Jan 31, 2009

बीमार हो रहे हैं डाक्टर


यह एक गंभीर मामला है कि मरीजों का इलाज करनेवाले डाक्टर ख़ुद ही बीमार हो रहे हैं । क्या कारण है इसका ? एक विशेषज्ञ डाक्टर बनने के लिए बारहवीं कक्षा पास करने के बाद कम से कम बारह वर्ष और पढ़ाई करनी पड़ती है मतलब कि तीस बरस से पहले वह नौकरी करने के लायक नहीं हो पाता । अब यदि वह नौकरी शुरू करते ही शादी कर लेता है तो ठीक है वरना तो नौकरी करके जमने के बाद शादी करे तो और पाँच-चार साल चाहिए । शादी करने तक आधी से ज़्यादा उमर निकल जाती है । डाक्टरी की पढ़ाई में इतना पैसा और समय लग जाता है कि उसे शेष समय में उसे बहुत से काम करने की ज़ल्दी होती है । खर्चे पैसे को वापस वसूल करने और थोड़े से समय में ही जीवन के सुख प्राप्त करने की ज़ल्दी रहती है । इसके अतिरिक्त वह अपने से कम उम्रवालों को ज़ल्दी ही अधिक पैसे की अन्य नौकरी करते देखता है तो उसे और हीन-भावना आती है । वह अधिक से अधिक काम करता है । ऐसे में अपने, परिवार और बच्चों के लिए समय ही नहीं बचता । बड़ी तनावपूर्ण और विचित्र स्थिति हो जाती है ।

अधिक काम करने के कारण विभिन्न शारीरिक तकलीफें हो जाती हैं जैसे- रात की शिफ्ट, आई.सी.यू. में काम, केंसर और मनोरोगियों को देखते रहने से स्वयं भी तनाव, चिंता और हताशा के शिकार हो जाते हैं । शल्य चिकित्सक और हड्डी-रोग विशेषज्ञ कमर-दर्द से पीड़ित हो जाते हैं । दाँतों के डाक्टर रीढ़ की हड्डी की समस्या से परेशान पाए जा रहे हैं । एक प्रसिद्ध अस्पताल के हृदयरोग-विशेषज्ञ दिन में पॉँच-छः आपरेशन करते हैं उनकी हालत यह है कि उन्हें अपने मरीजों के नाम और इलाज का इतिहास तक याद नहीं रहता । यह स्वाभाविक है पर इसका प्रभाव उसकी कार्यक्षमता पर पड़ता है जिसका परिणाम मरीज को भुगतना पड़ता है । इसकी परिणति कभी-कभी तो आत्महत्या तक में होती है । इस कारण से कई देशों में इसके लिए कोई नीति बनाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है जिसके तहत बीमार डाक्टरों को राहत पहुँचाई जा सके ।

इस समस्या के दो पहलू हैं- एक तो यह कि डाक्टर अपनी तुलना पैसे वालों से न करें । कोई पैसे से ही श्रेष्ठ नहीं हो जाता । यदि व्यक्ति को अपने काम से आराम से रहने लायक मिल जाता है तो फिर उसे अपने शरीर और दिमाग को इतना नहीं थकाना चाहिए कि वह न तो ढंग से इलाज कर सके और न ढंग से जी सके । डाक्टर का लक्ष्य धनवान बनना नहीं है बल्कि सेवा से आत्म संतोष प्राप्त करना है । और आराम से जीने लायक धन भी मिल ही जाता है । यदि अम्बानी का समाज में महत्त्व है तो डाक्टर का उससे कम नहीं है । जीवन का उद्देश्य धन नहीं बल्कि जीवन की सार्थकता प्राप्त करना है और सेवा से अधिक सार्थकता और किस काम में मिल सकती है । यदि समाज में महानता का पैमाना धन है तो भी क्या हम अपनी जान देकर भी बिल गेट्स बन सकते हैं ? यदि नहीं, तो बेकार की दौड़ में क्यों दौड़ा जाए ।

पहले भी डाक्टर और वैद्य होते थे जो धन कमाने की बजाय मरीज़ के इलाज को अधिक महत्व देते थे । भले ही उनके पास अधिक पैसे नहीं हुए हों पर उनको अपनी सेवा से यश पर्याप्त मिला और उनके कृतज्ञ मरीजों के कारण उनके कोई काम भी नहीं रुके । आज जब बड़े-बड़े सेठ लोग अस्पताल और स्कूलों का व्यवसाय कर रहे हैं तो वे पैसा तो कमा रहे हैं पर समाज न उनका कृतज्ञ है और न स्वयं उन्हें पुण्य और सार्थकता की अनुभूति हो रही है ।

क्या चिकित्सा और शिक्षा को लाभ के गणित से मुक्त करवाकर डाक्टर और अध्यापक को भगवान की गरिमा प्रदान नहीं की जा सकती ? क्या आप इस कल्पना से पुलकित नहीं होते हैं ? मनुष्य के दिमाग में अभी भी निष्कामता और निस्वार्थता का सपना मरा नहीं है ।

इसमें कुछ तो सच होगा कि- दुःख घट जाता सुख बढ़ जाता, जब है वह बँट जाता ।

२८ जनवरी २००९

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)




(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

फोटो लगाओ : फोटो उतारो



राजस्थान की मुख्य मंत्री वसुंधरा राजे के भूतपूर्व होते ही सरकार द्वारा स्कूलों में वितरित किए जानेवाले बस्तों पर से उनका फ़ोटो हटाने की कार्यवाही चालू हो गई है । फ़ोटो हटाने में थोड़ा समय तो लगेगा ही । तब तक बच्चे बस्ते का इंतजार करेंगे । पहले फ़ोटो छपवाने का खर्चा और अब फ़ोटो हटवाने का खर्चा । इसे कहते हैं अँधा न्योतो और दो बुलवाओ ।

सरकार की तरफ़ से जो भी कम होता है वह किसी व्यक्ति की तरफ से नहीं होता है इसलिए उसमें व्यक्ति शामिल नहीं होना चाहिए और न ही उसका फ़ोटो । पर हर नेता और हर सरकार जनता के ही पैसे से जनता को भीख देने का नाटक करते हैं और श्रेय ख़ुद लेना चाहते हैं । यदि सरकार की तरफ़ से कोई सहायता दी जा रही तो उस पर क्या इतना ही लिखना पर्याप्त नहीं है कि 'सरकार द्वारा भेंट' । इससे पहले अशोक गहलोत ने अपने कार्यकाल में एक नारा दिया था- 'पानी बचाओ, बिजली बचाओ, सबको पढ़ाओ' । इसमें क्या बुराई थी ? बस इतना ही था कि नीचे अशोक गहलोत का नाम था । सो २००४ के विधान सभा के चुनाव से पहले उन सब लिखे हुए नारों को मिटवाया गया । देखा जाए तो नारों और बस्तों पर फोटो में कानूनी कम और प्रभाव का फर्क ज़्यादा है ।

चुनाव से पहले सत्ता में होनेवाले सभी दल फटाफट शिलान्यास करके बड़े-बड़े बोर्ड लगवाते हैं । अखबारों में अपने फ़ोटो वाले विज्ञापन देते हैं । यह स्पष्ट रूप से सरकारी खर्चे से अपना प्रचार है । पता नहीं क्यों चुनाव आयोग का ध्यान इस तरफ़ नहीं जाता ? हो सकता है इसमें कोई कानूनी बारीकी और कोई पतली गली हो । चुनावों में हार के बाद कहा जाता है कि हम इसलिए हारे क्योंकि हम अपनी उपलब्धियों को जनता तक नहीं पहुँचा पाए । इनसे कोई पूछनेवाला हो कि भाई, यह कैसे हो सकता है कि आपने किसी को खाना खिलाया हो और उसको पता न लगा हो, जीभ पर चीनी रखी हो और उसको स्वाद न आया हो । कागजों में काम करके पैसा हज़म करनेवाली जनसेवा में ही ऐसा होता है ।

कोई मंत्री किसी कारखाने का शिलान्यास करता है तो उसके लिए सारे अख़बारों में लाखों रुपये के विज्ञापन देने का क्या अर्थ है ? जब अख़बार में अगले दिन समाचार आयेगा तो अपनेआप पता लग जाएगा या जब लोगों को काम मिलेगा, बढ़िया और सस्ता माल उपलब्ध होगा तो क्या पता नहीं लगेगा ? और तिस पर विज्ञापन में नेताओं के बड़े-बड़े फोटो, जैसे कि ये त्यागी पुरूष अपने पैसे से जनता की भलाई के लिए कारखाना लगा रहे हैं । अरे नाम ही देना है तो लगाने में कुछ नया, बढ़िया और किफायती काम कर दिखाने वाले इंजीनीयर का दीजिये ।

यदि पुराने समय को याद करें तो भारत में इतने कारखाने स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद बने पर ऐसे नाटक नहीं होते थे । नेहरूजी ने कई बार शिलान्यास मजदूर से भी करवाया था । एक बार जब उन्हें शिलान्यास के समय चाँदी की करणी दी गई तो उन्होंने अधिकारियों को डाँट दिया कि क्या मजदूर चाँदी के फावड़े से काम करेंगे ? पिलानी (राजस्थान ) में बिट्स में जब सरस्वती मन्दिर का उद्घाटन हुआ तो श्री घनश्याम दास बिरला ने कारीगरों को भी मंच पर सम्मानित किया ।

