Aug 29, 2011

संविधान संरक्षक, संत शिरोमणि, साधू लालू प्रसाद यादव



लालू जी,
लोग भले ही आपको घोटालिया, भ्रष्ट, चाराचोर, परिवारवादी - कुछ भी कहें मगर हमारी निगाह में तो आप 'साधू' हैं । वैसे 'साधू' में कुछ लोग 'उ' ह्रस्व लगाते हैं, तो कुछ दीर्घ । पर मात्रा से क्या होता है ? मात्रा तो लगाने वाले पर निर्भर है- छोटी लगाए या बड़ी । असली मात्रा तो गुणों की होती है । 'साधू' में और किसी भी चीज की मात्रा चाहे कम हो मगर ज्ञान, गुण, गरिमा और जिज्ञासा की मात्रा कम नहीं होनी चाहिए । सो आपमें ये चारों गुण पर्याप्त मात्रा में हैं । कबीर ने भी अपने दोहे में 'साधू' लिखा है-


साधू ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय ।।

इस दृष्टि से हमें आप सच्चे 'साधू' नज़र आते हैं भले ही लोगों ने आपके साले साहब को 'साधू' के नाम से प्रसिद्ध कर रखा है । यदि उसमें कोई साधूपना सचमुच में है तो वह आपके संरक्षण, संगति और सत्कर्मों का ही प्रभाव है ।

आपने अपने 'साधूपने' का प्रत्यक्ष प्रमाण संसद में अन्ना हजारे के आन्दोलन पर विचार व्यक्त करते हुए दिया । जब आप भाषण दे रहे थे तो श्रोता ऐसे सुन रहे थे जैसे कि अर्जुन भगवान कृष्ण से गीता का उपदेश सुन रहे हों । किसी के मुँह से कोई आवाज़ नहीं निकल रही थी । सब आपके वचनामृतों का पान कर रहे थे । किसी ने भी कोई विरोध नहीं किया क्योंकि आपके आप्त वचनों में विरोध करने जैसी कोई बात थी ही नहीं । जब कभी मंत्रमुग्ध सांसदों को थोड़ा-सा होश आता था तो मेजें थपथपा कर आपका समर्थन करते थे । भले ही हम नगरपालिका के वार्ड मेंबर तक भी कभी नहीं रहे पर संसद के कई अधिवेशनों को हमने दर्शक दीर्घा से देखा है । बहुत से चुनाव भी करवाए हैं और बच्चों को नागरिक शास्त्र भी पढ़ाया है मगर ऐसी अद्भुत, निर्मल, सकारात्मक एकता और शालीनता संसद में कभी देखने को नहीं मिली ।

भले ही कुछ निंदक संसद को चोरों का अड्डा कहें, आँकड़ेबाज़ कहें कि संसद में आधे से ज्यादा हिस्ट्रीशीटर और अभियुक्त हैं मगर हमें तो उस दिन का अधिवेशन देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कि नेमिषारण्य में भागवत कथा हो रही हो । सारे संत लोभ मोह, स्वार्थ, सुख त्याग कर केवल लोकतंत्र, संसद, संविधान की ही चिंता में मुग्ध थे । ठीक भी है - ए.राजा, कलमाड़ी, साधू यादव, पप्पू यादव, सुखराम, फूलन देवी और आप जैसे संतों ने जिस लोकतंत्र, संविधान और संसद को अपने खून पसीने से सींचा है उसे एक अन्ना हजारे जैसे सिरफिरे आदमी के कारण नष्ट-भ्रष्ट और ध्वस्त तो नहीं होने दिया जा सकता ना ।

अन्ना हजारे जैसे संविधान, संसद और लोकतंत्र के शत्रुओं से तो आप और संसद में बैठे सारे संत एकजुट होकर निबटेंगे ही पर हमने आपको शुरु में ही 'साधू' शब्द से संबोधित किया था उसकी बात तो भूले ही चले जा रहे हैं । साधू की सबसे बड़ी पहचान यही होती है कि वह व्यर्थ बातों को छोड़ कर केवल सार को ही ग्रहण करता है । अन्ना ने कितनी ही अनर्गल बातें कीं मगर आपने उसमें से एक काम की बात छाँट ली कि डाक्टरों को इस बात की जाँच करनी चाहिए कि चोहत्तर बरस का एक बूढ़ा आदमी कैसे बारह दिन तक भूखा रह सकता है ?

