Aug 30, 2009

रास्ते में अटकी उपलब्धियाँ - पुस्तक


तोताराम के कई लेख समाचारपत्रों में छपते रहे, अब उनको पुस्तक रूप दिया है, ताकि सीकर से बाहर भी लोग इसका लुत्फ़ उठा सकें ।
पुस्तक में जो लेख हैं वे ब्लॉग पर नहीं डाले गए हैं, सो नई रचना का मज़ा पूरा बना रहेगा । कुछ लेख स्कैन कर के पोस्ट रूप में आयेंगे, और पुस्तक का आंशिक रूप देखने के लिए यहाँ क्लिक करें । पुस्तक प्राप्ति का तरीका इसी लिंक पर है ।






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Jhootha Sach

Aug 21, 2009

प्रेमपत्र - हत्या, आत्महत्या और वीरगति


आदरणीय बूटा सिंह जी,

सत श्री अकाल । प्रिय स्वीटी को रिश्वत-काण्ड में फँसाये जाने के षडयंत्र के विरुद्ध आपने वीरों जैसा स्टेटमेंट दिया कि इस्तीफ़ा देने से तो मर जाना बेहतर है । ठीक है वीर लोग रण में पीठ दिखाने से मरना बेहतर समझते हैं । यदि पचास साल की जन-सेवा का यही पुरस्कार है तो यही सही । इस ज़ालिम संसार ने सेवकों को सदा ही दुःख दिया है । ईसा, कबीर, गाँधी किस को चैन से जीने दिया लोगों ने ?

मरने के तीन रूप हैं । हत्या में किसी व्यक्ति को छल से धोखे से मरवा दिया जाता है । राजनीति में किसी से उसके पद से इस्तीफ़ा ले लेना ही हत्या है । हालाँकि पद से इस्तीफ़ा देने के बाद शरीर तो जीवित रहता है लेकिन आदमी मरे से भी ज़्यादा हो जाता है । मरने के बाद तो आत्मा सुख-दुःख से शायद मुक्त हो जाती होगी पर इस्तीफ़ा देने के बाद तो अपनी दुर्गति व्यक्ति अपने सामने ही देखता है । जो झुक-झुक कर सलाम करते थे वे अनदेखा करके, सिर उठाये हुए चले जाते हैं । जो भेंट लाते थे वे दस रुपये उधार नहीं देते । बिजली, पानी, टेलीफोन, मकान किराया सब जेब से देना पड़ता है । अचानक नोन, तेल, लकड़ी का भाव मालूम हो जाता है ।

एक ही क्षण में चक्रवर्ती चूहा हो जाता है । पद पर होते हुए तो थानेदार भी परमीशन लेकर थाने ले जाता है मगर पद से हटने के बाद तो लाइन तोड़कर टेलीफोन का बिल भी जमा नहीं करवा सकते । वास्तव में इस्तीफ़ा देना तो आत्महत्या करने के समान है और वीर आत्महत्या नहीं करते । युद्ध में लड़ते-लड़ते मरना ही उनकी शोभा है । यदि पार्टी कोई और पद देने का आश्वासन दे तो अनुशासित सिपाही की तरह इस्तीफ़ा दे देना चाहिए । पहले आपने इस्तीफ़ा दिया था कि नहीं ? जन आक्रोश से बचने के लिए यदि कुछ दिन बिना पद के रहने की बात हो तो भी ठीक है पर यहाँ न तो बाद में कोई पद दिए जाने का आश्वासन और न ही मामले में बचाने की पुख्ता गारंटी । तब इस्तीफ़ा देने से क्या फायदा ? बिल्कुल मत दीजियेगा ।

आप संवैधानिक पद पर हैं और ऐसे में हटाने के लिए महाभियोग की प्रक्रिया है जो बहुत लम्बी है । तब तक क्या पता पार्टी को आपकी ज़रूरत पड़ जाए या क्या पता फैसला होने तक अगला चुनाव ही आ जाए । किसका क्या हुआ है जो आपका होगा । और फिर तब तक आपकी उम्र भी पचासी हो जायेगी और इतनी उम्र में तो और वह भी इतने पुराने जन सेवक को क्षमा दान भी आसानी से मिल जायेगा ।

न्याय, सत्य आदि के चक्कर में इस्तीफ़ा देना तो न वीरगति गति है और न ही समझदारी है वह तो शुद्ध मूर्खता है । हमारा विश्वास है कि आप इतने मूर्ख नहीं हैं । सांसद-रिश्वत-कांड में भी आपने बड़े धैर्य और समझदारी का परिचय दिया और देखिये आपको न्याय प्राप्त हुआ । भारतीय लोकतंत्र की न्याय व्यवस्था पर विश्वास रखिये । सिबू सोरेन, लालू प्रसाद, सुखराम आदि की तरह आप भी खरे कंचन बन कर निकलेंगे । हमें तो यह भी लगता है कि यह सरकार अल्पसंख्यकों, हरिजनों की पक्षधर और धर्म निरपेक्ष बनने का दावा भी झूठा ही करती है वरना आप हरिजन, दलित और अल्पसंख्यक भी हैं फिर भी आपके साथ कोई सहानुभूति नहीं दिखला रही है ।

वैसे अज़हरुद्दीन के साथ तो कुल मिलाकर ठीक ही किया । पहले अल्पसंख्यक होने के कारण कप्तान बना दिया । फिर अल्पसंख्यक होने के कारण हटा दिया । फिर अल्पसंख्यक होने के कारण फिर सांसद बना दिया । सो धैर्य रखने में भी कोई बुराई नज़र नहीं आती ।

