Nov 21, 2011

ब्राह्मण और शंख - मायावती के ढंग


( मायावती ने लखनऊ की एक जनसभा में नारा दिया- ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी दिल्ली जाएगा- १३-११-२०११ )

मायावती जी,
जय भीम, जय अम्बेडकर और जय मान्यवर कांसीराम जी । हम एक सेवा निवृत्त ब्राह्मण बोल रहे हैं । पहले भी आपने सोशिअल इंजीनियरिंग के तहत ब्राह्मणों को आपने साथ जोड़ा था । ठीक भी है, कोई माने या नहीं मगर ब्राह्मण भी इस देश का एक दलित ही है यह बात और है कि उसे अन्य दलितों की तरह पीट-पीट कर तो दला नहीं गया बल्कि प्रणाम, पायलागी करके दलित बनाया गया । कोई भी उत्सव, शादी-विवाह, यज्ञ हो ब्राह्मण को भी दलित की तरह है बचा-खुचा और अनुपयोगी सामान ही दिया जाता रहा है जैसे कि कहते हैं कि “सड़ा नारियल डाल होली में; बेकाम ब्राह्मण की झोली में” । ब्राह्मण को भी यही सिखाया जाता रहा है कि- भैया, दान की बछिया के दाँत नहीं देखे जाते । वैसे ब्राह्मण के पास राजपूतों की तरह न तो तलवार रही कि जबरदस्ती छीन लें और न ही व्यापारियों की तरह तराजू कि तोल और भाव दोनों में डंडी मार कर वसूल ले । आपने पहली बार पिछले चुनावों में ब्राह्मणों को दिलासा दिया तो वे आपसे चिपक गए । मगर उस समय भी हमने शंका व्यक्त की थी कि इन भोले-भाले लोगों के साथ छल मत कीजिएगा ।

आपने छल तो शायद नहीं किया होगा मगर क्या किया जाए आपको मूर्तियाँ लगवाने के चक्कर में समय ही नहीं मिला । अब समय मिला है तो आपने कह तो दिया कि गरीब सवर्णों को भी आरक्षण दिया जाएगा । आरक्षण तो जी, जिनका होता है उन्हीं का होता है । कहने की बात और है । यदि आरक्षण से ही बात बनती तो अब तक बहुत कुछ हो गया होता । मगर एक बार आरक्षण पाकर सवर्ण हो चुके लोगों का पेट ही नहीं भरता और अब उन्हीं कुछ लोगों को बार-बार आरक्षण की मलाई खा-खाकर पतले दस्त हो रहे हैं और वे आंदोलनों के रूप में जिला मुख्यालय से लेकर दिल्ली तक की सड़कों पर पतले दस्त करते फिर रहे हैं ।

दो-अढ़ाई साल पहले अम्बिका सोनी और कपिल सिब्बल ने कहा था कि सभी ग़रीबों को बहुत कम ब्याज पर शिक्षा ऋण दिया जाएगा । आरक्षण तो खैर, संभव नहीं है । आप जानती हैं कि किसी के भी आरक्षण कोटे से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती । राजस्थान में गूजरों के आन्दोलन के समय मीणों को लगा था कि कहीं उनके कोटे में से तो नहीं काट लिया जाएगा सो उन्होंने पहले से ही शोर मचाना शुरु कर दिया तो किसी को उस तरफ देखने का भी साहस नहीं हुआ । तो क्या आप समझती हैं कि किसी और के कोटे में से कुछ खुरचकर आप या केन्द्र सरकार सवर्णों या ब्राह्मणों को आरक्षण दिलवा देंगे । प्रेक्टिकल बात यह है कि आप अम्बिका सोनी और कपिल सिब्बल द्वारा की गई और फिर ठंडे बस्ते में डाली गई योजना को ही चालू करवा दें । सभी ब्राह्मण और मेहनती और ईमानदार सवर्ण खुश हो जाएँगे । पर उसमें यह खतरा है कि कहीं उसका श्रेय केन्द्र सरकार न ले जाए । मगर निश्चिन्त रहिए, यदि आपने वह योजना लागू करवा दी तो लोग उसका श्रेय आपको ही देंगे क्योंकि लोग बैंकों में दो साल से पूछ-पूछ कर यह मान चुके हैं कि वह कोई योजना थी ही नहीं । बस, गरीब सवर्णों को गरीबी के जल में खड़ा रखने के लिए अकबर ने महल का दीया दिखाया था ।



