Dec 31, 2009

पोस्टकार्ड टू प्रणव दा : नए वर्ष की बधाई


आदरणीय प्रणव दा,
नमोश्कार । हमारा नववर्ष का शुभकामना-सन्देश-पत्र आपको इस बार कुछ देर से मिले तो अन्यथा नहीं लीजियेगा । कारण कुछ ख़ास नहीं है । बस, हम आज के बाज़ार के 'कंडीशंस अप्लाई ' नामक फंडे से घबराये हुए हैं । आज ही हमने अखबार में पढ़ा कि फ़ोन कम्पनी वाले बड़े बदमाश होते हैं । चुपके से त्यौहार के दिन जब लोग एस.एम.एस. का ज्यादा उपयोग करते हैं उन दिनों ये एस.एम.एस. का ब्लेक डे घोषित कर देते हैं- मतलब कि उस दिन एस.एम.एस. के रेट ज्यादा लगेंगे, साधारण दिनों से । लोग सस्ता समझ कर एस.एम.एस. से धड़ाधड़ बधाई सन्देश भेज देते हैं और जब पैसे कटते हैं तो रोते हैं । आप तो वित्त-मंत्री भी हैं, दिल्ली में भी बैठते हैं और दिल्लीदरबार में ख़ास भी हैं । कम से कम लोगों को इस धोखे से तो बचायें ।

वैसे तो कई बदमाश लोग एस.एम.एस. से धोखेबाजी का धंधा भी करते हैं । अखबार में विज्ञापन देंगें कि एक सरल प्रश्न का उत्तर दीजिये और इनाम में एक कार जीतिए । प्रश्न हो सकते है- अभिषेक बच्चन की पत्नी का नाम बताइए या भारत की क्रिकेट टीम के कप्तान का नाम बताइए या ज्यादा ही कठिन प्रश्न पूछना हो तो पूछ लेंगें कि गाय के कितने पैर होते हैं । लोग सोचेंगे कि एक एस.एम.एस. में क्या जाता है । क्या पता चांस लग ही जाये । कई लाख लोग एस.एम.एस. करते हैं । करोड़ों की आमदनी होती हैं । कार्यक्रम की योजना बनाने वाले और मोबाइल कंम्पनी आधा-आधा बाँट लेते हैं । करोड़ों कमा कर एक लाख की कार इनाम में देने में किसके बाप का क्या जाता है । अखबार वाले भी किसी ताज़ा और उत्तेजक घटना पर पाठकों से एस.एम.एस. द्वारा राय पूछते हैं । जितने भी उल्लू के पट्ठे फँस जाएँ उतने ही ठीक । अगले दिन दो गुना दो सेंटीमीटर स्थान में प्रथम पृष्ठ पर छाप देंगे-'यस' इतना, 'नो' इतना और 'डोंट नो' इतना । हो गई लाखों की कमाई । वरना जितने पेज अखबारवाले तीन रुपये में छाप कर देते हैं उतने खाली पेज, उतने पैसे में बाजार में नहीं मिलते । बड़ा ऊँचा चक्कर है, पर एस.एम.एस. के रसिया समझें तब ना ।

Dec 23, 2009

सिंह इज़ किंग


किसी गाँव में एक सज्जन रहते थे । देखने में मोटे-ताज़े थे, ताक़त के बारे में राम जाने । उन्हें अपने पहलवान होने का भ्रम था । वे जहाँ भी उठते-बैठते, अपनी पहलवानी की डींगें हाँका करते थे, यह बात और है कि मोहल्लेवाले उनकी असलियत जानते थे । वे अपने गले में एक मोटी चेन पहना करते थे । लोग कहते- भाईसाहब, ज़माना ख़राब है । इतनी कीमती चीज़ पहनना आफत बुलाना है । पता नहीं, कब क्या हो जाए । वे सीना फुला कर कहते- किसकी हिम्मत है जो हमारी गर्दन पर हाथ डाल सके । एक दिन लोगों ने देखा कि उनके गले में चेन नहीं है, बोले- हम कहते थे ना, अब डाल दिया न किसी ने गर्दन पर हाथ ! वे पहले की तरह अकड़ कर बोले- किस साले की हिम्मत है जो हाथ डाल सके । चेन तो हमने ख़ुद ही अपने हाथों से उतार कर दे दी ।