आज जिस तरह से बिना कुछ किए ही नेता लोग केवल सम्मान चाहते हैं उसका कारण वह कुंठा है जो कुछ काम न करने से पैदा होती हैं वरना काम करने वाले को विश्वास होता है कि उसने काम किया है तो उसका फल उसे ज़रूर प्राप्त होगा और सच्चा कर्मवीर तो काम करने में जो आनंद प्राप्त होता है उसी को अपना फल और पुरस्कार मान कर संतुष्ट हो जाता है । नेता लोग ज़रा-ज़रा सी बात पर रैली करते हैं लाखों करोड़ों रुपये खर्च करते हैं । बड़े-बड़े आयोजन किए जाते हैं जिनमें केवल भाषण ही होते हैं और भाषण भी केवल बकवास । ऐसे महान संदेशों या भाषणों को रेडियो या अखबार के द्वारा भी तो पहुँचाया जा सकता है । पैसे और समय की बचत होगी । पर पैसा अपनी जेब से लगे तब न दर्द हो । माल-ऐ-मुफ्त, दिल-ऐ-बेरहम ।

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि विज्ञापन हो तो उसमें न तो किसी का फोटो हो और न नाम, बस पद की ही सूचना दे दी जाए कि प्रधान मंत्री उद्घाटन करेंगे या मुख्य मंत्री शिलान्यास करेंगी । वैसे क्या किसी नेता के द्वारा उद्घाटन या शिलान्यास न करने पर काम नहीं होगा या ज़ल्दी हो जाएगा ? क्या सूर्योदय या बरसात का उद्घाटन- समापन-समारोह होता है ? क्या आत्मप्रशंसा या अमरत्व की झूठी लालसा के बिना कुछ नहीं किया जा सकता ?

२७ जनवरी २००९

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)




(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

Jan 24, 2009

मिलीबैंड: बजा गया बैंड



ब्रिटेन के विदेश सचिव डेविड मिलीबैंड मकर संक्रांति और पोंगल पर भारत पधारे । वैसे इस काम जितनी परिपक्वता और अनुभव तो कहीं उनके चेहरे और कामों में हमें दिखाई नहीं दिया । शायद उन्हें राहुल गाँधी ने भारत में पिकनिक मनाने के लिए के लिए बुला लिया हो । तभी तो उत्तर प्रदेश के गाँवों में गायें दिखाते फिर रहे थे । भारत में लाभदायक न रहने के कारण गाय का पहले जैसा सम्मान न रहा हो फिर भी हिन्दू उन्हें काटते और खाते तो नहीं ही हैं । अब भी लोग उन्हें मकरसंक्रांति पर हरा चारा खिलाकर पुण्य कमाते हैं । कर्नाटक में गायों और बैलों को सजाया-सँवारा जाता और पूजा की जाती है जैसे उत्तर भारत में गोपाष्टमी को किया जाता है । ब्रिटेन में तो शायद ही कोई ढंग की गाय बची होगी । सबको अखाद्य पदार्थ खिला कर पागल कर दिया और फिर पागलपन के नाम पर लाखों गायों को मार दिया । हो सकता है कि अब वहाँ कोई देखने लायक विश्वसनीय गाय बची ही न हो । हो सकता है कि पास जाने पर काटने दौड़ती हो । भारत में अब भी सामान्य गायें बची हैं । वैसे तो सारा भारत ही बेचारा गाय बना हुआ है । कोई भी आकर पिटाई करदे । इसके बाद इसी को उपदेश दिया जाता है जैसे कि बलात्कृत महिला से कहा जाए कि तुम बलात्कार करने लायक दिखती ही क्यों हो । गलती तुम्हारी है । जिस की चेन खींच ली जाए उससे कहा जाए कि तुम सोना पहन कर उचक्के को ललचाती क्यों हो ? ऐसी ही मासूम सलाह दे रहे हैं मिली बैंड । कह रहे हैं कि आतंकवाद का कारण है कश्मीर समस्या । मतलब कि पहले आप इसे सुलझाओ मतलब कि कश्मीर अलगाववादियों के हवाले कर दो । यही तो अमरीका १९४८ से चाह रहा है ।

मिली बैंड आतंकवाद का ऐसा मासूम हल अमरीका को क्यों नहीं सुझाते कि ईसाई धर्म छोड़ कर मुसलमान धर्म अपना लो फिर ओसामा तुम्हें अपना भाई मान लेगा और आतंकवाद बंद कर देगा । मिली बैंड को पता नहीं क्यों वे कश्मीरी पंडित दिखाई नहीं देते जिन्हें अज़हर मसूद जैसे संतों ने पाकिस्तान की शै पर, इस्लाम की सेवा करने के नाम पर डराकर अपनी मातृभूमि छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया गया और दिल्ली की सभी सरकारें वोट बैंक के चक्कर में मौन रहीं । आख़िर एक छोटे से अधिकारी की ऐसी सलाह देने की हिम्मत कैसे हो गई ? राजस्थानी में एक कहावत है - जब दूल्हे के ही लार टपकती हो तो बारातियों को कौन पूछेगा । सो राहुल गाँधी क्या लाड़ लड़ा रहे थे इस गोरे को ? जब आप किसी को ज़्यादा सिर पर बैठाओगे तो वह सिर पर पेशाब करेगा ही ।

२४ जनवरी २००९

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)



(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

Jan 18, 2009

ओबामा की अगवानी


प्रिय बराक,
आशीर्वाद और शुभकामनाएँ । हो सकता है कि चमचागीरी करनेवाले कहें कि अमरीका के राष्ट्रपति के लिए कुछ भारी-भरकम संबोधन होने चाहियें । पर पता नहीं हमें क्यों लगता है कि जब इतनी ही दूरी है तो फिर पत्र लिखने की ही क्या ज़रूरत है ? आप हमारे भूतपूर्व विद्यार्थियों या बच्चों की उम्र के हो तिस पर हम ब्राह्मण और भूतपूर्व अध्यापक । और आप जानते ही हो कि अध्यापक कभी रिटायर नहीं होता । सब को अपना चेला समझ कर पढ़ाने लगता है । हम ये भी जानते हैं कि आप सामान्य स्कूल में ही पढ़े हो जहाँ हम जैसे ही मास्टर पढ़ाते होंगे जो ऊपर से रूखे-सूखे दिखते होंगे पर अन्दर से अपनेपन से भरपूर । तथाकथित बड़े स्कूलों में तो अध्यापक बच्च्चों को पढ़ाते कम और उनसे पढ़ते अधिक हैं क्योंकि ऐसे बच्चे स्कूल में अपने नहीं, बाप के जूते पहन कर जाते हैं ।

हमने आपकी पुस्तक पढ़ी है । इसलिए नहीं कि आप राष्ट्रपति हो बल्कि इसलिए कि आप दूसरों से भिन्न राष्ट्रपति हो । आप ज़मीन से उठकर गए हो । आप में हमें मिट्टी और पसीने की गंध आती है । पुस्तक तो क्लिंटन ने भी लिखी और बिकी भी खूब पर हमने नहीं पढ़ी क्योंकि वह एक राष्ट्रपति और लम्पट-लीला के लिए कुख्यात हो चुके व्यक्ति का चोंचला था । आजकल सब जगह अपनी थोड़ी सी ख्याति या कुख्याति को भुनाने का रिवाज़ चल पड़ा है । तथाकथित बड़े लोगों को किराये पर लिखने वाले भी बहुत से मिल जाते हैं । उन्हें क्या पढ़ना । पर आपने यह पुस्तक राष्ट्रपति तो क्या, राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने से भी पहले लिखी थी । इसलिए इस पुस्तक में एक विचारशील युवा है, एक काइयाँ राजनीतिज्ञ नहीं ।

आपने सपने देखे हैं और सपने भी टुच्चे नहीं बल्कि एक ईमानदार युवक के सपने देखे हैं । हम उन सपनों में शामिल होना चाहते हैं । आपके साथ केवल खाओ-पीओ और मौज करो वाले उपभोक्तावादी अमरीकी सपने ही नहीं, आपके रक्त में एशिया और अफ्रीका भी शामिल हैं जिनकी पुरानी, सादगी-पसंद और मेहनती संस्कृति रही है । आज अमरीका की संस्कृति में इनका छौंक लगना बहुत ज़रूरी है क्योंकि शुद्ध अमरीकी उपभोक्तावादी संस्कृति का परिणाम तो दुनिया देख ही रही है । केवल भोग, व्यक्ति ही नहीं, दुनिया को खा जाता है । अमरीका पर अणु विस्फ़ोट करने, शीत युद्ध भड़काने, इस्लामी कट्टर पंथ को हवा देने और मात्र भोग को ही जीवन का लक्ष्य बनाने वाली सोच का प्रतिनिधित्व करने का दायित्व जाता है । जानेवाले तो आपके लिए काँटे बिछा कर चले जा रहे हैं । आपकी राह आसान नहीं है । आप के नाम बराक का अर्थ है 'वरदान'। भगवान आपको इस दुनिया के लिए वरदान बनने का सौभाग्य प्रदान करे । आप में समझ भी है, शक्ति के रूप में सत्ता भी मिल गई है । अब तो बस सत्संगति और मिल जाए क्योंकि उच्च पद वालों को मीठी बकवास करने वाले बहुत मिल जाते हैं और उसी में वक्त निकल जाता है । हमने अपने भूतपूर्व युवा प्रधान मंत्री राजीव गाँधी के साथ यह होते देखा है । वे दृष्टि संपन्न थे । नई तकनीक के विकास का रास्ता खोला जिसके कारण भारत आज कम्प्यूटर के क्षेत्र में एक शक्ति बना हुआ है । राजीव गाँधी को जितना बहुमत मिला उससे वे चाहते तो संविधान बदल सकते थे पर चमचों ने ऐसा करने का वातावरण ही नहीं बनने दिया । वे चाहते तो समान नागरिक संहिता, समान शिक्षा, धारा ३७० की समाप्ति आदि दूरगामी और क्रांतिकारी काम करवा सकते थे पर लोगों ने क्या सलाह दी- 'शाह बानो केस में मुस्लिम वोट पकाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को थूक चटवा दो' । फिर सलाह दी कि मन्दिर का ताला खुलवा कर हिन्दू समर्थन भी बटोर लो । हुआ यह कि दुविधा में न राम मिले और न माया । जूते भी खाए और प्याज भी । बस ऐसे घटिया सलाहकारों से बचना ।

