Mar 30, 2015



 2015-02-05 

तोताराम का गोत्र 

आज तोताराम जल्दी में था | हमने बैठने को कहा तो बोला- बैठने का टाइम नहीं है | जल्दी के सब्बल और हथौड़ा दे, छत को तोड़ना है और फिर उसकी जगह छप्पर लगाना है |

 हमने कहा- क्या बेवकूफी कर रहा है |पक्की छत को तोड़कर छप्पर ? छप्पर से पानी टपका तो ?

कहने लगा- सदियों तक चलने वाली सीमेंट से बनवाई थी लेकिन एक दशक भी नहीं चली और टपकने लगी | सुना है, मोदी जी २०२२ तक सब झुग्गी वालों को पक्का मकान देने वाले हैं | सो अभी से छप्पर का फोटो भेजकर लाइन में लग जाऊँगा |

हमने कहा-यह डेटलाइन दिल्ली वालों के लिए  है , राजस्थान  का नंबर आते-आते तो तुझे ऊपर वाला ही अपने छप्पर में बुला लेगा |

बोला- कोई बात नहीं, यदि बीच में ज्यादा ज़रूरत आ पड़ी  तो काले धन वाले १५ लाख में से काम करवा लेंगे |बस,  दिल्ली के चुनाव जीत लें और कश्मीर में सत्ता में घुस जाएँ, उसके बाद मोदी जी को यही काम करना है |

हमने हँसते हुए कहा- उन रुपयों के भरोसे मत रहना | अमित शाह ने साफ़ कर दिया है कि मोदी जी ने यह कहावत के रूप में कहा था | इसका शाब्दिक अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए | 

तोताराम ने चकित होते हुए प्रश्न किया- मतलब ?

हमने कहा- मतलब यह कि मोदी जी ने चुनाव के दौरान यह सब अतिशयोक्ति अलंकार में कहा था और अब मोदी-साहित्य के अधिकारी समीक्षक शाह साहब ने उस वादे का  वास्तविक अर्थ अभिधा में समझाया है |

बोला- साहित्य की बात और है | वहाँ तो प्रेमिका को पलकों पर या दिल के झरोखे में बिठाया जा सकता है, उसके लिए तारे तोड़ कर लाए जा सकते हैं, सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था- कह कर फुसलाया जा सकता है लेकिन राजनीति में ऐसे थोड़े ही चलता है |

हमने कहा- सबसे ज्यादा अतिशयोक्ति और ढपोरशंखत्त्व राजनीति में ही चलता है | सभी नेता वोट देते ही धरती पर स्वर्ग उतारने की बात करते हैं लेकिन आज तक किसी देश में स्वर्ग नहीं उतरा | कहावत है-आप मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता |उसके लिए तो खुद मरना पड़ता है | मतलब चुनाव लड़ो, जीतो और इस मृत्युलोक में जीते जी ही स्वर्ग का मज़ा लो |वैसे 'बाई द वे' तुम्हारा गोत्र क्या है ?

तोताराम का पारा एक दम चढ़ गया- शब्दशक्ति,अलंकार,राजनीति में यह ससुर गोत्र कहाँ  से आ  टपका ? और गोत्र पूछकर कौन सी मेरी शादी करवाएगा |

हमने कहा- कोई  बात नहीं | मत बता | हम ही 'अमित शाह-गोत्र-दिग्दर्शिका' देखकर बता देते हैं |पहले की बात और थी लेकिन अब गोत्र पिता नहीं बल्कि  'वैचारिकता'  के आधार पर  तय होते हैं जैसे केजरीवाल का गोत्र 'अग्रवाल' नहीं बल्कि 'उपद्रवी' है | वैसे ही तेरे चुनावी-भाषणों पर सहज विश्वास कर लेने के कारण  तेरा गोत्र 'गोबर-गणेश' है  |

तोताराम अजीब सा मुँह बनाकर, बिना चाय पिए ही उठ लिया |

Mar 28, 2015

  कुछ कुण्डलिया छंद



 पड़ोसी-धर्म

जब भी सुख-दुःख आ पड़े या किस्मत का कोप
कोई भी ना आएगा मुल्ला, पंडित,पोप
मुल्ला, पंडित,पोप; ख़ुशी या मातम होगा
सिर्फ पड़ोसी ही तब तेरा हमदम होगा
कह जोशी कवि छोड़ फालतू भरम-करम को
समझ सके तो समझ इस सरल सत्य धरम को |
२०१५-०१-१६

 मन की बात
(मोदी और ओबामा आकाशवाणी पर 'मन की बात'
 कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगे-एक समाचार २२-०१-२०१५ )

मोदी ओबामा कहें अपने 'मन की बात'
ना कोई पूछे ,सुने लेकिन 'जन'  की बात
लेकिन जन की बात, घुट रहे मन ही मन में
ना रक्षा, ना वस्त्र और ना ताकत तन में
जोशी सुनते रहे तंत्र दोनों में   'जन' का
लेकिन है आतंक सब जगह पद का, धन का
२०१५-०१-२३

 मेरी सरकार
(ओबामा जी की कड़ी और खर्चीली सुरक्षा -२२-०१-२०१५ )

कड़ी सुरक्षा में घिरी हैं मेरी सरकार
ऐसे में कैसे करें उनसे आँखें चार
उनसे आँखें चार, भाग्य पर हम पछताएँ
वे अपने कूचे में फिर भी देख न पाएँ
कह जोशीकविराय चीर कर चिलमन आओ
कोई डर तो आशिक के दिल में बस जाओ 
२४-०१-२०१५

Mar 25, 2015

तोताराम का दही-चिउड़ा



तोताराम का दही-चिउड़ा 

कल संक्रांति थी और थोड़ी सी बूँदाबाँदी | जान लिए रजाई में घुसे हुए थे तभी तोताराम के पोते बंटी ने एक चिट थमा दी | चिट क्लीन नहीं थी | वैसे हम कौन जन-सेवकों की तरह अपराधी हैं जो जिस तिस से क्लीन चिट चाहते फिरें | लिखा था- 'आज मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर आप तोताराम के आवास पर दही-चिउड़ा का प्रसाद ग्रहण करने के लिए सादर आमंत्रित हैं' | बड़ी राष्ट्रवादी भाषा थी |

बंटी पास में रखी एक कॉमिक पढ़ने लगा और हम तो अखबार पढ़ ही रहे थे | कोई आधा घंटा बीत गया तो चेहरे पर खीज लिए तोताराम प्रकट हुआ, कहने लगा- क्या तू अपने आप को मोदी जी से भी बड़ा आदमी समझता है जो आ ही नहीं रहा | ज्यादा देर करेगा तो दही खटास पकड़ लेगा और मज़ा नहीं आएगा |अरे, दही चिउड़ा खाने के लिए तो मोदी जी भी ठीक समय पर पासवान जी के यहाँ पहुँच गए |

हमने कहा- यदि हम खुद को मोदी जी समझ रहे हैं तो तू कौन अपने आपको पासवान जी से कम समझ रहा है ? दही चिउड़ा कौन हमारा खाना है ? यह तो पूर्वी यू.पी. और बिहार की तरफ का खाना है | अपने लिए तो बाजरे की खिचड़ी या बाजरे का चूरमा ही ठीक है |और फिर पासवान जी का क्या है | योग्य और कुशल व्यक्ति हैं | सबको दही-चिउड़ा खिला कर काम निकालते रहे हैं | अब लोकसभा में ही नहीं पहुँचे तो कोई क्या करे अन्यथा १९८९ में वी.पी. सिंह, १९९६ में अटल जी, २००४ में सोनिया जी और अब २०१५ में  मोदी जी दही-चिउड़ा खिला रहे हैं | वैसे पासवान जी का दही-चिउड़ा है बड़ा चमत्कारी | हर तरह के दल और दिल में घुस जाता है |लेकिन हमारे पास कौन सी सत्ता है जो तुम्हें दही-चिउड़ा खिलाने की ज़रूरत आ पड़ी | और फिर बन्धु, सर्दी में दही खाकर कहीं खाँसी हो गई तो कई दिन परेशान होना पड़ेगा |


बोला- जब मोदी जी और पासवान जी खा सकते हैं तो तुझे क्या परेशानी है ? तू मकर संक्रांति के दिन दही-चिउड़ा न खाकर भारतीय संकृति और धर्म का अपमान कर रहा है |

हमने कहा- मोदी जी और पासवान जी तो जवान हैं, पचा जाएँगे | वैसे शासक का क्या जवान और क्या बूढ़ा, सबकी पाचन शक्ति बहुत ज़बरदस्त होती है |राष्ट्रीय एकता, गुड गवर्नेंस और देश के अच्छे दिनों के जाने क्या-क्या पहनना, खाना और पचाना पड़ता है | हमारे ऊपर कौन सी देश की ज़िम्मेदारी है जो सर्दी में दही खाएँ |

बोला- कोई बात नहीं | मैं तुझे कुछ नहीं कह सकता, मत चल | क्या करूँ, तेरी केबिनेट छोड़ भी तो नहीं सकता | यदि कोई और विकल्प होता तो तुझे बताता |

