Mar 30, 2010

मृत्यु का कारण



अंधेर नगरी के आजीवन महाराजा चौपटादित्य जैसे ही सप्ताहांत पर सत्य के शव को संसद के कुँए से निकाल कर ठिकाने लगाने के लिए चले तो शव में अवस्थित बेताल ने टोका- राजन, कहाँ जा रहे हो । इतने बरस हो गए तुम्हें पर किसी न किसी कारणवश तुम इस शव को ठिकाने नहीं लगा सके तो फिर मान क्यों नहीं जाते और यह व्यर्थ की जिद छोड़ क्यों नहीं देते । गद्दी मिली है तो मज़े से इसका भोग करो, क्यों यह कीमती मानव जन्म बेकार ही गँवा रहे हो ।

महाराजा ने उत्तर दिया- तुम नहीं समझोगे बेताल, यह सत्य ही तो किसी भी राजा के लिए सबसे बड़ा खतरा होता है । यह जब प्रकट होता है तो फिर इसके सामने किसी की भी नहीं चलती । जब तक इसको ठिकाने नहीं लगा देता तब तक न तो मैं ही निश्चिन्तता से सो सकता हूँ और न ही अपनी भावी पीढ़ियों के सुरक्षित राज के लिए निश्चिन्त हो सकता हूँ ।

बेताल ने कहा- तो ठीक है राजन, जैसी तुम्हारी मर्जी । पर मैं तो तुम्हारी यही मदद कर सकता हूँ कि इस एकांत, सूनी और बोरियत भरी रात में तुम्हारा मनोरंजन करने के लिए एक कहानी सुना सकता हूँ । तो सुनो, यह कहानी ।

राजा चिढ़ गया और कहने लगा- तुम रोजाना कहानी ही सुनाते हो । अब तो मैं इन कहानियों से भी बोर हो गया । बेताल ने कहा- तो फिर मैं तुम्हें एक अस्पताल में ले चलता हूँ । राजा बोला- पर मैं तो बीमार नहीं हूँ । फिर अस्पताल ले जाने की ज़रूरत क्या है ? बेताल ने कहा- इलाज़ के लिए नहीं बल्कि एक दृश्य दिखाने के लिए । उस दृश्य को देखने के बाद मैं तुमसे एक प्रश्न करूँगा और यदि जानते हुए भी तुमने उसका उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा । योअर टाइम स्टार्ट्स नाउ ।

इस दृश्य में देखो । एक युवक मरा पड़ा है । इस युवक का तीन दिन पहले दारू पीकर कर कार चलाने के कारण एक्सीडेंट हो गया था । उस एक्सीडेंट में इसने रास्ते में जा रहे दो लोगों को भी कुचल डाला । पर वह कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि चौपट नगरी के नियमों के अनुसार दारू पीकर कार चलाने पर ज्यादा से ज्यादा एक साल की सज़ा हो सकती है या लाइसेंस ज़ब्त हो सकता है । और किसी वाहन से कुचल कर कोई मर जाए तो कुछ सालों की सजा हो सकती है । खैर, बात उस युवक की । उसको कई जगहों पर चोट आई । बहुत बड़ा आपरेशन हुआ । किसी धनवान आदमी का बेटा था सो अच्छा इलाज़ हुआ । डाक्टरों के अथक परिश्रम के कारण आपरेशन भी सफल हुआ ।

अभी वह युवक अस्पताल में ही भर्ती था, गहन चिकित्सा कक्ष में । वैसे तो युवक लगभग ठीक ही था । देख-सुन रहा था । युवक के इशारा करके बताने पर डाक्टरों द्वारा उसके कानों में संगीत सुनने के लिए ईयर फोन लगा दिया गया था । युवक प्रसन्न था पर एहतियात के तौर पर उसके मुँह पर आक्सीजन देने के लिए मास्क लगाया गया था । नली से तरल खाद्य पदार्थ दिया जा रहा था । युवक तेज़ी से रिकवर कर रहा था । डाक्टर सोच रहे थे कि अगले दिन उसका मास्क भी हटा देंगे ।

अगले दिन सवेरे जब डाक्टर आए तो वह युवक मृत पाया गया । डाक्टरों को आश्चर्य हो रहा था कि रात तक सब कुछ ठीक था और अब भी कोई ऐसी बात नज़र नहीं आ रही थी जिसके कारण उसकी मौत हो सकती थी । क्या तुम बता सकते हो कि सब कुछ ठीक होने पर भी उस युवक की मौत किस कारण से हो गई ।

महाराज चौपटादित्य ने कहा- बेताल, तुमने ध्यान से नहीं देखा । उस युवक का ईयर फोन उसके कान से निकला हुआ था । आज का युवक आक्सीजन, भोजन, पानी, दिल, दिमाग सब के बिना जिंदा रह सकता है मगर संगीत के बिना नहीं । इस लिए जैसे ही संगीत बंद हुआ तो उसकी मृत्यु हो गई । इसमें कोई अजीब बात नहीं है ।

महाराज चौपटादित्य का उत्तर सुन करके बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

२५-३-२०१०


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सभ्यता का सर्टिफिकेट

पहले आज की तरह डिग्रियाँ नहीं होती थीं । सत्संग ही काफी होता था । संगति से ही गुण-दोष आते थे । तभी नचिकेता को सारा ज्ञान देने के बाद भी यमराज ने कहा कि तुम श्रेष्ठ व्यक्तियों की संगति में इस ज्ञान का अभ्यास करो । मतलब कि ज्ञान, कर्म के बाद ही सिद्ध होता था ।

आज कुछ नहीं चाहिए । बस एक सर्टिफिकेट होना चाहिए । सर्टिफिकेट है तो आप बीमार हें । नहीं तो भले ही आप मर जाएँ पर न तो अधिकारी मानेगा कि आप को मेडिकल लीव दी जा सकती है और न ही अदालत मानेगी कि आप बीमार हैं और आपको जेल भेजने की बजाय अस्पताल में आराम फरमाने की इज़ाज़त दी जाए । तभी जैसे ही किसी नेता के गिरफ्तार होने की नौबत आती है तो झट से कोई न कोई डाक्टर यह प्रमाणित कर देता है कि इन श्रीमान को ये चालीस बीमारियाँ हैं । पहले यही पर्याप्त होता था कि आप किसी अच्छे गुरु के शिष्य हैं ।

पर अब तो भले ही नकली सर्टिफिकेट हो पर हो जिससे कि आप मरीज़ से फीस झटक सकें और दवाइयाँ लिख कर केमिस्ट से कमीशन खा सकें । आपको गरीब होने के लिए भी सर्टिफिकेट चाहिए । भले ही आप पक्के मकान में रह रहे हैं, आपके पास कार है या आपका कोई धंधा चल रहा पर सर्टिफिकेट है तो आप गरीबी की रेखा से नीचे हैं और आराम से बी.पी.एल. कार्ड से सस्ता किरासिन, अनाज ला सकते हैं । किसी भी सरकारी अस्पताल में इलाज करवा सकते हैं । अपने बच्चे के लिए फीस माफ़ी और छात्रवृत्ति प्राप्त कर सकते हैं । गरीबी का सर्टिफिकेट पाने के लिए गरीबी नहीं, जाति-विशेष या फिर ऊँचा जुगाड़ चाहिए ।

खैर, ये सर्टिफिकेट तो अपना घरेलू मामला है । पर अब हमें जिस सर्टिफिकेट की आवश्यकता है वह यहाँ का कोई अधिकारी नहीं दे सकता और न ही इस बारे में कोई नेता मदद नहीं कर सकता । यह सर्टिफिकेट तो हमें दूसरे देशों से आने वाले खिलाड़ियों और अधिकारियों से चाहिए जो राष्ट्र मंडल देशों से अक्टूबर २०१० में आ रहे हैं । यह सर्टिफिकेट पैसों से भी हासिल नहीं किया जा सकता । यह तो खेलों के दौरान दिल्ली में होने वाले लोगों के साझे प्रयत्न से ही मिल सकता है । इस सन्दर्भ में दिल्ली सरकार ने कुछ दिशा निर्देश जारी किए हैं । जब तक ये खेल चलते हैं तब तक दिल्ली में होने वालों को अपने थूकने और मूतने पर कंट्रोल करना पड़ेगा ।

सर्टिफिकेट की यह समस्या हमारे लिए ही नहीं है । ऐसी नौबत तो अमरीका जैसे देश के सामने भी आई थी । जब अटलांटा में ओलम्पिक खेल हुए थे तो वहाँ रहने वाले बेघर और गरीब लोगों को बसों में भरकर पता नहीं कहाँ ले जाकर छोड़ दिया । जब पहली बार हमारे यहाँ एशियाड हुआ था तो हम इतने विकसित देश नहीं हुए थे । हम में अपने अनुसार जीने की हिम्मत थी पर अब बात दूसरी है । १९८२ तक भी हम कुछ प्रगति कर चुके थे सो एशियाड के समय हमने उन सभी रास्तों में टिन की चद्दरें लगवा दी थीं जिधर से खिलाड़ी अपने होटलों या फ्लेटों से स्टेडियम जा सकते थे, जिससे कि वे हमारी झुग्गी-झोंपड़ियों के न देख सकें और हमें विकसित मानें । पर अब तो बाकायदा सर्टिफिकेट का मामला आ गया है । सो शीला दीक्षित ही क्या चिदंबरम जी भी कह रहे हैं कि दिल्ली वालों को सभ्यता सीखनी चाहिए और चाहे जहाँ थूकने और मूतने जैसे आदिम और नेचुरल काम सबके सामने नहीं करने चाहिएँ ।

दूसरों से सर्टिफिकेट लेने के चक्कर में लोगों के थूक, मूत और हगना सब बंद हो जाएँगे । पर ये देश भक्त यह क्यों नहीं समझते कि भाई सबके गुर्दे इतने मज़बूत नहीं होते । बड़े-बड़े नेताओं के एयर कंडीशंड रथ और वाहन तो हैं नहीं कि उनमें सारी सुविधाएँ हों । यह तो आम आदमी का मामला है । अब ये हाज़तें तो ऐसी हैं नहीं कि अलार्म की तरह निश्चित समय पर ही बजें । मौत की तरह कहीं भी और कभी भी आ सकती हैं । इन्हें नहीं रोका जा सकता तभी तो इन्हें 'नेचुरल काल' कहा गया है । काल पर किसका बस है ।

सड़क के किनारे इन हाज़तों को रवाँ करने से इतनी इज्ज़त ख़राब नहीं होगी जितनी कि इन्हें कपड़ों में ही निबटाने से होगी । भाई, अभी यदि दिल्ली स्वर्ग हो गई हो तो पता नहीं । वैसे हम भी दिल्ली में सोलह साल रहे हैं । यह बात और है कि बारह बरस में घूरे के भी दिन फिरते हैं पर हमारे दिल्ली में सोलह साल रहने पर भी दिन नहीं फिरे । एक सामान्य आदमी कितनी देर तक हाज़त रोक सकता है । ज्यादा से ज्यादा आधे घंटे तक । तो दिल्ली में कम से कम हर आधे किलोमीटर पर हगने, मूतने और थूकने की व्यवस्था होनी चाहिए । यहाँ हम पेचिश या डाइबिटीज के मरीजों की बात नहीं कर रहे हैं और न ही ज़र्दे का पान खाकर थूकने के लिए मज़बूर लोगों की । वैसे बड़े आदमी तो सड़क ही क्या संसद तक में ही थूक उछालते रहते हैं और उन्हें कोई असभ्य नहीं कहता । सारी सभ्यता का ठेका साधनहीन, साधारण आदमी को दे रखा है ।

इसके लिए हम सरकार को यही सुझाव दे सकते हैं कि मोबाइल शौचालय की व्यवस्था की जाए । इससे काफी आमदनी भी हो सकती । सुलभ शौचालय में तो दो-तीन रूपए लगते हैं । पर राजधानी का आदमी सड़क पर कपड़े ख़राब होने के डर से सौ-पचास रूपए एक बार हगने या मूतने के दे देगा । यदि किसी विदेशी को सड़क पर ऐसी नौबत आ गई तो और भी मोटी कमाई हो सकती है वह भी विदेशी मुद्रा में । उद्योग मंत्री या वित्त मंत्री आमदनी बढ़ाने वाले के नए वेंचर के बारे में सोच सकते हैं । ब्रिटेन की एक एयरलाइन के किसी बड़े अधिकारी ने आय बढ़ाने का सुझाव दिया था कि प्लेन में पेशाब करने का भी अतिरिक्त चार्ज किया जाना चाहिए ।

हमारी तरफ से तो शीला जी और चिदंबरम जी को विदेशियों से सभ्य होने का सर्टिफिकेट लेने में कोई परेशानी नहीं आएगी । वैसे हम कभी-कभी सोचते हैं कि सुविधा के अभाव में, मज़बूरी में कहीं थूकना, मूतना, हगना बड़ी असभ्यता है या फिर किसी देश की आस्थाओं, आदर्शों और धर्म का अपमान करना, अपने यहाँ पढ़ने आने वाले बच्चों पर हमले करना या यहाँ के संस्कारों के खिलाफ नंगई फ़ैलाना ? वैसे भी दुनिया के सबसे सभ्य कहलाने वाले देश ब्रिटेन - जिसकी साम्राज्यवाद के रूप में की गई सेवाओं की स्मृति स्वरूप ये कामनवेल्थ गेम हो रहे हैं - उसकी सभ्यता को इस देश ने बहुत झेला है । वे भारतीयों को कुत्ते के समान मानते थे तभी कई खास जगहों पर लिखा रहता था- डोग्स एंड इंडियंस आर नोट अलाउड । वे हमें ज़मीन पर हगने वाला काला आदमी कहते थे । हो सकता है कि उन पर गुरुत्वाकर्षण का नियम लागू नहीं होता ।

२०-३-२०१०

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Mar 27, 2010

नेकी कर दरिया में डाल



जैसे ही चौपटनगरी के आजीवन महाराजा श्री चौपटादित्य सप्ताहांत में संसद के कुँए से सत्य के शव को निकाल कर ठिकाने लगाने के लिए चले तो उस शव में स्थित बेताल ने कहा- राजन, तुम सप्ताहांत में मौज-मज़ा करने की बजाय पता नहीं क्यों इस शव को ठिकाने लगने के लिए चल पड़ते हो । जब कि तुम अच्छी तरह से जानते हो यह सत्य बड़ा चीमड़ है और किसी न किसी बहाने तुम्हारे चंगुल से निकल जाता है । आज फिर तुम इसे उठा कर चल पड़े हो । मैं तुम्हारी और कोई मदद तो कर नहीं सकता पर कम से कम तुम्हारा मन बहलाने और श्रम भुलाने के लिए तो कुछ कर ही सकता हूँ । तो सुनो एक कहानी ।

परोपकारपुरी नाम की एक नगरी थी । वहाँ के अधिकतर लोग परोपकार में ही लगे रहते थे । कुछ ही लोग ऐसे थे जो माया-मोह में फँसे हुए थे और खेती, नौकरी, मज़दूरी जैसे तुच्छ काम किया करते थे । अधिकतर लोग परोपकारी थे और लोगों की भलाई के लिए तरह-तरह के काम किया करते थे । उनमें सबसे महत्वपूर्ण काम था चंदा इकठ्ठा करना । वे कभी जागरण के लिए चंदा इकठ्ठा करते तो कभी भंडारे के लिए । कभी बाढ़-पीड़ितों के लिए चन्दा करते । यदि किसी कारण से बाढ़ नहीं आती तो वे सूखा पीड़ितों के लिए चंदा करते । यदि दुर्भाग्य से परोपकारपुरी में कोई समस्या नहीं होती तो वे किसी और देश को किसी संकट से बचने के लिए चंदा करते । यदि मनुष्यों की समस्याएँ नहीं मिलती तो वे किसी पशु-पक्षी की लुप्त होती नस्ल को बचाने के पुण्य काम में लग जाते । और कुछ भी नहीं मिलता तो परोपकरापुरी की अस्मिता की रक्षा के लिए ही चंदा करने लग जाते । मतलब कि वे किसी भी हालत में चंदा करना नहीं छोड़ते ।