आपका शपथ-ग्रहण समारोह बड़े ताम-झाम से हो रहा है । समय तो अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिए ख़राब ही चल रहा है । हम आपकी जगह होते तो एक भी पैसा खर्च नहीं करते । आजकल टेलिविज़न है ही सारी दुनिया उसी पर देख लेती । पता नहीं यह इच्छा आपके ही मन में जगी है या किसी की नेक सलाह है । वैसे यह सच है कि गैर-गोरे लोगों के लिए तो यह ऐतिहासिक अवसर है । उनके मन में अब तब का सबसे बड़ा समारोह करने की इच्छा हो रही होगी । ऐसे समय में अधिक सादगी ज़्यादा असर डालती है । यही पैसा उन स्कूलों को दिया जा सकता था जहाँ काले और पिछड़े बच्चे पढ़ते हैं और जिनमें पैसों की बड़ी कमी है ।

हमारे यहाँ तो छोटे-मोटे कामों में भी भारी भीड़ जुट जाती है । पर आजकल भीड़ में भगदड़ मचने की कई घटनाएँ बहुत होने लगी हैं । इस मामले में काले-गोरों का कोई दंगा न हो जाए इसका भी ध्यान रखें । अगर ऐसा नहीं हुआ तो हम समझेंगें कि आपके यहाँ लोग समझदार हो रहे हैं । गोरों के धैर्य की परीक्षा तो अब हो रही है ना । पहले जिस अमरीका ने उपभोक्तावाद का झंडा लहराया था और उसके परिणाम स्वरूप मंदी झेल रहा है, हम चाहते हैं कि वही अमरीका आपके नेतृत्व में सादगी, मेहनत और मितव्ययिता का भी उदाहरण पेश करे ।

आप लिंकन वाली बाइबल से शपथ लेंगे । आपका ध्येय वाक्य है- 'इन गोड आइ ट्रस्ट' । वैसे तो ईश्वर एक ही है, पर पता नहीं क्यों धर्म वाले इसे स्वीकार नहीं करते । ईश्वर को एक मानेंगे पर झगड़ा भी ईश्वर के ही नाम पर करेंगे । धर्म के नाम पर सेनाएँ लेकर निकलेंगे और मार-मार कर या फुसलाकर धर्म-परिवर्तन करवाएँगे । हमारे यहाँ तो गाँधीजी 'ईश्वर अल्लाह तेरे नाम' गाते थे (और सिर्फ़ गाँधीजी ही गाते थे) । पर उनको किसी धर्मवाला अपने धर्म में जगह नहीं देता । क्या धर्म के लिए कट्टर होना ज़रूरी है ? हर धर्म ने अपना नया ईश्वर बनाया और निकल पड़े पुराने धर्मों को मिटाने । आपके सामने नस्ल ही नहीं धर्म की भी समस्याएँ आ सकती हैं । हमारे यहाँ तो ध्येय वाक्य है- 'सत्यमेव जयते' । हमारे उपनिषदों में तो सत्य ही ईश्वर है और साँच बरोबर तप नहीं -कहा गया है । सत्य ही सबसे अधिक वैज्ञानिक है । पर समस्या यह है कि सत्य को मान लेने से अलग-अलग दुकानें नहीं चल सकती । हम आपको हमारे संविधान का प्राण तत्व बताते हैं -
अयं निजः परोऽवेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

यह मेरा है, यह पराया है - यह हिसाब छोटे लोग लगाते हैं । उदार चरित्र वालों के लिए तो सारी धरती ही एक परिवार है ।

यदि आप इस वाक्य से प्रेरणा लेंगे तो आप वास्तव में अपने नाम के अनुरूप संसार के लिए वरदान सिद्ध होंगे ।
आपके नेतृत्व में यह दुनिया बेहतर बने, इसी शुभकामना के साथ,

रमेश जोशी

१८ जनवरी २००९

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)




(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

Jan 17, 2009

बुश की विदाई



बुश साहब,
हाय! बाय! बाय!! अलविदा, जैराम जी की । विदाई चाहे सेवा निवृत्ति पर हो चाहे ट्रांसफर पर या मरकर दुनिया से - आदमी का इस पर कोई बस नहीं है । सरकारी नौकरी में तो आदमी को बिस्तर बाँध कर रखना पड़ता है, पता नहीं कब आर्डर आ जाए । सरकारी नौकरी में कुछ ही ऐसे भाग्यशाली होते हैं जो अपने शहर में ही ज्वाइन करते हैं, वहीं सारे प्रमोशन लेते हैं और वहीं रिटायर हो जाते हैं । अगर कभी ट्रांसफर हुआ भी तो उसी शहर में, जैसे किसी की खाट इस कमरे से उस कमरे में लगा दी जाए । ट्रांसफर तो हमारे भी हुए पर जयपुर से सीधे पोर्ट ब्लेयर- तीन हज़ार किलोमीटर दूर । इच्छित स्थान पर पूरे सेवाकाल तक बने रहने की योग्यता प्राप्त करने का न तो समय मिला, न ही लोगों ने यह ट्रेड सीक्रेट बताया ।

कुछ के ट्रांसफर पर जाने से लोग दुखी होते हैं तो कुछ के आने पर । तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के प्रारम्भ में संतों और असंतों सभी को प्रणाम किया है । उन्होंने संतों और असंतों दोनों में एक समानता भी बताई है-
मिलत एक दारुण दुःख देही ।
बिछुरत एक प्राण हर लेही ॥

आपके मामले में तो पता नहीं ऐसा क्या संयोग हुआ कि जब आप आए तो ९/११ हो गया और जाने लगे तो अमरीकी अर्थव्यवस्था की आइसक्रीम मेल्ट डाउन होकर सड़क पर गिर पड़ी । अब उसे सड़क पर से उठाना मुश्किल हो रहा है । अगर एकांत हो तो और बात है पर जब सारी दुनिया देख रही हो तो ऐसा नहीं किया जा सकता न ! ऊपर से अफगानिस्तान और ईराक वाला चक्कर अलग । चलो, अब आपका तो पीछा छूटा । अब भुगतेगा तो बेचारा ओबामा । इसी को कहते हैं - बन्दर की बला तबेले के सिर ।

हमारे यहाँ तो जो भी नया मुख्य मंत्री आता है वह यही कहता है कि पिछले वाला खजाना खाली कर गया । उसके बाद जो आता वह भी यही कहता है । हम तो दोनों को सही मानते हैं । मतलब कि लोग आते-जाते रहते हैं आफत तो खजाने पर है जो हर हालत में खाली होता रहता है । जैसे कि हर आनेवाली पीढ़ी इस दुनिया को और अधिक ख़राब करके जाती है । हमारे यहाँ एक किस्सा चलता है । एक चोर था । जब वह मरने लगा तो अपने बेटे से बोला- बेटा मैनें जिंदगी भर चोरी की है । तू कुछ ऐसा करना जिससे लोग मुझे भला कहें । बाप बड़ी-बड़ी चोरियाँ करता था । बेटे ने जूते-चप्पल चुराना शुरू कर दिया । लोग कहने लगे- इस साले से तो इसका बाप ही अच्छा था । लगता है आपसे अपने पूर्ववर्तियों को फायदा ही होगा ।

तो आपका अन्तिम भाषण भी हो गया-१५ जनवरी को । अब जै राम जी की । वैसे आपको तो ओबामा के चुने जाते ही सामान बाँधना शुरु कर देना चाहिए था । पर आदमी मरते दम तक सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहता । हमारे पड़ोस में एक बुजुर्ग-विधुर सज्जन रहते थे । जैसा कि आप जानते हैं कि पत्नी के मरते ही आदमी अपने को जवान समझने लगता है । तब हम छोटे ही थे । बरसात के दिन थे । टीलों पर खुर्रा बना कर लम्बी-कूद कूद रहे थे । वे भी दिशा मैदान को आए थे । हमें देख कर बोले -अरे, तुम डालडा खाने वाले क्या कूदोगे ? सो वे कूदे और पैर में ऐसी मोच आई कि जिंदगी भर लंगड़ाते रहे । जब कभी हम बच्चे पूछते-ताऊ, कूदोगे ? तो मारने दौड़ते । आप भी राष्ट्रपतित्व की झोंक में जाते-जाते इराक में क्या सिट्टा लेने गए थे ? करवा आए न कचरा ।

