Nov 25, 2010

बुढ़ापे में परीक्षा

मनमोहन जी भाई साहब,
सत् श्री अकाल । यह ‘भाई साहब’ संबोधन आर.एस.एस. वाला नहीं है यह तो अपने डिपार्टमेंट वाला है क्योंकि आप भी मास्टर रहे और हमने भी जीवन भर राष्ट्र निर्माण ही किया । हुआ या नहीं या कितना हुआ यह तो भगवान जाने पर हमने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी । साठ के होते ही छुट्टी हो गई मगर तभी ऊपर स्वर्ग में सीट का निर्माण करने में जुट गए । कितना क्या हो पाएगा यह तो वहाँ जाकर पता चलेगा । आपको तो नौकरी से छुट्टी मिलते ही नरसिंह राव साहब ने पकड़ लिया और जोत दिया राष्ट्र निर्माण में । अच्छा भला अमरीका की तरह भारत का निर्माण करने में लगे हुए थे कि अब ये बी.जे.पी. वाले आपकी परीक्षा लेने पर उतर आए लेकिन अपने वाले बच्चे को नहीं देखते जो नक़ल करते पकड़ा गया । और परीक्षा भी ऐसी वैसी नहीं, हाईस्कूल वाली । आजकल इसे सेकेंडरी स्कूल परीक्षा कहते हैं । अपने जमाने में इसी को मेट्रिक भी कहा जाता था । तब यह बहुत बड़ी चीज हुआ करती थी । उस ज़माने में कहते हैं कि आठवीं पास भी मास्टर और यहाँ तक कि तहसीलदार बन जाया करता था । आजकल तो चपरासी बनने के लिए भी कम से कम दसवीं पास चाहिए । तभी दसवीं पास की कद्र भी चपरासी जितनी ही रह गई है ।

वैसे तो अध्यापन आपने भी किया है इसलिए परीक्षा पास करने के गुर जानते ही होंगे । पर बात यह है कि आपने कालेजों में पढ़ाया है और हमने स्कूल मास्टरी में ही जिंदगी गुजारी है सो जब २१ नवंबर के अखबार में पढ़ा कि आपको लग रहा है कि आप दसवीं की तरह एक के बाद एक टेस्ट दे रहे हैं तो सोचा कि क्यों न आपकी कुछ मदद की जाए । लोग तो तमाशा देख रहे हैं पर जो संकट के समय मदद करे वही सच्चा मित्र होता है-
धीरज, धरम, मित्र अरु नारी । आपत काल परखिए चारी । ।

तो एक सच्चे मित्र और शुभचिंतक की तरह से आपको सलाह दे रहे हैं । आशा है कुछ काम आएँगी ।

वैसे कई चीजें जो जवानी में इतना तकलीफ नहीं देतीं जितनी बुढ़ापे में, जैसे कि शादी, संतान, इश्क, परीक्षा आदि । अब सलमान रुश्दी को ही देख लीजिए, उमर साठ से ऊपर है मगर इश्क फरमाने से बाज़ नहीं आते । जवान और चालू औरतें आती हैं और उल्लू बनाकर खिसक लेती हैं । बुढ़ापे की औलाद ज्यादा लाड़-प्यार के कारण बिगड़ जाती है और बड़ी होकर बहुत दुःख देती है । वैसे आजकल तो छोटे बच्चों को भी कूट-पीट कर सुधारने का अधिकार नहीं रहा फिर जवान बेटा आप पर ही हाथ छोड़ दे तो क्या कर लेंगे । बुढ़ापे में शादी करने पर जवान पड़ोसियों का आना-जाना बढ़ जाता है और कहीं जाओ तो पीछे से चिंता लगी रहती है कि पता नहीं नई बीवी क्या गुल खिला रही होगी । बुढ़ापे की बीवी की फरमाइशें भी ज्यादा होती हैं । खुद को जवान दिखाने के लिए रोज़ बाल रँगने पड़ते हैं और अकड़ कर भी चलना पड़ता है जिससे कमर में दर्द होने लग जाता है । और बुढ़ापे में परीक्षा देना भी कम कष्ट का काम नहीं है ।

आपने तो लगातार ही सारी पढ़ाई और परीक्षाएँ निबटा दीं । हम तो बारहवीं पास करते ही मास्टर बन गए थे और फिर बी.ए., एम.ए. और बी.एड. सभी नौकरी करते हुए पास कीं । बी.ए. और एम.ए. तो खैर सत्ताईस बरस की उम्र तक निबटा दीं मगर बी.एड. काफी देर से की । हम जानते हैं कि कैसे, क्या नैया पार लगी । वैसे याद तो सब कर लेते थे मगर चूँकि लिखने का अभ्यास छूट गया था सो लगता था कि पेपर पूरा ही नहीं कर पाएँगे तीन घंटे में । अब आपको सतत्तर साल की उम्र में हाई स्कूल की परीक्षा देनी पड़ रही है । बात तो चिंता की है । एम.ए. में तो एक ही सब्जेक्ट होता है पर हाई स्कूल अर्थात मेट्रिक में तो पाँच-सात सब्जेक्ट होते हैं । इसीलिए पुराने लोग मेट्रिक को बहुत बड़ी चीज मानते थे । हमसे मास्टर बनने के बाद एक बार एक बुजुर्ग ने पूछा- कहाँ तक पढाई की रे छोरे ? हमने कहा- ताऊ. एम.ए. कर ली है । तो कहने लगे- ठीक है बेटा, अब हिम्मत करके मेट्रिक भी कर ले तो और भी अच्छी नौकरी मिल जाएगी । एक ही वाक्य में उन्होंने हमारी मेरिट से पास की एम.ए. की ऐसी-तैसी कर दी । अब कहाँ तो आपकी हार्वड या ओक्सफोर्ड की एम.ए. और डी.लिट. और कहाँ अब विपक्ष के चक्कर में मेट्रिक की परीक्षा ।

वैसे अब भी आपको कोई न कोई यूनिवर्सिटी पी.एच.डी. दे सकती है मगर ये उससे संतुष्ट होने वाले नहीं हैं । लाने को तो नकली सर्टिफिकेट भी लाया जा सकता है मगर ये स्विस बैंक की सूचना कबाड़ने वाले 'स्वामी' उस नकली सर्टिफिकेट का भी भंडा-फोड़ कर सकते हैं । एक ओपन स्कूल जैसी भी चीज आजकल चल निकली है जिसमें सुनते हैं बहुत नक़ल चलती है और परीक्षा में सारे सब्जेक्ट एक साथ पास होने का झंझट भी नहीं है । एक साल में एक सब्जेक्ट पास कर लो, वह आपका जमा हो जाएगा । इस तरह आप पाँच साल में भी मेट्रिक कर सकते हैं मगर विपक्ष वालों को तो इतना धैर्य नहीं है । वे तो अभी सर्टिफिकेट देखना चाहते हैं । इससे पहले भी हर साल रिपोर्ट कार्ड देखा करते थे ।

अपने जमाने में तो मास्टर लोग कुंजी लाने से मना करते थे मगर आजकल कई तरह की कुंजियाँ बाज़ार में आ गई हैं । मास्टर लोग खुद ही कुंजी से पढ़ाते हैं और कमीशन देने वाले प्रकाशक की कुंजी खुद बच्चों को रेफर करते हैं । कई तरह की पास बुक्स भी आजकल बाजार में आती हैं- ट्वंटी फोर आवर सीरीज, वन वीक सीरीज, स्योर शोट आदि । कई तरह के गेस पेपर भी आते हैं जिन्हें पेपर सेट करने वालों द्वारा छद्म नामों से छापा जाता है । कई स्कूल तो पास करवाने की गारंटी भी देते हैं । हम यह सब आप की काबिलियत पर शंका के कारण नहीं बल्कि शक्ति और समय बचाने की दृष्टि से कह रहे हैं । अब आपके पास इतना समय कहाँ ? देश का विकास करें कि पढाई करें या बुढ़ापे में इन बदमाश बच्चों को सँभालें । अब बच्चे तो बच्चे ही हैं ना ? सब्जी लाने के लिए पैसे दो और ये उसी पैसे में से चाकलेट खा जाएँ । ज्यादा बड़े हों तो सिनेमा देखने चले जाएँ या बीयर में ही सब्जी के पैसे लुटा आएँ । अब बाप घर सँभाले या बच्चों के पीछे घूमता रहे । एक बार जब हम बच्चे थे तो एक खेत में घुस कर चार काचर (ककड़ी) तोड़ लिए । चार थे हम लोग सो हमें तो उन चार काचरों में से एक ही हाथ लगा पर जब शिकायत पिताजी के पास पहुँची तो हमारी पिटाई पूरे चार काचरों जितनी हुई । अब एक नादान बच्चे ने १ लाख ७६ हजार करोड़ के दस काचर तोड़ लिए । शिकायत आपके पास है । अब आप भी क्या करें ? बच्चे ने दस काचर तोड़े मगर उसके हाथ तो केवल दस परसेंट ही लगे बाकी नब्बे परसेंट तो औरों ने ही खा लिए । अब आप बच्चे को उलटा भी लटका दें तो एक काचर से ज्यादा निकलने वाला नहीं । और वह भी पेट में से निकला काचर किस काम का बचा होगा ?


वैसे जहाँ तक परीक्षा की बात है तो उसमें अध्यापकों की कृपा भी बहुत काम आती है । विद्यार्थी को, कुछ भी न जानते हुए भी वे प्रेक्टिकल में पूरे नंबर दिलवा सकते हैं । और परीक्षा में भी नक़ल में मदद कर सकते हैं । आजकल मास्टर इस कृपा के बदले में ट्यूशन पढ़ने वालों को विशेष महत्व देते हैं । यदि सारे साल ट्यूशन न पढ़ सको तो मय ब्याज के पूरे साल की ट्यूशन फीस एक साथ दे दो तो भी मान जाते हैं । गुरु जी फीस न दे सकने वाले कुछ गरीब किन्तु घनघोर सेवाभावी शिष्यों पर भी अपनी कृपा दृष्टि रखते हैं ।

कुछ भी हो, आप पर तो टीचर मेडम की कृपा दृष्टि है ही सो नैया पार लग ही जाएगी । जल्दी से मेट्रिक पास करके इन विपक्षियों का मुँह बंद कर ही दीजिए ।

२३-११-२०१०

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Nov 23, 2010

देयर वाज ए दलित राजा

जंगल और शेर दोनों ही घटते जा रहे हैं मगर अब भी जंगल का राजा शेर को ही कहा जाता है । कोई एक-आध बचा है तो सर्कस में तमाशे दिखा रहा है या रणथम्भौर में मुकेश अम्बानी के स्वागत में परेड कर रहा है । वैसे ठीक भी है, जंगल में तो पोचर घूम रहे हैं खाल, दाँत, माँस छीलकर एक्सपोर्ट करने के लिए । नाम राजा मगर सरकारी गाड़ी, बंगला, नौकर - कुछ नहीं मिलते । जो बजट आता है उसे वन-अधिकारी खा जाते हैं । खुद ही शिकार करके लाना पड़ता है । यदि बीमार हो जाए तो अमरीका जाकर इलाज करवाना तो दूर की बात है, पट्टी बाँधने के लिए कोई साधारण पशु-कम्पाउंडर भी नहीं मिलता । कोई आदर्श सोसाइटी ही नहीं तो फ्लेट हथियाने की भी सुविधा नहीं । राजा होकर भी पड़े रहो किसी गुफा में । सब्जियों का राजा आलू को कहा जाता है मगर भाव चढ़ रहे हैं लहसुन और प्याज के । जिन्होंने अपने खजाने को दारू और रंडियों में नहीं लुटाया और महलों में होटल खोल कर बैठ गए वे ढाबा चलाकर रोटी खा रहे हैं । नहीं तो राजा लोग या तो एयर इण्डिया के दफ्तर के आगे साठ साल से सलाम की मुद्रा में खड़े हैं या किसी दफ्तर की चौकीदारी कर रहे हैं । कई बरसों पहले पढ़ने को मिला था कि बहादुरशाह ज़फर का वंशज चाँदनी चौक में कपड़ों पर इस्त्री करता है । लखनऊ के नवाब का वंशज ताँगा चलाता है । कहा भी है- 'सबै दिन जात न एक समाना' ।


