Dec 7, 2012

एफ डी.आई. स्तुति - आओ मल्टीनेशनल आओ


मित्रो,
१९९६ में लिखित और १९९८ में मेरे संकलन 'राम धुन' में प्रकाशित 'मल्टीनेशनल-स्तुति' आपकी सेवा में प्रस्तुत है । आज के सन्दर्भ में चाहें तो आप इसे 'एफ डी.आई.-स्तुति' या जो भी नाम आपको पसंद हो, से पढ़ सकते हैं और अपने और देश के दुर्भाग्य पर हँस, चिढ़ या रो सकते हैं ।

मल्टीनेशनल-स्तुति
( बतर्ज़ : 'झंडा ऊँचा रहे हमारा' )

आओ मल्टीनेशनल आओ ।
भारत के सिर पर चढ़ जाओ ॥

आप पाँच सौ प्रतिशत खाओ
दस परसेंट हमें दिलवाओ
यहाँ हमें कुछ नहीं चाहिए
अपने वहीं जमा करवाओ ।

आओ मल्टीनेशनल आओ..

हमें राष्ट्र अभिमान नहीं है
इज्ज़त का कुछ ध्यान नहीं है
देश हमारा मोटी मुर्गी
हम भी खाएँ, तुम भी खाओ ।

आओ मल्टीनेशनल आओ...

बड़े-बड़े उद्योग लगाओ
भुजिया औ' चटनी बनवाओ
नहीं मुनाफे की कुछ चिंता
काउंटर गारंटी पाओ ।

आओ मल्टीनेशनल आओ ।
भारत के सिर पर चढ़ जाओ ॥


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Nov 24, 2012

भाई साहब का भटकना


तोताराम से सत्संग हुए कोई छः महिने हो गए । हालाँकि ऐसा नहीं है कि यह दुनिया स्वर्ग हो गई है और इसमें निन्दा-स्तुति के योग्य कुछ नहीं बचा । हाँ, यह बात ज़रूर है कि क्या देश और क्या दुनिया हालत यह हो गई है कि 'पंचों का कहना सिर माथे लेकिन पतनाला वहीं गिरेगा' । और जब ससुर पतनाले को वहीं गिरना है तो काहे को मगजपच्ची करें । मगर जैसे सरकार कुपोषित जनता का भी तेल निकाल सकती है तो तोताराम बात करने के लिए कुछ न कुछ निकाल ही लेता है । बस, कारण रहा कि हम छः महिने से अमरीका गए हुए थे । आजकल भले ही आदमी को पूरी रोटी और शुद्ध पानी नहीं मिल रहे हों लेकिन संचार के इतने साधन हो गए हैं कि कहीं भी बैठकर दुनिया से संपर्क बनाए रखा जा सकता है मगर जो बात आमने-सामने मिलकर होती है, जो आनंद गले मिलकर आता है वह आनंन्द फोन और मेसेज या स्काइप में कहाँ? यदि टी.वी. पर मिठाइयाँ और फल देखकर ही तृप्ति हो जाती तो फिर बात ही क्या थी? सो पिछले छः महिने से तोताराम से कभी कभार बातें तो होती रहीं, अखबार भी इंटरनेट पर पढ़ते रहे लेकिन वह बात कहाँ? मेले का समाचार देख-सुनकर वह मज़ा कैसे आ सकता है जो वहाँ जाकर भीड़ में धक्के खाने या भगदड़ में हाथ-पैर तुड़वाकर आता है ।

तो साहब, आज तोताराम पधारे । जैसा कि आप जानते हैं पिछले पचास वर्षों से, जब भी वे या हम गाँव में मौजूद रहे, चाय और अखबार का सेवन उन्होंने हमारे यहीं करके हमें कृतार्थ किया । आज आशा के विपरीत वे अखबार अपने साथ लाए और एक नहीं दो-दो - एक हिंदी का और एक अंग्रेजी का ।

हमारे सामने अखबार पटकते हुए बोला- मास्टर, भाभी से कह सोनिया जी को फ़ोन लगाने की कोशिश करे, तब तक मेरी बात ध्यान से सुन- अपने भाई साहब मनमोहन सिंह जी किसी एसीअन (ASEAN) की मीटिंग में भाग लेने गए थे । अब यह क्या मीटिंग है और जगह कहाँ है मुझे तो पता नहीं? हिंदी वाले अखबार में जगह का नाम 'नोम पेन्ह' लिखा है और अंग्रेजी वाले 'फ्नोम पेन्ह' लिखा है ।

हमने उसे समझाया कि यह कोई मीटिंग है जिसमें दक्षिण एशिया के कोई दसेक देश भाग लेंगें और अमरीका न तो एशिया में है और न ही दक्षिण में लेकिन वह भी भाग लेता है क्योंकि अमरीका के बिना न तो कहीं लोकतंत्र हो सकता है और न ही व्यापार । और यह ‘नोम पेन्ह’ और ‘फ्नोम पेन्ह’ एक ही है । यह कोई अपनी लिपि देवनागरी तो है नहीं कि जो लिखो सो पढ़ो । यह तो रोमन लिपि है जिसमें कोई भी ध्वनि, कभी भी, समझदार नेता की तरह साइलेंट मोड़ में चली जाती है । मगर इसमें सोनिया जी को फ़ोन लगाने की क्या बात है? वे तो वैसे भी संसद के अधिवेशन की तैयारी में व्यस्त होंगीं । और फिर मनमोहन जी कोई बच्चे थोड़े ही हैं जो रास्ता भूल जाएँगे? आ जाएँगे ।




तोताराम हमारे सामने २० नवंबर २०१२ के हिंदी और अंग्रेजी के दोनों अखबार रखते हुए बोला- समझने की कोशिश कर । देख, इस सम्मलेन में दस देश भाग लेने वाले हैं । हिंदी के अखबार में अपने भाई साहब मनमोहन जी चीनी नेता के साथ खड़े हैं और लिखा है- गहरे दोस्त जैसे मिले मन-वेन । अंग्रेजी वाले अखबार में भाई साहब अपने चिर परिचित जोधपुरी सूट या कुर्ता-पायजामा और जेकेट की बजाय एक सस्ती सी चमकीली सी लाल रंग की बुशशर्ट पहने सावधान की मुद्रा में सहमे हुए से जुलिया गिलार्ड के साथ फोटो खिंचवा रहे हैं । फोटो भाई साहब की ही है क्योंकि इतना शालीन और कोई हो ही नहीं सकता । और, किसी अन्य के फोटो के साथ भाई साहब का सिर चिपका कर ट्रिक करने की हिमाकत कोई भारतीय अखबार नहीं कर सकता क्योंकि तू जानता है कि यहाँ तो किसी नेता की शव-यात्रा से लगे जाम से परेशान होकर यदि कोई फेस बुक पर भी कुछ लिख दे तो पुलिस पकड़ लेती है । अंग्रेजी के इसी अखबार में एक पेज पर ओबामा की के साथ हाथों को दाएँ-बाएँ करके पकड़े हुए एक चेन सी बनाते हुए चार नेताओं का फोटो है लेकिन उसमें चीनी नेता, अपने भाई साहब और आस्ट्रेलिया की प्रधान मंत्री जूलिया गिलार्ड तीनों ही नहीं हैं । मेरा तो कलेजा मुँह को आ रहा है । बेचारे झिक-झिक से पीछा छुड़ाकर दो दिन कहीं घूमने गए थे और पता नहीं कहाँ पहुँच गए?

पत्नी ने बताया कि फ़ोन नहीं मिल रहा है और कोई बोल रही है कि जिस नंबर से आप बात करना चाहते हैं वह अभी व्यस्त है । कृपया होल्ड रखें या थोड़ी देर बाद फिर कोशिश करें । इसके बाद कई बार कोशिश की लेकिन बात नहीं हो सकी ।

तोताराम ने निराश होकर कहा- ठीक है मास्टर, चलता हूँ । वैसे सारी बात का पता चल जाता तो तसल्ली हो जाती । मुझे तो लगता है भाई साहब कहीं और तो नहीं चले गए हैं । भले आदमी हैं । बेचारे किसी से कुछ नहीं कहते फिर भी लोग हैं कि जीने ही नहीं देते । लोगों में ज़रा भी रहम नहीं है । एक तो बेचारे अस्सी साल के होने को आ रहे हैं ऊपर से हार्ट के मेज़र ऑपरेशन करवाए हुए तिस पर पौरुष-ग्रंथि अलग निकलवा चुके हैं । कभी किसी चुनाव के चक्कर में नहीं पड़े । भटकते-भटकते हुए दिल्ली पहुँचे तो लोगों ने ज़बरदस्ती पकड़ कर प्रधान मंत्री बना दिया । अब न कोई दूसरा मिले और न इनका पीछा छूटे ।

हमने तोताराम को तसल्ली दी- चिंता मत कर । भाई साहब दुनिया घूमे हैं । दिल्ली विश्वविद्यालय और रिज़र्व बैंक ही क्या, वर्ल्ड बैंक तक चक्कर लगा चुके हैं । कहीं नहीं खोएँगे । लौट आएँगे एक दो दिन में । और फिर चुप रहने मात्र से ही क्या कोई कमजोर हो जाता है? अरे, चुप रहने वाले ज्यादा शक्तिशाली होते हैं । कहा भी है- ‘थोथा चना बाजे घना’ या ‘अधजल गगरी छलकत जाय’ । अपने भाई साहब चुप रहकर भी वह कर गुजरते हैं जो बड़े-बड़े गरजने वाले नहीं कर पाए । दस साल पहले अपनी पेंशन चार हजार रुपए थी और आज पन्द्रह हजार है पर क्या तुझे पता चला कि कब भाई साहब ने अपने रुपए की क्रय शक्ति उस चार हजार से भी कम कर दी या कब बीस साल में रुपया डालर के मुकाबले एक तिहाई रह गया या कब पेट्रोल, गैस, घी, फल और सब्जियाँ लोगों की पहुँच से बाहर हो गए? किस दिन २५ रुपए वाला स्पीड-पोस्ट चुपचाप ४० रुपए का हो गया? चिंता मत कर ऐसा ही कोई महान काम करके लौटेंगे अपने भाई साहब ।

तोताराम चला गया लेकिन अगले ही दिन फिर लौट आया । बहुत खुश था और हमारे सामने २१ नवंबर का अखबार रखते हुए बोला- मिल गए भाई साहब । देख, जोधपुरी सूट में ओबामा से हाथ मिलाते अपने भाई साहब । वही बाल-सुलभ सकुचाई सी मुस्कान और वही गद्गद् भाव । और तो और इसी दौरे में जापान के प्रधान मंत्री से २.२६ अरब डालर का कर्ज़ा कबाड़ लिया सो अलग ।


हमने कहा- ठीक है मिल गए भाई साहब । लेकिन क़र्ज़ लेने में खुश होने की क्या बात है? साठ बरस हो गए कभी दो पैसे बचाकर किसी को क़र्ज़ देने लायक भी तो बनो । जापान १९४५ में ध्वस्त हो गया था और तुम १९४७ में आज़ाद हुए थे । एक प्रकार से दोनों ने एक साथ ही शुरुआत की लेकिन अब देख कहाँ जापान और कहाँ हम?

तोताराम कहाँ हार मानने वाला था, बोला- अरे कर्ज भी तो उन्हें ही मिलता है जिनकी कोई साख होती है । बता क्या किसी बैंक ने तुझे बेटी की पढ़ाई के लिए लोन दिया? और फिर इन्हें कौन हजार बरस जीना है । अभी तो 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्'; बाद की बाद में आने वाली पीढ़ी जाने ।

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Nov 3, 2012

थरूर थ्रिल्लर बनाम गर्ल फ्रेंड की कीमत


अब वह पहले वाली बात कहाँ रही जब चीजें अमूल्य हुआ करती थीं । मीरा जैसे प्रेम करने वाले बिना मोल बिका करते थे- 'मैं तो गिरधर हाथ बिकानी' । बिकीं, मगर ५० करोड़ का प्राइस टैग लगाकर नहीं, बल्कि बिन मोल; तभी तो वह गोविन्द को अमोलक मोल में खरीद सकती थी- 'माई री मैं तो लियो गोविन्दो मोल । कोई कहे महँगो कोई कहे सस्तो, लियो री अमोलक मोल' । लोग दाम के लिए नहीं बल्कि बात के लिए मरा करते थे ।

यदि मीरा दाम के लिए बिकती तो पूरी संभावना थी कि उसे उसका देवर बनबीर खरीद लेता । आज जब सांसद और यहाँ तक कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी बिकाऊ हैं तो बेचारी गर्ल फ्रेंड की क्या औकात ? सुनते हैं कि एक ब्राजीलियन लड़की ने अपना कौमार्य कुछ करोड़ में नीलाम किया और गर्व की बात है कि बोली लगाने वालों में भारत का भी एक सपूत था । और मज़े की बात यह है कि वह लकड़ी उस पैसे से कोई समाज सेवा का काम करेगी मतलब कि स्वयंसेवक भी निःशुल्क नहीं मिलते ।



खैर, तो बात गर्ल फ्रेंड की कीमत की । ठीक है, समय रहते अपनी कुछ कीमत ले ले अन्यथा पालक की सब्जी की तरह शाम को मुरझाकर मंडी में घूमने वाले सांडों के आगे फिंकना है या किसी होटल वाले के हाथ धूल के भाव बिकना है । गर्ल फ्रेंड की भी अपनी परिस्थिति होती है । ज्यादा भाव खाने से उस फिल्मी हीरोइन की सी हालत होती है जो फ़िल्में मिलते रहने पर शादी के बारे में सोचती नहीं और जब सोचती है तो उसके साथी दादा बन चुके होते हैं फिर तो कोई सेकण्ड या थर्ड हैंड मिलता है । कभी-कभी गर्ल फ्रेंड चालाक होती है तो ५० करोड़ क्या, प्रेमी के कपड़े तक उतरवा देती है, जूते पड़वाना तो खैर, कोई बात ही नहीं । हमारे गाँव में एक बड़े सेठ के सुपुत्र थे । वे अपने को बड़ा प्रेमी मानते थे यह बात और है कि लोग उन्हें लम्पट कहते थे । उनके पिताजी ने आज से कोई सौ साल पहले करोड़ों रुपए के धर्मार्थ काम किए थे लेकिन पुत्र ऐसे प्रेमी निकले कि अपनी गर्ल फ्रेंड के चक्कर में अपनी सारी संपत्ति गँवा दी और अंतिम साँस कलकत्ता में अपनी ससुराल वालों के घर में ली ।

आजकल गर्ल फ्रेंड्स बैंक बेलेंस देखकर प्रेम करती हैं और जैसे ही बैंक बेलेंस खत्म हुआ कि कोई और सच्चा प्रेमी ढूँढ़ लेती हैं । एक चुटकला है- एक प्रेमी ने अपनी नई गर्ल फ्रेंड को बताया कि उसकी भूतपूर्व प्रेमिका अब उसकी चाची है क्योंकि उसने उसे कह दिया था कि उसका चाचा करोड़पति है और वह अपने चाचा का इकलौता वारिस है । एक मदिरा के मसीहा को कैलेण्डर के लिए फोटो खिंचवाने वाली लड़कियों ने ४९वीं सीढ़ी से ७९वीं सीढ़ी पर ला पटका । 

आज ही एक गर्ल फ्रेंड के बारे में सुना । एक कुँवारे ने उसकी कीमत ५० करोड़ बताई तो प्रेमी ने तत्काल प्रतिवाद किया- नहीं, मेरी प्रेमिका की कीमत ५० करोड़ से ज्यादा है । अब पचास करोड़ हो या सौ करोड़, चीज तो बिकाऊ ही हुई ना ? अब एक नायक या महानायक या कोई बादशाह किसी पार्टी में नाचने या किसी चीज का विज्ञापन करने के करोड़ों ले या अरबों, इससे क्या फर्क पड़ता है ? जब बात कीमत की है तो फिर कोई सोचना-विचारना ही क्या । एक व्यक्ति को जज ने किसी को थप्पड़ मारने के अपराध में पचास रुपए के जुर्माने की सज़ा सुनाई । अपराधी ने जज साहब से कहा- 'सर, मेरे पास पचास रुपए छुट्टे नहीं है । बस, यह सौ रुपए का नोट है, दो थप्पड़ का जुर्माना । रख लीजिए' । और इतना कहकर उसने फरियादी को एक थप्पड़ और मार दिया ।