सो अपने मन मोहन सिंह जी से कौन माई का लाल बाध्यकारी समझौता करवा सकता था । उन्होंने देश को दिया वचन बहादुरी से निभाया । किसी की लादी हुई बाध्यता को उन्होंने नहीं माना । २० प्रतिशत उत्सर्जन कम करने की बात तो उन्होंने अपनी मर्जी से घोषित की है । साँप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी । लाठी सलामत है । आगे किसी और साँप को मारने के काम आयेगी ।

Dec 21, 2009

पद तो है

आदरणीय अडवानी जी,
जय श्री राम । आप भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष बन गए और सक्रिय राजनीति भी नहीं छोड़ेंगे, बधाई । प्रतिपक्ष के नेता की तो पोस्ट होती है जिस पर आज सुषमा जी बैठीं हैं पर संसदीय दल के अध्यक्ष की कोई पोस्ट नहीं थी । हो सकता है कि अगले कदम के रूप में आप 'राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन' (राजग उर्फ़ एन.डी.ए.) के संयोजक बन जाएँ । पर जब सरकार बनने के आसार दूर-दूर तक नहीं दिखाई देते तो उस पद का भी कोई औचित्य नहीं दिखाई नहीं देता । फिर भी पद तो पद ही है ।

आपके लिए नेता-प्रतिपक्ष के स्थान पर 'संसदीय दल के अध्यक्ष' का पद सृजित कराने पर हमें कई बातें एक साथ ध्यान में आ रही है । हालाँकि हमें राजनीति का तो कोई अनुभव नहीं है पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों और गोष्ठियों के बारे में कुछ जानकारी अवश्य रखते हैं । जब देसी रियासतों को मिला कर राजस्थान का गठन किया गया था तो सभी प्रभावशाली राजाओं को संतुष्ट करना आवश्यक था । जयपुर के तत्कालीन महाराजा सवाई मान सिंह को राजस्थान का राजप्रमुख बनाया गया । उस समय राज्यपाल का पद नहीं हुआ करता था । राजप्रमुख का पद ही उसके समकक्ष माना जाता था । इससे उदयपुर के तत्कालीन महाराणा नाराज़ हो गये । वे जयपुर वालों को दोयम दर्जे का राजपूत मानते थे क्योंकि उन्होंने अकबर को अपनी बेटी दे दी थी । तभी तो सुलह का प्रस्ताव लेकर आए जयपुर के राजा मानसिंह के साथ महाराणा प्रताप ने भोजन नहीं किया था । यह बात और है कि अंग्रेजों के ज़माने में उदयपुर वालों ने कोई शौर्य नहीं दिखाया था । सो उदयपुर के तत्कालीन महाराणा को संतुष्ट करने के लिए "महाराज प्रमुख" का पद सृजित किया गया । कहीं आपको संतुष्ट करने के लिए या लाज बचाने के लिए या ससम्मान विदाई देने के लिए तो यह "संसदीय दल के अध्यक्ष" का पद तो सृजित नहीं किया गया ?

आपातकाल के बाद जब केन्द्र में १९७७ में गैर कांग्रेसी सरकार का गठन किया गया था तब जहाँ तक हमें याद है आप को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया गया था । उसी दौरान आप अंडमान निकोबार के दौरे पर गये थे । वहाँ हमने अपने एक साहित्यिक, सांस्कृतिक और संयोजन विशेषज्ञ मित्र का आपके साथ फ़ोटो देखा था । उसके बाद हम भी वहाँ पहुँच गये और छः साल तक वहाँ रहे । उसी दौरान हमें अपने मित्र की इन योग्यताओं का पूरा परिचय मिला ।

हमारे ये मित्र वहाँ एक साहित्यिक संस्था चलाते थे । सुब्रह्मण्यम स्वामी और चन्द्रशेखर की तरह वे ही इस संस्था के सर्वेसर्वा थे । संस्था का सारा कार्यालय उनके ब्रीफकेस में रहता था । अर्थात वे चलती-फिरती संस्था थे । जिससे भी कोई काम होता उसी को कार्यक्रम का अध्यक्ष बना देते थे । उसी अधिकारी के कार्यालय में कार्यक्रम कर लिया करते थे । कार्यक्रम का सारा खर्चा वही अधिकारी करता था और अगले दिन समाचारों में गुणगान होता था हमारे मित्र का । इस प्रकार उनकी संस्था एक 'अधिकारी संस्था' बन गई जैसे कि 'अधिकारी विद्वान' होते हैं । उनके कार्यक्रमों में कई अधिकारी आते थे , वे सभी को संतुष्ट करने के लिए "अध्यक्ष-मंडल" बना दिया करते थे । और इस प्रकार सभी अधिकारी एडजेस्ट हो जाते थे । कभी-कभी तो हमारे मित्र के अलावा सभी लोग अध्यक्ष-मंडल वाले ही होते थे । श्रोताओं में उनके परिवार के लोग और उस कार्यालय के कर्मचारी ही होते थे ।

