Jan 25, 2010

अन्न-ब्रह्म


सोनिया जी,
आपने भी राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की तरह देश को सुख, समृद्धि के लिए शुभकामनाएँ दी होंगीं । भगवान करे, आपकी शुभकामनाएँ फलित हों । फिलहाल तो हालत ख़राब है । पेंशन से काम नहीं चल रहा है । महँगाई बहुत बढ़ गई है । दाल और दूध में पानी की मात्रा बढ़ाकर महँगाई पर काबू पाने की कोशिश कर रहे हैं । वैसे हमारा सड़सठ साल का अनुभव तो यही बताता है कि यह ऐसी महामारी है जिसका कोई इलाज़ नहीं निकला है । फिर भी आपकी शुभकामनाओं के सफल होने का इंतजार एक वर्ष तो करना है ही । इसके बाद सोचेंगे कि इस धराधाम पर रहें कि संथारा (जैनियों का उपवास करके प्राणत्याग करना) करके ऊपर चले जाएँ । वैसे तो हम हास्य व्यंग लिखते हैं पर आपको सही बता रहे हैं कि आपसे हम कोई मजाक नहीं कर रहे हैं क्योंकि आप भी गंभीर बातें ही करती हैं । कभी मजाक नहीं करतीं ।

अर्थशास्त्री कहते हैं कि महँगाई एक ग्लोबल फिनोमिना है । हमें सभी ग्लोबल फिनोमिना से बड़ा डर लगता है । पहले अडवानी जी कहा करते थे कि भ्रष्टाचार एक ग्लोबल फिनोमिना है, आजकल लोग कहते हैं कि आतंकवाद एक ग्लोबल फिनोमिना है । कल को लोग कहने लग जायेंगे कि चोरी-डाका, छेड़छाड़, मिलावट, घूसखोरी आदि भी ग्लोबल फिनोमिना है । आखिर इन ग्लोबल फिनोमिनों से कब पीछा छूटेगा ? संसार त्याग भी तो एक ग्लोबल, नेचुरल फिनोमिना है तो लोगों को आत्महत्या के लिए भी सरकार को सुविधा जुटानी चाहिए । पर हो सकता है कि कल को सरकारी कर्मचारी आत्महत्या की परमीशन देने में भी रिश्वत माँगने लग जायेंगे ।

टेक्स बढ़ाने, पेट्रोल के दाम बढ़ाने, पोस्टल रेट बढ़ाने, रेल के टिकट के पैसे बढ़ाने के काम तो आधी रात से सोते-सोते ही हो जाते हैं और अगली सुबह से लागू भी हो जाते हैं । पिछले वर्ष घोषणा की गई थी कि जिन अभिभावकों की वार्षिक आय साढ़े चार लाख वार्षिक से कम हैं उनके बच्चों को व्यावसायिक कालेजों में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी जायेगी और उस पर ब्याज लगाना तब शुरु होगा जब बच्चा कमाने लग जायेगा । हमने तो इसी भरोसे बेटी को दाँतों की डाक्टरी में प्रवेश दिलवा दिया और अब पाँच महीने बीत गए हैं और बैंकों के पास कोई आदेश ही नहीं आये हैं । इस भले काम में इतनी देर क्यों हो रही है । क्या देरी इन्हीं कामों के लिए है ?

खैर, क्षमा कीजिएगा । बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई । पत्र तो हमने कुछ और ही बात बताने के लिए लिखना शुरु किया था । सो अब उसी बात पर आते हैं । भारतीय शास्त्रों में अन्न को ब्रह्म कहा गया है । आप सोच रही होंगी कि ब्रह्म तो बहुत ऊँची चीज है । इसे अन्न जैसी छोटी चीज से क्यों जोड़ा जा रहा है । वास्तव में अन्न का महत्व भूखे को ही समझ में आता है । भरे पेट वाला तो अन्न से खेलता है । एक कवि हुए हैं धूमिल । उन्होंने लिखा है -
'एक आदमी रोटी बनाता है,
दूसरा आदमी रोटी खाता है,
और तीसरा आदमी रोटी से खेलता है ।
यह तीसरा आदमी कौन है ?
इस बारे में मेरे देश की संसद मौन है ।'

हम चाहते हैं कि आप इन तीनों के बारे में सोचें और जो करणीय हो वह करें । भूख बहुत बुरी चीज होती है । हद से ज्यादा गुजर जाने पर यह, लोकतंत्र से संविधान तक, कुछ भी खा जाती है । ब्रह्म से साक्षात्कार के बाद ही जीवन का असली आनंद शुरु होता है । तभी ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है । भूख का इलाज़ यही 'अन्न-ब्रह्म' है । रोटी इसी 'अन्न-ब्रह्म' का मानव निर्मित भौतिक विग्रह है । इसी लिए कृषि को सर्वश्रेष्ठ पेशा कहा गया है । किसान इसीलिए अन्नदाता का दर्ज़ा पाता है । यूँ तो अन्न धरती से उपजता है, वर्षा उसमें रस भरती है, सूरज भगवान उसको पालते हैं पर उस में किसान का पसीना भी मिला होता है । किसान ही सारे जग का पालनहार है । सारे दिन में मात्र दो बार नाम लेने पर भी किसान को भगवान ने अपना सबसे बड़ा भक्त माना ।

हमारे पिताजी कभी जूठा नहीं छोड़ते थे । हमारे नानाजी खाना खाने के बाद थाली को धोकर पी लेते थे । हो सकता है कि आज के धनवान इसे कंजूसी मानें और वित्त मंत्री विकास में बाधक मानें । पर पूर्वज इस अन्न का महत्व समझते थे । बचपन में हम पढ़ा करते थे कि अमरीका में अन्न के भाव गिर जाने के डर से अन्न को जला दिया जाता है या उसे समुद्र में डुबो दिया जाता है । कितना बड़ा पाप है ? क्या भगवान ने, धरती ने, किसान ने अन्न इस लिए उपजाया था कि उसे व्यापार के चक्कर में जला दिया जाये । अन्न की सार्थकता तो इसमें है कि कोई भूखा उसे खाए, तृप्त हो, उसकी जान की रक्षा हो ।

दक्षिण भारत में एक संत हुए हैं- तिरुवल्लुवर । जात से जुलाहे थे । अपनी मेहनत की खाते थे । इसलिए मेहनत का मूल्य भी समझते थे । रोज कपड़ा बनाते और बाज़ार में बेचकर उससे मिले पैसे से अपना जीवनयापन करते थे । एक बार वे बाज़ार में कपड़ा बेचने गए । किसी राजा का बिगड़ा हुआ सपूत आया और उसने कपड़े का भाव पूछा । फिर कहा आधा फाड़ दो । इसके बाद कहा- इतना नहीं चाहिए । इसका आधा दे दो । इस तरह करते-करते उसने सारे कपड़े को फड़वा दिया । संत शांत भाव से फाड़ते रहे । अंत में उसने कहा - 'मुझे कपड़ा पसंद नहीं आया । चलो, तुम इसके पैसे ले लो ।' संत ने पैसे लेने से माना कर दिया और कहा- 'मैंने यह कपड़ा इसलिए बनाया था कि कोई इसे पहने । अपना तन ढके, सर्दी, गरमी से बचे । जब इसका कोई उपयोग ही नहीं हुआ तो पैसे का क्या करूँ ।'