आजकल के युवकों को शायद पता नहीं हो लेकिन आज से कोई साठ बरस पहले बीड़ी का विज्ञापन करने वाले आया करते थे । वे गाँव-गाँव घूमा करते थे । उनकी प्रायः चार आदमियों की टीम हुआ करती थी । जिनमें एक स्त्री वेश में नाचने वाला लड़का, एक हारमोनियम बजाने वाला, एक ढोलक वाला और एक उनका मैनेजर जो उस मज़मे में कमेंट्री करता था, बीड़ी के बण्डल बेचा करता था और सेम्पल की बीडियाँ बाँटता था । आजकल के नायकों, महानायकों या नायिकाओं का यही काम किसी स्टूडियो में या कहीं विदेशी लोकेशन पर होता है ।

यह बात मंडी नामक स्थान से आई है । वैसे मंडी कहीं भी हो सकती है । जहाँ भी बाज़ी लगाने वाले दो जुआरी मिल जाएँ वहीं लास वेगास है । जहाँ भी खरीदने और बेचने वाले मिल जाएँ वहीं मंडी है । फिर वहाँ क्या मोल और क्या भाव ? अपनी-अपनी गरज़ और गाँठ की बात । कभी टके में हाथी बिक जाता है और कभी थैला भरकर रुपए लेकर घूमते रहो, हाथी क्या चूहा तक नहीं मिलता । एक विज्ञापन देखा था जिसमें एक लड़की चिक्लेट नामक मीठी गोली को खाकर पट जाती है और एक लड़की किसी खुशबू विशेष (डियोडरेंट) को सूँघ कर ही पट गई । पचास करोड़ तो बहुत होते हैं ।

५० करोड़ जैसी कम कीमत पर ऐतराज़ करने वाले सच्चे प्रेमी ने प्रेमिका की असली कीमत नहीं बताई । हम तो कीमती चीज को, चाहे फिर वह कीमत कितनी भी हो, बिकाऊ ही मानते हैं । रामचन्द्र शुक्ल जी का एक निबंध है- लोभ और प्रेम । जिसमें वे कहते हैं कि लड्डू का प्रेमी लड्डू ही खाएगा फिर भले ही उसके सामने हज़ार रुपए किलो की पिस्ते की बरफी ही क्यों न रख दी जाए । प्रेम एकनिष्ठता का नाम है । वानप्रस्थ की उम्र में, पच्चीस बरस तक साथ निभा चुकी अपनी पत्नी को छोड़कर एक गोरी मेम के पीछे भगाने वाले और फिर उसे भी तलाक दे देने वाले को, भले ही आप किसी लिहाज में आकर, आप लम्पट भले ही न कहें लेकिन हम उसे प्रेमी तो नहीं ही मान सकते । भले ही दुनिया प्रचार के चक्कर में आकर शाहजहाँ को महान प्रेमी कहती है लेकिन पता होना चाहिए कि उसने पाँच हजार बेगमों का रेवड़ भर रखा था और मुमताज के मरने के बाद भी उसने और कई जवान बेगमों का जुगाड़ किया था ।

मज़े की बात यह है कि यह कीमत बताने वाला एक ऐसा व्यक्ति है जिसे प्रेमिका खरीदने का कोई अनुभव नहीं है । और कहा गया है कि उसने कभी प्रेम किया ही नहीं । बार-बार प्रेम का नाटक करने वाला शायद प्रेम की कीमत नहीं जानता क्योंकि वह तो बाजार भाव के हिसाब से खरीद-बिक्री करता है । पानी की कीमत तो प्यासा ही जानता है । भरे पेट वाले को रोटी का स्वाद नहीं पता । विदुरजी कहते हैं कि भोजन का असली स्वाद तो गरीब को ही आता है ।

लैला के दर्शन के लालच में मजनू उसके घर से थोड़ी ही दूर पर एक पेड के नीचे बैठा रहता था । लैला अपनी नौकरानी से मजनू के लिए कुछ भिजवा दिया करती थी लेकिन मजनू खाने की तरफ देखता ही नहीं था । एक दिन मजनू उस स्थान से उठ कर चला गया । उसकी जगह एक ढोंगी आदमी आकर बैठ गया और लैला के भेजे भोजन पर सेहत बनाने लगा । एक दिन लैला ने नौकरानी से पूछा कि मजनू का क्या हाल है तो नौकरानी ने ज़वाब दिया कि वह तो खा-खाकर बहुत हट्टा-कट्टा हो गया है । दूसरे दिन लैला ने नौकरानी से कहा कि वह मजनू से कहे कि लैला बीमार है । हकीम ने कहा है कि लैला के इलाज के लिए के लिए आपका एक कटोरा खून चाहिए । सुनते ही दो नंबर के मजनू ने कहा- मोहतरमा, हम तो दूध पीने वाले मजनू हैं । खून देने वाला मजनू चाहिए तो देखो वह उस पेड़ के नीचे बैठा है ।

ऐसे दूध पीने वाले मजनुओं को लोग सम्मान नहीं देते ।

यह बात सभी को याद रखनी चाहिए कि सारी लम्पटताओं और सेक्स के खुलेपन का आदी होने के बावज़ूद योरप और अमरीका का सामान्य आदमी आज भी एक पतिव्रत और एक पत्नीव्रत को ही आदर्श मानता है । अमरीका में हर राष्ट्रपति चुनाव में अपनी पत्नी को साथ लेकर घूमता है जिससे वह यह सिद्ध कर सके कि वह पारिवारिक मूल्यों में विश्वास करता है । यदि क्लिंटन अपने मोनिका प्रसंग के बाद भी चुनाव लड़ सकते तो बहुत बुरी तरह से हारते । अमरीका में प्रकट में अपनी पत्नी से बेवफाई करने वाला, रसिकता के चक्कर में तलाक आदि का चक्कर चला चुका कोई भी व्यक्ति अब तक राष्ट्रपति नहीं चुना गया है । इटली के बर्लुस्कोनी का पतन इसी लम्पटता के चलते हुआ । सारकोजी को भी किसी ने भले ही प्रकट में कुछ नहीं कहा हो लेकिन उसकी और उसकी पत्नी-प्रेमिका की हरकतों को जनता ने कभी पसंद नहीं किया ।

इसलिए हो सके तो प्यार कीजिए अन्यथा जो चाहें करें लेकिन इस शब्द का अवमूल्यन न करें ।

2012-10-30


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Oct 28, 2012

पिटाई और अकल

माल्या जी,
हम आपको यह पत्र बिना कोई बीयर-शीयर पिए लिख रहे हैं । २७ अक्टूबर २०१२ के अखबारों में आपके वक्तव्य से यह भी पता चल गया है कि धन का नशा तो आपका भी उतर ही गया है । हम कामना करते हैं कि आपको प्राप्त हुई यह समझ बनी रहे, न कि श्मशान-वैराग्य की तरह श्मशान से बाहर निकलते ही समाप्त हो जाए ।

हालाँकि हमने विश्व के पत्र-साहित्य में दर्ज़ होने लायक सैंकडों पत्र विभिन्न हस्तियों को लिखे हैं, लेकिन हम आप जैसे ‘पहले वाले माल्याओं’ को कभी पत्र नहीं लिखते क्योंकि उनके पास लगभग नंगी कुँवारी कन्याओं के फोटो खींच कर कलेंडर बनाकर बेचने, दारू बेचने, क्रिकेट के कुछ खिलाड़ी खरीदकर जगह-जगह उनके तमाशे दिखाते फिरने या फिर ऐसी ही और बच्चोंवाली हरकतें करते फिरने के अलावा और कोई काम नहीं होता था । हमें पता नहीं है कि आप इस समय कहाँ हैं लेकिन इतना विश्वास अवश्य है कि जिस तरह से आपका वक्तव्य किसी न किसी तरह हमारे पास यहाँ अमरीका में भी पहुँच गया तो हमारा यह पत्र भी कैसे न कैसे आप तक पहुँच ही जाएगा । यदि नहीं पहुँचा तो आपका दुर्भाग्य । हमारा तो इससे कुछ बनने-बिगड़ने वाला हैं नहीं क्योंकि हम न तो अरबपतियों में कल शामिल थे और न आज और न ही कभी इस क्लब में शामिल होने की संभावना, कामना और इच्छा ही रही है ।


तो पहले आप एक सौ दस करोड़ डालर की संपत्ति के साथ ४९वें स्थान पर थे और अब पतित होकर ८० करोड़ डालर के साथ ७३वें स्थान पर आ गए हैं मतलब कि कोई २३-२४ सीढ़ियाँ गिरे । वैसे हम तो एक बार कोई साठेक बरस पहले पतंग उड़ाते हुए कोई ८-९ सीढ़ियाँ नीचे गिरे थे तो आँखें खराब हो गईं और ४ नम्बर का चश्मा लग गया । २३-२४ सीढ़ियाँ नीचे गिर कर तो आदमी का जिंदा बच पाना ही मुश्किल होता है । आप पर भगवान की कृपा है कि आप जिंदा बच गए । उसका शुक्रिया अदा कीजिए ।

वैसे शुक्रिया तो आपने अपने वक्तव्य में भगवान का अदा किया ही है कि अब लोग आपसे ईर्ष्या नहीं करेंगे और बिना बात आपकी टाँग नहीं खेंचेंगे । ईर्ष्या करने वाले लोग भी बड़े अभागे होते हैं । अब देखिए ना, आप मज़े से फार्मूला-वन रेस देख रहे थे या किसी माडल की कमर में हाथ डाले फोटो खिंचवा रहे थे और लोग थे कि बिना बात अपने घरों में बैठे जल रहे थे । आपको कोई फर्क नहीं पड़ा था जब कि लोग बेचैन थे । ईर्ष्या बहुत बुरी बीमारी है । ईर्ष्या में किसी को कोई दंड देने की ज़रूरत ही नहीं है । ईर्ष्या का मारा व्यक्ति खुद ही ईर्ष्या करने का दंड भुगतता रहता है ।


हमें तो सच बताएँ, आपको इतनी सारी अँगूठियाँ, ब्रेसलेट आदि पहने देख कर ईर्ष्या नहीं होती थी बल्कि दया आती थी । सच ही, बाल रँगने वाले, नकली दाँत लगाने वाले, विग लगाने वाले या और इसी तरह से लोगों के सामने बन कर आने वाले लोगों को कितना सतर्क और सावधान रहना पड़ता होगा । हमें तो बाहर जाने के लिए तैयार होने में दो मिनट से ज्यादा समय नहीं लगता । खूँटी से कुर्ता उतारने और पैरों में चप्पल डालने में समय ही कितना लगता है ? हम तो यही सोच कर परेशान होते रहते हैं कि आप और भप्पी लाहिरी इतने गहने और तामझाम को लिए सो कैसे पाते होंगे । हमें तो शादी में एक घड़ी और चेन मिली थी । हमसे तो वे भी नहीं पहनीं गईं । चेन के बिना ही चैन से कट रही है ।

तो अब आपको अक्ल आ गई कि धन-संपदा का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए । धन संपदा का प्रदर्शन करने वाला हमारे अनुसार हीन भावना से ग्रस्त होता है । तभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सुपीरियरिटी जैसा कोई कम्प्लेक्स नहीं होता । वास्तव में वह हीन-भावना या इनफीरियारिटी का ही एक रूप होता है । जो अपने को छोटा समझता है वही तो अपने को बड़ा दिखाने की कोशिश करता है । अब तो आपके पास फुर्सत होगी सो उचित समझें तो प्रेमचंद की कहानी ‘नशा’ पढ़ लीजिए ।

धन की तीन ही गतियाँ होती हैं - दान, उपभोग या विनाश । आप धन का जो कुछ कर रहे थे वह हमारे हिसाब से न तो उपभोग ही था और दान तो खैर था ही नहीं; तो फिर उसका यही हश्र होना था । और यदि नहीं सँभाला तो बचे-खुचे को आपका सुपुत्र आपसे भी तीव्र गति से फूँकेगा । उसके लिए दुखी मत होइए । कुछ लोग दूसरों को गिरते देखकर सँभल जाते हैं, कुछ खुद गिरकर सँभल जाते हैं और कुछ बार-बार गिर कर भी नहीं सँभलते और बार-बार उसी गड्ढे में गिरते हैं । भगवान करे आपको जो यह अक्ल मिली है वह स्थाई रहे और आप अपने बचे-खुचे धन का सदुपयोग कर सकें ।

आजकल तो तरह-तरह के स्कूल हैं लेकिन हमारे ज़माने में तो एक ही तरह के स्कूल हुआ करते थे जिनमें धनी-गरीब सबके बच्चे समान रूप से पढ़ते थे । उस युग में कहा जाता था – ‘गुरु की चोट, विद्या की पोट’ मतलब कि जिसकी जितनी ज्यादा पिटाई होती थी माना जाता था कि उसके हिस्से में उतनी ही विद्या आएगी । इसी तरह से पिताजी के भी स्टेंडिंग इंस्ट्रक्शंस होते थे कि ‘गुरुजी, हड्डी-हड्डी हमारी और मांस आपका’ मतलब कि आप अपने शिष्य का सारा मांस छील सकते हैं बस हड्डियाँ छोड़ दीजिएगा । मांस का क्या है, कभी भी हड्डियों पर चढ़ जाएगा ।

आजकल बाज़ारवाद के कारण स्कूलों को भी फाइव स्टार होटल बनाने का चलन हो रहा है तो देख लीजिए कैसे तथाकथित बड़े स्कूलों में कुँवारी लड़कियाँ गर्भवती होने लगी हैं, स्कूल से गायब होकर लड़के-लड़कियाँ बुद्ध जयंती पार्क या किसी होटल में पाए जाते हैं या उनके एम.एम.एस. बन कर मोबाइलों में घूम रहे हैं । उस गुरु की चोट का अर्थ था अनुशासन । और देख लीजिए उस समय के उन अनुशासनप्रिय गुरुओं के शिष्यों ने क्या-क्या बड़े काम कर दिखाए । वैसे यहाँ हमारा मतलब आपको शिक्षा व्यवस्था के बारे में बताना नहीं है । हम तो आपको पिटाई का महत्त्व बताना चाहते हैं । कहते हैं ‘मार के आगे भूत भागते हैं’ तो अपने कर्मों के फलस्वरूप पड़ने वाली मार आदमी के दुर्गुण रूपी भूतों को भगाती है और बहुत कुछ सिखाती है बशर्ते कि कोई सीखना चाहे ।

और धन के सदुपयोग के बारे में हम आपको एक उदहारण देना चाहते हैं । हमारे एक ८५ वर्षीय वरिष्ठ मित्र हैं । हैं तो हमसे उम्र में कोई पन्द्रह वर्ष बड़े लेकिन विचार और पेशे से हमारे मित्र माने जा सकते हैं । वे कोई पिछले पचास वर्ष से गणित पढ़ने-पढ़ाने के लिए अमरीका आ रहे हैं और अब तो यहीं बस गए हैं । उनके तीनों बेटे शादी करके यहीं बस गए हैं । अब हमारे मित्र पर कोई जिम्मेदारी नहीं है । अब पचासी वर्ष की उम्र में भी वे विश्वविद्यालय में अपने कार्यालय जाते हैं और शोधार्थियों की सहायता करते हैं और इसके बदले में उन्हें विश्वविद्यालय से एक ठीक-ठाक राशि मिल जाती है । वे हर वर्ष चार महिने के लिए हमारे गृह-जिले झुंझुनू (राजस्थान) जाते हैं और अपनी सारी बचत जो कोई १०-१५ लाख होती होगी, सामाजिक कार्यों में गुप्त रूप से सहयोग के रूप में दे आते हैं । इस तरह अब तक कोई ५ करोड़ रुपए दान कर चुके होंगे । बहुत सादगी से रहते हैं, उनके मन में एक अद्भुत शांति है और इसी कारण अब भी पूर्ण स्वस्थ हैं ।