वैसे भूख बहुत बुरी होती है । कहते हैं 'भूख में किवाड़ पापड़' । हमारी दादी बताया करती थी कि जब संवत १९५६ में अकाल पड़ा तो भूखे लोग पेड़ों के छिलके तक खा गए । हमें तो पता नहीं पर अपनी सत्तर साल की छोटी सी उम्र में इतना तो हमने भी देखा है कि भूख से पीड़ित जनसेवकों ने भूख मिटाने के लिए सीमेंट, चारा, कोलतार, ब्लेक-बोर्ड, चाक, बिजली के खम्भे, पत्थर, गिट्टी जैसी न खाने योग्य वस्तुएँ खाकर भी किसी तरह काम चला लिया मगर कभी किसी सड़क पर चलते मनुष्य, कुत्ते-बिल्ली को पकड़कर खाने जैसा हिंसक काम नहीं किया ।

वैसे भूख ही इस दुनिया में सबसे बड़ी बीमारी और समस्या है । लोग स्वर्ग इसीलिए जाना चाहते हैं कि वहाँ भूख-प्यास का चक्कर नहीं है । इस 'भूख' से लड़ने के लिए अन्ना हजारे ही यह 'अनशन-कला' देश हित में लाभदायक हो सकती है । आपके अलावा और किसी सांसद ने इस 'अनशन कला और विज्ञान' के महत्त्व को नहीं समझा । आपने इस सारे धुआँधार में से 'सार' को निकाल लिया । हमने आपको ऐसे ही न 'साधू' थोड़े कहा है ? यदि देश के सभी बी.पी.एल. कार्डधारी महिने में बारह क्या, आठ दिन भी सफलतापूर्वक अनशन कर सकें तो सोचिए नरेगा, सस्ता अनाज और मध्याह्न भोजन का कितना अन्न ‘सेवकों’ के खाने के लिए बच जाएगा ? सरकार सस्ता अन्न विदेशों को निर्यात करके कितनी विदेशी मुद्रा कमा सकेगी ? फिर शायद कोई भी सेवक कोई अखाद्य वस्तु खाने को विवश नहीं होगा ।

अन्ना ने अपनी इस 'भूख भगा तकनीक' का रहस्य ब्रह्मचर्य को बताया है । पर हमें लगता है कि वे सच छुपा रहे हैं । लगता है कि वे गुपचुप इसका पेटेंट करवाएँगे । हमारा तो मानना है कि जब कोई व्यक्ति किसी महान कार्य में व्यस्त हो जाता है तो वह सरलता से भूख प्यास को जीत लेता है । इसीलिए हमने कई-कई बीवियों और दसियों बच्चे वाले नेताओं के फोटो देखें है मगर उनमें वे कहीं भाषण दे रहे हैं, कहीं उद्घाटन कर रहे हैं, कहीं साफा पहने हुए हैं, कहीं शिलान्यास कर रहे हैं । नेताओं के बहुत कम फोटो हमने देखे हैं जिनमें वे खाना खा रहे हों । यदि कभी भूले से खाना खाते भी हैं तो ऐसे जैसे कि भगवान शबरी के बेर चख रहे हों ।

अन्ना की इस तकनीक का पता तो जब चलेगा, तब चलेगा मगर हमारा मानना है कि रक्षामंत्री एंटनी और वित्तमंत्री प्रणव मुकर्जी से कह कर अन्ना की पेंशन अभी से तीन चौथाई कम करवा दी जानी चाहिए क्योंकि उनके न तो बीवी है और जब बीवी नहीं है तो बाल-बच्चे भी नहीं हैं । और फिर बड़े आराम से महिने में आठ-दस दिन भूखे भी तो रह सकते हैं ।

