तो पहले ही लग रहा था कि यह कढ़ी तो बिगड़ने वाली है । आप भले ही मंत्री पद के नशे में समझ नहीं पाए हों । मंत्री पद तो गया ही और इज्ज़त भी यदि आप उसे कोई काम की चीज़ समझते हों तो । खैर, अब मज़े से ट्विट्टर पर टर्राइए, दुबई, कनाडा कहीं भी जाइए, इश्क फरमाइए, केटल क्लास से मुक्ति मिली, फाइव क्या फिफ्टी स्टार में रहिए । कोई पूछने वाला नहीं है । वैसे जब कोई टोकने वाला हो तो नियम तोड़ने में अधिक मज़ा आता है । वर्जित फल ही तो ललचाता है । खैर, जब मंत्री पद ही चला गया तो फिर पार्टी के सुहाग का ही क्या चाटना । ज्यादा से ज्यादा कांग्रेस आपको पार्टी से निकाल सकती है पर एम.पी. की सुविधाएँ, तनख्वाह और उसके बाद पेंशन तो छीन नहीं सकती । मज़े से ए.सी. डिब्बे में ट्रेन में यात्रा कीजिए और हम तो कहते हैं कि एक अच्छी सी ट्रेन छाँट लीजिए और उसमें से उतरिए ही नहीं । कौन टिकट लगनी है । दिल्ली वाला बँगला किराए पर चढ़ा दीजिए ।

हमारे पास सुझावों की कमी नहीं है । आप भले ही बोर हो जाएँ । खैर, जैसे बेताल विक्रमादित्य को कहानी सुनाता है वैसे ही हम भी आपको एक कहानी सुनाते हैं । और इसके बाद हम कोई प्रश्न पूछ कर आपको असमंजस में भी नहीं डालेंगे । तो कहानी सुनिए ।

एक गाँव का लड़का था । कम पढ़-लिखा और सीधा-सदा । उसकी शादी शहर की एक लड़की से हो गई । लड़का तो अपनी गाँव वाली बोली बोलता था पर वह तो शहर वाली हिन्दी छाँटती थी । कई दिन हो गए । लड़का परेशान । बात-बात में कहती- समझ गए, क्या समझे ?
वैसे ऐसे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं होता । ये केवल तकिया कलाम की तरह होते हैं । एक दिन लड़का परेशान हो गया और बोला- समझ गया । लड़की के लिए यह पहली बार हो रहा था । उलट कर बोली- क्या समझ गए ? लड़का बोला- यह समझ गया कि तू मेरे नहीं रहनी ।

सो प्यारे लाल, हम तो तभी समझ गए थे जिस दिन आपने अंग्रेजी छाँटनी शुरु कर दी थी । अब आप को क्या बताएँ, अब तो काम हो ही गया । पर याद रखिए, जैसा देश वैसा भेस । बोली-बानी देसी ही अच्छी लगती है आम आदमी को । भले ही परदे के पीछे कुछ भी कीजिए पर बाहर से लम्बा और उजला चोगा रखिए । लोग भले की खुद पक्के हरामी हों पर अपने नेता को दूध का धुला देखना चाहते हैं । धार्मिक व्यक्तियों के पास जाने वाले खुद भले ही जवान भक्तिनों को घूरने और पटाने जाते हों पर भगत जी की टेढ़ी नज़र पर पूरा ध्यान रखते हैं । और कभी ज़रा सी भी कोई सी.डी. जारी हो जाए तो वे ही भक्तगण गुरुजी के पोस्टरों को जूते मारने लग जाते हैं ।

एक किस्सा और सुन लीजिए । अब आपको कौन सी मंत्रालय जाने की ज़ल्दी है और हमें भी आप जैसे महान लोगों को पत्र लिखने के अलावा और कौन सा काम है । भारत के एक बुद्धिजीवी राज्य में एक पंडित जी शादी करवा रहे थे । पंडित जी भी कौन से यजमानों से कम थे । आधे से ज्यादा बराती दारू में धुत्त । और पंडित जी भी टुन्न । फेरे करवाकर बोले- अब छोरा-छोरी दोनों उठके थापे के आगे जाओ । कोई एक बराती बोल्या- पंडित जी फेरा तो एक कम लगवाया दीखे । पंडित बोले- अरे भाई, रुकनी होगी तो इतने फेरों में ही रुक ज्यागी ।