हमने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- नाराज़ हो गया क्या ? हमने तो आज मोदी जी का पासवान जी के यहाँ दही-चिउड़ा खाते हुए फोटो कम्प्यूटर पर देखा था सो तेरे साथ वैसे ही ठरक ले रहे थे | चल |

अब दही- चिउड़ा का क्या प्रभाव होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है |

१५-०१-२०१५


Mar 19, 2015

२०१५-०३-१७ चाय पुरुष तोताराम

   2015-03-17 
चाय-पुरुष तोताराम

भगवान ने तो सृष्टि में दो ही बनाए थे- स्त्री और पुरुष लेकिन कभी-कभी टेस्टिंग विभाग की तकनीकी खराबी के कारण इन दोनों के बीच की भी कोई चीज मार्किट में आ जाती है  |भाषा में तीन पुरुष पढ़ते-पढ़ाते थे - अन्य पुरुष, मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष | उत्तम पुरुष- मैं, हम | मतलब कि सब खुद को ही उत्तम समझते हैं |'मैं' बड़ी बुरी चीज है जिसके चलते महानीच भी धन-बल, पद-बल, बहु-बल से खुद को महापुरुष मानने लग जाते हैं और दूसरों से भी मनवाने की हर कोशिश करते हैं |महिलाओं के मामले में ऐसा नहीं है |उनसे पहले इस तरह का कोई भी विशेषण नहीं लगता | हो सकता है सब महिलाओं की महानता अंडरस्टुड हो |

पुरुषों को अपनी महानता पर शायद शंका रहती है इसलिए वे खुद के नाम से पहले विशेषण या तो खुद लगाने लग जाते हैं या अपने खुशामदियों से ऐसा कोई 'शोशा' छुड़वा देते हैं या फिर खुशामदिये ही उसे उल्लू बनाने के लिए या तो शतक/चालीसा लिखने लग जाते हैं या कोई बड़ा नाम दे देते हैं |

पशुओं में भी पुल्लिंग वर्ग में ही यह प्रवृत्ति दिखाई देती है |इसीलिए अच्छे बुरे सभी तरह के विशेषण उनके नाम से पहले ही लगते हैं जैसे रँगा सियार, धोबी का कुत्ता, गली का कुत्ता   | पहाड़ के नीचे भी ऊँट ही आता है, ऊँटनी नहीं |वैसे कुछ प्रभावशाली कुत्ते 'अपनी गली के शेर' की उपाधि भी धारण कर लेते हैं |

कुछ महान व्यक्तियों को लोग आदर से महात्मा, राष्ट्रपिता, लोकनायक, लोकमान्य, लौहपुरुष, नेताजी आदि कहने लग जाते हैं और फिर ये विशेषण उनके नाम के पर्याय ही बन जाते हैं | जब से लोकतंत्र का अनर्थ हुआ है या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम लोगों ने गाली निकालने की छूट ले ली है तब से मूल राष्ट्रपिता के स्थान पर अपनी पसंद के राष्ट्रपिता, लौह पुरुष, नेताजी चुन लिए हैं | इसलिए जब कोई राष्ट्रपिता कहता है तो पता ही नहीं चलता कि गाँधी की चर्च चल रही है या गोडसे की |नेताजी शब्द भी सुभाष चन्द्र बोस, लोहिया जी और मुलायम जी के बीच दिमाग को दौड़ाने लग जाता है |


अभी हम इसी भ्रामक चिंतन में भ्रमित हो रहे थे कि अचानक आकाशवाणी की तरह एक आवाज़  गूँजी - हे आदि-पुरुष,प्रणाम स्वीकार करो |

हमने अचकचाकर आँखें खोलीं कि कहीं आसपास मनु महाराज तो नहीं आ बिराजे |
देखा तो तोताराम | हमने पूछा-किसे प्रणाम कर रहा था ? तो बोला- इस दुनिया में  तेरे रहते मेरे लिए अब और कौन प्रणम्य बचा है ?

हमने कहा- लेकिन हम 'आदि पुरुष' थोड़े ही हैं | लोग मनु महाराज को आदि पुरुष कहते हैं हालाँकि कुछ समाज सुधारक उन्हें ढूँढ़ न पाने के कारण अन्य तीन वर्णों को ही  मनुवादी कह कर चार-चार जूते  मारने को उतारू रहते हैं | वैसे हमारे अनुसार मनु भी आदि पुरुष नहीं थे क्योंकि उनके भी मातापिता थे | लेकिन तू हमें आदि-पुरुष क्यों कह रहा है ?

बोला- हे भ्राताश्री, हर अखबार, समाचार, फोटो आदि में आप इसी नाम जाने,पहचाने  और सर्वत्र उपस्थित पाए जाते हैं | जब भी कोई समाचार छपता है तो लिखा होता है- कार्यक्रम में फलाँ , फलाँ आदि उपस्थित थे, चित्र में बाएँ से दाएँ  फलाँ,फलाँ आदि, कविसम्मेलन में कुल्हड़, भुक्कड़, चुक्कड़ आदि ने कविता पाठ किया  | यह 'आदि' आप ही तो हैं |तो फिर आप 'आदि-पुरुष' हुए कि नहीं ? 

हालांकि कि हम न तो इतने बड़े आदमी हैं कि खर्च सरकारी हो और विज्ञापन में फोटो छपे हमारा और न ही इतने पैसे वाले कि अपने खर्चे से अखबारों में अपने फोटो के साथ विज्ञापनात्मक बधाई छपवा सकें | और न ही ज़बरदस्ती कार्यक्रमों में थोबड़ा दिखाने के लिए लालायित रहते हैं फिर भी हमें अपना यह मूल्यांकन अच्छा नहीं लगा |

हमने कहा- २०१० में गड़करी जी ने राजकोट में मोदी जी को   'विकास-पुरुष' कहा था | और फिर चुनाव में विकास-विकास का ऐसा शोर मचा कि लगा- विकास न तो आज से पहले संभव हुआ और न ही इस देश में विकास किसी और के वश का काम है | तो हमने यह विशेषण मोदी जी के लिए तय कर लिया लेकिन अब दो दिन पहले ही समाजवादी पार्टी ने अपने शासन की तीसरी वर्ष गाँठ पर अखिलेश यादव को विकास-पुरुष घोषित कर दिया |क्या बताएँ ? हम तो कन्फ्यूजियाये हुए हैं, तोताराम |

बोला- कन्फ्यूज़ होने की कोई आवश्यकता नहीं है | इस देश में लाखों 'विकास-पुरुष' हैं | जिसकी संपत्ति नेता बनते ही दसगुना हो गई, नेता बनते ही  जिसका वज़न चालीस किलो से अस्सी किलो का हो गया, जिसका सीना गद्दी पाते ही छब्बीस से छप्पन इंच का हो गया, जिसने अपनी पचास वर्ग फुट की दुकान के आगे सौ फुट का बरामदा बना लिया, जिसने सार्वजनिक ज़मीन, रास्ता घेर लिया, जिसने अपने सभी घर वालों और रिश्तेदारों को पार्टी का टिकट देकर घर में ही बहुमत बना लिया हो वे सब 'विकास-पुरुष' नहीं तो और क्या हैं ?

हमने कहा- तू हमारे यहाँ, विशेष परिस्थितियों को छोड़कर, लगातार चाय पीता रहा है इसलिए  हम आज तुम्हें 'चाय-पुरुष' की उपाधि से सम्मानित करते हैं |  

बोला- लेकिन कहीं इस उपाधि से मोदी जी या उनके समर्थकों को कोई  ऐतराज़ तो नहीं होगा ?

हमने कहा- बिलकुल नहीं,  मोदी जी अब इन सबसे ऊपर उठ गए हैं क्योंकि अब राम जेठमलानी जी के अनुसार वे मानव नहीं बल्कि 'विष्णु के अवतार ' हैं |
























Mar 18, 2015

2015-01-04 आत्मशुद्धि,सच और प्यार का शोर्टकट


 2015-01-04 आत्मशुद्धि, सच और प्यार का शोर्टकट




आज तोताराम ने आते ही  आदेश  दिया-  फटाफट दो साफ़ गिलास, कुछ नमकीन और जो तेरा जी चाहे मँगवा | 

हमने कहा- और इसमें क्या है ?

-है क्या ? आत्मशुद्धि, सच और प्रेम का सस्ता और सरल नुस्खा | हमारे पूर्वज बेचारे इस नुस्खे के अभाव में सच और आत्मा की खोज के लिए हिमालय की ठण्ड में हजारों वर्षो से ठुठुरते रहे और पता नहीं, फिर भी सच मिला या नहीं |?  आत्मा थोड़ी बहुत शुद्ध हुई या नहीं या फिर जैसी ले गए थे उससे भी कुछ ज्यादा अशुद्ध तो नहीं करवा लाए ? 

हमने कहा- क्या असत्य भाषण कर रहा है | देश के सारे आत्मज्ञान और अध्यात्म का सत्यानाश कर रहा है | बेचारे पूर्वजों का इतना अपमान तो न कर |

बोला- अपमान नहीं कर रहा हूँ | मैं तो उनके आत्मशुद्धि, सच और प्यार के लिए उठाए गए कष्टों पर दुःख प्रकट कर रहा हूँ | यदि आज होते तो इतने कष्ट नहीं उठाने पड़ते |

हमने उत्सुकता से पूछा- क्या कोई इन सद्गुणों का भी कोई शोर्टकट निकल आया ?