वैसे जहाँ तक तकनीक का सवाल है तो तकनीकें तो आपके पास भी कम नहीं हैं । राबड़ी जी ने भैंस का दूध और सब्जियाँ बेचकर बच्चों को मेयो कालेज में पढ़ाया और दस-बारह बच्चों को भर पेट खाना खिलाया और चुनाव के लिए भी खर्चा जुटाया । ज़रूर आपने भैंस की कोई ऐसी नस्ल विकसित की होगी जो कामधेनु की तरह दूध क्या, सब कुछ दिए ही चली जाती है । अच्छा हो कि आप भैंस की ऐसी नस्ल विकसित करने की तकनीक देश को मुफ्त में उपलब्ध करवा दें जिससे सभी दूधिए अपने बच्चों को मेयो कालेज में पढा सकें और राजनीति करने के लिए चुनाव का खर्चा जुटा कर देश की सेवा भी कर सकें । इसी तरह से पेट्रोल की समस्या से जूझ रहे देश को उस तकनीक से भी अवगत करवा दें जिसमें एक स्कूटर हरियाणा से चार भैसों को पटना ले जा सके ।

वैसे तो भुखमरी से जूझ रही दुनिया के लिए भूख मिटाने या भगाने या अनशन की तकनीक ज्यादा ज़रूरी है मगर अब भी कुछ ऐसे सेवक हैं जिनके पास अनाप-शनाप पैसा है । वे खाने के अलावा उस पैसे का कोई उपयोग नहीं जानते । हाजमोला और दशमूलारिष्ट का सेवन करने के बाद भी पैसा है कि निबट ही नहीं रहा है । इसलिए अच्छा हो कि आप वह तकनीक ऐसे नेताओं के लिए मुफ्त में उपलब्ध करावा दें जिससे आपके कार्यकाल में एक मुर्गी एक दिन में आठ सौ रुपए का खाना खा लेती थी जो कि आज के हिसाब से कोई पाँच हज़ार रुपए का बैठता होगा । और उसे अजीर्ण भी नहीं होता था ।

खैर, ये तो छोटी बातें हैं । गरीब हो या अमीर खाना-पीना तो चलता ही रहता है । सबसे बड़ी बात आपने जो उठाई वह है संसद और संविधान की गरिमा की । लोगों ने तमाशा समझ रखा है । उन्हें पता नहीं किस तरह शहीदों ने अपने भारत को आज़ादी दिलवाई और किस तरह उस समय के महान नेताओं ने यह संविधान बनाया और आज, कैसे आप जैसे सेवाभावी नेता जाने कहाँ-कहाँ से पेट काट कर पैसे जुटाकर, सारी सुख-सुविधाएँ छोड़कर, अपने परिवार के सारे सदस्यों को इस पुनीत कार्य में लगाकर उस संविधान की रक्षा के लिए चुनाव लड़ते हैं, यह बात सरकारी नौकरी करने वाले, छोटा-मोटा व्यापार करने वाले, किसान मज़दूर क्या समझेंगे ? इन्हें इतनी बड़ी बातों की खबर ही नहीं और न ही इतना सेवा-भाव । यह तो नेता ही जानता है कि सेवा धर्म कितना कठिन है ? कौन है जो कलमाड़ी, ए.राजा. कनिमोझी, सुखराम और आपकी तरह जनता की सेवा करते हुए जेल के कष्ट भोगता है ? अन्ना हजारे, किरण बेदी सब मजे से अपनी पेंशन पेल रहे हैं और भाषण झाड़ रहे हैं । शांति भूषण और प्रशांत भूषण ने कौन सी अपनी प्रेक्टिस छोड़ दी । सब अपना धंधा कर रहे हैं । ये तो आप, मुलायम और मायावती जैसे लोग हैं जो कोई अपनी खेती, कोई मास्टरी, कोई डेयरी छोड़कर देश की सेवा कर रहे हैं और संविधान की रक्षा कर रहे हैं वरना ये अन्ना हजारे जैसे लोग कब के संसद भवन की ईंटें उठा ले जाते और संविधान की किताब को रद्दी में बेच देते ।