मगर बच्चों को फँसाने की बात तो समझ से परे है । यदि मास्टर का बेटा आपने बाप के साथ स्कूल में जाता है और एक चाक उठा लेता है तो कौनसा पहाड़ टूट पड़ा । पंडित जी के साथ क्या उनका बेटा जीमने नहीं जाता ? जब व्यक्ति जन सेवा करता है तो आपने बच्चों पर इतना ध्यान नहीं दे पाता । स्वार्थी लोग तो देशहित से आँखें फेर कर बस अपने बच्चों का कैरियर ही संभालते रहते है तो उनके बच्चे अच्छी नौकरी भी पा जाते हैं । पर नेताओं के बच्चे इस सुविधा से वंचित रह जाते हैं । ऐसे में क्या बच्चे दो रोटी भी न खाएँ । ऐसे प्यारे-प्यारे बच्चे क्या नरेगा में काम करेंगे ? हमने तो कभी अपराध करने वाले कालू, घीसू, बुधिया ही देखें है, कभी स्वीटी या सोनू, मोनू या लवली आदि को कोई अपराध करते नहीं देखा ।

अधिकतर नेता अपने बाप की कुर्सी पर बैठते हैं । उनका अपना कोई राजनीतिक योगदान नहीं होता । आप तो अपने बल पर नौकरी कर रहे थे- सन १९६० में ७५ रुपये की नौकरी । हमने भी १९६१ में नौकरी शुरू की थी एक सौ रुपये पर और २००२ में कोई १८ हज़ार की तनख्वाह पर रिटायर हुए । यदि नौकरी करते रहते तो आप भी पन्द्रह हज़ार पर रिटायर हुए होते और आज दस हज़ार रुपये पेंशन ले रहे होते । पर तब तो पार्टी को आपकी ज़रूरत पड़ी तो नौकरी छुड़वाकर चुनाव लड़वा दिया और अब नैतिकता झाड़ रहे हैं । अब जब जन सेवा की आदत पड़ गई तो कहते हैं घर बैठो । सेवकों को क्या घर बैठे चैन पड़ता है ? अगर यहाँ पार नहीं पड़ती है तो कोई घर देखते हैं । सच्चे जन सेवक किसी एक से बँध कर नहीं रहते । आपने जनसेवा के लिए ही तो १९९८ में कांग्रेस छोड़कर भाजपा के साथ मिलकर सेवा की थी । वह नहीं तो अपनी माया भैन जी के साथ ही सही । उनको भी आजकल दलित होने के कारण लोग बहुत सता रहे हैं ।

हमने और आपने करीब-करीब एक साथ ही नौकरी शुरू की थी पर पता नहीं कैसे आप अस्सी को पर कर गए और हम तो मात्र सड़सठ के ही हुए हैं । हो सकता है कि आपने बहुत ओवर टाइम सेवा की है तभी हम से पन्द्रह साल बड़े हो गए । हममें इतना सेवा भाव नहीं था । बस घंटी बजी और घर आ जाते थे । हिन्दी विषय होने के कारण ट्यूशन की बीमारी भी नहीं लगी ।

आप तो इस उम्र में भी जन सेवा के लिए मन बनाये हुए हैं । हम आपकी जन सेवा की भावना को प्रणाम करते हैं । हमारा तो आपसे यही आग्रह है कि जन सेवा किसी भी हालत में नही छोड़ियेगा । हो सकता है कोई आपके पास संन्यास का प्रस्ताव लेकर आए तो उसे कहियेगा कि जब संन्यास का विचार सचिन को भी डराता है जिसकी कि उम्र कोई ज्यादा नहीं हैं और कहीं भी कोच की नौकरी पा सकता है तो आपको ही आखिरी वक्त में मुसलमान बनाने पर क्यों तुला है । किसी न किसी कुर्सी पर से ही सीधे विमान पर बैठ कर प्रभु के पास जाइयेगा तो उस स्थिति में वहाँ भी कोई न कोई पद मिल जाएगा वरना हमारी तरह यमदूत किसी वृद्धाश्रम में पटक देंगे ।

७-८-२००९

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Jhootha Sach

Aug 16, 2009

तोताराम के तर्क - लौह पुरुष तोताराम


आज तोताराम आया तो उसकी मुख-मुद्रा से खुशी और चिंता के मिश्रित भाव टपक रहे थे । जब उसे बैठने के लिए स्टूल दी तो कहने लगा- मेरे घुटने नहीं मुड़ते हैं । जब हमने उसे खड़े-खड़े ही चाय का कप पकड़ाया तो कहने लगा- क्या बताऊँ भाई साहब, मुझे तो कुहनियाँ मोड़ने में भी परेशानी हो रही है, पर खैर! किसी तरह चाय तो पीनी ही है । उसी समय जब पत्नी रसोई से बाहर निकली तो तोताराम ने गर्दन घुमाने की बजाय रोबोट की तरह पूरा घूम कर नमस्ते की । हमें लगा कि उसके लिए गर्दन घुमाना भी मुश्किल हो रहा है ।

हमने कहा- तोताराम, हड्डियों के किसी अच्छे डाक्टर को दिखा । लगता है तेरे तो सारे जोड़ ही जाम हो गए हैं ।

वह बोला- डाक्टर को दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं है । मुझे लगता है कि मैं धीरे-धीरे लौह पुरूष होने लग गया हूँ ।

हमें चिंता की घड़ी में भी हँसी आ गई, कहा- तोताराम, लौह पुरुष तो इस देश में एक ही हुए हैं - सरदार पटेल । हाँ, आजकल कुछ और लोग भी माथे पर लौहपुरुष की चिप्पी लगा कर घूम रहे हैं । पर इससे क्या होता है । लौह पुरुष पटेल ने तो चुपचाप ही राष्ट्रीय एकता का काम कर दिया । और ये बेकार की झाँय-झाँय करके राष्ट्रीय एकता का और सत्यानाश कर रहे हैं । पतली छाछ को राबड़ी बनने लायक भी नहीं छोडेंगे । पर तेरे लौह पुरुष वाले वहम को दूर करने के लिए हम दो प्रयोग कर सकते हैं ।