सो वैवाहिक जीवन का गणित भी ऐसा ही होता है । टिकना होता हो तो बेमेल विवाह भी सारी ज़िंदगी टिक जाता है । नहीं तो अच्छा-भला अपनी मर्जी से किया प्रेम-विवाह भी नहीं टिकता । आपका पहला विवाह भी प्रेम विवाह ही था । पूरे पच्चीस बरस चला । भगवान ने दो अच्छे से बच्चे भी दिए । हमारे यहाँ गृहस्थ आश्रम पच्चीस बरस का ही तो माना गया है । फिर तो बच्चों को सब कुछ सौंपकर सन्यास की तैयारी करने वाला वानप्रस्थ आ जाता है । आप ने भी दूसरी शादी पचास बरस की उम्र में मतलब कि वानप्रस्थ की उम्र में की । बच्चे भी क्या सोचते होंगे । हमारे हिसाब से तो आपको बच्चों की शादी करके बहू से सेवा करवानी चाहिए थी और फिर पोते-पोतियों को खिलाना चाहिए था । पर यह सुख उनकी किस्मत में नहीं होता जो हमेशा अपने ही मज़े की सोचते रहते हैं ।

आपने दूसरी शादी २००७ में ५१ बरस की उम्र में की । यह भी कोई शादी की उम्र है ? और आपकी दूसरी पत्नी भी कौनसी षोडशी होगी । वह भी खेली-खाई होगी । इस पर भी एक किस्सा सुन लीजिए । एक व्यक्ति ने बड़ी उम्र में शादी की । लड़की भी गाँव की, बड़ी उम्र की थी । पति ने कहा- हम हनीमून मनाने चलेंगे । हनीमून पर पहुँचने के तीन-चार दिन बाद पत्नी ने कहा- वह हनीमून कब मनाएंगे ? तो पति ने कहा- अब तक और क्या माना रहे थे । तो पत्नी ने कहा- इसके लिए इतनी दूर आने की क्या ज़रूरत थी । यह तो हम खेत में ही मना लेते थे । आप सेर तो वह सवा सेर से कम क्या होगी । सो उस शादी का अंत ऐसा ही होना था । सो या तो तलाक हो गया दीखे या नहीं हुआ तो हो जाएगा ।

अब आप तीसरी महिला मित्र के साथ देखे जाते हैं । वह भी कौन सी बच्ची है । दुबई में अपना कारोबार चलाती है । लम्पटता में आदमी की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । दशरथ की बुद्धि भी कैकेई के प्रति उनके अति अनुराग के कारण ही भ्रष्ट हो गई और राम और सारे अयोध्या को कष्ट उठाना पड़ा था । और अब आप भी ऐसे ही मोह के कारण चक्कर में पड़े । तभी तो ऐसी स्थिति के लिए ही कबीर ने नारी को माया और ठगिनी कहा है । पर ऐसी माया से वही बच सकता है जिस पर या तो भगवान की कृपा होती है या फिर जिसे अपनी पत्नी और बच्चों से सच्चा प्यार होता है ।

हमारा तो कहना है कि अब भी आप अपनी पहली पत्नी को मना लें और शांति का जीवन बिताएँ ।

भगवान आपको सद्बुद्धि प्रदान करें ।

पद-इज्ज़त दोनों गए, तबियत हो गई खुश्क ।
अब जी भर फरमाइए, दुनिया भर में इश्क ।
दुनिया भर में इश्क, इश्क के खेल निराले ।
बड़े-बड़ों के इसने खूब जुलूस निकाले ।
कह जोशी जो यहाँ-वहाँ पर चोंच लड़ाएँ ।
आज नहीं तो कल सड़कों पर जूते खाएँ ।

१९-४-२०१०

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Apr 17, 2010

विश्वासः फलदायकम्

चौपट नगरी में वीकएंड की रात का दूसरा पहर बीत चुका है । चौपट महल के रखवाले ऊँघने लगे हैं । पर महाराज की आँखों में नींद नहीं । सारे सुखों को त्याग कर महाराज कक्ष से बाहर निकले । दबे पाँव चारदीवारी फाँदकर कर जनपथ पर आ गए और छुपते-छुपाते संसद के पिछवाड़े को जाने वाली पगडंडी पकड़ ली । दीवार तक पहुँचने पर चार ईंटें हटाकर गुप्त मार्ग से प्रवेश करके संसद के कुँए के पास जा निकले ।

बड़ी सावधानी से कुँए से 'सत्य का शव' निकाला और कंधे पर डाल कर गुप्त मार्ग से बाहर निकलने लगे । तभी शव में स्थित बेताल बोल उठा- राजन, जब सारी चौपट नगरी वीकएंड मनाती है तब तुम क्यों सारे सुखों को त्याग कर सत्य के शव को ठिकाने लगाने के लिए चल पड़ते हो ? जब कि तुम अच्छी तरह से जानते हो यह सत्य बड़ा चीमड़ है और किसी न किसी बहाने तुम्हारे चंगुल से निकल जाता है । आज फिर तुम इसे उठा कर चल पड़े हो ।