सबसे अच्छी बात यह देखने को मिली कि संविधान की रक्षा के लिए सारे सांसद एकमत दिखाई दिए । ठीक भी है, ये आलतू-फालतू लोग और मनमोहन जी, अरुण जेतली, गुलाम नबी आज़ाद जैसे राज्य सभा के थ्रू दंड पेल रहे लोग क्या जानें कि चुनाव के खर्चे, समस्याएँ और खुराफातें क्या होती हैं, संविधान और लोकतंत्र क्या होता है ? और फिर कितना बड़ा उद्योग है संविधान की रक्षा करना ? लाखों पुलिस, लाखों नेता, करोड़ों चमचे, गुंडे, अपराधी इस काम में लगे हुए हैं । यदि संविधान को कुछ हो गया तो ये सब क्या खाएँगे, कहाँ जाएँगे और सबसे बड़ी बात यह कि हम सबसे बड़े लोकतंत्र होकर, सबसे धनवान लोकतंत्र अमरीका को क्या मुँह दिखाएँगे कि हम इतने सेवक मिल कर, इतनी बड़ी पुलिस के होते हुए भी संविधान की रक्षा नहीं कर सके ।

यदि अन्ना जैसे लोगों को अभी से नहीं रोका गया तो कल को कोई भी पूछने लग जाएगा कि फलाँ मंत्री या फलाँ नेता दिन में पाँच बार धोबी के धुले कुर्ते-पायजामे कहाँ से बदलता है ? चालीस बरस ईमानदारी से नौकरी करने वाले सेवा निवृत्त कर्मचारी के पास एक साइकल भी नहीं है और एक सरपंच कैसे पाँच सौ रुपए मानदेय के बल पर जीप में घूमता है और कैसे बिना कोई नौकरी किए ठाठ से रहता है ?

ऐसे में कोई नहीं आने वाला संविधान की रक्षा करने । फिर हम ऊपर जाकर गाँधी, नेहरू, अम्बेडकर को क्या मुँह दिखाएँगे ? इसलिए भले ही ऐसे लोगों को आधी रात को डंडे मारकर खदेड़ना पड़े, किसी के पीछे भी इनकम टेक्स वाले, सी.बी.आई. वाले लगाने पड़ें, पद या पैसे के लालच की मेनका भेज कर किसी भी विश्वामित्र की तपस्या भंग करवानी पड़े, मगर संविधान की रक्षा ज़रूर होनी चाहिए ।

आमीन ।

२८ अगस्त २०११

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Aug 18, 2011

पड़ी कुएँ में भंग, भगत जी


पड़ी कुएँ में भंग, भगत जी ।
ठीक नहीं हैं ढंग, भगत जी ।

रंग-रँगीले राजा-रानी
पर जनता बदरंग, भगत जी ।

क्या कर ले ससुरी कविताई
सभी काफिये तंग, भगत जी ।

मेहनतकश अधभूखे सोते
खाएँ माल मलंग, भगत जी ।

उधर तोप है, इधर निहत्थे
गैर-बराबर जंग, भगत जी ।

हर लम्हा है रात कतल की
कीलों जड़ा पलंग, भगत जी ।

देखें कितने दिन निभता है
दूध-खटाई संग, भगत जी ।

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Aug 4, 2011

सफेदपोश घसियारों का सौंदर्यबोध (जन्नत की हकीकत - अमरीका यात्रा के अनुभव)


सफेदपोश घसियारों का सौंदर्यबोध

 (जन्नत की हकीकत - अमरीका यात्रा के अनुभव)

२३ जून २०११ को स्थानीय समय के अनुसार रात के कोई दस बजे अमरीका के कनाडा की सीमा से लगते राज्य ओहायो के स्टो कस्बे में पहुँचा । भारत में इस समय सुबह के कोई साढ़े सात बज रहे थे । यह सब इसलिए कि भारत पूर्वी गोलार्द्ध में है तो अमरीका का यह स्थान पश्चिमी गोलार्द्ध में । शरीर को अपने को नई स्थिति में ढालने में दो-चार दिन का समय लगता है और तब तक होने वाली शारीरिक अव्यवस्था और बेचैनी को तकनीकी भाषा में 'जेट-लेग' कहते हैं । आदतन इस समय भारत में तो नित्य कर्म निबटा रहा होता सो नींद नहीं आ रही थी । समय बिताने के लिए इंटरनेट पर अखबार पढ़ने की अन्त्याक्षरी शुरु कर दी ।