तोताराम ने कहा- फटाफट बता, जिससे स्थिति के अनुसार आवश्यक कार्यवाही की जा सके । हमने कहा- पहले तो यह तय करेंगे कि तू हाड-माँस का ही बना है या किसी धातु का । इसके लिए हम तेरे सिर पर खड़ाऊँ से प्रहार करेंगे । यदि भद-भद की आवाज़ आई तो तू हाड-माँस का है । और यदि खड़ाऊँ मारने से टन-टन की आवाज़ आई तो यह सिद्ध होगा कि तू धातु का हो चुका है । धातु टेस्ट पाजिटिव निकला तो तेरे शरीर पर चुम्बक घुमा-घुमा कर देखेंगे कि चुम्बक चिपकता है या नहीं । यदि चुम्बक चिपका तो यह माना जाएगा कि तू लोहे का हो चुका है ।

आजकल दूध, घी, नोट, स्टांप आदि न जाने क्या-क्या नकली आने लगे हैं । हो सकता है लोहा और चुम्बक ही नकली हों । इसके लिए एक और बड़ा टेस्ट करना पड़ेगा पर यह टेस्ट यहाँ नहीं हो सकता । इसके लिए तो तुझे कटनी (मध्य प्रदेश) ले जाना पड़ेगा । वहाँ पारस अग्रवाल नामक भा.जा.पा.का एक कार्यकर्ता रहता है । कुछ लोग जब अडवानी जी को लौह पुरूष की जगह मोम पुरूष प्रचारित करने लगे तो पारस जी ने टेस्ट करने के लिए अपनी पादुका फेंकी । पर वह लगी नहीं इसलिए टेस्ट की प्रक्रिया आगे नहीं चली ।

पर जब तेरा चुम्बक टेस्ट हो चुकेगा तो तुझे इन्हीं पारस जी के पास ले चलेंगे । उनके स्पर्श से यदि तू सोने का बन गया तो यह माना जाएगा कि तेरा लौहीकरण शुरू हो चुका है । पर यह भी सच है कि सोना बनने की स्थिति में तू लौह पुरुष न रह कर स्वर्ण पुरुष हो जाएगा । तब पता नहीं लोग तेरे हाथ पैर ही तोड़ कर न ले जाएँ । और यह भी हो सकता है कि पारस जी ही तुझे अपनी तिजोरी में बंद कर दें ।

वैसे तुलसीदास जी ने तो लोहे को कुधातु कहा है- "पारस परस कुधातु सुहाई ।" कुधातु बनने से तो अच्छा है कि सुमनुष्य ही बना रहे । हमारे भाषण से घायल से हो चुके तोताराम की ट्यूब लाइट अचानक जली, बोला -भाई साहब, डाक्टर के पास ही चलते हैं । अडवाणी जी के कम्पीटीशन में पड़कर बिना बात खडाऊँ से टाट कुटवाने से क्या फायदा ।

२९-४-२००९

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Jhootha Sach

Aug 15, 2009

तोताराम के तर्क - मंथन


सवेरे-सवेरे तोताराम के साथ घूमने निकले । जैसा कि होता है, रास्ते में तरह-तरह के बोर्ड और सूचनाएँ दिखते हैं- 'नगर परिषद के कर्मचारी काम पर हैं', 'इधर से रास्ता बंद है', 'असुविधा के लिए खेद है' । इसके अतिरिक्त कुछ और गतिविधियाँ भी बिना सूचना के चलती रहती हैं जैसे रास्ते में किसी मकान का काम चल रहा है और बजरी, ईंटें, पत्थर आदि रास्ते में पड़े हैं । पर आज जो सूचना देखी उससे बड़ा आश्चर्य हुआ, एक मकान के पास एक सूचना पट्टा रखा हुआ था- 'सावधान, अन्दर मंथन चल रहा है ।'

मंथन तो बिलोने को कहते हैं और बिलोना तो परंपरागत घरों में सवेरे-सवेरे की एक सामान्य क्रिया है । इसमें 'कुत्तों से सावधान' जैसी सूचना लिखने की क्या आवश्यकता थी । हमने तो बचपन से देखा है कि हमारे उठने से पहले ही माँ दही बिलोना शुरू कर देती थी । बीच-बीच में हमें उठाने के लिए आवाज़ भी लगा देती थी और हम थे कि उठने की बजाय बिलोने की लोरी जैसी घर्र-घर्र की मधुर आवाज़ का आनंद लेते पड़े रहते थे । और एक यह मंथन ! कौनसा खतरा है इसमें, जो लिखा है- 'सावधान, अन्दर मंथन चल रहा है ।'

हम तो सोच ही रहे थे पर तोताराम ने तो तत्काल कार्यवाही शुरू कर दी बोला- चल, अन्दर देखते हैं क्या हो रहा है ? हमारे उत्साह न दिखाने पर भी तोताराम हमें घसीटता हुआ अन्दर ले ही गया । अन्दर जा कर देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ । कई लोग सिद्धांतों का एक बड़ा सा लट्ठ कीचड़ के एक कुंड में डाल कर अपने पायजामें के नाड़ों का रस्सा बना कर उस कीचड़ को बिलोने की कोशिश कर रहे थे । कीचड़ उछल-उछल कर उनके कपड़ों और चेहरों पर गिर रहा था ।