महाराज कुछ नहीं बोले तो बेताल ने कहा- पर तुम्हारी भी क्या गलती । राजा को हर समय सत्य के उठ खड़े होने का डर सताता रहता है । उसके लिए चैन की नींद सोना मुश्किल हो जाता है । मुझे तुमसे पूरी सहानुभूति है । तुम्हारा मन बहलाने और श्रम भुलाने के लिए, लो मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ -

"किसी महान देश में लोग बहुत पिछड़े हुए थे । बहुत पहले तो खैर उस देश के निवासी दूध बेचते ही नहीं थे तो पानी मिलाने का प्रश्न ही नहीं उठता था पर धीरे-धीरे जब उनमें व्यापारिक बुद्धि आने लगी तो उन्होंने दूध बेचना शुरु कर दिया । जब बेचना शुरु कर दिया तो नफा-नुकसान भी देखा जाने लगा । बेचनेवाला दूध में पानी मिला कर अपना मुनाफा बढ़ाना चाहता था तो लेने वाले के लिए पानी पर निगरानी रखना ज़रूरी हो गया । दूध लेनेवाले शुद्धता पर विशेष जोर देते थे । दूध लेते थे तो केवल दूध ही चाहते थे । पानी की एक बूँद भी बर्दाश्त नहीं करते थे । बिना पानी के दूध के लिए दूर-दूर तक निकल जाते थे । जल्दी सुबह ही दूध वाले के घर पहुँच जाते थे और अपने सामने दूध निकलवाते थे । दूध लेने और बेचने वाले के बीच एक अद्भुत खेल चलता रहता था । घी का भी यही हाल था । जब वनस्पति घी नहीं चला था तब तक तो मज़बूरी थी । मिलाएँ तो क्या मिलाएँ । कुछ लोग घी में अधिक से अधिक छाछ छोड़ कर ही कुछ अधिक कमाई करना चाहते थे । मसाले भी लोग साबुत ही लेते थे और घर पर ही कूट लेते थे सो उनमें भी मिलावट नहीं हो पाती थी । इस प्रकार वह देश व्यापार की दृष्टि से काफी पिछड़ा हुआ था ।

धीरे-धीरे विकास शुरु हुआ । वनस्पति घी आ गया तो असली घी में उसकी मिलावट शुरु हो गई । लोग पिसे हुए मसाले लाने लगे तो मसलों में भी अपनी-अपनी योग्यता के हिसाब से लोग मिलावट करने लगे जैसे धनिए में लकड़ी का बुरादा, मिर्च में गेरू, काली मिर्च में पपीते के बीज आदि । फिर भी वह देश व्यापार में पिछड़ा हुआ था ।

जब उस देश में वैज्ञानिक उन्नति हुई तो बाज़ार और व्यापार में बड़ी तेजी से वृद्धि हुई । जितना चाहे दूध, जब चाहे ले लो । जितना चाहे घी ले लो । लोगों ने सिंथेटिक दूध और घी बनाने शुरु कर दी और उन्होंने यह ज्ञान किसी विकसित देश से आयात नहीं किया बल्कि यह उनका अपना आविष्कार था । ऐसे में दिखाने के लिए ग्राहकों के भले का नाटक करना भी ज़रूरी होता है और फिर कुछ पुराने आदर्शवादी लोगों की चूँ-चूँ भी यदा-कदा होती थी सो वहाँ कि सरकार ने 'जागो ग्राहक, जागो' का प्रचार करना शुरु किया मगर बात वहीं की वहीं थी । सो सरकार ने एक और अभियान शुरु किया- 'शुद्ध के लिए युद्ध' । अब साधारण ग्राहक के पास कोई बंदूक तो होती नहीं और न ही किसी को जेल भिजवाने का अधिकार सो वह हमेशा ही इस युद्ध में हारता था पैसे पूरे देता था पर न तो तौल पूरा मिलता था और न ही कोई चीज शुद्ध ।

हे राजन, अब बताओ कि उस महान देश के निवासी शुद्ध के लिए इस युद्ध में किस प्रकार विजय प्राप्त करें । यदि तुमने जानते हुए भी उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा ।"