आप चाहें तो हमारे इन मित्र से धन का सदुपयोग सीख सकते हैं । जब हमारे मित्र लाख-डेढ़ लाख डालर वार्षिक कमाकर ही इतना कुछ कर सकते हैं तो आपके पास तो अब भी अस्सी करोड़ डालर बचे हैं । वरना जीवन तो किसी का भी स्थाई नहीं है । बीतते कितनी देर लगती है । फिर न तो गहनों का भार उठेगा, न खाना पचेगा और आईना भी डराने लगेगा । किराए की सुन्दरियाँ यदि पैसों के लालच में आपसे कमर में हाथ डलवा भी लेंगी तो भी आप तो अपनी हालत जान ही रहे होंगे ।

भगवान आपकी यह आर्थिक झटके से प्राप्त सद्बुद्धि बनाए रखे जिससे आप अपने बचे हुए धन और समय का सदुपयोग कर सकें वरना कबीर जी ने तो कह ही रखा है-

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ।

और अगर आजकल की हिंदी में समझना चाहें तो हम एक बहुत प्यारे इंसान और अपने कवि मित्र भगवत रावत की कविता से उद्धृत करते हैं-

डोंगियाँ नहीं डूबतीं
डूबते हैं माल-असबाब से भरे जहाज ।

२७-१०-२०१२

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Sep 30, 2012

मनमोहन सिंह की आर्थिक नीति और देश की रामायण

आदरणीय मनमोहन जी,

आपने १९ दिसंबर २००७ को राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में अगली पंचवर्षीय योजना पर विचार-विमर्श के दौरान बताया था कि महँगाई की मार के लिए तैयार रहें । धन्यवाद । और अब आपने २७ सितम्बर २०१२ को कहा है कि सुधार एक सतत प्रक्रिया है और ये जारी रहेंगे । इसलिए आज फिर से आपको अपनी इस प्रतिबद्धता के लिए बधाई देने का मन हो रहा है । स्वीकार करें ।

इस प्रसंग में एक चुटकला सुनाएँ ? एक किरायेदार ने रात के दो बजे अपने मकान मालिक को जगा कर कहा कि मैं इस महिने का किराया नहीं दे पाऊँगा । मकान मालिक ने पूछा- यह बात तुम काल सवेरे भी कह सकते थे फिर इस समय आने की क्या जरूरत थी ? किरायेदार ने उत्तर दिया- मैं अकले ही इस चिंता में परेशान क्यों रहूँ । सो आपको बताने चला आया । 


तो उस किरायेदार की तरह से आपने भी अपनी चिंता हमारे सर डाल दी । पर याद रखिए हम परेशान होने वाले नहीं हैं । हमें तो पहले ही पता था कि इस या उस कारण से महँगाई बढ़ने वाली ही है । इसे किसी का बाप नहीं रोक सकता । बेकारी कभी कम हुई है ? हमें तो आश्चर्य इस बात का हो रहा है कि आप परेशान और चिंतित हैं । यहाँ तो एक छोटा सा एम.एल.ए. तक चिंतित नहीं है । एक बार सरपंच का चुनाव जीतने के बाद आदमी ज़िंदगी भर जीप में घूमता है । चार चमचे साथ, हाथ में मोबाइल, झकाझक कुर्ता-पायजामा, दिन भर सिगरेट और चाय फिर शाम को दारू । आप तो प्रधान मंत्री हैं । कोई बुरी आदत भी नहीं है । खाना भी कम ही खाते है और गेंहूँ तो और भी कम भी । ज्यूस, फल, मेवे ही खाते होंगे । मोरारजी की गाय तो वह गिज़ा खाती थी कि कल्पना करना तक हमारे बस का नहीं है । और फिर आपको तो अच्छी पेंशन मिलती है । यदि अगली बार प्रधानमंत्री या सांसद भी नहीं रहे तो भी भूतपूर्व की हैसियत से अच्छी-खासी पेंशन मिलेगी । एक-दो पेंशन पहले से भी मिल रही होगी । हमें तो चालीस साल की मास्टरी के बाद कुल छः हजार रुपए पेंशन मिलती है । हम तो उसी में मस्त हैं ।

वैसे महँगाई और बेकारी की चिंता आपने खामखाँ ही की । रोजगार देना न तो सरकार की जिम्मेदारी है और न ही कभी होने वाली । जिसने चोंच दी है, चुग्गा देना उसी की जिम्मदारी है । लोग अपनी फाड़े-सिएँगे । आप तो विकास में लगे रहिए । आजकल तो यहाँ के कारखानों में ही तालाबंदी कोई बड़ी बात नहीं है फिर विदेशी कंपनियों पर तो हमारे नियम लागू भी नहीं होते । इन्हें क्यों हमारा दुःख सताने लगा ? इन्हें न शर्म है, न दया, न जिम्मेदारी । और फिर यहाँ की जनता हर हाल में मस्त है । कितनी ही महँगाई बढ़े पर गुटका, शराब, बीड़ी, सिगरेट, चाय सब चलते रहेंगे । समारोह, शादी, त्योहार, पटाखे, मेले बदस्तूर जारी रहेंगे ।

वैसे यदि बेकारी और महँगाई के कारणों का विश्लेषण करना चाहें तो सुन लीजिए । आप विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं । हमने भी आज से पैंतालीस बरस पहले बी.ए. में अर्थशास्त्र पढ़ा था । उसमें माल्थस की एक थ्योरी आती है जिसमें वे कहते है कि एक आदमी अगर एक मुँह लाता है तो दो हाथ भी लाता है । बढती जनसंख्या से डरने की जरूरत नहीं है । यह बात उसने योरप के लिए कही थी जहाँ जनसँख्या वृद्धि लगभग स्थिर सी है पर हमने मूर्खों की तरह से उसे अक्षरशः मान लिया और मूर्खों की तरह से पैंतीस करोड़ से एक सौ बीस करोड़ हो गए । और सरकार है कि उसके लिए कोई कठोर कदम उठाने से घबराती है । कौन बिना बात अपनी कुर्सी खतरे में डाले ? अपनी कौनसी जिम्मेदारी है ? जो पैदा करेगा, सो भुगतेगा ।

उलटे वोट बैंक बनाने के चक्कर में सरकारें वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी भत्ता, सस्ता अनाज, मुफ्त बिजली, धोती, टेलीविजन बाँटने जैसे हरामखोरी बढ़ाने वाले नुस्खे अपनाती हैं । कांग्रेस ने तो गुजरात में वोट के बदले तेल, दालें, अनाज और केरोसिन का वादा भी किया है । इसके स्थान पर कोई भी नेता इन लोगों को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाने की नहीं सोचता । ठीक भी है, काम की बजाय खैरात बाँटने में घपले की गुंजाइश ज्यादा निकल सकती है । आत्मनिर्भर होने पर क्या पता कोई वोट दे या न दे । दे तो सोच समझकर दे । दोनों ही स्थितियों में भ्रष्ट राजनीति को खतरा नज़र आता है ।

पहले तो मंदी का अर्थ हम यह समझते थे कि सब चीजें सस्ती हो जाएँगी पर अब पता चला कि मंदी का मतलब है- आदमी सस्ता हो जाएगा । उसे टके कोस दौड़ाया जा सकेगा । डबल मार- महँगाई और बेकारी । आपको इस स्थिति के लिए आश्चर्य हो रहा होगा पर हमें कोई शंका नहीं थी । जब यह नई आर्थिक नीति शुरु हुई थी तभी हमारा माथा ठनका था । निवेशकों को आपमें कोई खुशबू थोड़े ही आती है जो नोट लुटाएगा । उसने तो चार के चालीस बनाने के लिए धंधा किया है । अब तक तो जितना लगाया था उससे चालीस गुना कमाकर ले गए । अब तामझाम समेट भी लें तो क्या फर्क पड़ता है ? आपको इनमें कोई परोपकारी संत नज़र आया होगा । हम तो जानते हैं कि हमेशा ही उपनिवेश से पहले निवेशक आते हैं । इतिहास तो यही है । आपने, चिदंबरम जी ने, और स्वर्गीय नरसिंह राव जी ने पढ़ा या नहीं, पता नहीं ।

आप हमेशा कहते हैं कि इस मुक्त बाजार वाली आर्थिक नीति से पीछे नहीं हटा जा सकता । पता नहीं किस का क्या लेकर खा रखा है ? दृढ निश्चय हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं है । क्या अंग्रेजों का जाना आसान नज़र आता था ? पर उन्हें जाना पड़ा । यह बात और है कि उनके जाने के बाद जो आए वे उनके भी बाप निकले देश को लूटने के मामले में । और अब भी नेता उन्हीं के एजेंटों के रूप में काम कर रहे हैं । कई नेता तो विदेशी कंपनियों के 'पे-रोल' पर हैं ।

कोई बात नहीं भाई साहब, आप तो रामायण-पाठ चालू रखिए । हमने तो सदा से पीठ खोल कर रखी है डंडे खाने के लिए । फिर चाहे मारने वाले आप हैं या अंग्रेज थे - क्या फर्क पड़ता है ? लोहे का स्वाद तो घोड़े को पता होता है, सवार क्या जाने ? 


खैर, 'रामायण-पाठ' वाली बात स्पष्ट करके कथा समाप्त करें । एक चरवाहा था । उसकी बकरी बीमार पड़ी । वह पंडित जी के पास गया । पंडित जी ने कहा- रामायण का पाठ किया कर । चमत्कार ! इधर रामायण शुरु और उधर एक बकरी मर गई । बेचारा चरवाहा फिर पंडित जी से पास गया । पंडित ने कहा- चिंता मत कर, भगवान पर भरोसा करके रामायण चालू रख । रामायण चलती रही और बकरियाँ मरती रहीं । अंत में सारा रेवड़ निबट गया । एक मेमना बचा । अब चरवाहे के पास कोई काम नहीं । सो घुटनों में सर दिए बैठा था कि मेमना उसके पास चला आया । मेमना तो चंचल होता ही है । लगा उसका मुँह चाटने । चरवाहे को गुस्सा आ गया । कहने लगा- साले, क्यों मरने के काम करता है ? 'रामायण' ने तो बड़े-बड़ों को निबटा दिया । तू तो एक चौपाई का भी नहीं है । 

सो आप तो आर्थिक सुधारों का 'रामायण-पाठ' चालू रखिए । रेवड़ का तो राम रखवाला है ।

२८ सितम्बर २०१२

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Sep 13, 2012

ड्रिंक और डेमोक्रेसी उर्फ़ बराक ओबामा की बीयर

ओबामा जी,
थ्री चीयर्स । आशा है चुनाव अभियान अच्छी तरह से चल रहा होगा । दिन, चुनावी वादों से लोगों को बहलाने में और शाम, बीयर पीने-पिलाने में गुजर रहे होंगे । हमें विश्वास है कि आप निश्चय ही चुनाव जीतेंगे । जब से क्लिंटन जी ने दो-दो टर्म कुर्सी पकड़े रखने का चलन शुरू किया है तब से कोई भी दो टर्म से पहले पीछा नहीं छोड़ रहा है । आपके दो टर्म के बाद फिर रिपब्लिकन आने ही हैं जैसे तमिलनाडु की जनता जयललिता और करुणानिधि के बीच पेंडुलम की तरह झूल रही है वैसे ही अमरीकी जनता डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन की बीच धक्के खा रही है । बारी-बारी से नागनाथ जी और साँपनाथ जी में से ही किसी एक को आना है । हम तो आपके जन्म (१९६१) से पहले ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव कराते रहे हैं । २००२ में रिटायर होने के बाद इस लोकतान्त्रिक कर्म से पीछा छूटा है ।

हम अपने इसी अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि यह चुनाव आप ही जीतेंगे । इसीलिए हमने आपको शुरु में ही थ्री चीयर्स कह दिया । यह आपकी विजय के लिए भी है और आपकी बीयर के लिए भी जिसके बारे में अभी २ सितम्बर २०१२ को समाचार आया है कि आप व्हाईट हाउस में अपनी कोई निजी नुस्खे वाली बीयर बनाते हैं और पीते हैं (वीडियो)। जिस तरह से आपने बीयर को राष्ट्रीय सम्मान दिया है वह अनोखा, अद्भुत और अभूतपूर्व है । वैसे यह ओपन सीक्रेट है कि ड्रिंक और डेमोक्रेसी का हमेशा से घनिष्ट संबंध रहा है । हमारे यहाँ तो उम्मीदवार चुनाव के लिए फार्म भरने बाद में जाता है और दारू का भण्डारण पहले करता है । सभी दारू का खुला प्रयोग करते हैं । सभी मतदाता जिससे भी मिले दारू लेते हैं और उसी मधुमती भूमिका में वोट डाल आते हैं । अब नशे की स्थिति में कौन सा बटन दबा, किसे पता ? जो जीत जाता है- सब यही कहते हैं कि हमने उसे ही वोट दिया था । मगर जीतने वाला जानता है कि जीती दारू है । हमारे एक मित्र, जिन्हें हम पूनम पांडे की तरह पूरी पारदर्शिता से जानते थे, की एक बार एक साथ कई अखबारों और पत्रिकाओं में कई गज़लें छपीं तो हमने कहा- बंधु, आजकल तो बहुत छप रहे हो तो वे सकुचाकर बड़ी ईमानदारी से बोले- भाई साहब, आप तो जानते हो । मैं क्या, बोतल छप रही है ।

सो हम तो कहते हैं कि आप पिछली बार भी दारू के बल पर ही जीते थे और इस बार भी दारू के बल पर ही जीतेंगे । आप कहेंगे कि आपने पिछले चुनावों में तो दारू की कोई बात नहीं की थी । लेकिन याद कीजिए आपने कहा था- वी कैन । आपके चुनावी नारे वाले 'कैन' का क्या मतलब होता है पता नहीं, लेकिन बीयर का 'कैन' सभी समझते हैं और उसी की आशा में लोगों ने आपको वोट दे दिया । अब आपने अपने किसी आदमी से सूचना के अधिकार के तहत एक अप्लीकेशन लगवा कर, ईमानदारी का नाटक करते हुए अपना बीयर वाला नुस्खा जग-जाहिर कर दिया । वैसे यदि आपमें जन-कल्याण का इतना ही ज़ज्बा होता तो व्हाईट हाउस में चुपचाप दारू बनवा कर मज़े से पीते रहने की बजाय अंदर बीयर का एक बड़ा सा ओवर-हैड टेंक बनवा देते और उसका एक कनेक्शन बाहर लगवा देते । जिसका मन हो नल खोले और मस्त हो जाए । यदि आप ऐसा करते तो यह नौबत ही नहीं आती । लोग वैसे ही आपको आजीवन राष्ट्रपति बना देते । वैसे इसमें जनता का जाता भी क्या । होना तो वही है जो इस देश की विभिन्न लॉबियाँ जैसे गन लॉबी, पेट्रोल लॉबी, कार लॉबी, कोल्ड ड्रिंक लॉबी, पिज्जा लॉबी आदि चाहेंगी ।
अमरीका की राजनीति में ऐसा कहा जाता है कि जनता उसी को वोट देती है जिसके साथ उसे बीयर पी सकने की उम्मीद होती है । आप जनता के इस विश्वास पर खरे उतरेंगे । बुश साहब ने तो सुनते हैं कि आखिरी वक्त में तौबा कर ली थी और इन रोमनी महाशय के बारे में तो लोग जानते ही हैं कि ये पीते नहीं ।

सोचिए बिना दारू के क्या जीवन ? कहाँ से हिम्मत आए और कहाँ से ताज़गी और कहाँ से दिन भर भौंकने और धक्के खाने की शक्ति । हमारे इलाके से तो एक सज्जन चुनाव में खड़े हुआ करते थे । उनके हर चुनाव कार्यालय में दारू का अटूट भंडार रहता था । कोई भी आए, कितनी भी पिए, पूरी छूट । वे खुद भी हर चुनाव सभा की समाप्ति पर अगली सभा के लिए जाते समय कार में बैठकर पीते हुए जाते थे । और इस तरह से हर सभा में वैसे ही तरोताज़ा और मस्त । कभी चुनाव नहीं हारे । सो आप तो दारू की सप्लाई बनाए रखिए ।

हमारे बच्चन जी ने ऐसे ही नहीं कहा है- ‘मंदिर मस्जिद बैर कराते, प्यार कराती मधुशाला’ । न पीने वाले के मन में भले ही खोट आ जाए लेकिन हम-पियाला लोगों को देखिए कैसे खुद से पहले, साथ वाले को बढ़-चढ़कर खिलाने-पिलाने की हसरत रहती है । कहने को तो कोई यह भी कह सकता है कि राष्ट्रपति होकर घर में दारू बनाते हैं । तो इसमें क्या है हमारे यहाँ भी ठाकुर लोग अपने घरों में दारू बनाया करते थे । कुछ वर्षों पहले राजस्थान में उन्हें 'रजवाड़ी दारू' के नाम से लाइसेंस दिया गया था । अमरीका में भी राष्ट्रपति को अपने नुस्खे और अपने नाम की दारू बनाने और बेचने का अधिकार होना चाहिए । वैसे तो इस साली कुर्सी में ही इतना नशा है कि आदमी को होश नहीं आता लेकिन जनता के पास तो पाँव के नीचे ज़मीन ही नहीं । ऐसे में उसमें क्या नशा ? उसके तो होश तक हिरण हो रहे हैं । इसलिए उसे तो वास्तविक दारू चाहिए गम गलत करने के लिए । सत्ताओं के भरोसे किसके गम दूर हुए हैं ?