तोताराम से रहा नहीं गया । पूछा तो बोले- मंथन चल रहा है । हमने कहा- भाई, मंथन तो दही का होता है जिसमें से मक्खन निकलता है । बड़ा ध्यान रखना पड़ता है दही के मंथन में । सावधानी से रई को घुमाना पड़ता है कि कहीं उछल कर दही बाहर न गिर पड़े । यदि बिलोते-बिलोते सारा दही ही उछल कर बाहर गिर गया तो अंत में बचेगा क्या ? बिलोने की मेहनत और बेकार जायेगी । और फिर सर्दी में गरम पानी और गर्मी में ठंडा पानी बड़े नाप-जोख से डाला जाता है । बड़े धैर्य और कलाकारी का काम है बिलोना ।

बिलोनेवाले भी लगता है थक गए थे सो हमसे बातें करने के बहाने सुस्ताना चाहते थे, बोले- यह ऐसा-वैसा मंथन नहीं है । यह तो हार के कारणों को जानने के लिए किया जा रहा है । हमने कहा समुद्र-मंथन तो सुरों और असुरों ने मिलकर किया था । और समुद्र में ही सब कुछ होता है- विष, वारुणी, अमृत, कामधेनु, कल्पवृक्ष, लक्ष्मी आदि । पर आप तो कीचड़ का मंथन कर रहे हैं तो इसमें से क्या निकलेगा । इसमें तो हैं ही जोंक, घोंघे, सेवार । इसमें मोती कहाँ से मिलेंगे ?

कबीर जी ने कहा है-
जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ ।
मैं बौरी बूडन डरी रही किनारे बैठ ।।


वे बोले- जी, मोती तो हम सब चाहते हैं पर डूबने कि रिस्क कोई नहीं उठाना चाहता ।

हमने कहा-तो फिर करते रहिये मंथन इस कीचड़ का और लिथदते रहिये ।

हम और तोताराम वहाँ से चल दिए । पीछे से फिर ज़ोर-ज़ोर से घर्र-घर्र की आवाज़ आने लगी ।

२८-६-२००९

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Aug 10, 2009

विक्रम और वेताल - सांसद की समस्या


जैसे ही वीक एंड पर अंधेर नगरी के आजीवन राष्ट्राध्यक्ष महाराज चौपटादित्य जी संसद के कुँए से सत्य के शव को निकाल कर ठिकाने लगाने के लिए राजधानी से बाहर निकले तो उसमें अवस्थित बेताल ने कहा- राजन, तुम बड़े हठी हो । तुम कभी किसी की बात मानते ही नहीं । राजा को सत्य, न्याय जैसे छोटे मोटे कामों में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए । ये काम तो उसे अपने मातहतों पर छोड़ देने चाहियें । उसे तो नृत्य देखने, गाने सुनने, उद्घाटन करने, पुरस्कार बाँटने जैसे सात्विक और सांस्कृतिक कामों पर ध्यान देना चाहिए ।

तुम जाने कितने बरसों से सत्य को ठिकाने लगाने में समय बर्बाद कर रहे पर क्या सफलता मिली ? तुम्हें पता है, यह सत्य बड़ा चीमड़ होता है । पक्का नकटा । कुटेगा, पिटेगा, जला दिया जाएगा, काट दिया जाएगा, गाड़ दिया जाएगा पर जैसे ही दो बूँद पानी पड़ेगा तो दूब की तरह जाने कहाँ से निकल आएगा । जैसी खरपतवार किसान का पीछा नहीं छोड़ती वैसे ही राजाओं को यह सत्य बड़ा परेशान करता है । तुम्हें पता है दानवों ने संजीवनी विद्या सीखने आए कच को मारकर कूँए में डाल दिया, मारकर जला दिया, राख को दारू में मिला कर शुक्राचार्य को पिला दिया तो भी, भले ही शुक्राचार्य का पेट फाड़कर ही सही पर कच के रूप में सत्य निकल ही आया ।

महाराज चौपटादित्य ने कहा- हे बेताल, तू भले ही मुझे कच के रूप में धरती में गाड़ दे पर भगवान के लिए अब और भाषण मत झाड़ । मेरा सिर दुखने लगा है । बेताल ने उत्तर दिया- ठीक है राजन, मैं तुम्हें श्रम भुलाने के लिए एक कहानी सुनाता हूँ । और उस कहानी के अंत में एक प्रश्न पूछूँगा । यदि तुमने जानते हुए भी उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे ।

बेताल सुनाने लगा- दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में यों तो चुनावों में सारे पहुँचे हुए लोग ही चुनाव जीतते थे पर एक बार ऐसा हुआ की एक थोड़ा कम पहुँचा हुआ आदमी लोकसभा का चुनाव जीत गया । निरा अनुभवहीन तो वह नहीं था फिर भी सफलता औकात से ज़्यादा थी । उसके स्वागत में शहर के भूमाफियाओं, सट्टेबाजों, घूसखोरों, दलालों, चोरों, उचक्कों ने जगह-जगह गेट बनवाये , अख़बारों में बधाई के विज्ञापन छपवाए, जुलूस निकले । साधारण लोगों ने भी मौके की नजाकत को समझ कर यही कहा कि उन्होंने उसे ही वोट दिया था । भले ही वे वोट डालने ही न गए हों । जब संसद ने हिसाब लगाया तो पाया कि उसके चुनाव क्षेत्र में जितने वोट पड़े थे
उनसे ज्यादा वोट उसे मिले हैं । वह समझ ही नहीं पाया कि उसे किसने वोट दिया और किसने नहीं । उसके लिये समर्थकों और विरोधियों को पहचानना मुश्किल हो गया । हे राजन, बताओ कि वह किसको अपना माने, किसका काम पहले करे ?

