Sep 17, 2011

पानी का मोल ( जन्नत की हकीकत - अमरीका यात्रा के अनुभव )

२२ जून २०११ को रात सवा दो बजे अर्थात 2.15 a.m. पर बैंगलोर से वाया फ्रेंक्फर्ट डेट्रॉयट ( अमरीका ) के लिए लुफ्तांसा के विमान से अमरीका के लिए रवाना हुए । कोई नौ-दस घंटे की उड़ान है बैंगलोर से फ्रेंकार्ट तक की । इससे पहले भी एक बार २००० में वाया फ्रेंक्फर्ट अमरीका गया था । मगर उस समय चूँकि पहला अवसर था सो कहीं भी ध्यान देने की बजाय किसी ऐसे यात्री को तलाशा जो हमारी तरह ही अमरीका के अटलांटा शहर जा रहा हो । एक सज्जन मिल गए, सो सारा ध्यान उनकी तरफ लगा रहा । पता नहीं, कब गाय की पूँछ छूट जाए और भावासगर में बीच में ही डूब जाएँ । दूसरी बार २००७ में जब अमरीका गए थे तो बेटा साथ था इसलिए कुछ सोचने-समझने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी । वह यात्रा दिल्ली से सीधी नेवार्क ( न्यू जर्सी-अमरीका ) होते हुए थी । और नेवार्क में तो क्लीवलैंड ( ओहायो ) के लिए प्लेन पकड़ने में एकदम भागाभागी थी अन्यथा फिर अगली फ्लाईट तक इंतज़ार करना पड़ता । इसलिए कुछ सोचने-समझने का मौका ही नहीं मिला ।



बैंगलोर में प्लेन में बैठने के कुछ समय बाद ही खाना और कुछ पेय पदार्थ आ गए । भले ही जर्मनी वालों की दिनचर्या के हिसाब से यह खाना खाने का समय हो मगर अपने हिसाब से तो आधी नींद पूरी हो जानी चाहिए थी । यह बात और है कि मजबूरी में जगाना पड़ रहा था । खाना खाने का तो प्रश्न ही नहीं । हालाँकि खाने का पैसा टिकट में ही शामिल था सो हिम्मत करके वसूल कर ही लेना चाहिए था पर पेट तो अपना ही था । यदि आज से कोई चालीस-पचास बरस पहले की बात होती तो पेट खराब होने की चिंता न करते हुए भी पैसे वसूल करने के लिए खा ही लेते मगर अब सत्तर के पेटे में पहुँच कर ऐसा दुस्साहस करना ठीक नहीं । सो सोना ही उचित समझा ।

किसी धनबली, बाहुबली या राजबली परिवार में जन्म लेते ही, बिना किस अनुभव के व्यक्ति युवा-हृदय सम्राट, भारत का भावी प्रधान मंत्री हो जाता है । अपने से दुगुनी उम्र के अनुभवी मंत्रियों के लिए वह आदरणीय और उसका 'पाद' पूज्य हो जाता है मगर साधारण आदमी के लिए तो अनुभव बहुत ज़रुरी होता है और आप-हम सब जानते हैं कि अनुभव का मतलब धक्के खाना होता है । हमारे बाल एयरकंडीशंड में सफ़ेद नहीं होते । भले ही पहली यात्रा में किसी की पूँछ पकड़कर भवसागर पार किया हो फिर भी यह तीसरी हवाई यात्रा थी और वाया फ्रेंकफर्ट दूसरी । सो हम अनुभवी हो गए थे । यहाँ तक कि सीट बेल्ट भी बिना किसी विदेशी मदद के बाँधना आता था ।

और फिर फ्रेंकफर्ट में तो प्लेन बदलने के लिए कोई पौने छः घंटे का समय भी मिलने वाला था । जिन्हें फ्रेंकफर्ट ही जाना था उनकी तो ज़ल्दी करने की बात समझने में आती है मगर जिसे कहीं और जाने के लिए फ्रेंकफर्ट से दूसरी उड़ान दो-चार घंटे में मिलने वाली हो उसे ज़ल्दी करने की क्या ज़रूरत । मगर यह मानव स्वभाव है कि चढ़ने में जितनी ज़ल्दी, उतनी ही उतरने में भी ज़ल्दी ।