अभी तो विपक्ष के नेता का पद छोड़ने के बाद आप वाला कमरा सुषमा जी के पास चला गया होगा । पता नहीं आप कहाँ बैठेंगे । फिर भी पार्लियामेंट में कहीं अलग बैठने की व्यवस्था हो जाए तो अपनी कुर्सी पर अपना नाम लिख कर रखियेगा क्योंकि अभी और कई लोगों को संतुष्ट करने के लिए कई और पद सृजित किए जायेंगे और वे अगर कहीं सांसद हुए तो आप वाले कमरे में ही बैठेंगे । चलो, कुछ भी हो, जैसी ठोकर लगी थी वैसे गिरे नहीं । बाज़ार में बैठने का कोई ठीया तो बना ।

ठीये की बात पर बताते चलें । पोर्टब्लेयर जाते समय हमें कलकत्ता रुकना पड़ता था । वहाँ हमने बेटे को एस्प्लेनेड से एक घड़ी दिलवाई । रविवार का दिन था । घड़ी बेचने वाला किसी बंद दुकान के आगे नौ इंच चौड़े एक पटरे पर बैठा था । हमने कहा- भैय्या, अगर कोई शिकायत हो तो हम तुम्हें कहाँ ढूँढेंगे ? वह बोला- साहब, हम कोई चलते-फिरते दुकानदार थोड़े हैं । हमारी पक्की दुकान है । हर रविवार को हम इसी दुकान के इसी पटरे पर बैठे मिलेंगे । इसी प्रकार वे सज्जन किसी और दिन बंद रहने वाले बाज़ार में किसी और दुकान के पटरे पर बैठते थे । मतलब कि पक्की दुकान । सो जैसी भी है पक्की दुकान तो है बाज़ार में । बाई जी अगर बाज़ार छोड़ देगी तो खायेगी क्या ? जैसा भी हो, पद तो चाहिए ही । पद के बिना कौन पूछता है ?

२०-१२-२००९

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भोज का न्यौता

उत्तर भारत के अन्य भागों की तरह सीकर में भी सवेरे-सवेरे अच्छी ठण्ड पड़ने लग गई है । जैसे-जैसे 'भारत-निर्माण' की ठण्ड के फलस्वरूप हमारी पेंशन की क्रय-शक्ति सिकुड़ने लगी है, हमने गरमी पाने के लिए हथेलियों को रगड़ने और धूप का सेवन करने के विकल्प अपना लिए हैं । यदि चाहें तो अब भी मुक्त-व्यवस्था के बावजूद फीकी चाय तो पी ही सकते हैं, पर फीकी चाय पीना, बिना विभाग के मंत्री के पद की शपथ लेने के समान अनाकर्षक है । अब तो तोताराम ने भी चाय पिलाने का आग्रह बंद सा कर दिया है ।

अडवानी जी जैसी मनःस्थिति में चबूतरे पर बैठे थे कि तोताराम आ गया । जब से दाल, चीनी, आलू, प्याज़ और टमाटर में आग लगी है और सरकार ने इस समस्या को ग्लोबल फिनोमिना मान लिया है तब से तोताराम ने शिकायत और आलोचना करना बंद कर दिया है । उसकी यह चुप्पी तृप्ति या संतोष का संकेत नहीं वरन एक घोर निराशा का संकेत है । वह चबूतरे पर बैठ कर यूँ ही अखबार पढ़ने का नाटक करने लग गया तभी बहुत ऊँचाई पर एक हवाई जहाज के गुजरने की आवाज़ आई ।

हमने वातावरण को हल्का करने के मक़सद से कहा- तोताराम, लगता है तेरे ओबामा जी चीन-यात्रा समाप्त करके वापिस जा रहे हैं ।

जब प्रश्न सीधा किया जाए तो आदमी बोलने के लिए विवश हो जाता है सो तोताराम बोल पड़ा- वे इधर से नहीं जापान के ऊपर से होते हुए जाएँगे । भले ही मिशेल ओबामा को इतने विस्तार से ओबामा का कार्यक्रम मालूम न हो पर पता नहीं तोताराम को कैसे पता चल गया ।