महाराज चौपटादित्य ने कहा- बेताल यह सब श्रद्धा और विश्वास का मामला है । जिन्हें बाज़ार और सरकार पर विश्वास है वे जो कुछ बाज़ार में मिलता है उसे खाते हैं और मस्त रहते हैं । विश्वास के बल पर ही मीरा विष पी गई और कुछ नहीं हुआ । कुछ को अपनी शुद्धता पर विश्वास होता है वे दूध, घी आदि खाते ही नहीं सो वे भी कोलोस्ट्रल, मोटापे से दूर रहते हैं । पर कुछ अधकचरे और शंकालु लोग होते हैं जो न तो बाज़ार पर विश्वास करते है और न ही बाज़ार से बच सकते हैं । वे पैसा भी खर्च करते हैं, वे ही चीजें खाते भी हैं और चीं-चीं भी करते रहते हैं । ऐसे शंकालु लोगों का कोई इलाज नहीं है । उनका तो विनाश होकर ही रहेगा । कृष्ण ने ऐसे ही लोगों के लिए कहा है- संशयात्मा विनश्यति । इसमें कोई क्या कर सकता है ।

महाराज चौपटादित्य का उत्तर सुनकर बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।
८-४-२०१०

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Apr 9, 2010

तोताराम का तलाक


आज तोताराम को आने में देर हो गई थी । उसके इंतज़ार में चाय ठंडी हो रही थी । तभी तोताराम कुछ कागज हाथ में लिए हुए हाज़िर हुआ । हमने चाय प्रस्तुत की तो बोला- अभी नहीं, पाँच-सात चाय और बनवा ले । थोड़ी देर में सभी साथ-साथ ही पिएंगे ।

हमने कहा- सभी साथ-साथ का क्या मतलब ? हम दोनों हैं तो सही ।
कहने लगा- आज मैंने पत्रकार वार्ता रखी है । लोग आते ही होंगे ।

एक और सस्पेंस । हमने पूछा - पत्रकार वार्ता किस लिए ? बोला- आज मैं पत्रकारों के माध्यम से यह घोषणा करना चाहता हूँ कि मैंने मार्लिन मुनरो, एलिज़ाबेथ टेलर, वैजयंतीमाला और सुरैया को तलाक दे दिया है ।

क्या बताएँ रोकते-रोकते भी बेसाख्ता हमारी हँसी इतने जोर से निकली कि तत्काल ही खाँसी में बदल गई । एक मिनिट में साँस आया तो पूछा- पर तुमने इनसे शादी की ही कब थी ?

तोताराम ने गंभीर होते हुए कहा- याद तो नहीं आ रहा पर मास्टर, सपने देखने की उम्र में क्या पता कभी कोई दोष हो गया हो और किसी को सपने में ही शादी के लिए हाँ कर दी हो ।

हमने तोताराम को आश्वस्त किया- सपने में भी क्या कोई शादी होती है और ऐसी शादी की मान्यता और प्रमाण भी क्या है ? और क्या तुमने बंटी की दादी को इसके बारे में बताया है ? क्या उसने तुम्हें डाँटा है ?

तोताराम ने कहा- ऐसी तो कोई भी बात नहीं है पर भैया, किस्मत का कुछ भी पता नहीं । पता नहीं, कब क्या झंझट पड़ जाए । बेचारे मासूम शोएब मलिक को ही देख ले । फोन पर एक लड़की से दो चार बातें क्या कर ली कि लोगों ने इतना हल्ला मचा दिया । और सारी दुनिया से छिपा लें पर भगवान से तो नहीं छुपाया जा सकता । क्या पता इस याद न रहे स्वप्न के आधार पर यमदूत मुझे स्वर्ग या नरक में ले जाते समय पीटने न लग जाएँ कि तूने बिना इन्हें तलाक दिए पाँचवीं शादी क्यों की तो मैं अकेला रास्ते में क्या कर लूँगा ? क्या गारंटी है कि उस यात्रा में भी तू मेरे साथ होगा ही ।

हमें लगा कि यह शोएब वाले मामले के कारण वास्तव में ही कुछ मानसिक रूप से घबरा गया है । हमने उसे प्यार से समझाया- देख तोताराम, स्वप्न का कोई प्रमाण नहीं और यह तो तय है कि तुमने इनमें से किसी को कभी कोई फोन किया ही नहीं । तेरे पास तो क्या, मीडिया वालों तक के पास इनके फोन नंबर नहीं हैं । सो तेरा यह डर निराधार है । निश्चिन्त होकर चाय पी । तू कहे तो पकोड़े भी बनवा देते हैं ।