महाराज चौपटादित्य ने उत्तर दिया- हे बेताल, लोकतंत्र में सब कुछ अनिश्चित है । काम करनेवाला हार जाता है,हरामी जीत जाता है । पता नहीं कब सरकार गिर जाए । इसलिए लोकतंत्र में न कोई अपना है और न कोई पराया,न कोई समर्थक है और न विरोधी । सब मतलब से स्वागत करते हैं, बधाई संदेश छपवाते हैं । हारनेवाला कैसा भी हो मगर कोई उसका हाल चल पूछने भी नहीं जाता । बहुत से तो जीते हुए को खुश करने के लिए हारे हुए को गाली तक निकालने लग जाते हैं । इसलिए उसे किसी का काम नहीं करना चाहिए । जिस काम में अपना ख़ुद का फायदा हो वह काम करना चाहिए । हर काम की नीलामी करनी चाहिए । जो ज़्यादा पैसे दे उसका काम पहले करवाए ।

उत्तर सुनते ही बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

२२-६-२००९

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Aug 9, 2009

तोताराम के तर्क - लोकतंत्र का पाँचवाँ स्तम्भ


दोपहर बाद की चाय पी रहे थे कि दरवाज़े पर एक कड़क आवाज़ सुनाई दी- बच्चा, दरवाज़ा खोल और दस का एक नोट निकाल । हमें बड़ा अजीब लगा । वैसे और भी कई लोग सुबह-सवेरे आते हैं जैसे- सब्जीवाला, छाछवाला, कबाड़ी आदि, पर पहले पैसा कोई नहीं माँगता । पहले भाव तय होता है, फिर नाप-तोल और फिर कहीं रुपये-पैसे की बात आती थी । मगर यह तो कुछ लेन-देन के बिना ही सीधे-सीधे ही दस का नोट माँग रहा है और वह भी दादागीरी के साथ । दरवाज़ा खोला तो देखा, न कोई साधु, न कोई भिखमंगा; खड़ा है तो एक फकीर टाइप मलंग ।

ठीक मुँह के सामने हाथ फैलाकर बोला- ला । हमने जानबूझकर अनजान बनते हुए पूछा- क्या ? बाबा और ज़ोर से बोले- क्या-क्या क्या कर रहा है ? दस का नोट निकाल । हमने टालने के लिए फिर बहाना बनाया-बाबा,आजकल आचार-संहिता लगी हुई है । आपको दस रुपया देकर कहीं जसवंत सिंह, मुलायम सिंह और वरुण गाँधी की तरह चुनाव आयोगवालों के चक्कर में तो नहीं फँस जायेंगे ?

बाबा ने ठहाका लगाया- तो तू अपने आपको जसवंत सिंह के बराबर समझता है ? अरे, वे तो राजा हैं राजा । जहाँ से चाहें जीत जायें, जहाँ से चाहे हार जायें । बड़े दिलवाले और दबंग इंसान हैं । चुनाव आयोग क्या राजाओं को दान-धर्म करने से रोक सकता है ? पहले जैसे पोते के जन्म दिन पर 'केसरिया' घुट्टी पिलायी थी तो लोगों ने बड़ा बवाल मचाया था पर क्या कर लिया ? अब भी उनका कुछ बिगड़ने वाला है । और फिर तू कौनसा चुनाव लड़ रहा है और हम कौन से वोटर हैं । जैसा तू वैसे हम । और फिर यहाँ कौनसा मीडिया वाला देख रहा है । फिर झुंझला कर बोले- हम भी साले किस फालतू बातों में लग गए । चल, ज़ल्दी से निकाल दस का नोट । टाइम खोटी मत कर ।

हमने बचने की एक और तरकीब सोची, बोले- बाबा,अप्रेल का पहला सप्ताह चल रहा है । मार्च के चक्कर में अभी पेंशन नहीं मिली है । कुछ दिन बाद आना । बाबा कौन से कम, बोले- तो ला चेक काट दे । हमने झूठ कहा- चेक बुक ख़तम हो गई है । बाबा फिर चिपके, ठीक है केश नहीं तो काइंड में ला । हम अन्दर गए और पीछा छुडाने के लिए एक सौ ग्राम आटा ला कर बाबा के सामने रख दिया । अब तो बाबा का पारा चढ़ गया । चिल्लाये- पच्चीस पैसे का आटा देकर बड़ा दानवीर बनना चाहता है । तुझे पता है इसकी कीमत है पच्चीस पैसे । अरे पच्चीस और पचास पैसे का तो लेन-देन भी ख़त्म हो गया । हमने कहा- पर यह बी.पी.एल. वाला गेहूँ नहीं है । वे बोले- हमारे लिए तो सब गेंहूँ सामान हैं । हम कौनसे गेहूँ ख़रीदते है । घर में चार-चार कार्ड हैं पर हमने तो सब चक्की वाले को दे रखे हैं । वह पाँच रुपये किलो के हिसाब से पाँच सौ रुपये महीने के दे जाता है । खाना तो हम 'अक्षय कलेवा' में खाते हैं ।

हमने बाबा को लपेटना चाहा, सुझाया- बाबा, क्यों न आप नरेगा में नाम लिखवा लीजिये । बाबा भी पहुँचे हुए- बोले उसमें भी नाम लिखवा रखा है पर आजकल नई-नई सरकार आई हैं ना सो ज़रा सख्ती चल रही है इसलिए एक सौ पर दस्तखत करके केवल तीस मिलते हैं । हमने कहा- पर इतने में तो आपका काम चल ही जाता है फिर यह माया मोह क्यों ?