बिगड़ा रईसज़ादा चला गया पर रात भर सो न सका । दूसरे दिन आकर संत के चरणों में गिर गया । कहानी का मतलब आपको समझ आ गया होगा । बस समझिये कि हमने भी यह कहानी आपको यह बताने के लिए कही है कि अन्न भी किसान इसीलिए उगाता है कि आदमी की भूख मिटे । आप सोच रही होंगी कि यह कहानी हमने किसी और को क्यों नहीं बताई । बात यह है कि और किसी को इन बातों के लिए फुर्सत ही नहीं है और न ही उनमें कुछ करने की शक्ति । और हो सकता है कि वे अपने निजी स्वार्थों के चलते कुछ करना ही न चाहें ।

बात यह है कि ११ दिसंबर २००९ को हमने एक समाचार पढ़ा है कि महाराष्ट्र में ज्वार, बाजरे और मक्का से बीयर बनाने की कुछ फेक्टरियों को लाइसेंस दिए गए हैं जहाँ के कृषि मंत्री शरद पवार है । लाइसेंस पाने वालों में सभी पार्टियों के जनसेवक और उनके रिश्तेदार हैं- विलासराव देशमुख, गोपीनाथ मुंडे, गोविन्द राव आदिक, लातूर के विधायक अमित और धीरज देशमुख, बी.जे.पी. विधायक पंकज पालवे, विमल मूंदड़ा । मज़े की बात यह भी है कि इन्हें सब्सिडी भी दी गई है- प्रति बोतल दस रुपये ।

क्या देश में इतना अनाज हो गया कि लोगों से खाया नहीं जा रहा है, किसानों का अनाज बिक नहीं रहा है या देश में अन्न की अब कोई ज़रूरत नहीं रह गई है । अब भी देश में करोड़ों लोग भूख और कुपोषण से पीड़ित हैं । यह मोटा अनाज गरीब के लिए पोषण की बहुत सी ज़रूरतें पूरी करता है । वैज्ञानिक मानते हैं कि मोटा अनाज गेहूँ और चावल से ज्यादा पौष्टिक होता है । अमरीका में मक्का से डीजल बनाया जाता है पर हम उन्हें कुछ नहीं कह सकते पर हमें अपने यहाँ तो यह सोचना है कि मानव की ज़िंदगी और भूख से ज्यादा ज़रूरी बीयर और डीजल हैं क्या ? आप क्या सोचती हैं ? हमें पूरा विश्वास है कि आप इतनी निर्दय और हृदयहीन नहीं हो सकतीं कि भारत में अन्न से बीयर बनाए जाने के इस मानवद्रोही और राष्ट्रद्रोही कदम का समर्थन करें । हमें तो लगता है कि आपको किसी ने इसके बारे में खबर भी नहीं दी होगी ।

आपने बहुत से अवसरों पर समझदारी के कदम उठाये हैं और गलत दिशा में जाती राजनीति को रोका है । अब भी कुछ कीजिए । सच कहते हैं कि हमसे तो इस समाचार को पढ़ने के बाद ढंग से रोटी भी नहीं खाई जा रही है । सच, इसके बाद तो हम अपनी महँगाई का रोना भी भूल गए हैं ।

हाँ मजाक में कहें तो- किसी भी तरह से महँगाई से उत्पन्न निराशा ख़त्म नहीं हो रही है । हो सकता है कि बीयर के नशे में आदमी कुछ देर के लिए उसे भूल जाये । पर नशा उतरने के बाद ?

१०-१-१०

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तोताराम का दिमाग-दान

आज तोताराम ने बाहर से ही आवाज़ लगाई- मास्टर आ, बाहर निकल, ऐसी भी क्या सर्दी लग रही है । माघ का महिना है । ये दुनियादारी तो लगी ही रहेगी । कुछ पुण्य भी कमा ले । भगवान के घर जाना है । वहाँ के लिए भी तो कुछ तैयारी कर ले । हमें लगा, शायद तोताराम को वैराग्य हो गया है और अब घर-बार छोड़ कर संन्यास ले कर कहीं हिमालय में तो नहीं जा रहा ।

देखा, तोताराम के हाथ में कुछ भी नहीं है । टोपा लगाये, चद्दर ओढ़े यूँ ही खड़ा है । हमने पूछा- क्या दान करने जा रहा है ? यह टोपा और चद्दर ? बोला- नहीं, इन्हें कैसे दान कर सकता हूँ । इनके बिना सर्दी में काम नहीं चल सकता । मैं तो ज्योति दा की तरह अपना दिमाग शोध के लिए अस्पताल को दान करने जा रहा हूँ ।

ऐसी गंभीर बात पर हँसना नहीं चाहिए पर कोशिश करने पर भी हम अपनी हँसी नहीं रोक पाए । हमने कहा- 'तोताराम, तुझे याद है जब एक बार तू अस्पताल में रक्त-दान करने के लिए गया था और डाक्टरों ने बहुत कोशिश की थी फिर भी वे खून नहीं निकाल पाए थे । उन्होंने तुम्हें यह कहकर भगा दिया था कि मास्टर जी, खून है ही नहीं तो हम निकालेंगे कहाँ से । कुछ खाया कीजिए । अभी तो आप घर जाइए । आपकी सेवा भावना के लिए धन्यवाद' । अब भी वही बात होने वाली है । वे बेकार में ही खोपड़ी खोलेंगे और बंद करेंगे । निकलने वाला तो कुछ है नहीं ।

तोताराम को बड़ा गुस्सा आया, बोला- तो क्या बिना दिमाग के यूँ ही चालीस साल बच्चों को पढ़ा दिया? हमने कहा- पढ़ाना कौन बड़ी बात है । तू नहीं पढ़ाता तो भी जिसे पास होना होता वह चार किताबें रटकर पास हो ही जाता । जब बिना दिमाग के लोग देश चला सकते हैं तो पचास बच्चों को पढ़ाना कौन सी बड़ी बात है ? जो चीज अपने पास है ही नहीं, उसके लिए दुःख करने की क्या बात है । और उसके दान करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । चल, अंदर चलते हैं, चाय पीते हैं ।

मास्टरी करने के एक उदाहरण से ही तो बात नहीं बनती ना । याद कर बचपन में चाचाजी कहा करते थे कि तेरी खोपड़ी में गोबर भरा हुआ है, गुरुजी कहा करते थे कि तेरी खोपड़ी में भूसा भरा हुआ है और तेरी पत्नी कहा करती है कि इनकी खोपड़ी में तो कुछ है ही नहीं । अब तीन जिम्मेदार लोग झूठ तो नहीं हो सकते ? जो बात है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए । झूठी ज़िद करने से क्या फ़ायदा ।

अब तो बात तोताराम की बर्दाश्त से बाहर हो गई, बोला- तो फिर ज्योति दा के दिमाग में ही ऐसी क्या खास बात है । मुझे तो उनका दिमाग एक साधारण दिमाग से भी कमज़ोर लगता है । तेईस साल मुख्य मंत्री रहे पर क्या तीर मार लिया । अरे, मात्र एक साल मुख्य मंत्री रहने वाले तक ने चार हज़ार करोड़ कमा कर स्विस बैंक में जमा करवा दिए । लोगों ने भूसे में से नौ सौ करोड़ निकाल लिए । और जब गद्दी छोड़ने की नौबत आई तो अपनी बीवी को दे गए और ये महाराज जब संन्यास लेने लगे तो गद्दी सौंपी बुद्ध देव को । क्यों भाई, कोई कच्चा बच्चा नहीं था क्या घर में । जब प्रधान मंत्री बनने का चांस आया तो पार्टी के अनुशासित सिपाही बन गए और बाद में कहते हैं यह एक ब्लंडर थी । अब क्या होता है बाद में ब्लंडर-व्लंदर करने से । अब सुन रहे हैं कि उन्होंने 'भारत रत्न' के बारे में भी कोई खास रुचि नहीं दिखाई । और लोग कहते हैं कि नब्बे साल से ज़्यादा की उम्र में भी उनका दिमाग सजग था । ऐसे ही होते हैं क्या सजग दिमाग ?