इसलिए आप भी सभी नेताओं की तरह केवल उजले सपनों की ही नहीं बल्कि व्हाईट हाउस की बोतल वाली रजवाड़ी बीयर पिलाते रहिए और चुनाव जीतकर लोकतंत्र को सुरक्षित रखते रहिए । वैसे लोकतंत्र हमेशा सुरक्षित रहता है- कभी डेमोक्रेट का तो कभी रिपब्लिकन का । कुल मिलाकर लोकतंत्र को कभी कोई खतरा नहीं । हो सके तो हमारे जैसे आपके शुभेच्छु को व्हाईट हाउस में खींची बीयर का एक क्रेट भिजवा दें तो यहीं घर बैठे ही आपकी जीत को अभी एडवांस में ही सेलेब्रेट कर लें वरना जीत के बाद कौन किसे याद रखता है ?

वैसे भी न तो आपको तीसरी बार चुनाव में खड़े होना और न हम रिजल्ट वाले दिन यहाँ रहने वाले क्योंकि हमारा वापसी का टिकट नवंबर में है ।

2012-09-11
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Sep 11, 2012

साइलेंस इज गोल्डन

मनमोहन जी,
आपके चुप रहने पर भारत के विरोधी दल विशेष रूप से भाजपा और उसके सहयोगी दल हल्ला मचा रहे हैं और अब तो आपकी अमरीकी अखबारों में होने वाली निंदा का सन्दर्भ भी देने लगे हैं । आजकल हम अमरीका में हैं लेकिन हमने तो कहीं भी आपकी कोई निंदा नहीं सुनी । अरे, यहाँ जब लोगों को अपने बीवी-बच्चों से बात करने की फुर्सत नहीं है तो किसके पास फुर्सत है किसी की निंदा करने की । जिनके पास कोई काम नहीं, वे ही समय बिताने के लिए ऐसी अन्त्याक्षरी कर रहे हैं । जब खुद सत्ता में आ जाएँगे तो अभिनन्दनों और विदेश यात्राओं से ही फुर्सत नहीं मिलेगी । 

यहाँ तो आपकी बात तो दूर, हमने सोनिया जी के आने-जाने की ही कोई खबर नहीं पढ़ी । वैसे भी आजकल यहीं क्या, भारत तक में अखबार और किताबें पढ़ना बंद हो चुका है फिर किसी एक दिन के कोई एक अखबार में कोई कुछ लिख देता है तो क्या फर्क पड़ता है । अब तक तो उस दिन का अखबार कूड़ा उठाने वाला ट्रक लेकर कहाँ लैंड फिलिंग में डाल चुका होगा । और फिर समझदार लोग जानते हैं कि अमरीका में आपकी आलोचना इसलिए हो रही कि आपने हवाई जहाजों का ठेका उसे देने की बजाय फ़्रांस को दे दिया । अब यह तो नहीं हो सकता कि आप सारे ठेके अमरीका को ही दे दो । और भी देश हैं । राजनीति में बेलेंस बनाकर रखना ही पड़ता हैं ।

आप अपनी आलोचना करने वालों को आपके बारे में बुश साहब और ओबामा जी द्वारा दिए गए वक्तव्य दिखा सकते हैं लेकिन उससे भी कोई फायदा नहीं क्योंकि जिसे आलोचना करनी है वह तो करेगा हीआपने तो बाप-बेटे की वह कहानी पढ़ी ही होगी जिसमें वे अपने गधे के साथ बाजार जा रहे हैं । बेटा गधे पर बैठा था और बाप पैदल । उन्हें देखकर बुजुर्गों ने कहा कैसा ज़माना आ गया है कि बाप पैदल चल रहा है और बेटा गधे पर बैठा है । बेटे ने बाप को गधे पर बैठा दिया और खुद पैदल चलने लगा । आगे कुछ औरतें मिलीं और कहने लगीं- देखो, बुड्ढे को शर्म नहीं आती । खुद तो ठाठ से गधे पर बैठा है यह मासूम बच्चा पैदल चल रहा है । तो पिता-पुत्र दोनों गधे पर बैठ गए । तो लोगों ने कहा- अरे ठीक है, अपना जानवर है पर क्या बेचारे जानवर को मार ही देंगे, देखो दो-दो लदे हुए हैं । कुढ़कर दोनों पैदल चलने लगे तो लोगों ने कहना शुरु कर दिया- कैसे बेवकूफ हैं जो जानवर होते हुए भी पैदल चल रहे हैं । 


सो हमारे अनुसार आप उन आप्त वाक्यों की तरह ठीक कर रहे है- 'जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले' या 'कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना' । मीना कुमारी की भी एक बहुत हिट फिल्म है- मैं चुप रहूँगी । और फिर भारतीय कहावतों में ही नहीं, अंग्रेजी में भी कहा गया है- स्पीच इज सिल्वर, साइलेंस इज गोल्डन । सो ऐसे ही थोड़े कहा है ? दुनिया की सारी अर्थव्यवस्था ही सोने के आधार पर चलती है । और अगर सोने का दूसरा अर्थ लिया जाए तो अधिक सोने वाला दीर्घायु होता है जैसे कि अपने खोल में छुपा कछुआ । सोने से ताज़गी आती है, स्लीपिंग ब्यूटी सबसे सुन्दर मानी जाती है । जब डाक्टरों को कुछ समझ में नहीं आता तो वे मरीज को सोने की दवा दे देते हैं ।

आप तो नरसिंह राव जी की पसंद है और उन्हीं के आग्रह पर ही इस पिछड़े देश को अपने आर्थिक सुधारों द्वारा विश्व-पटल पर स्थापित करने के लिए मंत्रीमंडल में शामिल हुए । हमने 'राजनीति में आए' नहीं कहा क्योंकि राजनीति में तो आप न तब थे और न अब । हमें आपके दक्षिण दिल्ली से विजय कुमार मल्होत्रा के सामने लड़े गए आपके लोकसभा-चुनाव की याद है । जब 'नर सिंह' होकर भी राव साहब कभी नहीं दहाड़े तो आप ही को क्या पड़ी है । जैसे उन्होंने मौन के बल पर पाँच साल शांति से निकाल दिए तो आपके भी पन्द्रह बरस निकल जाएँगे । यदि आप भी इन्हीं लोगों की तरह झखते रहते तो उलझे रहते मगर यह मौन का ही प्रताप है कि लोग कोमनवेल्थ गेम्स, टू जी भूल चुके हैं सो कुछ दिन में यह 'कोयला' भी भूल जाएँगे ।

हमारे एक मित्र थे । वे मास्टरी के अलावा एक्स्ट्रा इनकम के लिए डाक्टरी में हाथ आजमा लिया करते थे । एक बार एक रोगी को बुखार था सो उन्होंने इंजेक्शन लगा दिया और दुर्भाग्य से वह इंजेक्शन पक गया । मरीज कहने लगा- मास्टर जी, बुखार की तो देखी जाएगी आप तो मेरा यह जो इंजेक्शन पक गया है इसे ठीक कर दो । सो आप निश्चिन्त रहिए । इसी सिद्धांत के आधार पर सब ठीक हो जाएगा ।

और फिर यह भी है कि अधिक बोलने वाले की कोई सुनता भी नहीं । जो कम बोलता है उसका एक-एक शब्द लोग ध्यान से सुनते है, तरसते है जैसे कि अटल जी के बोलते-बोलते बीच में आने वाले ब्रेक के दौरान लोग अगले शब्द की कितना उत्सुक होकर प्रतीक्षा करते थे ? जैसे कि 'पाकीज़ा' में 'पायल निगोड़ी' में । सुषमा स्वराज के लंबे और ओजस्वी भाषण पर कैसे आपका वह शे'र 'माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूँ मैं' भारी पड़ा था । ऐसे ही जब कोई चंदा या भीख माँगने आता है तो जो लोग उसको समझाने लगते हैं वे उलझ जाते है और जो उनकी किसी बात का उत्तर नहीं देते उनका पीछा जल्दी छूट जाता है । कालीदास की विद्वान बनने से पहले की कहानी तो सब जानते ही हैं कि वे मौन रहे और विद्यावती से जलने वाले विद्वानों ने ही कालीदास के संकेतों का अर्थ लगाकर कैसे विद्यावती को हरा दिया और कालीदास को जिता दिया । सो आप भी दिग्विजय सिंह जैसे मनीषियों की व्याख्या-क्षमता पर विश्वास कीजिए और चुप रहिए । वैसे हमें विश्वास है कि आप हमारी सलाह के बिना भी इस व्रत और समाधि को भंग नहीं करते । हम तो कहते है कि आप तो गाँधी जी के तीन बंदरों की तरह बोलना ही क्या, सुनना और देखना भी बंद कर दीजिए । और हमारा तो मानना है कि व्यक्ति सच्चे मौन में तभी तक रह सकता है जब तक वह सुनना और देखना बंद रखता है ।

एक कहानी है । एक राजा के सिर में सींग थे लेकिन किसी को पता नहीं था । एक बार एक नाई ने उनकी हजामत बनाते हुए उन सींगों को देख लिया । उस गरीब का तो यह देखकर पेट ही फूल गया । किसी को बताए तो राजा का डर और न बताए तो पेट दर्द । अंत में सुनसान स्थान पर जाकर एक पेड़ से लिपटकर उसे अपनी बात कह दी । अब संयोग देखिए कि उस पेड़ की लकड़ी से एक कारीगर ने एक सारंगी बनाई । जब उसे बजाया जाता तो उसमें से आवाज़ निकलती- राजा के सिर में सींग । सो कहीं भी, कभी भी, कुछ भी बोला हुआ पता नहीं कब दुःख दे जाए इसलिए सबसे भली चुप ।

आप तो जानते हैं कि साधना और भक्ति में बाधा डालने के लिए इंद्र तरह-तरह के भूत-प्रेत, शैतान और अप्सराएँ भेजता है लेकिन सच्चे साधक निर्विकार भाव से साधना में लीन रहते हैं । वाचाल लोग मौन का महत्त्व क्या जानें ? जब बाहर के शोर से विरत होकर साधक स्वयं में स्थापित होता है तो 'अनहद' नाद सुनता है । तब सहस्रार से अमृत झरता है । जैसे योगासनों में सबसे कठिन है शवासन वैसे की सबसे बड़ी साधना है- मौन व्रत । गाँधी जी का भी अनशन के बाद दूसरा सबसे बड़ा हथियार मौन ही था ।

गाँधी को कुछ आलोचकों ने 'मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी' कह-कह कर उन्हें एक 'प्रतीक' बना दिया । किसी का जीते जी प्रतीक बन जाना सबसे बड़ी उपलब्धि है । भले ही आपका पूनम पांडे के साथ कोई संबंध नहीं है लेकिन मान लीजिए कि जब कोई ‘चिकनी चमेली’ या ‘शीला की जवानी’ या ‘बीड़ी जलाइले’ जैसा महान गीतकर यह लिखे-
मैं पूनम पांडे हो गई रे
पप्पू तेरे कारण ।
तो पूनम पांडे का अर्थ बताने की जरूरत नहीं रह जाती । वह एक क्रिया का पर्याय बन गई है । यही जीते जी प्रतीक या मिथक बनना है । आप भी उस ऊँचाई तक पहुँच गए है सो हमारे हिसाब से तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है जो महात्मा गाँधी के बाद केवल आपको ही हासिल हुई है ।

मुबारक हो ।

2012-09-08

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Jul 26, 2012

नाम और काम

नाम और काम

(अखिलेश यादव ने यू.पी.मे मायावती द्वारा बदले गए जिलों के नाम फिर से बदल दिए हैं -२१ जुलाई २०१२ )

जिले, सड़क और चौक के रहे बदलते नाम |
केवल नाटक ही किया, किया न कोई काम |
किया न कोई काम, नाम कैसे पाओगे |
जैसे आए थे वैसे ही चले जाओगे |
कह जोशी कविराय करो जनता की सेवा |
वरना नहीं मिलेगा कोई पानी देवा |

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Jul 24, 2012

कलियुग केवल नाम अधारा


आज चाय के साथ पोती ने एक पर्ची भी रख दी जिस पर लिखा था- एम. सिंह ।
इस नाम का कोई व्यक्ति हमारे ध्यान में तत्काल नहीं आया । हमारे अखबार वाले का नाम महाबीर सिंह ज़रूर है लेकिन वह कभी इस अंदाज में तो नाम नहीं लिखता । वह स्वयं को महाबीर कहता है और हम भी उसे महाबीर के नाम से ही बुलाते हैं । बनाने को तो हम इससे 'मुलायम सिंह' या 'मनमोहन सिंह' भी बना सकते थे मगर हम अपनी औकात जानते हैं । सो बिना कोई मगज पच्ची किए हमने पोती से उस आगंतुक को अंदर बुलाने के लिए कह दिया ।

देखा तो पाया कि वह आगंतुक है तो तोताराम लेकिन उसने स्केच पेन से पृथ्वीराज चौहान और राणा प्रताप जैसी धाँसू मूँछें बना रखी हैं । हमें हँसी आ गई, पूछा- आज यह क्या नाटक है ? कहने लगा- आज मैंने अपना नाम बदल लिया है । अब मुझमें कोई राम-रहीम नहीं बचा है । अब मैं 'सिंह' हो गया हूँ और 'तोताराम' से मिट्ठू बन गया हूँ । और शोर्ट में मेरा नाम है- एम. सिंह ।

हमने कहा- इस बहादुर और शक्तिशाली प्राणी को 'सिंह' नाम तो हमने दिया है वरना न तो सिंह को अपना नाम मालूम है और न ही हिरण को उसका नाम जानने की ज़रूरत है । एक को मालूम है कि यह मेरा भोजन है और दूसरे को मालूम है कि यह मुझे खा जाएगा इसलिए मुझे इससे बचना है । यह तो मुलायम सिंह के भाग्य और मायावती के सुकर्मों से छींका टूट गया वरना देखा नहीं नतीजे आने से पहले मुलायम 'सिंह' जो आज दहाड़ रहे हैं, कैसे पिलपिले हो गए थे और मनमोहन 'सिंह' को आज कैसे ‘नपुंसक’ कह कर बालठाकरे, ‘सोनिया का गुड्डा’ कह कर ब्रिटेन और ‘अंडर अचीवर’ कह कर अमरीका गरिया रहे हैं ?