हमने कहा- तोताराम, हमारे हिसाब से ओबामा को जाना तो था ही, दिल्ली के ऊपर से चला जाता । घंटे भर रुककर मनमोहन जी को डिनर करवाकर चला जाता तो बिना बात मनमोहन जी को इस सादगी के फैशन और बुढ़ापे के समय में किसी साधारण सी एयर लाइन की 'केटल-क्लास' में पड़ कर तो नहीं जाना पड़ता ।

तोताराम बोला- लाख सादगी का समय चल रहा है पर घर की गरीबी बाहर थोड़े ही दिखाई जाती है । हम विश्व की उभरती अर्थव्यवस्था हैं । और जब ओबामा ने अपने कार्यकाल में विश्व के सबसे पहले राजकीय अतिथि होने का सम्मान हमें दिया है तो हमारा भी फ़र्ज़ बनता है कि उसके अनुरूप तरीके से ही जायें । तुझे पता है, इस डिनर का मीनू श्रीमती ओबामा ने तैयार किया है और खाना बना रहे है अफ्रीका के कोई तथाकथित प्रसिद्ध शेफ । अमरीका के पाँच सौ बड़े-बड़े लोग शिरकत करेंगे इस डिनर में । सो, जाएँगे तो निजी प्लेन से ही ।

हमने कहा - तोताराम, यह तो भारत पर बिना बात ही आभार लादा जा रहा है । बेचारे मनमोहन जी खायेंगे तो दो रोटी और दाल और आभार झेलेंगे करोड़ों रुपयों का । हमें तो लगता है फायदे में तो चीन रहा । ओबामा ख़ुद उड़कर गए और प्लेट में रखकर तिब्बत चीन को सौंप आए, ऊपर से भारत-पाकिस्तान की सरपंची और ।

तोताराम ने कहा- भैया, व्यापार-संतुलन चीन के पक्ष में है । इसलिए ओबामा की पूँछ दबी हुई है । भारत का क्या, साल भर यहाँ के सोफ़्टवेयर इंजीनीयर अमरीका के 'डाट काम' में खून-पसीना भरेंगे और अमरीका थोड़ा सा यूरेनियम और कुछ लड़ाकू हवाई जहाज देकर हिसाब-किताब बराबर कर देगा । चीन की बात अलग है । वह अमरीका के लिए इतनी चीजें बनाता है जिन्हें देखकर लगता है कि किसी दिन 'लिबर्टी' की स्टेच्यू पर भी 'मेड इन चाइना' लिख देगा । और फिर भारत के ऊपर से जाने पर चीन दलाई लामा को लिफ्ट देने का आरोप भी तो लगा सकता था ।

तोताराम ने बात समाप्त करते हुए कहा- देख मास्टर, चीन और ओबामा की तो हम ज़्यादा नहीं कहते पर अपने मनमोहन जी बड़े समझदार आदमी हैं । वे केवल खाना खाने ही थोड़े जा रहे हैं, आते समय क्या पता अमरीका से प्लेन में दाल,चीनी, आलू, प्याज़ और टमाटर भी भर कर ले आयें । वहाँ पेट्रोल भी सस्ता है सो प्लेन की टंकी भी फुल करवाकर ले आयेंगे । कुछ लोगों को वाशिंगटन से दिल्ली तक लिफ्ट देकर भी कुछ घाटा पूरा कर लेंगे । और फिर पेंशनर को नवम्बर के महीने में लाइफ सर्टिफिकेट भी तो देना पड़ता है सो विश्व बैंक में वह भी दे आयेंगे । अलग से जाने का खर्चा बचेगा । और सबसे बड़ी बात यह है कि २६/११ की बरसी और संसद में विपक्ष के - दिखावटी ही सही - विरोध को झेलने के चक्कर से भी बचेंगे । ब्रिटेन के डाक्टरों का कहना है कि शराब पीने से हृदयाघात का डर कम हो जाता है सो अच्छी व्हिस्की की कुछ बोतलें भी ले आयेंगे क्योंकि अब तक विजय माल्या द्वारा दिवाली पर 'माल्यार्पण' में दी गई 'ब्लेक डाग व्हिस्की' की बोतल भी ख़त्म हो गई होगी ।