पहले क्षत्रिय ही राजा हुआ करते थे । कभी कभी कोई राजा जायज़ संतान के बिना मर जाता था और भले आदमियों की चल जाती थी तो किसी भले ब्राह्मण को गद्दी पर बैठा दिया जाता था । ब्राह्मण से कभी राज सँभला है ? सो फिर किसी बाहुबली के पास चला जाता था । बाहुबली ही क्षत्रिय होता है । यदि जन्मना न भी हो तो वह अपनी ताकत के बल पर अपने को क्षत्रिय मनवा लेता था । भारत पर विदेशियों के हमले होने लगे और एक दिन उन्होंने इस देश पर अपना राज भी जमा लिया । ये या तो राज करते थे या सैनिक होते थे । सैनिक भी राजा ही होता है । उसे राजा के नाम पर लूटने की आजादी होती है । फिर आए अंग्रेज, जो भले ही इंग्लैण्ड में जेब ही काटते रहे हों मगर यहाँ आकर तो सभी अधिकारी बन जाते थे- अंग्रेज बहादुर । जो हिंदू राजा थे वे इनको राजा मान चुके थे और मनमाना टेक्स वसूल करके इन्हें पहुँचाते थे और बचे हुए पैसों से या तो दारू पीते थे या लड़कियाँ उठवाते थे । यही स्वर्णयुग कोई दो हज़ार साल तक चला ।

इतने लंबे काल में कोई दलित राजा नहीं हुआ । काशी में था एक डोम । आज वहाँ उसे डोम-राजा कहा जाता है । डोम शब्द उस समय का 'दलित' ही रहा होगा । एक बार उसने हरिश्चंद्र नाम के एक राजा को खरीद कर अपना साम्राज्य बढ़ाना चाहा । किसी राजा को खरीदने वाला वह पहला व्यक्ति था । यह डोम राजा बहुत उदार था । उसने सवर्ण हरिश्चंद्र को सीधे ही मणिकर्णिका घाट का सी.ई.ओ. बना दिया । तभी विष्णु नाम के एक बँधुआ-मजदूरी-विरोधी कार्यकर्त्ता ने हरिश्चंद्र को मुक्त करवा दिया और डोम राजा को मुआवजा भी नहीं दिया । इसके बाद किसी दलित के राजा बनने का वर्णन नहीं मिलता ।

इसके बाद देश में लोकतंत्र आ गया और फिर तो दलितों को भी बहुत सारे अधिकार मिल गए । कई मुख्यमंत्री बने, राज्यपाल बने, राष्ट्रपति भी बने मगर रहे दलित के दलित ही । पता नहीं यह कैसा दलितत्त्व है जो कोई भी पद पाकर खत्म नहीं होता । पहले तो किसी भी जाति का हो मगर राजा बनते ही क्षत्रिय बन जाता था । लोकतंत्र में दलित होने में राजा होने से भी ज्यादा फायदे हैं । ले-दे कर अब जाकर कहीं एक राजा दलित हुआ है । तो सबके पेट में दर्द होने लगा है । कहते हैं या तो राजा रहो या दलित रहो । दोनों नहीं हो सकते । क्योंकि तुमने 'कुछ' लोगों को 'कुछ' सस्ते में 'कुछ' बेच दिया है ।


अरे भाई, राजा है, उसका राज है, जो चाहे बेच दे । लोग तो, कोई खरीदने वाला हो तो लाल किले की नकली रजिस्ट्री अपने नाम बनवाए फिर रहे हैं । मुग़ल बादशाह ने अंग्रेजो को ज़मीन बेच दी कि नहीं बंगाल में ? और वहीं से फैलाते-फैलाते उन्होंने सारे हिंदुस्तान पर कब्ज़ा कर लिया । शिवाजी ने एक कवि से एक ही कविता बावन बार सुनी और उसे बावन गाँव दे दिए । क्यों भाई, किसे पूछा था ? कृष्ण ने दो मुट्ठी चावल के बदले तो अपने क्लास-फेलो सुदामा को दो लोकों का राज दे दिया । तब किसी ने नहीं पूछा कि इतना सस्ता सौदा क्यों कर लिया ? टेंडर क्यों नहीं निकलवाए ? वह दलित नहीं था इसलिए सवर्णों ने कोई विरोध नहीं किया । अब एक दलित राजा ने 'कुछ' बेच दिया तो पीछे ही पड़ गए ।

इन सदाचारियों से कोई पूछे कि भई, क्या बेच दिया ? तो सही ढंग से बता नहीं पा रहे हैं । सोना, चाँदी, घर, मकान, ज़मीन क्या बेच दिया ? कहते हैं कोई ‘२-जी’ स्पेक्ट्रम बेच दिया । पता नहीं, कोई खाने की चीज है या पहनने की ? एस.एम.एस तक तो करना आता नहीं और बात कर रहे हैं बड़ी-बड़ी टेकनोलोजी की । अरे, पहले भी तो बिना टेंडर के ही बेच दिया था- कुछ स्पेक्ट्रम-वेक्ट्रम जैसा कुछ । 'पहले आओ, पहले पाओ' के आधार पर । शास्त्रों में भी कहा गया है “जिस रास्ते से '(प्रमोद)महाजन' जाते हैं वही सही रास्ता है” सो यह राजा भी बेचारा उसी रास्ते पर ही तो चला है । अब किसे पता था कि सूचना निकलने से पहले ही खरीदने वाले कुर्सी के नीचे छुप कर बैठे थे ।

इससे पहले भी तो सरकारी कारखाने बिके हैं और सस्ते में । कांग्रेस के राज में सिंदरी का खाद कारखाना धूल के भाव बेच दिया गया और फिर एन.डी.ए. के राज में बाल्को का अल्यूमिनियम का कारखाना पाँच सौ करोड़ में बेच दिया जिसमें पाँच हज़ार करोड़ का तो भंगार ही बताया जाता है । कहते हैं कि यह स्पेक्ट्रम बहुत महँगा बिक सकता था । तो खरीद लेते । किसने मना किया था ? पहले भी तो कभी-कभी ऐसा होता था कि कि राजा के मरने के बाद अगले दिन जो भी महल के दरवाजे पर सुबह-सुबह सबसे पहले मिलता था उसे ही राजा बना दिया जाता था । सो स्पेक्ट्रम के मामले में ऐसा हो गया तो क्या आसमान टूट पड़ा ? एक दलित है, इतने रुपए कभी न देखे, न सुने सो हजारों करोड़ की बात आते ही बेच दिया । अपने हिसाब से तो ठीक ही बेचा था । अब बनिए से तो पार पाना न किसी दलित राजा के बस का है और न किसी सवर्ण राजा के । धंधा करना तो बनिया ही जानता है । तुम लोगों से ही धंधा होता तो क्यों तो सरकारी कारखाने बेचते और क्यों सरकारी कारखाने घाटे में चलते ?


इसका फोटो देखा है ? कितना मासूम और कमसिन लगता है । इसके बस का इतने रुपए ( १ लाख ७६ हजार करोड़ ) को खाना तो दूर, हिसाब करना भी मुश्किल है । यह कौन सा हार्वर्ड या ऑक्सफोर्ड में पढ़ा अर्थशास्त्री है । इतने रुपए तो किसी रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने भले ही देखे हों, साधारण आदमी से तो इतनी बड़ी गिनती भी नहीं हो सकती । एक गरीब आदमी के एक बहुत बड़ी लाटरी निकल आई । लाटरी कम्पनी वालों ने सोचा- यदि इसे एक बार में ही इतने बड़े इनाम के बारे में बता दिया तो हो सकता है इसका हार्ट फेल हो जाएगा । सो एक मनोवैज्ञानिक को भेजा कि इसे ज़रा ढंग से बताना । मनोवैज्ञानिक ने उसे धीरे-धीरे बताना शुरु किया कि यदि तुम्हारे एक हजार की लाटरी लग जाए तो तुम क्या करोगे ? एक लाख की लाटरी लग जाए तो क्या करोगे ? वह भी बड़े मजे से बताता गया ? मगर परेशान ज़रूर हो रहा था । जब मनोवैज्ञानिक ने पूछा- यदि तुम्हारे एक करोड़ की लाटरी लग जाए तो क्या करोगे ? उसने चिढ़ कर कहा- आधा तुम्हें दे दूँगा । सुनते ही डाक्टर का हार्ट फेल हो गया ।

सब एक दलित के प्रति निष्करुण हो रहे हैं । यह तो भला हो करुणा के निधि का जिन्होंने अपनी करुणा के प्रताप से एक दलित को बचा लिया मगर कब तक ? जब सारा गाँव ही पीछे पड़ गया तो क्या किया जा सकता था । और तो और अम्मा, जिसे वात्सल्य की मूर्ति माना जाता है, नहीं पिघली और अंत में बाल-दिवस के उपलक्ष्य में एक राजा-बेटा की, एक राजा भैया की बलि लेकर ही मानीं । राजा एक लुप्त होती प्रजाति है और लुप्त होती प्रजातियों के बचाने के लिए वैसे भी सारी दुनिया में अभियान चल रहे हैं तो भारत में क्यों नहीं ? हमें विश्वास रखना चाहिए कि जल्दी ही कोई न कोई और ऐसा ही प्रतापी राजा भैया, राजा बेटा, राजा बाबू इस महान लोकतंत्र को प्राप्त होगा ।

१५-११-२०१०

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Nov 20, 2010

तोताराम का मौन व्रत


अभी तक तोताराम नहीं आया । हम चाय पी चुके थे । अंदर जाने के लिए चबूतरे से उठ ही रहे थी कि तोताराम की सवारी नुक्कड़ के पास आती दिखाई दी । सोचा पहले ही चाय का आर्डर क्यों दिया जाए, क्या पता घर से पीकर ही आ रहा हो । तोताराम आकर चुपचाप बैठ गया । कोई चार-पाँच मिनट निकल गए । पता नहीं क्या बात है । हमेशा अमर सिंह और स्वर्गीय प्रमोद महाजन और राखी सावंत की तरह हर बात में बिना बात टपक पड़ने वाले तोताराम ने आज इतना बड़ा कोमर्शियल ब्रेक कैसे ले लिया ? अंत में हमें ही श्री गणेशायानमः करना पड़ा- क्या बात है, आज मैना ने कुछ कह दिया क्या ? तोताराम ने 'ना' में सर हिलाया । हमने अगला प्रश्न किया- चाय पीकर आया है क्या ? फिर 'ना' में मुंडी हिली ।
- पिएगा ?
अबकी बार 'हाँ' में खोपड़ी ऊपर-नीचे हुई ।

अब हमारा भी धीरज चुकने लगा, थोड़ा आवाज़ ऊँची करके कहा- क्या 'मैं चुप रहूँगी' की नायिका की तरह यह पाँच किलो की तूँबड़ी हिला रहा है, मुँह में जुबान नहीं है क्या ?
फिर वही मुर्गे की डेढ़ टाँग । 'ना' में सर हिला ।

हमने लगा, हो सकता है कोई विशेष बात है इसलिए सारा गुस्सा थूक कर पूछा- क्या दाढ़ में दर्द है या बिहार में तीन सौ सभाओं को संबोधित करके लालू जी तरह गला बैठ गया है ?
फिर वही 'ना' में सर हिला ।

अब हमारा धैर्य चुक गया । यदि सत्तर का दशक होता और यह हमारा विद्यार्थी होता तो एक ठीक-ठाक सी चपत जमा चुके होते या कान ही उमेठ दिया होता । मगर यह इक्कीसवीं शताब्दी है एक वरिष्ठ नागरिक तो दूर, आप कसाब तक को नहीं डाँट सकते अन्यथा मानवाधिकार वालों के पेट में दर्द होने लग जाएगा । इसलिए एक कागज और पेन्सिल लाकर उसके सामने रख दिए और कहा- प्रभु जी, इस सर-संचालन से हमारी संतुष्टि नहीं हो रही है । कृपया बोल नहीं सकते तो कुछ लिख ही दो ।

तोताराम ने लिखा- मैं चुप रहूँगा । कोई बीमारी नहीं है ।
- क्या मौन व्रत है ?
- नहीं ।
- तो फिर बोल
- नहीं ।
- तो फिर क्या तुझे बुलवाने के लिए मनमोहन जी की तरह सर्वोच्च न्यायालय का आदेश लाना पड़ेगा ? क्या तेरे किसी सहयोगी ने १.७६ लाख करोड़ का घोटाला कर लिया है ? क्या यह गठबंधन की कोई शर्त है ? क्या तूने भी कोई गोपनीयता की शपथ ले रखी है ? देख, कुछ ऐसे अवसर होते हैं जब न बोलना भी गलती की स्वीकृति मान लिया जाता है । 'मौनं स्वीकृति लक्षणं' । अरे, 'मौनी बाबा' कुछ तो बोल । पूरा सच नहीं तो युधिष्ठिर की तरह अर्ध-सत्य ही बोल मगर बोल तो सही । क्या तेरी दाढ़ी में तिनका है ?