तोताराम ने प्रतिवाद किया- नाम का भी महत्त्व होता है । सोच, यदि महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि के नाम घासीराम या चौथमल जैसे होते तो कैसा लगता या कल्पना कर कि यदि अकबर महान के दरबार में आगमन की सूचना केवल यह कह कर दी जाती कि मिस्टर अकबर पधार रहे हैं तो कैसा लगता ? और दूसरी तरफ यदि अलाँ-फलाँ-ए-मुल्क, समथिंग-समथिंग-ए-हिंद, आदि-आदि ज़लवा अफ़रोज़ हो रहे हैं तो बात ही कुछ हो जाती है । लगता है कोई 'चीज़' आ रही है । आज भी किसी 'हरामजादे' नेता के सामने युवा हृदय सम्राट, या 'फलाँ जाति या वर्ग के मसीहा' लगा देने से रौब पड़ता है । ठीक है, मिट्ठू का मतलब 'तोता' ही होता है और 'तोता भी किसी पिंजरे में पड़ा हुआ' मगर आगे वाला 'सिंह' भी तो देख, भले ही पीछे से गोबर निसृत हो रहा हो ।

हमने फिर अपनी टाँग फँसाई, शेक्सपीयर ने भी कहा है- व्हाट्स देअर इन नेम ? नाम में क्या रखा है ?

तोताराम कहाँ मानने वाला था, बोला- नाम में कुछ क्यों नहीं है ? जब से बंबई मुम्बई, कलकत्ता कोलकाता, मद्रास चन्नई, पांडीचेरी पुदुचेरी, पूना पुणे हुआ है तब से वहाँ के लोगों की स्थिति कितनी सुधर गई है । बिजली, पानी, रोजगार, कानून व्यवस्था आदि की कोई समस्या नहीं है ।

हमने छेड़ा- और मुम्बई में आतंकवादी हमला तो नाम परिवर्तन के बाद ही हुआ है ना ?
तोताराम कहाँ चूकने वाला था, बोला- हाँ, यदि पहले वाला नाम रहा होता तो किसे पता है, जितने मरे उससे दुगुने लोग मरते ? मायावती जी द्वारा अमेठी, हापुड, कासगंज, शामली, अमरोहा, हाथरस आदि के नाम बदलने से इन जिलों का कितना विकास हुआ था ? अब जब इनके नाम फिर बदल दिए गए हैं तो इनका विकास और भी अधिक होगा वरना क्या अखिलेश जी को यू.पी. में करने को और कोई काम नहीं हैं जो इन जिलों के नाम बदल रहे हैं ।

और तभी तो तुलसीदास जी ने कहा है- 'कलियुग केवल नाम अधारा' अर्थात कलियुग में काम-धाम करने की कोई ज़रूरत नहीं रहेगी लोग नाम से ही काम चलाया करेंगे ।

हमने सुझाव दिया- तो फिर क्यों न अपने देश का नाम भूल सुधार करते हुए 'इण्डिया' से 'भारत' रख दिया जाए । शायद गौरव का कुछ भाव जगे ।

तोताराम ने कहा- नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । अल्पसंख्यकों के साथ लोकतंत्र में इतना अन्याय कैसे किया जा सकता है ?

2012-07-23

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

Jul 23, 2012

माँगे का कम्बल

प्राहजी मनमोहन जी,
सतश्री अकाल । यह क्या हुआ हाल ? हमारे भारत छोड़ते ही लोग खींचने लगे खाल । चलो, अपनों की तो उन्नीस-बीस बर्दाश्त भी की जा सकती है पर अब तो जिसके जो मन में आया बक रहा है ।

बाल ठाकरे जी तो अभी तक 'बाल' हैं इसलिए वे चाहे जिस को कुछ भी कहने का बचपना कर सकते हैं । जब किसी की पत्नी मैके चली जाती है तो साठ साल के बूढ़े ठूँठ में भी दो दिन बाद कल्ले फूटने लग जाते हैं । फिर वे तो विधुर हैं इसलिए पौरुष की बातें कर सकते हैं पर यह क्या कि पाँच-सात दिन पहले आपको 'राजनीतक रूप से नपुंसक' कह दिया ? अब लोग नपुंसकता के प्रकार को तो याद नहीं रखेंगे बस उन्हें तो 'नपुंसक' ही याद रहेगा । आदमी अपनी मर्ज़ी से ब्रह्मचर्य धारण कर ले तो संत या ब्रह्मचारी जी के नाम से आदरणीय हो जाता है । स्त्री अपनी मर्जी से अपने फिगर के लिए बच्चे पैदा न करे तो यह बात और है वरना पुरुष के लिए नपुंसक और स्त्री के बाँझ सबसे बड़ी गाली है ।

हमारे एक मित्र है जो कल तक चौहत्तर वर्ष की उम्र में भी जवानों जैसी डींगें मारते थे । गत वर्ष उनकी पौरुष ग्रंथि में कुछ समस्या पैदा हो गई तो डाक्टरों के उस ग्रंथि को निकाल ही दिया । हमारे मित्र कहते हैं कि इससे उनके पौरुष पर कोई असर नहीं पड़ा पर लोगों को विश्वास हो तब ना ? लोग अब उन्हें नपुंसक मानने लगे हैं । कुछ लोग किसी ग्रंथि के कारण कुंठित होते हैं और हमारे मित्र हैं कि ग्रंथि से मुक्त होकर कुंठित रहने लग गए हैं । और फिर आपकी तो इस ग्रंथि के ऑपरेशन का समाचार सारी दुनिया में फ़ैल चुका है ।

हमें आपकी सच्चरित्रता पर पूरा विश्वास है । आप हमेशा से इतने ही सज्जन हैं । एक बुजुर्ग कह रहे थे कि हम जवानी में जितने ताकतवर थे आज भी उतने ही ताकतवर हैं । हमारी जवानी पर उम्र ने कोई असर नहीं डाला । लोगों ने आश्चर्यचकित होकर पूछा तो कहने लगे- वो पत्थर देख रहे हैं ना, वह हमसे न तब उठता था और न अब उठता है ।

जब आप १९९१ में पहली बार योरप और अमरीका की पसंद के रूप में उनकी सिफारिश पर वित्त मंत्री बनाए गए थे तब आपने इस देश की गुलाम अर्थव्यवस्था को पहली बार मुक्त किया और देश की सारी श्रम-शक्ति को बँधुआ बना दिया । परिणाम यह हुआ कि मजदूर को पीलिया हो गया और और शेयर बाजार एक छिनाल औरत या बेलगाम मुँहजोर घोड़ी की तरह अनियंत्रित हो गया । लोग कहने लगे कि अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है जब कि अब पता लग रहा है कि यह विकास किसी नाजायज़ गर्भवती औरत के निखार की तरह था । इसी रास्ते पर चल कर खुद योरप और अमरीका की हालत खराब हो रही है तो आप कौनसे ऊपर से उतर कर आए हैं ?

पर हमें तो इस बात से सबसे अधिक दुःख हो रहा है कि कल तक जो योरप और अमरीका आपको अवतारी और चमत्कारी पुरुष बताया करते थे वे ही आज कल आपकी पगड़ी उछालने लगे हैं । कल तक ओबामा जी कहा करते थे कि उन्हें आपसे मिलने का इंतज़ार रहता है या जब मनमोहन जी बोलते हैं तो सारी दुनिया सुनती है । आपको उनके यहाँ की संस्थाओं ने कई अवार्ड दे दिए और अब टाइम मैगजीन वाले आपको अंडर अचीवर अर्थात् फिसड्डी बता रहे है । आप कहेंगे कि यह तो उस मैगजीन की अपनी राय है । इसमें ओबामा जी क्या कर सकते हैं ? यदि अमरीका की सरकार और वहाँ के मीडिया की राय अलग-अलग होती तो ९/११ के मामले में कोई तो अमरीका के खिलाफ बोलता लेकिन कोई नहीं बोला । इसका मतलब है कि आज जब टाइम वाला आपको फिसड्डी कह रहा है तो कहीं न कहीं ओबामा जी की भी यही राय है । वरना आपके चमत्कार का हाल तो तब भी यही था जब आपने ५०० अरब का परमाणु समझौता अमरीका से किया था । आप अब विमानों वाला ठेका फ़्रांस से लेकर अमरीका को दे दीजिए फिर देखिए कि आप किस तरह फिर अमरीका और उसके मीडिया के लिए चमत्कारी और अवतारी पुरुष बन जाते हैं ? मतलब कि जब तक आप उन्हें देश का पैसा लुटाते रहेंगे तब तक वे आपकी प्रशंसा करते रहेंगे । जब ओबामा जी दिवाली पर भारत आए थे तभी दुनिया के चार अन्य महारथी ब्रिटेन, फ़्रांस, रूस, चीन के नेता भी आए थे परमाणु और हथियारों का सौदा करने । यह कोई कुंती द्वारा निकाला गया द्रौपदी की समस्या का हल तो है नहीं । इसमें तो पैसा खर्च करना पड़ता है जो कि पहले से ही अपनी औकात से बाहर है फिर पाँच-पाँच को संतुष्ट करना कैसे संभव है ? तो ठेका न मिलने वाले दो-तीन जनों को तो नाराज़ होना ही था सो ब्रिटेन ने भी ठेका न मिलने पर आपको सोनिया जी का गुड्डा कह दिया । हमारी अपनी लोकंतान्त्रिक व्यवस्था की बात और है । उसमें तो गुड्डा और फिसड्डी ही क्या, गाली-गलौच तक सब कुछ चलता है । सबको ऐसे वक्तव्यों से अपनी-अपनी राजनीतिक हँडिया के नीचे आँच देनी होती है । मगर हम तो कहते हैं कि ये अमरीका और ब्रिटेन वाले कौन होते हैं ?

वैसे हमें तो ये सब दुष्ट ही नहीं अज्ञानी भी लगते हैं । ये नहीं जानते कि हर जीव नियति के हाथ की कठपुतली या गुड्डा है । और यह नियति किसी के लिए किस रूप में आती है और किसी के लिए किस रूप में । जब सब ही किसी न किसी के गुड्डे हैं तो किसी के भी गुड्डे होने से क्या फर्क पड़ता है ? आपके नेतृत्त्व में जो अर्थव्यवस्था की गिलहरी इतना उछल रही थी, अब भारत की जनता की हालत दुनिया की निगाह में भी, धोने के बाद निचोड़ कर सुखाई गई बिल्ली की तरह से हो गई है । खैर, कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना । आप तो एक किस्सा सुनिए ।

एक ठाकुर साहब थे । जब से राज गया है हालत खस्ता है । बस नाम के ही ठाकुर रह गए हैं । अंदर से हालत यह है कि दो जून की रोटी भी भारी हो रही है । बस, मूँछों पर ताव देकर काम चला रहे हैं । सो एक बार ठाकुर साहब को एक शादी में अपनी ससुराल जाना था । सर्दी के दिन थे और ठाकुर साहब के पास एक कम्बल तक नहीं । सर्दी तो किसी तरह मुट्ठी काँख में दबाकर झेल जाएँ पर दिखाने के लिए, कैसा भी हो एक कंबल तो चाहिए ही । कम्बल उनके एक नाई मित्र के पास था जो शादी में साथ ले चलेने की शर्त पर कम्बल देने को तैयार हुआ । पुराना समय और गाँव का इलाका सो लोग आने-जाने वालों से बिना बात सी.बी.आई. की तरह पूछताछ करने लग जाते थे । सो ठाकुर साहब से भी लोग कुछ पूछते तो ज़वाब नाई देता । और ज़वाब भी क्या ? बड़े विस्तार से बताता- जी, हम फलाँ गाँव से आ रहे हैं और फलाँ गाँव, फलाँ के यहाँ बरात में जा रहे हैं । ये ठाकुर साहब फलाँ-फलाँ हैं और मैं इनका नाई फलाँ-फलाँ हूँ और इन्होंने अपने कंधे पर जो कम्बल रखा है वह मेरा है ।

जब भी जो भी पूछता, नाई यही ज़वाब देता । अब आप सोच लीजिए कि ठाकुर साहब की ठकुराई और रुतबे का क्या कचरा हुआ होगा ? सो भाई जान, माँगे के कम्बल से इज्ज़त में ऐसे ही इज़ाफा होता है ।

2012-07-17


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Jun 29, 2012

धंधे का वास्ते कुछ भी करेगा, बाप

दरवाजे पर ठक-ठक की आवाज़ हुई । खोलकर देखा तो गले में स्कार्फ बाँधे, काली आड़ी धारियों की लाल टी शर्ट पहने एक पुण्यात्मा खड़ी थी । उसके खड़े होने की मुद्रा देवानंद की तरह कुछ त्रिभंगी थी । शक्ल कुछ बुश, कुछ क्लिंटन और कुछ अंकल सैम से मिलती थी । थोड़ा-थोड़ा हिल रहा था और कंधे भी उचका रहा था । हमने सोचा- कोई देशी-विदेशी का मिक्सचर दादा है । हमने विनम्रतापूर्वक, आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा- भाई आप ? उत्तर मिला- हाँ बाप ।

हम जानते हैं कि ऐसे प्राणी इस ‘विश्व-गाँव’ के बाप है पर अनावश्यक संवाद को टालने के लिए कहा- क्या आज्ञा है ?

अब तो वह और भी विनम्र हो गया और बोला- आपके घर में कोई मुर्गी है ?

हमने कहा- भाई, हम तो खुद ही मुर्गी हैं जिसे काटने के लिए गली के दादा से लेकर आई.एम.एफ., डब्लू.टी.ओ., डंकल तक तैयार बैठे हैं ।

उसकी आवाज़ थोड़ी ऊँची हुई, बोला- हम मानव रूपी मुर्गी नहीं, मुर्गी रूपी मुर्गी की बात कर रहे हैं जिसे काट कर खाया जाता है ।

हमने कहा- हम तो शुद्ध शाकाहारी हैं । हाँ, कभी-कभी छत पर कबूतर आ जाते हैं जिन्हें दाना डाल देते हैं और एक तोता पाल रखा है ।


वह मुस्कराया- तो हम सही जगह आया । तुमको पता है आजकल सारे संसार में ‘बर्ड-फ्लू’ फैला हुआ है । तुम्हारे तोते का भी इलाज़ करना पड़ेगा । लो, ये दस गोलियाँ । कीमत है एक हजार रुपए । हर महिने एक गोली खिलाना । फिर इस तोते को ‘बर्ड-फ्लू’ नहीं होगा ।

हमने निवेदन किया- प्रभु, इस तोते की कीमत है मात्र पन्द्रह रुपए । साढ़े सात साल भी जिया तो दो रुपए साल का शौक है । इसके लिए एक हजार रुपए खर्च करना हमारे बस का नहीं है ।

तो वह बोला- उधार ले लो, पर दवा तो लेनी ही पड़ेगी । दवा नहीं लोगे तो तोते को ‘बर्ड-फ्लू’ हो जाएगा फिर तोते से तुमको हो जाएगा । फिर गली, मोहल्ले, गाँव, देश और फिर सारी दुनिया को ‘बर्ड-फ्लू’ हो जाएगा । दवा न खरीद कर तुम व्यापक विनाश का कारण बनोगे । और ऐसा हम होने नहीं देंगे । जैसे इस दुनिया की रक्षा के लिए सद्दाम को पिंजरे में डालना ज़रूरी था वैसे ही तुम्हारे इस तोते को भी यह दवा लेना ज़रूरी है ।

हमने कहा- हमने इस तोते का मेडिकल करवा लिया है । इसे कोई बीमारी नहीं है । इसे ‘बर्ड-फ्लू’ नहीं है ।

'नहीं है तो हो जाएग'- वह बोला ।

हमने खुद को फँसते देखकर पिंजरे का दरवाजा खोला और तोते को उड़ा दिया ।



दूसरे दिन भाई फिर हाजिर । अब तो हमारे होश ही नहीं बल्कि न होते हुए भी ‘हाथों के तोते उड़ गए’ ।

अब की बार उनके हाथ में तेल की एक बोतल थी । बोले- तुम्हें पता है, सरसों के तेल में अर्जीमोन होता है ? सरसों के तेल से कोलेस्ट्रोल बढ़ता है । लो, यह सोयाबीन का तेल खाओ ।

हमने हल्का सा प्रतिवाद किया- हम तो हजारों साल से सरसों का तेल खाते आ रहे हैं । आज तक तो न किसी को कोलेस्ट्रोल बढ़ाने की शिकायत हुई और न ही किसी को सरसों के तेल में अर्जीमोन मिला । हाँ, सात साल पहले दिल्ली में ज़रूर आपके कृपा-पात्र व्यापारियों की कृपा से सरसों में अर्जीमोन मिल गया था । हम तो अर्जीमोन जानते ही नहीं थे । सोचते थे हार्मोन जैसी कोई चीज होगी । बाद में डिक्शनरी देखने पर पता चला कि यह तो सत्यानाशी के बीज होते हैं । वैसे तो हर समाज में कुछ न कुछ सत्यानाशी होता ही है । हमारे यहाँ तो यह सर्दी के दिनों में खूब फलता-फूलता है । न कोई जानवर इसे खाता है और न ही किसी सार-सँभाल की ज़रूरत होती है । कहीं भी खाली जगह में उग आता है । बड़ा नकटा पौधा है । फिर भी प्रकृति की माया देखिए कि उसमें कोई भी चीज नितांत फालतू नहीं है । इस सत्यानाशी के बीजों का भी औषधीय उपयोग है । इसके बीज सरसों से भी दस गुने महँगे मिलते हैं । किसी को क्या ज़रूरत कि सस्ती चीज में महँगी चीज मिलाए ?