कहने लगा- बिलकुल | अमरीका की 'न्यू इंग्लैण्ड ब्रूइंग कंपनी'   ने एक बीयर बनाई है जिसे पीने से आत्मशुद्धि होती है, सच का ज्ञान होता है और सभी द्वेष भाव समाप्त होकर पवित्र प्यार का उदय होता है |तभी तो निर्माताओं ने उसका नाम सत्य-अहिंसा के पुजारी और संसार को आत्मवत देखने वाले महात्मा गाँधी के पीछे 'गाँधी बाट' रखा है |और कहते हैं कि गाँधी के पोते-पोती ने भी इस लेवल को पसंद किया है |इसके विज्ञापन में कहा है कि यह पूरी तरह से वेजीटेरियन है तथा आत्मशुद्धि, सच और प्यार तलाशने वालों के लिए आदर्श है |
हम तो माता-पिता के आज्ञाकारी हैं तो उनके बताए रास्ते पर चलने के लिए भले ही वह चीज पीनी पड़े जो कभी नहीं पी | लेकिन राष्ट्रपिता की आत्मा की शांति के लिए ज़रूर पिएँगे |

हमने कहा- तोताराम, यह सब व्यापार है और व्यापार में सब कुछ जायज़ है | फायदे का एक मात्र रास्ता होने पर वहाँ के निर्माता ईसा चाकू और ईसा बंदूक भी बना सकते हैं | हमारे यहाँ भी तो तुलसी ज़र्दा, गणेश खैनी, लक्ष्मी पटाखे, शिव-पार्वती बीड़ी आदि बनाते हैं कि नहीं ? और अपने प्रिय देवताओं के फोटो जिस-तिस पर छाप कर क्या हम उन्हें नालियों में पहुँचाने के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं ? हम खुद तो गाँधी के सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह के रास्ते पर चलते हैं क्या ? अब यह हल्ला झूठी देश और धर्म भक्ति ही लगता है |और फिर हम गाँधी और गोडसे को एक ही तराजू पर तौल कर क्या सन्देश दे रहे हैं ?


Mar 17, 2015

  स्पष्टीकरण के साथ एक अनुरोध भी

मित्रो
सितम्बर २०१४ से फरवरी २०१५ तक आपसे दूर रहा लेकिन लिखता तब भी रहा था | आपके सामने रचनाएं न आ पाने का कारण यह रहा कि ब्लॉग में पोस्ट करवाने की व्यवस्था नहीं हो पाई | अब मैंने कामचलाऊ व्यवस्था खुद सीख ली है लेकिन इसमें पहले जितनी सजावट नहीं है |आशा है आप इसे इस सीधे-सादे रूप में भी उसी स्नेह से स्वीकार करेंगे |
अब मार्च २०१५ से फिर प्रेषित कर रहा हूँ |आलेख अधिकतर उक्त अवधि (सितम्बर २०१४ से फरवरी २०१५ )के हैं |इसलिए अनुरोध है कि उक्त समय के सन्दर्भ में पढ़ा जाए तो इनकी प्रासंगिकता अधिक लगेगी |
-रमेश जोशी
१७ मार्च २०१५

 2015-01-28 
तोताराम का आधार कार्ड 

 


आज तोताराम आया तो उसकी जेकेट पर नेम प्लेट की तरह बॉल पेन से उसका नाम, पता और घर के फोन नंबर लिखे हुए थे | हमने उसे छेड़ने के उद्देश्य से कहा- लगता है, तू मोदी जी से भी आगे निकल गया है |उन्होंने तो अपने कोट पर ही अपने नाम का कशीदा निकलवाया था पर तू तो पूरा पता लिखवाए घूम रहा है |

बोला- अपनी बात तो बाद में करूँगा पहले मोदी जी की बात |इसमें क्या बुराई  है ? क्या सेना और पुलिस में छोटे-बड़े सब के सीने पर उनके नाम की प्लेट नहीं लगी रहती ? क्या किसी आयोजन में हर मंचस्थ के आगे उसके नाम की पट्टी नहीं रखी रहती ? आजकल ज़माना बड़ा खराब है | पता नहीं कब, कौन किसकी कुर्सी हथियाकर उस पर बैठ जाए |जूतों पर नाम नहीं लिखा रहता तभी खोने पर चोर पकड़ में नहीं आता | मान ले कभी कोई इसे चुरा ले तो नाम देखकर पकड़ाई में आ जाएगा |और यदि इस कशीदे को निकाल देगा तो भी उधड़न से पकड़ा जाएगा |पहले जैसे लोग-बाग शादी में किसी का कपड़ा माँग ले जाते थे वैसे भी कोई नहीं माँगेगा क्योंकि इस पर पहले से मालिक का नाम खुदा हुआ है |और किसी को अपना नाम बताने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती |पहले भारतीय पत्नियाँ अपने पति का नाम नहीं लेती थीं तो वे अपने पति का नाम अपनी कलाई पर लिखवाती ही थीं | मंदिरों में भी जहाँ कई मूर्तियाँ हों तो उनके नीचे  भी देवता का नाम लिखा होता है अन्यथा क्या पता कोई भक्त शिवजी के लिए लाया प्रसाद भूल से हनुमान जी को खिला जाए | और मंदिरों के आगे भी देवता सहित नाम लिखा होता है जैसे संकटमोचन हनुमान-मंदिर, चमत्कारी बालाजी का मंदिर आदि |मुझे तो इसमें कोई बुराई नहीं लगती |

हमने उसे फिर छेड़ा- लेकिन मोदी जी तो हिंदी के प्रेमी हैं | संयुक्त राष्ट्र संघ में भी हिंदी में बोले थे |फिर यह नाम रोमन में क्यों ?
कहने लगा- ओबामा जी हिंदी नहीं जानते ना | आखिर मेहमान की सुविधा का ख्याल भी तो रखना चाहिए कि नहीं ?  लेकिन उनकी विनम्रता तो देख कि प्रधान मंत्री होते हुए भी पद नहीं लिखवाया अन्यथा बहुत से तो ऐसे होते हैं जो भूतपूर्व होते हुए भी शुरू में भूतपूर्व लिखते हैं, फिर भू.पू. और फिर केवल पू. और वह भी इतना छोटा सा  कि पढ़ने में नहीं आए और पद का नाम बड़े-बड़े अक्षरों में |

अब हमने पूछा- लेकिन तूने यह अपना नाम और पूरा पता क्यों लिखवाया है ?

बोला- यह मोदी जी की नक़ल नहीं है | यह तो बंटी की दादी ने लिख दिया | कहती थी कि आजकल तुम बहुत भूलने लग गए हो | क्या पता, कोई रौब-दाब वाला आदमी पूछ ले- तुम्हारा नाम क्या है ? और  तुम घबराकर अपना नाम बताने में ही हकलाने लगो तो क्या पता कोई, क्या शक कर ले  या कभी चक्कर खाकर ही कहीं गिर-पड़ जाओ तो कोई घर तो पहुँचा जाएगा या नंबर देखकर फोन कर तो देगा |

हमने कहा- इससे अच्छा तो तू अपना आधार कार्ड गले में लटका लेता | 

बोला- बन्धु, सारा जीवन निराधार गुज़ारा | अब चौथेपन में जाकर इस निराधार जीवन को एक आधार मिला है और तू उसे गले में लटकाने के लिए कह रहा है | यह कोई चेन थोड़े है कि झपट ली जाए तो भी आदमी जी ले |यह तो चैन है |इसे छोटी मोटी समस्याओं के लिए थोड़े ही काम में लिया जाता है | यह  तो ब्रह्मास्त्र है जिसे केवल गैस की सब्सीडी के लिए चलाया जाता है | मैं इतना त्यागी भी नहीं हूँ कि वसुंधरा जी की तरह कि गैस सब्सीडी में कोई लफड़ा डाल लूँ  | यही तो मेरे लिए विकास में हिस्सेदारी का प्रमाण है | वैसे इस पर भी जेतली जी की वक्र दृष्टि लगी है | कहते हैं इसे भी आय में जोड़कर टेक्स लेंगे |देखो, जब तक चलता है तब तक तो पेलें |




Mar 15, 2015

दस लाख का सूट

   
2015-02-02  दस लाख का सूट


मोदी जी के पुराने फोटो देखे जिनमें वे निक्कर और आधी बाँह का कमीज़ पहने दिखते थे और कभी कम कभी थोड़ी ज्यादा दाढ़ी- एकदम सादगी की मूर्ति, कर्मठ और सच्चे तथा अपनी स्वयं की इच्छा से बने साक्षात सेवक | और जब अधिक सेवा करने की ज़िम्मेदारी आई तब भी स्वयं को प्रधान मंत्री की बजाय 'प्रधान सेवक' ही कहा |हम खुश थे | लेकिन ओबामा को चाय पिलाते समय  दस लाख का सूट | हमें लगा हमारी आँखें और धारणा दोनों ही धोखा तो नहीं दे रहीं ?

आज जैसे ही तोताराम आया तो हमने अपनी खीझ उसी पर उतारते हुए  कहा- यह क्या नाटक है ?