प्लेन में बैठे हुए कोई दस घंटे हो गए थे सो फ्रेंकफर्ट पहुँचने से कोई दो घंटे पहले ही नित्य कर्म से निवृत्त हो लिए । प्लेन रुकते ही लोगों को उतरने की ज़ल्दी । सामान उठाने की बजाय घसीट रहे थे मगर हम अपनी सीट पर आराम से बैठे रहे । बड़े सामान तो डेट्रोइट में उतरने थे । इस बदली में हमें तो एक छोटा सा हैंडबैग उठाना था । लगभग सभी यात्री प्लेन से उतर गए । कर्मचारियों को भी ज़ल्दी थी सो उन्होंने खुद ही हमारा सामान उठवाया और प्लेन से बाहर किया । फुर्सत का पहला महत्त्व समझ में आया ।

आराम से अपने संबंधित गेट तक जाने वाली बस पकड़ी । जब उस गेट पर पहुँचे तो बहुत से लोगों की लंबी लाइन लगी देखी जिसमें कुछ भारतीय भी थे । माथा ठनका । घड़ी पर नज़र डाली तो डेढ़ बज रहा था । और फ्लाईट छूटने का समय था कोई एक बजकर पचास मिनट । अब आपसे क्या बताएँ कि हमारी क्या हालत हो गई ? बस समझो कि वही हालत हो गई जो राज्य सभा में आकर मंत्री बनने वाले मंत्रियों की लोकसभा भंग होने पर हो जाती है ; मनमोहन, मोंटेक या चिदंबरम की अमरीका का सेंसेक्स गिरने से हो जाती है या कि जैसे पुलिस द्वारा मज़मा उखाड़ दिए जाने पर बाबा रामदेव की हो गई थी । जो थोड़ी बहुत टूटी-फूटी अंग्रेजी आती थी वह भी भूल गए । एक भारतीय से लगने वाले सज्जन से शुद्ध हिन्दुस्तानी में पूछा- भैया, यह डेट्रायट जाने वाली फ्लाईट की लाइन है क्या ? उत्तर मिला - नहीं, यह तो अटलांटा जाने वालों की लाइन है । फिर इन्क्वायरी की तरफ भागे । रास्ते में एक से टाइम पूछा तो उसने एक बड़ी सी घड़ी की तरफ इशारा कर दिया । देखा तो नौ बजे थे । यह क्या चक्कर ? अपने वाली घड़ीमें दो बजने वाले हैं और इसमें नौ । ये पाँच घंटे कहाँ गए ? तसल्ली से बैठकर हिसाब लगाया तो ध्यान में आया कि एक तो हम पूर्व से पश्चिम की तरफ आ रहे थे दूसरे धरती पश्चिम से पूर्व की ओर घूम रही है सो प्लेन और पृथ्वी दोनों की स्पीड मिल कर ये पाँच घंटे निबट गए जैसे कि दिल्ली से चले सौ पैसे जयपुर पहुँचते-पहुँचते पन्द्रह रह जाते हैं । वैसे गलती तो हमारी ही है कि हम जर्मनी में प्लेन से उतरते समय अपनी घड़ी स्थानीय समय के अनुसार मिलाना भूल गए थे । खैर, 'जान बची और लाखों पाए' मगर बुद्धू को घर लौटने में तो अभी काफी समय बाकी है ।


जब साँस सामान्य हुई, घबराहट कम हुई तो संसार की माया ने आ घेरा मतलब कि भूख प्यास का पता चला । रात को प्लेन में खाना नहीं खाया था और सुबह नाश्ता भी नहीं किया था सो भूख की अनुभूति हुई । सुदामा की तरह बाँध कर लाए अपने भुने चनों( भुगड़ों ) का पैकेट निकाला । भले ही लोग पश्चिम के फास्ट फूड की कितनी ही प्रशंसा करें मगर सत्तू, धाणी-भुगड़ों जैसा कोई भी फास्ट फूड दुनिया में नहीं है । साल-छः महिने खराब नहीं होता । फ्रिज का झंझट नहीं । सर्दी- गरमी से सदैव अप्रभावित । वैसे आजकल खाने-पीने के डिब्बा बंद सामानों की कहीं कोई कमी नहीं । भारत के छोटे से गाँव-ढाणी तक में भले ही धाणी- भुगड़े न मिलें पर कोकाकोला और लेज के चिप्स ज़रूर मिल जाएँगे । मगर इन पश्चिमी देशों में एक बात का बहुत डर लगता है कि जो खा रहे हैं वह पता नहीं क्या है ? कुछ ऐसी भाषा में लिखा रहता है कोई वकील भी आसानी से नहीं समझ पाता । इनके लिए तो मांस के लिए सूअर पालना या अण्डों के इए मुर्गी पालना दोनों ही खेती (फार्मिंग) हैं । मतलब कि सूअर काटना और मतीरा फोड़ कर खाना दोनों समान हैं ।