तोताराम का डर अभी भी कम नहीं हुआ था, बोला यह ठीक है कि मैनें तो किसी को फोन नहीं किया पर यह भी तो हो सकता है कि कि इन्होंने मेरे मोबाइल पर कोई मिस काल कर दिया हो या कोई एस.एम.एस. भेज दिया हो । मास्टर, टेक्नोलोजी इतनी विकसित हो गई है कि नष्ट की हुई सिम की राख से भी काल डिटेल निकाल सकती है जैसे कि किसी अंडे के जीवाश्म से डायनोसार की फिल्म बना कर बेची जा सकती है ।


हमने तोताराम को फिर समझाने की कोशिश की- देख तोताराम, पहले तो ऐसे किसी चक्कर की संभावना है ही नहीं और मान ले राजनीति के शुद्ध होने और महँगाई घटने की तरह यह असंभव भी संभव हो जाए तो कह देना कि तूने अपना धर्म बदल लिया है जिसमें न तो चार बीवियाँ रखना गलत है और न ही शादियाँ करने के लिए तलाक देना ज़रूरी है और न ही तलाक देने के लिए किसी बीवी की इजाज़त लेना ज़रूरी है ।

तोताराम जैसे नींद से जगा, बोला- पर मैंने तो कभी धर्म बदला ही नहीं । अगर कोई इसका प्रमाण माँगेगा तो क्या कहूँगा ?

हमने कहा- ऐसी बातों के ऐसे ही सबूत होते हैं । कह देना- ऊपर वाले के नाम एस.एम.एस. कर दिया था । धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी ने ही कौन से धर्म बदलने के प्रमाण पत्र दिखाए थे । उनका किसने, क्या कर लिया जो तेरा कोई कुछ बिगड़ लेगा ।

तोताराम दीन स्वर में बोला- पर मास्टर, वह तो ही-मैन है । मुझे तो कोई छोटा-मोटा स्वयंसेवक भी लतिया देगा । खैर, पर मास्टर, मेरे सिर पर हाथ रख कर कसम खा कि कभी भी मेरे इस किस्से को बंटी की दादी को बताने के नाम पर मुझे ब्लेकमेल नहीं करेगा ।

हमने कहा- तथास्तु । निर्भय भव वत्स ।

८-४-२०१०

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Apr 8, 2010

शोएब मलिक का बिना तिल का ताड़



शोएब मलिक,
समझ में नहीं आ रहा है कि तुम्हें क्या संबोधन करें और तुम्हारे लिए भगवान से क्या कामना करें ? तुमने तो सारे ही मानदंड बदल कर रख दिए । हम हमेशा ही पढ़ाते रहे- तिल का ताड़ बनाना, बात का बतंगड़ बनाना, पर तुमने तो बिना बात का ही बतंगड़ बना दिया, बिना तिल का ही ताड़ बना दिया । अरे, जब तुमने उससे शादी की ही नहीं थी तो अब तलाक किसे और किस बात का दे दिया । याद रखो यह सच बड़ा 'वो' होता है । यह कभी मरता नहीं और झूठ बोलने वाले का कभी पीछा नहीं छोड़ता ।

तुम कहते रहे कि तुमने उससे शादी नहीं की, बस फोन पर ही बतियाते थे । क्यों भाई, क्यों बतियाते थे ? यदि वह ही बतियाती थी तो कह देते- मोहतरमा, ऐसे फोन पर लम्पटता करना ठीक नहीं है यदि तुम्हें शादी करनी है तो हम अपने-अपने वालदेन को मिलवा देते हैं और खुद भी मिल लेते हैं । यदि बात समझ में आये तो शादी हो जाएगी और नहीं तो दोनों अपना-अपना रस्ता नापें । पर बालक, खोट तुम्हारे मन में भी था वरना क्या ज़रूरत थी बिना बात किसी लड़की से, फोन पर ही सही, चोंच लड़ाने की । पर लो, अब तो यह भी सिद्ध हो गया कि तुम उससे मिले भी थे और कुछ न कुछ किया भी था ।