बोला- तू क्या समझेगा वेतन भोगी मास्टर |सरकारी नौकरी | तनख्वाह पर कोई आँच नहीं |फटा-पुराना जो मर्ज़ी आए पहना | लेकिन जब बड़ी ज़िम्मेदारी आ जाती है तो बहुत कुछ वह भी करना पड़ता है जो मन नहीं कहता |

हमने कहा- गाँधी पर कौन सी कम ज़िम्मेदारी थी और वे कौन से छोटे सेवक थे लेकिन आधी धोती में चले गए |

कहने लगा- गाँधी जी ने अपनी ड्रेस का फायदा उठाया था | उनका उद्देश्य था दुनिया को यह दिखाना कि अंग्रेज शासन ने इस देश के कपड़े तक उतार लिए हैं |न उन्हें किसी से कोई ऋण माँगना था और न ही कोई विदेशी  निवेश |वे तो कहते थे-
आधी और रूखी भली ,साड़ी तो संताप 
जो चाहेगा चूपड़ी, बहुत करेगा पाप 
संतोष और सादगी को ही सुखी जीवन का मन्त्र मानते थे |  तभी तो चर्चिल ने उन्हें क्या कहा था- अधनंगा फकीर |

अब तकनीकी का ज़माना है |  इस देश को डिजिटल बनाना है, मेट्रो और बुलेट ट्रेनें चलानी हैं | भारत शहरीकरण करना है और शहरों को स्मार्ट बनाना है | मेड इन इण्डिया को  मेक इन इण्डिया में बदलना है | और इसके लिए बहुत सा पैसा चाहिए | इसके लिए विदेशी निवेश चाहिए और विदेशों के सामने आधी धोती पहन कर जाने से वे क्या सोचकर पैसा लगाएँगे | कर्ज़ा भी उसीको मिलता है जो चुका सकने की स्थिति में होता है | गरीब के बेटे को पढ़ाई के लिए कर्जा नहीं मिलता लेकिन बड़े-बड़े सेठों को कम ब्याज पर सैंकड़ों करोड़ का कर्जा मिल जाता है | साधारण आदमी बिजली का बिल कुछ दिन जमा न कराए तो कनेक्शन काट दिया जाता है जब कि उद्योगपतियों पर अरबों का बिजली का बिल बकाया है |इसलिए विदेशी निवेश लाने के लिए समृद्ध दिखना बहुत ज़रूरी है और इसकी शुरुआत ऐसा सूट पहनकर करने से बेहतर और क्या तरीका और अवसर हो सकता था ? और इससे दुनिया को यह सन्देश भी पहुँच गया कि भारत के सोने चिड़िया होने का दम भरना कोई हवाई बात नहीं है |अरे, इस देश में तो कई लोग सोने कमीज़ पहने भी घूमते हैं |मोदी जी ने तो सोने की थोड़ी सी कशीदाकारी ही करवाई है तो तेरे पेट में दर्द होने लगा | देश की इज्ज़त का कोई ख़याल नहीं |

वैसे उनकी सादगी का प्रमाण चाहिए तो उनकी अमरीका यात्रा को देख | दुनिया के सबसे धनवान देश से भी निराहार ही लौट आए और जो नीबू पानी पिया वह भी यहीं से ले गए थे | वरना तो लोग अमरीका जाते ही पिज़्ज़ा-बर्गर खाने और बीयर पीने |यह था भारत की आध्यात्मिकता का सन्देश और यह है भारत की समृद्धि का सन्देश |

विविधताओं का ऐसा निराला संगम कहीं देखा-सुना है ? लगा बिना बात आलोचना करने |उन सांसदों से तो बेहतर हैं जो मकान आवंटित होने पर भी पाँच-सितारा होटलों में जमे हैं |

Mar 14, 2015

 

 2015-02-28 ढोल बाजे


ढोल बाजे

तोताराम चबूतरे पर आकर बैठा लेकिन वह कहीं भी, किसी की तरफ भी नहीं देख रहा था | मन ही मन कुछ बुदबुदा रहा था और बीच-बीच में थोड़ा उछल भी रहा था | ऐसे लगता था जैसे उसमें किसी अन्य आत्मा का प्रवेश हो गया हो या जगराते में माता का भाव आ गया हो |चाय दी तो भी एकदम निस्पृह रहा |
हमने उसे झिंझोड़ा तो बड़ी मुश्किल से थोड़ा सामान्य हुआ |

हमने पूछा- क्या बड़बड़ा रहा है ? हमें तो उत्तर नहीं दिया लेकिन हमने उसके शब्दों से अनुमान लगाया कि वह बार-बार 'ढोल बाजे, ढोल बाजे' बुदबुदा रहा है |हमने फिर प्रश्न किया- क्या है ? कहाँ बज रहा है ढोल ?

उसने अपने ओठों पर अँगुली रखते हुए कहा- चुप, ध्यान से सुन |कितनी मधुर है यह ढोल-ध्वनि ? मंद-मंद |
यह मोदी जी ढोल की ध्वनि है जो दिल्ली से आ रही है |

हमने कहा- ढोल दूर से ही सुहावने लगते हैं | असली संकट तो उस पर होता है जिसके सिर पर बजते हैं |अरे, वह ढोल वाली बात तो पुरानी होगई | जब वे प्रधान मंत्री बनने के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा पर जापान गए थे तब उन्होंने वहाँ ढोल बजाया था | भारत का विकास करने के लिए 'मेक इन इण्डिया' के नारे से दुनिया को गुँजा दिया लेकिन वह तो पुरानी बात हो गई | अब तक कहाँ उसकी ध्वनि या  प्रतिध्वनि ?

बोला- इसका मतलब तू खबरें सुनता ही नहीं | अभी दो दिन पहले ही उन्होंने कहा है-मेरी सूझ-बुझ बहुत अच्छी है |मैं मनरेगा को बंद नहीं करूँगा क्योंकि वह कांग्रेस की असफलता का जीता-जागता उदाहरण है |मैं तो इसका जोर-शोर से ढोल पीटूँगा |

हमने कहा- इसका मतलब अब उन्हें पाँच साल ढोल ही पीटना है क्या ? पहले विकास के वादों का पीटा, फिर जापान में 'मेक इन इण्डिया ' का पीटा और अब कांग्रेस के मनरेगा की असफलता का पीटते रहेंगे | थक नहीं जाएँगे ?हालाँकि आवाज़ तो जोर से होती है लेकिन ढोल में होती तो पोल ही है ना ?

अचानक बात को थोड़ा ट्विस्ट देते हुए बोला- लेकिन पता नहीं, क्यों जेतली जी ने इस कार्यक्रम की असफलता के बावजूद मनरेगा का बजट क्यों बढ़ा दिया ?

हमने कहा- भैया, मनरेगा बिना घास खाए दूध देने वाली गाय है और लोकतंत्र को मज़बूत बनाने के लिए दूध तो सभी पार्टियों के कार्यकर्ताओं को चाहिए ही ना ? वैसे कांग्रेस के राज में भी मनरेगा का पैसा भाजपा शासित राज्यों को भी तो मिलता ही होगा ?तो सारी ज़िम्मेदारी अकेले कांग्रेस पर डालना कहाँ तक ठीक है ?

बोला- बन्धु, ढोल चीज ही ऐसी है कि बजाते समय सुर-ताल का ध्यान रखना बहुत कठिन होता है क्योंकि जान और ध्यान तो बजाने में ही खर्च हो जाते हैं |

हमने कहा- अब तो बता दे कि वे तो ढोल बजाकर अपना राज-धर्म निभा रहे हैं लेकिन तू क्यों 'ढोल बाजे, ढोल बाजे' बुदबुदा रहा था |

बोला- ढोल तो बजेगा ही | जब मोदी जी का थोड़ा सा धीमा पड़ेगा  तो जेतली जी का शुरू हो जाएगा | उन्होंने भी तो कहा है-मध्य वर्ग अपना खयाल खुद रखे | अब सरकार या तो मनरेगा का गुड़ बाँटेगी या कोरपोरेट के नीचे गलीचा बिछाएगी |

हमने कहा- फिर तो तेरा- ढोल-बाजे मंत्र ठीक ही है | अन्यथा इससे पहले तो मध्य वर्ग को रोजगार देने, उसकी रक्षा करने, बढ़िया और सस्ती स्वास्थ्य तथा शिक्षा सेवाएँ उपलब्ध करवाने का काम सरकारें ही बड़ी ईमानदारी से करती रही हैं ना ? पता नहीं फिर कुपोषण, नकली दवाओं, धार्मिक-जातीय दंगों, और क़र्ज़ से अब तक किस देश के लोग मरते रहे थे ? पता नहीं, किस देश के लोगों से सड़क चलती लडकियाँ और औरतें डरती थीं ?