जिन दो-चार अखबारों की साईट मुझे पता थी उन्हें पढ़ लेने के बाद भी जब नींद नहीं आई तो यहाँ के न्यूज साईट ए.बी.सी. ( अमरीकन ब्रोडकास्टिंग कोरपोरेशन ) को खोल कर पढ़ने लगा । एक समाचार पर निगाह पड़ी कि कनाडा की सीमा से लगे मिशिगन राज्य की 'ओक पार्क' नामक टाउनशिप में रहने वाली जूली बाश के घर के सामने नगरपालिका के सीवर ठीक करने वाले लोगों ने कुछ हिस्से की खुदाई की और मजे की बात यह कि उस मिट्टी को यथास्थान भरने की बजाय भारतीय स्टाइल में उसी तरह छोड़ गए । मिट्टी को दुबारा उसी स्थान में भरने की परेशानी से बचने के लिए उस महिला ने उस मिट्टी को वहीं फैला कर एक ऊँची उठी हुई क्यारी बना दी और उसमें कुछ सब्जियों के बीज डाल दिए ।

यहाँ पिछले कोई पचास वर्षों से 'टाउनशिप' का फैशन चला है । शहरों की घनी आबादी, कोलाहल और आपराधिक वातावरण से दूर खुले, शांत और एकांत वातावरण में रहने के इच्छुक, अपना वाहन रखने वाले और रोजाना घर से काम पर आने-जाने का खर्चा उठ सकने और नया मकान बना सकने की हैसियत वाले लोगों ने ऐसी ही टाउनशिपों में रहना शुरु कर दिया । जब किसी टाउनशिप के आसपास व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ने लगती हैं तो वहाँ के मकानों की कीमत गिरने लगती है क्योंकि व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ने से सभी तरह के लोगो की आवाजाही से अपराधों का बढ़ना स्वाभाविक है । इसी बात को ध्यान में रखकर ऐसी टाउनशिपों में किसी भी प्रकार की व्यापारिक गतिविधि नहीं हो सकती । आपके पास कार होना अनिवार्य है क्योंकि छोटी-मोटी चीजें खरीदने के लिए भी आपको दो-तीन किलोमीटर तो जाना ही पड़ेगा जो कि सामान्य रूप से किसी के लिए भी संभव नहीं है । इस प्रकार ऐसे इलाकों के निवासियों में कुछ विशेष प्रकार की सफेदपोशी की भावना पैदा हो जाती है ।

सो मिशिगन राज्य के ओकपार्क की जूली बाश इसी सफेदपोशी सौंदर्यबोध की कुंठा का शिकार हो गई । किसी सौंदर्य प्रेमी ने स्थानीय निकाय को शिकायत कर दी कि टाउनशिप के नियमों के अनुसार घर के सामने सब्जी नहीं लगाई जा सकती और उसे घर के सामने सब्जियाँ लगी देखकर भद्दा लगता है । खबर के विस्तार में जाने पर पता चला कि यदि किसी कानून के अंधे ने नियमों को उनके शाब्दिक अर्थों में लागू कर दिया तो शायद जूली को तीन महिने की सज़ा हो सकती है ।

कोई दस-ग्यारह वर्ष पहले जब अमरीका आया था तो एक समाचार पढ़ा था कि किसी चीनी प्रवासी के पिताजी यहाँ आए । चीन और भारत के सामान्य लोग स्वभावतः आज भी कृषिकालीन समाज के मूल्यों और संवेदनाओं से जुड़े हैं । उस चीनी के पिता के पास तो समय पर्याप्त था ही । उसने देखा कि अपार्टमेंट्स के आसपास खाली जमीन पड़ी है सो उसने बिना किसी व्यक्तिगत फायदे की कामना के टमाटर के कुछ पौधे लगा दिए । सेवा और देखभाल से शीघ्र ही उन पौधों पर टमाटर भी लगने लगे । मगर जैसे ही एक सौन्दर्यबोधी की नज़र उस पर पड़ी तो उसने ऐतराज़ किया और उस आवासीय परिसर की सुंदरता की रक्षा के लिए टमाटर के उन पौधों को उखड़वा दिया गया ।