जाते हुए को कोई घास नहीं डालता । लोग तो ऐसे मौके पर खुन्नस निकालने की कोशिश करते हैं । बूढ़े शेर को तो चूहे तक परेशान कर डालते हैं । जाते समय कोई सामान बँधवाने भी नहीं आता । सब आने वाले का सामान जचवाने लग जाते हैं । पर रंडी और नेता के दिमाग से भ्रम निकलता नहीं । सत्तर साल की होकर भी बाल रँगती है और शोहदों की सीटी का इंतजार करती है । हमारे यहाँ अस्सी पार वाले भी आगामी लोकसभा चुनावों के लिए ताल ठोंक रहे हैं ।

जाते-जाते आपने स्वयं अपना मूल्यांकन किया कि आपको भारत में लोग पसंद करते हैं । औरों का पता नहीं पर हम आपको अवश्य पसंद करते हैं । हमने आज तक किसी अमरीकी राष्ट्रपति को पत्र नहीं लिखा जब कि आपके नाम हमारे पत्रों की पूरी किताब तैयार है । हाथ में आते ही पहली प्रति आपको ही भेजेंगे । हमने जानबूझ कर आपके कार्यकाल के अन्तिम दिनों को कवर नहीं किया क्योंकि उसमें मेल्ट डाउन और जूता-प्रहार जैसी अशोभनीय घटनाएँ आ रही थीं ।

आपने अपने संबोधन में कहा कि आप ने आपने कार्यकाल में जो कुछ किया वह अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर किया । हमारे अनुसार तो यह अंतरात्मा बड़ी 'वो' होती है जैसे नायिका के अनुसार 'आप बड़े वो हैं ' । अपने फ़ायदे के अनुसार बोलने लगती है । जब किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता तो निर्दली की आत्मा कहने लगाती है- 'जा, सरकार बना सकने वाली पार्टी में शामिल होजा' । और वह अंतरात्मा की आवाज़ सुनता और मान लेता है । बाद में अगर वहाँ भी दाल नहीं गलती तो वह पुरानी पार्टी में चला जाता है जिसे घर-वापसी कहा जाता है । अंतरात्मा किसी को सांसद खरीदने के लिए कह देती है तो किसी सांसद को एक करोड़ में बिकने के लिए प्रेरित कर देती है । हिटलर को होलोकास्ट की प्रेरणा भी अंतरात्मा ने ही दी होगी । याहया खान को मुजीब को जेल में डालने और बंगलादेश में कत्ले-आम करवाने के लिए भी अंतरात्मा ने ही उकसाया होगा । बेचारे कॉलिन पावेल ने कहा था कि इराक के पास व्यापक विनाश के हथियार नहीं पर आपकी अंतरात्मा अड़ गई । राष्ट्रपति की आत्मा के आगे एक मंत्री की आत्मा की क्या बिसात ? इसलिए हमारा तो कहना है कि अकल से काम लेना चाहिए क्योंकि आजकल आत्मा शुद्ध नहीं रह गई है । अब रिटायर होने के बाद काफी समय मिलेगा । आपने आत्मकथा लिखने का मन बना ही लिया है । हमारा कहना है कि उस में तो कम से कम सच बोल दीजियेगा । सच बोले बिना शान्ति नहीं मिलती । गाना तो कहता है कि- सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया । पर हम कहते हैं कि देर आयद भी दुरुस्त आयद होता है । अगर आप सच बोल देंगें तो शायद इस समय जो सभ्यताओं के संघर्ष की बात की जाती है उसको भी एक नया और सही आयाम मिलेगा ।

अच्छा जी, हैप्पी रिटायर्ड लाइफ । वैसे तो भूतपूर्वों को कोई नहीं पूछता फिर भी ध्यान रखियेगा । ओसामा अभी जिंदा है । हम सोच रहे थे कि जाते-जाते ओसामा को तो गिरफ्तार करवा ही लेंगे पर संयोग की बात, दुष्ट अभी तक नहीं पकड़ा गया । अंत में आपकी बिल्ली के दुखद निधन पर हमारी संवेदनाएँ । पहले तो आपके कुत्ते का भी इंटरव्यू लेने आते थे पत्रकार, पर अब पता नहीं आपको भी कोई कवर करेगा या नहीं ? पर हम इतने स्वार्थी नहीं । पहले भी हमें आपसे कुछ नहीं चाहिए था और अब भी नहीं । सो हम जैसे निस्वार्थ लोग तो आपके संपर्क में रहेंगे ही ।

१७ जनवरी २००९

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)



(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

Jan 15, 2009

घर आई गंगा


पिछले छः महिने से बंगलोर में हूँ । गंगा के राष्ट्रीय नदी बनने पर लिखा था 'स्मृतियों में बहती गंगा' । सीकर (राजस्थान) से बेटे का फोन आया कि हृषिकेश से शीशी चढ़ाने वाला आया है । उसे क्या देना है ?

शीशी- मतलब गंगाजल से भरा एक पात्र जिसे शीशी चढ़ाने वाला हथेली पर रखकर गंगा के कुछ मंत्र बोलता है । हम लोग संभवतः पहाड़ से आकर राजस्थान में बसे हैं । राजस्थान में आने के बाद हो सकता पहाड़ पर जाना कम हो गया होगा । इस दूरी या कमी को पहाड़ से गंगाजल की शीशी लाने वाले ये लोग पूरी करते रहे हों । जब पहाड़ पर ठण्ड अधिक पड़ने लगती है तब ये लोग नीचे मैदानों में पहाड़ से बिछुडे लोगों तक शीशी के माध्यम से गंगा पहुँचाते रहे हैं । बचपन से इनको देखता रहा हूँ । नौकरी के सिलसिले में भारत के विभिन्न भागों में घूमते फिरने के कारण बच्चों का इनसे परिचय नहीं हुआ ।

कल मकर संक्रांति थी । वैसे ही गंगा और संगम स्नान के बारे में सोच रहा था । आज अचानक बेटे का फोन मिला तो अजीब सा अनुभव हुआ । क्या कोई टेलेपेथी है ? बेटे से उसके बारे में पूछा । बेटा बस इतना ही बता पाया कि पहले इसके पिता और उससे पहले इसके दादाजी आया करते थे । हो सकता है इस परिवार की चौथी पीढ़ी को भी मैं आते देखूँ । हृषिकेश से राजस्थान तक की यात्रा और वह भी इस ठण्ड में । कितने घरों में जा पाता होगा । कितना मिल जाता होगा इसे इस काम से ? फिर ख़ुद की सोच पर ही ग्लानि हुई । क्या यह मात्र पैसे के लिए आता है । मात्र पैसे के लिए इतनी अनिश्चित आमदनी वाला कार्य कोई करता है ? नहीं, इसके पीछे उसके मन में भी कुछ मानसिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक लगाव है । ऐसे काम केवल पैसों के बल पर हो ही नहीं सकते । अजंता की गुफाएँ बनने वाले मात्र मज़दूर या कारीगर नहीं थे । वे कहीं न कहीं भगवान बुद्ध के भक्त भी थे । पैसे से ही यदि देश को जोड़ने का काम हो सकता तो सरकारें बड़ी-बड़ी योजनायें बनाती है पर उसकी बात तो किसी तक भी नहीं पहुँचती ।

सोचता हूँ कब तक चलेगा यह सब । बाज़ार कब तक बचा रहने देगा,कष्ट उठाकर भी किसी अलाभकारी पर आत्मिक काम को । यदि किसी दिन बाज़ार ने ले लिया यह सांस्कृतिक काम तो पहले पैसा जमा करवाएगा उसके बाद शीशी हाथ पर रखेगा । हो सकता है समय-समय पर दाम भी बढ़ा दे । क्या पता शीशी हृषिकेश से न लाकर यही कहीं नल का पानी ही हाथ पर रखकर चलता बने । अब भगवान के दर्शन भी तो इंटरनेट पर करवाए जाने लगे हैं तो यह शीशी भी पता नहीं कितने दिन चलेगी ।

मैनें बेटे से कहा था कि वह जितना माँगे उतना दे देना । शाम को बेटे का फोन आया । मैनें पूछा-उसने कितना कहा तो बेटे ने बताया कि उसने कुछ भी नहीं कहा । केवल इतना बोला कि आप जो कुछ ठीक समझें दे दें । मुझे लगा-उसके मन के पहाड़ की ऊँचाई शायद अब भी हम सबसे ज़्यादा है ।

ऐसे कामों को पैसों से नापा भी नहीं जा सकता । अब भी शायद कुछ अमूल्य बचा हुआ है ।

१५ जनवरी २००९

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)




(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

Jan 13, 2009

पादरी पिस्तौलवाला


(सन्दर्भ: अंग्रेजी अखबार में एक ख़बर छपी कि केरल के कुछ पादरियों ने विदेशी पिस्तौलें खरीदीं हैं । कुछ ने लाइसेंस ले लिए हैं और कुछ ने लाइसेंस के लिए अर्जी दे रखी हैं । इसीसे सम्बंधित हमारा एक अनुभव आपकी सेवा में प्रस्तुत है । )