फिर भी हम कहेंगे कि यह बिना तिल का ताड़ ही था । क्यों ? क्योंकि तुम्हारे यहाँ तो तलाक देना तो "ऐज सिंपल ऐज वन, टू, थ्री" है । जब धर्म का इतना सपोर्ट हो तो फिर डरने का मतलब 'बिना तिल का ताड़ बनाना' ही है ना । एक ही झटके में कह देते कि मैं इसे तलाक देता हूँ और पकड़ा देते पंद्रह हजार रुपए । पर भैया, यह तुम्हारी गलती नहीं, यह तो सभी लम्पटों का दस्तूर है कि वे अपने आप को भला सिद्ध करना चाहते हैं । सो तुम भी सानिया को यह दिखाना चाहते थे कि तुम निहायत भोले और फर्स्टहैण्ड हो । वरना तुम कोई पंद्रह हज़ार रुपए का दंड चुकाने के डर से इतना नाटक थोड़े ही कर रहे थे ? और अब तो सिद्ध ही हो चुका है कि तुम पूरे लम्पट हो । बिना तिल का ताड़ नहीं बनता । अगर कोई बनाना भी चाहे तो संभव नहीं है जैसे कि कोई हम पर आरोप लगाए कि तुमने लिंकन का मर्डर किया तो यह कैसे हो सकता है क्योंकि न तो लिंकन भारत आए और न ही हम अमरीका गए और न ही उस समय हमारा जन्म हुआ था । और फिर कितना भी हल्ला मचे क्या हम स्वीकार कर लेंगे । नहीं । पर तुमने स्वीकार किया इसका मतलब ही है कि वह लड़की सही थी । अब भी थूक कर चाटा कि नहीं । चलो मुफ़्त में ही इतनी पब्लिसिटी मिल गई ।

पर यह याद रखो जो जैसा होता है उसे वैसा ही सौ कोस का चक्कर देकर भी मिल जाता है । एक किस्सा सुनाते हैं- एक मियाँजी ने बुढ़ापे में शादी की । मियाँ के मुँह में एक ही दाँत बचा था । और सामान भी उसी के अनुकूल था । जवान बीवी कहाँ से मिलती । किसी दलाल ने मेक अप करवाकर, नकली दाँत लगवा कर उसे एक बुढ़िया भिड़ा दी । मियाँ बड़े खुश । सुहागरात को ही उन्होंने अपनी कुंठा निकालने के लिए अपनी बेगम से कहा- बेगम, मर्द तो एक दंता (एक दाँत वाला) ही भला । बेगम कौन सी कम थी । उसने भी अपनी बत्तीसी निकाल मियाँ के हाथों में रख दी और बोली-ए मियाँ, मरे हाड़ों का भी क्या लाड़ । मुँह तो सफमसफा ही भला । सो भैया, हमारे अनुसार तो एक तरह से जैसे को तैसा ही हुआ है । सानिया की भी सगाई तो हो ही गई थी । सगाई को वाग्दान भी कहते हैं । एक प्रकार से सानिया के माता-पिता ने उसे सोहराब को दान दे ही दिया था और सानिया ने भी सहमति दे ही दी थी । सो हमारे हिसाब से तो वह भी शुद्ध फर्स्टहैण्ड नहीं है ।

अब आगे हमें तो यही चिंता सता रही है कि कहीं इतिहास अपने को दुहराने न लग जाए क्योंकि यहाँ की एक अभिनेत्री रीना राय ने भी एक पाकिस्तानी क्रिकेटर मोहसिन खान से शादी की थी और अब पता नहीं कहाँ अपने अकेले दिन काट रही है । और एक थी जेमाइमा जिसे इमरान खान इंग्लैण्ड से लाए थे और अब वह भी तलाक प्राप्त करके लन्दन में तशरीफ फरमा रही है ।

ज्योतिष कहता है कि एक ही राशि वालों की कम ही बनती है । तुम्हारा नाम भी 'एस' से शुरु होता है और सानिया का भी । नाम तो हमारा और हमारी पत्नी का भी एक ही अक्षर से शुरु होता है पर हमने तो एक साल पहले ही अपनी शादी की स्वर्ण जयन्ती मनाई थी । सो ज़रूरी नहीं कि ऐसा हो ही पर तुम्हारी आदतों को देखते-जानते हुए यही संभावना ज्यादा नज़र आती है कि कहीं दो-तीन साल बाद सानिया भी वापिस न आ जाए । अब ज़िद पर चढ़ी सानिया हमारी बात तो मानेगी नहीं फिर भी हम उसे यह सुझाव तो दे ही सकते है कि वह दो बिलियन डालर से कम के मेहर पर सहमत न हो क्योंकि तुम्हारी लम्पटताओं का कोई ठिकाना नहीं ।

तुम्हारे बारे में तो अब क्या कहें पर हम सानिया के दीर्घ और सुखी वैवाहिक जीवन की ज़रूर कामना करते हैं और यह भी आशा करते हैं कि वह बिना किसी दबाव के खेले और नई-नई सफलताएँ हासिल करे । हम तो इसी से खुश हो जाएँगे कि वह भारत मूल की है ।