बाबा की पिच ही हो गई- तो क्या तू हमें अपनी तरह समझ रखा है जो दो रोटी खाई और सो गए । क्या मोबाइल में सिम फ्री में डलती है ? क्या पौव्वा वाला मेरा बाप लगता है ? इसके बाद बाबा ने फोन लगाया- साले, अभी आ रहा हूँ । गुमटी बंद मत कर जाना । आज एक खूँसत मास्टर से फँस गया हूँ । ना कमबख्त ने धेला दिया और दिमाग चाट गया सो अलग ।

हमने कहा- बाबा, आपको तो किसी पार्टी का फंड मैनजर होना चाहिए । बाबा हँसे- तो क्या तू समझता है हम ऐसे ही हैं । अरे, हम हर जीतने वाली पार्टी के ग्रास रूट कार्यकर्ता हैं । हमने हाथ जोड़ कर कहा- आप विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया के बाद लोकतंत्र के पाँचवें खम्भे हैं, पर हाथ, पैर, कान, आँख सभी दो-दो के पेयर में होते हैं । फिर आपकी इस विषम संख्या की क्या उपयोगिता हो सकती है ?

अबकी बाबा वास्तव में दिल से मुस्कराए-अरे, जब सारे खम्भे खिसक जायेंगे तब यह लोकतंत्र हमारे इस खम्भे पर ही टिका रहेगा ।

४-५-२००९

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चने के झाड़ पर

आदरणीय अडवानी जी,
नमस्कार । आशा है सानंद होंगे । कई महीनों से आप से सम्पर्क नहीं किया । कई कारण थे । एक तो यह कि चुनाव थे । चुनावों में तो वार्ड मेंबर तक इतना व्यस्त हो जाता है कि दम मारने तक की फुर्सत नहीं रहती तिस आप तो प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग थे । किस्मत की बात वेटिंग और पाँच साल आगे खिंच गई ।

वेटिंग का चक्कर सबसे ज्यादा इस मनुष्य नाम के प्राणी के ही लगा हुआ है । यह जो कुछ नहीं होता वही बनने के लिए वेट करता रहता है सो इस चक्कर में जो होता है उसका भी आनंद नहीं ले पाता । कवि ने कहा है-
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, रुत आए फल होय ॥

पर मनुष्य को धीरज कहाँ । साधारण सिपाही यदि सारे दिन थानेदार बनने के सपने देखता रहता है तो अपनी हफ्ता-वसूली तक भूल जाता है । प्रेमिका के चक्कर में पत्नी भी भाग जाती है ।

ये बातें साधारण आदमियों की है । आप तो हमेशा से सदा से ही निष्काम और अनुशासित सिपाही रहे हैं । पहले संघ में
फिर जनसंघ में और उसके बाद भाजपा में । आत्मा भी मनुष्य योनी पाने के लिए चौरासी लाख योनियों में भटकती रहती है और मनुष्य योनि मिल जाने के बाद मोक्ष में चक्कर में तरह-तरह की तीर्थ यात्राएँ करती रहती है । आप ने भी तरह-तरह की यात्राएँ कीं पर वे सब सेवा के लिए थीं । विरोधी चाहे कुछ भी कहें पर हम जानते है जब आप राजस्थान की तपती रेत में गाँव-गाँव घूमते थे तब कौन सा स्वार्थ था ।

हम बुज़ुर्ग भले ही युवकों को सीधा समझें पर आजकल के युवक बड़े चालाक होते हैं । मीठी बातें करके बुजुर्गों को चने के झाड़ पर चढ़ा देते हैं और तमाशा देखते हैं । हमारे मोहल्ले के कुछ युवक है जो एक बुज़ुर्ग पंडित जी को चढ़ाकर चुनावों में खड़ा कर देते हैं, उनसे मिठाई खाते रहते हैं और हर बार पंडित जी की जमानत ज़ब्त होती रहती है । वैसे तो न आप माया में भटकते है और न इतने भोले कि ज़ल्दी से किसी की बातों में आ जाएँ । पर अति बुरी होती है । तुलसी दास जी ने भी कहा है- "अतिशय रगड़ करे जो कोई । अनल प्रकट चन्दन तें होई ॥" सो लगता है आप भी अगली कतार के कुछ नेताओं के बहकावे में आ गए और प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग बन गए । और किस्मत की बात देखिये कि कभी चुनाव न लड़ने वाले प्रधान मंत्री बन गए ।

वैसे तो आप ज्ञानी और हिम्मत वाले हैं । गीता के ज्ञाता हैं । पर कभी-कभी हाल-चाल पूछने वाले ही इतने सक्रीय हो जाते हैं कि जान निकाल लेते हैं । एक बार एक दुकानदार एक ग्राहक से पिटते-पिटते बचा । एक मनचला यह दृश्य देख रहा था । अब तो जब भी वह दुकान पर आता यही कहता- लाला, उस दिन तो वह आपको पीट ही देता । एक दिन तंग आकर लाला बोला- वह तो पीटता या नहीं पर मुझे लगता है कि तू मुझे ज़रूर पीटेगा ।

इसलिए हमने यही सोच कर पत्र नहीं लिखा कि पता नहीं किस हालत में होंगे । पर अब जब पिछले महीने आप कर्नाटक आए और मेडम के साथ परंपरागत 'कोडावा' ड्रेस में देखा तो मन को बड़ी शान्ति मिली । दूल्हे जैसी ड्रेस लग रही थी । कहीं चेहरे पर तनाव नहीं । हमेशा से ज्यादा खुश । अगर सफ़ेद मूँछे न दिखती, क्लीन शेव्ड होते तो कोई नहीं कह सकता था कि अस्सी पार कर चुके हैं । इसके बाद जब दिल्ली में अल्पसंख्यक मोर्चे में आपका फोटो देखा तो पूरी तसल्ली हो गई कि अब पहले वाला तनाव कहीं नहीं है और आप पूरी तरह फॉर्म में आ चुके हैं । खैर, जो बीत गई सो बात गई ।