सो मांसाहार की सभी शंकाओं से बचने के लिए अपने साथ लाए भुगड़े निकाले और खाना शुरु किया । मगर थोड़ी देर बाद ही लगा कि बिना पानी के नीचे नहीं उतरेंगे । सो अपना गिलास लेकर पानी खोजने लगे । पिछली बार आए थे तो पास ही पानी का नल था मगर अब कहीं भी पानी का नल नहीं दिख रहा था । काफी देर इधर-उधर खोजने के बाद भी पानी का नल नहीं मिला । एक सज्जन से पूछा तो कहने लगे- यदि हाथ मुँह धोने हैं तो टायलेट में है पानी और यदि पीने के लिए चाहिए तो सामने स्टाल से बोतल ले लो । स्टाल पर जाकर पूछा तो पता चला कि आधे लीटर पानी की बोतल के पाँच डालर लगेंगे जिनके लिए हमने भारत में २२५ रुपए दिए थे । इतने रुपए का तो हम गेहूँ भी नहीं खा सकते एक महिने में । मगर यह अवसर हिसाब लगाने का नहीं बल्कि गले में अटके भुने चनों के भूसे को नीचे उतारने का था । वैसे पीने टायलेट से लेकर भी पानी पी सकते थे । यहाँ कौन देखने वाला था कि पंडित जी क्या कर रहे हैं ? मगर यह किसी के देखने-समझने की बात नहीं थी, बात तो अपना मन मानने की थी । सो मन नहीं माना और जी कड़ा करके रास्ते के लिए लाए बीस-तीस डालरों में से पाँच डालर निकाल कर दिए । बोतल ले तो ली पर यही सोचते रहे कि यदि बोतल हाथ में लेने से ही यह भूसा गले से नीचे उतर जाए तो कितना अच्छा हो ।

इन चार घंटों में जर्मनी के फेंक्फर्ट हवाई अड्डे पर बैठे-बैठे न कुछ सुना, न दीखा और न सूझा । बस, पानी के बारे में ही सोचते रहे । जब छोटे थे तो आजकल की तरह स्कूलों में न तो राष्ट्रीय सेवा योजना थी और न ही अखबारों में गर्मियों में परींडे बाँधने के समाचार । फिर भी राजस्थान जैसे जल की कमी वाले राज्य में भी कहीं किसी राहगीर को पानी की कमी अनुभव नहीं होती थी । गर्मियों में जगह-जगह पानी की प्याऊ मिल जाती थी । गर्मियों की छुट्टियों में मास्टर जी हम बच्चों को शाम के समय रेलवे स्टेशन पर ले जाते थे जहाँ हम बच्चे भाग-भाग कर रेल यात्रियों को पानी पिलाते थे और उसके बाद अगले दिन के लिए कुए से पानी निकाल कर मटके भर कर आते थे । गरमी की छुट्टियों में बाज़ार में लगने वाली प्याऊ में बैठकर आने-जाने वालों को पानी पिलाया करते थे । गनीमत है कि जयपुर में अभी गर्मियों में प्याऊ लगाने की परंपरा बची हुई है । पहली बार जब १९८५ में पोर्ट ब्लेयर के दिल्ली ट्रांसफर होकर आए तो बस-स्टाप पर २५ पैसे का पानी का एक गिलास बिकते पाया । मतलब कि यदि किसी के पास २५ पैसे नहीं हैं तो भले ही वह भारत की राजधानी में प्यासा ही मर जाए । शायद यह राजधानी के चरित्र और तथाकथित उदारीकरण के साथ आने वाली नई शताब्दी की झलक थी ।