अमरीका की ऐसी ही टाउनशिपों में से जिस एक में मैं रह रहा हूँ उसमें कोई २५० मकान हैं । हर मकान को औसतन कोई १०००-१५०० सौ वर्ग गज ज़मीन मिली हुई है जिस पर निर्मित क्षेत्र तो कोई तीन-साढ़े तीन सौ गज ही होगा; नीचे बेसमेंट; उस पर रसोई, बैठने का कमरा, खाना खाने का स्थान और लिविंग रूम तथा सबसे ऊपर सोने के तीन-चार कमरे । बाकी १००० वर्ग गज मतलब कि कोई एक बीघा ज़मीन खाली जिसमें कई बड़े-छोटे पेड़ और घास । एक भी काम की वनस्पति नहीं । अनुमान लगाया गया है कि अमरीका में बनी इस प्रकार की टाउनशिपों में बने मकानों के चारों तरफ छूटी ज़मीनें अमरीका के इलेनोय राज्य की कुल ज़मीन के बराबर है अर्थात कोई डेढ़ लाख वर्ग किलोमीटर । इन ज़मीनों पर लगी घास और पेड़ों को हरा-भरा और सुरक्षित रखने के लिए पानी, खाद, कीटनाशक और कटाई-छँटाई करने के लिए चलाई जाने वाली मशीनों में फुँकता पेट्रोल मतलब कि अरबों डालर का खर्चा और प्राप्ति कुछ नहीं । घर के मालिक को इसके अलावा रोज एक-दो घंटे का समय भी इस सौंदर्यबोध के लिए देना पड़ता है । २२ जुलाई २०११ को इस राज्य ओहायो वाले इस इलाके में राजस्थान की तरह तापमान ४२ डिग्री पहुँच गया जिससे अपने लान की घास काटते हुए दो बुजुर्ग मर भी गए । सफेदपोश पड़ोस के सौंदर्य के साथ कदम मिला कर चलना ज़रूरी जो था क्योंकि दोपहर में किसी नीम या खेजड़ी के पेड़ के नीचे बैठकर बतियाना, सुस्ताना और सत्तू खाना तो निहायत पिछड़ापन है ।

जो बातें मेरे दिमाग में उस दिन आ रही थीं वे ही आज भी आ रही हैं मगर मैंने उन्हें उस समय नहीं लिखा क्योंकि मुझे २६ जुलाई २०११ का इंतज़ार था जिस दिन इस मामले का फैसला आना था । मुझे विश्वास था कि जूली बाश को सज़ा नहीं होगी और हुआ भी ऐसा ही कि अदालत ने उस केस को खारिज कर दिया क्योंकि सौंदर्यबोध की कुंठा से ग्रस्त सफेदपोश घसियारों की तरह शेष समाज का विवेक खत्म नहीं हुआ है ।

ऐसे में मुझे १९६५ में तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी द्वारा किया गया आह्वान- 'यदि सारा देश सप्ताह में एक शाम को उपवास करे तो इस खाद्य समस्या से निबटा जा सकता है' याद आ रहा था जो उन्होंने अमरीका द्वारा अपने पाकिस्तान प्रेम के कारण भारत को अनाज का निर्यात रोकने की धमकी के बाद किया था । देश ने बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से इसे अपनाया था और खाली पड़ी ज़मीन के हर टुकड़े पर कुछ न कुछ खाद्य उगाना शुरु कर दिया था । और हम उस समस्या से निबटाने में समर्थ हो गए थे । वैसे भी देखा जाए तो यह कोई कष्ट नहीं है बल्कि सप्ताह के एक समय का उपवास एक उपचार है जो आदमी को मितव्ययिता ही नहीं बल्कि अनुशासन भी सिखाता है और उसे स्वस्थ भी बनाता है ।

अमरीका में भले ही खाद्य पदार्थो की कमी का रोना नहीं रोया जाता मगर यह तय है कि शाकाहार यहाँ माँसाहार से अधिक महँगा है । गरीब लोग तो शाकाहार कर सकने की आर्थिक स्थिति में ही नहीं हैं और अन्य बहुत से लोग अपने अभ्यासवश माँसाहार किए जा रहे हैं । आजकल दुनिया में जो माँसाहार है वह परंपरागत माँसाहार से नितांत भिन्न है । पहले जंगल में रहने वाले स्वस्थ पशुओं का शिकार किया जाता था और उन्हें तत्काल खा लिया जाता था । आजकल पशुओं को माँस के लिए पालने को अमरीका द्वारा खोजी गई शब्दावली में 'फार्मिंग' कहते हैं मतलब कि गाय, मुर्गियाँ, सूअर, टर्की आदि सब एक फसल हैं । क्या आप सब्जी काटने, छीलने, पकाने, खाने की तरह इन जानवरों का तड़पना, और इनके रक्त, माँस, मज्जा का बहना आदि सब सहज भाव से देख सकते हैं ? आप ही क्या माँस खाने वाले अधिकतर लोग भी नहीं देख सकेंगे । बहुत कम ऐसे लोग है जो खुद किसी जानवर को मारते, काटते, पकाते और खाते हैं बल्कि अधिकतर लोग तो डिब्बों में पैक ऐसा माँसाहार लाते हैं जिन्हें खाने वाले को केवल डिब्बे पर लिखे निर्देशों और सूचनाओं से ही पता चलता है कि इसमें क्या है ? यदि जानवरों को मारने और माँसाहार तैयार करने की सारी प्रक्रिया सबको दिखा दी जाए तो शायद अमरीका के भी करोड़ों लोग माँसाहार छोड़ देंगे ।