हमें लगा ऐसे सकारात्मक चिन्तक तोताराम को तो प्रणव-दा की जगह वित्त-मंत्री भी बनाया जा सकता है । खैर, जो भी हो, तोताराम के मौन की बर्फ तो पिघली । हमारे लिए तो यही बहुत है ।

१८-११-२००९

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Dec 20, 2009

क्षमा बडन को चाहिए

आदरणीय बाल ठाकरे जी,
जय महाराष्ट्र, जय 'मराठी मानूस' । सबसे पहले तो हम इस बात के लिए क्षमा माँगते है कि हम आपको हिन्दी में पत्र लिख रहे हैं । मराठी की लिपि देवनागरी है इसलिए पढ़ तो सकते हैं, यदि हम महाराष्ट्र में रहते होते तो शीघ्र ही बोलना भी सीख जाते । तब यदि विधान सभा में शपथ लेने की नौबत आती तो हम मराठी में ही शपथ लेते और कभी भी आज़मी की तरह हिन्दी में शपथ लेने जैसा जघन्य अपराध नहीं करते । दूसरे, हम सचिन की तरफ़ से भी क्षमा माँगते हैं । आपके सलाह देने के बाद से इतना डर गया कि अहमदाबाद में मात्र चार रन पर ही आउट हो गया । अमितजी और मधुर भंडारकर समझदार है जो तत्काल ही क्षमा माँग ली ।

आजकल मास्टरों और देश को रास्ता दिखने वालों तक को दिशाओं का ज्ञान नहीं है तो दसवीं-बारहवीं पास सचिन को इतिहास-भूगोल का इतना ज्ञान कहाँ से होता । उसे आप और आपके महान आदर्शों तथा इतिहास-भूगोल का ज्ञान होता तो ऐसा नहीं बोलता । जब १९६० में बंबई का महाराष्ट्र और गुजरात में विभाजन हुआ और उससे भी पहले जब सौ से भी अधिक लोगों ने मराठी सम्मान और महाराष्ट्र के निर्माण के लिए बलिदान दिया था तब तो वह पैदा भी नहीं हुआ था । वह तो आप और हम जैसे लोगों को मालूम है । सचिन तो सोलह साल का होते ही क्या, उससे भी पहले से ही क्रिकेट खेलने लग गया था । कहाँ से यह सब समझ पाता । हमें ही आज तक कुवैत और सिंगापुर की राजधानियों का पता नहीं है ।

दुनिया में करीब दो सौ देश हैं । सभी मात्र राष्ट्र ही हैं । महाराष्ट्र कोई भी नहीं । राष्ट्र से बड़ा महाराष्ट्र होता है । भारत से बड़ा महाभारत होता है । ब्राह्मण से बड़ा महाब्राह्मण होता है जो मृतक-कर्म का दान लेता है । तो सचिन ने कहा- मुम्बई सारे भारत की है । यह भी नहीं सोचा कि यदि मुम्बई सारे भारत की हो गई तो आपके और राज के पास क्या रहेगा । जैसे कश्मीर हिंदू पंडितों का नहीं हो सकता वैसे ही मुम्बई किसी भारतीय की कैसे हो सकती है ?

महाराष्ट्र के निर्माण के लिए सौ से भी अधिक लोगों ने बलिदान दिया । किसी को तो बलिदान देना ही पड़ता है । यदि सभी समझदार लोग अपना बलिदान दे देते तो आज महाराष्ट्र और 'मराठी मानूस' की अस्मिता की रक्षा कौन करता ? राज्य बनवाना सरल है पर आप और राज की तरह दिन रात भूखे रहकर काम करना अधिक कठिन है । आप नहीं होते तो महाराष्ट्र का क्या होता । हम आपके स्वस्थ और दीर्घ जीवन की कामना करते हैं ।

कुछ लोग आपको 'बूढ़ा बाघ' कहते हैं । उन्हें पता नहीं कि शेर-बाघ कभी बूढ़े नहीं होते । बूढ़े हो भी जाएँ तो भी कोई उनके पास जाने की हिम्मत नहीं कर सकता । हमें तो प्रभु, सच कहें, मरे बाघ की खाल छूने से भी डर लगता है । पता नहीं कैसे पुराने राजा मरे बाघ पर पैर रखकर, हाथ में बंदूक थामे फ़ोटो खिंचवा लेते थे । बाघ बूढ़ा हो जाता है तो भी भूख तो लगती ही है । पंचतंत्र में एक बूढ़ा बाघ सोने का कड़ा दिखाकर लोगों को ललचाता था और पास आने पर अपना भोजन बना लेता था । अब जब आपके सोने के कड़े राज लेकर भाग गया तो पेट पालने के लिए कुछ तो करना ही पड़ता ना ।