लगता है, अब ढोल के दामों में भी भारी वृद्धि हो चुकी होगी फिर भी यदि कल मिल गया तो बाज़ार से एक ढोल ले ही आते हैं और रोज इस चबूतरे पर बैठकर बजाया करेंगे- ढोल बाजे, ढोल बाजे | मोदी जी का नहीं- आम आदमी का, भले आदमी का, मध्यम वर्ग का |

 

Mar 13, 2015

   २०१५-०३-०३ 
सकुशल समापन का श्रेय

कोई भी कार्यक्रम होता है तो वह स्वागत से शुरू होकर धन्यवाद पर समाप्त होता है |
कार्यक्रम में जो मुखिया होता है वह वे सारे काम करता है जो महत्वपूर्ण होते हैं | उसी के सबसे अधिक फोटो खिंचते हैं और अखबारों में भी सबसे अधिक वे ही फोटो छपते हैं जिनमें वह प्रमुखता से दिखाई पड़ता है | वही सबकी निगाहों और दिमागों में घुसता है |लेकिन काम करने वाले तो बेचारे दूसरे होते हैं | वे कार्यक्रम  में दरी बिछाने से लेकर समेटने तक के सारे काम करते हैं |बीच-बीच में अन्य छोटे-मोटे कामों के लिए भागते रहते हैं |मुख्यअतिथि के पास बैठकर फोटो खिंचवाना तो दूर, उससे उनका परिचय भी नहीं करवाया जाता | 

कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन की परंपरा भी होती है जिसे किसी विद्यालय के कार्यक्रम में सेकण्ड इन कमांड अर्थात उपप्राचार्य निभाता है क्योंकि एक हफ्ते ही हाड़ तोड़ मेहनत के बाद उसका इतना हक़ तो बनता ही है || जैसे ही धन्यवाद ज्ञापन के लिए किसी के नाम की घोषणा होने वाली होती है,तभी लोग गेट पर की भीड़  से बचने के लिए  उठना  शुरू  हो जाते  हैं | अपने-अपने बच्चों को समेटने के लिए आवाजें लगाने लग जाते हैं | ऐसे में धन्यवाद ज्ञापन करने वाला क्या कहे और क्या करे ? उसकी हालत तो मुलायम सिंह की  'गंगा सफाई' पर प्रतिक्रिया की तरह हो जाती है जिसे सुनकर मोदी जी ने कहा था-'इस पर हँसा जाए या रोया जाए '?

उसे तो मंच पर जमी विशिष्ट लोगों की भीड़ से लेकर टेंट, बिजली, पानी,बच्चों, बूढों, दारू न पीकर आने वाले दर्शकों, लडकियाँ न छेड़कर कार्यक्रम को सफल बनाने वालों से लेकर गली के कुत्तों तक को धन्यवाद देना पड़ता है जिन्होंने आगंतुकों को नहीं काटा और कार्यक्रम में भौंक कर उसे असफल नहीं बनाया | मज़े की बात यह है कि इसे कोई नहीं सुनता लेकिन धन्यवाद ज्ञापन करने वाला पूरी ईमानदारी से अपना फ़र्ज़ निभाता है |

सो शपथ ग्रहण समारोह के बाद मुफ़्ती मोहम्मद जी ने जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनाव का श्रेय पाकिस्तान और हुर्रियत को दिया तो इस पर पता नहीं क्यों हल्ला मचा |  फील्ड में तो मुफ्ती जी ही हैं | वे जानते हैं  कि कौन, क्या खुराफात कर सकता था और किसने, किस आश्वासन पर मतदान में बाधा नहीं डाली ? लोग तो चुनाव को छुट्टी का दिन मानकर घर में टी.वी. देखते रहते हैं, वोट डालने नहीं जाते |और जब पड़ोस के किसी भाई की धमकी मिल जाए तो फिर कौन होगा जो पुलिस और सरकार के सुरक्षा के कमजोर आश्वासन और चुनाव आयोग के वोट के महत्त्व वाले विज्ञापन को गंभीरता से लेकर अपनी जान  संकट में डालेगा |

तुलसीदास ने तो सबसे पहले पाकिस्तान और हुर्रियत के सगोत्री  उन खलों की वंदना की है जो 'बिनु काज दाहिने बाएँ' लगे रहते हैं |भले ही पाकिस्तान से अपनी रेंट नहीं पोंछी जा रही हो लेकिन खुद की नाक कटा कर भी तो किसी का सगुन बिगाड़ा जा सकता है |अपने लोकतांत्रिक पड़ोसी का तो यह हाल है कि जब सुबह एक हाथ में पानी का डिब्बा और एक हाथ में ए.के.४७ लेकर दिशा-जंगल फिरने आएँ तो किसे पता डिब्बा यहीं छोड़ जाए और ई.वी.मशीन उठा ले जाएँ |

 हमारे एक मित्र जब अमरनाथ की यात्रा पर जाने लगे तो सबसे पहले मियाँ मुशर्रफ की फोटो के सामने सिर नवाया और चिल्ला चढ़ाया |जब हमने कारण पूछा तो बोले- यह ठीक है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है लेकिन जान की अमान तो भारत सरकार नहीं बल्कि मुशर्रफ के हाथ ही है |हमें तो उनकी बात में कोई गलती नहीं लगी |

अब फिर कश्मीर में पाकिस्तान और हुर्रियत की वही चाल बेढंगी शुरू हो जाएगी क्योंकि अगर  वे अपना सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू नहीं करेंगे तो राज्य सरकार को स्पेशल पैकेज नहीं मिलेगा | और जब पैकेज नहीं मिलेगा तो राजनीति में खाली-पीली तनख्वाह से किस ससुर का काम चला है ?
०३-०३-२०१५





Mar 12, 2015

   


 2015-02-12 तोताराम का मंदिर

 तोताराम का मंदिर 

आज तोताराम ने आते ही एक रसीद बुक निकाली और हमारे सामने रखता हुए बोला- कितना चंदा लिखूँ ?

हमने कहा- चंदा किस बात का ?

बोला- मेरे मंदिर के लिए |

हमने कहा- तेरा मंदिर ?

कहने लगा- क्यों ? मंदिर बनाने के क्या कोई नियम कायदे कानून होते हैं ? जो चाहे मंदिर बना सकता है | किसी का भी बना सकता है |मुझसे किसी को कोई राजनीतिक या आर्थिक लाभ तो मिलने वाला है नहीं  जो मेरा मंदिर बनाएगा | आजकल मंदिरों का चलन चल पड़ा है | कोई मोदी जी का मंदिर बन रहा है, किसी ने इंदिरा जी का मंदिर तो किसी ने सोनिया जी का मंदिर बना रखा है | किसी ने अमिताभ का तो किसी ने सचिन का मंदिर बना लिया  |मायावती बहन जी ने तो खुद अपनी ही मूर्तियाँ लगवा दीं | चूँकि नेता जी मुलायम सिंह मुख्यमंत्री के पिता श्री है तो आज़म खां उनका मंदिर बनवाना चाहते हैं |सोचता हूँ मैं भी अपना एक मंदिर बनवा ही लूँ | पता नहीं, बाद में इस दिशा में कोई कुछ करे या नहीं |

हमने कहा- कहाँ बनाएगा और कितना खर्चा आएगा ?

बोला- खर्चा क्या है, बरामदे के कोने में दो दीवारें तो हैं ही,एक साइड में चार इंच की एक दीवार और खींच देंगे और एक साइड में पर्दा लगा देंगे | बस, हो गया मंदिर |
हमने कहा- सुना है, साधारण मूर्ति भी लाख-पचास हजार की आती है,उसका क्या करेगा ?

कहने लगा- करना क्या है ? तेरे बरामदे में उकडूँ बैठे चाय पीते हुए का फोटो रख देंगे | हो गया काम |और जब तक फोटो तैयार न हो तब तक सुबह-सुबह मैं, न सही दस लाख का सूट, खुद गमछा लपेट कर बैठ जाऊँगा | यदि अष्टधातु की मूर्ति लगवाएँगे तो कोई चोर ले जाएगा | इसे किसी तरह का कोई खतरा नहीं |

हमने कहा- देख, मंदिर उनके बनवाए जाते हैं जो अमर हैं जैसे शिव, हनुमान आदि या फिर मरने के बाद बनवाए जाते हैं | और जीते जी जिनके मंदिर-मूर्तियाँ बनाते हैं वह उन्हीं के लिए अशुभ होता है जैसे इंदौर में २००४ के चुनाव से थोड़ा पहले एक वकील साहब अटल जी का मंदिर बनवा रहे थे |हुआ क्या ?अटल जी हार गए और अब अस्वस्थ हैं | सोनिया जी का मंदिर बना तो लगातार पार्टी हार रही है  |मायावती बहन जी की पार्टी का राष्ट्रीय दर्ज़ा समाप्त होने वाला है |अच्छा हुआ जो मोदी जी ने उस भक्त को मना  कर दिया | अभी दिल्ली वाला झटका ही लगा है , मंदिर बनने पर पता नहीं क्या होता ?वैसे ही सत्ता मिलने पर आदमी का दिमाग खराब हो जाता है, ऊपर से ये स्वार्थी भक्त; कभी चालीसा तो कभी शतक | आदमी को आदमी रहने ही नहीं देते |

बोला- कोई बात नहीं पेंशन निबट गई है पाँच सौ उधार दे दे | एक मार्च को लौटा दूँगा | 
हमने कहा- तो यह चंदा क्या था ?