यह तो अच्छा हुआ कि आप लोगों के बहकावे में नहीं आए वरना चढ़ाने वाले बड़े दुष्ट होते हैं । आदमी का जुलूस निकलवा देते हैं । मेवाड़ के एक महाराणा ने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक बूँदी का किला न जीत लेंगें तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे । अब किला जीतना कोई मज़ाक तो है नही । शाम तक महाराणा जी के होंठों पर पपड़ी आगई । चमचों ने मौका देख कर कहा- हुकम, इस तरह प्राण देने से क्या फ़ायदा । किला भी जीतेंगे पर थोड़ा समय तो लगेगा ही । इसलिए जब तक असली किला न जीत लें तब तक एक नकली किला बना कर उसको जीत लेते हैं । काफी ना-नुकर के बाद महाराणा माने । पर किस्मत की बात देखिये कि जिस मकान को नकली किला बनाया गया उसमें बूँदी का एक सैनिक काम करता था सो उसने गोली चला दी । उसे मारकर नकली किला तो जीत लिया पर मज़ा तो किरकिरा होगया । इसे कहते हैं- काणी का तो काजल भी लोगों को नहीं सुहाता ।

खैर, आप ऐसे किसी नाटक के बहकावे में नहीं आए । हमारे एक मित्र हैं । उन्हें एम.पी. बनने की बड़ी लालसा है पर ना तो इतना पैसा और ना ख़ुद के सिवा कोई वोट देने वाला । भाई लोग उन्हें मज़ाक में एम.पी. साहब कहने लगे । उनका नाम है महावीर प्रसाद । बात पूरी तरह असत्य भी नहीं है । महावीर प्रसाद का शोर्ट फॉर्म बनता ही एम.पी. है । सो पूरा नहीं तो अर्द्धसत्य तो है ही । धीरे-धीरे हालत यह हो गई है कि सब उनको इसी संबोधन से पुकारते हैं ।

अगर आपकी जगह कोई दूसरा होता तो लोग उसका नाम परिवर्तन करके पूरण मल रख देते और शोर्ट फॉर्म करके पी.एम., पी.एम. पुकारने लग जाते । हमें विश्वास है कि आपने हिम्मत नहीं हारी है । हम आपको वास्तव में पी.एम. पुकारने की प्रतीक्षा में हैं ।

२५-७-२००९

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Jhootha Sach

Aug 5, 2009

तोताराम का सन्यास


आज तोताराम को आने में कुछ देर होगी । अकेले ही चाय पी रहे थे । तभी भगवा वस्त्रधारी एक आकृति हमारे सामने प्रकट हुई । हमें बड़ा अजीब लगा । ठीक है भीख माँगना साधुओं का वैसा ही संवैधानिक अधिकार है जैसा कि समाज सेवकों का चंदा माँगना, दादाओं का रंगदारी वसूल करना मगर कम से कम घर में घुसने से पहले दरवाजा तो खटखटाना चाहिए या फिर बाहर से आवाज़ लगाकर आना चाहिए । हमने रुखाई से कहा- बाबा,भले ही आपको चाय चाहिए या चंदा, पर कम से कम बाहर से आवाज़ लगा लेते तो ठीक रहता । यह क्या कि कसाब की तरह अचानक ही घुस पड़े । बाबा ज़ोर से ठहाका मारकर हँसे । हँसते ही पहचान गए कि यह तो तोताराम है । कहा- क्या महँगाई इतनी बढ़ गई है कि पेंशन से तेरा कम नहीं चल रहा है और भीख माँगनी पड़ रही है ।

तोताराम ने कहा- ऐसी बात नहीं है । बात यह है कि मैंने सन्यास ले लिया है । सोचा जाने से पहले तुझसे विदाई स्वरूप अन्तिम चाय तो पी चलूँ, सो चला आया ।

हमने कहा- तोताराम, तू कौन सा राजा या प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार है जो सन्यास ले रहा है । तेरा तो सारा जीवन ही सन्यास रहा है । दो कुरते, दो पायजामे, एक जोड़ी चप्पल, दो रोटी सुबह, दो रोटी शाम को और बिला नागा एक चाय हमारे साथ । अब इनमें से किस चीज़ की कटौती करने वाला है ? जब राजा लोग ही सन्यास नहीं लेते, मरते दम तक कुर्सी से चिपके रहते हैं , जब तक कि कंस या औरंगजेब जैसा सपूत ज़बरदस्ती कुर्सी से नीचे न पटक दे । प्रिंस चार्ल्स जैसे सपूत कितने होते हैं जो वेटिंग-वेटिंग में ही साठ पार कर जायें । ज्योति बसु और अटल जी ने सन्यास ले लिया है फिर भी चुनाव के समय वक्तव्य जारी करने से बाज़ नहीं आते । सन्यास आश्रम में पहुँच चुके मनमोहन, अडवानी, करुणानिधि , शीश राम ओला सत्ता के हम्माम के चारों तरफ़ चक्कर लगा रहे हैं । तू तो मात्र सड़सठ बरस का है । अभी तो तेरे खेलने-खाने के दिन हैं । अडवानी जी और करूणानिधि के सिर पर बाल ढूँढ़ने से नहीं मिलेगा जैसे कि कारत के सिर पर काला बाल । दशरथ को जब अपने कान के पास एक सफ़ेद बल दिखाई दिया तो उन्होंने राम राज सौंप कर वानप्रस्थ लेने की तैयारी कर लीथी ।

तोताराम बोला- राजाओं और नेताओं की बात छोड़ । वे तो कभी बूढे ही नहीं होते । जब अडवानी जी ने कहा था कि वे अगले चुनाव मतलब कि २०१४ में सन्यास ले लेंगे तो मैंने सोचा था कि पाँच बरस जाते कितनी देर लगती है । फिर तो मैं भी प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग बन जाऊँगा । पर अब कुछ लोंगों ने लाइन काटकर नरेन्द्र मोदी का नाम उछाल दिया है । नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि २०१४ में भी अडवानी जी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे । अब तो मेरे लिए कहीं २०१९ में ही चांस दिखता है बशर्ते कि कोई और भाँजी न मार दे । और तू जानता है इस महँगाई में इतनी उम्र एक मास्टर को तो मिलती नहीं है । बेकार में २०१९ की वेटिंग का टिकट लेने से क्या फायदा । यह जन्म तो जैसा गुज़रा ठीक है । कम से कम अगला जन्म तो सुधार लें । सो भाई साहब अपन तो चले, अलख निरंजन । कहा सुना माफ़ करना ।