तोताराम ने अपनी चार दिन से न बनाई हुई दाढ़ी पर हाथ फेरा और फिर निश्चिन्त होते हुए सर हिला दिया ।

हमने पत्नी को आवाज़ लगाई- हमें लगता है कि आज तोताराम का मौन व्रत के साथ-साथ कोई उपवास भी है, सो पकौड़ों की एक प्लेट ही लाना ।
तभी तोताराम चिल्लाया- भाभी, एक नहीं, दो प्लेटें लाना । मेरा कोई व्रत नहीं है ।

हमें तसल्ली हुई, चलो तोताराम का मुँह तो खुला । अब मनमोहन जी का मुँह न खुलने के तनाव को विपक्षी झेलें जिनकी आँखें छींकें पर लगी हैं कि अब गिरा और तब गिरा । अपने तो वही संतों वाली दिवाली है ।

१८-११-२०१०

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Nov 19, 2010

जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी


चार-पाँच दिन से अखबार में ओबामा-ओबामा पढ़कर खोपड़ी भन्ना गई । मीडिया की हालत भक्त प्रह्लाद जैसी हो रही थी- खंभ में राम, खड्ग में राम, मुझमें राम, तुझमें राम । जहाँ देखूँ तहँ राम ही राम । ऐसी हालत तो राम के वनवास की अवधि समाप्त होने पर अयोध्यावासियों की भी नहीं हुई होगी । जैसे ही ९ तारीख़ को तोताराम आया, हम उसी पर पिल पड़े- पहुँचा आया, महामहिम को जकार्ता ?

वह पट्ठा भी कौन-सा चूकने वाला था, बोला- क्या किया जाए, जब प्लेन में सलमान खुर्शीद के लिए ही जगह नहीं थी तो मैं कहाँ से घुस जाता । हाँ, जगह होती तो पहुँचा आने में क्या बुराई थी । वे जब हमारे लिए इतनी दूर से लाव-लश्कर के साथ, इतना खर्चा करके, उड़ कर आ सकते हैं तो क्या हम इतने गए-गुजरे हैं कि जकार्ता तक छोड़ कर भी नहीं आ सकते ?

हमने कहा- वे न तो तेरे दर्शन करने आए थे और न ही तुझे दर्शन देने । उनके देश की तो आजकल हालत ज़रा ऐसे ही चल रही है सो कुछ न कुछ बेचने आए थे सो बेच गए दस अरब डालर का माल और रोज़ ९०० करोड़ का सुरक्षा व्यवस्था का खर्चा करवा गए सो अलग ।



तोताराम कहने लगा- अरे, हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं । हमारे लिए दस अरब क्या बड़ी चीज़ है । ७९ हज़ार करोड़ रुपए तो हमने अभी-अभी खेलों में खर्चे हैं और यदि मिल जाए तो ओलम्पिक करवाने का माद्दा भी रखते हैं । हजारों करोड़ का तो हमारे यहाँ अनाज खुले में पड़े सड़ जाता है । आज मित्र यदि थोड़ा परेशानी में है तो क्या हुआ ? उसके यहाँ आजकल बहुत बेकारी चल रही है, सौ-पचास हजार लोगों को रोजगार मिल जाएगा । लोग दुआ देंगे । वैसे अमरीका के लिए तेरे ये दस अरब डालर कोई बड़ी रकम भी नहीं है । तुझे पता है, उस पर आज भी 1345 अरब डालर का कर्जा है । यह तो घर आए को हाथ का उत्तर देने वाली बात थी ।

हमने कहा- बेकार तो अपने यहाँ भी चार करोड़ हैं । उनकी फ़िक्र क्यों नहीं करते ?

कहने लगा- अपने यहाँ तो लोगों को आदत है बेकारी की । नौकरी पर होते हैं तो ही कौन-सा काम करके निहाल करते हैं ? और फिर ‘नरेगा’ और ‘बी.पी.एल.’ में सारी सुविधाएँ दे तो रखी हैं । वहाँ के लोगों का खर्चा बहुत है भैया । बिना दारू पिए लोगों से खाना नहीं खाया जाता । कार भी सभी को मेंटेन करनी पड़ती है । सो क्या हो गया थोड़ी-बहुत मदद कर दी तो । तुलसीदास जी ने भी कहा है- “जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी । तिनहिं विलोकत पातक भारी । । ”

और फिर यह १० अरब डालर कोई दान में थोड़े ही दिए हैं । अगला बदले में माल भी तो देगा । भले ही लोगों को दाल-रोटी न मिलें पर शक्ति संतुलन के नाम पर हथियार तो खरीदने ही पड़ेंगे, अमरीका से नहीं तो फ़्रांस से, फ़्रांस से नहीं तो ब्रिटेन से । और फिर अपने यहाँ के लोगों को भी तो रोजगार मिलेगा ही- इन प्लेनों को चलाने में, इनकी सफाई करने में, इनमें तेल-पानी भरने में । अमरीका ने भी तो पी.एल. ४८० के तहत हमारी मदद की थी जब स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय हमारे यहाँ अनाज की कमी थी तब । भले ही गेंहूँ लाल था, आटा गूँदने पर रबड़ की तरह खिंचता था, थोड़ी ही देर में रोटी एकदम चीमड़ हो जाती थी, उसके साथ गाजर घास के बीज भी आ गए थे पर बखत पर काम तो चल गया । और फिर तू यह क्यों भूल जाता है कि ओबामा जी ने हमें बराबर का दर्जा दिया है । संसार से आतंकवाद मिटाने के लिए हमारे महत्व को रेखांकित किया है ।

हमने कहा- तोताराम, हमें तो लगता है, अमरीका हमें बाँस पर चढ़ा रहा है । हमें अफ़गानिस्तान में उलझाकर खुद खिसक जाएगा । हम में वही मियाँ जी वाली होगी कि 'नमाज़ छुड़ाने गए थे और रोज़े गले पड़ गए' ।

तोताराम ने एक ही वाक्य में हमारा मुँह बंद कर दिया, बोला- जब इतना ही डर लगता है तो महाशक्ति बनने का मोह क्यों पाल रहा है ? जब अपने दरवाजे सँकडे हों तो महावतों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए । महाशक्ति का मतलब होता है बात और बिना बात हर किसी फ़टे में टाँग फँसाना, न खुद जीना और न दूसरों को सुख से जीने देना ।

१०-११-२०१०

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Nov 15, 2010

चश्मे का हिसाब-किताब


कुछ बातें ऐसी हैं जिनके लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता । वे अपने आप हो जाती हैं । न चाहने पर भी हो जाती हैं । जैसे कि मौत, रिटायरमेंट और किसी का वरिष्ठ नागरिक होना । पहले दिवाली के दूसरे दिन सब एक सिरे से मोहल्ले के सभी बड़े स्त्री-पुरुषों के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लिया करते थे । हम सोचा करते थे कि कभी तो हम इतने बड़े होंगे ही कि मोहल्ले के बच्चे-जवान हमारे पैर छूने के लिए आया करेंगे मगर किस्मत की बात कि वरिष्ठ नागरिक बने हुए चार साल हो गए मगर कोई भी पैर छूने नहीं आता । हम अपने मन में तो यह जानते ही हैं कि हममें उम्र बढ़ने के बावज़ूद बुजुर्गों वाली गंभीरता नहीं आई है । और कभी-कभी हमें यह लगता है कि बच्चों को भी हमारी इस कमी का पता चल गया है या फिर हो सकता है कि अब वह चलन ही खत्म हो गया । सब एस.एम.एस. और फोन से ही काम चला लेते हैं । आने-जाने की ज़हमत उठाने की ज़रूरत ही नहीं । आदत से लाचार हमीं अपने से बड़ों के चरण छूने जाते हैं । मगर अब उनकी संख्या काफी कम हो गई है । हो सकता है कि दस-पाँच बरस में या तो वे या फिर हमारी ही ‘जै राम जी की’ हो जाएगी ।

वैसे तोताराम तो कोई दो घंटे से ही आया बैठा है । पर तोताराम के आने को हम आना नहीं मानते क्योंकि वह तो रोजाना ही आता है । वैसे इसका एक कारण यह भी है कि जब घर में ज़्यादा काम होता है तो हम दोनों की पत्नियाँ यही चाहती हैं कि यदि हम घर के अंदर न आएँ तो अधिक सुविधा रहेगी । तोताराम के आज दोपहर में भी जमे होने का एक कारण यह भी हो सकता है । तभी एक युवा पत्रकार आ गया । हम उसे अच्छी तरह से जानते हैं । अभी वह संघर्ष कर रहा है । मतलब कि उसे खबरें देने के पैसे नहीं मिलते । हाँ, वह लोगों की छोटी-मोटी खबरें छपवा कर उनसे चाय-पानी का जुगाड़ ज़रूर कर लेता है । वैसे, जब से अखबारों के कई-कई संस्करण निकलने लगे हैं तब से अखबार का नाम भले ही राष्ट्रीय हो मगर उनका चरित्र स्थानीय क्या, गली-मोहल्ले जैसा हो गया है । एक जिला मुख्यालय के भी शहरी और ग्रामीण संस्करण निकलने लगे हैं । अखबार में छपी अपनी खबर को देख कर व्यक्ति फूला नहीं समाता कि अब तो सारा संसार उसे पढ़ रहा होगा मगर असलियत यह है कि पन्द्रह किलोमीटर दूर के गाँव में पढ़े जा रहे अखबार में वह खबर हो ही नहीं । इस प्रकार विज्ञापन भी अधिक मिल जाते हैं और जहाँ तक खबरों के संकलन का प्रश्न है तो आप न्यूज एजेंसियों से इंटरनेट पर ही कमरे में बैठे-बैठे दुनिया भर की खबरें और फोटो डाउनलोड कर सकते हैं ।

तो युवा पत्रकार आया, हमारे पैर छुए और एक-दो अखबारों के दिवाली की बधाई के विज्ञापनों से भरे पन्ने हमारे सामने फैला दिए । हमें लगा, हमारी साधना सफल हुई । कोई तो आया । जैसे कि कोई साधारण आदमी आमरण अनशन पर बैठ जाए और शाम तक उसे सँभालने के लिए कोई न आए । ऐसे में कोई गली का युवा नेता ही आ जाए और कहे कि हम आपकी माँगों को सरकार तक पहुँचाएँगे । अनशन तोड़िये और यह शिकंजी पीजिए । बस, कुछ इसी शैली में हमारा मान रह गया । हमने उसे आशीर्वाद दिया, चाय ऑफर की । उसने विज्ञापनों की भीड़ में से एक चार लाइन का समाचार निकाल कर पढ़वाया । 'मास्टर रमेश जोशी का पुराना चश्मा पचास लाख में नीलाम हुआ' । हमें लगा, यह कारस्तानी भी तोताराम की ही है । असलियत हम जानते है फिर भी एक गर्व की अनुभूति जैसी कुछ हुई । 'पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही' वाली शैली में । सोचने लगे कि अब उन लोगों को पता चलेगा, आँखें फट जाएँगी जिन्होंने हमारी पुस्तकों को पाँच सौ रुपए के पुरस्कार के लायक भी नहीं समझा । तभी एक सज्जन, जिन्हें हम जानते नहीं थे, हमें बधाई देकर बैठकर गए । हमने उन्हें भी चाय प्रस्तुत की ।

चाय पीते-पीते उन्होंने पूछा- मास्टर साहब, इतना महँगा चश्मा किसने खरीदा ?
हम ज़वाब देते इससे पहले ही तोताराम बोल पड़ा- इससे क्या फर्क पड़ता है कि किसने खरीदा ?

तभी युवा पत्रकार बीच में कूदा- समाचार देने तो तोताराम जी आए थे । इनको तो पता होगा ही ।

अब बारी तोताराम की थी, बोला- तुम तो पत्रकार हो । तुम्हें तो मालूम होना चाहिए कि समाचार का सूत्र बताने के लिए संवाददाता को कोई बाध्य नहीं कर सकता ।
अब तक चुप बैठा, अनजान सज्जन कहने लगा- यह ठीक है कि आपको बताने के लिए कोई बाध्य नहीं कर सकता मगर आयकर विभाग के नियमों के अनुसार जिसने भी खरीदा है उसे तो बताना पड़ेगा ही कि इतना पैसा कहाँ से आया ?

आज पता नहीं तोताराम क्यों आक्रामक मुद्रा में था, बोला- लगता है आप आयकर विभाग से हैं । तो महोदय, जब किसी ने मोनिका लेविंस्की की क्लिंटन द्वारा हस्ताक्षरित 'वह' ड्रेस करोड़ों में खरीदी थी तब आप कहाँ थे ? जब मर्लिन मुनरो की प्रथम प्रेमलीला वाला पलंग किसी ने करोड़ों में खरीदा था आपने क्या किया था ?

आयकर विभाग वाला सज्जन पहले तो अचकचा गया मगर फिर कुछ कानूनी हो गया- हमारा विभाग विदेशों में हुए घपलों के लिए जिम्मेदार नहीं है ।

तोताराम बोला- तो फिर यही बता दीजिए कि सचिन तेंदुलकर का बल्ला बयालीस लाख में खरीदने वाला कौन है ? अमिताभ बच्चन के साथ खाना खाने की नीलामी बारह लाख में छुड़ाने वाला कौन है ? उन्हें दो लाख तीस हज़ार का चश्मा किसने भेंट किया ? चलो छोटी-मोटी बातें तो छोड़िये, मुकेश अम्बानी ने मात्र चालीस करोड़ सालाना तनख्वाह में दस हज़ार करोड़ का बँगला कैसे बनवा लिया ? बाबा रामदेव को करोड़ों का हेलीकोप्टर किसने भेंट किया ? और मान लो हमने ही खरीद लिया मास्टर का चश्मा तो क्या घपला कर दिया ?

