२०१४-१२-२०
आचरण और आडम्बर के बीच फँसा धर्म
ज्ञात
इतिहास में आज ही नहीं, हमेशा से वेश और व्यवस्था की कमाई खाने वाले
लोगों के लिए, धर्म एक ऐसा विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दा रहा है जो
विभिन्न रूपों में शास्त्रार्थ से लेकर शस्त्रार्थ तक जाता रहा है | भले ही
सभी धर्म लिखित में और सिद्धांतरूप में ईश्वर की एकता और सभी जीवों
विशेषरूप से मनुष्य की एकता की बात करते हैं लेकिन किसी भी धर्म में
जीव-मात्र की एकता और कल्याण की बात दूर, सम्पूर्ण मानवता के प्रति भी
अहैतुक करुणा, स्नेह, संवेदना, सहानुभूति, दया कहीं नज़र नहीं आते | कभी-कभी
कुछ उदार और संवेदनशील महापुरुषों के अतिरिक्त दुनिया का सारा इतिहास धर्म
की आड़ में व्यक्ति और व्यक्तियों के स्वार्थी समूहों के युद्धों की कहानी
ही है |
हर समाज में अधिकतर सामान्य व्यक्ति अपने कर्म हो
धर्म मानकर स्वभावतः ऐसा आचरण करते हैं जो उनके, उनके पड़ोस, परिवेश को
सुरक्षित और सरल-सहज रखता है | ये शांति से रहना और जीना चाहते हैं | इनकी
आवश्यकताएँ, आकांक्षाएँ और सपने बहुत छोटे-छोटे होते हैं | ये लोग किसी भी
समय में इस दुनिया के दुःख और संकट के कारण नहीं रहे हैं |
अपने
सुगम, सहज और सुरक्षित जीवन के लिए सभी जीव और विशेष रूप से मनुष्य कुछ
संगठन, व्यवस्था, विधि-निषेध, आचरण और मूल्यों का विधान करता है जो उसके
धर्म का स्वरूप होता है | इन छोटे-छोटे समूहों के धर्मों में कोई टकराव
नहीं होता जब तक कि उनके जीवन और जीवन यापन को खतरा नहीं होता |कालांतर में
कुछ चतुर, बातों और वेश की कमाई खाने वाले लोगों ने अपने व्यक्तिगत लाभ और
प्रभुता के लिए समाज और समूह की व्यवस्था पर कब्ज़ा कर लिया | कालांतर में
इन्हीं में से कुछ, मार्गदर्शक से सत्ताधारी की भूमिका में आ गए और शेष
समाज से व्यवस्था करने के बदले में वसूली करने लगे | इस तंत्र में धर्म और
सत्ता दोनों समान रूप से लाभान्वित होते रहे |और जब भी झगड़ा और संघर्ष हुए
वे इसी लाभ के बँटवारे के लिए हुए | उनका समाज,मानव और किसी अन्य के भले
काम से कोई सरोकार नहीं रहा |
यदि ईश्वर एक है, सभी उसकी
संतानें हैं, सभी आपस में भाई-भाई हैं तो फिर झगड़ा किस बात का है ? आज जिस
तरह से चुनावों में धन, बल, षड्यंत्र और दुष्टता हो रही वह सेवा के लिए
नहीं बल्कि सत्ता के लिए है | यही हाल धर्म का है | यदि धर्म आचरण द्वारा
जीवन की सार्थकता खोजने का नाम है तो फिर धर्मों का संघर्ष क्यों है ? क्या
कोई धर्म विशेष ही मानव के जीवन को सुखी बना सकता है ? यदि ऐसा है तो
समय-समय पर नए धर्मों का उदय क्यों होता है ? यदि हिन्दू धर्म सनातन है,
जैसा कि कहा जाता है तो फिर उसमें विभिन्न सम्प्रदाय, मत-मतान्तर कहाँ से
और क्यों आ गए ? और क्या समय-समय पर इनमें आपस में संघर्ष नहीं होता रहा है
? वह किसके कल्याण के लिए था ?और यदि कल्याण के लिए था तो कैसा, किसका और
कितना कल्याण हुआ है, यह सबके सामने है |
यही हाल
यहूदियों, बौद्धों, जैनियों, ईसाइयों, मुसलमानों, सिक्खों के धर्म के उदय
और उनमें पनपे विभिन्न उपधर्मों या सम्प्रदायों का रहा है | पहले स्वार्थ
सिद्धि के लिए नया धर्म बनाया जाता है फिर उसमें भी वर्ग-विशेष के स्वार्थ
की पूर्ति न होने से विभाजन होता है और उनमें आतंरिक संघर्ष शुरू हो जाता
है | यदि ऐसा नहीं होता तो शिया-सुन्नी-अहमदिया-मुहाज़िर,
कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट, हीनयान-महायान, श्वेताम्बर-दिगंबर,
निरंकारी-मज़हबी-अकाली सिक्खों में संघर्ष नहीं होता | हिन्दू धर्म भी बातों
में किसी से कम नहीं है | भले की एक आत्मा-परमात्मा की बात बहुत की जाती
है तो फिर ये दलित, आदिवासी, सवर्ण आदि के झगड़े क्या किसी और ने बाहर से
आकर फैलाए हैं ? ब्राह्मण तक सब एक नहीं हैं | उनमें भी गौड़, सनाढ्य,
खंडेलवाल में भेद किया जाता है |
किसी एक धर्म से दूसरे
धर्म में जाने पर भी समस्या दूर होने वाली नहीं है |जाने वाला अपना वर्ण,
जाति, नस्ल अपने साथ ले जाता है और उसके साथ वहाँ भी उसी तरह का भेद-भाव
किया जाता है जैसा उसके मूल धर्म में होता था | क्या अफ्रीका में गोरों का
शिकार काले ईसाई नहीं हुए ? क्या हिन्दू धर्म से किसी अन्य धर्म में गए
नीची जाति के लोगों के साथ नए धर्म में समानता का व्यवहार होता है ? क्या
अमरीका में नस्ल भेद का शिकार हो रहे लोग गोरों की तरह ईसाई नहीं है ? क्या
भारत के मुसलमान के साथ अरब देशों में सामान व्यवहार होता है ?