ये सभी परोपकारी लोग खाते-पीते और बड़े लोग होते थे । ये किसी न किसी परोपकार के लिए, जैसा भी मौका होता, कभी कारों में तो कभी पैदल चंदा करने के लिए निकलते थे । इनकी इस परोपकार भावना का ऐसा प्रभाव पड़ा कि विद्यार्थी स्कूल-कालेज छोड़कर चंदा करने के लिए निकल पड़ते, सरकारी कर्मचारी दफ्तर के समय में ही परोपकार के लिए चंदा करने के लिए निकल पड़ते थे । और सब मिलकर शाम को 8 पी.एम. पर '8 पी.एम.' के साथ अपने परोपकार को सेलेब्रेट करते थे । कुल मिला कर परोपकारपुरी में चारों तरफ परोपकार की ही धूम थी ।

एक बार ऐसा हुआ कि परोपकारपुरी में बाढ़ आ गई । ऐसे में तो किसी के लिए भी परोपकार को छोड़ कर कोई दूसरा काम ही नहीं रह गया था । एक दिन ऐसा हुआ कि कुछ विद्यार्थियों ने एक व्यक्ति को घेर लिया और उसे परोपकार के लिए मज़बूर करने लगे । पहले कई देर तक इसी बात पर बहस चलती रही कि उस व्यक्ति को कितना परोपकार करना चाहिए । अंत में जब बात एक सौ रुपए पर तय पाई गई । वह व्यक्ति एक सौ रुपया देने के लिए तैयार था फिर भी उनमें पहले तू-तू, मैं-मैं होने लगी ।

हे राजन, जब वह व्यक्ति चंदा देने के लिए तैयार था और वे सेवक तो चंदा लेने के लिए ही निकले थे तो फिर क्या कारण हो सकता है कि वे तू-तू, मैं-मैं करने लगे । इस झगड़े में तुम किसकी गलती मानते हो । यदि तुमने जानते हुए भी उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे ।

महाराजा चौपटादित्य ने उत्तर दिया- हे बेताल, शास्त्रों में कह गया है कि नेकी कर दरिया में डाल । इस लिए चंदा देने वाले को बस चंदा दे देना चाहिए । चंदा लेने वाला यदि रसीद दे तो ठीक और न दे तो ठीक । रसीद लेकर क्या होगा । क्या भगवान को दिखाओगे । भगवान तो सब जगह है । वह सब देखता है, जानता है कि आपने कब, कितना चंदा दिया है । और फिर परोपकारी लोगों पर शंका करना भी पाप है । वह नादान व्यक्ति पक्की रसीद ही नहीं माँग रहा था बल्कि अकाउंट पेयी चेक से पैसा दे रहा था । अगर चेक से पैसा लेगें तो हिसाब रखना पड़ेगा । और जब सब जानते हैं कि 'बही लिख-लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ लुटाना है' । तो इसमें उस चेक से चंदा देने की ज़िद करने वाले की ही गलती है ।

महाराजा चौपटादित्य के इस उत्तर को सुनकर बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

२७-८-२००९

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Mar 26, 2010

ब्लेक मनी : व्हाइट पेपर


आदरणीय अडवानी जी,
नमस्कार । पिछले कई महीनों से भाई लोग आपकी लम्बी सेवाओं को देखते हुए आपको विश्राम देने के लिए पीछे पड़े हुए थे और आप थे कि मान ही नहीं रहे थे । कुछ तो आदत और कुछ ज़ज्बा । बड़ी मुश्किल से लोकसभा में विपक्ष के नेता पद से छुट्टी दिलवाई । अब जब २५ जनवरी २०१० के अखबार में पढ़ा- अडवानी जी अब बिता रहे हैं फ़ुर्सत के रात-दिन ।

'मौसम' फिल्म में संजीव कुमार बेचारा ढूँढ़ता ही रह जाता है पर फ़ुर्सत के दिन थे कि मिल ही नहीं रहे थे । किसी भाग्यशाली को ही मिलते हैं फ़ुर्सत के रात-दिन । अच्छा लगा कि आपको इतने दिनों की भागमभाग के बाद फ़ुर्सत के रात-दिन मिले तो । हम तो जैसे ही साठ साल के हुए सरकार ने तत्काल फ़ुर्सत के रात-दिन प्रदान कर दिए और हमने भी इसे भगवान और सरकार का प्रसाद मानकर स्वीकार किया और अब मज़े से फ़ुर्सत के रात-दिन बिता रहे हैं ।

अब जब आप और हम दोनों ही फ़ुर्सत में हैं तो कुछ गपशप हो जाए । आपको फ़िल्में पसंद हैं इसलिए आपके लिए निर्देशक घर पर ही फ़िल्में दिखाने की व्यवस्था कर देते हैं । हमारे लिए कोई ऐसी सुविधा नहीं जुटाता । पर हमें इसकी कोई शिकायत नहीं क्योंकि हमें तो न चाहते हुए भी 'थ्री' क्या 'अनेक ईडियट' वैसे ही सरे-राह मिल जाते हैं । तो बात गपशप की हो रही थी ।

एक चोर था । किसी मज़बूरी के कारण महात्मा जी को आत्मसमर्पण करके भक्ति और ज्ञान की मुख्यधारा में शामिल हो गया और महात्मा जी के साथ ही रहने लगा । मगर उसके आने के बाद महात्मा जी का कोई भी सामान खोया तो नहीं पर अपनी जगह पर भी नहीं मिलता था । सो महात्मा जी ने उससे पूछा- बेटा, तू मेरे पास आने से पहले क्या करता था ? भूतपूर्व चोर ने सच कहा- भगवन, चोरी करता था । महात्मा जी बोले - बेटा, तभी चीजें अपनी जगह पर नहीं मिलतीं । चोरी छोड़ दी तो क्या, हराफेरी नहीं छोड़ पाया । आपके साथ चोरी तो नहीं पर जनसेवा करने की पुरानी आदत है सो फ़ुर्सत के रात-दिन मिलने पर भी छूट नहीं रही है । तभी १६ मार्च के अखबार में पढ़ा कि आपने संसद में सरकार से काले धन पर श्वेत पत्र जारी करने की माँग की है । चुनाव-प्रचार के दिनों में तो आप काले धन को वापिस लाने की बात कह रहे थे । अब श्वेत पत्र से ही संतुष्ट हो जाएँगे क्या ?

चुनाव के दिनों में जब आपने काला धन वापिस लाने की बात की थी तो हमने और तोताराम ने स्विट्ज़रलैंड जाकर काला धन लाने की योजना बना ली थी । अब सत्ताधारी दल के पास कहाँ समय होगा ऐसे छोटे-मोटे कामों के लिए । और हमें और तोताराम को यहाँ कोई विशेष काम नहीं है । सो हम दोनों ने कई दिन लगाकर सीमेंट के पुराने कट्टों को जोड़-जोड़ कर कई बड़े बोरे बना लिए थे । धन भी कोई थोडा-मोड़ा तो है नहीं कि जेबों में रखकर ले आया जाए । कट्टे बनाकर भी हमसे यह तय नहीं हुआ कि कितने धन के लिए कितने बोरे चाहियेंगे । नरसिंहराव जी के ज़माने में यह समस्या पहली बार आई थी कि एक करोड़ रुपए रखने के लिए कितना बड़ा सूटकेस चाहिए ? बहुत सिर मारने पर भी जब बड़े-बड़े गणितज्ञों को समझ में नहीं आया तो मामला ठंडा पड़ गया ।

अब जब मायावती मैडम की महामाला का मामला सामने आया तो लोगों ने तत्काल हिसाब लगा लिया कि वह माला साठ किलो की थी और उसमें एक-एक हज़ार के नोट थे, कुल पाँच करोड़ की राशि । मतलब कि एक हज़ार के दस हजार नोटों का वज़न बारह किलो होता है । अब बस यह और पता चल जाए कि अपने देश के कितने रुपए स्विस बैंक में हैं और वे जब लौटाएँगे तो कितने-कितने के नोटों में लौटाएँगे तो हम उसी हिसाब से बोरे तैयार कर लें । बस यहाँ की सरकार हमें एक अथोरिटी लेटर दे दे कि इतने रुपए मास्टर तोताराम और रमेश जोशी को दे दें तो हम ले आएँगे । जिस भी साधन से सरकार चाहेगी उसी से, जैसे कि पानी के ज़हाज़ से या प्लेन से या सड़क मार्ग से । बस फिर आप सब निश्चिन्त रहें हम ले आएँगे । रास्ते में सोमालिया के समुद्री लुटेरों से रक्षा करने की ज़िम्मेदारी किसी को सौंप दीजिए क्योंकि उनसे लड़ना हमारे बस का नहीं है ।

आप सोच रहे होंगे कि जब देश में इतने अधिकारी हैं जो 'खेजड़ी' (राजस्थान का एक बहु उपयोगी वृक्ष) का अध्ययन करने के लिए इंग्लैण्ड जाने का औचित्य सिद्ध करके ट्यूर प्रोग्राम बना लेते हैं तो वे हमें इस काम के लिए विदेश जाने का मौका कैसे लेने देंगे । बात आपकी ठीक है पर हमें भेजना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि जब दिल्ली से चलने वाला एक रुपया राजस्थान में आते-आते पंद्रह पैसे रह जाता है तो स्विटज़रलैंड तो बहुत दूर है । सो क्या गारंटी है कि वहाँ से आते-आते एक रुपये का एक पैसा नहीं रह जाएगा ? आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम जितने वहाँ से मिलेंगे पूरे के पूरे ला देंगे ।

२२-३-२०१०
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Mar 22, 2010

'पंच मकार' से 'पंच सकार' तक


वाम-मार्गी साधना में 'पंच मकार' का बड़ा महत्व है । ये पंच मकार हैं- मांस, मुद्रा, मैथुन, मद्य और मत्स्य । भले ही लोग वाम-मार्गियों की कितनी ही आलोचना करें पर क्या वाम , क्या दक्षिण और क्या मध्यमार्गी- सारे के सारे पंच मकार की साधना कर रहे हैं । मुद्रा चाहे भारत की हो या अमरीका-योरप की, सभी उसके पीछे भाग रहे हैं । मद्य से किसी को परहेज़ नहीं है । सरकार की दया से स्कूल, मंदिर-मस्जिद, अस्पताल सभी के पास मद्य सरलता से उपलब्ध है, भले ही साफ पानी न मिले । जिन मुद्राओं में सारे दिन फिल्मों और टीवी में नृत्य दिखाए जा रहे हैं वे कपड़ों समेत मैथुन से कम नहीं हैं । मांस खाने से किसे परहेज़ है- चींटी से लेकर हाथी तक जिसका भी मिल जाए । मौका मिले तो चलते-फिरते आदमी को खा जाएँ । और जहाँ तक मत्स्य मतलब कि मछली की बात है तो सब मछलियाँ ही फँसा रहे हैं । नेता जातिवाद, आरक्षण, मुफ़्त बिजली, झूठे आश्वासनों का चारा लगा कर मछलियाँ फँसा रहे हैं । अध्यापक क्लास में पढ़ाने की बजाय ट्यूशन की मछलियाँ पकड़ने में अधिक विश्वास करते हैं । डाक्टर अस्पताल ड्यूटी करने नहीं बल्कि अपने प्राइवेट क्लीनिक के लिए मरीज़ रूपी मछलियाँ फँसाने जाते हैं ।

पंच मकार की साधना रूप बदलती है पर चलती हर युग और काल में । आजकल इस पंच मकार में कुछ और अंग जुड़ गए है जैसे- माला, मंच, माइक, मार्केट, मीडिया और मनी । इन मकारों में 'मक्कारी' सब में शामिल है । हमें तो लगता है कि पहले ये 'पंच-मक्कार' ही थे बाद में भाषा के रूप-परिवर्तन के सिद्धांत के अनुसार मुख-सुख के लिए पंच-मकार हो गए । इन पाँचों में माला आदि बिंदु है । माला के मज़े भी हैं तो ख़तरे भी । जहाँ तक खुशबू की बात है तो ठीक है, पर मान लो कभी फूलों के साथ मधुमक्खी भी आ जाए और काट ले, लोग समझेंगे कि आप माला पहन कर फूल कर कुप्पा हो रहे हैं और आप अन्दर ही अन्दर दर्द से मरे जा रहे होते हैं ।

यूँ तो माला विवाह से लेकर शव-यात्रा तक सभी अवसरों पर चलती है । चमचों से लेकर भक्त तक सभी अपने-अपने 'स्वार्थ-सिद्धि-कर्ता' के नाम की माला जपते हैं । सच्चे संत हमेशा ही किसी भी तरह की माला से घबराते थे । कबीर जी ने तो साफ कहा है-
माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ॥

माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख मांहि ।
मनुआ तो चहुँ दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नांहि ॥

पर लोग हैं कि मन को भी नहीं फिराते और मनकों को रगड़-रगड़ कर घिसना भी नहीं छोड़ते । कबीर ने माला से बचने में ही सारी ताकत लगा दी । और उनके अनुयायी, माला को उनकी बता कर, बनारस में उनके चौरे पर जाने वालों भक्तों के सिर से छुआ कर पैसे माँगते हैं । भक्त की श्रद्धा, भावना तथा आराध्य की करतूतों के अनुसार माला फूलों, नोटों से लेकर जूतों तक किसी प्रकार की हो सकती है । कई मक्कार तो जूतों की माला पहन कर भी इतने चर्चित हो जाते हैं कि बाद में फूलों और नोटों की माला तक पहुँच जाते हैं । कभी भक्त अपनी श्रद्धा के अनुसार पहनाते हैं पर आज लोकतंत्र में अपनी इमेज बनाने के लिए लोग आपने पैसे देकर माला पहनते हैं । जैसे कि लोग पैसे देकर पुरस्कार खरीदते हैं । बहुत सी संस्थाएँ हैं जो पैसे लेकर अभिनन्दन करवाती हैं, उपाधियाँ देती हैं, कई विश्विद्यालय तो डाक्टरेट भी दे देते हैं ।

नए मकार आने से भी पुराने मकारों का महत्व काम नहीं हुआ है । माला से महिमा बढ़ती है । इस महिमा को मीडिया प्रसारित और प्रचारित करता है । इससे इमेज बनती है । इमेज बनने से चुनाव में टिकट मिलता है । टिकट मिलने से आदमी जनसेवक बन सकते है । जनसेवक बनने से कमाई के अनेक रास्ते खुलते हैं । कमाई से फिर सारे मकार हासिल हो जाते हैं । क्या मद्य, क्या मैथुन, क्या माँस, क्या मुद्रा और क्या मत्स्य ।

मनी के बिना कोई भी मकार प्राप्त नहीं किया जा सकता इसलिए मनी, माला से प्रारम्भ होने वाली साधना का चरमोत्कर्ष है । मनी में मन शामिल है । यह मन ही आदमी को भगाता है । तभी कबीर ने कहा है-
मन मूरख, मन आलसी, मन चंचल, मन चोर ।
मन के मते न चालिए, पलक-पलक मन और ॥

जो भी अपना स्वार्थ साधना चाहता है वह सबसे पहले किसी के मन पर कब्ज़ा करता है उसके बाद तो मन अपने आप ही रास्ते ढूँढ़ लेता है । सारा मार्केट आपके मन को ही ललचाता है, मीडिया उसकी सहायता करता है और मानुस उसके चक्कर में आ जाता है । आदमी एक काल्पनिक यश, सुख के पीछे भागते-भागते मर जाता है । जितनी भूख उतना अन्न, जितनी प्यास उतना पानी, जितना बड़ा शरीर उतनी ज़मीन और तन ढँकने भर को कपड़ा- उसके बाद तो सब मन का हवाई मामला है । जब सारी शक्तियाँ थक जाती हैं तब समझ में आता है पर तब तक समय निकल चुका होता है ।

अभी तो मालाओं और रैलियों को गिनीज बुक में दर्ज़ करवाने का मौसम चल रहा है । पर मौसम बेईमान होता है और पता नहीं कब और किस रूप में बदल जाए । जब इस मौसम का 'पञ्च सकार चूर्ण '* असर करता है तो सारे 'पञ्च मकार' अधोमार्ग से बहिर्गमन कर जाते हैं । इसके बाद भी छुटकारा मिल जाए तो भगवान की मेहरबानी समझना चाहिए कि वह आपको संभलने का एक और अवसर दे रहा है ।