हमें आयकर विभाग का अधिक अनुभव तो नहीं है पर इतना ज़रूर जानते हैं कि वे आपसे कुछ भी पूछ सकते हैं मगर आप उनसे कुछ नहीं पूछ सकते । टेक्स का एक पैसा कम जमा हो जाए तो मनमाना ब्याज लगा देंगे पर अगर आपने भूल से टेक्स ज्यादा जमा करवा दिया तो वापिस मिलेगा या नहीं इसकी गारंटी नहीं है । हमने पेन कार्ड बनवाते समय सभी कुछ ठीक लिख कर दिया था पर उन्होंने कार्ड में हमारे नाम की स्पेलिंग गलत छाप दी । पूछने गए तो कहने लगे- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । बस, पैसे का हिसाब ठीक होना चाहिए ।

आयकर वाला कहने लगा- मगर जब तोताराम जी या आप अपना रिटर्न भरेंगे तब तो सब दिखाना ही पड़ेगा और इनकम का सोर्स बताना ही पड़ेगा ना ?

अब तोतराम ने छक्का मारा, कहने लगा- जी, हमने ही ख़रीदा है चश्मा । समाचार में यह कहाँ लिखा है कि नकद खरीदा या किस्तों में ? और हाँ, पेमेंट भी हम ही करेंगे मगर पाँच रुपए रोजाना की किस्तों में । ले लेना खर्चे का हिसाब-किताब ।

अब तो आयकर विभाग वाले की शक्ल देखने लायक थी ।

फिर भी हम नहीं चाहते थे कि त्यौहार के दिन मिठास कम हो सो पत्नी से कुछ मिठाई लाने के लिए आवाज़ लगाई ।

७-११-१०

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Nov 13, 2010

नारियल, कुत्ता, ओबामा और तोताराम


पत्नी का दिवाली की सफाई का कार्यक्रम आज छोटी दिवाली तक भी चल ही रहा था । इसलिए हो सकता है चाय मिलने में अधिक विलंब हो, सो हमने कहा- तोताराम, आज उधर बगल वाले प्लाट में पेड़ के नीचे बैठते हैं । वहाँ जाकर देखा तो पाया कि नीम के पेड़ के नीचे पटाखों के ढेर सारे छिलके बिखरे पड़े थे । सो कुर्सियाँ खींच कर बेल के पेड़ के नीचे सरका ली, मगर तोताराम दूर ही खड़ा रहा ।

हमने उसका हाथ पकड़ कर खींचा- आ जा, बैठ जा । अभी चाय आने में पता नहीं कितनी देर लगेगी ।

कहने लगा- कोई बात नहीं, मैं यहीं खड़े-खड़े इंतज़ार कर लूँगा ।

हमें बड़ा अजीब लगा, पूछा- क्या किसी ने तुझे खड़ा रहने की सजा दे रखी है ? बोला- नहीं, ऐसी बात नहीं है पर ऊपर देख, एक सूखा-सा बेल का फल लटक रहा है । क्या पता, मैं इसके नीचे बैठूँ और वह फल मेरे सर पर गिर पड़े ।

हमें हँसी आ गई । अरे, यह सब 'काकतालीय न्याय' वाली बात है । क्या कहीं कौए के बैठने से पेड़ की डाल टूटती है ? कभी संयोग हो गया तो इसका मतलब यह नहीं है कि जब-जब भी कौआ बैठेगा तब-तब डाल टूटेगी ही । हमने तो कभी नहीं सुना कि पेड़ के नीचे बैठे किसी व्यक्ति का सर फल गिरने से फूट गया हो । यह तो ज़रूर पढ़ा है कि सिद्धार्थ को बरगद के पेड़ के नीचे बैठने से ज्ञान प्राप्त हुआ था । न्यूटन पेड़ के नीचे बैठा था तो पेड़ से गिरने वाले सेव को देखकर उसे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत पता चल गया । प्राचीन काल में पेड़ों के नीचे बैठकर ही विद्यार्थी ऊँचे से ऊँचा ज्ञान प्राप्त कर लिया करते थे । और तू है कि पेड़ के नीचे थोड़ी देर बैठने से ही घबरा रहा है । अरे, हमारी तो संस्कृति ही पेड़ों के नीचे विकसित हुई है । तभी तो 'आरण्यक' नामक ग्रन्थ हमारे यहीं पाए जाते हैं ।

कहने लगा- मास्टर, ज़माना बहुत आगे बढ़ गया है और उसी हिसाब से उसकी समस्याएँ भी । तुमने पढ़ा नहीं कि ओबामा जी के आने से पहले मणि-भवन के नारियल के पेड़ों के फल तोड़ दिए गए हैं । क्या पता, ओबामा जी का घुसना हो और फल का गिरना हो और अरबों रुपए खर्च करके किए जा रहे उनके स्वागत के रंग में भंग पड़ जाए । भले ही नारियल का फल बहुत बड़ा नहीं होता और उसके अपने आप गिरने की संभावना भी नहीं होती फिर भी भाग्य का कुछ भी पता नहीं । यदि गिर जाए तो बड़ी तगड़ी चोट लगती है । क्या पता, ब्रेन हेमरेज हो जाए । तो यह तेरा बेल का एकमात्र फल क्या पता, मेरे सर पर ही न गिर पड़े ।

हमने कहा- तो तू अपने को ओबामा समझ रहा है जिसके सर को पेड़ों पर लगे फलों से भी खतरा हो । यदि इतना ही डर लग रहा है तो तू भी अपने साथ पासपोर्ट बनवाकर किसी सूँघने वाले कुत्ते को अपने साथ ले आता ।

बोला- भले ही आजकल पुलिस आदमी से ज्यादा कुत्तों पर विश्वास करने लग गई हो पर कोई भी ज़मीन पर खड़ा कुत्ता नारियल के पेड़ पर लगे फल में घुसे विस्फोटक को नहीं सूँघ सकता ।

हमने कहा- कोई कुत्ता नारियल के फलों में घुसे विस्फोटक को नहीं सूँघ सकता और जब फलों को कटवाना ही था तो कुत्ते को लाने का खर्चा करने की क्या ज़रूरत थी । और वैसे भी अपने यहाँ कहावत भी तो है कि 'कुत्ता नारियल का क्या करेगा' ?

तोताराम कहने लगा- क्या पता, बुश साहब की तरह राजघाट जाने से पहले समाधि की सुरक्षा जाँच करवाने के लिए कुत्ते को उस पर चढ़ाना हो ? मगर ओबामा जी गाँधी जी के भक्त हैं । वे ऐसा तो हरगिज नहीं करेंगे ।


अभी तक तोताराम पेड़ के नीचे आकर नहीं बैठा तो हमें ही स्टूल को धूप में लाना पड़ा । हालाँकि धूप बहुत तेज नहीं थी फिर भी कार्तिक की धूप है, सुहानी भी कैसे हो सकती है । हमने बात जारी रखते हुए कहा- तोताराम, तू बिना बात ही डर रहा है । आज तक बता किस महान पुरुष की मौत पेड़ से गिरे फल की चोट से हुई है । लिंकन, कैनेडी, महात्मा गाँधी, इंदिराजी, राजीव गाँधी, बेनजीर, मुजीब, भंडार नायके सभी तो षडयंत्रों का शिकार हुए हैं ।

बोला- तुझे नहीं पता, ये खुराफाती लोग बड़े चालाक हैं । चोर चौकीदार से ज्यादा चतुर होता है । गृहस्थ को तो दिन भर काम करके रात को आराम करना होता है ताकि दूसरे दिन फिर काम पर जा सकें, पर इन खुराफातियों को कौन सी ड्यूटी करनी होती है । इन्हें तो सारे दिन ये खुराफातें ही सोचनी हैं । किसने सोचा होगा कि सर्जरी करके कुत्ते के पेट में विस्फोटक फिट कर दो और फिर रिमोट से उनका विस्फोट कर दो । यह बात और है कि संयोग से वह कुत्ता जहाज में बैठाए जाने से पहले ही फट गया । प्रिंटर के कार्ट्रिज में स्याही की जगह विस्फोटक भरकर कार्गो प्लेन में चढ़ा दो और मौका देखकर रिमोट से विस्फोट कर दो । ये तो तक्षक के भी बाप हैं जो परीक्षित को काटने के लिए फल में कीड़ा बनकर परीक्षित के पास पँहुच गया और दे ही दिया आतंकवादी गतिविधि को अंजाम ।

हमने पूछा- तोताराम, इन खुराफातियों में इतनी अक्ल और ट्रेनिंग कहाँ से आती है ? क्या इसका कोई स्कूल होता है ?

बोला- शीत-युद्ध के समय अमरीका ने ही रूस को घेरने के लिए उसकी सीमा से लगे मुस्लिम देशों में ऐसे खुराफाती स्कूल खुलवाए थे और इन्हें बहुत सहायता भी दी थी । अब ये आत्मनिर्भर हो गए है और अमरीका के लिए सिर दर्द भी । गलती किसी की और नारियलों से बचते फिर रहे हैं बेचारे ओबामा । इसी को कहते हैं 'बंदर की बला तबेले के सर' ।

हमने कहा- चलो भई, कब-कब आते हैं ऐसे मेहमान, दस-बीस पेड़ों के फल ही तो कटे हैं । यहाँ तो छोटे-मोटे आयोजन के लिए ही जाने कितने पेड़ काट दिए जाते हैं । आजकल तो वैसे भी इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास किया जा रहा है तो जाने कितने हजार एकड़ कृषि भूमि और कितने लाख पेड़ बलि चढ़ रहे हैं इस विकास की ।

तेरे साथ हम भी कामना कर ही देते हैं कि 'यात्रा सफल हो' पर असली पता तो कुछ दिनों के बाद लगेगा जब सब अपने-अपने हाथ सँभालेंगे कि मिलाए गए कौन-कौन से हाथ सलामत हैं और कौन से गायब ।

४-११-२०१०

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तोताराम की आवाज़ का पेटेंट


आज तोताराम नहीं आया । नौ बज गए । अब उसके आने की कोई उम्मीद लगती । जैसे ही हम अंदर जाने लगे तो एक उजबंग से सज्जन के साथ तोताराम आता दिखाई दिया । हमने रोकना चाहा, तो बोला- अभी जल्दी में हूँ, वकील से मिलना है ।

हमने पूछा- तेरा वकील से क्या काम आ पड़ा ? क्या कहीं तूने भी आदर्श हाउसिंग सोसाइटी में फ्लेट तो नहीं कबाड़ा था ?

कहने लगा- मौका मिलने पर कौन चूकता है, पर मैं अभी इतना बड़ा आदमी नहीं बना कि उस सोसाइटी में फ्लेट कबाड़ सकूँ । मुख्यमंत्रियों, सेनाध्यक्षों का पेट भरे तो किसी और का नंबर आए ना । मैं तो अपने इस ब्रदर-इन-ला के काम से जा रहा हूँ ।

हमने कहा- तेरे सभी सालों को हम जानते हैं । ये सज्जन उन में से तो कोई भी नहीं हैं ।

कहने लगा- इनकी और मेरी एक ही समस्या है और उसी के कानूनी हल के लिए हम वकील की सलाह लेने जा रहे हैं इसलिए हम दोनों ब्रदर-इन-ला हुए कि नहीं ?

ब्रदर-इन-ला की इस नई व्युत्पत्ति ने हमें आश्चर्यचकित कर दिया ।

हमने कहा- अच्छी बात है । चले जाना, एक-एक चाय तो हो जाए ।

दरअसल हमारी रुचि चाय पिलाने में इतनी नहीं थी जितनी कि कानूनी मामले को जानने में थी ।

हमने पूछा- तुम्हारे साले साहब, सॉरी, ब्रदर-इन-ला की क्या समस्या है ?