तो आपने नारा दिया है कि 'ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी दिल्ली जाएगा' । आप सोचती हैं कि दिल्ली में हाथी नहीं हैं ? हम तो समझते हैं कि सारे हाथी तो दिल्ली में ही बैठे हैं और उनका रंग सफ़ेद है । आप जिस हाथी को दिल्ली भेजना चाहती हैं वह किस रंग का है ? अब रंग से क्या लेना, सफ़ेद हो या नीला, हाथी तो हाथी है । चूहा तो है नहीं जो दो दानों से पेट भर जाएगा । खाना तो मण दो मण ही है, चाहे किसी भी रंग का हाथी हो । लोकतंत्र रूपी दानवीर सम्राट ने इस देश की गरीब जनता रूपी ब्राह्मण को यह हाथी दान में दे दिया और मर गए । अब इस हाथी का चारा जुटाते-जुटाते ब्राह्मण की लँगोटी तक उतर गई है । अब आप उससे शंख बजवाना चाहती हैं ।

शंख बजाने में बहुत जोर लगता है, मैडम । राजा की तो हाथी पर बैठकर सवारी निकलती है पर यह तो ब्राह्मण ही जानता है कि शंख बजाने में कितना जोर लगता है ? आँतें बाहर निकल आती हैं । फूँक ऊपर से ही नहीं नीचे से भी निकलने लग जाती है । कई दिन तक गला दुखता रहता है । व्यापारियों ने एक वक्त का खाना खिला कर ब्राह्मणों से अटूट लक्ष्मी का आशीर्वाद ले लिया । राजा ब्राह्मणों से शंख बजवा कर गद्दी पर सवार हो गए और ब्राह्मण वैसा का वैसा है । उसे शंख बजाने के सिवा कुछ करने लायक छोड़ा भी तो नहीं चालाक लोगों ने वरना जब ब्राह्मण के पास शस्त्र और शास्त्र दोनों थे तब तक न तो कोई उसे उल्लू बना सका और देश भी दुष्टों से बचा रहा । अब जब ब्राह्मण नेताओं का शंख बजने वाला हो गया तब से वह हाथ फैलाए ही घूमता है ।



वैसे ब्राह्मण का काम शंख बजाने का ही रहा है पर वह हमेशा ही चुनावों में शंख बजाने वाला नहीं रहा है । चाणक्य ने विलासी और दुष्ट नन्द का शंख बजा दिया था । परशुराम ने सहस्रार्जुन जैसे डाकू और नीच राजा का शंख बजा दिया था । शंख विजय पर भी ब्राह्मण ही बजाता है तो मरने पर भी शंख ब्राह्मण ही बजाता है । अब ब्राह्मणों के पास अपने शंख नहीं रह गए हैं । वे तो दूसरों के दिए हुए शंख बजा रहे हैं । कहते हैं, भूखा ब्राह्मण जोर-जोर से भजन करता है । अब आप भूखें ब्राह्मणों से शंख बजवा रही हैं । बजाएँगे ये ब्राह्मण शंख, और जोर-जोर से बजाएँगे । मगर आप हर बार इनसे भूखे पेट शंख बजवा कर इनकी फूँक ही नहीं निकलवा दीजिएगा नहीं तो फिर अंतिम समय में भी कोई शंख बजाने वाला नहीं मिलेगा ।