* एक आयुर्वेदिक चूर्ण जो कब्ज़ दूर करने के लिए दिया जाता है ।

१९-३-२०१०

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मोह न नारि, नारि के रूपा



मायावती भैन जी,
जय भीम, जय कांसीराम, जय दलित । आपने १५ मार्च को महारैली की और जनता ने आपको नोटों की माला पहनाई । जिनको कोई माला पहनाने वाला नहीं मिलाता वे लोग तो अपने खर्चे से माला पहनते हैं । और वे ही ईर्ष्यावश आपकी नोटों की माला का विरोध करते हैं । लोकतंत्र में गण ही गणेश है, जन ही जनार्दन है, नर ही नारायण है । अब जनता की इच्छा का सम्मान तो करना ही पड़ता है । अब यह तो जनता पर निर्भर है कि वह किसको कैसी माला पहनाती है । जनता का क्या, वह चाहे तो किसी की जूतों की माला पहना दे, किसी को गेंदे के फूलों की, तो किसी नोटों की ।

हम तो कहते हैं कि किसी को उपहार देना हो तो नकद ही देना चाहिए । मान लीजिए कि किसी को जन्मदिन या किसी और अवसर पर सभी लोग जूते ही जूते उपहार में दे दें या पेन ही पेन उपहार में दे दें, तो वह इतने पेनों या जूतों का क्या करेगा । हमारे एक मित्र हैं जो पूजा-पाठ करवाते हैं । पूजा के एक बाद सभी उन्हें पाँच वस्त्रों के नाम पर कुरता, पायजामा, गमछा, बनियान और हवाई चप्पलें देते हैं । अब वे इतने वस्त्र और चप्पलें पहन तो नहीं सकते । तो वे दिल्ली के किसी संडे मार्केट में जाते हैं और सड़क के किनारे ये सब चीजें रखकर बेचते हैं । यदि सभी भक्त उन्हें पाँच वस्त्रों के बदले में भले ही कुछ कम, पर नकद रूपए ही दे दें तो उन्हें भी परेशानी न हो और यजमानों को भी कुछ सस्ता पड़ जाए । अच्छा है कि जनता ने आपको नक़द भेंट ही दी । फूलों की माला का क्या । कितनी मालाएँ पहनेगा आदमी और फिर उनका करेगा क्या ? बिना बात इधर-उधर फेंकेगा । उससे कचरा फ़ैलने के और पैसे के अपव्यय के अलावा और क्या होगा । हमारे हिसाब से तो श्रद्धा का यह नक़द तरीका ही ज़्यादा ठीक है ।

लोग अपने खर्चे से माला पहनते हैं और दिखाते ऐसा हैं कि जनता के इस स्वागत से वे नम्रता से झुके जा रहे हैं । माला गले में पहुँचने से पहले ही वे उसे रोककर या तो पास खड़े किसी चमचे को पकड़ा देते हैं या जनता की तरफ उछाल देते हैं । पर आपने जिस शान से सिर उठा कर लोगों की श्रद्धा को स्वीकार किया वह भी काबिले तारीफ़ था । क्योंकि यह सच्ची और अपने सत्कर्मों से कमाई हुई श्रद्धा थी । लोग कुछ भी कहें हम आपकी इस अदा से बहुत प्रभावित और खुश हैं । लोग तो पता नहीं किस-किस से, कहाँ-कहाँ छुप कर, क्या-क्या ले लेते हैं । न देने वाले को मज़ा आता है और न ही लेने वाले को । और जब सीडी बन जाती है तो सफ़ाई देते फिरते हैं । आपकी यह पारदर्शिता इस भ्रष्ट लोकतंत्र में अनुकरणीय है । पर लोग न तो इतने पाक-साफ़ है और न ही इतने साहसी ।

लोगों ने पहले तो कहा कि माला पंद्रह लाख की थी, फिर कहा अठारह लाख की और अब बता रहे हैं कि पाँच करोड़ की । अब उनसे कोई पूछने वाला हो कि भई, यह काम तो दिन के उजाले में ढोल बजा-बजा कर हुआ था आ जाते और गिन लेते, किसने मना किया था । अगर कोई टेक्स बनता है तो ले जाते, किसने रोका था । पर कोई सामने तो आए । अब इतना बड़ा प्रदेश है, इतने श्रद्धालु हैं तो ऐसे काम तो चलते ही रहेंगे । चुनाव तो सभी को लड़ना है । चुनाव लड़ना कोई खेल-तमाशा है क्या ? पाँच करोड़ तो पाँच एम.पी. के चुनावों में ही खर्च हो जाएगा ।

आपके लिए तो यह रुटीन काम है । आपने सारी आलोचनाओं को सहज भाव से लिया । न गुस्सा किया और न ही इस प्रकार के जन-सम्मान से आप को अभिमान ही हुआ । अगर हमारे साथ ऐसा हुआ होता तो हमारी तो बची हुई सारी उम्र भगवान का भजन करने की बजाय इन नोटों को गिनते-गिनते ही बीत जाती । हो सकता है कि पागल भी हो जाते । हमें तो छठे वेतन आयोग का जो ६०% एरियर मिला है, उसमें से सरकार ने पहले ही स्रोत पर दस प्रतिशत काट लिया । अब रिफंड लेने के लिए हमसे तो हिसाब ही नहीं बन पा रहा है । धन को सम्भालना और उससे आपने दिमाग को प्रभावित न होने देना सब के बस का नहीं है ।

इस सन्दर्भ में एक किस्सा सुनाना चाहते हैं । किसी साधारण आदमी की एक बहुत बड़ी लाटरी लग गई । लाटरी वालों को लगा कि कहीं इतनी रकम मिलने से इस को हार्ट अटेक न हो जाए सो उन्होंने एक डाक्टर से कहा कि वह उसे तरीके से और धीरे-धीरे बताए । डाक्टर ने उसके पास जाकर कहा- यदि तुम्हारी दस हज़ार की लाटरी लग जाए तो क्या करोगे । उस आदमी ने खर्चे का हिसाब बता दिया । धीरे-धीरे डाक्टर रकम बढ़ता गया और अंत में उसने जब कहा कि यदि बीस लाख की लाटरी लग जाए तो ? वह व्यक्ति बोर हो चुका था सो बोला- आधे आपको दे दूँगा । यह सुनकर डाक्टर का हार्ट फेल हो गया ।

तुलसी दास जी ने कहा है- 'मोह न नारि नारि के रूपा' । और तिस पर आप तो साक्षात् माया हैं तो फिर 'माया' से प्रभावित होने का तो प्रश्न ही नहीं है । यह तो साधारण पुरुषों की समस्या है कि वे माया के पीछे भागते हैं और उससे उनका दिमाग ख़राब हो जाता है । आपका सब कुछ तो जनता की भलाई के लिए ही तो काम आएगा । संत लोग तो जानते हैं कि खाली हाथ आना है और खाली हाथ जाना है । हमने देखा कि मैसूर के महाराजा का शुद्ध सोने का सिंहासन अब महल में लोगों के दर्शन के लिए रखा हुआ है । वे उसे कोई आपने साथ थोड़े ही ले गए । बिना बात ही सोने के कठोर सिंहासन बैठ कर कष्ट उठाया । इससे तो रूई की गद्दी ज़्यादा आरामदायक रहती पर क्या करें, राजा थे, सो मन न होते हुए भी बैठना पड़ा सोने के कठोर सिंहासन पर ।

लोग पता नहीं क्यों ईर्ष्या करते हैं । हमें तो साइकिल पर बैठते हुए भी डर लगता है और आपको प्लेन में उड़ना पड़ता है इस आतंकवादी ज़माने में । रेशमी वस्त्र और गहने क्या कोई आरामदायक होते हैं ? हम तो घड़ी भी नहीं पहनते और न ही हाथ में अँगूठी या गले में चेन पहनते हैं । बड़ी परेशानी होती है । सादे सूती वस्त्रों में ही सुविधा रहती है । महापुरुष और महान महिलाओं को जनता के आनंद के लिए सब कुछ लादना पड़ता है । लोग जयललिता के जूतों और साड़ियों की गिनती तो करते रहते हैं पर कोई यह नहीं देखता कि क्या वे एक साथ दो जोड़ी जूते पहन सकती हैं ? गरमी में भी सारे दिन बेचारी बुलेट प्रूफ जेकेट पहने रहती हैं ।

और कौन अपने साथ क्या ले जाता है ? हम जैसे लोग तो दुनिया के लिए कुछ भी छोड़ कर नहीं जाते । जो कुछ होता है वह मरने के बाद अपने ही बच्चों के पास चला जाता है । बाल-बच्चे वालों के लिए यह संतोष तो रहता है कि भले ही हम अपने साथ कुछ नहीं ले जा रहे हैं पर जो कुछ छोड़ना पड़ रहा है वह अपनों के पास ही रहेगा । आप जैसे बड़े लोगों की तो सारी चीजें मरने के बाद संग्रहालय में रख दी जाती हैं । ऐसे में क्या तो माया जोड़ना और क्या संग्रह करना । यह तो वास्तव में सच्चा और निस्वार्थ सेवा-कार्य है जो कि सबके बस का नहीं होता । हमारे लिए तो बिलकुल भी नहीं ।

लोग कुछ भी कहें पर आप हमारी तो सच्ची श्रद्धा स्वीकार कीजिए ।

१९-३-२०१०

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Jhootha Sach

Mar 21, 2010

क़यामत का इंतज़ार



सोनिया जी,
नमस्कार । यह पत्र शुरु करने से पहले हम दो शे'र अर्ज़ करना चाहेंगे-
गज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया ।
तमाम रात क़यामत का इंतज़ार किया ।

हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक
खुदा करे की क़यामत हो और तू आए ।

इन दोनों ही शे'रों में इंतज़ार महत्त्वपूर्ण है । कुछ लोग क़यामत तक इंतज़ार करने का माद्दा रखते हैं तो कुछ दो मिनट भी इंतज़ार नहीं कर सकते । तभी एक गीत में नायक कहता है-
डोली सजाके रखना, मेहंदी लगा के रखना ।

आजकल का नायक है, समय का महत्त्व जानता है । पहले वाले तो मुँह से बोलना तो दूर, इशारों में भी बड़ी मुश्किल से कह पाते थे । और परिणाम यह होता था कि पिताजी नायिका की शादी किसी और से कर देते थे ।

ग़ालिब से किसी ने वादा कर दिया था । अब वादा निभाना है तो इंतज़ार तो करना ही पड़ेगा । अब यह तो वादा करने वाले की गलती है कि शाम को आठ बजे खाने पर आने का तय करके रात भर न आये । बेचारा मेज़बान न तो खाना खा सकता और न ही सो सकता । मेज़बान रात भर इंतजार करता रहता है कि कब क़यामत आ जाए और उसे खिला-पिला कर खुद भी सोए । कुछ क़यामतें ऐसी होती हैं कि ज़िंदगी भर नहीं आतीं और इंतजार करने वाला इंतजार करते-करते ही चल बसता है ।

किसी नायिका से नायक ने वादा कर दिया कि वह क़यामत होने पर आएगा । सो बेचारी नायिका नायक से ज्यादा क़यामत होने का इंतज़ार करती है कि किसी तरह क़यामत हो, नायक आए तो इंतजार से पीछा छूटे । जिस तरह से नेताओं के वादे और नायक-नायिका के वादे सूचना के अधिकार के अंतर्गत तो आते नहीं कि जैसी भी हो आदमी सूचना ले ले और इंतजार ख़त्म हो । कभी -कभी तो इंतज़ार पीढ़ियों तक चलता है । पिताजी कोई वादा करते हैं और उनके बाद उनका बेटा उनके सपनों को साकार करने के लिए गद्दी पर बैठता है और वह भी उन्हीं की तरह वादा करता है और फिर अगली पीढ़ी भी उसी तरह इंतजार करती रहती है जैसे कि गरीबी, भूख, भय, भ्रष्टाचार मिटाने के वादे लोग कई पीढ़ियों से पूरे होने का इंतजार कर रहे हैं ।

वैसे हमने व्यक्तिगत रूप से कोई बहुत इंतज़ार नहीं किए । शादी की उम्र होने से पहले ही पिताजी ने शादी कर दी सो किसी प्रेमिका का इंतज़ार करने की नौबत भी नहीं आई । बच्चे भी दो-दो साल के अंतर से होते चले गए । मास्टर की नौकरी भी समय पर ही मिल गई क्योंकि उस समय न तो इतने पढ़े-लिखे लोग थे और न ही इतनी दलाली चलती थी । नौकरी लगने के बाद और इंतज़ार किस बात का करना था । फिर तो साल बीतते गए । यह तो पता ही था कि साठ के होते ही रिटायर होना है सो समय पर वह काम भी हो गया । न सरकार को सोचना पड़ा और न ही हमें कोई धक्का लगा ।

पर अब आपसे क्या बताएँ । इस बुढ़ापे में इंतज़ार का चक्कर पड़ गया है । आप कुछ ऐसा वैसा नहीं समझ लें । हुआ यूँ कि हमने एक मंत्री जी के वादे पर ऐतबार कर लिया और अब ग़ालिब की तरह क़यामत का इंतज़ार कर रहे हैं और क़यामत है कि आने का नाम ही नहीं ले रही है । हमने आपको कभी अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के लिए पत्र नहीं लिखे । वैसे यह पत्र भी नितांत व्यक्तिगत नहीं है । लाखों लोगों का हित-अहित इससे जुड़ा हुआ है पर चूँकि इन लाखों में हम भी एक हैं सो इसलिए आप इसे व्यक्तिगत भी कह सकती हैं । हम वैसे तो नेताओं के वादों पर विश्वास नहीं करते पर कहा भी है - 'अर्थी दोषं न पश्यति' । अपने हित की बात पर ज़ल्दी झाँसे में आ जाता है जैसे कि पिछले वर्ष साँसी समाज के एक चालाक व्यक्ति ने धन दुगुना करने के नाम पर राजस्थान के सैंकड़ों लोगों से करोड़ों रुपए ठग लिए ।

बात यह है कि पिछले वर्ष २८ अगस्त २००९ को अखबार में समाचार छपा कि जिस विद्यार्थी के माता-पिता की कुल आमदनी साढ़े चार लाख से कम है तो उसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम में अध्ययन करने के लिए बिना ब्याज के ऋण दिया जाएगा । पढ़ाई पूरी होने के बाद ब्याज चालू होगा और विद्यार्थी अपनी आमदनी से क़र्ज़ चुका देगा । वैसे तो हमें ब्राह्मण होने के कारण किसी भी सरकार ने दया का पात्र नहीं समझा और हमसे चार गुनी आमदनी वाले तथाकथित पिछड़ों या दलितों को ही वोट बैंक बनाने के लिए कर्ज़ा या मुफ़्त सहायता देती रही । हमने भी भगवान के भरोसे किसी तरह निभा लिया ।

अब मंत्री जी की उस घोषणा के बाद हमने अपनी बेटी को दाँतों की डाक्टरी में भर्ती करवा दिया । वैसे यह हमारे लिए संभव नहीं था और हम अपने साधनों को देखते हुए यह साहस करते भी नहीं । पर सरकारी घोषणा के कारण यह साहस कर बैठे । पिछले साल तो किसी तरह एक साल का खर्चा जमा करवा दिया और इंतज़ार करने लगे कि ज़ल्दी ही सरकार की योजना लागू होगी और काम चल निकलेगा । पर एक साल हो गया हमें उस क़यामत का इंतज़ार करते पर क़यामत है कि दर्शन ही नहीं दे रही है । अब हमारे पास एक साल का ही जुगाड़ है जो कि हमने रिटायर्मेंट पर मिले पैसों में से बचा कर रख रखा है । एक साल बाद क्या करेंगे, समझ नहीं पा रहे हैं । बार-बार बैंकवाले से पूछते हैं तो वह चिढ़ जाता है और कहता है कि अच्छा हो कि आप या तो मंत्री जी से पूछें या फिर अखबारवाले से । हम अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं ।

आपने जिस सिद्दत से राज्य सभा में महिला आरक्षण बिल पास करवाया वैसे इस घोषणा को भी लागू करवाइए । हम कोई अल्पसंख्यकों की तरह कोई न लौटाए जाने वाला पैकेज भी नहीं माँग रहे । क्या कोई आशा करें या यह जीवन इंतज़ार में ही निकाल जाएगा ।

वैसे हमें अभी तक यह समझ में नहीं आया कि प्रदूषण फ़ैलाने वाली कारों के लिए तो बैंक ऋण देने के लिए लोगों के दरवाजे खटखटा रहे हैं और पढ़ाई के लिए ऋण के लिए लोग धक्के खा रहे हैं । पता नहीं, आपने किस प्रगतिशील अर्थशास्त्री से गठबंधन करके यह अर्थव्यवस्था बनवाई है ?