यदि
कोई पूछे कि जिस देश में एक ही धर्म के लोग रहते हैं वहाँ चोरी, डाका,
बलात्कार, हत्या क्या बाहर से कोई दूसरे धर्म वाला आकर करता है ? पाकिस्तान
में बच्चों की हत्या करने वाले उन्हीं के धर्म के थे |यदि एक धर्म होने से
सभी समस्याएँ हल हो जाएँ तो कितना सरल है दुनिया को स्वर्ग बनाना | उस
जादुई धर्म को अपनाने में किसे ऐतराज़ हो सकता है ? लोग पैसे लेकर नहीं
बल्कि पैसे देकर उस धर्म में जाएँगे | लेकिन भेद-भाव, अमानवीयता, ऊँच-नीच
की जड़ आदमी की सोच में है जो धर्म द्वारा पैदा की और फैलाई जाती है | इसका
इलाज़ न तो धर्म-परिवर्तन में है और न ही अधार्मिक होने में | इसका इलाज़ है
आदमी की सोच बदलने में |जब किसी व्यवस्था या समाज में न्याय, चिकित्सा,
शिक्षा और अन्य अवसर जाति, धर्म, नस्ल और पंथ के आधार पर उपलब्ध होते
रहेंगे तब तक दुनिया में तथाकथित बेहतरी के लिए धर्म-परिवर्तन होते और कराए
जाते रहेंगे |
तथाकथित सभी धर्मों में आत्मा और
परमात्मा, ईश्वर और जीव का संबंध पादरी, मौलवी, ग्रंथि, पंडित के माध्यम से
है | धार्मिक स्थान और धर्म के ठेकेदार ईश्वर और जीव के बीच रिज़र्वेशन
काउंटर खोलकर बैठे हैं | उन्हें कमीशन दिए बिना स्वर्ग में सीट नहीं मिलेगी
| इस अंध-विश्वास को तोड़ना बहुत ज़रूरी है जो सही शिक्षा से ही हो सकता है |
यदि सरकारें न्यायपूर्ण शासन करें तो ईश्वर की आवश्यकता कम हो जाएगी |सभी
कहते हैं- कर्मप्रधान विश्व रचि राखा | जो जस करहिं सो तस फल चाखा ||
लेकिन
धर्म के ठेकेदार कुकर्मी पैसे वालों को स्वर्ग का टिकट देने को तैयार बैठे
हैं और मीडिया पैसा लुटाने वाले को जन सेवक, आदर्श और अनुकरणीय सिद्ध कर
सकता है | ऐसे में साधारण आदमी कर्मों पर नहीं, धर्म के आडम्बर पर अधिक
भरोसा करने लगता है |यदि कोई अपने धर्म-कर्म पर कायम रहता है तो उसे न तो
तथाकथित धर्मों और न ही सत्ता का साथ मिलता है | सत्ताएँ भी अपनी सीढ़ियाँ
जन-सेवा में नहीं बल्कि धर्मों, धर्म के ठेकेदारों और धार्मिक आडम्बरों में
तलाशने लगती हैं | राजनेताओं का पोप, इमाम और तथाकथित संतों से मिलना
सत्ता की सीढियाँ तलाशना और उन्हें मज़बूत करना है |
धर्म
की ग्लानि के इस समय में सब धर्म के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं |
मरण तो धर्म का आचरण करने वाले का है | उसे न वोट-बैंक के भूखे जन-सेवक घास
डालते हैं और न ही धर्म के ठेकेदार और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अवतार
की संभावना दूर-दूर तक नज़र नहीं आती |
सब 'गोदो' (एक फ्रेंच नाटक का एक पात्र )की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो कभी नहीं आता |