अरे, अगर अध्ययन ही करना है तो दिमागों की कमी है क्या ? मधु कौडा हैं (४ हजार करोड़), ए राजा हैं (६० हजार करोड़), लालू जी हैं, गुरु जी शिबू जी हैं । और अगर बुज़ुर्ग दिमागों का ही अध्ययन करने का शौक है तो पचासी साल से ऊपर के करुणानिधि जी हैं जो अभी तक भी संन्यास के कोई संकेत नहीं दे रहे हैं और घर के सभी सदस्यों को केन्द्र और राज्य में कहीं न कहीं मंत्री बनवा दिया है । और भी हैं जो छियासी साल की उम्र में भी युवकों से ज्यादा टनाटन हैं ।

हमने कहा- तोताराम, यह तो हम दावे से नहीं कह सकते कि तुम्हारा दिमाग ज्योति दा की तरह शोध करने लायक है या नहीं, पर तुम्हारी खोपड़ी में भी कुछ न कुछ है ज़रूर । बिल्कुल खाली तो नहीं है । मगर अभी क्या ज़ल्दी है । यह काम तो मरने बाद भी किया जा सकता है । अभी तो छठे वेतन आयोग के पेंशन फिक्सेशन का साठ प्रतिशत आना बाकी है । ऐसी क्या ज़ल्दी है ।

तोताराम मुस्कराया- तो इसी बात पर चाय ही नहीं, साथ में कुछ खाने के लिए मँगवा भाभी से ।

२०-१-२०१०

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Jan 24, 2010

तोताराम के तर्क और कहाँ है महँगाई ?


छब्बीस जनवरी को ठीक आठ बजे जनपथ पथ पर राष्ट्रपति झंडा फहराते हैं और परेड की सलामी लेते हैं । आज तोताराम थोड़ा ज़ल्दी आ गया था सो दोनों चाय पीते हुए टी.वी. देख रहे थे कि तभी ठीक आठ बजे दरवाज़े पर दस्तक हुई । जैसे ही हम दोनों ने दरवाज़ा खोला तो एक भव्य आकृति को देखा । हमने ऐसी शोभा, वैभव और ऐसी रूप-माधुरी कभी नहीं देखी थी । बेहोश होते-होते बचे । 'तब तक होश सलामत जब तक जलता तूर नहीं है' । वही हालत हो गई जो शबरी की भगवान राम को देखकर हो गई थी । शबरी को तो पता था कि राम आयेंगे सो रास्ता बुहार रही थी, उनके लिए मीठे-मीठे बेर इकट्ठे करके रख रही थी । पर हमें तो यह भी पता नहीं कि मन को मोहनेवाला यह कौन है ?

क्या करें, कहाँ बिठाएँ । अब समझ में आया कि विदुर की पत्नी ने जब भगवान कृष्ण को केले के छिलके खिला दिए थे तब उसकी क्या मनःस्थिति हो रही होगी । हमारी मनःस्थिति का आनंद लेते हुए उस छलिये ने मुस्कराकर कहा- हे राष्ट्र निर्माता! श्री रमेश जोशी तुम क्यों इतने विह्वल हो रहे हो ? हम भी तुम में से ही एक हैं । आओ, धूप में पड़ी इस चारपाई पर ही बैठते हैं, हम तीनों । इतने प्यार से आजतक हमें किसी ने भी नहीं पुकारा था । हालाँकि सरकार पाँच सितम्बर को अध्यापक दिवस को कुछ इसी तरह की बात किया करती थी पर अब तो उसने वह झूठा-सच्चा प्यार दिखाना भी बंद कर दिया है । लगा, यही वह क्षण है जब आदमी को मर जाने का मन करता है । ऐसे ही किसी क्षण में नायिका कहती है - 'तेरी बाँहों में मर जाएँ हम' ।

जब थोड़ा सा साँस आया, मन की भावाकुलता कुछ कम हुई तो हमने साहस करके कहा- हे देव, आपका परिचय जानने की अभिलाषा है । वे बोले- हम लोकतंत्र हैं । वैसे तो हम भगवान बुद्ध के समय में भी लिच्छवी और वैशाली में थे पर अब आधुनिक काल में भारत में हम पिछले साठ साल से हैं । हमें विश्वास ही नहीं हुआ कि साठ साल की उम्र में भी कोई इतना सुन्दर और जवान हो सकता है । हमारी हड्डियाँ तो चालीस साल की उम्र में ही हरि कीर्तन करने लग गई थीं ।चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ने लग गई थीं । हम दोनों ने खाट से उठकर उन्हें प्रणाम किया । हम दोनों कितने भाग्यशाली हैं कि अपने घर में साक्षात् लोकतंत्र के दर्शन कर रहे हैं । हमने कहा- भगवान, आपके पधारने का कारण बताएँ और आदेश करें कि हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ?

वे थोड़ा-सा हँसकर बोले- कुछ विशेष नहीं । हमने सुना था कि कुछ दिन पहले आप अपने घर के आगे महँगाई का पुतला जला रहे थे और तोताराम जी महँगाई के खिलाफ़ जुलूस में भाग लेने के लिए गए थे ।

हम दोनों में काटो तो खून नहीं । इन्हें कैसे पता लग गया । हकलाते से बोले- नहीं हुज़ूर, वो तो ठण्ड लग रही थी सो कुछ पोलीथिन इकट्ठी करके वैसे ही जला ली थी । और यह तोताराम किसी के कहने पर वैसे ही चला गया था । वरना हम किसी पार्टी पोलिटिक्स में भाग ही नहीं लेते । जो भी पेंशन सरकार देती है उसी में संतोष करके जो कुछ मिलता है उसे आपका प्रसाद समझ कर ग्रहण करके सो जाते हैं । वे बोले- हमें आप पर पूरा भरोसा है । वैसे सभी को लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है । फिर भी थोड़ा समझ कर चलना चाहिए । पहले भी जब हमने 'गुड-फील' करवाया था तो लोगों ने रोनी सूरत ही बनाये रखी । और अब जब भारत-निर्माण कर रहे हैं तो लोग हैं कि बिना बात के चूँ-चूँ करते रहते हैं । पर आप तो राष्ट्र-निर्माता हैं सो अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि राष्ट्र निर्माण कितना मुश्किल काम है । इधर से निर्माण करो तो उधर से धँसक जाता है । पता नहीं यह राष्ट्र कैसा है । हमने अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस जाने किस-किस का निर्माण कर दिया पर यह पता नहीं कैसा राष्ट्र है कि पकड़ में ही नहीं आता ।

हम चाहते हैं कि आपके मन में महँगाई को लेकर जो गलत धारणा बन गई है उसको दूर करें । सो आप दोनों हमारे साथ चलें । हम आपको दिखाएँगे कि महँगाई कहीं है ही नहीं । लोग बिना बात देश और लोकतंत्र को बदनाम करने के लिए अफवाहें फैला रहे हैं । हम दोनों का इस ठण्ड में जाने का मन तो बिल्कुल भी नहीं था पर उनकी आँखों में देखा तो लगा कि यदि हमने ज़रा भी चूँ-चपड़ की तो यह हमें उसी तरह घसीट कर ले जायेगा जैसे फिल्मों में डाकू किसी को घोड़े के पीछे बाँध कर ले जाते हैं । हम चुपचाप उसके पीछे चल पड़े । अब हम उस पर मुग्ध नहीं थे बल्कि डरे हुए थे ।