कहने लगा- मैं तो वैसे ही ठरक ले रहा था वरना जहाँ गोडसे का मंदिर बनाने वाले हैं वहाँ मंदिर श्रद्धा नहीं, शंका पैदा करता है |
बहुत हो गया मंदिर-मस्जिद | जो हैं उनमें कोई दिया जलाने वाला नहीं मिल रहा है |
बात ख़त्म, चाय मँगवा |

हमने कहा- जा,अन्दर जा कर अपनी भाभी से चाय और पाँच सौ का एक नोट भी ले आ |


Mar 11, 2015

 २०१४-१२-२०
आचरण और आडम्बर के बीच फँसा धर्म

ज्ञात इतिहास में आज ही नहीं, हमेशा से वेश और व्यवस्था की कमाई खाने वाले लोगों के लिए, धर्म एक ऐसा विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दा रहा है जो विभिन्न रूपों में शास्त्रार्थ से लेकर शस्त्रार्थ तक जाता रहा है | भले ही सभी धर्म लिखित में और सिद्धांतरूप में ईश्वर की एकता और सभी जीवों विशेषरूप से मनुष्य की एकता की बात करते हैं लेकिन किसी भी धर्म में जीव-मात्र की एकता और कल्याण की बात दूर, सम्पूर्ण मानवता के प्रति भी अहैतुक करुणा, स्नेह, संवेदना, सहानुभूति, दया कहीं नज़र नहीं आते | कभी-कभी कुछ उदार और संवेदनशील महापुरुषों के अतिरिक्त दुनिया का सारा इतिहास धर्म की आड़ में व्यक्ति और व्यक्तियों के स्वार्थी समूहों के युद्धों की कहानी ही है |

हर समाज में अधिकतर सामान्य व्यक्ति अपने कर्म हो धर्म मानकर स्वभावतः ऐसा आचरण करते हैं जो उनके, उनके पड़ोस, परिवेश को सुरक्षित और सरल-सहज रखता है | ये शांति से रहना और जीना चाहते हैं | इनकी आवश्यकताएँ, आकांक्षाएँ और सपने बहुत छोटे-छोटे होते हैं | ये लोग किसी भी समय में इस दुनिया के दुःख और संकट के कारण नहीं रहे हैं |

अपने सुगम, सहज और सुरक्षित जीवन के लिए सभी जीव और  विशेष रूप से मनुष्य कुछ संगठन, व्यवस्था, विधि-निषेध, आचरण और मूल्यों का विधान करता है जो उसके धर्म का स्वरूप होता है | इन छोटे-छोटे समूहों के धर्मों में कोई टकराव नहीं होता जब तक कि उनके जीवन और जीवन यापन को खतरा नहीं होता |कालांतर में कुछ चतुर, बातों और वेश की कमाई खाने वाले लोगों ने अपने व्यक्तिगत लाभ और प्रभुता के लिए समाज और समूह की व्यवस्था पर कब्ज़ा कर लिया | कालांतर में इन्हीं में से कुछ, मार्गदर्शक से सत्ताधारी की भूमिका में आ गए और शेष समाज से व्यवस्था करने के बदले में वसूली करने लगे | इस तंत्र में धर्म और सत्ता दोनों समान रूप से लाभान्वित होते रहे |और जब भी झगड़ा और संघर्ष हुए वे इसी लाभ के बँटवारे के लिए हुए | उनका समाज,मानव और किसी अन्य के भले काम से कोई सरोकार नहीं रहा |

यदि ईश्वर एक है, सभी उसकी संतानें हैं, सभी आपस में भाई-भाई हैं तो फिर झगड़ा किस बात का है ? आज जिस तरह से चुनावों में धन, बल, षड्यंत्र और दुष्टता हो रही वह सेवा के लिए नहीं बल्कि सत्ता के लिए है | यही हाल धर्म का है | यदि धर्म आचरण द्वारा जीवन की सार्थकता खोजने का नाम है तो फिर धर्मों का संघर्ष क्यों है ? क्या कोई धर्म विशेष ही मानव के जीवन को सुखी बना सकता है ? यदि ऐसा है तो समय-समय पर नए धर्मों का उदय क्यों होता है ? यदि हिन्दू धर्म सनातन है, जैसा कि कहा जाता है तो फिर उसमें विभिन्न सम्प्रदाय, मत-मतान्तर कहाँ से और क्यों आ गए ? और क्या समय-समय पर इनमें आपस में संघर्ष नहीं होता रहा है ? वह किसके कल्याण  के लिए था ?और यदि कल्याण के लिए था तो कैसा, किसका और कितना कल्याण हुआ है, यह सबके सामने है |

यही हाल यहूदियों, बौद्धों, जैनियों, ईसाइयों, मुसलमानों, सिक्खों के धर्म के उदय और उनमें पनपे विभिन्न उपधर्मों या सम्प्रदायों का रहा है | पहले स्वार्थ सिद्धि के लिए नया धर्म बनाया जाता है फिर उसमें भी वर्ग-विशेष के स्वार्थ की पूर्ति न होने से विभाजन होता है और उनमें आतंरिक संघर्ष शुरू हो जाता है | यदि ऐसा नहीं होता तो शिया-सुन्नी-अहमदिया-मुहाज़िर, कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट, हीनयान-महायान, श्वेताम्बर-दिगंबर, निरंकारी-मज़हबी-अकाली सिक्खों में संघर्ष नहीं होता | हिन्दू धर्म भी बातों में किसी से कम नहीं है | भले की एक आत्मा-परमात्मा की बात बहुत की जाती है तो फिर ये दलित, आदिवासी, सवर्ण आदि के झगड़े क्या किसी और ने बाहर से आकर फैलाए हैं ? ब्राह्मण तक सब एक नहीं हैं | उनमें भी गौड़, सनाढ्य, खंडेलवाल में भेद किया जाता है |

किसी एक धर्म से दूसरे धर्म में जाने पर भी समस्या दूर होने वाली नहीं है |जाने वाला अपना वर्ण, जाति, नस्ल अपने साथ ले जाता है और उसके साथ वहाँ भी उसी तरह का भेद-भाव किया जाता है जैसा उसके मूल धर्म में होता था | क्या अफ्रीका में गोरों का शिकार काले ईसाई नहीं हुए ? क्या हिन्दू धर्म से किसी अन्य  धर्म में गए नीची जाति के लोगों के साथ नए धर्म में समानता का व्यवहार होता है ? क्या अमरीका में नस्ल भेद का शिकार हो रहे लोग गोरों की तरह ईसाई नहीं है ? क्या भारत के मुसलमान के साथ अरब देशों में सामान व्यवहार होता है ?

यदि कोई पूछे कि जिस देश में एक ही धर्म के लोग रहते हैं वहाँ चोरी, डाका, बलात्कार, हत्या क्या बाहर से कोई दूसरे धर्म वाला आकर करता है ? पाकिस्तान में बच्चों की हत्या करने वाले उन्हीं के धर्म के थे |यदि एक धर्म होने से सभी समस्याएँ हल हो जाएँ तो कितना सरल है दुनिया को स्वर्ग बनाना | उस जादुई धर्म को अपनाने में किसे ऐतराज़ हो सकता है ? लोग पैसे लेकर नहीं बल्कि पैसे देकर उस धर्म में जाएँगे | लेकिन  भेद-भाव, अमानवीयता, ऊँच-नीच की जड़ आदमी की सोच में है जो धर्म द्वारा पैदा की और फैलाई जाती है | इसका इलाज़ न तो धर्म-परिवर्तन में है और न ही अधार्मिक होने में | इसका इलाज़ है आदमी की सोच बदलने में |जब किसी व्यवस्था या समाज में न्याय,  चिकित्सा, शिक्षा और अन्य अवसर जाति, धर्म, नस्ल और पंथ के आधार पर उपलब्ध होते रहेंगे तब तक दुनिया में तथाकथित बेहतरी के लिए धर्म-परिवर्तन होते और कराए जाते रहेंगे |

तथाकथित सभी धर्मों में आत्मा और परमात्मा, ईश्वर और जीव का संबंध पादरी, मौलवी, ग्रंथि, पंडित के माध्यम से है | धार्मिक स्थान और धर्म के ठेकेदार ईश्वर और जीव के बीच रिज़र्वेशन काउंटर खोलकर बैठे हैं | उन्हें कमीशन दिए बिना स्वर्ग में सीट नहीं मिलेगी | इस अंध-विश्वास को तोड़ना बहुत ज़रूरी है जो सही शिक्षा से ही हो सकता है | यदि सरकारें न्यायपूर्ण शासन करें तो ईश्वर की आवश्यकता कम हो जाएगी |सभी कहते हैं- कर्मप्रधान विश्व रचि राखा  |  जो जस करहिं सो तस फल चाखा ||

लेकिन धर्म के ठेकेदार कुकर्मी पैसे वालों को स्वर्ग का टिकट देने को तैयार बैठे हैं और मीडिया पैसा लुटाने वाले को जन सेवक, आदर्श और अनुकरणीय सिद्ध कर सकता है | ऐसे में साधारण आदमी कर्मों पर नहीं, धर्म के आडम्बर पर अधिक भरोसा करने लगता है |यदि कोई अपने धर्म-कर्म पर कायम रहता है तो उसे न तो तथाकथित धर्मों और न ही सत्ता का साथ मिलता है | सत्ताएँ भी अपनी सीढ़ियाँ जन-सेवा में नहीं बल्कि धर्मों, धर्म के ठेकेदारों और धार्मिक आडम्बरों में तलाशने लगती हैं | राजनेताओं का पोप, इमाम और तथाकथित संतों से मिलना सत्ता की सीढियाँ तलाशना और उन्हें मज़बूत करना है |