तोताराम ने बताया कि इन सज्जन का नाम है 'नवारी लाल' । हमें नाम बड़ा अजीब लगा । पूछने पर तोताराम की जगह वे सज्जन खुद ही बताने लगे- जैसे आप तोताराम जी के भाई साहब हैं वैसे ही हमारे भी । सो भाई साहब, बात यह है कि नाम तो हमारा बनवारी लाल है और हम टीचर के बताए अनुसार बड़े 'बी' से अपना नाम शुरु करते थे मगर जब से एक महानायक 'बिग बी' बन गए तो हमने सोचा- 'राड़ से बाड़ भली' । अपना क्या है, छोटे बी से अपना नाम लिखना शुरु कर लिया करेंगे । फिर पता चला कि उनके साहबजादे भी फिल्मों में चल निकले हैं तो स्माल बी उनके लिए रिज़र्व हो जाएगा । सो कोई टोके उससे पहले ही मैंने अपना स्माल बी भी हटा दिया और अब मात्र 'नवारी लाल' रह गया हूँ । सोचता हूँ, कोई इन बचे हुए तीन अक्षरों को भी कब्ज़ा ले उससे पहले ही इनका तो पेटेंट करवा लूँ ।

अब हम तोताराम की तरफ मुखातिब हुए- तो महाशय तोताराम जी बताइए, आप किस चीज का पेटेंट करवाने जा रहे हैं ? कहीं अपनी आवाज़ का पेटेंट तो नहीं करवाने जा रहे, अमिताभ बच्चन की तरह ? ठीक भी है, इस गुरु गंभीर आवाज़ का पेटेंट करवा ही लेना चाहिए । ऐसी आवाज़ सदियों में ही किसी एक को भगवान अता फरमाता है ।

 तोताराम कहने लगा- मैं सब समझता हूँ तुम्हारा इशारा । ठीक है, मेरी आवाज़ मनमोहन सिंह जी की तरह शालीन है पर है तो विशिष्ट ना । और मुझे मालूम है कि तू इसे अपनी भाषा में 'मिमियाती' हुई आवाज़ कहेगा । मगर याद रख मिमियाती आवाज़ का भी महत्व होता है । क्या दहाड़ती आवाज़ के बल पर अडवानी जी प्रधान मंत्री बन सके ? और मान लो बन भी जाते तो कितना टिक पाते ? और मान लो अटल जी की तरह किसी तरह टिक भी जाते तो क्या दूसरी टर्म के लिए चुने जाते ? और मान लो चुने भी जाते तो क्या ओबामा और मिशेल को इस तरह नचा पाते जैसे कि मनमोहन जी ने दिल्ली और मुम्बई में नचा दिया ? यह इस मिमियाती आवाज़ का ही कमाल है । सो जब तक कोई और दूसरा कूद नहीं पड़े उससे पहले मैं भी अपनी इस मिमियाती आवाज़ का पेटेंट करने जा रहा हूँ । 

हम सोच रहे थे कि ज़माना कितना बदल गया है । राम ने धनुष-बाण का, कृष्ण ने बाँसुरी का, शिव ने त्रिशूल का, विष्णु ने सुदर्शन चक्र का, सरस्वती ने वीणा का पेटेंट नहीं करवाया और लोग हैं कि अपनी आवाज़ का पेटेंट करवा रहे हैं । अरे भाई, आवाज़ क्या अपनी है ? यह तो भगवान की दी हुई है ? और किसे पता है, कब बंद हो जाए मगर नहीं साहब, यह हमारी आवाज़ है और हम इसका पेटेंट करवाएँगे । ठीक है करवाइए । हमें क्या ?

८-११-२०१०

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Nov 4, 2010

पचास लाख में चश्मे की नीलामी



आज जब रोज हजारों करोड़ की रिश्वत, घोटालों और निवेश की खबरें पढ़ते है तो हमें उस दिन को याद करके हँसी आ जाती है जब हम रिटायर होने वाले थे । बड़े बाबू ने हिसाब लगाकर बताया था-गुरु जी, आपको रिटायरमेंट पर पूरे पाँच लाख मिलेंगे । हमने कहा- बड़े बाबू, उस समय आप हमारे साथ रहना क्योंकि हमारी गणित कमज़ोर है । क्या पता, गिनने में गलती हो जाए । जब बड़े बाबू ने बताया कि यह रकम आपको नकद नहीं मिलेगी बल्कि आपके बैंक खाते में जमा होगी तब कहीं जाकर तसल्ली हुई । चलो,जितना आसानी से गिना जा सके उतना ही थोड़ा-थोड़ा करके निकलवाते रहेंगे ।

तभी तोताराम ने हमारा ध्यान भंग किया- मास्टर, तेरा चश्मा कितने में बेचेगा ?
हमने कहा- बेचना क्या है, तू ऐसे ही ले जा । इसके ग्लास बोतल के पेंदे जैसे हैं और इतने भारी कि दो चार मिनट में ही नाक दुखने लग जाती है । पोती भी कह रही थी- बाबा, अब इस चश्मे को छोड़ दो नया बनवा लो । छोड़ना तो है ही ।
बोला- फिर तू अखबार कैसे पढ़ेगा ? दूसरा है क्या ?


हमने उत्तर दिया- अब अखबार पढ़ने के कोई सेन्स नहीं है । रोज एक जैसी खबरें आती हैं । सवेरे-सवेरे वही हत्या, गबन, घोटाले, एक्सीडेंट, बलात्कार, चोरी, डाका पढ़-पढ़ कर जी घबराने लगता है । और जब से यह पढ़ा है कि शहीदों की विधवाओं के मकान भी मुख्य मंत्री और जनरल हड़प गए तो डर लगने लग गया है । कलियुग क्या, महाकलियुग आ गया है । सोचते हैं, अखबार पढ़ना ही छोड़ दें । वैसे कभी कभार कोई चिट्ठी-पत्री लिखनी हुई तो देख विचारेंगे । नया बनवा लेंगे । तू तो इसे ले ही जा ।

तोतराम बोला- बंधु, मैं कोई चीज मुफ्त में नहीं लेता । तेरे चश्मे की नीलामी करते हैं । जितने मिल जाएँ, तेरे ।

अब हमें भी इस खेल में मजा आने लगा था । सो पत्नी से चश्मा मँगवाया । चश्मा हमारे सामने स्टूल पर रख दिया गया । तोताराम ने हमारी पत्नी से कहा- भाभी, आप यहीं रुको । गवाह के हस्ताक्षर भी तो होंगे । चाय नीलामी के बाद बना लेना । आप बिडर होंगी । तो बोलो, मास्टर रमेश जोशी के चश्मे की रिज़र्व प्राइस है बयालीस लाख एक रुपए ।

पत्नी भी इस खेल में शामिल हो गई और अंदर से बेलन ले आई और दो-तीन बार स्टूल पर ठोंक कर बोली- चिक्की के दादाजी के चश्मे की रिजर्व बोली है बयालीस लाख एक रुपए । जो भी सज्जन इससे ज्यादा की बोली लगाना चाहते हैं, लगा सकते हैं ।

पत्नी की आवाज़ की गूंज भी खत्म नहीं हुई थी कि तोताराम बोल पड़ा- पचास लाख । और कोई चौथा व्यक्ति उस समय आसपास भी नहीं था सो अगली बोली लगने की संभावना नहीं थी । पत्नी ने फिर तीन बार स्टूल पर बेलन ठोंका- पचास लाख एक, पचास लाख दो, पचास लाख तीन । और घोषणा कर दी कि पचास लाख में चश्मा तोताराम जी का हुआ ।

तोताराम ने कहा- भाभी, आप गवाह रहना । और अपनी जेब से चेक निकाल कर हमारे हाथ पर रख दिया । पूरे पचास लाख की रकम लिखी हुई थी ।

हमने कहा- तोताराम, यह नाटक ठीक तेरी योजना के अनुसार पूरा हुआ पर हमें यह बात अभी तक समझ में नहीं आई कि तुमने चश्मे की बोली बयालीस लाख एक रुपए ही क्यों लगाई ? इतनी बड़ी बोली में एक रुपए का क्या महत्व है ? पूरे बयालीस लाख क्यों नहीं रखा ?

कहने लगा- बात एक नहीं, एक लाख रुपए की भी नहीं है । मुझे तो अपने मास्टर का एक रिकार्ड बनवाना था सो बनवा दिया । अरे, जब सचिन का पुराना बल्ला बयालीस लाख में बिक सकता है तो एक राष्ट्र निर्माता का वह चश्मा जिससे उसने देश के लिए बड़े-बड़े सपने देखे हैं, बयालीस लाख से अधिक में क्यों नहीं बिक सकता ? इतना कह कर उसने पचास लाख का एक चेक हमारे हाथ पर रख दिया । अब तो तोताराम की इस मजाक की योजना पूरी तरह से स्पष्ट हो गई । यदि यह नाटक नहीं होता तो उसे क्या पता था कि चश्मा पचास लाख में नीलाम होगा ।

हमने कहा- तोताराम, तेरे खाते में तो पचास लाख पैसे भी नहीं हैं फिर यह चेक काटने का क्या मतलब ? मान ले यह चेक हमने बैंक में डाल दिया तो ?

कहने लगा- मास्टर, ऐसा मत करना नहीं तो मुझे जेल की सजा हो जाएगी । इस देश में भले ही करोड़ों-अरबों का घपला करने वालों पर कार्यवाही न हो, देशद्रोहियों को फाँसी देने का निर्णय लेने में बरसों लग जाए मगर चेक अनादरण के मामले में फटाफट सजा हो जाएगी । प्लीज, बैंक में मत डाल देना ।

हम इस चेक को कौन सा बैंक में डालने वाले थे हम तो तोताराम से मज़ाक कर रहे थे । हमने वह चेक पता नहीं कहाँ रख दिया जैसे कि बच्च्चों के चूरण की पुड़िया में निकलने वाले खेलने के नोट ।

३१-१०-२०१०

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श्रम और संबंधों की आराधना का रामराज्य : दीपावली



दुनिया की सभी प्राचीन सभ्यताएँ प्रकृति के सान्निध्य में कृषि-जीवन से उपजी हैं । उनके सभी उत्सव भी उसी से जुड़े हुए हैं । यूँ तो होली भी फसल के समय ही आती है । संसार के सभी स्थानों में एकाधिक फसलें नहीं होतीं किन्तु दीपावली पर घर आने वाली फसलें तो संसार के सभी भागों में होती हैं इसलिए विभिन्न नामों से सर्वत्र ही यह श्रम-सिद्धि के उत्सवों का समय है ।

समस्त भारत में दीपावली श्रम और संबंधों की आराधना का एक उत्सव-संकुल है जिसमें अर्जन और विसर्जन का एक अद्भुत अध्यात्मिक समन्वय है । दुर्गापूजा, दशहरा, धनतेरस, नर्क-चतुर्दशी, रूप-चतुर्दशी, दिवाली, गोवर्धन-पूजा, अन्नकूट, भैया-दूज, यम-द्वितीया और सूर्य-षष्ठी इस शृंखला के प्रमुख पर्व हैं । और इन सबसे ऊपर है भगवान राम का चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटना और रामराज्य की स्थापना । यह रामराज्य ही भारत की चिन्तना का चरमोत्कर्ष है ।



इस उत्सव-शृंखला के सभी दिनों में निहित श्रम और संबंधों पर विचार करें तो दुर्गा-पूजा, जिसका सन्देश है कि बहुत बड़ी नकारात्मक शक्ति का विनाश सब के सामूहिक प्रयत्न के बिना नहीं हो सकता । इसी सामूहिक शक्ति से उपजती है दुर्गा । 

दशहरे पर रावण-वध, केवल भोग पर आधारित सभ्यता के अपने की दुष्कर्मों से नष्ट हो जाने का एक आँख खोल देने वाला आख्यान है । 

समाज के ईमानदार श्रम का पुण्य-फल है धनतेरस पर घर आई फसल । तभी 'कराग्रे वसते लक्ष्मी' माना गया है और राजस्थानी में मेहनत की कमाई को 'दशों नाखूनों की कमाई' कहा गया है । श्रम करने वाले को ही अपने श्रम के पुरस्कार स्वरूप रूप सँवारने का अधिकार है मगर इसके साथ ही कैसा कटु सत्य भी जोड़ दिया गया है कि नर्क चतुर्दशी भी आज ही है । इसप्रकार श्रमसाध्य भोग को भी जीवन का अंतिम सत्य नहीं बनने दिया । फिर दिवाली । 


अंदर-बाहर के तम को मिटा कर ही रामराज्य आता है । अगले दिन मानव समृद्धि की आधार गौवंश की पूजा- मानवेतर प्राणियों तक के प्रति कृतज्ञता का पर्व । और साथ ही अन्नकूट भी- समृद्धि में सब की साझेदारी की स्वीकृति । मंदिरों में नई फसल के अन्न से बना प्रसाद 'अन्नकूट' बँटता है और प्रतीकात्मक रूप से उस प्रसाद की लूट भी होती है- 'समान वितरण का दर्शन' । भैया-दूज और यम द्वितीया भी- सहोदरी संबंधो से लेकर मृत्यु के देवता तक से नाता जोड़ने का दिन । और फिर समस्त सृष्टि के आधार सगुण, साक्षात् देव सूर्य की आराधना । इस सन्दर्भ में यह भी याद कर लें कि क्या हमने कभी सुबह उठकर सूर्य के दर्शन करने, उसके प्रति कृतज्ञता और पूजा निवेदित करने की सोची है ? यदि नहीं, तो फिर इस पर्व को कैसे आत्मसात कर सकेंगे ?