८-४-२०१०

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Apr 6, 2010

प्रेम का एन्साइक्लोपीडिया

स्वामी नित्यानंद जी,
आप कहाँ हैं इसका पता तो पुलिस को भी नहीं है या फिर वह आपके आनंद में बाधा डालने से डरती है, पता नहीं । पर आप जहाँ भी हैं ज़रूर मज़े से ही होंगें । आपने जो सन्देश भक्तों को भेजा है वह दो अप्रेल २०१० का है । अगर १ अप्रेल का होता तो हम उसे मज़ाक भी मान सकते थे पर अब तो वह गुंजाइश भी नहीं है । आपने कहा है कि "मोहब्बत के बिना ज़िंदगी अधूरी है । ध्यान और मोहब्बत से मन हल्का व निर्मल रहता है । सभी भक्त मुक्त भाव से मोहब्बत करें और उसका इज़हार करें ।" आप मोहब्बत करने में इतना व्यस्त हो गए कि इज़हार करने का टाइम ही नहीं मिला यह तो अच्छा हुआ कि एक भक्त ने आपका सन्देश सचित्र रूप में भक्तों तक पहुँचा दिया । आपने यह सन्देश खुले रूप में पहले क्यों नहीं दिया । बिना बात इतने दिनों तक लोगों में सस्पेंस बना रहा ।

अब आपके इस सन्देश के आने से हमें कोई पचासेक बरस पहले की एक घटना याद आती है । तब तो आपका जन्म भी नहीं हुआ था । अमरीका ने रूस की जासूसी करने के लिए यू.टू. नाम का एक विमान भेजा । विमान इतना ऊँचा उड़ता था कि नीचे से किसी भी राडार से आसानी से पकड़ में नहीं आता था । रूस ने अमरीका से शिकायत की कि वह उसकी जासूसी करने के लिए विमान नहीं भेजे । अमरीका का उत्तर था कि वह ऐसे कोई विमान नहीं भेजता । रूस ने फिर कहा कि उसने एक ऐसा ही विमान गिरा लिया है तो अमरीका ने कहा कि हो सकता है कि कोई विमान रास्ता भूल कर उधर चला गया होगा । रूस ने अंत में उद्घाटन किया कि हमने उस पाइलट को जिंदा पकड़ भी लिया है और उसने स्वीकार कर लिया है कि उसे जासूसी के लिए ही भेजा गया था । अब तो अमरीका एक पास कोई चारा नहीं था तो उसने कहा- हाँ, हम विमान भेजते रहे हैं और भविष्य में भी भेजते रहेंगे । कहीं आपकी स्वीकृति अमरीका जैसी स्वीकृति तो नहीं है ? पर हम नहीं मानते । आप जैसे स्पष्टवादी स्वामी इस प्रेममार्गी भक्ति को भला क्यों छुपाते । छुपाता तो वह है जिसे प्रेम में विश्वास न हो, जिसके मन में खोट हो । यदि आपको ध्यान आ जाता तो आप भक्तों के उद्धार के लिए उस लीला का सीधा प्रसारण करवा देते । आगे से ऐसा हो जाए तो लोग दूसरे चेनल देखना ही छोड़ देंगें और टी.आर.पी. की तो बस पूछिए ही मत ।

इस संबंध में हमें कबीर का एक दोहा याद आता है-
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ॥

पर कबीर जी की करनी और कथनी में बड़ा अंतर था । दूसरों को ही 'ढाई अक्षर' पढ़ने के लिए कहते रहे पर खुद कभी न पढ़े और न ही कभी प्रेक्टिकल करके दिखाया । ज्यादा पढ़े लिखे भी नहीं थे सो ढाई अक्षरों को ही पूरा सिलेबस मान लिया । और उसे भी पूरा नहीं कर पाए । उनके द्वारा कभी प्रेम का ऐसा प्रेक्टिकल प्रदर्शन देखने को नहीं मिला । आप तो ढाई अक्षर ही क्या पूरा एक्साईक्लोपीडिया निकले, प्रभु ।