सबसे पहले वह दारू की एक दुकान के आगे रुका जहाँ ड्राई-डे के बावज़ूद शराब बिक रही थी । दुकान का दरवाज़ा पूरा नहीं खुला था । बस एक फुट गुणा एक फुट की एक छोटी सी खिड़की खुली थी जिसमें से बेचने वाले की शक्ल भी नहीं दिखती थी । बस लोग पैसे अंदर घुसाते और वह बोतल बाहर कर देता । कोई भी न मोल-भाव कर रहा था और न ही छुट्टे पैसों की झिक-झिक । बहुत शांत भाव से क्रय-विक्रय हो रहा था । एक दम अनुशासन और सद्भाव का वातावरण था ।

फिर थोड़ा आगे चले और एक बहुत बड़ी दुकान में घुस गए । लोकतंत्र ने बताया कि इसे मॉल कहते हैं । यहाँ भी कोई मोल-भाव नहीं करता । लोग छोटी-छोटी सी पहिये लगी टोकरियों में सामान डाल रहे थे और दरवाज़े के पास लगे बिजली के तराजू पर सामान रखते जाते थे । वहाँ खड़ा कर्मचारी बटन दबाता और सामान फटाफट तुल जाता और एक रत्ती के वज़न का भी हिसाब लग कर बिल आ जाता । लोग एक कार्ड सा कुछ मशीन में घुसाते और भुगतान भी हो जाता । दुकान का नौकर सामान को उठाकर गाड़ी में रखता और काम खत्म । कितना सरल है सामान खरीदना और बेचना । कहीं महँगाई जैसी समस्या का नाम ही नहीं । सभी मुस्कराते हुए और तनावमुक्त ।

इसी दुकान में एक स्थान पर सिनेमा दिखाया जा रहा था । कोई एक सौ रुपये का टिकट था । लोग टिकट के साथ कुछ खाने के लिए भी अपने हाथों में लिए थे और हँसते-बतियाते हुए अंदर जा रहे थे । हमें भी उन्हें देखकर भूख लग आई थी । पर न तो जेब में इतने पैसे थे और न ही लोकतंत्र के सामने बोलने की हिम्मत हो रही थी । बोलने की सोचते ही उसकी ठहरी हुई दृष्टि का ख्याल आ जाता था ।

हमने डरते-डरते कहा- हुज़ूर, अब हमें विश्वास हो गया है कि कहीं महँगाई नहीं है और जो लोग ऐसी बातें करते हैं वे अज्ञानी या दुष्ट हैं । अब हम कभी भी ऐसी गलत बात नहीं करेंगे ।

लोकतंत्र जी बोले- आप जैसे समझदार नागरिकों के बल पर ही तो लोकतंत्र सफल है । वैसे आप जानते हैं कि लोकतंत्र में सभी को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता है ।

हम दोनों ऐसे भागे कि बस घर आकर ही दम लिया । पत्नी ने पूछा- ऐसे घबराये हुए क्यों हो तुम दोनों ? दम क्यों फूल रहा है ? हमने कहा- कुछ नहीं बस, कार्यक्रम में मिठाई बँटी थी । लोगों ने आग्रह करके कुछ ज़्यादा ही दे दी । हम दोनों ने सारी वहीं खाली । बस चाय की तलब लगी थी सो ज़ल्दी-ज़ल्दी चल कर आ रहे हैं । अब चाय पिला दो तो मिठाई नीचे उतरे और सामान्य हों ।

पत्नी ने कहा- बात तो कुछ और ही है । बताओ या न बताओ यह तुम्हारी मर्जी ।

अब उसे क्या बताते कि लोकतंत्र से मुलाकात करके आ रहे हैं ।

२३-१-२०१०

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Jan 17, 2010

संतत्व और आत्मयंत्रणा

स्वर्गीय पोप जॉन पॉल द्वितीय जी,
आज कल तो आप ऊपर वाली दुनिया में हैं । पता नहीं स्वर्ग में हैं या नरक में । अवश्य ही स्वर्ग में ही होंगें । वैसे तो हर मरने वाले के आगे स्वर्गीय ही लगाया जाता है । आपके नरक में होने का तो प्रश्न ही नहीं । आप तो स्वयं लोगों को स्वर्ग का टिकट देने वालों में से हैं । लोग इसे पोप-लीला कहते हैं । वे नहीं जानते बड़े लोगों की लीलाएँ ही होती हैं । छोटे लोगों के तो करम होते हैं जिनका फल उन्हें यहाँ भोगना पड़ता है और वहाँ भी । कहते हैं एक बार एक दलित बड़े आदमियों की बेगार करते-करते परेशान होकर कुएँ में कूद गया । वहाँ भी जाते ही एक मेंढक ने पूछा- तू कौन जात है । जैसे ही बेचारे ने जात बताई, मेंढक उसके सिर पर चढ़ गया और बोला- मुझे कुएँ की सैर करवा । बेचारा बड़ा पछताया, जिस बेगार से बचने के लिए कुएँ में कूदा था वह कुएँ में भी तैयार मिली । तो यह किस्मत होती है साधारण आदमी की । आपकी बात और है । आपको तो वहाँ भी वी.वी.आई.पी. क्लास मिली होगी । आशा है आप वहाँ सानंद होंगे ।

यहाँ आपने ८४ वर्ष की लम्बी उम्र पाई । २७ बरस तक पोप रहे । इतनी लम्बी उम्र और इतना लम्बा राज करने का अवसर बहुत काम लोगों को मिलता है । यहाँ आपको संत की उपाधि देने की प्रक्रिया चल रही है । वैसे आपको तो संतत्व प्रदान करने में कोई देर नहीं लगनी चाहिए । आप तो खुद लोगों को संत बनाने वाले हैं । खुद ही खुद को डिग्री प्रदान कर लेते । पर यह ठीक नहीं लगता । वैसे संत बनाने की प्रक्रिया है बड़ी लम्बी । हजारों कागजात छाने जाते हैं । सैंकड़ों गवाहों के बयान लिये जाते हैं । संत बनाना क्या हुआ, भोपाल गैस त्रासदी और राम जन्म भूमि का केस हो गया । हमारे यहाँ तो हजारों संत हो गए हैं बिना किसी धर्माधिकारी के बनाये । वैसे हमारे यहाँ संत कोई प्राधिकरण नहीं बनाता, जनता बनाती है । जिसमें भी संत के गुण देखती है उसे ही संत कहने लग जाती है । आजकल की बात और है । जिसके पास भी पैसा होता है वही मीडिया में अपने को संत प्रचारित कर देता है । अपना अखबार या पत्रिका निकालने लग जाता है । केवल एक 'श्री' से संतोष नहीं होता तो डबल 'श्री-श्री' लगाने लग जाता है । कई तो अपने नाम के आगे श्री-श्री १००८ तक लगाते हैं । हो सकता है कि प्रतियोगिता में यह संख्या लाखों-करोड़ों में पहुँच जाये । खैर ।

इनमें कुछ ही संत होते हैं, बाकी तो 'पहुँचे हुए संत' होते हैं । कुछ पार्टी विशेष के लिए वोट बैंक बनाते फिरते हैं । कुछ हथियारों की दलाली तक करते हैं । कुछ रंगरेलियाँ मनाते पकड़े जाते हैं । कुछ पर हत्या के मुकदमें चल रहे हैं । इनका करोड़पति होना तो सामान्य बात है । कुछ ने आश्रमों के नाम से अरबों रुपये की ज़मीनें घेर रखी हैं । आपके यहाँ भी सभी कोई भले आदमी थोड़े ही होते हैं । अकेले अमरीका में ही कोई तीन हज़ार पादरियों के ख़िलाफ़ बच्चों के साथ यौन दुराचरण के आरोप हैं । सारी दुनिया में तो पता नहीं, लाखों होंगे । संत या पादरी बनने वाले स्वयं को दूसरों से कुछ खास दिखाने के लिए ब्रह्मचर्य का व्रत लेने का नाटक करते हैं । वास्तव में ब्रह्मचर्य सबके लिए होता भी नहीं । सबके बस का भी नहीं है यह व्रत । हमारे यहाँ तो कबीर, नानक, रैदास, तुलसी सभी गृहस्थी हुए हैं । आदमी का मन साफ हो, त्याग और संयम का स्वभाव हो तो वह भी किसी तपस्वी से कम नहीं होता, पर उसमें मुफ़्त का माल खाने को नहीं मिलता । तभी ऐसे संतों के लिए कबीर ने कहा है-
मूँड मुँडाये तीन गुण, मिटी टाट की खाज ।
बाबा बाज्या जगत में, मिल्या पेट भर नाज ॥


पर केवल मूँड मुँडाने से ही कुछ नहीं होता । तभी वे आगे कहते हैं-
मूँड मुँडाये हरि मिले, तो सब कोई लेय मुँडाय ।
बार-बार के मूँडते, भेड़ न बैकुंठ जाय ॥


आपके संतत्व के समाचार में ही यह भी पढ़ा कि आप अपने को नियमित रूप से कोड़े मारा करते थे- पापों के पश्चाताप और अपराधबोध-स्वरूप । ऐसा आपके निकट रहने वाली नन तोबिआना सोबोद्का ने बताया और इसकी पुष्टि आपके सेक्रेटरी एमेरी कोबोंगो ने भी की है । आप ऐसा क्यों करते थे हमें किसी सूचना के अधिकार के तहत जानने का अधिकार नहीं है । यह आपका नितांत निजी मामला है । हम तो इतना ही कह सकते हैं कि यदि व्यक्ति से कोई अपराध हो जाये और वह सच्चे हृदय से ईश्वर से क्षमा माँग ले तो भगवान उसके अपराध क्षमा कर देते हैं । वैसे हमें नहीं लगता कि आपसे ऐसा कोई जघन्य अपराध हुआ होगा जिस के लिए कोड़े खाए जाएँ ।

बड़े-बड़े अपराध करने वालों तक को किसी प्रकार का पश्चाताप नहीं होता । दुनिया के बहुत से देशों पर राज करने और वहाँ के लोगों पर अत्याचार करने के बावजूद ब्रिटेन के लोगों को किसी प्रकार की ग्लानि नहीं है । जब ब्रिटेन की महारानी यहाँ जलियाँवाला बाग में आईं तो उन्होंने जलियाँवाला बाग हत्याकांड के लिए क्षमा नहीं माँगी । अमरीका ने दुनिया भर से काले गुलामों को पकड़ कर उनसे काम करवाया और उन पर जाने कितने अत्याचार किये पर क्षमा आज तक नहीं माँगी । जर्मनी को भी लाखों यहूदियों को मारने का पश्चाताप नहीं है । पाकिस्तान ने भी बंगलादेश में कोई दसियों लाख लोगों का कत्लेआम कर दिया पर देखिये चहरे पर कोई शिकन नहीं है । आपका पोलैंड ही योरप का एक ऐसा देश है जिसने एशिया या अफ्रीका में अपना उपनिवेश नहीं बनाया ।

दुनिया में सभी मनुष्य गलतियों के पुतले होते हैं । प्रयत्न से ही व्यक्ति अपने में सुधार करता है । आपसे भी कुछ गलतियाँ हुई होंगी पर उनके लिए स्वयं को इतनी यातना देने की ज़रूरत नहीं थी और फिर बुढ़ापे में कहीं जोश-जोश में ज़रा ज़ोर से कोड़ा लग जाये तो मुश्किल हो जाये । पर खैर, अब तो आप इस संसार के सुख-दुखों से मुक्त हुए । वैसे आपको बता दें कि भगवान इतना क्रूर नहीं है । हमारे भगवान तो बड़े कंसीड्रेट हैं । तुलसी की रामचरितमानस में जब विभीषण राम से मिलने के लिए आया तो राम उससे कहते हैं- 'जो छल, कपट, अभिमान, मोह छोड़कर मेरी शरण में आता है मैं तत्काल उसे साधु के समान बना देता हूँ । जो सबको समान समझता है, ऐसा सज्जन मुझे उसी प्रकार से प्रिय है जैसे कि लोभी व्यक्ति को धन प्रिय होता है ।'

भगवान के प्रति यही समर्पण और शरणागतभाव महत्वपूर्ण है और यही सभी धर्मों का सार है । आप तो सब जानते हैं । आपको क्या समझाना । मास्टर हैं ना, सो समझाने लगे । धृष्टता के लिए क्षमा चाहते हैं ।

इटली में एक चित्रकार ने ईसा को काले रंग का बना दिया । उस पर बड़ा बावेला मचा था । आपने तो वहाँ देखा ही होगा कि भगवान किसी प्रकार का रंगभेद नहीं मानता । उसके बेटे तो सभी रंगों और नस्लों के हैं, फिर भेदभाव कैसा । पर लोगों को समझ आये तब ना । यहाँ मलेशिया में भी गोड और अल्लाह को एक साथ दिखाने के लिए मौलवियों ने अभी तक मंजूरी नहीं दी है ।

अभी इस दुनिया में सच्चे धर्म और ईश्वर को समझने के लिए बहुत कुछ किया जाना ज़रूरी है । भगवान से कहियेगा कि कुछ ठीक-ठाक सा इंतजाम करें । दुनिया धर्मों के झगड़ों से बहुत परेशान है ।

२५-११-२००९

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मदद या मिसलीडिंग - २६/११ और अमरीकी कूटनीति

अमर सिंह जी,
जय माता जी की । हमारे यहाँ तो राजपूत मिलने पर आपस में इसी तरह अभिवादन करते हैं । आपके उधर के स्टाइल का पता नहीं । वैसे तो आप उद्योगपति हैं । बड़े-बड़े आर्थिक मामलों में बड़े-बड़े लोगों के संकटमोचक हैं । विभिन्न अवसरों पर अपनी बात दबंग तरीके से कहकर आपने अपने क्षत्रियत्व को सिद्ध किया है । हम आपकी तरह न तो अमर हैं और न ही सिंह । हम तो एक सादे से डरपोक रिटायर्ड मास्टर हैं । न ही आपकी तरह फिल्मी तारिकाएँ हम से फोन पर बातें करती हैं । कभी युवावस्था में किसी स्वप्न सुन्दरी को पत्र लिखा भी तो उसने ज़वाब नहीं दिया । फिर भी हमको लगता है कि हममें और आप में कुछ समानताएँ भी हैं । आप बड़ी गंभीर बातें करते हैं पर पता नहीं क्यों आपको भारतीय राजनीति में गंभीरता से नहीं लिया जाता । हमें भी अपने परिवार वालों और दोस्तों ने कभी गंभीरता से नहीं लिया । हमारी बातों को हास्य-व्यंग कह कर यूँ ही उड़ा दिया ।

आपने रघुबीर यादव अभिनीत सीरियल 'मुंगेरी लाल के हसीन सपने ' अवश्य देखा होगा । उसमें कभी-कभी मुंगेरी लाल की आँख मिचमिचाती है और वह आपने सपनों की दुनिया में पहुँच जाता है जहाँ वह अपनी मनमानी करता है । हमें भी कभी-कभी अपने दिमाग में एक हलचल सी महसूस होती है और तब हम वह भी जान लेते हैं जो सामान्य अवस्था में संभव नहीं होता । इसी भावावेश में हमने कई अद्भुत सत्यों का उद्घाटन करते हुए कई बड़े-बड़े लोगों को पत्र लिखे पर किसी ने भी ज़वाब नहीं दिया । कल आपने संसद में कहा कि २६/११ वाले मामले में हेडली को लेकर अमरीका भारत की मदद कर रहा है या मिस्लीड ?

Jan 16, 2010

चमत्कार को नमस्कार

आदरणीय तेलगी जी,
नमस्कार । यूँ तो आप उम्र में हमारे बेटे के बराबर हैं पर इससे क्या होता है । आदर उम्र का नहीं महानता का होता है । शंकराचार्य ने सोलह साल की उम्र में सन्यास ले लिया और सारे भारत की यात्रा पर निकाल पड़े । बत्तीस साल की उम्र में चार धाम स्थापित करके, वैदिक धर्म की ध्वजा फहरा कर वापस लौट भी आए और इस धराधाम से कूच भी कर गए । और लोग हैं कि सौ बरस की ज़िंदगी भी यूँ ही खाट पर पड़े-पड़े, खा-खाकर बिता देते हैं । सो भैया, बड़े काम करने से बड़ी होती है ज़िंदगी, न कि ज्यादा दिन तक धरती का भार बने रहने से ।

आपका जन्म १९६१ में हुआ । तब तक हम टीचर बन गए थे । बचपन में ही आपके पिता की मृत्यु हो गई । आपने सर्वोदय विद्यालय इंग्लिश मीडियम में शिक्षा पाई । आप अपनी फीस चुकाने के लिए रेलगाड़ियों में फल बेचते थे । बेलगाँव से बी.काम. किया । इसके बाद स्टांप बेचने लगे । इसके बाद किसी विशेषज्ञ से अपने प्रयत्नों से नकली स्टांप बनाने का ज्ञान प्राप्त किया और फिर अपने स्वतंत्र व्यवसाय में लग गए । स्टांप बेचने के काम में आपने ३०० लोगों को रोज़गार दिया । और विभिन्न पुरस्कारों और भेंटों से बहुत से पुलिस अधिकारियों और नेताओं को आभारी बनाया, उनका जीवन स्तर ऊँचा उठाया । इस प्रकार से आपका समाज सेवा और रोजगार सृजन में महत्त्व पूर्ण योगदान रहा है । हमने कहा न कि हम ऐसे-वैसे लोगों पर नहीं लिखते । आपकी प्रतिभा और सेवा भावना ने ही हमें प्रभावित किया है ।

इस समय आप जेल में हैं । आराम फ़रमा रहे हैं । दर्शन का अध्ययन कर रहे हैं और आत्मकथा लिख रहे हैं । कई काम एक साथ कर रहे हैं । इस छोटी सी उम्र में ही कितना कुछ कर लिया । यही तो पहचान है महान आत्माओं की । आपकी इस कला का सम्मान न तो ललित कला अकादमी ने किया, न किसी कला के संरक्षकों ने और न ही सरकार ने । अमरीका जैसे विज्ञान में उन्नत देश में भी आज तक ऐसा कोई कलाकार नहीं हुआ जिसने कोई इतना सम्पूर्ण रूप से असली लगने वाला स्टाम्प पेपर या नोट बनाया हो । अरे, अणुबम या युद्धक विमान बनाना भी कोई कला है । ये तो विनाश के हथियार हैं जब कि आपका काम कला है और उसके ज़रिये लोगों को काम देना है । क्या किया जाये, आजकल कला के कद्रदान कहाँ रहे हैं ।

आपका सरनेम तेलगी है- तेलगी का अर्थ कहीं न कहीं तेल से ज़रूर जुड़ता होगा । पहले लोग तिल, मूँगफली, सरसों, नारियल आदि का तेल निकाला करते थे । इसके बाद विज्ञान की उन्नति हुई तो लोग मिट्टी से तेल निकालने लगे । व्यापार का विकास हुआ तो व्यापारियों ने राजा से मिलकर जनता का तेल निकालना शुरु कर दिया । आजकल सारा खेल कागजों का हो गया । लोग कागजों से तेल ही क्या जाने क्या-क्या चीजें निकालने लगे । लोग कागज़ों में ही सड़कें बना देते हैं, कागज़ों में ही खरीद कर लेते हैं, कागज़ों में ही भुगतान हो जाता है, कागज़ों में ही मिड डे मील पक और खा लिया जाता है, कागज़ों में ही सच को झूठ और झूठ को सच कर दिया जाता है तो आपने कागज़ों से प्रतिदिन २०२ करोड़ रुपये कमा लिए तो क्या गुनाह कर दिया । हंगामा है क्यूँ बरपा .... ।

आजकल आप जेल में हैं । दार्शनिक दृष्टि से देखा जाये तो यह दुनिया ही जेल है । आत्मा शरीर रूपी जेल में बंद है । प्रसिद्ध नेता और समाज सेवी लालू प्रसाद जी यादव के अनुसार तो जेल उनका मंदिर है, गुरुद्वारा है । उनके अनुसार जेल जाये बिना कोई सच्चा नेता नहीं बनता । इसके लिए वे गाँधी जी का उदहारण देते हैं । इससे गाँधी जी की आत्मा को कष्ट होता है या प्रसन्नता यह तो वे जाने । आपको जेल में जो खाना दिया जा रहा है उसकी सूची इस प्रकार है-
७ बजे दूध और अंडा
९ बजे ब्रेड, दूध, इडली,रोटी
११.३० बजे दूध, बिस्किट
२.३० बजे चपाती, साम्भर, चावल, दही
५.३० बजे ब्रेड, दूध
९.३० बजे चपाती, साम्भर, दही, चावल
इसके अलावा संतरा, मौसमी भी दिए जाते हैं । और सप्ताह में एक बार चिकन और फिश ।

यह तो साला फाइव स्टार होटल का खाना हो गया और वह भी सात साल तक फ्री में । हमें तो इतना खाना दिया जाये तो सच कहते हैं करीम भाई, हमें तो दस्त लगने लग जाएँ । हम तो दो रोटी सुबह और दो रोटी शाम को खाते हैं । किसके साथ खाते हैं यह हम अपनी इज्ज़त का ख्याल करके गुप्त रखना चाहते हैं । दाल और सब्जी के भाव आप जानते ही होंगे । आपको शुगर की तक़लीफ़ है है इसलिए सादा खाना ही खाते हैं वरना तो कितना खाते होंगें राम जाने । खाना भी चाहिए अगर भगवान देता है तो । पैसा खाने के काम नहीं आएगा तो फिर किस काम आएगा । लोग मूर्ख हैं जो कहते हैं कि 'धनं दानाय' । आप को ये सब खरीदने नहीं पड़ते पर अख़बार में तो पढ़ते ही होंगे । हमने तो अखबार भी घर पर मँगाना बंद कर दिया है । पास की चाय की दुकान पर जाकर पढ़ आते हैं ।