१७-३-२०१०


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Jhootha Sach

Mar 19, 2010

विक्रम और बेताल - डिपार्टमेंट की इज्ज़त


जैसे ही वीक एंड पर अंधेर नगरी के आजीवन महाराजा चौपटादित्य संसद के कुंए से सत्य का शव निकाल कर ठिकाने लगाने के लिए चले तो शव में अवस्थित बेताल ने कहा- राजन, तुम बहुत जिद्दी हो मानोगे तो नहीं सो श्रम भुलाने के लिए मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ । कहानी के अंत में एक प्रश्न पूछूँगा । यदि जानते हुए भी तुमने उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा ।

तो सुनो- किसी शहर में एक पुलिस अधिकारी रहता था । वह बहुत सख्त था । उसके कार्यकाल में किसी भी नेता, पुलिसवाले और बाहुबली के घर पर चोरी नहीं हुई । हुई तो वापिस भी आ गई । जहाँ भी किसी अपराधी को लोग पकड़ लेते तो वह तत्काल वहाँ पहुँच कर तुरंत उसे हिरासत में ले लेता । इस तरह उसने कभी किसी को कानून हाथ में नहीं लेने दिया । उसे अपनी तत्परता के लिए कई पुरस्कार भी मिले थे ।

एक दिन, जैसा कि नियम है, वह पुलिस वाला रिटायर हो गया । एक बार उसके घर चोरी हो गई । माल तो ज्यादा नहीं गया पर पुलिस का रौब कम हो गया । लोग सोचने लगे कि जब पुलिस वाले के घर भी चोरी हो सकती है तो फिर देश और समाज की सुरक्षा की क्या गारंटी । चोरी नहीं पकड़ी गई । पुलिस वाले की चिंता, घुटन और कुंठा बढ़ती गई ।

एक दिन उसने निर्णय किया कि वह इस ज़िल्लत की ज़िंदगी से मुक्ति पाकर ही रहेगा । मौत तो अपने हिसाब से ही आती । बुलाने से थोड़े ही आती है । उस धर्म-प्राण पुलिस अधिकारी ने आमरण अनशन करके प्राण त्यागने का निश्चय किया । खबर आग की तरह फ़ैल गई ।

अब हे राजन, बताओ कि उस अधिकारी का क्या हुआ ? क्या वह आमरण अनशन करके मर गया या उसके सम्मान की रक्षा हो गई ?

महाराज चौपटादित्य ने काफी सोच विचार का उत्तर दिया- हे बेताल, अपराधी कितना भी बुरा हो पर उसमें भी आत्मा होती है । अधिकारी की इस न्याय भावना से उस चोर की आत्मा जाग उठी और उसने थाने में जाकर आत्मसमर्पण कर दिया और कहा कि उसने ही चोरी की थी । जितना माल वह खा चुका था उसके अतिरिक्त शेष उसने थाने में जमा करवा दिया ।
और कहा- साहब, मुझे मालूम नहीं था । मैंने यह चोरी भूल से कर ली थी । अब अधिकारी जी के अनशन से सारी बातों का पता चला तो मुझे मेरी आत्मा ने बहुत धिक्कारा । ठीक है, आदमी कुछ भी करे पर नियमों का ध्यान रखे । मैं स्टाफ के यहाँ चोरी करने के लिए क्षमा माँगता हूँ और इस गलती के कारण प्रायश्चित स्वरूप मुख्य धारामें शामिल होना चाहता हूँ ।

उस चोर की नैतिकता और विभागीय ईमानदारी के कारण उसे मुख्य धारा में शामिल कर लिया गया । उसे एक अच्छा सा पॅकेज दिया गया और पुलिस विभाग में नौकरी दी गई । और इस प्रकार उस कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की प्राण और सम्मान दोनों की रक्षा हो गई ।

महाराजा चौपटादित्य के इस उत्तर को सुन कर बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

१२-३-२०१०
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Jhootha Sach

सोनिया जी, सादगी के सदके


सोनिया जी,
नमस्कार । सबसे पहले तो राज्य सभा में महिला आरक्षण बिल पास होने पर बधाई । आपने ठीक समय पर फैसला ले लिया नहीं तो वही हाल होता जो अब तक होता रहा है इस बिल का । आगे लोकसभा वाला असली झंझट तो बाकी ही है । फिर भी खुशी की बात तो है ही । सो सेलेब्रेट भी करनी ही चाहिए । इसकी ख़ुशी में आपने ११ मार्च गुरुवार २०१० को एक पार्टी दी, जिसका समाचार भी ११ तारीख़ को ही छपा । नहीं तो लोग तो ज़रा सी बात का महीनों पहले से हल्ला मचाने लग जाते हैं और समय पर कार्यक्रम निकलता है - फुस्स ।

हमने छोटे-मोटे कार्यक्रमों के बहाने लोगों को उछलते देखा है । बीस हज़ार की प्याऊ के उद्घाटन पर पचास हज़ार का खर्चा कर देते हैं । चार दिन पहले से बड़े-बड़े विज्ञापनों के बहाने सूचना आने लग जाती है । और मुख्य अतिथि कौन होता है- कोई भूतपूर्व एम.एल.ए. । आपकी दावत में तो दोनों सदनों के सारे साढ़े सात सौ सांसद थे । फिर भी दावत का न तो कोई समाचार, न विज्ञापन और न ही कोई फ़ोटो । इसे कहते हैं सादगी । लोग सादगी की बातें करते हैं और वास्तविक जीवन में देश के धन को हराम का माल समझ कर फूँकते हैं ।

आपने इस दावत में और भी कई तरीके अपनाए हैं जिससे खर्चा कम हो । आपने सांसदों को सपत्नीक बुलाया । अब जिसके पत्नी या पति नहीं वह तो आ ही नहीं सकेगा और इस प्रकार कुछ प्लेटें कम ही खर्च होंगीं । अटलजी इसी शर्त के चलते आ नहीं सके होंगे । फर्नांडीस भी आ सकते थे पर इतनी ज़ल्दी अमरीका से उनकी पत्नी का आ पाना मुश्किल था । कारत दंपत्ति भी एक ही न्यौते में ही दो-दो निबट गए । और नोटिस पीरियड भी इतना कम दिया कि दूर रहने वाली पत्नी या पति का तो दिल्ली पहुँचाना ही मुश्किल । लोग कह सकते हैं कि प्लेन से आ जाते । ठीक है, पर ब्यूटी पार्लर में जाने का समय भी तो चाहिए । कोई ऐसी वैसी दावत तो है नहीं कि ऐसे ही चले जाओ । आपने कोई फोटोग्राफर भी नहीं बुलाया । यह खर्चा भी बचा लिया । कुछ लोग तो यही सोच कर नहीं आए होंगे कि जब सोनिया जी के साथ फ़ोटो ही नहीं खिंचवा सकते तो फिर पार्टी में जाने का क्या फायदा ।

इस पार्टी के बारे में हम आपकी एक और दूरदर्शिता की बात करना चाहेंगे । प्रणव दा ने कह दिया है कि एक अप्रेल से सादगी वाली एच१एन१ बुखार समाप्त हो रही है । लोग कितने दिन उपवास कर रहे थे देश के लिए । हो सकता है कि सांसदों के लिए देश की अर्थ व्यवस्था सुधर गई होगी वरना प्रणव दा ऐसा कभी न करते । जहाँ तक हमारी बात है तो बता दें कि दवा के दामों में कोई कमी नहीं हुई है, दूध के दाम बढ़ने की पूरी-पूरी संभावना है, चीनी उसी तरह से आकाश में लटकी हुई है । तीर्थ यात्रा का कार्यक्रम तो हमने अगले जन्म के लिए मुल्तवी कर दिया है । अपने को कौन हज-यात्रा की तरह सब्सीडी देने वाला है । अगर अगले जन्म में हालत कुछ सुधरेगी तो देखेंगे ।

तो दावत का काम सादगीपूर्ण तरीके से और शांति से निबट गया होगा । सांसद पत्नियों से मिलकर आपने लोकसभा में बिल को पास करवाने की संभावनाओं को भी ज़रूर तलाशा होगा । इस ज़माने में बिना काम के कौन किसी को खाना खिलाता है । पानी तक के लिए नहीं पूछता । डाक्टर की पार्टी में केमिस्ट और मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के अलावा और कौन होगा । पार्टी अपनी जगह होती है और घरवाली अपनी जगह । बीवी अगर व्हिप जारी करदे तो पति की मजाल नहीं कि ज़रा सा भी इधर-उधर हो जाए । और फिर किसी आदमी से काम करवाना हो तो उसकी बीवी को खुश कर लो फिर आगे का काम वह अपने आप सँभाल लेगी । यह कहावत भी है कि आदमी के दिल का रास्ता उसके पेट में से होकर जाता है । और यह भी कहा गया है कि किसी को पटाने का रास्ता उसकी बीवी के थ्रू जाता है । सो आपने दावत ही नहीं लोकसभा में बिल पास करवाने का इंतज़ाम भी कर लिया है । एक बात आपने और भी ठीक की कि एक अप्रेल से पहले ही पार्टी कर ली । अब सादगी का भी बहाना है । नहीं तो एक अप्रेल के बाद तो लोग सादगी की संहिता समाप्त होने की आड़ में ज्यादा खर्चा करवा देते ।

हम तो जानते है कि आप सारे काम ही सादगी से करती हैं । आपकी कथनी करनी में कोई अंतर नहीं है । जब पिछली बार अपनी सरकार आई थी तो अक्टूबर २००५ में चंडीगढ़ में पंजाब के तत्कालीन मुख्य मंत्री अमरिंदर सिंहजी ने मुख्यमंत्री सम्मलेन का आयोजन किया था । सिंह साहब केवल मुख्य मंत्री ही थोड़े थे । वे भूतपूर्व महाराजा भी हैं । अगर चाहते तो दो सौ व्यंजन बनवा सकते थे पर उन्होंने आपकी सादगी की आदत को जानते हुए केवल पचहत्तर व्यंजन बनवाए । पर आपकी सादगी देखिए कि आपने इतने पर भी कह ही दिया कि हमें सादगी से काम करना चाहिए । अब हम कल्पना कर सकते हैं कि आपने पार्टी में क्या बनवाया होगा । ज्यादा से ज्यादा लड्डू , नमकीन और पूड़ी-सब्जी । वैसे भी अधिक व्यंजन होने से आदमी ढंग से खा भी नहीं पाता । भूख से ज्यादा खाकर भी यही लगता है कि वह व्यंजन तो खाया ही नहीं । जैसे कि नहीं पकड़े जाने पर मिलावट करने वाले को यही लगता रहता है - काश, सीमेंट में थोड़ा और रेता मिला देता । किसी को पता तो चला ही नहीं ।

हमने एक बार तो सांसद न होने के बावजूद आपकी पार्टी में आने का विचार किया पर क्या बताएँ निमंत्रण तो था नहीं । वैसे पत्नी ने कहा तो था कि जब मनमोहन जी को दी गई ओबामा की पार्टी में बिना बुलाए 'सलाही दंपत्ति' सुरक्षा व्यवस्था को धता बताकर अन्दर जा सकते हैं तो क्या अपन मेडम की पार्टी में नहीं घुस सकते ? मगर हमारी पत्नी भी आपकी तरह से बहुत कम खर्चा करने वाली है । कहने लगी- मेडम सादगी से काम करेंगी । सो सादा खाना तो हम यहाँ भी खा ही रहे हैं । बिना बात पच्चीस रूपए के खाने के लिए दिल्ली आने जाने के हज़ार-पाँच सौ रूपए क्यों खर्च किए जाएँ ।

हमारी पत्नी ने आपको एक और सलाह देने के लिए कहा है कि जब दिल्ली में ही पार्टी की जाए तो पाँच सितारा होटल से खाना मँगवाने की क्या ज़रूरत है, महँगा पड़ता है । संसद वाली कैंटीन से ही क्यों न मँगवा लिया कीजिए । साढ़े बारह रूपए पर हैड में ही काम हो जाएगा ।

वैसे एक बार फिर महिला आरक्षण बिल राज्य सभा में पास करवाने के लिए और सादगी से पार्टी देकर लोकसभा में बिल के पास होने की संभावनाएँ बढ़ाने के लिए धन्यवाद ।

हमारी पत्नी आपकी और कांग्रेस की भक्त है । वह भी राबड़ी जी की तरह से क्वालीफाइड भी है । यह बात और है कि हम मुख्य मंत्री नहीं है । वैसे हम किसी के लिए भी प्रशस्ति लिख सकते हैं- जैसे कि अटल-चालीसा, लालू-चालीसा, माया-चालीसा, वसुंधरा-शतक आदि-आदि । बात कान में इसलिए डाल दी है कि पुरुष के भाग्य का कुछ पता नहीं कब खुल जाए । और अब तो पुरुष का भाग्य खुलने का एक चेनल और भी तो आ रहा है - महिलाओं के लिए संसद में ३३ प्रतिशत आरक्षण ।

१४-३-२०१०


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मन चंगा तो कठौती में गंगा


कपिल सिबल जी,
नमस्कार । एक कपिल मुनि का उल्लेख पुराणों में आता है जिन्होंने सगर के साठ हज़ार पुत्रों को भस्म कर दिया था । गलती दोनों तरफ़ से थी । सगर के पुत्रों ने मुनि का अपमान किया । पर सगर के पुत्रों की भी उतनी गलती नहीं थी क्योंकि उन्होंनें मुनि के आश्रम में अश्वमेध के घोड़े को बँधे देखा और मान लिया कि मुनि ने ही घोड़ा चुराया है । पर चूँकि मुनि समाधि में थे सो उन्हें पता ही नहीं चला कि कब और कौन घोड़ा वहाँ बाँध गया । तभी गाँधीजी ने कहा था कि सच्चे और सीधे व्यक्ति को अधिक सावधान रहना चाहिए । सगर के साथ हज़ार पुत्रों की श्राप से मृत्यु हुई थी इसलिए उनकी मुक्ति नहीं हुई । जब भगीरथ किसी तरह से गंगा लाया तो उनकी मुक्ति हुई ।

आप सोच रहे होंगे कि हम आपको यह किस्सा क्यों सुना रहे हैं । १६ मार्च २०१० को एक खबर छपी है कि आप इस भारत के नए भागीरथ हैं और अमरीका और योरप से शिक्षा की गंगा भारत में ला रहे हैं । ला क्या रहे हैं समझिए कि बस आपकी सच्ची भक्ति के प्रताप से इस कठौते में गंगा अपने आप चल कर आ रही है । पहले अज्ञान के अन्धकार से मुक्ति पाने के लिए भारत के विद्यार्थियों को योरप जाना पड़ता था । गाँधी, नेहरू, सावरकर सभी को ज्ञान प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड जाना पड़ा । अगर उस समय आप जैसा कोई दूरदर्शी और देश का हित चाहने वाला होता तो वहाँ के कालेजों को यही ले आता तो जाने कितने गाँधी और नेहरू इस देश में और तैयार हो जाते । खैर, देर आयद दुरुस्त आयद ।

जब भारत में कोकाकोला, पिज्जा, बर्गर और भी न जाने कितनी जीवनोपयोगी चीजें आ गई है तो फिर शिक्षा भी क्यों नहीं । इन खाद्य पदार्थों को खाने से भारत के बच्चों की बुद्धि इतनी तेज़ हो गई है कि अब उनकी ज्ञान पिपासा शांत करना भारत के बस का नहीं रह गया है । जैसे खाने-पीने की चीजों में सब कुछ भारत का है- खाने वाले, बनाने वाले, कच्चा माल, बस वे तो अपने अद्भुत ज्ञान के बदले में केवल मुनाफा भर अपने देश ले जाएँगे । अब शिक्षा में भी पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले इस देश के, इमारत बनाने वाले और कच्चा माल भारत का बस वे तो अपने ट्रेडमार्क का पैसा वसूल करेंगे । क्या यह मेड बाई यू.एस.ए. अर्थात उल्हास नगर सिन्धी एसोसिएशन जैसा झाँसा तो नहीं है । जब लोग नकली नोट नहीं पहचान पाते, कोई फरार अपराधी नेपाल से आकर यहाँ सांसद बन जाता है और हम नहीं पकड़ पाते तो भारत की शिक्षा का स्तर ऊँचा उठाने वाले इन लोगों की असलियत कैसे पहचान पाएँगे ।

फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि विदेशी चीजों में कोई तो खास बात है वरना एक डालर छियालीस रूपए और एक यूरो सत्तर रुपये के बराबर होता है । अगर कुछ दम होता तो ज्यादा नहीं तो एक रूपया दो डालर के बराबर तो होता । आधा लीटर दूध आठ रूपए में आ जाता है जब कि इतने ही कोकाकोला के लिए बाईस रूपए देने पड़ते हैं । आखिर कोई तो बात होगी ना वरना दुनिया इतनी बावली थोड़े ही है । कोकाकोला पीने से कहा जाता है कि 'जो चाहो हो जाए' पर छाछ राबड़ी पीने से अब तक क्या हो गया, बताइये । वहाँ एक मज़दूर को भी न्यूनतम मज़दूरी पाँच डालर प्रति घंटे मिलती है जो कि दो सौ रुपये के बराबर होती है । एक दिन में पाँच घंटे भी काम करे तो एक हज़ार रुपये तो कमा ही लेगा जब कि अपने यहाँ एक हज़ार रुपये महीने में मास्टर मिल जाता है । सो क्वालिटी की बात है,साहब ।

अन्य क्षेत्रों में भी फ़र्क देखा जा सकता है । इंग्लैण्ड में पढ़े नेहरू जी इतने साल प्रधान मंत्री रह गए पर यहाँ पढ़े शास्त्री जी, चन्द्र शेखर, चरण सिंह और देवेगौडा से साल दो साल भी नहीं निकाले गए । हमारे ज़माने में ग्रेज्यूएशन करने में कम से कम चौदह साल तो लगते ही थे । अब तो प्ले ग्रुप, नर्सरी, लोअर केजी, अपर केजी, फिर कहीं पहली क्लास शुरु होती है । इसके बाद पंद्रह साल कम से काम और लगते हैं । सो भी तब जब कि लगातार पास होते चले जाएँ । और अमरीका में दसवीं पास होने पर भी ग्रेजूएशन कहा जाता है । यहाँ बैंगलोर में हमारे एक परिचित हैं । पैसे वाले हैं । उनका पोता किसी अमेरिकी पैटर्न वाली स्कूल में जाता है । एक साल पहले प्ले ग्रुप में गया था । कल जब हमने अपने परिचित से मिलने का प्रोग्राम बनाया तो वह बोला- कल तो नहीं, मुझे अपने पोते के ग्रेजूएशन फंक्शन में जाना है । पोते की उम्र है सवा तीन साल । मतलब कि हमने बाईस बरस ग्रेजूएशन करने में यूँ ही लगाए । आप-हम अगर आज के ज़माने में अमरीकी पद्धति से पढ़ते तो सवा तीन साल की उम्र में ही ग्रेज्युएशन हो जाता । सो यह है साहब, विदेशी ठप्पे का कमाल । ज़ल्दी कीजिए ।

बाहर वाले जब यहीं आने लग जाएँगे तो अब आस्ट्रेलिया की तरह भारतीय विद्यार्थियों पर नस्लवादी हमले नहीं होंगे । यह बात और है कि अपना ही कोई दादा टाइप भारतीय छात्र रेगिंग करके किसी भले बच्चे को मार डाले या आत्महत्या करने के लिए विवश कर दे । बाहर वाले से मरने की बजाय अपने ही किसी भाई से मरना ज्यादा कष्ट नहीं देता । वैसे जब आस्ट्रेलिया वाला मामला उछला तो पता चला कि वहाँ भी अपने भारत की तरह दो कमरों में ही कालेज चल रहे हैं । जोगी जी ने तो छत्तीसगढ़ में सैंकड़ों विश्वविद्यालयों को स्वीकृति दे दी थी सो एक-एक कमरे में ही विश्वविद्यालय खुल गए । वैसे देखा जाए तो पढ़ने के लिए कोई मकान की ज़रूरत थोड़े ही होती है । पढ़नेवाला तो कहीं भी पढ़ लेता है । लोगों ने सड़क के बिजली के खम्भे के नीचे बैठ कर ही पढ़ाई कर ली । लिंकन भी बचपन में सड़क के किनारे बैठ कर ही पढ़े थे ।

और आपने भी पढ़ा होगा कि आस्ट्रेलिया में कई भारतीय छात्र हजामत करने का कोर्स करने के लिए गए हैं । अब यह भी कोई पढ़ाई है जिसके लिए कोई विदेश जाए । यह काम तो वे अपने यहाँ रह कर और भी अच्छी तरह से कर सकते हैं । कितने लोग जनसेवा के नाम पर जनता की हज़ामत बना रहे हैं । सारे देश को गंजा कर दिया । न जंगल में पेड़ छोड़े, न खानों मे खनिज पदार्थ, न नदियों में पानी । अब आस्ट्रेलिया वाले इतने बावले तो हैं नहीं कि उन्हें हजामत करना सिखा कर अपनी ही हजामत बनवाएँ । उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया है कि जूते-लात खाकर किसी तरह कोर्स पूरा करो और वापस अपने देश जाकर अपने ही लोगों की हज़ामत करो । अच्छा है, अब वे विदेशी तरीके से हमारे देश की हजामत करेंगे । वही उस्तरा और वही नाई, वही पुरानी कुर्सी । हज़ामत तो बनवानी ही है तो क्यों न किसी नए स्टाइल से बने ।

कभी-कभी यह सुनने-पढ़ने में आता है कि भारत में पढ़ कर गए विद्यार्थियों की ओबामा तक ने प्रशंसा की है । अपनी सरकार में उन्हें स्थान दिया है । अब भी बहुत से भारत में पढ़े हुए शिक्षक अमरीका और योरप में पढ़ा रहे हैं । पर लगता है कि यह झूठ है क्योंकि अगर ऐसा होता तो आप क्यों बाहर की कालेजों को यहाँ आने की अनुमति देते । कुछ तो विशेषता होती है वरना यूँ ही कोई आपकी तरह दीवाना नहीं होता ।

कुछ ज्ञानी लोग कहते है कि विदेशी गू में भी खुशबू आती है । पता नहीं साहब, सूँघने वाले जानें ।

चलिए, छोड़िए इन बातों को । अब हमें और आपको कौन सा पढ़ना-पढ़ाना है । पढ़ने वाले जानें, पढ़ाने और पढ़वानेवाले जानें । अपना तो बस इस महान कार्य के लिए इतिहास में नाम दर्ज़ हो जाए । किन अक्षरों में हो यह तो दर्ज़ करने वाले जानें । आप तो एक चुटकला सुनिए । एक सज्जन जब भी अपने काम से बाहर जाते तो गली में बच्चे खेलते-कूदते मिलते । उन्हें पता नहीं बच्चों से क्यों चिढ़ होती थी । वे बच्चों से कोई न कोई उल्टा-सीधा प्रश्न पूछते । बच्चे ज़वाब नहीं दे पाते तो वे कहते- अरे, सारे दिन खेलते रहोगे, कुछ पढ़ोगे नहीं तो कैसे बता पाओगे । एक दिन बच्चों ने उनसे ही एक प्रश्न पूछ लिया- अंकल यह रामलाल कौन है । अंकल ने कहा- पता नहीं । तो बच्चेबोले- अंकल घर पर रहोगे तो पता चलेगा ना कि यह रामलाल कौन है । सो आप जब अमरीका की तरफ देखते रहेंगे तो कैसे पता चलेगा कि भारत में भी कुछ है । कभी भारत की तरफ भी देखने का समय निकालिए ।

वैसे आपके नाम में 'बल' भी जुड़ा हुआ है सो क्या पता कुछ पराक्रम भी दिखा ही दें । अभी तो कुछ दिखा नहीं । हमने भी इस दिशा में सोचना शुरु कर दिया है । बहुत दिन हो गए वही रोटी खाते-खाते । अब हमने पत्नी से कह दिया है कि आगे से हमें पीने के लिए पानी नहीं वाटर दिया करो । अब रोटी को ब्रेड कहेंगे । जब से यह परिवर्तन किया है हमें अपने अन्दर कुछ परिवर्तन नज़र आने लग गया है । लोग कहते हैं कि नाम में क्या है पर हम कहते हैं कि जो कुछ है सो नाम में ही है । अभी तक हम अपने ब्राह्मण नाम के बल पर ही सारे कष्टों को सह गए वरना आरक्षण के इस समय और सहारा ही क्या था ।

१७-३-२०१०

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Jhootha Sach

Mar 18, 2010

महिला आरक्षण की 'उदार-हृदय' व्याख्या


शिया धर्म-गुरु मौलाना ज़नाब क़ल्बे जवाद,
इलाहबाद ।
आदाब अर्ज़ । जिस तरह से अंग्रेजी वाले हिन्दी के शब्दों की हत्या कर देते हैं- छपरा (बिहार) को न्यूज में छापरा पढ़ जाते हैं और तनिक भी नहीं शरमाते । गलत हिंदी बोलना अच्छी अंग्रेजी का प्रमाण माना जाता है । उर्दू में वही हमारे साथ होता है । यूँ तो सोहबत के कारण हम थोड़ी-बहुत उर्दू समझ लेते हैं पर 'नुक्ते' के मामले में मार खा जाते हैं । उर्दू में 'नुक्ता' बहुत माने रखता है । कहते हैं कि 'नुक्ते' के चक्कर में 'ख़ुदा' 'ज़ुदा' हो जाता है । वैसे यह भी सच है कि आजकल लोगों को 'खुदा' से ज़्यादा 'ख़ुदाई' को खोद-खोद कर माल-मत्ता निकालने की ज़्यादा फ़िक्र रहती है । स्वामी लोग भी 'सत्यं' की बजाय 'शिवं' की खोज 'सुन्दरीं' के कपड़ों में खोजने में ज़्यादा रुचि रखते हैं । चर्चों के पादरियों पर भी इसी तरह की 'खोजों' के हजारों मामले दुनिया में चल रहे हैं ।

तो बात नुक्ते की चल रही थी । 'नुक्ते' के साथ 'चीनी' भी अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है । हमें भी इस 'नुक्ता-चीनी' सेबहुत परेशानी है । एक बार हमें लखनऊ जाने का मौका मिला । एक मुशायरे में पहुँच गए और लोगों ने पढ़ने के लिए कह दिया । और जैसा कि हमने बताया कि हम नुक्ते के मामले में कच्चे हैं । सो हुआ यह कि हमने एक शे'र पढ़ा । लोग बार-बार मुक़र्रर-मुक़र्रर कहते रहे । हम तो निहाल । अंत में परेशान होकर हमने कहा- हज़रात, यह ठीक है कि आपको हमारा मतला बहुत पसंद आया पर हम ग़ज़ल पूरी करना चाहते हैं और आप हैं कि हमें मतले से आगे नहीं बढ़ने दे रहे हैं । वे कहने लगे- बात यह नहीं है । जब तक आप 'ज़ाम' का नुक्ता हटाकर उसे 'जाम' नही पढेंगे तब तक हम मुक़र्रर कहते रहेंगे । सो यह रहा हमारा नुक्ते का अनुभव । रही बात चीनी की सो एक तो हम चीनी के भावों से परेशान हैं और दूसरे चीनी सेना की सीमा पर होने वाली कुचरनियों से परेशान हैं, इसलिए 'चीनी कम' ही हो तो ठीक है ।

हमने आप का १३ मार्च का बयान एक हिन्दी अखबार में पढ़ा । उसमें आपका नाम कल्बेजव्वाद लिखा था । यूँ तो अगर हम उसी तरह से भी आपको संबोधित कर देते तो यह गलती अख़बार वाले की ही मानी जाती पर हम कोई रिस्क नहीं लेना चाहते । एक बार किसी क्लर्क ने किसी निमंत्रण पत्र पर प्रियंका गाँधी का पति-पक्ष वाला सरनेम गलत टाइप कर दिया तो अखबार में समाचार छप गया और हो सकता है कि उससे एक्सप्लेनेशन भी पूछ गया हो । अगर हम आप का नाम गलत लिख दें तो आप हमसे न पूछ कर यदि हमारे ख़िलाफ़ फतवा ही जारी कर दें तो हम तो कहीं के नहीं रहेंगे । सलमान रुश्दी को तो ब्रिटेन ने शरण दे रखी है पर हमें तो बचाने वाला कोई नहीं होगा । वैसे भी लेखक का फ़र्ज़ है कि पूरी जानकारी करके लिखे । ऐसे ही दुविधा के क्षणों के लिए हमने उर्दू की एक डिक्शनरी रख रखी है ।

हमने उस डिक्शनरी में 'कल्बे' शब्द देखा सो नहीं मिला । दो और शब्द मिले- एक तो बिना नुक्ते वाला 'कल्ब', जिसका अर्थ था 'कुत्ता' जो कि आपके नाम से संबंधित नहीं हो सकता । दूसरा मिला नुक्ते वाला 'क़ल्ब' जिसका अर्थ है- हृदय । यह हमें ठीक लगा । इसके बाद देखा 'जव्वाद' । हमें डिक्शनरी में 'जव्वाद' नहीं मिला, मिला 'जवाद', जिसका अर्थ था 'उदार' । हमें ये ही दोनों अर्थ ठीक लगे । इस प्रकार हमने आपके नाम अर्थ निकाला है - 'उदार-हृदय' । ठीक है, 'धर्मगुरु' ही उदार नहीं होगा तो कौन होगा ।

आपने महिला-आरक्षण के बारे में अपनी राय व्यक्त की कि 'महिलाएँ बच्चे पालें, राजनीति न करें' । हम तो इससे सौ फीसदी सहमत हैं पर लोग हैं कि बिना सोचे समझे उबल पड़े और न जाने क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ देने लगे। अब इनसे कोई पूछने वाला हो कि भाई, यदि बच्चे पालना औरतों का कर्तव्य नहीं होता तो भगवान बच्चे पैदा करने का काम ऐच्छिक बना देता । मियाँ-बीवी दोनों मिलकर फैसला कर लेते और जिसके लिए भी तय पाया जाता वही बच्चे पैदा कर लेता । कोई शिकायत नहीं करता कि औरत ही बच्चे पैदा क्यों करे, आदमी क्यों नहीं । यह उसका धर्म है । अब पैदा करे वही उसको पाले भी । और फिर बच्चा माँ के साथ ही रहना चाहता है, दूध भी माँ ही पिला सकती है । डाक्टर भी कहते हैं कि बच्चे को छः महीने तक माँ का दूध मिलना चाहिए । अब मान लीजिये किसी महिला नेत्री को बच्चा हो गया तो क्या देश का काम छः महीने तक रुका रहेगा ? जहाँ आरक्षण की ज़रूरत है वहाँ कोई भी भला आदमी विरोध नहीं करता । सब जानते हैं कि पुरुष महिलाओं का बाथरूम यूज कर सकते है पर महिलाएँ खड़े होकर यूज करने वाला पुरुषों का बाथ रूम यूज नहीं कर सकतीं । अब यह भगवान का किया हुआ आरक्षण है तो इसमें किसी को विरोध भी नहीं है ।

और फिर पुरुषों ने महिलाओं के लिए और कितने आरक्षण कर तो रखे हैं । पति के मरने के बाद उसकी पेंशन, फंड, संपत्ति, मकान उसी को तो मिलता है । पति बेचारे दस सेंटीमीटर की टोपी और डेढ़ गज की लुंगी में काम चलाकर बीवी को दस गज का बुरका और साड़ी उपलब्ध करते रहे हैं । यदि समाज सेवा के कारण कभी पति को जेल जाना पड़ता है तो उसकी गद्दी पत्नी ही तो सँभालती है । इसके बहुत से उदाहरण हैं हमारे समाज में । अब यह तो बड़ी नाइन्साफ़ी है कि पति जिंदा है और पत्नी संसद में जा बैठे तो क्या बच्चों को दूध बाप पिलाएगा या खाना बनाकर पिता खिलाएगा ? पत्नी की खाना बनाने और बच्चे पालने की वोकेशनल ट्रेनिंग व्यर्थ नहीं जाएगी ? और पति को यह ट्रेनिंग हासिल करने में और समय लगाना पड़ेगा । क्या यह राष्ट्रीय समय और संसाधनों का अपव्यय नहीं है ? और अगर महिलाएँ सांसद बन गईं तो क्या बुरका पहन कर बहस करेंगीं । यदि बुर्का उतर गया तो उसके धार्मिक के साथ कई आर्थिक दुष्प्रभाव भी होंगे जिन्हें मनमोहन जैसे अर्थशास्त्री भी नहीं समझ रहे हैं । वस्त्र निर्माण उद्योग पहले से ही मंदी में चल रहा है तिस पर बुरका भी समाप्त हो गया तो सोचिए कि वस्त्र उद्योग का क्या होगा ?