धर्म की ग्लानि के इस समय में सब धर्म के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं | मरण तो धर्म का आचरण करने वाले का है | उसे न वोट-बैंक के भूखे जन-सेवक घास डालते हैं और न ही धर्म के ठेकेदार और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अवतार की संभावना दूर-दूर तक नज़र नहीं आती |

सब 'गोदो' (एक फ्रेंच नाटक का एक पात्र )की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो कभी नहीं आता |




Mar 10, 2015

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
तोताराम की नीलामी 

हम और तोताराम चाय की पहली चुस्की भी नहीं ले पाए थे कि इस्माइल टपक पड़ा | अंग्रेजी वाली स्माइल तो नेताओं और विदेशी निवेशकों के लिए रिजर्व हो गई है लेकिन यह वह स्माइल नहीं, यह इस्माइल है | प्रायः हमारी गली में बकरे खरीदने आया करता है | यह जो आवाज़ लगाता है उसे केवल बकरे और बकरों के मालिक ही समझते हैं | अब अभ्यासवश हम भी थोड़ा अंदाज़ लगा सकने लायक हो चुके हैं |

आज उसने कोई आवाज़ नहीं लगाई, सीधे ही पूछ लिया- मास्टर जी, कोई बकरा बिकाऊ है ?

हमने कहा- तुझे इस गली में आते हुए दस वर्ष हो गए |तुझे यह पता है कि हम बकरी नहीं पालते |और जब बकरी नहीं पालते तो बकरे कहाँ से आएँगे ?

बोला- आजकल नीलामी का मौसम है | अभी बिहार में नीलामी होने वाली है जहाँ दिल्ली से बड़े-बड़े लोग पहुँच चुके हैं |बंगलुरु में क्रिकेट खिलाड़ी नीलाम  हो ही चुके हैं | इसलिए हमने सोचा क्या पता मास्टर जी भी कुछ नीलाम कर रहे हों तो | 

हमने कहा- इस्माइल, ईमान तो हम बेचेंगे नहीं और बाकी ऐसा कुछ हमारे  पास   है नहीं जिसकी किसी को ज़रूरत हो | 
तभी हमारे व्यंग्यकार मन को कुछ शरारत सूझी, कहा- लेकिन एक खिलाड़ी है जो न तो बंगलुरु गया और न ही कीमत ज्यादा होने के कारण किसी ने उसे ख़रीदा |

इस्माइल को अचम्भा हुआ- बोला, तो दिखाइए

हमने तोताराम की तरफ इशारा करते हुए कहा- यह है ना | 

बोला- ये ? इनमें ऐसी क्या विशेषता है ?

हमने कहा- एक दम फ्रेश है | आज तक न कोई मैच खेला, इसलिए रन रेट आदि का रिकार्ड उपलब्ध नहीं है लेकिन इसकी स्टाइल से कोई वाकिफ़ नहीं है | इसलिए हो सकता है कि जब तक बैट्स मैन इसका स्टाइल समझें तब तक यह एक ओवर में छः विकेट लेकर नया विश्व रिकार्ड बना दे |लेकिन तेरे वश का नहीं है, दाम कुछ ज्यादा है |

इस्माइल ने अपनी जेब में हाथ डालते हुए कहा- कितने ज्यादा ? बताएँगे तभी ना बात आगे बढ़ेगी ?

हमने कहा- कितने भी, लेकिन युवराज सिंह से एक रुपया ज्यादा |

बोला- लीजिए, आप भी क्या याद करेंगे कि किसी क्रिकेट-प्रेमी से पाला पड़ा था |ये लीजिए टोकन मनी |और हमारी तरफ दस रुपए का एक नोट बढ़ा दिया |

हमने कहा- और बाकी ?

बोला- दस रुपए महिने की क़िस्त तय रही |

तोताराम भी उसके साथ उठ खड़ा हुआ |हमने कहा- अभी क्या जल्दी है | जब मैच हो तब चले जाना |
बोला- कहीं नहीं जा रहा हूँ | बस, अखबार में समाचार देकर आ रहा हूँ कि तोताराम सोलह करोड़ एक रुपए में नीलाम हुआ | और कुछ नहीं तो मेरा, सीकर और राजस्थान का नाम तो रोशन हो जाएगा |और क्या पता 'गिनीज़ बुक' में भी नाम आ जाए |

जैसे ही तोताराम और इस्माइल विदा हुए, हमने नोट को पलट कर देखा तो पाया कि उसके पीछे छापे जाने का साल तो है ही नहीं  |
अब पता नहीं इसे कहाँ चलाएँगे ?

Mar 8, 2015

  आकाश में घर नहीं बनता 

हमें बड़ा अजीब लगा रहा था कि गडकरी जी जैसे संत और जनहितकारी व्यक्ति की बात भी अन्ना, सभी गैर भाजपा दल और किसान पता नहीं क्यों नहीं मान रहे हैं ? बिना बात आन्दोलन और असहयोग की धमकी दे रहे हैं | अरे, जब गडकरी जी कह रहे हैं कि यह भूमि अधिग्रहण बिल किसान के लिए हितकारी है तो अवश्य ही हितकारी होगा | वे क्यों झूठ कहेंगे ? 

जैसे ही तोताराम आया, हमने कहा- केजरीवाल ने अपने वादों की डिलीवरी एक हफ्ते में शुरू कर दी | जब कि इनके दिन पूरे हो गए | दसवाँ महिना चल रहा है | अब तो  डिलीवरी हो ही जानी चाहिए |   इधर लेबर पेन शुरू हो गया है और उधर विरोधी जच्चा-बच्चा केंद्र का दरवाज़ा रोके खड़े हैं | अगर ज्यादा देर हो गई तो क्या पता,  कहीं खुले में ही विकास न हो जाए ?

कहने लगा- यह विकास साधारण नहीं है | विदेशी तर्ज़ का है | वहाँ बच्चे बहुत भारी होते हैं, यहाँ से कई गुना भारी | सो यह बच्चा भी भारी होगा | क्या पता भारत माता के स्तनों में इतना दूध है भी या नहीं ? कहीं भूखा मरता यह बच्चा उसका खून ही न पी जाए |

हमने चिढ़कर कहा- यह क्या बच्चा, दूध और भारत माता लगा रखी है ?

बोला- हद है यार, बड़ा कवि-लेखक बना फिरता है और इतना सा रूपक नहीं समझा |
देख, विकसित देशों के पास या तो अपने उपनिवेशों से चूसा हुआ धन है या अब भी उनसे अपने पक्ष में झुकते हुए व्यापार-संतुलन की कमाई है | जहाँ तक अमरीका की बात है तो उसके पास हमसे चार गुना ज़मीन है और एक चौथाई जनसंख्या |हमारे और उनके विकास के मानदंडों में अंतर होना ही चाहिए |यहाँ की अधिकतर जनसंख्या किसान या कृषि मज़दूरों की है | जहाँ तक ज़मीन की उत्पादकता का सवाल है तो कम से कम पाँच हजार वर्षों से इस धरती पर खेती हो रही है और खनिजों का भी दोहन हो रहा है | कहाँ जान बची है बेचारी इस भारत माता में |अब तो मितव्ययिता से रहेंगे तो किसी तरह काम चलेगा नहीं तो यह पतली छाछ राबड़ी बनाने के काबिल भी नहीं रहेगी |

हमने कहा- लेकिन किसानों को मुआवजा भी तो चार गुना दिया जा रहा है |

बोला- चार गुना ? कब का ? दस साल पुराना | विकास के लिए प्रतिबद्ध लोगों के निवेश सौ गुना बढ़ गए और किसान का केवल चार गुना | और फिर निवेशक तो यहाँ क्या विदेश में भी निवेश कर लेंगे लेकिन किसान को खेती के अलावा और क्या आता है ? जो थोड़ा बहुत मिलेगा उसे बाज़ार द्वारा बहकाए गए किसान के बच्चे उड़ा देंगे | फिर किसान के लिए शहरों में जाकर दो रोटी के लिए प्राण देने के अलावा और कुछ नहीं बचेगा और ये बेचारे कृषि मजदूर कहाँ जाएँगे ? 

हमने कहा- देखो, जीवन-मरण, हानि-लाभ, सुख-दुःख तो सब विधि के हाथ है | मर्द की तो जुबान होती है | हरिश्चंद्र ने कहा था-चन्द्र टरे, सूरज टरे... | उनके वंशज दशरथ ने वचनों की रक्षा के लिए प्राण दे दिए |

हँसते हुए बोला- प्राण किसके ? अपने या किसान और सामान्य जनता के ?