अब देखें कि कैसे ये सब रामराज्य में समाहित हैं । राम वन गमन से लेकर अयोध्या लौटने तक, अकेले न तो सेतुबंध का निर्माण करते हैं और न ही अकेले रावण को मारते हैं । इसमें गिलहरी से गीधराज तक, शबरी से शिव तक, निषाद से नल-नील तक समाज के सभी वर्गों का सहयोग लेते हैं । वे वशिष्ठ जी को कहते भी हैं कि ये सब उस संकट-सागर मेरे लिए बेड़े के समान थे । विभीषण पर रावण द्वारा छोड़ी गई शक्ति को वे अपने ऊपर ले लेते हैं । लक्ष्मण-मूर्छा के समय वे कहते हैं कि अब विभीषण को दिए गए वचन का क्या होगा ? वन-गमन के समय सरयू पार करते समय उन्हें केवट को कुछ भी न दे पाने पर संकोच होता है । घर में अनेक सेवकों के होते हुए भी सीता घर के काम स्वयं करती हैं । वन से लौट कर सबसे पहले कैकेयी के आवास पर जाते हैं । वनवास से आकर वे भरत की जटाएँ खुद अपने हाथ के खोलकर धोते हैं । अंगद को अयोध्या से जाते समय वे अपने गले की माला निकाल कर पहनाते हैं । संबंधों की इतनी सूक्ष्म समझ ।

राम के राज्य में सब अपने -अपने धर्म का निर्वाह करते हैं । यहाँ तक कि पनघट पर पुरुष स्नान भी नहीं करते । राम जब 'उत्तरकांड' में अपनी प्रजा से बातें करते समय वे कहते हैं-

जो अनीति कछु भाखौं भाई । तो मोहू बरजहु भयय बिसराई ।।

मतलब कि सबकी सच्ची सहमति । राजा का कोई आतंक नहीं ।

अंत में वे तुलसी के शब्दों में रामराज्य का सार इस प्रकार माना जा सकता है-
राज नीति बिनु, धन बिनु धरमा । प्रभुहि समरपे बिनु सतकरमा ।।

इस प्रकार नीति बिना चलने वाले राज्य, बिना धर्माचरण के प्राप्त किए किए गए धन और सर्वहिताय समर्पित कर्मों के बिना न तो सच्ची दिवाली हो सकती है और न ही हमारे आदर्शों के रामराज्य की स्थापना ।


सच्ची लक्ष्मी की आराधना के लिए दिवाली का प्रकाश हमें यही चेतना और मार्ग दर्शन प्रदान करे ।


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Nov 3, 2010

ज्योति कलश छलके - हैप्पी दिवाली



[ ज्योति कलश छलके - 'भाभी की चूड़ियाँ ' फ़िल्म का सुप्रसिद्ध चित्र-पट-गीत की तर्ज़ पर आधारित ]

दीवाली पर जेब कट गई |
शोर, धुएँ से फिज़ाँ अट गई |
और पटाखों के सड़कों पर
फैले हैं छिलके | ज्योति कलश छलके |

सबके खाली टेंट हो गए |
नोट गिफ्ट की भेंट हो गए |
संबंधों पर जो खर्चे हैं
वे प्राफिट कल के | ज्योति कलश छलके |

कैसी अंधी दौड़ चल रही |
सबमें होड़ा-होड़ चल रही |
आँख मूँदकर निबल जनों से
पीछे धन, बल के | ज्योति कलश छलके |

कोई काम न करना चाहे |
माल मुफ्त का चरना चाहे |
धर्म-कर्म सब हुआ उपेक्षित
सब आशिक फल के | ज्योतिकलश छलके |

निर्धन जन से आँख चुराई |
धनिकों को दे रहे बधाई |
ऊँची, भारी बातें करते
पर मन के हलके | ज्योतिकलश छलके |

घर आगे गोबरधन रचते |
गोपालन से बचते फिरते |
गोपाष्टमी खिलाया गुड़
फिर खा कागज, छिलके | ज्योति कलश छलके |

रूप चतुर्दशी देह निहारें |
मन की कालिख नहीं उतारें |
भगत नोट के नहा रहे हैं
उबटन मल-मल के | ज्योति कलश छलके |

खेलें जुआ, सत्य ना बोले |
करें मिलावट औ' कम तोलें |
दर्पण में मुँह देख-देखकर
मुड़ -मुड़ कर मुळकें | ज्योति कलश छलके |

दो नंबर की लक्ष्मी आई |
पर इसमें आनंद न भाई |
सच्ची लक्ष्मी तब प्रकटे
जब श्रम सीकर झलकें | ज्योति कलश छलके |

मुख से बोलें राम-राम सा |
पर स्वारथ से सदा काम सा |
राम मिलेंगे धर्म-न्याय से
वन-वन चल-चल के | ज्योति कलश छलके |


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Nov 1, 2010

मुशर्रफ पर फ़तवा


तलाल अकबर बुगती साहब,
आदाब । आपने १०-१०-१० को अपने वालिद के हत्या करवाने वाले और लाला मस्जिद पर हमला करवाने वाले मुशर्रफ की हत्या करवाने के लिए सुपारी की घोषणा की है । अच्छा दिन चुना है । इस दिन को लेकर लोगों में बड़ा क्रेज था । १०-१०-१० । तीनों दस । कई लोगों ने तो इसे शुभ दिन मानकर समय पूर्व ही बच्चों को ज़बरदस्ती जन्म दिलवा दिया । आपने भी इस 'वाजिब-उल-क़त्ल' के लिए यही शुभ दिन चुना । हमारे भविष्य में भी इस दिन के लिए आया था कि कहीं से धन की प्राप्ति होगी । सो हमें लगा कि आपके इस ऑफर में ही शायद हमारा धन-प्राप्ति का भविष्य छुपा हो । सो सोच रहे हैं कि हम आपकी यह सुपारी स्वीकार कर ही लें ।

हमें इस प्रकार की सुपारियाँ स्वीकार करने का पुराना अनुभव है । इससे पहले भी जब बुश साहब ने ओसामा के लिए सुपारी की घोषणा की थी तो हमने बुश साहब से इस बारे में पत्र व्यवहार किया था मगर उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया था । इसी प्रकार हमारे उत्तर प्रदेश के हज़ मंत्री जी ने भी मुहम्मद साहब का कार्टून बनाने वाले स्वीडिश चित्रकार का सर लाने वाले को एक बड़ी राशि और उसके वज़न के बराबर सोना देने की घोषणा की थी । हमने वह सुपारी भी स्वीकार कर ली थी मगर फिर वही किस्सा । उनका कोई उत्तर नहीं आया । अब आपका ऑफर प्रकाशित हुआ है । सो हम इसे भी स्वीकार कर रहे हैं ।


अब इतनी बड़ी डील है तो ऐसे ही तो स्वीकार नहीं की जा सकती । कुछ न कुछ तो तय करना ही पड़ेगा । वैसे हम तो भगवान में विश्वास करते हैं सो ऐसे लोगों का फैसला भगवान पर ही छोड़ देते हैं । जो जैसा करेगा वैसा भरेगा । मगर आप को न तो कानून पर भरोसा करते हैं और न ही भगवान पर । सो खुद ही फैसला करना चाह रहे हैं । ठीक भी है, जब आदमी को न्याय पर भरोसा नहीं रह जाता तो फिर वह खुद ही फैसला करता है । हमारे यहाँ भी नागपुर की एक अदालत में कुछ महिलाओं ने मिल कर बलात्कार के एक अपराधी हो कोर्ट परिसर में ही मार डाला क्योंकि वे जानती थीं कि कोर्ट कुछ नहीं कर पाएगा और अपराधी अपने धन बल पर छूट जाएगा । आप भी अपने देश के कानून के बारे में ऐसी ही राय रखते हैं ।

आप नेता हैं सो पैसे की तो कोई कमी नहीं है । मुहम्मद साहब का कार्टून बनाने वाले के लिए सुपारी देने वाले हमारे यहाँ के मंत्री ने कहा था कि वह यह राशि चंदे से जुटाएगा । और यह भी तय है कि चंदा करेगा तो खाएगा भी । ऐसे लोगों पर हमें तो भरोसा नहीं है । सो अच्छा ही हुआ कि उन्होंने हमें जवाब नहीं दिया वरना तो हम काम कर भी देते और फिर पैसों के लिए उनके पीछे-पीछे चक्कर काटते रहते । आप तो यह रकम अपने पास से ही देंगे । नकद देंगे या चेक से ? भारत के अलावा रुपया पाकिस्तान और नेपाल में भी चलता है और उनके रेट में भी फर्क है । आप जो एक अरब रुपया देंगे वह भारतीय रुपया होगा या पाकिस्तानी रुपया होगा ? अगर आप चेक से देंगे तो उसमें से हमारा तो तीस प्रतिशत तो टेक्स की कट जाएगा और आपको भी कोई फायदा नहीं होगा । यह रुपया यदि स्विस बैंक में जमा करा दिया जाए तो कैसा रहे ? वहाँ हमारा खाता खुलवाने का काम भी आप ही करेंगे क्योंकि हमें उस प्रक्रिया का कुछ भी पता नहीं है ।


इसके साथ ही आपने एक हज़ार एकड़ ज़मीन भी देने की बात कही है । सो आपके यहाँ उस इलाके में ज़मीन का क्या भाव चल रहा है ? यहाँ तो ज़मीन के भावों में आग लगी हुई है । यहाँ तो बहादुर शाह ज़फर जैसी हालत हो रही है । ‘कूए यार में दो गज ज़मीन खरीदने’ की भी हैसियत नहीं रह गई ही साधारण आदमी की । तो क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप ज़मीन की रकम भी केलकुलेट करके इस इनाम में नकद ही जोड़ दें क्योंकि जब ज़मीन होगी तो हमें उसे सँभालने के लिए पाकिस्तान आना पड़ेगा और पाकिस्तान की हालत तो आप जानते ही हैं । जब वहाँ सुन्नी लोग अपने शिया भाइयों को ही बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं, यहाँ से १९४७ में पाकिस्तान गए लोगों को आज तक भी मुहाजिर ही मान रहे हैं और उन पर हमले कर रहे हैं तो हमें वहाँ कौन जिंदा छोड़ेगा । यह कोई भारत तो है नहीं, जहाँ वोट बैंक के चक्कर में करोड़ों बंगलादेशियों को बसा लिया, उनके राशन कार्ड बनवा दिए गए । अब उनमें से कई तो एम.एल.ए.और एम.पी. तक बन गए हैं । यदि हम किसी तरह वहाँ रह भी गए तो साल छः महिने में मुसलमान बनने के लिए बाध्य किया जाएगा । जब हिंदू कश्मीर में ही नहीं रहने दिए गए तो पाकिस्तान में कौन रहने देगा ? और फिर साहब, बचपन की बात और है । अब इस उम्र में खतना करवाने से बड़ा डर लगता है । सो यह ज़मीन का चक्कर छोड़िये । नकद ही रखिए ।

वैसे मुशर्रफ के सर का आप करेंगे क्या ? इसकी खोपड़ी में तो खुराफात ही भरी हुई है । बुरे आदमी का तो नाम ही बुरा होता है । हमारे मोहल्ले में ब्राह्मणों की एक उपजाति है । कहते हैं कि वे जहाँ होते हैं वहाँ लड़ाई झगड़े ज़रूर होते हैं । इस लिए लोग उन्हें अपनी बारात में भी ले जाने से कतराते हैं । एक बार एक बारात में उस उपजाति का एक भी व्यक्ति बारात में नहीं था फिर भी बस रेत में फँस गई । दूल्हे के बाप ने पूछा- अरे, कोई उस जाति का तो नहीं है बरात में । एक आदमी ने कहा- जी, आदमी तो कोई नहीं है मगर मेरे पास उस जाति के एक आदमी का गमछा ज़रूर है । दूल्हे के बाप ने कहा- गमछा फेंक । हम तुझे दूसरा दिला देंगे । उसने गमछा फेंका तब कहीं जाकर बस चली । सो जनाब, यह महान आत्माओं का प्रभाव । जब एक गमछा ही इतना प्रभाव दिखा सकता है तो फिर आप तो मुशर्रफ का सर पाकिस्तान में मँगवा रहे हैं । आपके देश में पहले से ही बहुत सी पुण्यात्माएँ कल्याण करने में लगी हुईं हैं फिर यह नई आफत क्यों पाल रहे हैं । वैसे आप निश्चिन्त रहिए । वे अब पकिस्तान में नहीं आ पाएँगे क्योंकि उनको बाहर रखने में, आपसे ज्यादा रुचि, ज़रदारी को है ।

फिर भी आपको उसके सर से ही ज्यादा प्रेम है तो हमें क्या । शर्तों पर विचार करके शीघ्र लिखिएगा ।

१५-१०-२०१०
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हैप्पी दिवाली, ओबामा जी