हमने बचपन में ब्राह्मण और शंख की एक कहानी सुनी थी । (कृपया पूरी कहानी पढ़ें, नये ट्विस्ट हैं) एक ब्राह्मण, जैसा कि होना चाहिए, गरीब था और आरक्षण आज की तरह उस समय भी उसके लिए नहीं था । मगर घर तो ब्राह्मणी को चलाना होता था सो एक दिन उसने उसे धक्का देकर घर से निकल ही दिया कि कुछ कमाकर लाओ । अब ब्राह्मण के पास कौन-सा बी.पी.एल. कार्ड था जो सस्ता अनाज ले आता या उस कार्ड को ही गिरवी रखकर सौ-दो सौ रुपए उधार ले आता । बिना सोचे समझे चल पड़ा और चलते-चलते पहुँच गया करुणा के निधि समुद्र के पास और जाप करने लगा । पता नहीं, समुद्र को दया आई या वह ब्राह्मण के जोर-जोर से किए जा रहे जाप के कारण परेशान हो गया सो उसने ब्राह्मण को वरदान माँगने के लिए कहा ।


अब ब्राह्मण कौन-सा 'राजा' की तरह लाख दो लाख करोड़ की गिनती जनता था । उसके यहाँ तो केवल भोजन की समस्या थी सो कहा- हे समुद्र देवता, मुझे और कुछ नहीं चाहिए बस, भोजन का इंतज़ाम कर दीजिए । समुद्र ने उसे एक छोटा सा पद्म नाम का शंख दिया और कहा- दिन में दो बार इसकी पूजा करके भोजन माँग लेना, मिल जाएगा । रास्ते में ब्राह्मण को एक जन सेवक के यहाँ ठहरना पड़ गया । जनसेवक ने ब्राह्मण का बहुत सम्मान किया और धीरे-धीरे बातों-बातों में सब कुछ जान लिया । रात को जब ब्राह्मण सो गया तो उसने उसका वह शंख निकाल लिया और उसकी जगह उसी आकार का एक और शंख रख दिया । अगले दिन ब्राह्मण जन सेवक को धन्यवाद देकर चला गया ।

ब्राह्मण बड़ी अकड़ से घर पहुँचा जैसे कोई घोटालिया नेता जमानत पर तिहाड़ से निकलता है । ब्राह्मणी को बड़े रोब से कहा- जल्दी से पानी गरम कर, नहा-धोकर पूजा करनी है । उसके रोब के सामने ब्राह्मणी से मना करते नहीं बना । ब्राह्मण ने बड़ी अदा से पूजा की और फिर शंख से खाने के लिए निवेदन किया मगर यह क्या ? खाना तो दूर कोई आश्वासन भी नहीं निकला । एक बार, दो बार मगर भोजन नहीं निकालना था सो नहीं निकला । ब्राह्मणी ने फिर ब्राह्मण महाराज को धक्के देकर निकल दिया ।

अब तो ब्राह्मण गुस्से में समुद्र के पास पहुँचा और बोला- मैं तो तुम्हें देवता समझता था, तू तो नेताओं का भी बाप निकला । वे आश्वासन तो देते हैं मगर इस शंख ने तो मनमोहन जी की तरह चुप्पी भी नहीं तोड़ी । समुद्र ने कहा- अब मेरे पास और कुछ तो नहीं है पर यह एक केवल आश्वासन देने वाला शंख है । इसे ले जा और उसी जन सेवक के यहाँ रुकना । शायद वह इसके चक्कर में आ जाए और तेरा वह शंख दे दे और यह ले ले क्योंकि इन दोनों की शक्ल और आकार बिलकुल एक जैसे हैं ।

ब्राह्मण उसी जनसेवक के घर रुका और अब की बार बिना बताए ही शंख निकाल कर उसकी पूजा की । शंख ने जोर से कहा- माँग ब्राह्मण, माँग । क्या चाहिए ? ब्राह्मण ने कहा- महाराज, ब्राह्मण को क्या चाहिए, बस दो रोटी । शंख ने गुस्से से कहा- अरे मूर्ख ब्राह्मण, माँगा तो भी क्या माँगा, दो रोटी । अरे, तू यदि कामनवेल्थ गेम्स की अध्यक्षता माँगता, २ जी स्पेक्ट्रम माँगता तो वह भी मिल जाता । ब्राह्मण ने कहा- ठीक है, महाराज, आपको कष्ट दिया । शांत होइए । अब यहाँ क्या, घर चल कर ब्राह्मणी से पूछ कर ही माँग लूँगा । और जनसेवक से कहा- भक्त, थोड़ा सुस्ता लेता हूँ, थोड़ी देर में जगा देना । सेवक ने शंख अपने हवाले किया और वैसा ही एक और शंख ब्राह्मण से सिरहाने रख दिया । कुछ देर बाद ब्राह्मण अपने घर के लिए चल पड़ा ।