रविवार को सुबह सूर्योदय के साथ ही दरवाजे पर खट-खट हुई । हमने सोच अखबारवाला पैसे लेने आया होगा । दरवाजा खोल कर उनींदी आँखों से कहा- देखो भई, इस महीने में दो नागा थी सो ये रहे २८ दिन के दो रुपये के हिसाब से छप्पन रुपये । अखबारवाले की 'अच्छा मास्टर जी 'की जगह सुनाई दिया- मूर्ख मास्टर, हम अखबार वाले नहीं हैं । हम केरल के कोट्टायम जिले से पधारे हैं, पादरी पिस्तौलवाला । पादरी पिस्तौलवाला ? हमारी खोपड़ी को एक सुनामी टाइप झटका लगा । अचानक आँखें पूरी खुल गईं - कुछ भय से ,कुछ विस्मय से । देखा तो देखते रह गए- सफ़ेद चोगा, सफ़ेद टोपी, एक हाथ में पिस्तौल और दूसरे हाथ में गोलियों का पट्टा । पादरी के एक हाथ में पवित्र पुस्तक और दुसरे हाथ में माला वाली छवि एक ही झटके में ध्वस्त हो गई । हमने ईसा, डेसमंड टूटू, मदर टेरेसा, सेंट जेवियर की तस्वीरें देखी थीं पर ऐसा भयानक सौंदर्य किसी में नहीं पाया । हमने अपने गिरते मनोबल, काँपती टाँगों, भर्रायी आवाज़, और रुकती साँस को सँभाला और हिम्मत करके पूछा- महोदय, ऐसा पवित्र और प्रेमपूर्ण वेश आपने ही धारण किया है या कोई और भी हैं ? उन्होंने कहा- नहीं, और बहुतसों ने भी ले रखा है लाइसेंस । दर्जनों लाइन में लगे हुए हैं ।

हमने परिचय का दायरा और बढ़ाते हुए पूछा- आदरणीय, इस प्रेम-प्रसारक यन्त्र- पिस्तौल के बारे में और कुछ बताइए न ! उन्होंने बताया- यह पिस्तौल मेड इन बेल्जियम है, इसकी कीमत एक लाख पचास हज़ार रुपये है । हमने सुझाव दिया- हुजूर, इतने रुपये खर्च करने की क्या ज़रूरत थी । एटा, इटावा के कट्टे हज़ार बारह सौ में मिल जाते । भक्तों और हमारे जैसे मास्टर को तो खिलौने वाले पिस्तौल से भी डराया जा सकता है । उन्होंने समाधान किया- बात केवल डराने की ही नहीं, रौब की भी तो होती है । जो रुतबा ऐ.के.४७ और ऐ.के.५६ का है वह देसी कट्टे का नहीं हो सकता । और फिर तेरे जैसे मास्टरों से पाला थोड़े पड़ता है । हमें बड़ी-बड़ी खूँख्वार आत्माएँ भी मिल जाती हैं । उनके लिए विदेशी पिस्तौल ज़रूरी है ।

अब हमारी हिम्मत थोड़ी-थोड़ी बढ़ने लगी, कहा- ऐसी बात तो नहीं है मान्यवर, भगवान बुद्ध ने तो बिना पिस्तौल के ही अंगुलिमाल से भेंट कर ली और उसका हृदय-परिवर्तन कर दिया । बाल्मीकि की आँखें भी केवल शब्दों से ही खुल गईं । जयप्रकाश नारायण ने बिना पिस्तौल के ही डाकुओं से आत्मसमर्पण करवा लिया । हमारे यहाँ और भी बहुत से धार्मिक नेता, समाज सुधारक और साधु-संत हुए हैं- महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य, रामानंद, वल्लभाचार्य, कबीर, तिरुवल्लुवर, नामदेव, नानक, गाँधी, रामसुखदास जी - सबके मुख में राम तो देखा पर बगल में छुरी किसी के नहीं देखी । और आप हैं कि पवित्र पुस्तक और माला के स्थान पर पिस्तौल और गोलियों के पट्टे के साथ पधारे हैं । वे कुछ और खुले और बोले- हम इन लोगों की तरह फक्कड़ नहीं हैं । हमारे पास अरबों रुपये की विदेशी और देशी संपत्ति है । हमें अपनी संपत्ति की रक्षा के लिए हथियार चाहियें ।

हमने भी अपना ज्ञान बघारा- ऐसी बात नहीं है पादरी जी, हमारे संतों के पास भी अपार संपत्ति है । उनकी एक एक बात लाखों की होती है । ज़्यादा तो नहीं, हम तो आपको अपने सीकर जिले के बारे में बता सकते हैं । यहाँ कई संत वेद-विद्यालय चलाते हैं, आश्रम चलाते हैं, गौशाला चलाते हैं पर पिस्तौल एक भी नहीं रखता । अपने प्रेमपूर्ण व्यवहार से लोगों का दिल जीत लेते हैं । वे हँसे । जिसके हाथ में पिस्तौल हो और वह ठहाका लगाए तो और ज़्यादा डर लगता है । वे बोले ये जो गौशाला और वेद-विद्यालय चलाते हैं इनमें तो खर्च ही खर्च है । हम तो स्कूल और अस्पताल चलाते हैं जिनमें हाड-फोड़ कर पैसे लेते हैं । दवा, खाना, किताबें, नोटबुक, ड्रेस, जूते, मोजे, टाई सब कुछ हमारे यहीं से लेना पड़ता है, सो यह फायदा अलग । और इसके लिए लोग हमें सेवाभावी मानते है सो अलग ।

अब आगे हमें कुछ नहीं सूझा तो हमने पूछ लिया- महाशय, आपके आने का प्रयोजन क्या है ? वे बोले हम तुम्हारे उद्धार के लिए आए हैं । हमने कहा- तो आप वे ही हैं जो पिछले हज़ार साल से हमारे उद्धार के लिए एक महान मिशन लेकर योरप से आते रहे हैं ? हमारे प्राण-पखेरू तो आपकी पिस्तौल को देख कर ही उडूं-उडूं होने लग गए थे । यदि झूठ-मूठ ही खटका दबा देते तो उड़ ही जाते । सस्ते में ही उद्धार हो जाता । वैसे हम अभी उद्धार नहीं चाहते, क्योंकि हमारे नेता आतंकवाद, विदेशी हस्तक्षेप, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, बेरोज़गारी, पश्चिमी अपसंस्कृति के बावजूद २०२० तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाना चाहते हैं, इंडिया को शाइनिंग बनाना चाहते हैं, भारत-निर्माण करना चाहते हैं । बस हम उसी घड़ी के लिए जीवित रहना चाहते हैं । वे बोले ठीक है, २०२० में फिर आऊँगा तेरा उद्धार कराने के लिए । मतलब कि पीछा छूटना संभव नहीं ।

१२ जनवरी २००९

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)



(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

Jan 12, 2009

शौचालय-संस्कृति में लिथड़ा साहित्य और दान


लोगों में साहित्य, विशेषकर कविता के प्रति इतनी तटस्थता हो गई है कि योरप के बुद्धिजीवियों ने एक प्रयोग किया कि शौचालय में प्रयुक्त होने वाले पोंछने के टिश्यू पेपर पर कविता छापने लगे । इस नए प्रयोग के मसीहाओं ने सोचा होगा कि शौचालय में कोई मनोरंजन के लिए नहीं आता वरन मज़बूरी में आता है और जब तक हाज़त रवाँ नहीं हो जाती अर्थात् कष्ट निवारण नहीं हो जाता या लघु या दीर्घ शंका का समाधान नहीं हो जाता तब तक बच्चू भाग कर कहाँ जाएगा ? तो इस बंधन के दौरान टिश्यू पेपर पर निगाह पड़ गई तो कुछ न कुछ पढ़ेगा ही । यदि किसी को कब्ज़ की शिकायत है तो हो सकता है कि मल के अवतरण की प्रतीक्षा में पूरा महाकाव्य ही पढ़ डाले । गाँधी जी की सभी बातें हमें अच्छी लगती हैं पर उनकी एक बात से हम कभी सहमत नहीं हुए । कहते हैं कि वे शौचालय में बैठकर पढ़ा करते थे । हमारे यहाँ तो पुस्तकें इतनी पवित्र मानी जाती हैं कि उनका अनादर पूर्वक स्पर्श भी अपराध माना गया है । पवित्र ग्रंथों की अवमानना को लेकर सांप्रदायिक दंगे तक हो जाते हैं । वैसे हमें भी याद है कि बचपन में जब पुस्तक के पैर लग जाता था तो क्षमा माँगते हुए उसे सिर से लगाते थे । मतलब कि पुस्तकें ज्ञान का स्रोत हैं और ज्ञान का सम्मान सुसंस्कृति का पहला सोपान है । पर दुर्भाग्य कि योरप ने उसी कविता को शौचालय के टिश्यू पेपर तक पहुँचा दिया । जब से मानव अधिक सभ्य हुआ तब से उसने शौचालय का ही सबसे अधिक विकास किया । अब वहाँ पुस्तकें भी रखी जाने लगीं । ज़्यादा व्यस्त लोगों के लिए हो सकता है शौचालय में मोबाइल चार्जर और इन्टरनेट कनेक्शन भी होते हों । अब शौचालय ज़ल्दी से निबटने का स्थान नहीं वरन चिंतन, मनन और अध्ययन का सुरक्षित स्थान हो गया है । पर यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि वहाँ भोजन की सोंधी-सोंधी खुशबू तो नहीं ही आती होगी । आती होगी तो गू की बदबू ही आती होगी । अब भई, हो सकता है कि तथाकथित बड़े लोगों के गू में चंदन की खुशबू आती हो । इस बारे में हम अधिकार से कुछ नहीं कह सकते क्योंकि हमें किसी बड़े आदमी के इतना पीछे पड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि हमें न तो प्रमोशन की महत्वाकांक्षा रही, न कोई अन्य असंतोष । अध्यापकी से ही शुरू हुए और अध्यापक ही सेवानिवृत्त हो गए । सूर्य की तरह, उगते और छिपते, दोनों स्थितियों में समान ।