ओबामा जी,
नमस्ते । इस बार आप दिवाली पर भारत में होंगे । धन्न भाग । आपसे पहले बुश साहब ने भी दिवाली की शुरुआत की थी मगर मेन व्हाईट हाउस में नहीं बल्कि उससे जुड़ी इमारत 'इंडियन ट्रीटी रूम' में । यह वैसे ही था जैसे हमारी भाभी लहुसन नहीं खातीं तो भाई साहब को लहसुन की चटनी स्टोव पर और अलग से रखे बर्तनों में बनानी पड़ती है, फिर भी हम तो इसी में धन्य हो गए थे । इसके बाद आपने १४ अक्टूबर २००९ को धन तेरस को व्हाईट हाउस के ईस्ट रूम में दीया जलाकर दिवाली मनाई और अब आप ७ नवंबर को मुम्बई में दिवाली मनाएँगे । वैसे बताते चलें कि वास्तव में दिवाली ५ नवंबर को है लेकिन अमरीका में त्यौहार अपने आसपास के संडे के हिसाब से मनाया जाता है । बिना बात एक कार्य दिवस का व्यापारी को नुकसान क्यों हो ? आपके यहाँ भारत मूल के कोई तीस लाख लोग हैं मगर एक दिन के लिए भी दिवाली की छुट्टी नहीं होती । हमारे यहाँ की बात और है । यहाँ तो क्रिसमस की छुट्टी २५ दिसंबर को ही होती है । किसी आसपास के संडे पर नहीं टरकाया जाता । स्कूलों में तो कम से कम एक हफ्ते की छुट्टियाँ होती हैं । कुछ भी हो, आपका आना खुशी की बात तो है ही । और कहें तो खुशी से मर जाने का दिन है ।

दरअसल बात यह है कि इस देश को एक हज़ार साल से विभिन्न आक्रमणकारियों के जूते खाने का दारुण अनुभव है सो यह ज़रा सी सहानुभूति और आदर से ही गदगदायमान हो जाता है । भले ही भारत में हिंदी की दुर्गति हो रही हो मगर जब एक अंतरिक्ष यान में कई देशों के साथ भारत का भी झंडा और हिदी में लिखे दो शब्द चन्द्रमा पर भेजे गए तो हम बल्लियों उछले थे । जब आप चुनाव लड़ रहे थे तो लोग खबर उड़ा लाए कि आप हनुमान जी के भक्त हैं क्योंकि आपके हाथ में जो ब्रेसलेट है उसमें एक बंदर की शक्ल जैसी कोई चीज है । इससे उत्साहित होकर एक हनुमान-भक्त ने आपको हनुमान जी की सोने का पानी चढ़ी एक मूर्ति भी भिजवा दी थी । अब यह पता नहीं कि वह आप तक पहुँची या नहीं ।

तो आप ऐन दिवाली के दिन नहीं भी तो उसके आसपास आ रहे हैं, यही बहुत है । दिवाली के बाद महाजन नई बही शुरु करते हैं । अच्छा है - नई बही और दस बीस हज़ार करोड़ के सौदे से शुरुआत । आपसे पहले हमारे पुराने राजा ब्रिटेन के प्रधान मंत्री कैमरून साहब भी आए थे और तीन हज़ार करोड़ का सौदा कर गए । और इस सौदे से पहले दो चार अच्छी-अच्छी बातें करनी थीं सो वे भी कीं । अच्छी बातें मतलब कि भारत से 'पाकिस्तान नामक बीमारी' के बारे में सहानुभूति दिखाना । वैसे सौदा करके यहाँ से ब्रिटेन पहुँचते ही ज़रदारी का स्वागत बड़े जोश-ओ-खरोश से किया और थूक कर चाटने जैसा एक बयान दे दिया क्योंकि धंधा तो उसके साथ भी करना है । सुनार को ग्राहक और चोर दोनों का ध्यान रखना पड़ता है क्योंकि चोर से चोरी का सोना सस्ते में खरीदना है और ग्राहक को खोट मिलाकर मार्केट रेट पर बेचना है । उसके लिए तो दोनों ही महत्वपूर्ण हैं । कैमरून से पहले, जब ब्लेयर प्रधान मंत्री थे तब वे भी आए थे और चार हजार करोड़ का सौदा कर गए थे ।

आपके बाद छः दिसंबर को फ़्रांस के राष्ट्रपति आ रहे हैं । उन्हें भी कोई न कोई सौदा पटाना है । फिर आएँगे दिसंबर मध्य में रूस के राष्ट्रपति । वे भी कोई न कोई सौदा करके ही जाएँगे । दिसंबर में ही चीन के प्रधान मंत्री को भी बुलाने की कोशिश हो रही है क्योंकि वह भी जब-तब छेड़-छाड़ करता रहता है सो उसे भी कहना है कि भाई, क्यों ज्यादा परेशान कर रहा है ? तू भी दो-पाँच हजार करोड़ का माल हमें टिका दे । वैसे भी चीन का घटिया माल इस देश में चोरी छुपे और खुले भी आ ही रहा है । अब कोई विदेशी माल का बहिष्कार करके स्वदेशी आन्दोलन तो गाँधी की तरह चलाना नहीं है । सस्ते माल में मुनाफा ज्यादा होता है । और व्यापारी को मुनाफे से मतलब है फिर चाहे वह अमरीका का हो या भारत का । देश का क्या है ?

सो आप भी सौदा करने आ रहे है । पहले जब शीत युद्ध का ज़माना था तब अमरीका का कोई भी राष्ट्रपति न तो भारत की इतनी मुँहदेखी बड़ाई करता था और न ही इतनी जल्दी-जल्दी भारत आता था क्योंकि तब भारत रूस से हथियार खरीदता था । तब भी हमें इसलिए हथियार खरीदने पड़ते थे क्योंकि आप पकिस्तान को मुफ्त में या सस्ते में हथियार दिया करते थे । वैसे अब भी आपने कौनसा उसे हथियार देना बंद कर दिया । उसे देंगे तो हमें भी शक्ति संतुलन के नाम पर हथियार खरीदने ही पड़ेंगे । अब यही तो तरीका बच गया है, दुनिया में अपने उपनिवेश बनाकर शोषण करने वाले गोरों के लिए, अपनी आमदनी बनाए रखने का । वैसे सभी जानते हैं कि इन देशों को हथियारों से ज्यादा औजारों और मितव्ययी होने की ज़रूरत है ।

राजस्थानी में एक कहावत है- ‘गाँव बावळी नै बदै ना और बावळी गाँव नै बदै ना' मतलब कि पगली की गाँव नहीं सुनता और पगली गाँव की नहीं सुनती । सो हमारी भी कोई नहीं सुनेगा क्योंकि सबको अपने-अपने धंधे से मतलब है मगर क्या बताएँ, हम भी आदत से मजबूर हैं । तो आप आ रहे हैं और अखबार आपकी भव्यता का आतंक फैलाने वाली खबरें छाप कर गौरवान्वित हो रहे हैं । अखबारों का क्या है ? वे तो मोनिका लेवेंस्की, ब्रिटनी और लेडी गागा सभी की चड्डी-चोलियों को उसी भक्ति भाव से छापते हैं जिस तत्परता से होली-दिवाली के विज्ञापनी परिशिष्ट । जब मंदिर ही प्रसाद और दर्शन कराने का धंधा करते हैं, तथाकथित संत टिकट लगाकर योग सिखाते हैं या च्यवनप्राश बेचते हैं तो फिर मीडिया में तो सेठों का अरबों रुपया लगा है । वह समाज सुधार के लिए है क्या ? दो पैसे कमाने के लिए है । और सेक्स, सनसनी और अजूबे बेचने से अच्छा और सुरक्षित कुछ नहीं हो सकता ।

मिडिया छाप रहा है कि आप जिस कमरे में ठहरेंगे, उस कमरे में मैडम के लिए विदेशों से मँगवा कर सौंदर्य प्रसाधन रखे गए हैं और आपके लिए विशेष शराबें रखी गई हैं जिनके एक गिलास की कीमत ३००० हज़ार रुपए है । वैसे हमने कुछ दिन पहले एक समाचार पढ़ा था कि व्हिस्की की एक बोतल दो करोड़ में नीलाम हुई है । हमारे यहाँ भी गाज़ियाबाद में दिवाली पर भ्रष्टों द्वारा भ्रष्टों को उपहार में दिए जाने के लिए चाँदी की बोतल में पेक की गई ७५० मिलीलीटर व्हिस्की ५१ हज़ार में बिक रही है । विजय माल्या ने भी पिछली दिवाली को सभी सांसदों को ब्लेक डॉग की एक-एक बोतल व्हिस्की भेंट दी थी । प्रभात झा नाम के एक सांसद ने बोतल लौटा दी । मगर और किसी ने भी चूँ तक नहीं की । चुपचाप दिवाली सेलेब्रेट करते रहे । मतलब कि झा को छोड़ कर सारे के सारे बेवड़े हैं ।

आपके बारे में और भी छापा गया है कि मुख्य रसोइए हेमंत ओबेराय आपकी मनपसंद डिशें तैयार कर रहे हैं और उनका मार्ग दर्शन करने के लिए आपका विशेष रसोइया आ रहा है । यहाँ आपकी सवारी के लिए जो कार आ रही है उसके बारे में भी बहुत कुछ छापा है जिसका वर्णन करना कुछ ज्यादा ही विस्तार हो जाएगा मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह कार मौत के अलावा सभी खतरों से सुरक्षित है । वैसे जब बुश यहाँ आए थे तो सुना है कि वे अपना पानी भी अपने साथ अमरीका से लाए थे और उनका मल-मूत्र भी एक विशेष टायलेट में विसर्जित हुआ और जिसे वापिस अमरीका ले जाया गया । साँस लेने के लिए हवा का हमें पता नहीं कि वे अमरीका से ही लाए थे या यहीं की हवा में साँस ली । आज से साढ़े दस साल पहले होली के मौके पर क्लिंटन भी आए थे मगर न तो हिलेरी को साथ लाए और न ही मोनिका लेवेंस्की को । सारा मज़ा किरकिरा कर लिया होली का । शायद इसी गम में मौर्या होटल में विशेष रूप से रखी गई शराब को भी हाथ तक नहीं लगाया ।

आप भी उसी मौर्या होटल में ठहरेंगे । जब क्लिंटन आए थे तब हम दिल्ली में ही थे, दिल्ली कैंट में । सो धौला कुआँ की तरफ आना-जाना होता रहता था । एक दिन हमने देखा कि मौर्या होटल के सामने की सड़क पर लोग फूलों के गमले रख जा रहे हैं । कारण पूछने पर पता लगा कि क्लिंटन आने वाले हैं । सो अब भी वह इलाका सज रहा होगा । एक दिन जुलाई की दोपहर को हम अपने मित्र के स्कूटर के पीछे बैठे इसी मौर्या होटल के सामने से गुजर रहे थे । हल्की-हल्की बूँदाबाँदी हुई थी । सड़क का पानी ढलक कर बरसाती नाले में जा रहा था । एक पागल सा लगने वाला गरीब आदमी उस पानी को अपनी अँजुरी में भरकर पी रहा था । उन दिनों पानी का एक गिलास पचास पैसे का मिलता था और निश्चित ही उस आदमी के पास इतने पैसे नहीं थे । और पानी की प्याऊ लगवाना तो पुराने ज़माने की पिछड़ी बात है । उसका इस उपभोक्तावाद और मुक्त बाज़ार में कहाँ स्थान ? इस पानी पीने का कारण उसका पागलपन नहीं, गरीबी थी क्योंकि कोई भी इतना पागल नहीं होता । तब भी यह देश एक उभरती शक्ति और सबसे बड़ा लोकतंत्र और सबसे बड़ा बाज़ार था । अब तो राष्ट्र मंडल खेलों के चक्कर में ऐसे ग़रीबों को दूर ले जाकर पटक दिया था । अब तक तो क्या लौट कर आए होंगे ? आ गए होंगे तो भी मौर्या होटल तक तो उनका पहुँचना असंभव है ।

आप अपने कार्यक्रम में मुम्बई में मणि भवन के उस संग्रहालय को भी देखेंगे जिसमें महात्मा गाँधी कभी रहे थे और स्वदेशी, खिलाफत और असहयोग जैसे आन्दोलनों की रूपरेखा बनाई थी । देख लीजिए । अब इस देश में गाँधी इतना ही बच गया है ? हो सकता है कि किसी दिन इतना भी न बचे क्योंकि हम बड़ी तेजी से प्रगति कर रहे हैं और इस प्रगति में उस बूढ़े के लिए कोई जगह नहीं है । अब हमारे यहाँ भी स्कूल और कालेज के ४० प्रतिशत बच्चे दारू पीने लगे हैं, पढ़ाई की जगह स्कूलों में सौंदर्य प्रतियोगिताएँ और सेक्स एज्यूकेशन शुरु हो गई है, विश्वविद्यालयों में कंडोम बेचने वाली मशीनें लग गई हैं, कुँवारे मातृत्व, समलैंगिकता और लिव-इन-रिलेशनशिप के पक्ष में तथाकथित बुद्धिजीवी अभियान चला रहे हैं ।