ब्राह्मण के साथ फिर धोखा हुआ । सेवक ने जो शंख रखा था वह एकदम साधारण शंख था । न रोटी देता था और न ही आश्वासन । अब जनसेवक के पास रोटी देने वाला शंख भी था और जनता को बढ़ चढ़ कर झूठे आश्वासन देने वाला शंख भी । रोटी भी उसकी और गद्दी भी उसकी । और ब्राह्मण तो जैसा था वैसा का वैसा ही रहा ।

अब तो दोनों ही शंख आपके पास हैं । अब आप इससे जो चाहे बजवाइए मगर कुछ खाने को तो दीजिए- आधी और रूखी ही सही ।

१४-११-२०११

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Nov 17, 2011

भँवरा-भँवरी प्रकरण - देव और दुर्दैव


देव और दुर्दैव

जगह-जगह प्रचलित हुए देह दिखाऊ वस्त्र ।
कर्मों में श्रद्धा नहीं, देह हो गई अस्त्र ।
देह हो गई अस्त्र , देह से देव रिझाएँ ।
बदले में धन, पद पाकर चर्चित हो जाएँ
कह जोशी कविराय राह यह बहुत विकट है ।
शुरू-शुरू में मज़ा अंत में पर संकट है ।

१६-११-२०११



अज़ब गठजोड़

अखबारों में छप रहे रंडी एवं भाण्ड ।
या फिर चर्चित हो रहे भँवरा-भँवरी कांड ।
भँवरा-भँवरी कांड, मिलें सीडी पर सीडी ।
इनसे क्या सीखेगी सोचो अगली पीढ़ी ।
कह जोशी कविराय अज़ब गठजोड़ हो गया ।
लोकतंत्र की खुजली, नेता कोढ़ हो गया ।
१६-११-२०११

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Nov 13, 2011

नेता और कामी waicharik nibandh

आज राजस्थान को भँवरी के भँवर ने अपनी लपेट में ले रखा है लेकिन यह कोई पहला और एकमात्र किस्सा नहीं है । पद, प्रभुता,धन पाकर बहुत कम लोगों का दिमाग ही ठिकाने रहता है । अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति क्लिंटन, इटली के विदा होने वाले प्रधान मंत्री बर्लुस्कोनी, अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व अध्यक्ष, इज़राइल के सज़ा भुगत रहे प्रधान मंत्री, पूर्व राज्यपाल तिवारी, उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी या दिल्ली के युवा नेता सुशील शर्मा की सुशीलता किसी को भूली नहीं है । ये कुछ नाम हैं जो आज के नेताओं के चरित्र की एक झलक देते हैं ।

चाणक्य ने जब चंद्रगुप्त को उस पर लगने वाले प्रतिबंधों और उसके कर्तव्यों के बारे में बताया तो उसने कहा कि फिर राजा बनने से क्या फायदा ? तो चाणक्य ने कहा- तुम राजा अपने सुख के लिए नहीं बनोगे । राजा का कर्त्तव्य तो सेवा करना है । उसे जितेन्द्रिय होना चाहिए । सदाचार राजा ही नहीं बल्कि समाज के सभी सदस्यों के लिए अभिप्रेत है । संयम और आत्मानुशासन के बिना न तो व्यक्ति सुखी और सम्मानित हो सकता है और न ही राजा अपनी प्रजा के सामने कोई आदर्श उपस्थित कर सकता है ।

गोस्वामी तुसलीदास जी ने अपने रामचरित मानस में स्थान-स्थान पर इसी प्रकार के सदाचार की बात कही है । यह बात और है कि तथाकथित प्रगतिशील या दलित-हितैषी उनकी निंदा करते नहीं अघाते, किन्तु यदि ध्यान से सोच-विचार किया जाए तो तुलसी की बात शत-प्रतिशत सही है । रामचरित मानस किसी अदृश्य स्वर्ग के लिए नहीं वरन इसी जीवन को स्वर्ग के समान बनाने के लिए श्रवणीय और आचरणीय है । स्थान-स्थान पर वे ऐसे संकेत देते हैं । इस आलेख में हम उन्हीं पर विचार करना चाहेंगे ।