सुनते हैं कि इसे सरसों के तेल में मिलाने का आइडिया आपका ही रहा था । व्यापारियों का क्या है ? वे तो मिलावट करते ही हैं लेकिन सरसों में अर्जीमोन जैसी नहीं कि खाते ही सात महिने की गर्भवती जैसा पेट हो जाए और यदि शीघ्र इलाज़ न मिले तो मामला खत्म । पर एक बहुत बड़ी योजना के तहत यह काम हुआ इसीलिए सैंकडों लोगों के मरने पर भी किसी को सजा नहीं हुई । अब भी लोग सरसों का तेल खा रहे हैं लेकिन किसी को अर्जीमोन से होने वाली ड्राप्सी वाली बीमारी नहीं हुई । हाँ, आपके सोयाबीन के तेल को जगह ज़रूर मिल गई । पर कुछ भी हो हमें तो सोयाबीन के तेल में एक अजीब सी गंध आती है । हमें तो सरसों का तेल ही ठीक लगता है । वैसे अब साठ से ऊपर हो गए हैं सो सोचते हैं कि चिकनाई खाना छोड़ ही दें । क्या सरसों का और क्या आपका सोयाबीन ।

भाई ने हमारी तरफ ऐसे घूरा जैसे कसाई बकरे को घूरता है और घूरते-घूरते ही विदा हो गए । हमने चैन की साँस ली ।

अगले दिन सवेरे-सवेरे चबूतरे पर बैठे चाय पी रहे थे कि भाई हाज़िर । हमारी हृदय-गति बढ़ गई । हाथ काँपने लगे । चाय गिरते-गिरते बची । अबकी बार भाई के हाथ में एक किलो की पोलीथिन की थैली थी । हमारी तरफ बढ़ाते हुए बोले- लो यह आयोडीनयुक्त नमक है । साधारण नमक खाते-खाते तुम्हारा शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो गया है ।

हमने कहा- यह ठीक है कि हम पहलवान या जीनियस तो कभी नहीं रहे फिर भी उम्र के हिसाब से हमारा शारीरिक और मानसिक विकास ठीक-ठाक ही है । और फिर आयोडीन वाला नमक खाए बिना भी हमारे देश में आर्यभट्ट, रामानुजम, सी.वी.रमण, जगदीश चन्द्र बसु, हर गोविन्द खुराना, भाभा जैसे विद्वान, वैज्ञानिक और हनुमान और गामा जैसे पहलवान भी हो चुके हैं । और फिर आयोडीनयुक्त नमक तो वहाँ के लोगों को खिलाओ जिस इलाके में आयोडीन की कमी हो । वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दें कि डाक्टर कहते हैं कि खाने में ऊपर से नमक नहीं डालना चाहिए और यदि सब्जी वगैरह में उबलते समय नमक डाला जाए तो उसका आयोडीन खत्म हो जाता है । इस प्रकार हर हालत में शरीर आयोडीन से वंचित रह जाता है । यदि कोई विशेष परिस्थिति हो तो डाक्टर दवा दे देगा । यह आयोडीन का नाटक हमारी समझ में नहीं आ रहा है । और फिर यह देश जो ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कभी दुनिया का सिरमौर था क्या इतनी सी समस्या को हल नहीं कर सकता ? आपने बेकार ही कष्ट किया ।

अबकी बार वे कुछ नहीं बोले लेकिन उनकी दृष्टि वैसे ही थी जैसे कि किसी घायल चीते की होती है । हम उस तेज रफ़्तार ट्रक ड्राइवर से डरते रहे, जिससे हम कुचले जाने से बाल-बाल बचे और जिसके पीछे लिखा था- 'फिर मिलेंगे' ।

सचमुच वे अगले दिन फिर आ गए । उनके एक हाथ में एक बोतल में कत्थई रंग का एक पेय पदार्थ था और दूसरे में एक मोटा सा चिल्ला जिस पर कुछ टमाटर, मिर्च और प्याज के टुकड़े पड़े हुए थे । बोले- ले यह पिज्जा खा और कोकाकोला पी ।

हमने कहा- हुजूर, इससे लीवर खराब हो जाता है और यहाँ तक कि केंसर भी हो सकता है । फिर हमारे पूर्वजों ने यहाँ के हिसाब से लस्सी, छाछ, शिकंजी, ठंडाई विकसित किए हैं जो सस्ते और स्वास्थ्यप्रद भी हैं । फिर आपका यह पेय-पदार्थ तो दूध से भी महँगा है और असर में सुनते हैं कि टॉयलेट क्लीनर जैसा है । और यह आपका चिल्ला जिसे आप पिज्जा कहते हैं मैदा से बना हुआ और तेल ही तेल भरा है इसमें तो । हाज़मा खराब और कर देगा हमारा तो ।

अब तो भाई को बहुत क्रोध आ गया । कहने लगे- ज़मीन पर हगने वाले, पिछड़े काले आदमी, तुझमें हीन भावना कूट-कूट कर भरी है । तू विकसित विश्व के साथ चलना नहीं चाहता । तू ऐसे प्यार से नहीं समझेगा । तुझे दूसरी तरह से समझाना पड़ेगा । अब उसने रिवाल्वर निकला और बोला- चूँ-चपड़ करने की ज़रूरत नहीं है । ले, पी सिर उठा के । और कर गौरव का अनुभव, भूल सारी हीन भावनाएँ ।

हम डरकर, जान बचाने के लिए सिर उठाकर वह कत्थई रंग का तरल पदार्थ पीने लगे और वह हमारे जूते और थैला उठाकर चलता बना । अब हमारी हालत महान चित्रकार, पद्मविभूषण, प्रातः स्मरणीय, सरकार के कृपापात्र मकबूल फ़िदा हुसैन द्वारा बनाए गए भारत माता के कुख्यात चित्र जैसी हो रही थी ।

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Jun 17, 2012

पिता on Father's day





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Apr 15, 2012

राजा भैया का वर्क एक्सपीरिएंस

राजा भैया उर्फ़ रघुराज प्रताप सिंह,

उम्र में आप से दुगुने बड़े होने के कारण आशीर्वाद दे रहे हैं । वैसे हमारे आशीर्वाद के बिना भी आप खुश ही हैं । जब मायावती ने आपको जेल में डाला था तो आपके बारे में कई समाचार पढ़ने में आते थे कि आपने एक शेर भी पाल रखा है और जिस को भी मृत्यु दंड देना होता है तो उसे शेर के पिंजरे में डाल देते हैं । शेर ही शेरों को पाल सकता है । हम तो एक बार चिड़ियाघर में गए थे । जैसे ही शेर के पिंजरे के पास गए तो पता नहीं वह क्यों दहाड़ा ? हम तो उसकी दहाड़ सुन कर ही बेहोश हो गए । अब जब भी कभी जाते है तो चिडियाँ ही देख कर आ जाते हैं ।

बी.एड. में हमें पढ़ाया जाता था कि जो बच्चा कक्षा में सबसे ज्यादा शरारत करता है उसे मोनीटर बना देना चाहिए । वह इस जिम्मेदारी के कारण शरारत करना भूल जाएगा । पता नहीं, मुलायम जी ने आपको इसीलिए तो जेल मंत्री नहीं बनाया ? वैसे राजा की विशेषता इसी से पता चलता है कि वह कैसे मंत्री चुनता है । अकबर पढ़ा लिखा नहीं था लेकिन उसने जो नवरत्न चुने वही उसकी बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा प्रमाण है । भले ही आप मुलायम जी की पार्टी में नहीं हैं लेकिन उन्होंने आपकी योग्यता को पहचान कर आपको पहले भी मंत्री बनाया था । योग्य व्यक्ति कहीं भी मिले उसकी योग्यता का लोकसेवा में उपयोग होना ही चाहिए । कवि ने भी कहा है-

उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पे होय ।
पर्यो अपावन ठौर में, कंचन तजे न कोय । ।


रूस में रक्षा मंत्री उसे ही बनाया जाता है जो बहुत अच्छा जनरल रहा हो । अब अपने यहाँ कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री बनाया जो एक राइफल भी नहीं उठा सकते थे । जगजीवन राम जी भी रक्षा मंत्री बने लेकिन उनकी फिजीक ऐसी थी कि किसी दुश्मन के पीछे भाग कर उसे पकड़ना उनके बस का नहीं था । जार्ज फर्नांडीज तो कुर्ता पायजामा पहन कर सियाचिन चले गए । यह तो लोगों ने उन्हें कपड़े दे दिए, नहीं तो ऐसा निमोनिया होता कि कई दिनों दुःख पाते ।

आपको जेल का अनुभव है इसलिए आपको जेल मंत्री बनाया । अब हमें विश्वास है कि देश की हालत चाहे कैसी भी रहे लेकिन जेलों की हालत ज़रूर सुधर जाएगी । देखिए, आपने आते ही ११ अप्रैल २०१२ को जेलों में कूलर लगवाने के आदेश दे दिए । सलमान खान भी जब जोधपुर की जेल में रहा तो उसने भी बाहर निकलते समय घोषणा की कि वह जेल में टायलेट बनवाने के लिए सहायता देगा । हमें विश्वास है कि आपको तो जेल में कोई असुविधा नहीं होने दी गई होगी । आपका रुतबा ही ऐसा है । हमारे दिमाग में आपकी छवि थी कि आप लंबी-लंबी मूँछों वाले कोई खूँख्वार व्यक्ति होंगे लेकिन अब मंत्री बनने के बाद आपका फोटो देखा तो मज़ा आ गया । आप तो बड़े स्मार्ट लगे । चाहें तो अब भी किसी अच्छे-खासे हीरो की छुट्टी कर दें ।

अब जेलों में न तो कैदियों को कोई कष्ट होगा और न ही उन्हें ऐसा-वैसा भोजन दिया जाएगा । आखिर उनके भी कोई अधिकार हैं । जब कसाब को जेल में बिरयानी खिलाई जा रही है तो ये तो बेचारे कोई देशद्रोही भी नहीं हैं । बस, थोड़े से साहसी हैं । साहसी होना कोई बुरी बात नहीं है । साहसी लोग ही किसी देश की सबसे बड़ी ताकत होते हैं । यदि दुनिया के बड़े-बड़े नेता जेलों में जाने का साहस नहीं दिखाते तो क्या इस दुनिया का इतना विकास होता ? साधारण लोग तो बस अपनी नौकरी करके घर आ जाते हैं और बीवी बच्चों में मगन हो जाते हैं । ऐसे साधारण लोगों के भरोसे किसी देश में कोई बदलाव नहीं आ सकता । सभी बड़े-बड़े नेता और समाज में परिवर्तन लाने वाले लोग कभी न कभी जेल अवश्य गए हुए हैं । हमारी बात छोड़ दीजिए हमें तो कोई पुलिस वाला मज़ाक में भी नमस्ते कर लेता है तो हमारी जान सूख जाती है । हमारे एक मित्र पुलिस में अधिकारी बन गए तो हमें उनसे भी डर लगने लगा । हमारे बेटे के लिए एक पुलिस अधिकारी की बेटी का रिश्ता आया तो हम उसे भी घबरा कर मना कर बैठे ।

अब जेलों में आपको कोई गोली, मतलब कि धोखा, नहीं दे सकेगा । आप सब जानते हैं कि कैदी कौन चीज, कहाँ छुपाते हैं ? जेल में कैसे मोबाइल, शराब, सिगरेट और स्मेक पहुँचते हैं । कैसे जेलों में जन्मदिन की पार्टी आयोजित की जाती है ? वे आपको स्टाफ का आदमी ही मानते होंगे । आदमी और किसी का लिहाज करे या न करे लेकिन स्टाफ वाले का ज़रूर ध्यान रखता है । ट्रक, बस वालों को देखिए, रास्ते में कोई भी बस या ट्रक खराब मिलता है तो वे उसकी खैर-खबर लेते हैं और सब तरह की मदद करते हैं ।

हो सकता है अब कोई पकड़ा भी जाएगा तो तत्काल पुलिस वाले को कहेगा- स्टाफ । और फिर सब ठीक हो जाएगा ।

हमने एक बार पोर्ट ब्लेयर में रहते हुए जेल का एक टेंडर पढ़ा था जिसमें कैदियों के लिए फल, सब्जी, मांस, मछली आदि की सप्लाई का ज़िक्र था । हमें लगा कि आदमी जेल में घर से भी बढ़िया खाना खाता है । और अब तो आप जैसे योग्य और संवेदनशील व्यक्ति आ गए हैं इस विभाग में तो और भी सुधार होगा मगर अब हममें ही जेल जाने योग्य साहसिक कर्म करने की हिम्मत नहीं रही । अब तो इस देह रूपी जेल से आत्मा रूपी कैदी की रिहाई का समय आ रहा है ।

हाँ, यदि किरण बेदी की तरह जेल में कोई कविसम्मेलन करवाने का इरादा हो तो हमें ज़रूर याद कीजिएगा ।

१४-४-२०१२
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माई नेम इज खान की तलाशी

प्रिय शाहरुख,
हमें कई महत्त्वपूर्ण पत्र लिखने थे लेकिन जब आज समाचार पढ़ा कि अमरीका में फिर तुम्हारी तलाशी ली गई तो पहले तुम्हें ही लिखना पड़ रहा है । तुमने तत्काल ट्वीट किया और दुनिया में नहीं तो, भारत में ज़रूर हडकंप मच गया । तुम्हारा अपमान भारत का अपमान हो गया । देवकांत बरुआ तो 'इंदिरा इज इण्डिया' का नारा देकर बदनाम हो गए पर लगता है कि तुम वास्तव में ही इण्डिया के पर्याय हो गए । वास्तविकता का तो पता नहीं लेकिन मीडिया ने तो ऐसा ही दरशाया । कुछ भी हो, नाम तो हुआ । वैसे जिस लड़की की तरफ़ कोई नहीं देखता वही अपनी तरफ़ ध्यान आकर्षित करने के लिए भरी बस में किसी से भी उलझ जाती है और चिल्लाने लगती है- 'मरे, तेरे घर में माँ बहन नहीं हैं क्या ? मारूँगी जूता खेंच कर तो होश ठिकाने आ जाएँगे' । तुम्हारा तो खैर, वैसे ही सारी दुनिया में नाम है अन्यथा किसी और नायक या महानायक को क्यों नहीं बुलाया येल विश्वविद्यालय में भाषण देने के लिए?

