Feb 23, 2014

पृष्ठभूमि का प्रदर्शन

ज़नाब आज़म खान,
अस्सलाम वालेकुम । आप वजीर हैं और आज़म भी फिर पता नहीं इस देश ने आपको वज़ीरेआज़म क्यों नहीं बनाया ? वैसे बनाने से क्या होता है । आदमी में दम हो तो पद न होते हुए भी हर हालत में खुद को साबित कर ही देता है । आपने बार-बार खुद को साबित किया है और जमकर साबित किया है । 


कश्मीर में राष्ट्र गान का अपमान किया जाता है, तिरंगा झंडा जलाया जाता है, वज़ीरेआज़म मनमोहन सिंह जब वार्ता करने के लिए कश्मीर जाते हैं तो उनको बैरंग लौटा दिया जाता है, फिर भी वे कुछ नहीं बोलते, उलटे कश्मीर के नेताओं और आतंकवादियों को जेब खर्च के लिए हजारों करोड़ का पॅकेज दे आते हैं । वे जानते हैं कि कश्मीर में उनकी वज़ीरेआज़मी नहीं चलती फिर भी सच नहीं कह सकते हैं लेकिन आपने स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट कर दिए कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है । इसे कहते है जिगरा और कड़वा सच बोलने की हिम्मत । अगर आपमें दम नहीं होता तो क्या मुलायम आपको निकाल कर फिर मनाकर वापिस लाते ?

जब 'रामपुर का लक्ष्मण' फिल्म बनी तो हमें लगा कि ये निर्देशक ऐसी ऐतिहासिक गलतियाँ क्यों करते हैं ? अरे, 'लक्ष्मणगढ़ का लक्ष्मण' नाम नहीं रख सकते थे क्या ? और मान लो यदि रामपुर से इतना ही प्रेम था तो 'रामपुर का राम' नाम रख सकते थे लेकिन नहीं, कुछ सरप्राइज़ होना चाहिए ना । जन्म स्थान से यदि इतना ही प्रेम था तो पिताजी आपका नाम राम खान रख सकते थे । आजकल तो सब चलता है । लेकिन कोई हिन्दू अपना नाम ज़हूरबक्श रख सकता है लेकिन सच्चे मुसलमान के लिए यह संभव नहीं है । तो फिर रामपुर का नाम ही बदल आज़मगढ़ रख देते । लोकतंत्र में नाम बदलने से ही बड़ा जनकल्याण हो जाता है जैसे पूना का पुणे, कलकत्ता का कोलकाता, बनारस का वाराणसी, बंबई का मुम्बई, गाज़ियाबाद का गौतम बुद्ध नगर और फिर गाज़ियाबाद । यदि यह संभव नहीं था तो आपकी पैदाइश के समय आज़मगढ़ चले जाते । खैर, नाम में क्या रखा है ? बेईमानी तो 'हरिश्चंद्र' नाम रखकर भी की जा सकती है ।

कुछ दिनों पहले आपकी सात भैंसें खो गई थीं या घूमने चली गई थीं लेकिन आपका सुशासन देखिए कि दो दिन बाद ही वापिस लौट आईं । लालू जी वैसे तो बहुत तड़ी मारते हैं लेकिन उनकी 'चारा युग' की दुधारू भैंसें ऐसे गायब हुईं कि आज तक नहीं मिल पाईं । हमें याद है १९८१ में बंगाल के राज्यपाल गोविन्द नारायण सिंह की इज़राइली नस्ल की एक बकरी चोरी हो गई लेकिन आज तक नहीं मिली । अज्ञात व्यक्तियों के नाम रिपोर्ट लिखवाई गई । कुछ दिनों बाद चारखाने की एक लुंगी बरामद करके फ़ाइल दाखिल दफ्तर कर दी गई । ऐसे 'सिंहों' का क्या ? आपके नाम के साथ इस्लाम के कारण 'सिंह' तो नहीं लगाया जा सकता लेकिन 'शेर' तो लगा सकते हैं । आज़म खान शेर या शेरे रामपुर आज़म खान । वैसे इसके बिना भी आपका रुतबा धाँसू है ।

अब देखिए, आज ही यू.पी. असेम्बली में कुछ जनसेवकों (एम्.एल.ए.) ने कपड़े उतार दिए । लोग कहते हैं कि इससे लोकतंत्र शर्मिंदा हुआ । अरे मियाँ, लोकतंत्र का शर्मिंदगी से क्या वास्ता ? जितना नंगा, उतना ही बड़ा नेता । आजकल तो छोटा मोटा वार्ड मेम्बर और सरपंच तक सड़क से संसद तक निर्वस्त्र घूमता है । किसी के बाप में दम नहीं कि उसका कुछ बिगाड़ ले । सबको चुनाव लड़ना है तो इन्हें बर्दाश्त करना सब की मज़बूरी है । आपने इस घटना पर अपने लोकतांत्रिक विचारों को आगे बढ़ाते हुए जो वक्तव्य दिया वह आपके अलावा और कोई क्या खाकर दे सकता था । आपने कहा- 'नीचे वाले कपड़े उतार देते तो पीछे से भी दर्शन हो जाते । मर्दानगी का पता चल जाता' । वैसे आप उनकी पृष्ठभूमि देखकर ही क्या करते । लोकतंत्र में सबकी पृष्ठभूमि लगभग एक जैसी ही होती है । कपड़े उतारें या नहीं, हमें तो इस हम्माम में सब एक जैसे ही नज़र आते हैं ।
जहाँ तक पृष्ठभूमि के प्रदर्शन का प्रश्न है तो काबिल लोग वह काम शब्दों से भी कर दिखाते हैं ।