तोताराम चला गया पर हमें विश्वास है वह उसी तरह चला आएगा जैसे कि उमा भारती अडवानी जी के चुनाव प्रचार में लौट आई हैं ।

२९-४-२००९
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Aug 4, 2009

तोताराम के तर्क - पसीने का क़र्ज़

आज तोताराम चाय के समय गैरहाजिर था । आया तो कोई दसेक बजे । आते ही जल्दी मचाने लगा, बोला- फ़टाफ़ट तैयार हो जा, गुजरात चलाना है ।

हमने कहा- यार, गुजरात में भी अपने शेखावाटी जितनी गरमी पड़ती है । कहीं घसीटना ही था तो शिमला, मसूरी की बात करता । उत्तर मिला- शत्रु, अग्नि, बीमारी और क़र्ज़ को कभी कम नहीं आँकना चाहिए । जितना ज़ल्दी हो सके इनसे मुक्ति पा लेनी चाहिए ।

हमने कहा- जब भारत सरकार का एक सर्वे प्रकाशित हुआ था 'प्रति व्यक्ति क़र्ज़' के बारे में तो हमने पेंशन से लोन लेकर चिदंबरम का कर्जा चुका तो दिया था । जहाँ तक बीमारी का सवाल है तो बुढ़ापे में भी अपना स्वास्थ्य ठीक-ठाक ही है । आग कीमतों में लगी है सो किसी के बाप से बुझने से रही । और हमारा शत्रु अब यमराज के अलावा और कौन होगा । पर यह कर्ज़े वाली बात ज़रा साफ़ कर ।

तोताराम ने स्पष्ट किया- अडवानी जी ने पन्द्रह साल राजस्थान में जनसेवा की है, गरमी में घूम-घूम कर पसीना बहाया है । सो मोदीजी मंच से सूचना दे गए हैं कि राजस्थान को अडवानी जी के इस पसीने का क़र्ज़ चुकाना है ।

हमने कहा- यार, पसीना तो हमने भी चालीस साल मास्टरी में बहुत बहाया है पर आज तक उसके लिए किसीके सर पर सवार नहीं हए । और फिर ये मोदी जी तो ब्रह्मचारी हैं । इन्हें रुपये पैसे की बात से क्या लेना-देना । वैसे भी वे आजकल एक और बालब्रह्मचारिणी जी से देश की रक्षा और विकास की बात करने चेन्नई गए हुए होंगें ।

तोताराम बोला- तुझे याद नहीं, मोदी जी नरेन्द्र या ब्रह्मचारी होने से पहले मोदी हैं । एक-एक दाने और एक-एक बूँद का हिसाब रखने वाले । महाजनों और मोदियों से बचना संभव नहीं । अडवानी जी ने कभी इस क़र्ज़ के बारे में बात नहीं की और न कभी कोई नोटिस भेजा । पर तुझे पता होना चाहिए कि बही और हिसाब-किताब कारिंदों के पास होता है ।

हमने कहा- तोताराम, सेवा निस्वार्थ की जाती है, उसका दाम नहीं लिया जाता । और फिर अडवानी जी इतने टुच्चे भी नहीं हैं । तोताराम ने उत्तर दिया- देख मास्टर, क़र्ज़ कैसा भी हो चुका देना चाहिए, नहीं तो फिर इस मृत्युलोक में आना पड़ेगा । नो ड्यूज के बिना आगे स्वर्ग में भगवान नई ड्यूटी ज्वाइन नहीं करने देगा । तुझे पता होना चाहिए कि भगवान राम की एजेंसी अडवानी जी, नरेन्द्र मोदी और तोगडिया के पास ही है । सो क़र्ज़ तो चुकाना ही पड़ेगा ।

हमने कहा- मोदी जी ने प्रतीकात्मक क़र्ज़ की बात कही थी । उनका मतलब था कि उस कर्ज़े के बदले में भा.ज.पा. को वोट दे देना । वोट किसको दिया यह किसको पता चलेगा । कह देंगें कि वहीं दिया था जहाँ मोदी जी ने कहा था । हो गया हिसाब-किताब बराबर । तोताराम बोला- वे ऐसे नहीं मानेंगे । जब तक अडवानी जी प्रधानमंत्री नहीं बन जाते तब तक यह क़र्ज़ हमारे माथे रहेगा ही ।

हमें गुस्सा आगया । एक तो वोट देने गए तो लू लग गई । और ऊपर से ये कर्ज़े-कर्ज़े की रट लगा रहे हैं । हमने भी कह ही दिया- देख, हमने भी छः साल गुजरात में मास्टरी की है, पसीना बहाया है- चार साल पोरबंदर और दो साल राजकोट में । छत्तीस साल हमारे छोटे भाई ने पोरबंदर में पसीना बहाया है । अगर उन्हें हिसाब-किताब ही करना है तो हम दोनों भाइयों के छत्तीस जमा छः कुल बयालीस साल होते हैं । उसमें से अडवानी जी के पन्द्रह साल काटकर हमारा सत्ताईस साल का हिसाब कर दें । हमें नहीं जाना गुजरात । तुझे जाना हो तो जा ।

अब यह तो कल ही पता चलेगा कि तोताराम गुजरात गया या नहीं ।

१४-५-२००९
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