कबीर तो बेचारे खुद कहते हैं- मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ । आप तो अंग्रेजी माध्यम से प्रेम का पाठ पढ़ते और पढ़ाते हैं । तभी बिना कुछ किए ही एयरकंडीशंड में रहते हैं और आयातित कारों में सफ़र करते हैं । डालर में चढ़ावा चढ़ाने वाले भक्त आते हैं । कबीर को तो सारे दिन कपड़ा बनाना पड़ता था और फिर सिर पर रखकर बेचने के लिए बाज़ार में ले जाना पड़ता था । और फिर शाम को भाई लोग आ जुटते थे जिनको उपदेश देना और ज़रूरी हो तो खाना भी खिलाना । प्रेम के लिए समय ही कहाँ मिलता था । भले ही छोटी ही हो गृहस्थी भी थी । आपके पास तो समय ही समय है प्रेम करने के लिए । ज़िम्मेदारी कुछ नहीं, बस मज़ा ही मज़ा । कबीर ने एक जगह कहा है-
मूण्ड मुंडाए हरि मिले तो हर कोई लेय मुण्डाय ।
बार-बार के मूण्डते भेड़ न बैकुंठ जाय ।

पर आपकी साधना का प्रताप देखिए कि बिना मूण्ड मुंडाए ही लंबी, घनी काली और लहराती जुल्फों में ही भुवन मोहिनी रूप में भगवान मिल गए । नायक गाता रहता है- 'आती क्या खंडाला' । पता नहीं कि नायिका खंडाला गई या नहीं और नायक को वह सब प्राप्त हुआ या नहीं जो वह खंडाला जाकर प्राप्त करना चाहता था पर आपकी भक्ति की शक्ति देखिए कि आश्रम में ही खंडाला आ गया ।

आपने शुरु में तो ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा था । भले ही लिखित में घोषणा नहीं की हो पर अपने को माया से दूर तो बताते ही थे । हो सकता है कि लोगों ने आपको ब्रह्मचर्य के नाम से बहका दिया हो और आप बिना बात चक्कर में पड़ गए हों । इस सन्दर्भ में आपको एक किस्सा सुनाते हैं । एक सज्जन थे जो पता नहीं, क्यों शादी से मना करते थे । लोग उन्हें समझते थे कि भाई, खुद हाथ से खाना बनाते हो । शादी कर लो तो खाने का आराम हो जाएगा । लोगों के कहने से उन्होंने शादी कर ली । शादी के दो दिन बाद अपने दोस्तों को इस नेक सुझाव के लिए धन्यवाद देने की बजाय कहने लगे- तुम लोग बड़े स्वार्थी हो । कहते रहे शादी कर लो, रोटी का आराम हो जाएगा । कभी पूरी बात नहीं बताई । अब मुझे पता चला है कि शादी करने में रोटी का ही आराम नहीं है और भी बहुत से आराम हैं ।

सो अब आपको पता चल गया कि मोहब्बत के बिना ज़िंदगी अधूरी है । चलो, बदनामी हुई और कुछ दिनों के लिए ही सही आश्रम से भी इस्तीफा देना पड़ा पर अधूरी ज़िंदगी तो पूरी हुई । पर सही माने में तो ज़िंदगी तब पूरी होती जब आप घर बसाते । पर घर बसाने वाले ज़िम्मेदार लोग होते हैं । लम्पट लोग बिना ज़िम्मेदारी के ही केवल मज़े लेना चाहते हैं । आप किस श्रेणी में आते हैं यह तो आप ही जानें ।

महान लेखक यशपाल का एक उपन्यास है- दिव्या । बौद्ध कालीन कथानक है । उस समय मठों में भिक्षु और भिक्षुनियाँ साथ रहा करते थे । और ऐसे में जो स्वाभाविक है वही हुआ । एक भिक्षु और भिक्षुणी में प्रेम हो गया । शादी का विधान नहीं था सो दोनों भाग गए । मठ की बदनामी । सो मठ के लोग उन्हें खोजने क्या, पकड़ने के लिए निकल पड़े । कहीं दूर जाकर उन्होंने देखा कि वे दोनों दुनिया से बेखबर घास-फूस से अपनी झोंपड़ी बना रहे थे । उन्हें देखकर महाभिक्षु का मन पिघल गया और उन्होंनें उन दोनों को क्षमा कर दिया और अपना जीवन अपने हिसाब से जीने के लिए छोड़ लकर चले गए । यह है जीवन का स्वाभाविक स्वरूप ।

वैसे वशिष्ठ, अत्रि, जमदग्नि आदि बहुत से ऋषि हुए हैं जिन्होंने शादी की और सपरिवार, सपत्नीक आश्रम चलाए । भारतीय समाज में उनका किसी ब्रह्मचारी से कम आदर नहीं है । यदि आप भी ऐसा ही स्वाभाविक जीवन जीना चाहते हैं तो कोई बात नहीं । कोई भी आपसे न तो घृणा करेगा और न ही आपको अपराधी मानेगा । पर क्या आप सभी आडम्बर उतार कर अपने को सामान्य मनुष्य मानने को तैयार हैं ?

५-४-२०१०

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