दिल्ली में ही पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में धौला-कुआँ के पास मौर्या शेराटन होटल के सामने अपने एक मित्र के साथ स्कूटर के पीछे बैठकर गुजर रहे थे । हल्की सी बरसात हुई थी । बस इतनी ही कि सड़क से थोड़ा सा पानी बह कर फुटपाथ की तरफ जाने लगे । देखा कि एक नितांत गरीब,विक्षिप्त सा एक अधेड़ व्यक्ति उस पानी को अँजुरी में लेकर पी रहा है । यह एक घटना नहीं मगर हमारे समय का एक भयानक और निर्दय चित्र है । उस व्यक्ति द्वारा उस पानी को पीना पागलपन नहीं, मज़बूरी थी । खाने-पीने का इतना विवेक तो पागल व्यक्ति में भी होता है । कामनवेल्थ खेलों में ७६ हजार करोड़ और २ जी स्पेक्ट्रम में पौने दो लाख करोड़ का घपला करने वाले सेवकों की राजधानी के पास इसके लिए कोई उचित तर्क और उत्तर नहीं है ।

 इन्हीं दिनों जून के महिने में दिल्ली से जयपुर जाना पड़ा । दोपहर का समय । आमेर का बस अड्डा । प्यास लगी थी । देखा बड़ के पेड़ के नीचे एक वृद्ध एक किशोर के साथ पानी का मटका लिए बैठा है । जैसे ही पानी पीने के लिए उसके पास रखा डिब्बा उठाने लगे तो उसने मना कर दिया । कहने लगा- 'पानी चाहे जितना पिओ मगर पिलाऊँगा मैं अपने हाथ से' । पानी पिया, ठंडा था, आत्मा तृप्त हो गई । एक रुपया देना चाहा तो उसने नहीं लिया । पास के एक चाय वाले से पूछा तो उसने बताया कि यह बूढ़ा गर्मियों में कई दूर से पानी भर कर लाता है और अपने पोते के साथ यहाँ बैठकर सबको अपने हाथ से मुफ्त पिलाता है । ऐसे निःस्वार्थ सेवक को इतना तो अधिकार है ही कि वह पानी अपने ही हाथ से पिलाए ।

कोई दो वर्ष पहले एक समाचार पढ़ा था कि ब्रिटेन की एक हवाई कंपनी के अधिकारी ने आय बढ़ाने के लिए सलाह दी थी कि उड़ान के दौरान टायलेट का प्रयोग करने वाले यात्रियों से अतिरिक्त पैसा वसूल किया जाए । हो सकता है कि जर्मनी के फ्रेंकफर्ट हवाई अड्डे वालों को भी ऐसे ही किसी समझदार आदमी ने सलाह दी होगी कि हवाई अड्डे पर पीने के पानी के नलों को हटवा दिया जाए और पाँच डालर में आधा लीटर पानी बेचने वाली स्टाल खुलवा दी जाएँ ।

हो सकता है कि बाज़ार द्वारा जानबूझकर पानी जैसी चीज की अनुपलब्धता पैदा करके प्यासे लोगों को महँगा पानी खरीदने के लिए मज़बूर करना; बड़ा पे पैकेज पाने वाले, मॉल और मल्टीप्लेक्स के अंधे लोगों और जनता के टेक्स पर दंड पेलने वाले सेवकों को बुरा न लगे मगर हमारे गले तो पाँच डालर की आधा लीटर पानी की बोतल का २५० मिलीलीटर पानी पीकर भी यह बात नहीं उतर रही है । हमने जब पत्नी से अपना दुःख बाँटना चाहा तो बोली- अरे, जब डेढ़ लाख रुपए का आने-जाने का टिकट झेल लिया, जब भारत में हमारा ही पानी कोल्ड ड्रिंक का लेबल लगाकर पचास रुपए लीटर बेचा जाता है और तुम पी लेते तो हो इसे भी विकास की कीमत और उदारीकरण का प्रसाद मानकर पी लो । जर्मनी का पानी है ? किस-किस को नसीब होता है । और फिर विश्वास में बहुत बल होता है । यदि मीरा बाई राणाजी द्वारा भेजे गए विष को अपने बाँके बिहारी का चरणामृत मान कर पी गई और उसे कुछ नहीं हुआ तो तुम्हारा भी बाल बाँका नहीं होगा । हमें लगा, कल को मनमोहन जी, चिदंबरम जी या मोंटेक जी को कुछ हो गया तो भी हमारी ब्राह्मणी भारतीय अर्थव्यवस्था को सँभाल लेगी ।

२४ जून २०११

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

3 comments:

  1. इसीलिये तो रहीम कवि कह गये थे कि पानी राखिये..

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  2. पानी की कहानी के बहाने आपने आज के समाज का विद्रूप खींचा है.
    वैसे आधा-लिटर की बोतल को आप तो म्यूजियम में सजा लेना....आगे यही भारत में होने वाला है !

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