ज़नाब, जब बकरे को काटा जाता है तो कोई भी बकरी यह नहीं कहती कि इनकी जगह मुझे काट लो । मज़े से दाना खाती रहती है ।

गुरु तो हम भी रहे हैं पर आपकी तरह धर्म-गुरु नहीं । वैसे गुरुओं की हालत आजकल कोई अच्छी नहीं है । आपके पास तो खैर फतवे का अधिकार भी है और जब तक जिंदा रहेंगे तब तक कुर्सी पर रहेंगे पर हमें तो इस सरकार ने साठ का होने के बाद एक दिन का समय भी नहीं दिया । भाई लोग एक छाता और टार्च भेंट में देकर घर छोड़ गए और कह दिया कल से स्कूल मत आना । हमारी भी कोई नहीं सुनता और हमें नहीं लगता कि आपकी बात पर भी नेता बनने की उत्सुक महिलाएँ ज़्यादा गौर करेंगी ।

हमने तो अभी से खाना बनाने की ट्रेनिंग लेनी शुरु कर दी है । वैसे हमारा एक सुझाव है कि आप सरकार से यह आग्रह करें कि जिसकी भी बीवी एक बार सांसद चुनी जाए उसके पति और उसके एक अटेंडेंट को ज़िंदगी भर संसद की कैंटीन में मुफ़्त खाना खाने और दिल्ली में रहने की सुविधा मिलेगी । अगर हम में से किसी की भी बीवी सांसद बन गई तो दोनों भाई मज़े से दिल्ली में रहेंगे और सांस्कृतिक कार्यक्रम देखा करेंगे । अपनी सीनियर सिटीजन बन चुकी बीवियाँ करती रहें नेतागिरी ।

१६-३-२०१०

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Jhootha Sach

Mar 17, 2010

मना करने का अधिकार

सोनिया जी,
नमस्ते । राजस्थानी में एक कहावत है- 'एक नन्नो सौ दुःख हरै' मतलब कि एक बार साफ मना कर देने से हज़ार समस्याएँ दूर हो जाती हैं । जो लोग सीधा उत्तर दे देते हैं उन्हें कम समस्याओं का सामना करना पड़ता है और उनका समय भी कम ख़राब होता है । कुछ लोगों में मना करने का साहस नहीं होता सो वे खुद भी परेशान होते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं । इसीलए इस संदर्भ में राजस्थान में एक और कहावत चलती है- 'दाता सें सूम भलो झट से उत्तर दे' । भिखारी का भी समय कीमती होता है । यदि कोई भीख देने की बजाय उसे उपदेश देने लग जाए तो चल लिया उसका तो धंधा ।

आज से कोई पैंतालीस बरस पहले की बात है । नौकरी लगे कोई तीन-चार साल ही हुए थे । हम पर कोई खास ज़िम्मेदारी तो थी नहीं । सो आदर्श की बातें सूझती थीं । एक बार एक हट्टा-कट्टा व्यक्ति हमारे घर भीख माँगने आ गया । हमने उसे श्रम का महत्व समझाना शुरु कर दिया । कहा- 'तुम हट्टे-कट्टे हो । क्या भीख माँगते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती ?' बोला- 'आती तो है पर साहब, शर्म करने से काम तो नहीं चलता । यह धंधा ही ऐसा है । अगर नेता झूठ नहीं बोले और वोट माँगने में शर्म करे या वोटरों के ताने सहकर भी हें, हें करके वोट के लिए निवेदन नहीं करता रहे तो काम कैसे चलेगा ? ऐसे क्षणों में स्वाभिमान को ताक पर रखना पड़ता है । सो हम भी शर्म करना अफोर्ड नहीं क रसकते । वैसे यदि आप मुझे काम दिलवा दें तो मैं सच कहता हूँ कि मैं उसी दिन से भीख माँगना छोड़ दूँगा' ।

उस समय हम सीमेंट फेक्ट्री के स्कूल में काम करते थे । उस समय ऑटोमेशन का ज़माना तो था नहीं । इसलिए फेक्टरियों में तीन-तीन, चार-चार हज़ार आदमी काम किया करते थे । कर्मचारियों का एक छोटा-मोटा क़स्बा सा ही बस जाया करता था फेक्ट्री के आसपास । स्कूल में मज़दूरों से लेकर अफसरों तक के बच्चे पढ़ते थे । हमने सोच किसी से भी कहेंगे तो एक आदमी की नौकरी लगाना कौन बड़ी बात है । सो हमने उसे कह दिया कि हम किसी से बात करेंगे ।

दो चार आदमियों से बात करने पर ही हमारा भ्रम दूर हो गया । पर उस हट्टे-कट्टे भिखारी ने हमारा पीछा पकड़ लिया । दो-चार दिन का गैप देकर वह हमारे घर आने लगा । अब तो हालत यह हो गई कि हम उससे आँखें चुराने लगे, उससे कन्नी काटने लगे पर वह था कि पीछे ही पड़ गया । अंत में हमें उसके सामने हाथ जोड़ कर, भीख जैसे पवित्र व्यवसाय की निंदा करने के अपराध के लिए माफ़ी माँगनी पड़ी । अब हम किसी काम को कमतर नहीं समझते । अब तो हमें चोर, दलाल, घूसखोर, घोटालिए- सबके काम बड़े मेहनत के लगने लगे । बस अपना ही काम मुफ़्त का माल पेलने का धंधा लगने लगा ।

माफ़ कीजिएगा । बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई । आप तो एक दम 'टू द पाइंट' बात करने वाली हैं और हम हैं कि रामायण लेकर बैठ गए । तो बात साफ़ उत्तर देने की हो रही थी । अब बजट की ही बात ले लीजिए । पहले बजट पेश किया जाता था । फिर सांसद उस पर चर्चा करते थे । किसी चीज पर दस प्रतिशत टेक्स बढ़ाया जाता था । कई दिन तक झिक-झिक चलती थी और फिर कहीं महीनों की बहस के बाद पाँच प्रतिशत पर सुलह होती थी । जैस कि दुकानदार पाँच की चीज के बीस बताकर मोल भाव करते-करते दस में दे देता है । अबकी बार भी सांसद यही सोच रहे थे । जैसे ही प्रणव दा ने डीजल के दाम बढ़ाने की बात की तो पहले से तय करके आया विपक्ष एक ही झटके में उठ कर चला गया । एक बार तो लगा कि पता नहीं किस तूफान का संकेत है । मन मोहन जी ने भी धीमे से कहा कि दाम बढ़ाना ज़रूरी है । प्रणव दा ने भी दाम बढ़ाने की मज़बूरी बताई । पर आवाज़ में दम नहीं था । इसके बाद जब आपने साफ़ कह दिया कि दाम काम नहीं किये जाएँगें तो सब की बोलती बंद हो गई जैसे कि भेड़ के कान पर जूती रख दी हो । कोई हल्ला गुल्ला कुछ नहीं । लगता है अब इस पर कोई बहस भी नहीं करेगा क्योंकि सब जान गए हैं कि पतनाला वहीं गिरेगा ।

ठीक है कि अब आप अच्छी हिंदी बोल लेती हैं पर ग्रास रूट वाली बातें समझाना आसान नहीं है । सो भेड़ के कान पर जूती रखने के बारे में बताते चलें कि भेड़ को नीचे पटक कर उसके कान पर जूती रख दी जाती है । भेड़ जूती के प्रभाव से चुपचाप पड़ी रहती है । इसके कुछ देर बाद धीरे से जूती उठा लेने के बाद भी भेड़ यही समझती रहती है कि उसके कान पर जूती रखी हुई है । और वह बिना जूती के भी पड़ी रहती है । भले ही जूती उठा ली जाए । सो आपने विपक्ष के कान पर जूती रख दी है । अब यह सत्र मज़े से कट जाएगा । आगे की आगे देखी जाएगी ।

आगे भी बजट पेश होंगें, और भी बड़े-बड़े फैसले होंगें । पर हमारा तो यही कहना कि काम करने वाले काम करेंगें । आप अकेली जान सारे काम कर भी नहीं सकतीं पर यह जो 'मना करने का अधिकार' है उसे अपने पास ही रखियेगा । यह अधिकार ही पावर की कुंजी है । इसके बारे में भी एक कहानी सुनाते चलें । इसलिए भी कि बैठकों में कोई भी जिंदा भूमिका नहीं निभाता । सब हाँ में हाँ मिलते हैं । कहानी सुनाना तो दूर की बात है ।

एक बार किसी घर में एक भिखारी आया । सास मंदिर गई हुई थी । बहू ने भीख देने से मना कर दिया । जब भिखारी वापिस जा रहा था तो रास्ते में उसे सास मिल गई । भिखारी ने कहा- 'माँजी, मैं घर गया था । आप तो थीं नहीं सो बहू जी ने मना कर दिया' । सास ने नाराज़ होकर कहा- 'वह कल की आई, आज से ही मना करने वाली हो गई । चलो मेरे साथ' । भिखारी को आस बँधी । आगे-आगे सास और पीछे-पीछे भिखारी । घर पहुँच कर सास ने कहा- 'दरवाजे पर रुको' । सास अन्दर गई और फिर दरवाजे पर आकर बोली- 'अब मैं कहती हूँ कि कुछ नहीं मिलेगा । जाओ' ।

सो यह है सास का अधिकार और सास का रुतबा । आपने इस विधा पर अच्छा अधिकार कर लिया है । ठीक भी है, आने वाले समय में घर में भी काम आएगा यह अनुभव । लोग सत्ता केंद्र को लेकर पता नहीं क्या-क्या बातें किया करते थे । और सारा नज़ला गिरता था बेचारे मनमोहन जी पर । हम भी भ्रम में थे । पर अब प्रणव दा और विपक्ष दोनों को ही बात समझ में आ गई होगी, वैसे भी और ऑफिशियली भी ।

ठीक भी है, जो है, वह साफ हो जाए तो क्या बुरा है- बहू को भी और भिखारी को भी ।

अब हमें भी जो लिखना होगा वह डाइरेक्ट आप को ही लिखेंगे क्योंकि अंत में फैसला तो आपको ही लेना है ।

११-३-२०१०

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Mar 12, 2010

थरूरफोर्ड अंग्रेजी-हिन्दी-अंग्रेजी डिक्शनरी

थरूर जी,
आपने बहुत सी किताबें लिखी हैं । ट्विट्टर पर भी टर्राते हैं, पत्रकार सम्मलेन को भी संबोधित करते हैं । पता नहीं, मीडिया वाले लोग आपको बनाते है या आप उनको । पर यह ज़रूर है कि आप जब भी मुँह खोलते हैं तो कोई न कोई विवाद खड़ा हो जाता है । रंडी, नेता, फिल्म वाले, लेखक, कवि आदि जितना विवादों में रहते हैं उतना ही कमाते हैं जैसे सलमान रुश्दी या राखी सावंत । आप तो खैर, वास्तव में लेखक हैं । विवादित होने पर तो मोनिका लेवेंस्की भी अपनी 'वह' लम्पट लीला लिख कर करोड़ों कमा गई । भले ही लोग आपको समझ न पाते हों पर अखबारों में आपका एक-एक शब्द कई दिनों तक चलता है । हमारे एक मित्र का एक शेर है-
जब तक एक विवाद रहा मैं ।
तब तक सबको याद रहा मैं ।

इससे पहले भी हमें आपको समझाने के लिए अपना अमूल्य समय देना पड़ा । अब देखिये न, होली मना रहे थे कि पता चला कि आपने सऊदी अरब में अंग्रेजी का एक शब्द बोल दिया और मीडिया वाले ले भागे । और हमें फिर आपको पत्र लिखना पड़ गया ।

इससे पहले भी 'केटल-क्लास', और नेहरू जी पर कमेन्ट के लिए झिक-झिक हुई थी । पता नहीं आपकी अंग्रेजी कुछ है ही ऐसी या आप जानबूझ कर ऐसे शब्द छाँट-छाँट कर लाते हैं । हमारे एक मित्र हैं । अंग्रेजी धड़धड़ बोलते हैं । वे लोगों को समझ में आने वाली अंग्रेजी भी बोल सकते हैं पर जब भी किसी को प्रभावित करना, डराना हो तो वे आपकी तरह की न समझ में आने वाली और विवादास्पद अंग्रेजी बोलते हैं ।जब महिलाएँ उपस्थित होती हैं तो वे 'संवाद' के लिए 'इंटरकोर्स' शब्द का प्रयोग करेंगे । वैसे 'इंटरेक्शन', 'डायलाग' शब्द सबके लिए सुविधाजनक हो सकता है । लोग उलझने से घबराते हैं सो नहीं बोलते ।
आपको हर बार अलग से समझाना पड़ता है कि आपके शब्द का मतलब यह था । इसमें सब का समय बर्बाद होता है और अंत में बात भूल में पड़ जाती है केवल विवाद याद रह जाता है । यदि आप कोई बात कहना चाहते हैं तो उसी शब्दावली में कहें जिसे लोग ढंग से समझ लें । यदि चर्चित होने के लिए कहते हैं तो आपकी मर्जी । पर कभी-कभी चर्चित होने का चस्का महँगा पड़ जाता है । नाम के चक्कर में केवल बदनाम होकर ही पीछा नहीं छूटता, कई बार पिटाई भी हो जाती है ।

'आम' शब्द का एक पर्यायवाची बड़ा अप्रचलित सा और स्त्री के किसी अंग विशेष के लिए रूढ़ हो चुका है तो कोई भी उसे 'आम' के स्थान पर यूज नहीं करता । क्या आप बाज़ार में किसी आम बेचने वाली से आम के 'उस' पर्यायवाची शब्द का उपयोग करते हुए आम माँगने का साहस दिखाएँगे ? यदि ऐसा किया तो क्या होगा यह आप भी जानते हैं और हम भी । लोग पिटाई पहले करते हैं और बाद में पिटित व्यक्ति से ही पूछते हैं कि बता मैंने तुझे क्यों पीटा । भाषा के दादा कोंडके सिद्धांत को मानने वालों के पास ऐसे बहुत से शब्द होंगे जो कानूनी रूप से भले ही ठीक हों पर प्रचलन में भयंकर अर्थ देते हैं ।
भाषा के बारे में आपको ही नहीं बहुत से लेखकों को यह भ्रम है कि अप्रचलित और कठिन शब्दों के प्रयोग से रचना श्रेष्ठ हो जाती है । बड़े-बड़े तीस मार खाँ पुस्तकालयों में धरे रह गए और कबीर अपनी सादगी के बल पर आज भी लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं । सो लोगों से बात करनी है तो लोग की शब्दावली में करें ।

हमारे गाँव में एक बनिया था । उसके पास कोई पूँजी नहीं थी और न ही व्यापारिक बुद्धि । उसने एक दुकान कर रखी थी जिसमें ऐसी चीजें रखता था जो कभी-कभी ही किसी को ज़रूरत पड़ती थी । उसकी दुकान टूटी-फूटी सी थी । उसे किसी सजावट की ज़रूरत भी नहीं थी क्योंकि उसके पास स्वाभाविक रूप से तो कोई आता ही नहीं था । जब अड़ जाती तो आता था । सो वह भिड़ते ही ग्राहक को कहता- देख कर आ गए सब जगह । कहीं नहीं मिली ना । अब सुन, इसके इतने रूपए लगेंगे, तेरी सात बार गरज पड़े तो ले जा । बेचारा ग्राहक क्या बोले । और मोल-भाव करने का तो प्रश्न ही नहीं ।