आपका स्वर्ण-मंदिर जाने का कार्यक्रम भी था मगर आपके वहाँ के बुद्धिजीवियों ने बताया कि इससे गलत सन्देश जा सकता है । सर पर कपड़ा बाँधने से मुसलमान की सी झलक आ सकती है जो कि अमरीका के मुस्लिम-विरोधी लोगों को पसंद न आए । इससे पहले भी आपके नाइजीरिया में वहाँ की ड्रेस पहने हुए फोटो को लेकर चुनाव प्रचार में बड़ा हल्ला मचाया गया था । यह ठीक है कि आपके स्वर्णमंदिर जाने से सरदार प्रकाश सिंह बादल का कद कुछ और बढ़ जाता पर आप यहाँ न तो चुनाव के लिए कोई सर्व-धर्म-सम-भाव के लिए आ रहे हैं और न ही किसी तीर्थ यात्रा पर और न ही किसी का कद बढ़ाने । आप तो धंधा करने आ रहे हैं । सो उसी पर ध्यान देना है । फालतू के चक्करों में पड़ने से क्या फायदा । हाँ, यदि कोई दस-बीस हज़ार करोड़ का सौदा होता तो बात और थी । तब तो गुरूद्वारे में क्या, गटर में भी जाया जा सकता था ।

हमारे यहाँ की बात और है । हमारे यहाँ के नेताओं को ऐसे सर्व-धर्म-समभाव के नाटक करने में ही अपना भविष्य दिखाई देता है । जिसे देखो इफ्तार की दावत देने लग जाता है, भले ही कोई उन्हें एकादशी पर फलाहार न करवाए । हज़ पर सब्सीडी तो खैर मिलती ही है । वैसे हम आपको अपने बचपन की बातें बताते चलें । ये बातें आजादी के दस-पन्द्रह साल बाद तक की हैं । तब न तो किसी मुसलमान को किसी खास तरह की दाढ़ी रखने की ज़रूरत महसूस होती थी और न ही किसी हिंदू को चोटी और तिलक की । हम बीमार होते थे तो माँ मस्जिद में जाकर मुल्ला जी से डोरा बनवा लाती थी । शीतला माता के मेले में हिंदू मुसलमान सभी गाते हुए जाते थे । हमारे एक शायर मित्र हैं जो पूजा करते हैं । एक और कवि हैं बशीर अहमद मयूख जिन्होंने वेदों का उर्दू में अनुवाद किया है । वे अपने घर में राम, कृष्ण, शिव की मूर्तियाँ रखकर मंदिर बनाए हुए हैं । हमारे एक सहपाठी का नाम लीलाधर था । उसके यहाँ शादी में वे ही गीत गाए जाते थे जो हिंदुओं के यहाँ गाए जाते हैं । अब भी हमारे इलाके में बहुत से मुसलमानों के सरनेम पवार, चौहान, गौड़ आदि हैं । पर जब से अमरीका ने रूस को घेरने के लिए मध्यपूर्व में कट्टर पंथी इस्लाम को बढ़ावा दिया, मुसलमान काम के लिए अरब देशों में जाने लगे और उनके साथ पेट्रो डालर और कट्टरता आने लगी और फिर उसके ज़वाब में हमारे यहाँ के कुछ हिंदुओं ने कट्टरता में अपना राजनीतिक भविष्य देखना शुरु किया और उसकी परिणति मंदिर विवाद में हुई तब से इस देश की एकता को असली झटका लगा । जिसकी धमक आज सारी दुनिया में सुनाई दे रही है । और अमरीका भी अपने पैदा किए हुए इस जिन्न से बुरी तरह से घबराया हुआ है । सच पूछें तो साधारण आदमी आज भी कट्टर नहीं है और मिल कर रहना चाहता है ।


वैसे कोई भी राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री हो, आजकल उसे अपने देश के सेठों के लिए सामान बेचने का काम ही करना पड़ता है । चाहे आप हों या क्लिंटन या फिर किसी और देश का राष्ट्रपति हो । हम आपको कोई हथियार, कारें, कोकाकोला बेचकर तो पैसे कमा नहीं सकते । हमारे पास तो बेचारे पढ़े लिखे लड़के हैं जो सस्ते दामों पर आपके देशों में नौकरी कर रहे हैं और ऊपर से नस्ली घृणा का शिकार हो रहे है सो अलग । तिस पर मुक्त बाज़ार के मसीहा आप अपने ओहायो राज्य में आउट सोर्सिंग पर प्रतिबन्ध लगाते हैं । और अपने बच्चों के यह कहते हैं कि ये भारत वाले तुम्हारी नौकरियाँ छीन रहे हैं जैसे कि ये कोई डाकू हों । आपके देश को तो माल बिकवाने वाला चाहिए । उसे और किसी अच्छी बुरी बात से कोई मतलब नहीं , भले ही कोई राष्ट्रपति क्लिंटन की तरह लम्पट ही क्यों ना हो ।

खैर, जी आप बुरा नहीं मानिएगा । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, भले ही विकिलीक वाले को आपके देश में जान का खतरा हो ।

तो दिवाली की फिर बधाई । जय राम जी की ।

२९-१०-२०१०


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अरुंधती की आड़ में


फारुक अब्दुल्ला जी,
संबोधन तो आपको क्या दें । आप एक जगह टिकें तब ना कुछ तय किया जाए । आज के अखबार में आपका स्टेटमेंट पढ़ा । यह स्टेटमेंट आपने अपनी मर्जी से ही दिया होगा क्योंकि आपसे कोई ज़बरदस्ती स्टेटमेंट तो ले नहीं सकता । स्टेटमेंट तो आप पहले भी देते रहे हैं । जब अफज़ल गुरु को फाँसी की बात उठी थी तब भी आपने कहा था कि अफज़ल को फाँसी देने से इस देश का क्या नुकसान हो सकता है ? गिलानी ने भी अफज़ल को फाँसी नहीं देने की शर्त रखी थी । गुलाम नबी आज़ाद ने भी कहा था कि अफज़ल को फाँसी देने से कश्मीर में आग लग सकती है । एक अफज़ल को, जिसने संसद पर हमले की साजिश रची थी, को फाँसी देने पर कश्मीर में आग लग सकती है मगर लाखों कश्मीरी पंडितों को ज़बरन भगा दिए जाने और उनकी संपत्ति पर कब्जा कर लेने से कश्मीर में आग नहीं लग सकती क्योंकि इन बेचारे पंडितों को न अमरीका का समर्थन है, न पाकिस्तान का और न ही उनके पास हथियार हैं और न ही पेट्रो-डालर का दम । इन्हें तो अब दिल्ली और जम्मू में दो हज़ार रुपए महिने में टीन की छतों के नीचे दिन गुजारने पड़ रहे हैं जब कि इससे दस गुना तो कश्मीर में रहने वाले, कुछ भी काम न करने वाले, अलगाव की बात करने वालों को वैसे ही मिल जाता है ।

कितनी मज़े की बात है कि अफज़ल के बारे में आपके, गुलाम नबी और गिलानी के बयान कितने समान हैं ? क्या यह मात्र संयोग है ? नहीं, यह आप सबकी मिलीभगत है । केन्द्र से पैकेज आता रहता है और सारे नेता मिल कर खाते रहते हैं । अलगाववादी भी इसी धन पर पल रहे हैं और अपनी गतिविधियाँ चला रहे हैं वरना अस्सी साल के गिलानी के पास कौन सा खजाना गड़ा हुआ है जो दो सौ रुपए रोज में पत्थर फेंकने वाले हजारों स्वयंसेवक रखे हुए हैं । इतने आतंकवाद के बावज़ूद आप लोगों को कभी गरम हवा तक भी क्यों नहीं लगी ?

आप और भी कई तरह के वक्तव्य देते रहते हैं । जब आप सत्ता में होते हैं तो कुछ और बोलते हैं और जब सत्ता में नहीं होते तो कुछ और । जब सत्ता में नहीं होते तो अपनी ससुराल इंग्लैण्ड चले जाते हैं और चुनाव के समय फिर श्रीनगर आ जाते हैं और कश्मीरियों की अस्मिता की बातें करने लग जाते हैं । अब जब गिलानी ने कुछ ज्यादा ही हल्ला मचाया तो आपके 'सुपुत्र' की गद्दी कुछ हिलने सी लगी तो उसने भी कुछ और ही तरह का वक्तव्य दे दिया वैसे न देते तो भी कुर्सी के साधकों के वक्तव्यों और मंतव्यों को समझना कोई कठिन नहीं है । जब राहुल बाबा ने उनका समर्थन कर दिया तो चिदंबरम भी ढीले पड़ गए । आपने इस पर कुछ कहा तो नहीं । कहते भी क्या ? इधर पड़ें तो कुआँ और उधर पड़ें तो खाई । मगर अब इस अरुंधती ने आपको फिर से देशभक्त बनने का मौका दे दिया । आपने कहा- 'हमारे यहाँ इतनी आजादी है कि हमारे लोग ही हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर देंगे' ।

वैसे जहाँ तक बेड़े की बात है तो मियाँ, उसे गर्क करने में किसी ने कोई कमी नहीं रखी है । ६३ साल से सारे के सारे जनसेवक गर्क करने में ही लगे हुए हैं । जब कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो फिर कैसा तो स्पेशल दर्जा, कैसा स्पेशल पैकेज और कैसी वार्ता । जैसे देश के सारे राज्य हैं वैसे ही कश्मीर । आपके सुपुत्र ने वार्ता में पाकिस्तान को शामिल करने की बात की तो पाकिस्तान का क्या लेना देना है । उसने तो कश्मीर के एक हिस्से पर नाजायज़ कब्ज़ा कर रखा है । होना तो यह चाहिए था कि आप सब लोग उस हिस्से की मुक्ति की बात करते मगर उसके लिए बड़ा दिल और बड़ी हिम्मत चाहिए । जब पाकिस्तान ने उसमें से एक बड़ा हिस्सा पहले अमरीका को अड्डे बनाने के लिए और अब चीन को सड़कें बनाने के लिए दे दिया तब आप कुछ नहीं बोले । जब मुसलमानों के इस देश में आने से भी पहले के निवासी कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से निकल बाहर किया गया तब भी आपकी आत्मा मौन ही रही ।

आपको ही क्या कहें सारी पार्टियाँ ही अपने चुनावी गणित भिड़ाती रहती हैं वरना गिलानी के वक्तव्य पर लालू, मुलायम, मुफ्ती, आप, कांग्रेस कोई नहीं बोला । चुनाव जो चल रहे हैं । भाजपा भी रस्म अदायगी सी ही कर रही है, यह सोच कर कि क्या पता फिर कभी पहले की तरह आपसे समर्थन लेना पड़ जाए । अब इस अरुंधती के कारण गिलानी नेपथ्य में चले गए और यह देशद्रोही हो गई । वैसे इस महिला की बीमारी यह है कि यह अपने कुछ अच्छे और चर्चित वक्तव्यों के कारण लाइट में आ गई सो इसने समझ लिया कि यह बहुत बड़ी ज्ञानी है । मगर इसे भारत के इतिहास का ज्ञान नहीं है और न ही इसकी नसों में यहाँ का उतना हवा पानी, केवल किताबी ज्ञान है वरना वह यह नहीं कहती । फिर भी उसमें एक करुणा और ईमानदारी तो है ही पर आप तो सब कुछ जानते हैं । आपका तो रोम-रोम इस मिट्टी का ऋणी है । जयपुर में रह कर पढ़े हैं । भजन भी गा लेते हैं । आपके पुरखे भी हिंदू ही थे । आप हिंदुत्व की उदारता को अच्छी तरह से जानते हैं । हिंदू धर्म ही संसार में ऐसा है जो सबको गले से लगा लेता है । वरना साठ साल पहले भारत छोड़ कर पाकिस्तान गए मुसलमानों को आज तक भी पाकिस्तान के कट्टरपंथियों ने अपना नहीं माना है । और तो और, शियाओं पर आज भी कहर क्यों बरसाया जा रहा है पाकिस्तान में ।

आप सोच रहे होंगे कि हमने आपके सुपुत्र को जम्मू-कश्मीर का प्रधान मंत्री कहने की बजाय सुपुत्र क्यों कहा । सो मियाँ, यहाँ कोई जनता का नेता नहीं है । सब किसी न किसी के पुत्र/पुत्री हैं चाहे उमर हों या अजय चौटाला, अभिषेक यादव हों या तेजस्वी यादव, उद्धव ठाकरे हों या महबूबा, प्रिय सुले हों या स्टालिन । सबके अपने-अपने देश हैं, अपने-अपने दल, अपने-अपने बैंक बेलेंस, अपनी-अपनी कुर्सी । हमें तो लगता है कि अब इस देश के खंडित होने के दिन आ गए हैं । और इसमें आपका भी योगदान कम नहीं है ।

भगवान इस देश की आप सेवकों से हिफाज़त करे ।

२७-१०-२०१०


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