इस विश्वविद्यालय में प्रायः नोबल पुरस्कार प्राप्त लोगों को ही बुलाया जाता है भाषण देने के लिए । मगर तुम उनसे कौन से कम हो ? वे तुमसे जानना चाहते हैं कि एक आदमी शादी-विवाहों और जन्मदिन की पार्टियों में नाच-नाच कर इतना पैसा कैसे कमा सकता है ? और यह भी पता लगा है कि उन्होंने तुम्हारे द्वारा किए गए परोपकार के कामों को भी ध्यान में रखा है । हमें तो खैर, तुम्हारे दान-पुण्य के कामों का पता नहीं है । हमारे ध्यान में तो सरोज खान के पति को तुम्हारे थप्पड़ मारने की घटना ज्यादा पढ़ने में आई । हम तो कहते हैं कि यदि तुमने थोड़ा सा भी दान किया है तो उसका महत्त्व अधिक है क्योंकि तुम्हारे पैसे बड़ी मेहनत के हैं । नाच-नाच कर कमर तोड़कर कमाए हैं । कोई जुए सट्टे या लाटरी की कमाई नहीं है ।

हम भी तीन बार अमरीका गए हैं लेकिन हमें न तो कभी किसी ने रोका और न ही कोई खास तलाशी ली । एक बार हमने कहा भी कि शाहरुख की तरह हमारा भी एक्सरे लोगे क्या तो वे बोले तुम्हारी तो हड्डियाँ तक बिना एक्सरे के ही साफ दिखाई दे रही हैं । हाँ, पिछली बार जब हम डेट्रोइट से आ रहे थे तो सेक्योरिटी वालों ने हमारे सूटकेस को ज़रूर खोल लिया था । वैसे हमें इसका पता भी नहीं चलता लेकिन जब हमने यहाँ आकर अपना सूटकेस खोला तो उसमें एक पर्ची मिली जिस पर छपा हुआ था कि 'सिक्योरिटी सेव्स टाइम' ।

हम जब इसके कारणों का विश्लेषण करते हैं तो हमें लगता है कि उन्होंने हमारी अटेची इसलिए खोल ली होगी क्योंकि वही सारे सामानों में सबसे पुरानी और सस्ती रही होगी । कुछ लोग जब कीमती सामान ले जाते हैं तो वे उसे किसी पुराने थैले में रखते हैं जिससे किसी को शक नहीं हो । हमारी अटेची में उन्हें क्या मिला होगा कुछ किताबें और कुछ कुर्ते पायजामे । हमारे पास न तो ट्वीट करने की सुविधा और न हमें ट्वीट करना आता और यदि करते तो पढ़ता भी कौन ? हम फिर अमरीका जा रहे हैं और वही अटेची लेकर जाएँगे । हमें विश्वास है अब की बार उसे कोई भी खोल कर नहीं देखेगा क्योंकि वे हमें और हमारी अटेची को पहचान गए हैं ।

तुम्हें रोकने का एक कारण और भी हो सकता है कि वे तुम्हारे भक्त रहे हों जो इस बहाने अच्छी तरह से तुम्हारे दर्शन करना चाहते हों । तुम्हें पता है कि राजस्थान में काले हिरण के शिकार के केस में शामिल हीरो और हीरोइनों को वहाँ की अदालत वाले अक्सर बुलाते रहते हैं । यह सभी जानते हैं कि किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन उन्हें तो बहाना चाहिए महान आत्माओं के दर्शन का ।

कुछ महिने पहले उमर अब्दुल्ला पर किसी ने जूता फेंका तो उनके पिताजी फारूक अब्दुल्ला ने कहा था कि बुश पर भी जूता फेंका गया था सो अब उनका बेटा भी बुश की श्रेणी में आ गया है । सो बार-बार तलाशी होने से शायद तुम भी अब्दुल कलाम, अडवाणी, जार्ज फर्नांडीज आदि की श्रेणी में आ गए हो । वैसे हमारा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि केवल एक बात समान होने से सब कुछ समान नहीं हो जाता । महात्मा गाँधी को गोडसे ने गोली मारी और जलियाँवाला बाग के जनरल डायर को ऊधम सिंह ने, लेकिन क्या मात्र इसीसे उधम सिंह और गोडसे तथा महात्मा गाँधी और डायर समान हो गए ?


इस बारे में एक बात और बताना चाहते हैं कि कभी-कभी किसी व्यक्ति की शक्ल और हरकतों से भी लोगों को गलतफहमी हो जाती है । हम तब नए-नए मास्टर बने थे । हम पढ़ा रहे थे तो एक बच्चा लगातार हमारी तरफ देख कर मुस्कराए जा रहा था । हमें बड़ा अजीब लगा । हमने बिना कुछ पूछे उसके कान खींच दिए और शाम को उसके बाप से भी शिकायत की । उसके बाप ने बताया कि उसके दाँत कुछ बड़े हैं और बाहर निकले हुए हैं इसलिए हर समय मुस्कराता हुआ लगता है । वैसे तो तुम कोई बुरे आदमी नहीं हो फिर भी व्यक्ति को हर समय फुदक-फुदक नहीं करना चाहिए । हो सकता है तुम उस समय कुछ ज्यादा ही कंधे उचका रहे होगे । एक स्थान पर टिक कर खड़े नहीं रहे होगे, ज्यादा ही हिल-डुल रहे होगे और हो सकता है उस समय सामान्य से कुछ अधिक ही हकला भी रहे होगे । यह सब असामान्य है और इससे उन्हें कुछ शक हो गया होगा ।

तुमने एक फिल्म बनाई थी 'मई नेम इज खान' और उसमें बार-बार कह रहे थे कि ‘माई नेम इज खान एंड आई ऍम नॉट टेरेरिस्ट’ । और अंत में दिखाया गया है कि उन लोगों ने मान लिया कि तुम टेरेरिस्ट नहीं हो । हमारे साथ एक और ही तरह का वाकया हुआ । हमारी बात किसी ने नहीं मानी । दो साल पहले अमरीका ने अच्छे तालिबानों को पैकेज देने की घोषणा की । हम पैकेज के लालच में अपने मित्र तोताराम से साथ काबुल चले गए । वहाँ जाकर बताया- हम अच्छे तालिबान हैं । हमें पैकेज दीजिए । उन्होंने हमारी शकल देखकर कहा- 'तुमसे बम रखकर या हत्याकांड करके आतंक क्या फैलाया जाएगा, तुम तो खुद ही आतंकित दिखाई दे रहे हो । लगता है हिंदी के मास्टर हो । भागो यहाँ से । यहाँ कोई खैरात बँट रही है क्या ? तुम अच्छे बने क्या ? तुम तो सदा से ऐसे ही घोंचू थे । पहले खतरनाक बनो और फिर अच्छे बनना । तुम्हें पता होना चाहिए कि बदी में से नेकी निकलती है । नेक बनने के लिए पहले बद बनो । जब कोई खूब डाका डाल लेता है और उसके बाद समर्पण करता है तो पैकेज भी मिलता है और लोकसभा का टिकट भी' ।

खैर, कुछ भी हो, नाम भी हो गया और काम भी । अब आगे की देखो कि कब और कहाँ नाचना है ।

१३-४-२०१२
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फादर ऑफ द नेशन का टाइटल

उत्तर प्रदेश में एक बालिका ऐश्वर्या ने फरवरी २०१२ को सूचना के अधिकार के तहत प्रधानमंत्री कार्यालय को एक पत्र लिखा कि उसे उस सरकारी आदेश की एक फोटो प्रति उपलब्ध करवाई जाए जिसके तहत महात्मा गाँधी को ‘फादर ऑफ द नेशन’ का टाइटल प्रदान किया गया था ।

प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा वह पत्र गृह मंत्रालय को भेजा गया जहाँ से उसे राष्ट्रीय पुरालेखागार को भेज दिया गया । वहाँ से ज़वाब दिया गया कि इस संबंध में कोई विशिष्ट आलेख उपलब्ध नहीं है ।

यह एक सरकारी कर्मचारी की एक निरपेक्ष सूचना है और अखबार में छपे समाचार में अपनी किसी भी बात को सनसनीखेज बनाकर छापने की प्रवृत्ति । सहज भाव से सही जानकारी देने का स्वभाव आजकल लोगों का नहीं रहा । यह भी हो सकता है कि पुराभिलेखागर के अधिकारी और अखबार वाले पत्रकार को इसकी जानकारी हो ही नहीं ।



यह कोई उपाधि या सरकारी अलंकरण नहीं था जो कि किसी एक दिन घोषित किया गया हो और फिर किसी दिन समारोह में लिखित रूप में प्रदान किया गया हो । इसलिए किसी रिकार्ड में इसकी लिखित जानकारी कहाँ होती ? यह तो एक संबोधन है जिसका प्रयोग १९४४ में नेताजी सुभाष ने रंगून से अपने भाषण में गाँधी जी के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए किया था ।

रही बात प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय की तो उन्हें और बहुत से काम हैं जो उन्हें अपनी कुर्सी, खाल और अपने हितों को बचाने के लिए करने पड़ रहे हैं । घोटालों और आतंकवादियों की फाइलों को रखने के लिए जगह नहीं बची होगी । महात्मा गाँधी जैसे अलाभकारी और आउट-डेटेड विषय से क्या लेना-देना ?

खैर, और बहुत से टाइटल और विशेषण हैं जो बहुत से लोगों के लिए चल रहे हैं । हम चाहें तो उन्हीं पर विचार कर सकते हैं । अब बताइए कि हेमा मालिनी को ड्रीम गर्ल का टाइटल कब और किसने दिया था ? और वे अब भी साठ से ऊपर की हो जाने पर भी उस टाइटल को लिए घूम रही हैं और युवाओं में कन्फ्यूजन पैदा कर रही हैं । क्या धर्मेन्द्र के अलावा कोई 'ही-मैन' नहीं हैं ? क्या उनके अलावा सभी 'शी-मैन' हैं ? इस देश में राज और नवाबी खत्म हुए कोई साठ वर्ष हो चुके हैं मगर सैफ अली खान अभी तक ‘छोटे नवाब’ बने घूमते हैं । शाहरुख खान किस देश के राजा हैं जो उन्हें ‘किंग खान’ कहा जाता है ?

साहित्य शास्त्र में कई प्रकार के नायक बताए गए हैं । राम, कृष्ण भी अलग-अलग प्रकार के नायक ही हैं । महानायक कोई नहीं है । फिर यह 'महानायक' शब्द कहाँ से आ गया ? और वह भी पूरी सहस्राब्दी का ठेका लेते हुए । सचिन ने किस स्कूल में पढ़ाया था और किस कालेज से बी.एड. की थी जो उन्हें ‘मास्टर’ कहा जाता है । और कब, कहाँ बम ब्लास्ट किया था जो उन्हें 'मास्टर ब्लास्टर' कहा जाता है । सभी लोग उम्र पाकर बच्चे से बूढ़े होते हैं । कुँवारे से विवाहित बनते हैं और फिर बाप. ताऊ और दादा भी बनते हैं और अंत में मर भी जाते हैं मगर देवी लाल जी को ही 'ताऊ' क्यों कहा जाता है ?

चुनावों में तो सभी वोट की भीख माँगते हैं । विश्वनाथ प्रताप सिंह जी ने किस मंदिर के आगे बैठकर भीख माँगी थी जो उन्हें 'फकीर' कहा जाता है । हमारे हिसाब से 'नेताजी' के नाम से तो नेताजी सुभाष ही प्रसिद्ध हैं फिर ये मुलायम सिंह जी कब और कैसे ‘नेताजी’ बन गए ? करीना कपूर को मीडिया 'साइज़ जीरो' के नाम से प्रसिद्ध किए हुए हैं मगर हम आपको भूख से पीड़ित उससे भी आधी साइज की करोड़ों महिलाएँ देश में दिखा सकते हैं जिन्हें कोई ‘जीरो साइज़’ नहीं कहता ।

मायावती जी ने कांसीराम जी को मान्यवर कहना शुरु किया तो मीडिया में भी यह शब्द चल निकला लेकिन यदि कोई पूछे कि उन्हें यह टाइटल कब और कैसे मिला तो क्या उसका कोई रिकार्ड कहीं मिलेगा ? और फिर यह भी क्या कि उनके अलावा कोई और भी मान्यवर नहीं बन सकता है क्या ? उन्हें देश के कितने लोग मान्यवर मानते हैं ? गाँधी जी को राष्ट्रपिता कहते हैं मगर आज भी बहुत से लोग उन्हें मानने को तैयार नहीं हैं । कुछ तो उनकी हत्या को भी उचित बताते हैं । पुराने समय में भी कंस और औरंगजेब जैसे सुपुत्रों ने अपने पिताओं को जेल में डाल दिया था तो यह ज़माना तो उससे भी कहीं आगे बढ़ा हुआ है । इस ज़माने में कुछ भी हो सकता है । बच्चे बाप के पी.एफ. के पैसे हथियाने के लिए मार देते हैं । दारु के लिए पैसे नहीं देने पर माँ का सिर फोड़ देते हैं । भाई-भाई का झगडा तो कोई बड़ी बात ही नहीं है । मतलब हो तो गधे को बाप और बाप को गधा बना देते हैं ।

घोषित हुए और मीडिया में प्रसिद्ध हुए टाइटलों के अलावा भी कई टाइटल जनता में चलते हैं जो कि घोषित टाइटलों से अधिक प्रचलित होते हैं । लोग मुँह पर भले ही कुछ नहीं कहें मगर ये टाइटल चलते बहुत हैं । हमारे गाँव में के सेठ थे जो सामाजिक कार्यों के लिए एक पैसा भी खर्च नहीं करते थे तो लोग उन्हें 'भंगी' कहते थे । एक ब्राह्मण थे जिनमें ब्राह्मण का एक भी गुण नहीं था । खाते-पीते और गाते-बजाते थे । उनके लिए लोग लूंड अर्थात लम्पट जैसा कोई शब्द प्रयोग करते थे । एक बार सेठजी ने उनसे पूछा- पंडित जी, लोग आपको लूंड क्यों कहते हैं ? पंडित जी ने उत्तर दिया- सेठ, लोगों का क्या ? लोग तो आपको भी भंगी कहते हैं ।

एक और किस्सा है- एक सज्जन थे जो पढ़े लिखे ज्यादा नहीं थे । बचपन में वे अपनी गली के कुत्तों को इकठ्ठा करके दूसरी गली के कुत्तों से लड़ाई करवाने का शौक रखते थे । तब उन्हें लोग कुत्ता शास्त्री कहा करते थे । समय के साथ उनकी उम्र बढ़ती गई । अब वे किसी के चाचा और किसी के ताऊ हो गए । धीरे-धीरे लोग उनका फुल फॉर्म कुत्ता शास्त्री तो भूल गए और वे केवल 'शास्त्री जी' रह गए । अब कौन पूछे कि शास्त्री की डिग्री कब और कहाँ से ली ?