उत्तरकांड में काकभुशुंडी जी गरुड़ जी से कहते हैं  - जिसके मन में हित चिंतन है वह कभी दुखी नहीं होता क्योंकि हम प्रायः अपने दुःख से दुखी नहीं होते बल्कि दूसरों के सुख से अधिक दुखी होते हैं; जिसके पास (भक्ति रूपी ) पारस मणि हैं वह दरिद्र कैसे हो सकता है, दूसरों से द्रोह करने वाला कभी निश्चिन्त नहीं हो सकता, और काम-लोलुप कभी अकलंकित नहीं रह सकता क्योंकि उसकी कामुकता कभी न कभी उसे कलंकित कर ही देती है -

परद्रोही कि होहिं निःसंका । 
कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ।

अरण्य कांड में जब राम सूर्पनखा को लक्ष्मण के पास भेजते हैं तो लक्ष्मण उसे कहते हैं कि मैं तो राम का दास हूँ और तुम उस दास के साथ कैसे सुखी हो सकती हो-

सेवक सुख चह मान भिखारी । 
व्यसनी धन शुभ गति व्यभिचारी ।
अर्थात सेवक को सुख, भिखारी को मान, बुरी आदत वाले को धन, व्यभिचारी को शुभ गति, लोभी को यश और अभिमानी को सदाचार नहीं मिलता । यदि ये इनकी आशा करते हैं तो वह आकाश से दूध निकालने के समान है ।

जब राम द्वारा खर दूषण के वध के बाद सूर्पनखा रावण के दरबार में अपना दुःख सुनाती है तब भी वह कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त करती है, वैसे उसका खुद का आचरण भी कोई अच्छा नहीं था । यहाँ वास्तव में तुलसीदास जी ही बोल रहे हैं-
संग ते जती, कुमंत्र से राजा । 
मान ते ज्ञान, पान ते लाजा ।
अर्थात कुसंग से तपस्वी, बुरी सलाह से राजा, अभिमान से ज्ञान और मदिरा पान से लज्जा नष्ट हो जाती है । जितने भी तथाकथित बड़े लोग अपमानित हुए हैं उनके साथी या सलाहकार बुरे व्यक्ति थे और वे स्वयं शराब पीते थे और कलंकित व्यक्ति भी । इसीलिए कहा गया है राजा को भले व्यक्तियों को अपने साथ रखना चाहिए मगर जब राजा या नेता खुद भले होंगे तभी तो उनके आसपास भले लोग इकट्ठे होंगे ना । जैसे नेता, वैसे ही उनके छुटभैय्ये ।

दशरथ के मरने के बाद वसिष्ठ जी भरत को समझाते हुए कहते हैं कि राजा दशरथ चिंतनीय और सोचनीय नहीं हैं उन्होंने तो अपने व्रत का पालन किया है और राम के प्रेम में अपना शरीर त्यागा है । सोचनीय तो वेद न जानने वाला ब्राह्मण; धर्म छोड़कर विषयासक्त होने वाला; नीति न जानने वाला राजा; बूढ़ा और धनवान किन्तु कंजूस; वाचाल, ज्ञान का अभिमान करने वाला; गुरु की आज्ञा न मानने वाला और व्रत तोड़ने वाला विद्यार्थी; पति को धोखा देने वाली, कलहप्रिय और मनमर्जी करने वाली स्त्री हैं क्योंकि वे अवश्य ही अपने दुष्कर्मों के कारण नष्ट, दुखी और अपमानित होंगे । ऐसे मामलों में शामिल स्त्रियाँ भी कहीं न कहीं ऐसी ही स्त्रियों की श्रेणी में आती हैं ।

इसीलिए तुलसीदास जी इन सब संकटों का उपाय बताते हुए कहते हैं-

बिनु संतोष न काम नसाहीं । 
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।
संतोष अपने परिवार, पत्नी, धन, पद, जन्म, पति सब के अर्थ में है ।

क्या यह संभव है कि लोकतंत्र में हम नेता का चुनाव इन गुणों के आधार करें और क्या पार्टियाँ टिकट इन गुणों के आधार पर न देकर, जाति-धर्म-धन और बदमाशी के नाम पर देती हैं और येन केन प्रकारेण जीतने वालों का एक झुण्ड बना कर अपने और उनके स्वार्थ और लिप्साओं की पूर्ति का दुष्चक्र रचती हैं ?