हमारे स्तर के अनुसार तो आपका जेल का खाना बहुत बढ़िया है । हमने तो जीवन भर स्कूल में बच्चों को संतुलित भोजन के बारे में पढ़ाया तो ज़रूर पर सच कहते हैं संतुलित भोजन कभी नहीं कर पाए । बस, किसी तरह कंजूसी करके बजट को ही संतुलित करते रहे । आप इसके बावजूद घर का खाना खाना चाहते हैं । इसका मतलब है कि आपके घर पर बहुत ही अच्छा खाना बनता होगा । हम तो उस की कल्पना ही नहीं कर सकते । हमें तो घर के खाने के बारे में एक किस्सा ही पता है । आप भी सुन लीजिये और घर के खाने का कल्पना में ही मज़ा लीजिये । एक व्यक्ति को फाँसी की सज़ा हुई । जज ने उसे अपनी अंतिम इच्छा पूछी । उसने कहा- मैं अपनी बीवी के हाथ का बना खाना खाना चाहता हूँ । जज को भी बड़ी ईर्ष्या हुई कि इसकी पत्नी कितना बढ़िया खाना बनाती होगी । कारण पूछने पर कैदी ने बताया कि अपनी पत्नी के हाथ का खाना सामने आते ही मुझे लगता है कि इस जीवन से तो मर जाना ही अच्छा है । सो खाना सामने आते ही और मेरी मरने की इच्छा होते ही आप मुझे फाँसी दे दीजियेगा ।

लोग पता नहीं क्यूँ इंदिरा नूई को सिर आँखों पर बिठाए फिरते हैं । अरे, फ़ोर्ब्स की सूची में नाम क्या आ गया जैसे किसी ने आकाश के सीढ़ी लगा दी हो । ठीक है, उसे साल के पचास करोड़ रुपये मिलते हैं पर है तो किसी की नौकर ही न । और फिर पचास करोड़ कोई ज्यादा होते हैं क्या ? आप तो महीने के २०२ करोड़ कमाते थे, वह भी अपने धंधे से । इंदिरा नूई को ओबामा द्वारा मनमोहन सिंह को दिए गए भोज में मनमोहन सिंह जी वाली टेबिल पर खाना खाने का अवसर मिला । आपकी प्रतिभा को किसी ने नहीं स्वीकार । पर हम इतने संकीर्ण हृदय के नहीं हैं ।

आप १२-११-२००९ को हमारे शेखावाटी के चूरू शहर में आये । धन्न भाग, यह मरु धरा धन्य हो गई । वैसे सेठ यहाँ भी हुए हैं पर एक महीने में २०२ करोड़ रुपये कमाने वाला तो एक भी नहीं हुआ । हमारे चूरू का भी आपका एक एजेंट था । इसलिए आपको चूरू लाया गया, जहाँ आपको कई देर गाड़ी में ही रुकना पड़ा । पता नहीं, भले आदमियों ने आपका कैसा स्वागत सत्कार किया होगा । चटनी रोटी खाने वाले संतुलित भोजन के बारे में क्या जानें । क्या बताएँ हम वहाँ थे नहीं वरना आपको किसी प्रकार की असुविधा नहीं होने देते । वैसे हमारा राज्य मेहमानों का स्वागत करने में कम नहीं है । हमारा तो नारा ही है - पधारो म्हारे देस ।

आप जेल में आत्मकथा लिख रहे हैं । लिखना भी चाहिए । सभी बड़े लोगों ने जेल में ही महान ग्रन्थ लिखे हैं ।आत्मकथाएँ ही सबसे ज्यादा पढ़ी जाती हैं क्योंकि वे ही लोगों को सबसे ज्यादा प्रेरणा देती हैं । आपकी आत्मकथा भी अवश्य ही लोगों को स्वावलंबी बनने की प्रेरणा देगी । जेल में लिखी गई आत्मकथाएँ सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हैं । घर पर रह कर चाहे गरीब हो या अमीर, समय कहाँ मिलता है । नून, तेल, लकड़ी में ही समय निकल जाता है । तभी अकादमियाँ लेखकों और कलाकारों को फेलोशिप देती हैं । सो यह जेल नहीं, आपको कुछ श्रेष्ठ लिखने के लिए सरकार द्वारा दी गई फेलोशिप है । हम भी छोटे-मोटे लेखक हैं । लिखना भी चाहते है पर क्या बताएँ महँगाई से बचने के उपाय सोचते-सोचते ही दिन-रात निकल जाते हैं ।

आपकी आत्मकथा अवश्य ही एक श्रेष्ठ आत्मकथा होगी क्योंकि व्यक्ति का महान जीवन दर्शन ही उससे महान रचना करवाता है । आपने कहा है कि जीवन पानी का बुलबुला है । यही बात कबीर जी ने भी कही है । वे लिखते हैं-
पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात ।
देखत ही छिप जायगा ज्यों तारा परभात ॥


कबीर जी ने जीवन भर करघा चलाया और आपने भी कभी फल बेचे, कभी स्टाम्प । पर खाई अपनी मेहनत की कमाई । किसी पर बोझ नहीं बने । किसी से रिश्वत नहीं ली । भले, चार आदमियों को रिश्वत देकर उपकृत ही किया होगा । कबीर भी मरते समय कुछ नहीं छोड़ कर गए । आप का कमाया-कमूया नेताओं, अधिकारियों और पुलिस वालों ने खा लिया होगा । कुछ इन्कमटेक्स वाले चाट गए होंगे । जो पैसा लोगों के नाम से बेनामी सौदों में लगाया होगा उसके भी नामधारी पैदा हो जायेंगे । कहते हैं,समुद्र सूखता है तो भी घुटनों-घुटनों तक पानी रहता ही है । सो कुछ भी हो, छोटे-मोटे अरबपति तो आप जेल से निकलने के बाद भी रहेंगे ही ।

आप घर का खाना खाना चाहते हैं । हम आपको इसके लिए एक उपाय बताते हैं । आप जेल वालों को कह दीजिये कि इस सारे घोटाले के पीछे यह मास्टर है । हम अपना अपराध स्वीकार भी कर लेंगे । पर शर्त यह है कि आप हमारी पेंशन के दस हज़ार रुपये हर महीने ईमानदारी से हमारे घर पहुँचाते रहिएगा । दूसरी शर्त यह है कि हमें जेल में वही खाना मिले जो आपको मिला करता था । फर्क बस इतना हो कि हमें मछली और चिकन की जगह खीर दी जाये । और फिर देखिये कि हम किस प्रकार डेढ़ सौ बरस जीकर, पेंशन लेते हुए वित्त मंत्री की छाती पर मूँग दलते हैं ।

एक तरीका और हो सकता है कि आप हमारा एक मुखौटा बनवा लीजिये और हम आपका एक मुखौटा बनवा लेते हैं । हम जेल में आप से मिलने आयेंगे और फिर हम दोनों अपने-अपने मुखौटे बदल लेंगे । किसी को पता भी नहीं चलेगा और दोनों का काम भी बन जायेगा । फर्क़ बस इतना ही होगा कि हमारे मरने पर तेलगी के मरने की खबर छपेगी और तेलगी के मरने पर हमारे मरने की खबर छपेगी । हाँ , एक परेशानी अवश्य हो जायेगी कि आपको मरने के बाद ईश्वर के पास ले जाया जायेगा और हमें मरने के बाद अल्लाह के पास ले जाया जायेगा । गाँधी जी तो ईश्वर अल्लाह तेरे नाम' गाया करते थे । ईश्वर अल्लाह में भी आपस में कोई झगड़ा नहीं है पर कुछ कट्टर पंथी मुल्लाओं को इस पर ऐतराज़ है । वे कहते हैं कि गोड और अल्लाह साथ-साथ नहीं रह सकते हैं । मलेशिया की सरकार ने तो गोड और अल्लाह को एक साथ रखने की इज़ाज़त दे दी है पर अभी वहाँ के मुल्लाओं ने परमीशन नहीं दी है ।