आदाब ।
१९ फरवरी २०१४


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न्याय का तराजू

प्रिय राहुल जी,
नमस्ते । पूर्व प्रधान मंत्री और आपके पिता राजीव जी के हत्यारों की रिहाई के समाचार ने आपको ही नहीं पूरे देश के संवेदनशील लोगों को क्षुब्ध और निराश किया है । आपके दुःख को समझना अत्यंत सरल है । केवल २१ वर्ष की आयु में सर से पिता का साया उठ जाना कितना बड़ा सदमा होता है यह कोई भुक्त भोगी ही अनुभव कर सकता है । कहावत है- जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीड़ पराई । मीरा ने भी कहा है- घायल की गति घायल जाने जो कोई घायल होय । हमारी पूरी संवेदना और सहानुभूति आपके साथ है ।

आपने कहा- जब एक पूर्व प्रधान मंत्री को न्याय नहीं मिल सका तो एक सामान्य आदमी का क्या हाल होता होगा । सामान्य आदमी के सच को जानने के बाद और उसे ईमानदारी से अनुभव करने के बाद आदमी राजा नहीं रह पाता, सिद्धार्थ की तरह राज-पाट छोड़कर बुद्ध हो जाता है । आपने सामान्य आदमी के जीवन का सच जाना ही नहीं । कैसे जानते, जानने का मौका ही नहीं मिला । आजकल राम, कृष्ण, चन्द्रगुप्त के समय जैसे राजा कहाँ होते हैं जो ऋषियों के आश्रम में रहकर, भिक्षाटन करके, जनता के बीच रहते हुए सिंहासन तक पहुँचते थे । आजकल तो राजकुमार महलों में रहकर, विदेशों में पढ़कर, बिना जनता को जाने गद्दी पर स्थापित कर दिए जाते हैं । आज देश में सभी पार्टियों में नेताओं के परिवार वालों को देख लीजिए । सभी बिना किसी अनुभव, योग्यता और सामान्य जन के संपर्क में आए बिना ही राजनीति और लाभ के पदों पर जमे हुए हैं । उनके पास समाधान के रूप में ब्रेड की जगह केक का विकल्प है । जो नीचे से उठकर ऊपर पहुँचे हैं उनमें भी अधिकतर अपने गुणों के बल पर कम और औद्योगिक घरानों और गुंडों के बल पर ज्यादा आश्रित रहे हैं । जो अपने बल पर पहुँचते हैं उन्हें भी भ्रष्ट राजनीति भ्रष्ट होने के लिए विवश कर देती है या वे खुद ही दुखी होकर छोड़ जाते हैं । भले और वास्तव में जन के बीच से निकले, संवेदनशील आदमी का राजनीति में बने रहना असंभव है ।

हम आपकी व्यक्तिगत बात नहीं कर रहे हैं लेकिन यह सच है कि हर आदमी की दृष्टि को उसका व्यवसाय प्रभावित अवश्य करता है । सच्चे सेवकों की बात हम नहीं करते । सुरेश आमटे आदिवासियों के बीच निस्वार्थ भाव से काम करते हैं । उनका धर्म है कि सभी लोग स्वस्थ रहें लेकिन जिसने पैसे कमाने के लिए दवाई का कारखाना लगाया, अस्पताल खोला है या जिसने केवल पैसे कमाने के लिए डाक्टरी पढ़ी है वे सभी यही चाहेंगे कि अधिक से अधिक लोग बीमार हों, उन्हें महँगी और अनावश्यक दवा लिखी जाए और अधिक से अधिक धन कमाया जाए । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुछ वर्षों पहले स्वाइन फ्लू का डर फैलाया और फिर एक विशेष कम्पनी की महँगी दवाइयाँ विभिन्न देशों को भेजी गई । इसकी सिफारिश करने वाले वे अधिकारी थे जिनके इन दवा कंपनियों में शेयर थे या वे इन कंपनियों में मैनेजर रह चुके थे । गरीब आदमी यदि उनके सामने तड़प रहा है लेकिन उसके पास देने को पैसे नहीं हैं तो वे उसका इलाज नहीं करेंगे । संवेदना गई भाड़ में । ट्यूशनिया मास्टर स्कूल में नहीं पढ़ाएगा । यदि ऐसा करेगा तो ट्यूशन कौन पढ़ेगा ? राजनीति वाले भी जीतने या विपक्षी को बदनाम करने के लिए मुद्दे ढूँढ़ते हैं, सामान्य आदमी की पीड़ा का उनके लिए इतना ही महत्त्व है वरना सहानुभूति और जन-कल्याण की खाज चुनाव के दिनों में ही क्यों चलती है ।

गाँधी जी इसीलिए कांग्रेस में शामिल होना चाहने वाले हर व्यक्ति को पहले कुछ महीनों अपने आश्रम में रखते थे जिससे वह सामान्य आदमी बन सके । आज की तरह यह नहीं कि जिधर भी पद और पैसा दिखा उसी दल की टोपी पहन ली और नाम दे दिया 'आत्मा की आवाज़' ।

हमने तो देश की स्वतंत्रता से लेकर आज तक यही देखा है कि न्याय, सुविधाएँ और मानवाधिकार सब कुछ शक्तिशालियों, नेताओं, सेठों और गुंडों के लिए है । सामान्य आदमी को कोई भी छोटा-मोटा कर्मचारी, अधिकारी और नेता गरिया देता है जब कि गुंडों, नेताओं पर कोई कानून नहीं चलता । नेताओं को पुलिस बड़े आदर से जेल में ले जाती है । जेल में ऐसे नेताओं के पैर छूते हुए पुलिस अधिकारियों के फोटो आपको भी याद होंगे । जेल में नेताओं को उनके मनपसंद भोजन, फोन, अखबार की सुविधा, जन्म दिन मनाने और रंडियाँ नचवाने की सुविधा मिलती है । सामान्य आदमियों को ऐसा नहीं तो कम से कम दुर्व्यवहार तो न मिले । क्या कभी इतनी गारंटी भी मिलेगी ?