जहाँ तक कविता के आर्थिक पक्ष का सवाल है तो लोग डेढ़ कविता लेकर सारे हिंदुस्तान में घूम-घूम कर कमा ही रहे हैं । प्रकाशक भी कविता की पुस्तकें छाप-छाप कर, अधिकारियों को मोटा कमीशन देकर सरकारी लाइब्रेरियों में घुसा ही रहे हैं । पर यहाँ यह हमारा विचारणीय विषय नहीं है । हम तो शौचालय में फल-फूल रहे साहित्य की बात कर रहे थे । वैसे रेल के डिब्बों और सार्वजनिक शौचालयों की दीवारों पर अंकित साहित्य से कोई भी जागरूक भारतीय साहित्यप्रेमी अपरिचित नहीं है । शौचालय का वास्तुकला और सौन्दर्यबोध से भी घनिष्ठ सम्बन्ध है जिस पर किसी अन्य आलेख में विचार करेंगे । अभी तो हम शौचालय से जुड़े एक अन्य उदात्त भाव की चर्चा करेंगे ।

दान, धर्म, चेरिटी मानव की उदात्तता का एक सार्वकालिक आयाम है । पिछड़ी हुई भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि गुप्त दान सर्वश्रेष्ठ होता है । 'दातव्यं इति यद्दानं, दीयते अनुपकारिणी । देशे काले च पात्रे च, तद्दानं सात्विकं विदु ॥' (गीता)। यदि दान का प्रचार किया जाए, उस पर टेक्स रिबेट लिया जाए, कोई नाम पट्ट लगवाया जाए तो उससे मिलने वाला पुण्य और आनंद समाप्त हो जाता है । पर आज लोग पाँच रुपये के दान का प्रचार कराने के लिए पाँच सौ रुपये की नामपट्टिका लगवाते हैं और और पाँच हज़ार रुपयों का विज्ञापन अखबारों में देते हैं । दान तो दान, लोग तो धन्यवाद और बधाई का भी विज्ञापन देते हैं । ईसाई धर्म में भी कहा गया है कि यदि तुम एक हाथ से दान देते हो तो दूसरे हाथ को भी पता नहीं लगना चाहिए । दान के लिए यह भी कहा गया है कि वह अपनी मेहनत की कमाई में से दिया जाना चाहिए । भगवान बुद्ध ने एक बुढ़िया द्वारा दिए गए अधखाये अनार को सबसे बड़ा दान बताया क्योंकि वह उसका सर्वस्व था, इसके अतिरिक्त शायद उसके पास देने को कुछ था ही नहीं ।

शौचालय का सीधा सम्बन्ध है शुचिता से । तरह-तरह के शारीरिक विकारों और उत्सर्जनों से मुक्त होकर व्यक्ति स्वच्छ और शुच बनता है । मल-मूत्र त्याग, दंत-धावन, शौच के प्रमुख अंग हैं किंतु शरीर की सफाई के काम निरंतर चलते रहते हैं जैसे थूकना, नाक छींटना आदि । इस प्रकार शौचालयों का विस्तार सर्वत्र और सर्वदा है । एक अभिनेत्री हैं - स्कारलेट जोहानसन, जो एक टी.वी.प्रोग्राम देने गईं । सर्दी की ऋतु तिस पर अभिनेत्री होने के कारण पूरे कपड़े पहन नहीं सकती । तो साहब, जुकाम तो होना ही था । तो अभिनेत्री को छींक आगई । छींक के साथ कुछ तरल पदार्थ भी उत्सर्जित हुआ । यदि उस तरल पदार्थ को रोकने के लिए कपडे का रूमाल हुआ होता तो उस अमूल्य तरल पदार्थ को पर्स में रखकर घर ले जाया जा सकता था । पर चूंकि इस तरल पदार्थ को एक टिशू में संगृहीत करके फ़ेंक दिया गया । आखिर कब तक संभाले आदमी । सारे दिन ऐसे पदार्थ समय-समय पर, विभिन्न रूपों में निसृत होते ही रहते हैं । पर जैसे हीरे की कीमत कोई सच्चा जौहरी ही जानता है वैसे ही अभिनेत्रियों के थूक, नक्की आदि की कीमत कोई सच्चा भक्त ही जानता है । सो स्कारलेट जोहानसन की नाक से निकले इस तरल पदार्थ से लिथड़े कागज को एक जिज्ञासु, सत्यान्वेषी और परोपकारी व्यक्ति ने उठाकर सुरक्षित रख लिया । इसके बाद उसने इंटरनेट पर इसकी नीलामी की । नीलामी बढ़ते-बढ़ते ५५०० डालर पर छूटी । मतलब ३ लाख रुपये । इस राशि से २०-३० साहित्यकारों को पुरस्कृत किया जा सकता है । प्राइवेट स्कूल के एक मास्टर को तीन साल तक वेतन दिया जा सकता है । २०-३० ग़रीबों को स्वरोजगार के लिए मदद की जा सकती है ।

इस राशि का उपयोग किसी "फूड गेदरिंग चेरिटी यू.एस.ए. हार्वेस्ट" के लिए किया जाएगा । हमें पूरी तरह तो समझ नहीं आया की यह कौन सी चेरिटी है पर हमारा अनुमान है ईसाई धर्म में हार्वेस्टिंग का अर्थ है दूसरे धर्म वालों को ईसाई धर्म में दीक्षित करना । वैसे इसका असली अर्थ तो २६ दिसम्बर के टाइम्स आफ इंडिया के संपादक जानें या फिर 'दी एन्वेलप' नामक अखबार के संपादक जानें जिन्होंने सबसे पहले दान और परोपकार की यह महागाथा छापी । इस प्रक्रिया में सबसे महान और गुणग्राही तो हम उस व्यक्ति को मानते हैं जिसने इस अलौकिक पदार्थ को ३ लाख रुपये में खरीदा । अभिनेत्री तो खैर धन्यवाद् की पात्र है ही जिसने इतनी महत्वपूर्ण वस्तु परोपकार के लिए निःशुल्क उपलब्ध करवाई । भगवान करे अभिनेत्रियाँ खूब मल-मूत्र त्याग करें, थूकें, नाक छींटें, पादें और जिज्ञासु लोग उन्हें खोज कर सुरक्षित रखें और धनवान, ज्ञानी, परोपकारी और गुणग्राहक पुण्यात्माएं उन्हें लाखों, करोड़ों रुपयों में खरीदें जिससे चेरिटी यू.एस.ए, हार्वेस्ट जैसा कोई धार्मिक कार्य आगे बढ़े । अभिनेत्री के मल-मूत्रादि की तरह दान और धर्म की खुशबू संसार में सर्वत्र फैले । यदि इसी प्रकार शौचालयीन पदार्थों का धर्मार्थ कार्यों में योगदान बढ़ता रहा तो अभिनेत्रियों और भांडों के शौचालयों को धार्मिक स्थानों का दर्जा मिल जाएगा । अब यह मत पूछियेगा की अभिनेत्री के उस नक्की युक्त कागज़ का वह व्यक्ति क्या करेगा ? यह तो उसकी श्रद्धा और भक्ति पर निर्भर है । पश्चिम हमको मूर्ति पूजक कह कर पिछड़ा और असभ्य कहता है । अब उनके वहाँ के सभ्य समाज में व्याप्त इस मल-मूत्र और नक्की-प्रेम को क्या कहेंगे ?