हमें तो ईश्वर-अल्लाह में कोई भेद नज़र नहीं आता । हम तो जन्नत में भी निर्वाह कर लेंगे पर आप अपनी सँभालना ।

२२ दिसंबर २००९

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Jan 15, 2010

जोर का झटका


इंदिरा जी नूई जी,
हम आपके फस्ट और लास्ट नाम दोनों के बाद 'जी' लगा रहे हैं क्योंकि अगर फस्ट नाम ही लिखें और उसके बाद जी लगा दें तो वह इंदिरा गांधी का भ्रम देने लग जायेगा । वैसे 'जी' का क्या है । भगवान ने जी तो सब को एक ही दिया है पर पता नहीं क्यों कुछ तथाकथित महात्मा अपने नाम से पहले श्री-श्री एक सौ आठ लगाते हैं जब इससे भी संतोष नहीं हुआ तो श्री-श्री एक हज़ार आठ हो गए । पता नहीं यह 'जी' की दौड़ कहाँ तक पहुँचेगी । हमें तो अपना एक जी ही बचाना मुश्किल हो रहा है ।

खैर, तो आपको नए वर्ष की शुभकामनाएँ । वैसे हमारे शुभकामनाएँ दिए बिना भी आपका तो हर वर्ष ही क्या, हर दिन, हर मिनट शुभ ही शुभ है । होना भी चाहिए, दुनिया की सबसे ज्यादा ठंडा बेचने वाली कम्पनी की आप सर्वेसर्वा हैं । जैसा कि अखबारों से पता चला है कि आपकी एक दिन की तनख्वाह कोई आठ लाख रुपये है । वैसे हमारी गणित बहुत कमजोर है यदि दो चार हज़ार इधर उधर हो जाएँ तो क्या फरक पड़ता है । हम कौनसे इनकम टेक्स वाले हैं ।

आपके एक दिन की तनख्वाह आठ लाख रुपये है । भगवान करे आठ लाख क्या, आठ करोड़ हो जाये । जब आप कम्पनी को फ़ायदा करवाए ही जा रही हैं तो कम्पनी को क्या फ़रक पड़ता है । दुधारू गाय को महँगा बंटा खिलाने में क्या घाटा है अगर दस का बंटा खिलाने पर वह एक हज़ार का दूध देती हो । हम तो यही सोचते हैं कि आप इतने पैसे का हिसाब कैसे लगाती होंगीं । हमसे तो अपने कुछ हज़ार मासिक का हिसाब ही नहीं लगा । हमेशा सौ-पचास रुपये इनकम टेक्स के अधिक ही जमा करवा देते थे और आप जानती हैं कि सरकार के पास गया रूपया लौटता थोड़े ही है, सरकार भले ही एक पैसा कम जमा हो जाये तो भारी ब्याज समेत पेट में से निकाल लेती है ।

Jan 11, 2010

गुरु गुणगान


आदरणीय गुरु जी शिबू सोरेन जी,
सादर प्रणाम । हमारे एक मित्र हैं । हमें अक्सर विभिन्न विषयों पर लिखने को कहते रहते हैं । आज उन्होंने कहा- हम आप पर लिखें । हमारे मित्र को पता नहीं कि गुरु की महिमा पर लिखना कितना कठिन हैं । करघा चलाते-चलाते तत्काल कविता लिख लेने वाले कबीर जी के लिए भी इतना आसान नहीं था गुरु के गुणों का बखान करना । तभी वे लिखते हैं -
सात समद की मसि करूँ लेखनि सब बनराय ।
सब धरती कागद करूँ गुरु गुण लिख्या न जाय ॥


फिर भी उन्होंने गुरु के गुणों को लिखने का साहस किया लेकिन लिख नहीं पाए क्योंकि-
सतगुरु की महिमा अनत, अनत किया उपकार ।
लोचन अनत उघाडिया, अनत दिखावनहार ॥


सो कबीर जी के गुरु जी ने अनंत को देखने के लिए कबीर जी के अनंत लोचन उघाड़ दिए । वैसे गुरु के थप्पड़ में बड़ी ताक़त हुआ करती थी कि उनके एक थप्पड़ से ही शिष्य के अनंत लोचन उघड़ जाते थे । थप्पड़ की तेज़ी पर निर्भर है । थप्पड़ से दिमाग में एक विशेष प्रकार का प्रकाश हो जाता है जिससे शिष्य को विभिन्न अदृश्य चीजें भी दिखाई देने लग जाती हैं । अब ज़माना बदल गया है । गुरु शिष्यों से डरने लगे हैं पर डरनेवालों को सच्चे गुरु का दर्ज़ा नहीं मिल पाता । गुरु डरते नहीं, डराते हैं ।

Jan 10, 2010

लालाजी और कुम्हार


पिछले पाँच-सात दिन से तोताराम किसी शादी में गया था । कल शाम को ही लौटा था । आज सुबह जैसे ही हाज़िर हुआ, हमने वैसे ही मज़ाक में पूछ लिया- 'तोताराम, लौट आए कोपेनहेगन से बीस प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कम करने का वादा करके ? चलो अच्छा है, ओबामा द्वारा घोषित किए गए पैकेज में से कुछ करोड़ डालर पेलने को मिल जायेंगे ।' खैर, बात तो चिढ़ाने वाली ही थी पर इतनी नहीं जितना कि तोताराम चिढ़ गया । बोला- हाँ, कर आया समझौता । कटवा आया देश की नाक । मुकर गया संसद को दिए गए वचन से । अब क्या मेरी जान ही लेगा ? अगर यही इरादा है तो ले आ कपड़े कूटने वाला डंडा और फोड़ डाल मेरा सिर ।

हमें लगा आज खुराक कुछ ज़्यादा हो गई अतः हमने बिना नू नकर के माफ़ी की मुद्रा में घोषित किया- माफ़ करना बन्धु, तुम्हारी कोई गलती नहीं है । हमने तो वैसे ही मज़ाक कर दिया । हमारी क्या गलती है प्रदूषण फ़ैलाने में । हमारे पास कार तो दूर साइकल ही नहीं है । न बीड़ी पीते और न सिगरेट । जिनकी गलती है वे ही नहीं सोच रहे तो अपन क्यों बिना बात अपराध-बोध से ग्रसित हों ।

अब तक तोताराम सामान्य हो चुका था । बोला- वैसे मास्टर, अपन भले ही नेताओं की आलोचना करें पर यदी उनकी असली हालत पर गौर फ़रमाएँगे तो पाएँगे कि उनकी कोई इतनी बड़ी गलती नहीं है । सोच, सारी दुनिया के देशों का सम्मलेन और उसमें ओबामा, गोर्डन ब्राउन, सारकोजी, एंजेलिना मार्केज, जिया बाओ जैसी हस्तियाँ मौजूद हों और वे सब दुनिया को बचने की चिंता करें तो एक महान भारतीय कैसे भावुक हुए बिना रह सकते है । जब अमरीका जैसा व्यापारी देश दुनिया की भलाई के लिए एक सौ बिलियन डालर का पैकेज देने को तैयार हो गया तो अपन क्या ज़रा सा कार्बन उत्सर्जन कम करने का आश्वासन भी नहीं दे सकते ? अकेले में आदमी चाहे जितना ही स्वार्थी क्यों न हो जाए पर सबके सामने पाँच पंचों में बैठ कर बड़ी बात करनी ही पड़ती ही है । सच पूछे तो मुझे तो मनमोहन जी से कोई शिकायत नहीं है ।