११-११-२०११


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Nov 12, 2011

'अग्नि'पुराण - मिट जाते सब भेद



मिट जाते सब भेद
( स्वामी बिग बॉस से बाहर- ११-११-२०११ )

निभता बोलो किस तरह स्वामी-सुन्दरि संग ।
इनका चोला लूज़ है उनकी चोली तंग ।
उनकी चोली तंग, भंग दोनों ने खाई ।
उधर रूप का नशा, इधर ऊँची संताई ।
कह जोशी कविराय त्याग देते सब कपड़े ।
मिट जाते सब भेद, खतम हो जाते झगड़े ।







 कपिल-कील 
( अग्निवेश अन्ना से पैर पकड़ कर क्षमा माँगने को तैयार मगर पहले बताना होगा कि -'वह कपिल कौन है' -११-११-२०११ )

सुंदरियों में गए थे बन कर बहुत दबंग ।
दो दिन में ढीले पड़े, स्वामी जी के रंग ।
स्वामी जी के रंग, काफ़िये तंग हो गए ।
हीरो बनने के सब सपने भंग हो गए ।
जोशी, स्वामी भले पैर पड़ माफ़ी माँगें ।
माफ करें अन्ना पर 'कपिल-कील' पर टाँगें ।


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Nov 11, 2011

'अग्नि'पुराण - स्वामी और बिग बॉस



अंदर 

( बिग बॉस में शामिल हुए स्वामी अग्निवेश- ८ नवंबर २०११)
सुंदरियों में जा घुसे स्वामी अग्निवेश ।
दोनों को लज्जित किया - उम्र, संत का वेश ।
उम्र, संत का वेश, व्यंग्य में 'गर हँसती है ।
तो स्वामी सोचे सुन्दरि मुझ पर मरती है ।
जोशी कवि बौड़म ना कुछ समझा ना बूझा ।
इनमें चाकू कौन, कौन इनमें खरबूजा ।






बाहर

(अग्निवेश बिग बॉस से बाहर-११ नवंबर २०११ )
स्वामी अग्निवेश को बुरा न समझो कोय ।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ।
पढ़े सो पंडित होय, सुन्दरी अगर पढ़ाए ।
तो स्वामी क्या लल्लू भी पंडित हो जाए ।
जोशी अंदर गए बहुत स्वामी जी तनकर ।
चौबे बाहर हुए फटाफट दुब्बे बनकर ।



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शांति-पुरुष और विकास-पुरुष



(मनमोहन ने मालदीव सार्क सम्मेलन में पाकिस्तानी प्रधान मंत्री युसूफ राजा गिलानी को 'शांति-पुरुष' कहा- १० नवंबर २०११)


(1)
शांति-पुरुष यूसुफ रज़ा, औ' विकास के आप ।
इससे बढ़कर और क्या, हो सकता अभिशाप ।
हो सकता अभिशाप, भेजते वे आतंकी ।
बात-बात में देते रहते हमको धमकी ।
जोशी, और आपकी छाया में महँगाई ।
बढ़ती है दिन रात, देश की शामत आई ।





(2)
दो महान आत्मा मिलें, तो हो शांति-विकास ।
लेकिन दोनों के यहाँ, केवल भ्रान्ति-विनाश ।
केवल भ्रान्ति-विनाश, वहाँ भी हालत खस्ता ।
और यहाँ भी जीना महँगा, मरना सस्ता ।
कह जोशी कविराय, आप यदि पीछा छोड़ें ।
तो दोनों की जनता, शायद बेहतर सोचे ।

११ नवंबर २०११

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