स्वाभाविक है, ऐसे दुकानदार के यहाँ ग्राहकों की भीड़ होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । ग्राहक भूले भटके ही आते । न ही दुकान में ऐसी कोई चीज जिसे कोई जानवर, चिड़िया, चूहे या मक्खियाँ खा सकें । न महिलाओं और न ही बच्चों के मतलब की कोई चीज । सो उस बनिए को समय ही समय ही रहता । जब चाहे बिना बात ही बाज़ार में घूमता रहता । एक हिन्दी-इंग्लिश-डिक्शनरी पता नहीं कहाँ से उसके पास आ गई । दुकान में तो कोई काम था नहीं सो सारे दिन उसे पढ़ता रहता । नए-नए शब्द ढूँढ़ता रहता और जो अपने को पढ़ा-लिखा समझते थे उनसे सबके सामने पूछता था- देखिये साहब, मैं कोई ज्यादा पढ़ा-लिखा तो हूँ नहीं । एक शब्द समझ में नहीं आ रहा था । आप बता दें तो बड़ी मेहरबानी होगी । पुराने लोग तो जानते थे पर अगर कोई नया आदमी फँस गया तो तमाशा बनकर जाता था ।वह किसी ऐसे हिंदी शब्द का अंग्रेजी समानार्थक पूछता जिसका प्रयोग करने की न तो किसी लेखक को ज़रूरत पड़ी होगी और न ही किसी मास्टर के पढ़ाने में आया होगा । निरुत्तर और शर्मिंदा होने के अलावा कोई चारा नहीं बचता । लोग उससे कन्नी काटने लगे । आपके साथ भी कहीं ऐसा ही न हो कि लोग आपके पत्रकार सम्मलेन में ही न आएँ या आपका समाचार ही न पढ़ें या आपको उस बनिए की तरह समझने लगें ।

वैसे एक और तरीका भी हो सकता है कि आप अपनी एक डिक्शनरी छपवा लें और आपके सम्मलेन में पत्रकारों को सप्रेम और निःशुल्क बँटवा दें जिससे वे किसी शब्द का वही अर्थ समझें जैसा कि आप चाहते हैं । किसी शब्द का अर्थ समझ में न आने पर उसे कंसल्ट कर लें । इससे आपका प्रचार भी होगा और विवाद भी नहीं होगा वरना तो लोगों को अपने शब्दों का अर्थ समझाते-समझाते आपकी हालत हमारे एक परिचित जैसी हो जाएगी । उनका तकियाकलाम था- 'मतलब कि' । कुछ इस तरह बोलते । 'भाइयो मतलब कि बहनो, मैं मतलब कि आपके सामने बोलने के लिए मतलब कि खड़ा हुआ हूँ' यह तो और भी विचित्र भाषा हो जाएगी ।

होली वाले दिन हमने आपके शब्द 'इंटरलोक्यूटर' को सुनने के बाद अपनी पत्नी से बात की । वह आप से भी बड़ी अंग्रेजी की विद्वान है । आप तो खैर, अंग्रेजी बोलते ही हैं वह तो पोते-पोतियों को शू-शू तक अंग्रेजी में करवाती है । सो हमने पत्नी से कहा- आप को समय हो तो आप हमारी इंटरलोक्यूटर बन जाओ । पत्नी ने उत्तर दिया- तुम्हें इस उम्र में भी फालतू बातें सूझती हैं । यह कोई उम्र है इन बातों की । आप समझते थे कि इस शब्द से बड़ी दूर की कौड़ी लाए हैं और देख लिया न हमारी वरिष्ठ नागरिक पत्नी ही समझ गई । हमने भी उस समय से साहित्य की टाँग तोड़नी शुरु कर दी थी जब आप यू.के.जी. में जाने लगे थे । हम संयुक्त राष्ट्र संघ न जा सके पर वैसे हमें कई संघों का अनुभव है । अगर ध्यान से समझने की कोशिश करेंगे तो 'इंटर लोक्यूटर' का अर्थ मध्यस्थ ही निकलेगा वरना कोई पूछने वाला हो तो पहले तो सउदी अरब गए ही क्यों थे और फिर वहाँ यह चर्चा की ही क्यों । अरे भाई, ऐसे ही इशारों में बात की जाती है । गाँव में बहू या सास ऐसे ही गाय-बकरी के बहाने एक दूसरे को सुनाती रहती हैं।

सो भाई जान, अगर इण्डिया में अंग्रेजी बोलनी ही है तो थोड़ा लालू जी की संगति करें । जिससे नाराज़ होना तो दूर की बात है बल्कि आपकी अंग्रेजी से लोगों का मनोरंजन ही होगा । आगे आपकी मर्जी । पर अब हम से और पत्र की आशा न करें । हमें और भी ज़रूरी काम हैं आपके फटे में टाँग फँसाने के अलावा ।

गए थे मनमोहन जी के साथ तो आराम से खाते-पीते और परचेजिंग करके चले आते और टी.ए., डी.ए. का बिल सबमिट कर देते और बात ख़त्म ।

३-३-२०१०

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Jhootha Sach

Mar 11, 2010

दरोगा जी, चोरी हो गई

हेमा जी,
नमस्ते । सोचा था आपको होली की बधाई देंगे पर बधाई देने से पहले ही धुलेंडी वाले दिन ही समाचार पढ़ा कि आपके यहाँ चोरी हो गई । चोरी भी छोटी-मोटी नहीं पूरे अस्सी लाख की । आजकल तो खैर अस्सी लाख की कोई कीमत ही नहीं रह गई है । आजकल की हीरोइनों को न तो नाचना आता और न ही एक्टिंग, पर पैसे लेती हैं कस कर । दस-दस करोड़ एक-एक फिल्म के । आपके ज़माने में तो इसका दसवाँ हिस्सा ही मिलता होगा एक फिल्म का । आपको तो फ़िल्में छोड़े भी कई बरस हो गए । अब तो नृत्य का ही सहारा है । नाच का पैसा बहुत मेहनत का होता है। एक दिन नाचो तो एक हफ्ते कमर दर्द करती है । वैसे शादी के बाद तो महिलाओं का काम नाचने से ज्यादा पति को नचाने का रह जाता है । पर धरम जी को इतनी दूर से नचा पाना संभव नहीं है और फिर उनको नचाने वाली आलरेडी मौजूद है । अब बुढ़ापे में दो-दो के लिए नाचना बस का भी कहाँ रह जाता है । हम भी पचास बरस से अपनी पत्नी का नचाया नाच, नाच रहे हैं इसलिए जानते हैं कि नाचने में कितना दम लगता है ।

वैसे तो पिछले दो बरस से हम और हमारा मित्र तोताराम आपकी इज्ज़त बचाने की गुहार पर भागते दौड़ते रहे हैं । अब हमने सोच लिया था कि बिना बात भागना दौड़ना ठीक नहीं है इस बुढ़ापे में । पिछली बार आप पटना गईं तो लोग प्लेन में घूर रहे थे । तब भी हमने आपको पत्र लिखा था । इसके बाद सोचा था कि अब आप जानें और आपका काम जाने । वैसे शशि थरूर जी भी उलटे-सीधे बयान देकर हमें, अपना अमूल्य समय ख़राब कर, पत्र लिखने के लिए मज़बूर करते रहते हैं । उनको भी हमने मना कर दिया कि भई, अब हम कहाँ तक सलाह देंगे । जो बोलो सो खुद ही भुगतो । हमसे आशा नहीं करना ।

पर अब आपका मामला ज़रा वास्तविक संकट का है सो आपको कुछ सलाह देने के लिए पत्र लिख रहे हैं । वैसे कई अभिनेत्रियों को हमने सुना है- कोई अपना झुमका गिरा देती है, तो कोई सरे राह ज़ोर-ज़ोर से गाती हुई जाती है 'दरोगा जी चोरी हो गई', किसी का भरतपुर लुट जाता है । पर हमने गहन अध्ययन के बाद पाया है कि ये सब मामले इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं क्योंकि जिसको चोर समझा जाता है वह थानेदार निकल आता तो उस मामले में तो कोई भी कुछ नहीं कर सकता । ये सभी घटनाएँ दिन का चैन और रात की नींद चुरा लेने जैसे ही आध्यात्मिक मामले हैं । पर आपका मामला वास्तविक चोरी का है ।

चोरी के मामलों में सरकार और समझदार लोगों का यही कहना है कि इतना रखते ही क्यों हैं कि चोरी होने की नौबत आ जाए । खुद तो कुछ कर नहीं पाते और अपनी कमी को ऐसे बहानों से छुपाते हैं । जैसे कि आस्ट्रेलिया के एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि भारतीय छात्रों पर हमले इसलिए हो रहे हैं कि वे ठाठ-बाट से रहते हैं । कोई बात हुई । पर क्या किया जाए - 'जाके पैर न फटी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई' ।

इस संकट के बारे में हम जानते हैं । हमारे एक मित्र के यहाँ चोरी हो गई । उन्होंने कोई रिपोर्ट नहीं की । थानेदार को पता चला तो वे खुद चल कर आए और कहने लगे आपने रिपोर्ट नहीं की । खुद ही कहने लगे- किसी पर शक हो तो बताइए । हमारे मित्र को पता था कि होना जाना कुछ है नहीं । यदि ज़रा सा इशारा भी कर दिया तो ये महाशय उससे कुछ न कुछ ज़रूर झटक लेंगे । बिना बात अपना उस सज्जन से बैर और हो जाएगा । तो उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया ।

संयोग की बात, किसी एक और सज्जन के यहाँ चोरी हो गई । वे किसी मंत्री के रिश्तेदार हैं सो चोर पकड़ा गया । उसने हमारे मित्र वाली चोरी भी कबूल ली । अब तो थानेदार जी ने हमारे मित्र को भी बुलाया । चाय पिलाई और बड़ा आदर सम्मान किया, सारी बात पूछी और फिर कभी बुलाने की बात कह कर भेज दिया । हमारे मित्र तो एकदम से पुलिस के भक्त हो गए । कहने लगे लोग बिना बात ही पुलिस वालों को बदनाम करते हैं ।

इसके दो-चार दिन बाद थानेदार जी ने हमारे मित्र को फिर बुलाया । उस समय थाने में थानेदार जी अकेले ही थे । बड़ी तसल्ली से बातें हुईं । कहने लगे- मास्टर जी आप तो भले आदमी हैं, इन चोरों और पुलिस के चक्करों के बारे में कुछ नहीं जानते । एक बात-इस चोर के घर से कुछ भी बरामद नहीं हुआ है । दूसरी बात- इस चोर ने आपका माल जिस सुनार को बेचा है उसका भाई एक बड़ा वकील है । उस सुनार का भी कुछ नहीं लगने वाला है । और ऐसे केस बरसों चलते रहते हैं और होता-जाता कुछ नहीं । आप बिना बात तारीखें भरते फिरोगे । अच्छा होगा कि आप समझौता कर लो । वह सुनार आपके एक लाख के नुकसान की पूरी भरपाई तो नहीं कर सकता पर वह पच्चीस हज़ार दे सकता है । मतलब कि तीन चौथाई तो गया । एक भाग थानेदार जी का, एक भाग सुनार का, एक भाग चोर का । और एक भाग हमारे मित्र का । क्या बढ़िया न्याय है ।

थानेदार ने न्याय के रास्ते में इतनी बाधाएँ बताईं कि हमारे मित्र ने समझौता करना ही बेहतर समझा । इसके बाद थानेदार जी ने कहा- मास्टर जी , अपराधी को हिरासत में रखने के नाम पर सरकार कुछ नहीं देती । मैं इसे कई दिन से रोटी खिला रहा हूँ अपने घर से । अब मेरी भी कुछ भरपाई कीजिए । और फिर हमने आपका काम भी तो किया है । मतलब कि थानेदार ने और पाँच हज़ार झटक लिए । इस प्रकार में एक लाख में से बीस हज़ार हमारे मित्र को मिले । सो यह है पुलिस का समझौता और न्याय ।

आप वाले समाचार के अगले दिन यह भी पढ़ा कि पहले किस-किस फिल्म वाले के यहाँ चोरी हुई पर मज़े की बात यह है कि यह नहीं बताया कि इनमें से किस-किस की चोरी वापिस आई । आप और धरम जी दोनों ही एम.पी. रहे हैं।
इसलिए समाचार भी आ गया । जब आप थाने गई होंगीं तो उसने बात भी बहुत अच्छी तरह से की होगी । पर सबके साथ ऐसा नहीं होता । बेचारी प्रीती जिंटा भी गई थी इन्हीं दिनों थाने, पर उसे चार घंटे बैठाए रखा और पता नहीं रिपोर्ट लिखी गई या नहीं । ये पुलिस वाले बड़े रसिक प्राणी होते हैं, इस बहाने ही हीरोइनों के दर्शन करते रहते हैं । पर कुछ करने के नाम पर अपनी पुलिस की आचार-संहिता पर आ जाते हैं । यह स्टेटमेंट लेने तक ही सीमित है । पुलिस को स्टेटमेंट लेने की इतनी ज़ल्दी रहती है कि कई ग़रीबों के तो स्टेटमेंट देने का इंतजार भी नहीं करते, ज़बरदस्ती ही स्टेटमेंट ले लेते हैं । पुलिस की आचार-संहिता को तो इस देश में सभी जानते ही हैं । अब आपको भी पता लग गया होगा कि समाज भाजपा के पाँच साल के शासन के बाद भी भूख, भय और भ्रष्टाचार से कितना मुक्त हो पाया है ।

हम आप से यह तो नहीं कह सकते कि प्रोग्राम नहीं करें । भई, प्रोग्राम नहीं करेंगी तो घर कैसे चलेगा । बस यह है कि घर में कीमती चीजें नहीं रखें । हम तो आपने पुराने जूते और चड्डी बनियान भी रात को अन्दर लेकर ताला लगाकर रखते हैं । इस देश में चोरों का स्तर कुछ ज्यादा ही गिर गया है । चोर भी क्या करें जब एम.पी. तक एक हज़ार की रिश्वत में प्रश्न पूछते हों । इस समस्या का तो एक ही सरल हल है कि घर में आपकी अनुपस्थिति में कोई रहे । कायदे से तो दिलावर भाई, हमारा मतलब कि धरम जी, को रहना चाहिए । अब वैसे भी फिल्मों की तो कोई व्यस्तता रह नहीं गई है । पर इसकी संभावना भी कम ही है कि प्रकाश भाभी उन्हें इज़ाज़त दे देंगी ।

इस चोरी को लाइम-लाईट में लाने और माल वापिस लाने का एक गाँधीवादी तरीका हमें समझ में आ रहा है । अगर वीरू पानी की टंकी पर चढ़ जाए और यह घोषणा कर दे कि जब तक चोरी का माल वापिस नहीं आएगा तब तक मैं टंकी पर से नहीं उतरूँगा । जब इस ट्रिक से बसंती हासिल हो सकती है तो यह अस्सी लाख का माल क्या बड़ी चीज है ।

बस, उन्हें यह ज़रूर कह दीजियेगा कि टंकी पर सावधानी से चढ़ें और कूदने का नाटक ज्यादा न करें । क्या पता वास्तव में ही गिर पड़ें क्योंकि अब वह उम्र भी तो नहीं रही ।

अंत में हम भगवान से फिर प्रार्थना करते हैं कि आपका माल मिल जाए । बड़ी पसीने की कमाई है, जी ।

४-३-२०१०


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Mar 9, 2010

माई नेम इज नोट खान


( कश्मीर से भाग कर आतंकवादी बन गए तथाकथित भटके भाइयों के लिए उमर अब्दुल्ला और चिदंबरम की पैकेज की योजना- १२-२-२०१० )

३ फरवरी २०१० को हम और तोताराम अच्छे तालिबान बनकर काबुल में अमरीकी सेना के प्रमुख से पैकेज लेने गए । हमने सोचा ही नहीं था कि अमरीका से कुछ लेना कितना कठिन हो सकता है । पैकेज मिलना तो दूर पाकिस्तानी सीमा सुरक्षा बल के हाथों किराए के रुपए और भारतीय सीमा सुरक्षा बल को कम्बल सौंप कर दो बुद्धू मास्टरों ने भारत में प्रवेश किया यानि कि हम और तोताराम सीमा पार कर पंजाब में आ गए । यह तो सुना था कि लौट कर बुद्धू घर को आते हैं पर यह पता नहीं था कि बुद्धुओं को घर लौटने में कितना समय लगता है । नौकरी की तो घर के आसपास सो घर लौटने में कभी कोई परेशानी नहीं आई । ज्यादा से ज्यादा यही हुआ कि एक की जगह दो बसें बदलनी पडीं ।