एक और सज्जन थे । पढ़े लिखे वे भी नहीं थे । चतुर और प्रत्युत्पन्नमति थे । दिल के बुरे नहीं थे लेकिन जब-तब लोगों से मज़ा लेते रहते थे । लोग उनकी इस विनोदवृत्ति का बुरा भी नहीं मानते थे । एक बार गाँव के इतिहास के अध्यापक से उन्होंने पूछा- गुरुजी, लार्ड क्लाइव, डलहौजी आदि का तो पता हैं मगर यह लोर्ड फिब्बन कौन है और कब हुआ था ? इसके बारे में कुछ पता करके बताइएगा । अब जब इस नाम का कोई लार्ड हुआ ही नहीं तो गुरु जी को कहाँ से उसका खोज मिलता ? मगर जब भी वे मिलते तो ये सज्जन उनसे लोर्ड फिब्बन के बारे में पूछ ही लेते । अंत में गुरु जी ने रास्ता ही बदल लिया । और लोगों ने उन सज्जन को ही लोर्ड फिब्बन कहना शुरु कर दिया । अब कोई इतिहास या अभिलेखागार में ढूँढे तो कैसे पता चलेगा । यह तो कोई हम जैसे पुराने आदमी से पूछे तो पता चले ।

तो साहब, मीडिया और सरकारों के दिए टाइटलों को छोड़िये । ये सब तो चलते रहेंगे । जिसके जैसे कर्म होते हैं वे भी जनता से छुपे नहीं रहते । भले ही अपने चमचों से या मीडिया से वे कुछ भी कहलवा लें या विज्ञापनों में अपने को कुछ भी छपवा कर खुश हो लें मगर जो सच है, वही सच है । और अपना सच तो हर आदमी जानता है और भगवान भी सब कुछ जानता है और वह उसी के हिसाब से फैसला भी देगा ही ।

मनमोहन सिंह जी ने पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधान मंत्री गिलानी को शांति पुरुष कहा मगर कश्मीर के लोग इनकी शांति प्रियता को बखूबी भोग रहे हैं । गिलानी ने बदले में मनमोहन जी को 'विकास पुरुष' कहा लेकिन इनके द्वारा किए गए विकास का क्या मतलब है यह भारत के करोड़ों गरीब भली-भाँति अनुभव कर रहे हैं । भले ही मीडिया इन टाइटलों को कितना ही उछालें लेकिन बात वहीं की वहीं रहने वाली है । नरसिंह राव जी बेचारे एक तो बूढ़े, ऊपर से चालीस बीमारियाँ और दाँत भी नहीं । बड़े आदमी थे सो सोच कर बोलते थे मगर लोगों ने इन बातों पर विचार किए बगैर ही उन्हें 'मौनी बाबा' कहना शुरु कर दिया । और यह टाइटल उनसे चिपक गया ।

एक बार वसुंधरा राजे को एक स्थानीय नेत्री ने दुर्गा के रूप में दिखाते हुए चित्र छपवाए । एक और मंत्री ने अपने घर बकायदा मंदिर बनवा लिया । एक महंत जी ने उन्हें दुर्गा का अवतार बताते हुए एक सौ दोहे लिख मारे लेकिन वे अब तक दुर्गा नहीं बन पाईं, वसुंधरा की वसुंधरा ही बनी हुई हैं । और अब गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी को पार्टी वालों ने कृष्ण के रूप में चित्रित करना शुरु किया है । पता नहीं किस महाभारत की संभावना बन रही है ?

एक बार उमा भरती जी ने लाल कृष्ण अडवाणी, अटल जी और वैंकय्या नायडू को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी । अब ये सब ठंडे बस्ते में लगे हुए हैं । हो सकता है इसी कारण न तो जनता का पालन-पोषण हो रहा है, न बिगड़ चुकी सृष्टि का विनाश और न ही नई सृष्टि का सृजन । एक बार एक नेता ने इंदिरा जी को इण्डिया का पर्याय बताया था लेकिन आज भी दोनों अलग हैं । इण्डिया इण्डिया ही है और इंदिरा जी इंदिरा जी । इण्डिया अंग्रेजों का दिया हुआ नाम है जब कि इस देश का असली और पुराना नाम है भारत लेकिन भारत को दुनिया में देश का दर्ज़ा नहीं मिला सो नहीं ही मिला ।

सो हो सके तो टाइटलों के चक्कर में पड़ने की बजाय कर्मों पर ध्यान दीजिए । जनता को मूर्ख मत समझिए । वह देर-सबेर सही मूल्यांकन करेगी ।

और जहाँ तक 'देश का पिता' की बात है तो बिना इस टाइटल के किसी लिखित रिकार्ड के भी उस बूढ़े ने इस देश के लिए बहुत कुछ किया । वैसे आजकल तो जिन्हें जेलों में होना चाहिए या जिन्हें जिंदा जला दिया जाना चाहिए वे देश के बाप बने हुए हैं ।

७-४-२०१२

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Apr 14, 2012

विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस

आज विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस है । पहले 'जिनका कोई नहीं होता उनका खुदा होता है' था और अब जिनका कोई नहीं होता उनका 'दिवस' होता है जैसे- मातृ दिवस, पितृ दिवस, महिला दिवस, मजदूर दिवस, हिंदी दिवस, खाद्य दिवस, मातृ भाषा दिवस, पृथ्वी दिवस आदि-आदि । और फिर उपभोक्ता तो 'उप' है भोक्ता तो शिव है । तभी कहा गया है- शिवो भोज्यः शिवो भोक्ता । शिव का अर्थ है 'कल्याण' और कल्याण का ठेका है नेताओं के पास । चाहे कल्याणकारी आश्वासन देना हो या कल्याणकारी योजनाएँ बनाना हो या फिर उनमें स्वकल्याणार्थ कमीशन खाना हो । मतलब कि कल्याण आज कल नेता का पर्याय है इस लिए यदि आज के शिव कोई हैं तो वे नेता ही हैं । अतः वे ही भोक्ता हैं और वे ही भोज्य । शेष तो उपभोक्ता हैं ।

और उपभोक्ता का दर्ज़ा वही है जो उपपत्नी का होता है । कहने को तो कहा जाता है कि वह पत्नी के प्यार पर अनधिकृत अधिकार कर लेती है लेकिन पति की तनख्वाह और पी.एफ. और उसके मरने के बाद उसकी पेंशन पर भी पत्नी का ही अधिकर होता है । उपपत्नी को तो प्रेमी के पत्रों पर ही अधिकार होता है यदि उसने अपने पिता या पति के डर से उन्हें जला नहीं दिया हो तो । और जहाँ तक पत्रों की रद्दी का सवाल है तो रद्दी अखबार वाला भी उन्हें नहीं लेता और यदि लेता भी है तो दो रुपए किलो ।

उपभोक्ता का नंबर सबसे अंत में आता है इसलिए यदि मूल्य चुकाना हो तो सबके कमीशन और लाभ का भुगतान उसे ही करना पड़ता है । मतलब कि जैसे नरेगा का लाभ हो या सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सामान के उपभोग का हो, उसका नंबर तब आता है जब मंत्री, अधिकारी, पंच, दुकानदार आदि छक लेते हैं । यह वैसे ही है जैसे कि सबसे बढ़िया आम पहले विदेश भेजा जाता है और बचे-खुचे में यहाँ के पैसे वाले निबटते हैं यदि कभी गले-सड़े या आँधी में झड़े कभी सस्ते में आ गए तो उपभोक्ता का नंबर आता है । या फिर ऐसे ही जैसे कि पहले राजा और नवाब गरीब विवाहिताओं तक को उठवा लेते थे और जब वे किसी काम की नहीं रहती थीं तो उनके वास्तविक पतियों का नंबर आता था । तो इस प्रकार अपना अधिकार दिवस मनाने वाले उपभोक्ताओं को अपनी असली स्थिति समझ लेनी चाहिए ।

उपभोक्ता को तरह-तरह से सावधान किया जाता है, उनके अधिकारों के संरक्षण के लिए मंत्रालय तक बने हुए हैं । इससे अनुमान लगा लेना चाहिए कि व्यापार करने वाले कैसे लोग हैं । मतलब कि उपभोक्ता बड़े बदमाश लोगों से घिरा हुआ है । इसलिए हमारे अनुसार तो 'जागो ग्राहक' के स्थान पर होना चाहिए 'भागो ग्राहक' मगर बेचारा भाग कर जाएगा भी तो कहाँ ? शेर से बचेगा तो आगे बाघ बैठा है । बाघ से बचेगा तो तेंदुआ और फिर भेड़िए-गीदड़ । और नहीं तो कोई गली का कुत्ता ही फफेड़ लेगा । गरीब और कमजोर के तो सभी दुश्मन ।

किसी भी पैकेट पर लिखी बातों के सच होने की क्या गारंटी है ? आपको क्या पता कि च्यवनप्राश में आँवला कितना है और शकरकंद कितना ? कोकाकोला और पेप्सी में कौन से हानिकारक तत्त्व मिले हैं ? लेज़, अंकल चिप्स, मेगी, टॉप रेमन, मक्डॉनल्ड, के.एफ.सी., हल्दीराम आदि के उत्पादों में स्वीकृत से कितना अधिक नमक और ट्रांसफैट मिला हुआ है ? अधिकतम खुदरा मूल्य लिखा जाता है उसे उसकी फिक्स्ड प्राइस मानकर ग्राहक खरीद लेता है जब कि कई बार दुकानदार लिखित कीमत से आधे में भी दे देता है इसका मतलब कि आपको पता नहीं कबसे कितना चूना लगता आ रहा है । जिसे आप दूध मानकर पी रहे हैं क्या पता, वह यूरिया या कोई वाशिंग पाउडर का मिश्रण हो । घी में भी किसी गली के सूअर या कुत्ते की चर्बी हो जिसे किसी रसायन से घी की खुशबूवाला बना दिया गया हो । क्या पता आपका धनिया किसी गधे की लीद या जो चाय आप ताज़गी के लिए पी रहे हों वह किसी चमड़े के कारखाने की कतरनों का चूरा हो । इसीलिए पुराने लोग सभी चीजें खुद मूल रूप में खरीद कर लाते और अपने हाथ से खाना बनाते थे, भले ही तथाकथित प्रगतिशील और दलित प्रेमी उन पर छुआछूत का आरोप लगाएँ ।

हम आज इसी उपभोक्ता दिवस के उपलक्ष्य में एक उपभोक्ता संरक्षण का उलझा हुआ मामला आपके सामने रखना चाहते हैं और यदि आप चाहेंगे तो इसे अदालत या किसी मंत्री या फिर प्रणव दा के समक्ष उठाएँगे । मामला कोई नया नहीं है और न ही किसी से छुपा हुआ । आप सब भली प्रकार जानते हैं कि बहुत दिनों से एक गाना और कहीं बजे या नहीं लेकिन शादियों में ज़रूर बजता है । अपने भी सुना होगा लेकिन ध्यान नहीं दिया होगा क्योंकि इसका विज्ञापन ही इतना मादक और बहकाऊ है कि किसी को सोचने का मौका ही नहीं देता । गाना है- बन्नो तेरा झुमका लाख का रे, बन्नो तेरी नथनी है हजारी ..आदि-आदि ।

हम इसी गाने के सन्दर्भ में उपभोक्ताओं के अधिकारों के होने वाले हनन की ओर आपका और सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे । इस गाने में बन्नो और उसकी सजावट का बन्ने सहित मूल्य-निर्धारण चल रहा है । कहीं भी बन्नो की निर्मात्री कंपनी का नाम, स्थान, उत्पादन और अवसान तिथि का कोई उल्लेख नहीं किया गया है । यदि एक्सपायरी डेट निकल चुकी हो तो दवा लाभ के स्थान पर हानि भी कर सकती है ।

यह एक वस्तु का मूल्य निर्धारण है या सब एक साथ बिकाऊ हैं ? अलग-अलग खरीदने की बजाय एक साथ खरीदने पर क्या कोई छूट है ? क्या इन विज्ञापित वस्तुओं के साथ बन्नो भी है ? बन्नो या उसकी सामग्री या दोनों को इस प्रकार निजी क्षेत्र को बेचने का क्या कारण है ? क्या इसमें बालको ( भारत एल्यूमिनियम ) और सिंदरी खाद कारखाने की तरह कोई कमीशन का घपला तो नहीं है ? कहीं यह किसी डंकल का चक्कर तो नहीं है ?

चार चीजें कंगन, झाँझर, नथनी और टीका हजारी हैं पर इसमें भी स्पष्ट नहीं है कि यह सिर्फ हजारी है या फिर पाँच, दस, बीस या तीस हजारी है । और क्या पता यह तीस हजारी कहीं तीस हजारी कोर्ट तो नहीं है । वैसे आजकल सभी बिकाऊ है लेकिन तीसहजारी का इतना सस्ता बिकना शर्म की बात है ।

उक्त वस्तुओं के तौल, केरेट, धातु कुछ स्पष्ट नहीं किया गया है । ऐसे में उपभोक्ताओं के ठगे जाने की पूरी संभावना है ।


पाँच चीजें- बन्नो का मुखड़ा ( यह भी साफ नहीं है कि मेकअप से पहले का है या मेकअप के बाद का ) झुमका, मुंदरी, जोड़ा और बन्ना लाख के बताए गए हैं । इसमें भी गहनों के केरेट, तौल, धातु का ज़िक्र नदारद हैं । जोड़े के डिजाइनर के नाम का कहीं उल्लेख नहीं है । क्या पता संडे बाजार से खरीद कर ऋतुबेरी के नाम से महँगी कीमत वसूली जा रही हो । बन्ने को लाख का बताया गया है मगर उसकी कोई केटेगरी जैसे एस.सी., एस.टी., जनरल. ओ.बी.सी., दलित, महादलित, एन.आर.आई., अल्प संख्यक आदि नहीं बताई गई है । और इतना सस्ता मूल्य भी शंका पैदा करता है क्योंकि इतने में तो चपरासी भी तैयार नहीं होता । बन्नो के बारे में भी ये जानकारियाँ नहीं दी गई हैं ।

यदि पूर्ण पारदर्शिता हो तो यह भी बताया जाना चाहिए कि यह लांचिंग पहली है या दूसरी-तीसरी ?

इन सब शंकास्पद बातों के अलावा इसमें कामन वेल्थ और टू जी स्पेक्ट्रम जैसी कुछ गणितीय गलतियाँ भी हैं । कंगन, नथनी, झुमका, टीका, झाँझर हजारी हैं और मुखड़ा, झुमका, मुंदरी, जोड़ा, बन्ना लाख के हैं । और जब बन्नी सहित सब को मिलाया गया तो टोटल आया लाख । पाँच हजार और पाँच लाख को जोड़ा जाए तो टोटल पाँच लाख और पाँच हजार होना चाहिए । यहाँ तो सीधा-सीधा चार लाख और पाँच हजार का गबन है ।

खैर, इतनी सारी अनियमितताओं के बावज़ूद पाँच लाख और पाँच हजार की जोड़ी किसी तरह एक लाख की तो बची रही । नहीं तो, इस प्रकार के बन्नी और बन्नों को सब जानते हैं- एक धेले के नहीं होते । बन्नी, बन्ना बनने के बाद वैसे भी कीमत बहुत जल्दी गिरती है तभी फिल्मी हीरोइनें शादी को टालती रहती हैं । जब भी कोई पत्रकार पूछता है तो कहती हैं कि अभी तो इसके बारे में सोचने का समय ही नहीं मिला । हम तो कहते हैं कि यह नहीं पूछा कि 'यह शादी बाई द वे होती क्या है' ? जब तक देह का आकर्षण है तब तक शादी करनी भी नहीं चाहिए । यही तो कमाने का समय है । बाद में कोई विज्ञापन दाता मिलेगा भी तो मच्छर मारने की दवा का या चावल का और वह भी तब जब हेमा मालिनी अस्सी बरस की हो न जाएगी । इस मामले में करीना, दीपिका और कैटरीना कैफ बहुत समझदार हैं ।

और फिर कौन सा काम है जो शादी किए बिना नहीं हो सकता है । आजकल तो कहीं भी फिजिक्स और केमेस्ट्री मिलने-मिलाने की छूट हैं जैसे कि पहले शाहिद के साथ फोटो शूट और अब दुहाजू सैफ के साथ । और फिर आजकल सेफ रहने के साधनों की कौन कमी है ?

इन अवांतर प्रसंगों के बावज़ूद उपभोक्ता हित का हमारा प्रश्न वहीं का वहीं है और उपभोक्ता जागृति की माँग करता है ।

१५-मार्च २०१२

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