जाति, आरक्षण-व्यवस्था और पार्टी पोलिटिक्स के चलते कितने लोगों के साथ और कैसा अन्याय होता है, उन्हें कैसी पीड़ा झेलनी पड़ती है इसकी कल्पना आप नहीं कर सकते । ट्रांसफर, प्रमोशन और नौकरी में कैसे-कैसे और किस तरह के भेद-भाव और अन्याय होते हैं उसका पता तो आपको तब चलता जब आप सामान्य आदमी के रूप में नौकरी कर रहे होते । हमने १९८१ में जयपुर में अजमेरी गेट पर पुलिस कार्यालय के सामने एक यातायात अधिकारी को एक सिरे से वाहनों को रोकते और एक जाति विशेष के लोगों के अतिरिक्त शेष सभी वाहन वालों को परेशान करते देखा है । आपको इसकी कोई कल्पना नहीं है । कभी, वास्तव में इस तरह वेश बदलकर कि कोई पहचान न सके, जनता में जाइए और फिर देखिए कि देश की क्या हालत है । इस समय देश, गरीब, सामान्य आदमी, विकास, सेवा आदि की जो बातें चल रही हैं उसका एक कारण तो है चुनाव की मजबूरी और दूसरा यह केजरीवाल का 'आम आदमी' वरना किसे फुर्सत है धन सूँतने और ऐश करने से ।

'वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे'
हम तो चाहते हैं कि भगवान आपको वह सौभाग्य प्रदान करे कि आप वास्तव में 'वैष्णव जन' बनें और लोगों की पीड़ा को समझें । तब आपको कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । सच्चा प्रेम तो पशु भी समझता है । और देश का आदमी अभी पशु से भी गया बीता नहीं हो गया है ।

जहाँ तक न्याय की बात है तो छोटे मियाँ, बस इतना समझ लीजे कि सामान्य आदमी के लिए न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी बँधी हुई है लेकिन जब कोई प्रभावशाली व्यक्ति सामने आता है तो वह चुपके से पट्टी खिसका कर, तिरछी नज़र से भाँप लेती है कि कैसे व्यवहार करना है । और फिर उसका तराजू बिना किसी बाट (वज़न का माप) रखे हुए एक तरफ झुका हुआ है । जब साला तराजू में ही पासंग हो तो पूरा कैसे तुलेगा ?

हम आपकी भावनाओं को समझते हैं और आशा करते हैं कि भविष्य में आम आदमी के प्रति हो रहे सब प्रकार के अन्यायों के प्रति आपकी यह संवेदना और भावना बनी रहेगी । जय ललिता की छोडिए, उनकी भी अपनी राजनीतिक मजबूरी है ।

कभी समय मिले तो स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना वाले माफ़िया द्वारा मारे गए सत्येन्द्र दुबे, महाराष्ट्र के तेल माफ़िया द्वारा मारे गए यशवंत सोनवने और बिहार में सैंकड़ों लोगों से सामने मार डाले गए आंध्र के जी. कृष्णैया को मिले न्याय और नेताओं द्वारा लज्जित किए गए अशोक खेमका और दुर्गाशक्ति नागपाल के बारे में भी सोचिएगा । आपकी न्यायप्रियता क्या कहती हैं ? वैसे राजीव गाँधी जी के सामने तो ये कीड़े-मकोड़े हैं ।

चलिए, अच्छा हुआ, हमारा पात्र समाप्त होते-होते चालीस घंटे के रिकार्ड तोड़ विलंब के बाद ही सही, न्याय मिला तो ।

२१ फरवरी २०१४


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Feb 22, 2014

टोपी के पैसे

टोपी के पैसे

तोताराम ने आते ही जुमला उछाला- यार मास्टर, तुम्हारा यह केजरीवाल भी अजीब आदमी है । ज़रा-ज़रा सी बातों में भ्रष्टाचार ढूँढ़ता है । अब और कुछ नहीं मिला तो कहता है- मोदी और राहुल के पास अम्बानी के हेलीकोप्टर में उड़ने का पैसा कहाँ से आता है ? हिसाब बताओ ।



अरे भाई, मोदी और राहुल दोनों का ही गुजरात से संबंध है और अम्बानी भी गुजरात का है । अब मान लो अम्बानी अपने हेलिकोप्टर से कहीं जा रहा है और राहुल या मोदी ने लिफ्ट लेने के लिए हाथ दे दिया और उसने इंसानियत के नाते इन्हें बैठा लिया तो क्या अन्याय हो गया । आदमी ही आदमी के काम आता है । या फिर इन्होंने उसका हेलिकोप्टर माँग लिया तो भी क्या ज़ुल्म हो गया । क्या अड़ोस-पड़ोस में कोई किसी की साइकल या बैलगाड़ी माँग कर नहीं ले जाता ? चुनाव आयोग के नियम अपनी जगह हैं लेकिन इंसान- इंसान का रिश्ता थोड़े ही ख़त्म हो गया । हेलिकोप्टर तो इसे भी मिल सकता है । अम्बानी क्या इसका कोई दुश्मन है ? अरे, तुम्हें चाहिए तो तुम भी माँग लो । अब यह तो नहीं हो सकता कि तुम उसकी टाँग खींचो और वही तुम्हें बिना माँगे हेलीकोप्टर देने आए ।

अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे । भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने ऐसा सवाल पूछा है कि ज़वाब देते-देते सारी इन्कमटेक्स कमिशनरी निकल जाएगी । अब बच्चू कैसे बताएगा कि इतनी सी आमदनी में टोपी खरीदने के पैसे कहाँ से आए ? पहले तो बीवी और खुद की दोनों की तनख्वाह थी । अब तो एक की तनख्वाह ही रह गई है । और यह किसी आरक्षित श्रेणी में भी नहीं आता । फिर भी टोपी ही नहीं, ऊपर से मफलर लगाने की विलासिता ! कहाँ से और कैसे अफोर्ड करता है ?