इस बार घर लौटने में एक नई बात थी । रुपयों का नुकसान और मूर्ख बनने का दुःख । मूर्ख तो खैर ज़िंदगी में बहुत बने पर यह मूर्खता या तो नेताओं के आश्वासनों पर विश्वास करने या किसी चीज़ के पैसे ज्यादा देने तक ही सीमित रही । या फिर ज्यादा से ज्यादा यह हुआ कि किसी बच्चे ने झूठा बहाना बनाकर छुट्टी ले ली । इस तरह के मूर्ख बनाए जाने का अवसर पहली बार आया था । किसी को बताते हुई भी शर्म आ रही थी । जेब में पैसे नहीं । सुदामा जिस तरह पोरबंदर से द्वारका गए थे- रास्ते में माँगते खाते, कुछ वैसे ही यात्रा करने की हमारी नौबत आ गई थी । कहीं गुरुद्वारा मिलाता तो वहाँ लंगर खा लेते । दाढ़ी बढ़ गई थी । कम्बल के अभाव में कभी तौलिया तो कभी गमछा या कभी कभी तो पायजामा ही कानों पर लपेट कर ठंड से बचते रहे । रात को ठहरने की कोई सुविधा न होने और रात की कड़ाके ठंड से बचने के लिए रात को यात्रा करना ठीक समझा गया ।

रास्ते का पता नहीं था । दिशासूचक यन्त्र भी हमारे पास नहीं था । जब देश को चलाने वालों को ही दिशा का ज्ञान नहीं हो तो उनके अनुयायी हम अच्छे नागरिकों को दिशा का ज्ञान कैसे हो सकता था । पर हिम्मत बाँध कर कोलंबस की तरह चलते गए । कभी तो हिंदुस्तान का किनारा दिखाई देगा । जब चलते-चलते कोई आठ-दस दिन हो गए तो किसी स्थान पर पहुँचे । पूछा तो पता चला कि हम कश्मीर में हैं । थोड़ा आगे चलने पर देखा कि एक धार्मिक स्थान के अन्दर से गोलियाँ चल रही हैं । धार्मिक स्थान को बचाने के चक्कर में सेना और पुलिस के कई जवान शहीद हो रहे थे । उनसे कुछ दूर पर एक टेबिल कुर्सी लगाए कुछ लोग बैठे हुए थे ।

टेबल कुर्सी लगाए उन लोगों को किसी तरह का कोई डर नहीं लग रहा था । वे बहुत ही शांत चित्त से बैठे हुए थे । हमनें साहस करके पूछा- साहब, आप यहाँ से हट क्यों नहीं जाते । गोलियाँ चल रही हैं, कहीं कोई गोली प्रसाद स्वरूप आपकी तरफ आ गई तो मुश्किल हो जाएगी । उनमें से जो जवान सा दिख रहा था, बोला- नहीं ऐसा नहीं हो सकता । हमारी तरफ ये गोलियाँ कभी नहीं आतीं । ये तो साधारण लोगों को ही लगती हैं । हम तो जन सेवक हैं । इन गोलियों से हम नहीं मरते ।

हमने फिर कहा- पर यहाँ बैठे रहने से क्या फायदा । कहीं दूर जाकर बैठ जाइए । वे बोले हम यहीं रहेंगे । हम एक मिशन पर हैं । हम इन आतंकवादियों मतलब कि भटके हुए भाइयों को राष्ट्र की मुख्य धारा में मिलाने और उन्हें माफ़ करके पैकेज देने आए हैं ।

अब हमारी कुछ हिम्मत बढ़ी क्योंकि हमें भी तो पैकेज का कुछ अनुभव हो चुका था, भले कटु ही सही । हमने कहा- पर ये तो गोली चला रहे हैं । पैकेज तो समर्पण करने और माफ़ी माँगकर मुख्य धारा में लौटने वालों को दिया जाता होगा ना । क्या इन लोगों ने आप से माफ़ी माँग ली है । वे बोले- नहीं । ये लोग कभी माफ़ी नहीं माँगते । हम ही इन्हें पकड़ कर ज़बरदस्ती माफ़ी दे देते हैं । आप तो जानते ही हैं कि हमारे शास्त्रों में लिखा है-
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात ।
सो ये उत्पात कर रहे हैं और हम इन्हें क्षमा कर रहे हैं । अगर ये क्षमा नहीं माँगेंगे तो हम किसी और तरीके से इनके नाम और पते मालूम करके इनके नाम से पैकेज बना कर इनके घर पहुँचा देंगे । पैकेज दिए बिना काम चलने वाला नहीं है । पहले भी पाँच-छः साल पहले पैकेज दिया था । अब उसके पैसे इनके पास ख़त्म हो गए । अब फिर पाँच साल के लिए पैकेज देना है । पहले भी इस देश सेवा के काम के लिए चौबीस हज़ार करोड़ का पैकेज मिला था । अब महँगाई बढ़ गई है सो कम से कम पचास हज़ार करोड़ का पैकेज तो देना ही पड़ेगा ।

हमने कहा- भाई जान, इतना पैसा कहाँ से आएगा । पहले ही देश कर्ज़े में डूबा हुआ । मंदी की मार अलग से चल रही है । वे बोले- पैसे की ऐसे कामों के लिए कमी नहीं है । और फिर जिसे कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बना कर रखना है वे टेक्स बढ़ाकर भी कहीं न कहीं से देंगे ही । और फिर इसमें उनके बाप का जाता भी क्या है ।

हमने सोचा- यहाँ पैकेज की शर्तें आसान लगती हैं । देने के लिए टेबल लगा कर बैठे हैं । क्यों न यहीं किस्मत आजमाई जाए । काबुल न सही कश्मीर सही । हमने कहा- भाई साहब, जब तक वे भटके हुए भाई साहब धार्मिक स्थान से बाहर नहीं निकलते और पैकेज देने के लिए आपकी पकड़ में नहीं आते तब तक इस शुभ कार्य का आरम्भ हमीं से कर लीजिए ।

उसने हमारी तरफ घूर कर देखा और पूछा- तुम्हारा नाम क्या है ? उत्तर तोताराम ने ही दिया- 'माई नेम इज पंडित तोताराम' । वह पैकेज वितरक कुछ नाराज होकर बोला- साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते- 'माई नेम इस नोट खान' । तुम पंडित लोगों को तो हमारे भटके भाइयों ने भगा दिया था । अब क्यों एक गोली ख़राब करवाने और प्रशासन को बदनाम करवाने आए हो । एक ट्रक जम्मू जा रहा है उसमें बैठावा देते हैं वहाँ से दिल्ली की सीधी गाड़ी मिलेगी । वहाँ एम्स के सामने कई पंडितों को छोटी-छोटी दुकानें दे रखी हैं और वहीं कहीं आसपास उनके केम्प भी होंगे । वहाँ से कुछ मदद की व्यवस्था हो सके तो ले लेना । और फिर जब राहुल गाँधी, सचिन और आशा भोंसले सभी ने कह दिया है कि मुम्बई सभी की है तो यहाँ कश्मीर में ही क्या रक्खा है? मुम्बई में जाकर बस जाओ । अगर ठाकरे साहब बसने दे ।

हमने सोचा- यहाँ से तो निकलें फिर चाहे कुँए या खाई कहीं गिर पड़ें । और हम और तोताराम उन पैकेज वितरकों को धन्यवाद देकर ट्रक में चढ़ गए ।

८-३-२०१०

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Mar 8, 2010

सोनिया जी, नो फिकर, नो चिंता


सोनिया जी,
नमस्कार । आपने बजट के बाद विपक्ष के डीजल और पेट्रोल के दाम घटाने की चूँ-चपड़ पर साफ़ कह दिया कि दाम नहीं घटेंगे । अब बजट कोई तमाशा है क्या ? प्रणव दा ने बड़ी मुश्किल से तो बजट बनाया । अब बिना बात इसमें संशोधन करने में और महीना-बीस दिन लगाएँ । ये लोग समझते तो हैं नहीं । बिना बात विकास को और लेट करना चाहते हैं । अगर विकास होगा तो महँगाई तो बढ़ेगी ही । जब इस देश में महँगाई नहीं थी तो कहाँ था अपना देश इतना विकसित । जब एक रुपये में चार इडली और सांबर या एक रुपये में चार पूरियाँ और सब्जी आ जाती थी तो मज़ा ही नहीं आता था । अब जब पच्चीस रुपए में एक किलो आटा आता है तो आधी भूख तो भाव सुनकर भाग जाती है और जो थोड़ी बहुत बचती है वह एक रोटी में ही ख़त्म हो जाती है ।

२२ जनवरी को एक अखबार में समाचार पढ़ा कि आप महँगाई को लेकर चिंतित हैं । सचमुच हम आपकी चिंता को लेकर चिंतित हो गए । फिर कुछ दिन तक कोई समाचार नहीं छपा तो तसल्ली हुई कि शायद आप सामान्य हो गई होंगीं । फिर ५ फरवरी को अखबार में पढ़ा कि कांग्रेस कार्य समिति ने भी चिंता जताई है महँगाई पर । उस समाचार के साथ आपका और मन मोहन सिंह जी का फ़ोटो भी छपा था । फ़ोटो क्या था बस दिल को हिला देनेवाला दृश्य था ।आप वैसे भी गंभीर ही रहती हैं । कुछ लोग इसे आपका गंभीर पोज मान सकते हैं पर हमें अनुभव हुआ कि आप वास्तव में ही बहुत चिंतित हैं ।

मन मोहन जी तो ऐसे लग रहे थे जैसे पिछली रात से ही ज़ार-ज़ार रोते रहे हैं । फ़ोटो देखकर हमारा मित्र तोताराम तो दहाड़े मार कर रोने लगा । संवेदनशील होना अच्छी बात है पर राजा के लिए ज्यादा संवेदनशील होना भी ठीक नहीं ।

इंदिरा जी भी आपकी तरह गंभीर रहती थीं । हमने उनको तब दिल से हँसते देखा था जब राकेश शर्मा ने पृथ्वी के चक्कर लगाते हुए उनके प्रश्न- 'अंतरिक्ष से भारत कैसा लगता है?' का उत्तर दिया था- 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' । और आपको तब हँसते हुए देखा था जब शक्ति कपूर कांग्रेस में शामिल हुए थे । इन दो अवसरों के अलावा आप दोनों ही शांत चित्त दिखती रही हैं । राजा को जितेन्द्रिय होना चाहिए । उसके मनोभावों का किसी को पता नहीं लगना चाहिए । हमारा आप से यही कहना है कि आप किसी भी दशा में चिंतित न हों । राजा के चिंतित होने से जनता तो रोने ही लग जाती है । १९६५ में जब भारतीय सेनाएँ लाहौर तक पहुँच गई थीं तब भी पाकिस्तान रेडियो यही कहता रहा कि उनकी सेनाएँ बहादुरी से आगे बढ़ रही हैं । सो भले ही धोती की जगह जनता रूमाल से इज्ज़त ढंकने को मज़बूर हो जाए पर सरकार को कहते रहना चाहिए कि इस साल जी.डी.पी. दस प्रतिशत रहने की संभावना है । देश की अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है । और शीघ्र ही हम एक विश्व शक्ति बनने वाले हैं ।

आप तो १९६७ में भारत आईं और मन मोहन जी भी भारत की बजाय विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सेवा ही अधिक करते रहे । भारत में रहे भी तो दिल्ली में रहे । पर हमने तो उस भारत को देखा है जिसे गाँधी और नेहरू जी ने आज़ादी की लड़ाई शुरु करने से पहले घूम-घूम कर देखा था । और अब राहुल बाबा जिसे गाँवों में खोजते फिर रहे हैं और वह पट्ठा है कि नज़र ही नहीं आ रहा है । यह भारत बड़ा शर्मीला है । किसी अनजान आदमी के सामने अपना दिल खोलता ही नहीं बल्कि बढ़-चढ़ कर, उधार लेकर भी उसका स्वागत करने लग जाता है । सामने वाला समझता है कि इसे तो कोई तकलीफ ही नहीं है । वास्तव में ऐसी बात नहीं होती है । इसे तो इसके नज़दीक रहने वाला ही जान सकता है ।

यह भारत वास्तव में बड़ा गरीब है पर स्वागत, शादी, मृत्यु-भोज में कर्ज़ा लेकर भी खर्च कर देता है और फिर बरसों तक रोता रहता है । इस भारत की सहनशक्ति, धीरज और जीवनी-शक्ति भी गज़ब की है । जितना पानी एक खाता-पीता आदमी दाढ़ी बनाने में खर्च कर देता उतने पानी में यहाँ पूरा परिवार एक हफ्ते काम चला लेता है । आधी और रूखी में ही काम चला लेता है । तभी कबीर जी ने कहा है- आधी और रूखी भली । भले ही जयललिता को साढ़े सात हज़ार सेंडिलों और चप्पलों से भी तसल्ली न होती हो पर हम जिस आदमी की बात कर रहे हैं वह एक हवाई चप्पल में ही साल-दो साल निकाल देता है और वह भी न हो तो भी इसका कुछ नहीं बिगड़ता । एक हरी मिर्च से ही सारा परिवार रोटी खा सकता है । वह न हो तो नमक से भी खा लेता है । कोई हरी सब्जी और दूध-दही नहीं चाहिएँ । इतना कम भोजन करके भी इसका अस्तित्व खतरे में नहीं पड़ता बल्कि इसकी संख्या बढ़ती ही जा रही है । यह कभी कोई क्रांति और विरोध नहीं करता । यह जो आजकल थोड़ा बहुत दिख रहा है वह इन लोगों की तरफ से नहीं है । यह तो कुछ काम चोर और भरे पेट वालों का फैताल है जैसे कि कश्मीर में । जो केंद्र से मोटा पैकेज लेकर थोड़े दिन चुप हो जाते हैं । इसके बाद फिर चालू ।

कोई बड़ा आदमी इनके बीच कभी-कभी चला जाए, इन्हें दर्शन दे दे, मीठी-मीठी बातें कर ले, यही बहुत है । कोई स्केंडल कभी-कभी हो जाए तो यह महीनों तक उसी से मज़े लेकर दिन काट देता है । कीमतें बढ़ना तो बहुत छोटी सी बात है । नरेगा में गया पति यदि शाम को आधे पैसे की दारू पीकर आ जाए और पत्नी की पिटाई भी करे तो भी वह उसके लिए करवा चौथ का व्रत करती है । अगर पति कुछ काम भी न करे और पत्नी नरेगा में हाड तोड़ कर शाम को एक सौ रूपए लाए और पति उन्हें भी दारू पीने के लिए ले जाए तो भी गृहस्थी चलती रहती है । यह है इस भारत का कमाल । यदि दारू पीकर कोई मर भी जाए तो भी मुआवजा मिलने पर खुशी मनाई जाती है और सरकार का शुक्रिया अदा किया जाता है । हमारा तो मानना है कि यदि इस देश में एक ही चीज़- दारू की आपूर्ति ठीक-ठाक होती रहे तो यह जनता कुछ भी नहीं बोलेगी और सुहावने सपने देखती रहेगी । अगर कभी-कभी कोई धोती-वितरण, भंडारा आदि हो जाएँ तो फिर तो 'जय हो' । जनता की इसी शांतिप्रियता के बल पर ही तो एक हज़ार साल तक मुसलमानों और अंग्रेजों ने यहाँ राज कर लिया । अगर अंग्रेज अभी तक भी नहीं जाते तो भी कोई बात नहीं थी पर जब उन्होंने समझ लिया कि धन कमाने का काम तो ग्लोबल मार्केट के नाम पर दूर रह कर भी किया जा सकता है तो फिर क्यों इस झंझट में पड़ा जाए ।

हमारा उद्देश्य भारत का इतिहास बताना और उसको कमतर आँकने का नहीं था । हम तो इस देश की आम जनता की मनोवृत्ति की चर्चा कर रहे थे । आप तो ईमानदारी से विकास करती रहिए । जनता अपनी सोचेगी । कभी न कभी तो इस विकास का कोई फल इस देश की जनता को भी मिलेगा ही । अगर इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में । अगले में नहीं तो उससे अगले में । ये तो पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं । ये तो यह भी मानते हैं कि 'हानि-लाभ,जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ' । अब यह भी मान लेंगे कि-
रोटी-पानी, सुरक्षा, शिक्षा और इलाज़ ।
विधि-बस तो क्यों हों भला राजा से नाराज़ ।

इसलिए आप तो चिंता छोड़िए । जो कुछ कर सकें, करें । कहा भी है-
चिंता चिता समान है, चिंता चित ना देय ।
जो बनि आवे सहज में, ताही में चित देय ।

धन्यवाद ।
७-३-२०१०

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