९ जनवरी २००९

सन्दर्भ समाचार

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)



(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

Jan 11, 2009

तुम मुझे खून दो , मैं तुम्हें बीयर दूंगा


खून के बदले बीयर - एक ख़बर
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों की क़ैद से निकल कर जर्मनी होते हुए जापान पहुँचे और जापान द्वारा बंदी बनाए गए भारतीय सैनिकों तथा अन्य प्रवासी भारतीयों को मिलाकर आजाद हिंद फौज बनायी । जिसके राज में सूरज नहीं डूबता था उस ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती देते हुए भारत के उत्तर पूर्व में युद्ध का बिगुल बजा दिया । उन्होंने नारा दिया- 'तुम मुझे खून दो मई तुम्हे आज़ादी दूँगा' ।

उस समय बाज़ार इतना विकसित नहीं हुआ था । खरीदने बेचने का सिस्टम भी इतना विकसित नहीं हुआ था । लोग अदला-बदली अर्थात् बार्टर सिस्टम से काम चलाते थे । नेताजी के पास आजादी थी और लोगों के पास गरम खून था । तब तक लोगों का खून सफ़ेद नहीं हुआ था । तब खून का रंग लाल हुआ करता था और बकौल ग़ालिब- खून रगों में दौड़ते-फिरने का कायल न होकर आंखों से टपका करता था । इसलिए लोगों ने नेताजी को खून दिया और आज़ादी का मार्ग प्रशस्त हुआ ।

आज़ादी मिली । धीरे-धीरे आज़ादी के संघर्ष की यादें धुंधली होती गईं । बाज़ार विकसित हुआ । खून के बदले बहुत सी चीजें मिलने लगीं । पहले जीवन अमूल्य था, हालाँकि जीवन-मूल्य अवश्य थे । जीवन-मूल्य उस मूल्य को कहते हैं जिसके बदले में हम अपना जीवन देने के लिए तैयार हो जाते हैं । राम ने मर्यादा की रक्षा के लिए सारा जीवन लगा दिया, भगत सिंह ने आज़ादी के लिए जीवन दे दिया, भीष्म ने धर्म की रक्षा के लिए अपनी मृत्यु का रहस्य बता दिया, दधीचि ने देवों की रक्षा और दानवों के विनाश के लिए अपनी हड्डियाँ दे दीं, राजा शिवि ने शरणागत की रक्षा के लिए अपना माँस काटकर स्वयं तराजू पर चढ़ाना शुरू कर दिया, युधिष्ठिर, बुद्ध, महाबीर, ईसा, गाँधी ने सत्य के लिए सर्वस्व होम दिया, कर्ण ने प्राण देकर भी दानवीरता को नहीं छोड़ा । राजा दिलीप ने मात्र एक गाय के लिए स्वयं को सिंह का भोजन बनाने की ठान ली ।

अब भी जीवन मूल्य हैं । बस अदला-बदली की वस्तुएँ बदल गई हैं । अब लोग किसी धर्म के लोगों से पैसा लेकर मरने के लिए भारत में घुस आते हैं, पैसे लेकर अशांति फैलाने के लिए धार्मिक स्थान तोड़कर अपना जीवन खतरे में डाल देते हैं, कोई सुपारी लेकर किसी की हत्या करने के लिए चल पड़ता है, सैनिकों को युद्ध की सार्थकता समझ में न आने पर भी युद्ध में जाना पड़ता है तनख्वाह के लिए जैसे वियतनाम, अफगानिस्तान और ईराक आदि में अमरीकी सैनिकों को । लोग दारू या कुछ धन लेकर झूठी गवाही देने में जीवन गुज़ार देते हैं, लड़कियाँ कपडे उतारने के लिए तैयार हो जाती हैं, व्यापारी वैध या अवैध दारू बेचते हैं, और लोग ऐसे दीवाने हैं कि खून बेच कर भी दारू ख़रीदते हैं । ऐसे रक्तदाताओं को प्रोफेशनल डोनर कहते हैं । कुछ संस्थाएँ रक्तदान शिविर लगवाती हैं जिनमें रक्तदान के लिए प्रेरित किया जाता है । समाज सेवकों को तो रक्त चूसने से ही फुर्सत नहीं मिलती । साधु-संत पैसों के बदले भगवान का आशीर्वाद बेचते हैं ।

वैसे लोग कुछ भी कहें, हमें तो आज के जीवन-मूल्य ज़्यादा प्रेक्टिकल लगते हैं । फटाफट बेचो । जीवन बेचो, ईमान बेचो, मूल्य बेचो, धर्म बेचो । फटाफट कैश करो । पता नहीं कब भाव गिर जायें । और जीवन का मूल्य ही क्या हैं? कृष्ण ने शरीर को पुराना वस्त्र कहा है- पुराना वस्त्र उतार कर नया पहनने में तो फायदा ही है और फिर यह वस्त्र तो फ्री में मिलता है । पुराना उतारो और भगवान नया वस्त्र लिए तैयार खड़े हैं । इसलिए छोटी-मोटी चीजें बेचने में क्या बुराई है? पूरा जीवन बेचने की बजाय किस्तों में बेचना ज़्यादा लाभदायक है । एक आँख बेचो, एक गुर्दा बेचो, राजनीति में बार-बार निष्ठा बेचो और इल्ज़ाम दे दो आत्मा की आवाज़ को । खून बेचो, आजादी जैसी अमूर्त चीज़ के लिए नहीं वरन भौतिक वास्तु के लिए । कैसे भी पैसे कमाओ ।

हमारे उक्त दर्शन की पुष्टि हो गई है । यदि किसी भारतीय ने पुष्टि की होती तो विश्वसनीय नहीं होती पर यदि पुष्टि योरप के शहर प्राग से हुई है तो मानना ही पड़ेगा । वहाँ के स्वास्थ्य विभाग ने युवकों को रक्तदान के लिए प्रेरित करने के लिए एक मुहिम चलाई है जिसके तहत रक्तदान करने वाले को एक लीटर बीयर दी जायेगी और 'चेक बीयर' नामक पत्रिका की वार्षिक सदस्यता मुफ्त । पता चला है कि योजना काफी सफल रही है । अपने-अपने प्रोत्साहन हैं और भाँति-भाँति के भक्त । एक बार अटल जी पाकिस्तान गए तो एक पत्रकार अतिया ने अटल जी से कहा कि यदि आप कश्मीर मेहर में दे दें तो मैं आप से शादी करने के लिए तैयार हूँ । अपहरण कर्ताओं ने अमिताभ और आशा पारेख के अनुरोध के बदले ही बंधकों को छोड़ना स्वीकार कर लिया था पर चूँकि फ़िल्म वालों का तो एक वाक्य ही विज्ञापन में लाखों का बिकता है सो किसी ने अपहरण कर्ताओं से अनुरोध नहीं किया । वर्ल्ड कप के समय एक सुन्दरी ने कहा था कि वह गोल करने वाले अपने देश के खिलाड़ी को चुम्बन देगी । अब जिसके पास जो कुछ है वह वही तो देगा । कोई बीयर के बदले खून देता है । जिसके पास दाम है वह दाम देता है पर बीयर तो चाहिए ही । अब यह अलग बात है कि एक लीटर बीयर पीने के बाद यदि किसी रक्तदान करने वाले का एक की जगह दो बार खून निकल लिया जाए तो भी उसे क्या पता चलेगा । अपने यहाँ भी तो चुनाव से पहले की रात दारू की थैलियाँ बाँटी जाती हैं । अब कोई भारत को पिछड़ा न कहे । यहाँ भी योरप की तरह सब कुछ बाज़ार हो गया है । हर चीज़ को लेन-देन के दायरे में ले आया गया है । यह खून लेकर बीयर देना इस ग्लोबल विलेज का बाजारवाद नहीं, प्रतिभा-सम्मान-समारोह है ।

८ जनवरी २००९
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)



(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

Jan 10, 2009

सत्यं-असत्यं : शाश्वतं-नित्यं


संसार विरोधाभासों से बना है । सत्यं है तो असत्यं भी है । वैसे सत्यं मूल शब्द है । 'अ' उपसर्ग है । अगर सत्यं नहीं है तो असत्यं को अवतार लेने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती । अगर सत्यं है तो उसका होना ही असत्यं के काम में बाधा है । यदि नियम नहीं हों तो उनको तोड़ने के प्रपंच रचने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी । इसलिए कहा जा सकता है कि सत्यं के कारण ही असत्यं है । यदि आप चाहते है कि संसार में असत्यं न हो तो सबसे पहले सत्यं का खात्मा करिए । कहते हैं सत्यं तो भगवान का रूप है, उसे नष्ट करना असंभव है । तो फिर साहब असत्यं को भी झेलना ही पड़ेगा ।

समुद्र-मंथन से पहले विष निकला । विष से सब जलने लगे पर कोई उससे मुकाबला करने को तैयार नहीं । अंत में भगवान शंकर ने विषपान किया और तबसे वे नीलकंठ-शिव कहलाने लगे । शिव का मतलब है कल्याण करने वाला । ठीक भी है दूसरों का विष पीने से ही तो उनका कल्याण होगा । विष पीने से डरने वाले न तो शिव हो सकते हैं और न किसी का कल्याण कर सकते हैं । विष के बाद निकला अमृत, जिसे पीने को सब तैयार । एक असुर तो वेश बदल कर अमृत पीने के लिए देवताओं की पंक्ति में जा बैठा । पहचान लिया गया और पकड़ा गया । विष्णु ने सुदर्शन से उसका सिर काट दिया पर थोड़ा सा अमृत पी लिया था इसलिए सिर और धड़ दोनों जीवित रहे और आज भी मुखबिरी करने वाले चंद्रमा को ग्रहण के दिन कष्ट देने आ जाते हैं ।

सत्यं बोलने वाला या उसका पक्ष लेने वाला दोनों ही असत्यं के निशाने पर होते हैं । कहते है सत्यं की रक्षा भगवान करते हैं । इसके लिए सत्यवादी हरिश्चंद्र का उदाहरण दिया जाता है । घरबार, राजपाट सब गया । पत्नी, बच्चों और यहाँ तक कि ख़ुद को भी बेचना पड़ा । ड्यूटी की पाबंदी और ईमानदारी ऐसी कि श्मशान का टेक्स वसूल करने के लिए आधे कफ़न के रूप में पत्नी की साड़ी ही फड़वा ली । ये तो साहब, विश्वामित्र जी उनकी परीक्षा ले रहे थे वरना तो हो गया था सूर्यवंशी महाराज की इज्ज़त का कचरा ।