जब दुनिया समृद्ध थी तब की बात और थी । तब सभी देशों के लोग- पुरुष और महिलाएँ सब सिर ढँकते थे लेकिन अब इस महँगाई में कहाँ किसी की सिर ढँकने की औकात बची है । भारत की तो बात ही छोड़ो अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी, इटली, आस्ट्रेलिया, चीन और जापान तक के प्रधान मंत्रियों और राष्ट्रपतियों तक की सिर ढँकने की औकात है क्या ? साठ के दशक तक में अमरीका के राष्ट्रपति आइजनहावर और रूस के ख्रुश्चोव को हमने नंगे सिर ही देखा । मोदी, अम्बानी, राहुल, टाटा, मित्तल किसकी हैसियत है टोपी लगाने की । माइक्रोसोफ्ट का सत्यनारायण नडाल भी टोपी न खरीद पाने के कारण अपनी चाँद दिखाने को मज़बूर है । साठ साल में लोगों के सिर सलामत नहीं बचे और इसे देखो- सिर भी सलामत है और टोपी भी और ऊपर से मफलर भी । ये ठाठ ऐसे ही नहीं हैं । मुझे तो लगता है इसका ज़रूर स्विस बैंक में खाता है ।

हमने कहा- तोताराम, स्विस बैंक वाला मामला बड़ा टेढ़ा है । इसे फँसाने वाले भी फँस सकते हैं । अभी तो केंद्र में सरकार कांग्रेस की है और कुछ राज्यों में भाजपा की । दोनों मिलकर कोई अध्यादेश लाएँ और कम से कम टोपी पर तो प्रतिबन्ध लगा ही दें ।

तोताराम ने कहा- यह भी नहीं हो सकता क्योंकि अधिवेशन में कांग्रेसियों को और पथ-संचलन में भाजपा को टोपी लगाने की ज़रूरत पड़ती है । और फिर लोगों को टोपी पहनाए बिना इनकी राजनीति भी तो नहीं चलती ।

हमने कहा- लेकिन केजरीवाल अपनी टोपी पहनता ही है, दूसरों को पहनाता तो नहीं ।

तोताराम कहने लगा- केजरीवाल दूसरों की टोपी नहीं पहनता और अपनी पहनाता नहीं इसीलिए तो यह व्यापक विनाश के हथियार की तरह खतरनाक है । भला किसी की टोपी पहने या पहनाए बिना कहीं लोकतंत्र चलता है ?

२२ फरवरी २०१४
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तोताराम के तर्क और ताऊ के आँसू


तोताराम ने आते ही सांसदों को भला-बुरा कहना शुरु कर दिया- करना-धरना तो कुछ है नहीं । बिना बात २१ फरवरी २०१४ को वर्तमान संसद के अंतिम सत्र के अंतिम दिन को बेकार कर दिया । अरे, ध्वनि-मत से ही सही, दस-पाँच बिल और पास कर-करा देते तो कहने को हो जाता कि सांसद कुछ काम करते हैं ।

जब अगली संसद में इन्हीं को या इनके ही परिवार वालों को आना है तो फिर भई, जाओ अपने-अपने क्षेत्रों में, पाँच वर्ष से तरस रही जनता को दर्शन दो, लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए अपनी दो नंबर की कमाई में से थोड़ा इन्वेस्ट करो अगली टर्म के लिए । बिना बात का विदाई समारोह बना दिया ।


हमने कहा- तोताराम, सुख या दुःख कैसा भी अवसर हो, मानव एक सांस्कृतिक प्राणी है इसलिए थोड़ी-बहुत औपचारिकता आवश्यक हो जाती है । बिछड़ तो रहे ही हैं, भले ही दो चार महीने के लिए ही सही । और फिर जीवन तो जीवन है । क्या पता, इस दौरान कोई अगली संसद में आने की बजाय ऊपर वाली संसद में ही नोमिनेट हो जाए । सो क्या हो गया जो विदाई समारोह जैसा कुछ हो गया तो । और फिर आडवाणी जी १९७१ मॉडल के एकमात्र सांसद बचे है सो उन्हें अगर किसी ने फादर ऑफ़ हाउस या अपना संरक्षक कह दिया तो क्या हो गया ?

तोताराम ने बात बदलते हुए कहा- अच्छा चल, इस बारे में और बात बाद में करेंगे । पहले तो तू एक किस्सा सुन- एक आदमी रोज दारू पिया करता था । एक बार ऐसा संयोग हुआ कि दो दिन दारू नहीं मिली । अब तो उसका चलना-फिरना मुहाल । तीसरे दिन तो खाट से ही नहीं उठा । लोगों ने समझा बीमार है । पाँच-चार दिन बाद लोग हाल-चाल पूछने के लिए आने लगे । वह आदमी तो संवाद कम करता, घर वाले ही अधिक बातें किया करते थे । लोग आते और तरह-तरह के इलाज़ बताते । कोई कहता-फलाँ काढ़ा पिलाओ, कोई किसी देवता विशेष की माला फेरने को कहता तो कोई किसी ठरकी बाबा का स्पेशल शक्ति वर्द्धक रसायन पिलाने की सलाह देता । एक दिन एक व्यक्ति ने दबी जुबान में कहा- अरे भई, थोड़ी ब्रांडी मिल जाए तो वह भी पिला कर देखो । लेकिन घर वालों ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया । थोड़ी देर बाद वह आदमी उठ बैठा और बोला- सालो, बिना बात की किचर-किचर कर रहे हो, कोई इस भले आदमी के बताए इलाज़ को सीरियसली क्यों नहीं लेता ।

सो ताऊ अडवाणी कौन अभी रिटायर हो रहा है जो ऐसे विदाई दे रहे हो । कोई उनके दिल की दबी-ढकी आवाज़ को क्यों नहीं सुन रहा है ? अब ऐसे में ताऊ रोएगा नहीं तो क्या करेगा ? ताऊ कोई अपने आप थोड़े ही रोया है । इन पाजियों ने रुलाया है । और ये आँसू ख़ुशी के नहीं, मनमोहन जी की तरह खून के आँसू हैं ।

हमने कहा- तो फिर तू ही बता कि इस दिन संसद में ताऊ के साथ क्या होना चाहिए था ?

बोला- काली मिर्च-प्रक्षेपण, चाकू-प्रदर्शन जैसे संसदीय कार्य तो बंद हो ही चुके थे और माहौल भी हल्का हो चुका था तो मज़ाक में ही सही एक बार ताऊ को मनमोहन सिंह जी कुर्सी पर ही बिठा कर फोटो खींच लेते ।
२२ फरवरी २०१४

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Feb 17, 2014

तोताराम के तर्क और चाय पर चर्चा


हमने तोताराम के सामने चाय रखते हुए कहा- आज तुम्हारे लिए पचास प्रतिशत का विशेष कन्सेशन है । केवल ५२ रु में पूरा पॅकेज । मोदी जी चाय पर चर्चा सुनने वालों से एक सौ रुपए लेते हैं और चाय के चार रुपए अलग । हम तुम्हें पचास रुपए में कविता सुनाएंगे और दो रुपए में चाय पिलाएंगे । निकाल बावन रुपए ।

तोताराम ने ठहाका लगाते हुए कहा- सब झूठ है । हमने नेहरू जी, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी , अटल जी, आडवाणी जाने कितनों के भाषण सुने हैं । न कभी एक पैसा दिया और न हमसे किसी ने माँगा । आजकल तो चुनाव के समय भाषण सुनने वालों की भीड़ दिखाने के लिए छुटभैय्ये प्रति व्यक्ति दो सौ रूपए, दारु का एक पव्वा और बस का किराया देते हैं । ये सौ रूपए के टिकट वाली सब बातें थोथा प्रचार हैं, अपने भाव बढ़ा कर दिखाने का नाटक है ।

चुनाव में इतना खर्च हो रहा है । क्या पता, कल को चुनाव आयोग खर्च किए गए धन का हिसाब न माँग ले, इस डर के भाषण सुनने वालों से हुई 'दर्शन-श्रवण-दक्षिणा' के बहाने आमदनी दिखाने की ट्रिक है यह । मोदी तो फिर भी प्रधान मंत्री पद का उम्मीदवार है सो हो सकता है छुटभैय्ये नेता उसकी निगाह में चढ़ने के लिए अपनी मनरेगा और भूमि घोटालों की कमाई फूँक रहे हों । लेकिन तेरी हैसियत तो एक सरपंच की भी नहीं है । तेरी कविता सुनने के लिए देना तो दूर, कोई कुछ लेकर भी आने वाला नहीं है । वैसे यह फितूर तेरे दिमाग में आया कैसे ?

हमने कहा- हम सोच रहे हैं कि डेढ़ महीने की पेंशन का ही तो मामला है । यह तमाशा भी देख ही लेते हैं । और यह भी समझ ले कि हम चुनाव मोदी के खिलाफ लड़ेंगे । जैसे राहुल के खिलाफ लड़ने से विश्वास को पब्लिसिटी मिल रही है वैसे ही अपने को भी मिल जाएगी । जैसे वह अपनी कविताएँ पेल रहा है हम भी पेल देंगे । और कुछ नहीं तो इसी बहाने लोग जान जाएँगे कि मास्टर भी कविता लिखता है । नेतागीरी का नहीं तो, क्या पता कवि सम्मेलन का धंधा ही चल निकले ।

और फिर इस देश की क्या, कहीं की भी जनता की यह विशेषता है कि वह किसी भी सामान को उत्सवी छूट के नाम पर खरीद ही लेती है, भले ही माल कितना भी घटिया क्यों न हो ।

तोताराम ने उठाते हुए कहा- मुझे देना-दिवाना कुछ नहीं है । तू मेरा बाल सखा है इसलिए अधिक से अधिक इतना कर सकता हूँ कि एक चाय में छोटी बहर की केवल चार शे'र की एक ग़ज़ल सुन सकता हूँ और उस पर भी यह शर्त है कि मंचीय शायरों की तरह एक लाइन को चार बार नहीं पढ़ेगा या हास्य कवियों की तरह चार लाइन की कविता से पहले दस घिसे-पिटे चुटकले नहीं सुनाएगा ।

हमने तोताराम के सामने चाय रखते हुए कहा- मंजूर हैं । यहीं बैठ, हम डायरी लेकर आते हैं । कहीं चाय के कप समेत ही गायब न हो जाना ।

१७ फरवरी २०१४ पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


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Feb 16, 2014

हैप्पी वेल हटाइन डे, छोरे



भई अरविंद केजरीवाल,
खुश रह । तू म्हारे सबसे छोटे छोरे की उम्र का सै और मज़े की बात या सै कि म्हारे दो छोरे भी उसी आई.आई.टी में पढ़े सें जिसमें तू । जै तू केंद्रीय विद्यालय में पढ्या होता तो हम तन्ने हिंदी पढाँवते । वैसे एक रिश्ता और सै- हरियाणा म्हारी ननिहाल है और तू हरियाणा का ।

खैर, हम तो तन्ने पहले भी कई बार पत्र लिखणै की सोच रे थे क्यूंकि हमनै फिकर थी के छोरा सीधा सै, टोपी और मफलर लगाके ढक-ढूम के सलीके से रहे सै । राजधानी की बीरबानियाँ (लडकियाँ-औरतें) कहीं फाँस न लें, छोरे को । कहीं कोई चक्कर ना पड़ज्या । राजधानियाँ की इन बीरबानियाँ के घर-घराणे और उम्र का कुछ ठिकाणा भी नहीं लगता । काळी-कलूटी पाँच रुपैये की क्रीम लगाके सात दिन में गोरी बणज्या । सर्जरी करवाके एक सौ तीस बरस बूडली पच्चीस की दीखण लागज्या । हाथां में कदे गुलाब का, कदे कमल का फूल लेके पासे आके धीरे-धीरे गले में हाथ डालती-डालती गला पकड़ ले । राजधानी तैं और दूर कामरूप चल्या जा तो सुण्या है उतै की बीरबानियाँ आदमी नै फँसा के मोम की माखी बणा दे । आदमी इसा घुघ्घू बण ज्या के उठावे तो उठे और बठावै तो बैठे । जम्माये जमूरा बणज्या सै आदमी । और जै कठे बिदेस मैं जाके फँस ज्या तो बेरा ना माणस का के बणै ?

धीरे धीरे यो वेलेंटाइन डे भी आग्या तो फिकर और बढगी । पण छोरे तन्ने जी खुश कर दिया । आई लव यू कहणै की बजाय वेल ही हटा दिया । नहीं तो या तन्नै वेल मैं ही पटक देती । तू तो पढ्या लिख्या सै । वेल के और भी कई मतबल हों सै- कूआ भी और पर्दा भी । सो यो तेरा वेलेंटाइन डे न होके 'वेल हटाइन डे' होग्या । ज़रूर तन्ने वा कहानी सुणी होगी ।

एक गाँव का छोरा था । सीधा-सादा, भैंस चरावणिया और दूध-दही खावणिया । उसकी शादी होगी एक शहर की छोरी सागे । मिलतां ई छोरी बोलण लागी शहरी बोली, करण लागी किन्तु, परन्तु और थोड़ी थोड़ी देर मैं या और पूछे- के समझ्या । छोरा होग्या परेशान । बोल्या- समझग्या भई, चोकस समझग्या - तू उरे रहणी कोन्या । सो भई यो इसी ढाल होणा था सो होग्या । के तो सीता सतवंती के फरड़क रांड । इसी वेलेंटाइनाँ जाणै कितणा नैं उल्लू बणाया सै । भतेरी ज़िन्दगी पड़ी सै, और भोत मिलैंगी ढंग की वेलेंटाइनां । तू तो बस तेरा धर्म ठिकाणै राख ।
तेरा ताऊ
-रमेश जोशी ।
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Feb 15, 2014

शिष्टाचार की कुछ सामान्य बातें (ओबामा को पत्र )

ओबामा जी,

वैसे संसारिकता और प्रेक्टिकलता का तकाज़ा तो यह है कि जिससे कोई स्वार्थ सधता हो उसके अलावा किसी से भी कोई बात नहीं की जाए जैसे कि आजकल लोग मोदी-उन्मुख होते नज़र आ रहे हैं । उसने चाय बेचने के बल पर प्रधानमंत्री पद की आशा पाल ली तो लालू प्रसाद को अपने चाय बेचने के दिन याद आ रहे हैं । शायद कुछ समर्थन मिल जाए । बड़े लोग सोच रहे हैं कि यदि राजकुमारों के लिए बचपन में चाय बेचने का कोई प्रमाण-पत्र ले लिया होता तो आज काम आता । हो सकता है कोई बचपन का चाय की केतली थामे फोटो प्रकाश में आ जाए । लेकिन हमारा आपसे इस समय कोई स्वार्थ सधने वाला नहीं है फिर भी हम भूतपूर्वोन्मुख आप (केजरीवाल नहीं) को पत्र लिख रहे हैं । इसके तीन कारण हैं- हम आपमें एक पूर्वी युवक की छवि देख रहे थे; आपने अपने प्रथम चुनाव प्रचार के दौरान एक नई आशा जगाई थी; हम अनुभव कर रहे हैं कि आपको सामान्य शिष्टाचार की कुछ बातें बताना ज़रूरी है

हालाँकि आपने हमसे ऐसी कोई प्रार्थना नहीं की है । कोई वकील होता तो अमरीकी रेट के हिसाब से कम से कम २५० डालर प्रति घंटे के हिसाब से फीस पहले रखवा लेता । मगर एक हम हैं कि अध्यापक होने के नाते मुफ्त में ही सही सलाह देने के लिए आदतन विवश हैं ।


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आपके यहाँ भारतीय दूतावास की एक महिला अधिकारी के साथ जिस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार किया गया वह असामान्य और अशिष्ट है । अमरीकी कानून के अनुसार उसे उचित ठहराया जा रहा है । हो सकता है कोई बाल की खाल निकालने वाला राम जेठमलानी जैसा वकील इसे कानूनी रूप से गलत सिद्ध न होने दे लेकिन जो कानून सामान्य व्यवहार, मानवीय गरिमा और नारी का सम्मान न करे वह कैसा कानून । कानून खून के प्यासे पहलवानों का दंगल नहीं बल्कि वह करुणा और न्याय से जन्म लेने वाली एक व्यवस्था है ।


वैसे आप कानूनन कह सकते हैं कि आपको बताया नहीं गया । हो सकता है आपके यहाँ कानून के रखवाले पुलिसियों को शिष्टाचार और मानवता की इतनी समझ न हो । 



लेकिन आप चाहें तो केरल में भारतीय समुद्री सीमा में दो भारतीय मछुवारों को बंदूक चलाकर मार डालने वाले इटली के कर्मचारियों वाली घटना को याद करें । उनके लिए इटली सरकार ने क्रिसमस मनाने के बहाने जमानत की अपील की और भारत सरकार ने उसे मान लिया और अब वे भले आदमी फरार हैं । इसमें भारत की मानवता और योरप से भय के प्रतिशत के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता और अब देखिए कि इटली उन्हें बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में जा चुका है । क्या भारतीय राजनयिक का अपराध उनसे भी गंभीर था ? अमरीकी मानवाधिकार प्रेम की पर्दादारी के लिए हिंदी में न लिखकर अंग्रेजी में 'केविटी सर्च' लिख रहे हैं । क्या उस महिला के पास विनाश के व्यापक हथियार छुपे होने का खतरा था ?

अमरीकी प्रशासन ने इस कृत्य में अब भी कोई अशिष्टता नहीं पाई है । अपनी-अपनी संस्कृति की बात है । वैसे इस मामले में कभी-कभी हम सोचते हैं कि क्या ऐसा ही व्यवहार अमरीका के कानून के रखवाले पुलिसिये चीन के किसी राजनयिक के साथ करने का साहस जुटा पाते तब क्या आप उसे अनदेखा कर देते ? जो शराबी किसी सभ्य, सीधे या कमजोर व्यक्ति से शराब के नशे के बहाने बदतमीजी कर देता है वही थानेदार के सामने लड़खड़ाता हुआ ही सही, नमस्ते करने लग जाता है । आपके पुलिस वालों का यह कानून-प्रेम कहीं उस शराबी वाला ही तो नहीं है ?

इस बारे में भी एक सच्ची घटना सुनिए- आपके जन्म से पहले राष्ट्रपति आइजनहावर के ज़माने की बात है । उस समय अमरीका ने नए-नए यू टू विमान बनाए थे जो किसी भी राडार की पकड़ में नहीं आते थे । सो अमरीका ने रूस की जासूसी के लिए एक ऐसा ही विमान भेजा । रूस ने शिकायत की तो कहा गया- हमने ऐसा कोई विमान नहीं भेजा । फिर रूस ने कहा- हमने एक यू टू विमान गिरा लिया है । तो कहा गया- हमारा ऐसा ही एक विमान रास्ता भटक गया है । हो सकता है यह वही विमान हो । फिर रूस ने उत्तर दिया - इस विमान के चालक को हमने जिंदा पकड़ लिया है और उसने बताया है कि उसे जासूसी के लिए भेजा गया था । अमरीका ने उत्तर दिया- हाँ, हमने भेजा था और भविष्य में भी भेजेंगे । रूस की चेतावनी थी - यदि भविष्य में ऐसा हुआ तो हम उस अड्डे को ही नष्ट कर देंगे जहां से वह उड़ कर आएगा । तब भी क्षमा नहीं मांगी गई लेकिन फिर कभी कोई यू टू रूस की सीमा में नहीं गया ।


2.

दूसरा कारण- जब आप मंडेला के अंतिम संस्कार में सपत्नीक दक्षिणी अफ्रिका गए थे तब का आपका एक फोटो देखा । आप योरप के एक देश की युवा, सुन्दर और अपने से कम उम्र की प्रधान मंत्री के साथ 'सेल्फी' फोटो लेने के लिए पोज़ बना रहे थे । बगल में ही  श्रीमती ओबामा थीं । पत्नी के इतने निकट होते हुए किसी सुंदरी से इतनी निकटता बढ़ाना बहुत साहस का काम है । हम आपके चरित्र और एक पत्नी-व्रत पर कोई प्रश्न नहीं उठा रहे हैं लेकिन ऐसे अवसर पर कोई सामान्य व्यक्ति भी, भले ही झूठ-मूठ ही सही, गंभीर और ग़मज़दा होने का नाटक ही सही, करता तो है । 


लेकिन आपने तो इस सामान्य से शिष्टाचार को भी ताक पर रख दिया । सौन्दर्य तो सामान्य क्या, बड़े-बड़ों को भी अपने जाल में फँसा लेता है, फिर आप तो अभी जवान हैं । लेकिन याद रखना चाहिए कि राजा से जितेन्द्रिय होने की अपेक्षा की जाती है । आप इतने शक्तिशाली देश के प्रथम नागरिक हैं तो आपसे तो और भी नियंत्रित होने की अपेक्षा की जाती है । क्लिंटन जी की दुर्गति तो ऐसे कर्मों के कारण जग-जाहिर है ही । संन्यास की उम्र पर पहुँच चुके इटली के पूर्व प्रधान मंत्री बर्लुस्कोनी शायद जेल में हैं । यदि नहीं, तो भी जनता ने तो उन्हें अपनी विस्मृति के गटर में डाल दिया होगा । फ़्रांस के वर्तमान राष्ट्रपति महोदय अपनी लम्पटता के कारण सुर्ख़ियों में हैं । और पूर्व पत्नी भारत में मानसिक शांति तलाश रही है । हो सकता है आपका ऐसा कुछ इरादा नहीं रहा हो लेकिन पत्रकार तो बड़ी अफवाहें फैला रहे हैं । और पत्रकारों की ऐसी अफवाहें अब तक प्रायः सच ही निकली हैं ।



3.



तीसरा कारण- अभी एक खुलासा छपा है कि आपने नवम्बर २००९ में मनमोहन सिंह जी को जो डिनर दिया था उसमें पौने छः लाख डालर खर्च हुए थे । मनमोहन जी भले आदमी हैं । वे अपनों की बातों का ही ज़वाब नहीं देते तो आपको क्या कुछ कहेंगे । यह आपके और आपके प्रशासन के सोचने की बात है कि किसी भले आदमी को पहले तो निमंत्रण देकर घर बुलाओ और फिर इस तरह दुनिया में उसका जुलूस निकालो ।

एक किस्सा सुनाते हैं जिससे शायद हमारी बात स्पष्ट हो जाए । एक सेठ ने अपने नाई को किसी काम से अपने बेटे की ससुराल भेजा । वहाँ नाई को दस-दस ग्राम के पतले-पतले फुल्के परोसे गए । उन दिनों में आने-जाने के साधन बहुत कम थे और वैसे भी लोग दस-पंद्रह किलोमीटर के लिए कोई साधन लेते भी नहीं थे, पैदल ही चले जाते थे । नाई भी पैदल चलकर सेठ के बेटे की ससुराल पहुंचा । दिन भर का भूखा, पतले-पतले फुल्के , खा गया चालीस-पचास ।


नाई खाता जाता था और सोचता जाता था कि इतने पलते फुल्के परसे जाने का क्या चक्कर है ? आप जानते हैं कि नाई सत्तर घाट का पानी पिया एक चतुर प्राणी होता है । उसने छुपाकर एक फुल्का अपनी जेब में रख लिया । जब लौट कर सेठ को रिपोर्ट की तो अपने समधी की चिट्ठी पढ़कर सेठ ने कहा- नेवगी जी, आपने तो बेटे की ससुराल में हमारी नाक ही कटवा दी । अरे भाई, ऐसी भी क्या भूख । पचास फुल्के खा गए । नाई ने जेब से फुल्का निकाल कर दिखाया और कहा- सेठ, ये रहा फुल्के का नमूना ।


बात समझ में आ गई होगी । नहीं तो कुछ और स्पष्ट कर देते हैं । उस भोज में मनमोहन जी के साथ होंगे कोई बीस आदमी, जब कि आप वाले दो सौ । आपको याद होगा उस भोज में शराब के एक व्यापारी (सलाही) अपनी सुन्दर पत्नी के साथ बिना बुलाए आए और दारू पीकर चले गए । हो सकता है ऐसे ही बहुत से लोग बिना गिनती के आ गए होंगे और आपने खर्चा डाल दिया मनमोहन जी के खाते में । जैसा कि हमें याद है, उस भोज में मनमोहन जी को बैंगन का भुरता परोसा गया था और वह बैंगन भी मिशेल ने अपने किचन गार्डन में उगाया था । हमें लगता है कि कर्मचारियों ने इसमें कम से कम साठ प्रतिशत का घपला किया है । चालीस प्रतिशत में से मनमोहन जी के साथ वालों पर चार प्रतिशत खर्चा हुआ होगा । कुल मिलाकर दस हजार डालर से अधिक खर्चा अमरीकी सरकार का नहीं हुआ होगा । जब कि इससे कई गुना तो उन्होंने निजी हवाई जहाज से अमरीका आने-जाने में खर्च कर दिया होगा । जितने की झाँझ नहीं उतने के मंजीरे फूट गए और इतना बड़ा अहसान ऊपर से । इससे करोड़ों गुना तो अपने एक परमाणु सौदे में मनमोहन जी से कमा लिया होगा ।

हमारे यहाँ 'ऐसे' अतिथि सत्कार को ओछी-नीत कहते हैं लेकिन आपसे यही कहते हैं कि इतने बड़े देश के राष्ट्रपति होकर इतना छोटा दिल मत रखिए । अपने अकाउंट्स विभाग वालों से भी कह दें कि मेहमानों की रोटियाँ न गिना करें ।

ये तीनों बातें ही अशिष्टता हैं, क्षमा माँगने योग्य हैं लेकिन हमें पता है कि आप क्षमा नहीं मांगेंगे क्योंकि क्षमा माँगने के लिए क्षमा करने वाले से भी बड़ा दिल चाहिए ।

हमारे यहाँ शिव काल से भी बड़े, महाकाल हैं और इसीलिए महादेव हैं । उनसे क्षमा माँगने का एक मन्त्र है । उससे आप समझ जाएंगे कि वास्तव में सच्ची क्षमा-याचना क्या होती है ? यह कोई सॉरी जैसा दो अक्षरों में निबटा दिया जाने वाला रस्मी मामला नहीं है । सुनिए उस श्लोक का भावार्थ-
हे करुणा के सिन्धु महादेव शम्भु ! मैं अपने हाथों, पैरों से किए गए, शरीर और कर्म द्वारा किए गए, कानों और नेत्रों द्वारा किए गए, मन द्वारा किए गए, सभी व्यक्त और अव्यक्त अपराधों के लिए आपसे क्षमा माँगता हूँ । मुझे क्षमा करिए ।

ऐसी क्षमा किसी और का नहीं बल्कि स्वयं का भला करती है उसे पवित्र करती है । यदि इस भाव से क्षमा मांगी जाए तो ठीक है अन्यथा शाब्दिक चोंचलों का कोई अर्थ नहीं । वैसे हम जानते हैं कि आप ऐसी औपचारिक क्षमा भी नहीं मांगेंगे क्योंकि आपके सामने इण्डिया की स्थिति तो उस प्रेमिका जैसी है जो कहती है-
तड़पाओगे तड़पा लो, हम तड़प तड़प कर भी तुम्हारे गीत गाएंगे ।

वैस अब आपको अधिक सोचना भी नहीं चाहिए क्योंकि अब कौनसा चुनाव लड़ना है । अमरीका में कोई भी राष्ट्रपति अधिक से अधिक आठ वर्ष का सत्ता सुख ही भोग सकता है । सो आपके छः वर्ष तो बीत ही गए, दो और बीत जाएंगे । आपकी स्थिति तो हमारे अरविन्द केजरीवाल जैसी है । आपके लिए पाने को कुछ नहीं है और उसके पास कुछ खोने को नहीं है ।


‘जय शंकर बम भोले’ नहीं बोलेंगे क्योंकि क्या पता, कहीं हमारी भी 'केविटी सर्च ' न हो जाए । और उसमें व्यापक विनाश की कोई कविता या पत्र निकल आया तो क्या करेंगे । वैसे यह बम वह नहीं है जो आतंकवादी रखते हैं । यह तो शिव के प्रिय भंग के गोले से संबंधित है जिसका सेवन आपने भी किया हुआ है । क्या मज़े की चीज़ है ? एक आनंद ही आनंद । कोई कुंठा और ईर्ष्या-द्वेष नहीं । खाओ तो खाते ही जाओ, हँसो तो हँसते ही जाओ, रोओ तो रोते ही चले जाओ ।

आज 'वेलेंटाइन डे' भी है । ऐसे नहीं कहा जा रहा हो तो भंग का गोला चढ़ा कर ही सही, एक बार ढंग से मिशेल को 'आई लव यू' कह दो और भावी पारिवारिक जीवन को सुखद बना लो क्योंकि राष्ट्रपति न रहने पर, न कोई गायिका पूछने आएगी और न ही कोई युवा प्रधान मंत्री । यही भली औरत साथ निभाएगी ।

१४ फरवरी २०१४

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