आजकल के इस प्रकार के माँसाहार और उसके उत्पादन में जो तरीके अपनाए जाते है वे भी स्वाभाविक और स्वास्थ्यकर नहीं हैं । माँसाहार के लिए पाले जाने वाले जीवों का वज़न जल्दी बढ़ाने के लिए तरह-तरह के 'ग्रोथ होरमोन' दिए जाते है जिससे उनकी बहुत जल्दी वृद्धि तो हो जाती है मगर ये हार्मोन उसे खाने वाले व्यक्तियों में भी पहुँच जाते है जिससे उनकी भी अस्वाभाविक और असंतुलित वृद्धि हो जाती है क्योंकि मन और मष्तिष्क तो केवल आहार से फटाफट नहीं बढाए जा सकते । वे तो अनुभव, अनुशासन, श्रम और साधना से अपने समय पर परिपक्व होते हैं । इसीलिए आजकल माँसाहार करने वाले बच्च्चों में शरीर अपेक्षाकृत जल्दी बढ़ रहा है मगर उसके अनुपात में मानसिक विकास नहीं हो रहा है । माँसाहार करने वाले बच्चों में जो हाइप ( शारीरिक और बाह्य उत्तेजना ) दिखाई देती है वह इसी असुंतलन के कारण है ।

महँगे शाकाहार की समस्या को खाली पड़ी इस ज़मीन के सदुपयोग से किया जा सकता है । एक हज़ार वर्ग गज के प्लाट पर इतनी सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं कि एक परिवार मज़े से घर की ताज़ा और पूर्णतः प्राकृतिक सब्जियाँ खा सकता है और एक-दो बकरियाँ भी पाली जा सकती है जो दूध भी उपलब्ध करवा देंगी मगर इसके लिए सफेदपोशों के इस तथाकथित सौंदर्यबोध की दिशा का बदलना ज़रूरी है जो केक्टस और घास की बजाय सब्जी और घरेलू पशुओं में भी सौंदर्य देख सके ।

टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए सेक्स, हिंसा, घोटालों और ऐसे ही अन्य सनसनीपूर्ण समाचारों की जुगाली करते रहने वाले मीडिया के लिए यह कोई बड़ी खबर नहीं हो सकती थी मगर मेरे लिए तो यह खबर और फिर जूली बाश का मामला खारिज कर दिया जाना किसी परमाणु समझौते की खबर से कम नहीं है । बकरी तो नहीं मगर मैनें यहाँ घर के पीछे मूली, धनिया, टमाटर, आलू, खीरा, बैंगन, पालक, तरह-तरह की फलियाँ, मिर्च आदि सरलता से लग सकने वाली सब्जियाँ लगाने के लिए क्यारियाँ खोदना शुरु कर दिया है । और भी कई सब्जियों के बारे में जानकारी करूँगा । इस इलाके में सेव, अखरोट, आलूबुखारा, नाशपाती, अंगूर, खरबूजा, तरबूज, आड़ू, स्ट्राबेरी आदि फल भी बिना अधिक मेहनत के बहुतायत से उगते हैं । वे भी उगाने की योजना है । बड़ी ज़रखेज़ धरती है यहाँ की ।

जीवनदायिनी माँ वसुंधरा को प्रणाम । उसका पयः पान वात्सल्य भाव के बिना संभव नहीं है ।
रमेश जोशी
३१ जुलाई २०११

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