हमने कहा-  विकास तो होगा, हर कीमत पर होगा | प्राण जाय पर वचन न जाई |

उठते हुए तोताराम ने कहा- तो फिर कर लें |शेर जंगल का राजा होता है | उसकी मर्जी-बच्चा दे या अंडा | याद  रख, कोई पक्षी क्या, गरुड़ भी कितना ही ऊँचा उड़ ले लेकिन अंततः ज़मीन पर आना ही पड़ता है | आकाश में घर नहीं बनता |
 

Mar 7, 2015

हँसूँ या रोऊँ  

पता नहीं, तोताराम किस कुंठा या बीमारी से ग्रसित हो गया है ? कल 'ढोल बाजे, ढोल बाजे' बुदबुदा रहा था और आज भी वही हाल | कभी आठ-आठ आँसू ढार रहा था तो कभी पेट पकड़कर हँस रहा था जैसे कि किसी प्रायोजित विशेषरूप से हास्य कार्यक्रम में टी.वी. पर बात बिना बात हर एक मिनट में नेपथ्य से ठहाकों की आवाज़ आती है या संसद या विधान सभा में माननीय सदस्य अपने नेता के भाषण पर तो कभी घटिया शे'र पर हँसते या मेजें थपथपाते हैं |  

 कई देर तक तोताराम का यह आलाप-प्रलाप जब बंद नहीं हुआ तो हमने उसका कन्धा पकड़कर जोर से हिलाया और मुँह पर ठंडे पानी के छींटे मारे तो कुढ़कर बोला- यह क्या तमाशा है ?

हमने कहा- तमाशा तो तू कर रहा है | कभी रोता है, कभी हँसता है | 'कभी ख़ुशी, कभी गम' हुआ जा रहा है |

बोला- मेरी भी स्थिति मोदी जी जैसी हो रही है |  गंगा सफाई पर मुलायम सिंह जी के भाषण पर उन्होंने कहा- मैं मुलायम सिंह जी की बात पर रोऊँ या हँसूँ ?

हमने कहा- देखो, मुलायम सिंह जी देसी आदमी हैं | खाँटी जनपदीय अस्टाइल में बोलते हैं |किसी पुराने एटा-इटावा वाले के अलावा उनकी पूरी बात समझना हर एक के वश का नहीं है | जब कोई कुछ समझता नहीं तो यह तो कह नहीं सकता कि तुम्हारी बात समझ में नहीं आई | बस, वह सामने वाले के उद्गारों का नहीं बल्कि उसके पद का सम्मान करते हुए कभी मुस्करा देता है तो कभी गमगीन होने का नाटक कर देता है | मोदी जी की भी यही हालत हुई होगी | अब चूँकि मोदी जी कोई मौनी बाबा तो हैं नहीं, वे हर बात का ज़वाब देते ज़रूर हैं | और फिर ज़वाब उनकी ही शैली में होगा |सो कह दिया- मैं मुलायम जी बात पर हँसूँ या रोऊँ ?

अब मज़े की बात देखिए कि संसद में इतने बुज़ुर्ग, बुद्धिमान संसद बैठे थे लेकिन किसी ने उनकी दुविधा पर ध्यान नहीं दिया |कम से कम एक विकल्प सुझा देते तो मामला एक तरफ होता और मोदी जी उसके अनुसार रो या हँस लेते और फिर निश्चिन्त होकर 'विकास' पर ध्यान देते | पता नहीं, अब भी वे दुविधा में होंगे या कोई एक निर्णय  लेकर उसके अनुसार रो या हँस रहे होंगे |

तोताराम ने बड़ी निरीह सूरत बनाते हुए कहा- मोदी जी की छोड़, उनके पास तो बहुत काम हैं | किसी तरह रो या हँस कर पाँच साल निकाल देंगे लेकिन मैं क्या करूँ ?मेरे पास तो समय ही समय है | अब क्या हँसता या रोता ही रहूँ ?

जब वे विकास की बात करते हैं तो हँसना आता है और जब अपने देश की सामान्य समस्याओं तक को उलझी और अनसुलझी पाता हूँ तो रोना आता है | जब औबेसी, तोगड़िया, अवैद्यनाथ आदि को सुनता हूँ तो रोना आता है |जब गंगा की सफाई की बात सुनता हूँ तो हँसना आता है और जब अपनी गली में इधर-उधर के गंदे पानी की वैतरणी देखता हूँ और अखबार में नगर परिषद् के सफाई अभियान के फोटो देखता हूँ तो रोना आता है |जब नेताओं के चुनाव पूर्व के भाषण और बाद के आचरण देखता हूँ और शब्दावली सुनता हूँ तो रोना आता है |और अब तो कभी रोते, कभी हँसते हालत यह हो गई है कि मुझे खुद ही पता नहीं चलता कि मैं हँस रहा हूँ या रो रहा हूँ ?

हमने कहा- यदि हमारी बात माने तो हम तुझे एक टाइम टेबल बना देते हैं जैसे विज्ञापनों में दो  फोटो के साथ आता है- इलाज़ से पहले और इलाज़ के बाद | या कोई 'राजा तेल' लगाने से पहले और तेल लगाने के बाद |वैसे  तू दोपहर का खाना खाने से पहले हँस लिया कर और खाना खाने के बाद रो लिया कर | 'चुनाव से पहले और चुनाव के बाद' की तरह |
01-03-2015 








Mar 6, 2015

 उतरन का धंधा

आज तोताराम विपरीत दिशा से प्रकट हुआ मतलब अपने घर की तरफ से नहीं, मंडी की तरफ से -सिर पर एक बड़ा सा गट्ठर, लड़खड़ाते पाँव; यदि हम न सँभालते तो गिर ही पड़ता |

पूछा- इसमें क्या है ? कहीं मंडी से बची हुई सब्ज़ी तो बीनकर नहीं ला रहा ?

तोताराम ने पसीना पोंछते हुए हमें खा जाने वाली निगाहों से घूरते हुए कहा- अभी सरकार इतनी निर्लज्ज नहीं हुई है कि अपने रिटायर वरिष्ठ सेवकों को सब्जियों की फेंकन बीनने की हालत में पहुँचा दे |

फिर हमारे कान के पास मुँह लाकर बोला- बोझ तो बहुत है, जान ही निकल गई लेकिन यह कोई  सब्जी या आटा थोड़े ही है जो ऑटो में लादकर लाता | बड़ा जोखिम का काम है |पूरे पाँच करोड़ हैं | गनीमत है कि सही सलामत पहुँच गया वरना कोई भी टेंटुआ दबाकर ले भागता और पुलिस अज्ञात लोगों के नाम एफ़.आई.आर.दर्ज करके छुट्टी कर देती |

हमारा मुँह खुला का खुला रह गया- पाँच करोड़, कहाँ हाथ मारा ? 

बोला- किसी दो नंबर वाले से एक महीने का फिफ्टी-फिफ्टी का सौदा किया है मतलब एक महीने बाद मूल धन और आधा प्रॉफिट लौटा दूँगा  |

हमने कहा- बात साफ़ कर |

बोला- मैनें सोचा है कि पाँच करोड़ में मोदी जी वाला सूट खरीद लूँगा और कुछ दिन में एक -दो करोड़ का फायदा कमाकर बेच दूँगा |चल, लगा मोदी जी को फोन |

हमने कहा- तू किस दुनिया में है ? वह तो बिक चुका, गुजरात में उसका जुलूस भी निकल चुका और आयकर का छापा पड़ चुके उस व्यवसायी का नाम गुड बुक्स में भी आ चुका |

बोला-तू कैसा आदमी है ? इतना भी ध्यान नहीं रखा ? अब उस सूरत वाले हीरा व्यवसायी का पता मालूम कर | चार करोड़ इकत्तीस लाख में ख़रीदा है, हम उसे पूरे  पाँच करोड़ देंगे | चार दिन में साठ लाख का प्रॉफिट कम नहीं | धंधा करने वाला आदमी है, दे देगा |
हमने कहा- नहीं देगा | उसने  कल सूट पहने मोदी जी के जिस पुतले का जुलूस निकाला है उसे अपने ऑफिस के स्वागत कक्ष में, वही  सूट पहनाकर खड़ा करेगा जैसे रेडीमेड कपड़ों की दुकान पर जींस और शर्ट पहने प्लास्टिक के पुतले खड़े रखे जाते हैं |इससे उसके कर्मचारियों को प्रेरणा मिलेगी |

बोला- अरे, गुजरात तो द्वारिकाधीश,योगिराज कृष्ण की भूमि है | क्या उनसे उसे और उसके कर्मचारियों को प्रेरणा नहीं मिल सकती ?

हमने कहा- व्यापारियों का काम योगिराज से नहीं चलता उन्हें  तो सत्ता की कृपा चाहिए और वह इतने सस्ते में मिल गई | वह बिलकुल नहीं बेचेगा |वैसे हमें उत्सुकता है कि तू इस सूट का क्या करता और कैसे एक महीने में ही एक-दो करोड़ कमा लेता ?

कहने लगा- देख, यह सूट छप्पन इंच के हिसाब से बना है और मेरा हिसाब अट्ठाईस इंच का है |सो एक के दो सूट हो जाते | पहले एक बेचते पाँच करोड़ में और फिर दस-पाँच दिन में दूसरा |और सुना है उसमें सोने के तारों से कढ़ाई हुई है सो उसकी जगह पीतल के तार लगा देते तो वह बचत अलग से हो जाती |

हमें तोताराम से ईर्ष्या हुई और ख़ुशी भी कि इतना प्रतिभा संपन्न व्यक्ति हमारा मित्र है | हमने उसका माथा चूम लिया जैसे दो-तीन दिन पहले नब्बे साल से भी ऊपर के राम जेठमलानी ने लीना चंदावरकर का स्मूच कर मारा |