आपकी जाति का हमें पता नहीं । वैसे भी कहा गया है- "जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान" । ज्ञान, भगवा वेष और गले में माला के कारण आप ब्राह्मण लगते हैं और रजोगुण के कारण क्षत्रिय । कुछ भी हो दोनों ही दशाओं में आप बड़े हैं । "क्षमा बड़न को चाहिए" । हमारे एक साथी थे जिनको उनके एक मातहत ने जाति सूचक शब्दों के आरोप के चक्कर में उलझा दिया । उसके बाद से उन्होंने अपने आफिस में आंबेडकर की तस्वीर लगा ली और हर मामले में 'अम्बेडकर-अम्बेडकर' की रट लगाते थे । सो अब भविष्य में कुछ भी प्रश्न पूछने पर सचिन भी 'जय महाराष्ट्र,जय मराठी मानूस' के अलावा कुछ भी नहीं बोलेगा । हमारे गाँव में एक ठाकुर साहब थे । जब उन्हें कोई पूछता कि धरती का बीच कहाँ है तो वे ज़मीन पर लाठी गड़ा कर कहते कि यह क्या है ? लोगों को मानना पड़ता कि धरती का बीच वहीं है जहाँ ठाकुर साहब कह रहे हैं । सो अब सचिन को भी धरती के बीच का पता लग गया है । आप उसे क्षमा दान दें जिससे वह अगले मैचों में ठीक से खेल सके ।

लोग बहुत गर्व कर रहे हैं कि सचिन ने सत्रह हज़ार रन बना लिए हैं । इसमें क्या बड़ी बात है । आप अब तक क्रिकेट खेलते रहते तो पचास हज़ार रन बना लेते और वह भी नोट-आउट । आप को आउट करने की हिम्मत किस बालर में हो सकती है । यदि स्टंप गिर भी जाते तो एम्पायेर नो-बाल दे देता । जान तो सभी को प्यारी होती है । हमारे एक और ठाकुर साहब थे । क्रिकेट खेलते थे और बालर और फील्डर उनके मुसाहिब होते थे । एक बार गेंद शाट लग कर जाने कहाँ चली गई । गेंद नहीं मिली सो नहीं मिली और ठाकुर साहब आजीवन रन बनाते रहे । उनके शतकों का रिकार्ड आज तक नहीं टूटा है । सचिन को राजनीति की पिच पर रन नहीं लेना चाहिए था । जब भगवान की दया से क्रिकेट से पैसा मिल रहा है तो राजनीति की कीचड़ वाली पिच पर क्यों उतरा जाए ? राजनीति वैसे भी भले लोगों के बस का काम नहीं है । जब दारू की एक दुकान के पास दूसरी दुकान खुलती है तो बिक्री पर असर तो पड़ता ही है ।

हम आपकी दो बातों से विशेष प्रभावित हैं और मन ही मन ईर्ष्या भी करते हैं । एक तो आपके पास अपना पत्र है जिसमें आप जो चाहे, जितना चाहे लिख सकते हैं । हम तो पचास रचनाएँ भेजते हैं तो कहीं जाकर एक छपती है । यदि हमारे पास अपना पत्र होता तो सच कहते हैं हम भी कोई न कोई रिकार्ड बना कर ही मानते । दूसरी यह कि आपके सिर पर अभी तक काले, घने, चमकदार बाल हैं जब कि हम तो अड़सठ साल में ही गंजे होने लग गए हैं । कहने को तो तिलक भी 'बाल' गंगाधर थे । पर पता नहीं उनके सिर पर कितने बाल, थे भी या नहीं क्योंकि वे पगड़ी बाँधते थे । नेहरू जी के सिर पर भी बाल बहुत ही कम थे तभी टोपी नहीं उतारते थे । हमें तो आज तक यह समझ नहीं आया कि क्यों उनके जन्म दिन को 'बाल-दिवस ' के रूप में मनाते हैं जब कि बालों को देखते हुए तो यह गौरव आपको मिलना चाहिए था । बड़ी नाइंसाफ़ी है ।

खैर, जय महाराष्ट्र, जय 'मराठी मानूस' । भूल चूक के लिए एडवांस में माफ़ी ।

१७-११-२००९

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