सत्यं का एक ही रूप होता है इसलिए ज़ल्दी से पहचान लिया जाता है और पकड़ा जाता है । अब अपने सत्यवादी जगद्गुरु भारत महान को ही देख लीजिये- बस ले दे उसके पास एक ही बात है कि आतंकवादी पाकिस्तानी हैं । पर पाकिस्तान के पास हज़ार बातें हैं- 'आतंकवादी का कोई देश नहीं होता, इस्लाम में आतंकवाद है ही नहीं, सच्चा मुसलमान आतंकवादी नहीं हो सकता, हो सकता है ये किस धर्म के और किस देश के लोग हैं जो भारत में आतंक फैला रहे है, हम तो ख़ुद ही आतंकवाद से परेशान हैं , इनका कोई ठौर ठिकाना मिले तो हमें भी बताना, दोनों मिल कर कार्यवाही करेंगें ।' अब कर लो क्या करोगे इनका । पकड़ लो क्या पकड़ोगे इनका । हमारा ध्येय वाक्य है 'सत्यमेव जयते' । पता नहीं कब जीतेगा, अब तक तो जूते ही खा रहा है और दुनिया तमाशा देख रही है ।

कबीर जी ने कहा है-
आधी और रूखी भली, सारी तो संताप ।
जो चाहेगा चूपड़ी, तो बहुत करेगा पाप ॥


सो साहब जो अपनी मेहनत की खाने वाले हैं वे कभी असत्य के चक्कर में नहीं पडेंगें । पर जिसे हराम की और दो-दो चाहियें वह असत्यं के सिवा और किधर जा ही नहीं सकता । पहले पाकिस्तान को तालिबान को पालने के लिए पैसा मिलाता था । अब तालिबान से लड़ने के लिए मिल रहा है । वह न तालिबान से लड़ सकता है और न ही आतंकवाद से लड़ने नाम पर मिलने वाला पैसा छोड़ना चाहता । अमरीका के लिए ऐसा घटिया काम भारत न पहले कर सकता था न अब । सो अमरीका पाकिस्तान को छोड़ भी नहीं सकता । साँप-छछूंदर की हालत हो रही है । असत्यं में लिपटा सत्यं सबको मालूम है ।

असत्यं को भी शास्त्रों में स्थान दिया गया है । शास्त्र कहते हैं कि जुए, मजाक, स्त्रियों, प्राणों पर संकट के समय असत्यं को 'अलाऊ' किया है । आज के सन्दर्भ में यह छूट राजनीति, व्यापार, विज्ञापन ने अपने आप ले ली है । कहा गया है- प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज़ है उसी तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि राजनीति, व्यापार और विज्ञापन में सब कुछ नाजायज़ है । पर इस आधार पर असत्यं को सत्यं के स्थान पर नहीं बिठाना चाहिए । दूध और खटाई का साथ नहीं निभ सकता ।

सत्यं को ईमानदारी से इतना मिल रहा था कि मज़े से रह सकता था । पर ज़्यादा चूपड़ी के चक्कर में असत्यं हो गया । इतना असत्यं हुआ कि अंत में सत्यं होना ही पड़ा । हर गुब्बारे की एक सीमा होती है उसके बाद उसे फूटना ही पड़ता है । और फिर सत्यं सबके सामने आ जाता है भले ही वह ज़रा से रबर का सिकुड़ा सा टुकड़ा ही क्यों न हो । एनरोन कैसे भारत में आई थी और कैसे गई यह भी किसी से छुपा नहीं है । लेहमैन, मेरिल लिंच सभी का यही हाल हुआ । हिटलर ने सारी दुनिया को एक टाँग पर खड़ा कर दिया था पर अंत में आत्महत्या ही करनी पड़ी । पाकिस्तान का असत्यं भी सामने आ ही गया ।

मगर उद्घाटित होने से पहले वह बहुत सा नुकसान तो कर ही देता है । ऐसे उदाहरणों से अपने आप ही सत्यं की विजय का विश्वास तो होता है पर असत्यं से निरंतर लड़ने की आवश्यकता भी समाप्त नहीं हो जाती ।

( सन्दर्भ: आई.टी. कम्पनी सत्यं की फूंक निकली- ७ जनवरी २००९ )

८ जनवरी २००९

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)



(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

Jan 7, 2009

इंडिया की मृत्यु


प्रिय पाठको!
आज हम आपको बहुत दुखी हृदय से यह सूचना दे रहे हैं कि इंडिया की मृत्यु हो गई है । मृत्यु जीवन की अन्तिम परिणति है । जो पैदा हुआ है वह अवश्य मरेगा । पर हमें तो इसी बात का दुःख हैं कि जहाँ उसकी मृत्यु हुई है वहाँ किसी प्रकार के इलाज़ या अन्य सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी । बड़ा लाड-प्यार और सार-संभाल थी फिर भी मृत्यु हो गई । अब हम क्या कर सकते हैं । अब तो बस श्रद्धांजलि ही दी जा सकती है । दो मिनट का मौन ही रखा जा सकता है । इंडिया को दुनिया के सबसे समर्थ व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त था । जब समय बुरा आता है तो समर्थ से समर्थ व्यक्ति पर कोई अदना सा आदमी जूता तक फ़ेंक देता है और लोग तमाशा देख कर रह जाते हैं ।

इंडिया की मृत्यु की सूचना हमें फॉक्स न्यूज़ से मिली जिसमे व्हाइट हॉउस के लारा बुश के कार्यालय के सेली मेक्डोनो के हवाले से बताया गया कि इंडिया की १८ वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई । तो क्या इंडिया की उमर केवल १८ वर्ष ही थी । अब साहब १८ वर्ष पहले जनम हुआ तो उम्र १८ वर्ष से ज़्यादा कैसे हो सकती है । खुश होने की बात यह है कि इंडिया को लारा बुश ने अपने परिवार के सदस्य के समान बताया है ।

इंडिया को १८ वर्ष होने के कारण वोट का अधिकार भी मिलने वाला था । हो सकता है सुरक्षा परिषद् की सदस्यता भी मिल जाती । अमेरिका चाहे तो क्या नहीं हो सकता । पर क्या किया जाए अब तो इंडिया की मृत्यु ही हो चुकी । आप कहेंगें कि ऐसा कैसे हो सकता है कि इंडिया मर जाए और हम जिंदा रहें ? ऐसा बहुत बार हुआ है । स्वर्णिम चतुर्भुज के इंजीनीयर पांडे की ठेकेदारों ने हत्या करवा दी और कुछ नहीं हुआ । नेता के जन्म दिन के लिए लाखों का चन्दा नहीं देने पर मनीष गुप्त की हत्या कर दी गई और कुछ नहीं हुआ । ताज़ा उदहारण ही देख लीजिये कि आतंकवादी पाकिस्तान के थे, सारी दुनिया जानती है, पाकिस्तान आँखों-आँखों में हँसता हुआ कह रहा कि आतंकवादी उसके यहाँ के नहीं थे । आगे भी यही कहता रहेगा । आपने सबूत दिए और वह कह रहा है कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं । आगे भी यही कहता रहेगा । दुनिया तमाशा देख रही है । यह मरना नहीं है तो क्या है ?

बने फिरो जगद्गुरु, बने फिरो आर्थिक महाशक्ति ।

अब चलो आपको बता ही देते हैं कि यह इंडिया और कोई नहीं - लारा बुश की प्रिय बिल्ली है जिसको भारत प्रेम के कारण मेडम ने इंडिया नाम दिया था ।

आप में से कुछ ज़्यादा राष्ट्रवादी होने का नाटक करने के कारण कहेंगे कि बिल्ली को इंडिया नाम देने से भारत के सम्मान को ठेस लगी है । अब इसका क्या किया जाए । ऐसा तो होता ही रहता है । अमरीका में तो शिव, गणेश और काली आदि को सेंडिल पर छाप दिया था ।

वैसे बिल्ली, कुत्ते से ज़्यादा निकट होती है मालिक के ।

बिल्ली का नाम इंडिया रखने का किस्सा आज का नहीं बल्कि २४ जुलाई २००१ का है । हमने उस समय अपनी प्रतिक्रिया में दो कुण्डलिया छंद लिखे थे (कुण्डलिया संग्रह 'अपनी-अपनी लंका') जो आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहें हैं ताकि सनद रहे ।

नौकर के होते सदा रामू, भोला नाम ।
भोले शंकर,राम पर ना होते नाराज़ ।
ना होते नाराज़, उड़ेगी काहे खिल्ली ।
कुत्ते से हर तरह श्रेष्ठ होती है बिल्ली ।
जोशी जिनके कुत्ते बन, वे पूँछ हिलाएँ ।
तो उनकी बिल्ली बनकर हम क्यों शरमाएँ ।

बुश की बिल्ली बन गया अगर इंडिया देश ।
तो क्यों होते हो दुखी, क्यों खाते हो तैश ।
क्यों खाते हो तैश, बड़ों के कुत्ते बिल्ली ।
सब सुख भोगें, रहें सदा कलकत्ता, दिल्ली ।
कह जोशी कवि म्याऊँ बोलें उन्हें रिझाएँ ।
तो चूहा क्या, चिकन केन्टकी वाला खाएँ ।

६ जनवरी २००९

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

original article


-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach