May 26, 2018

लेने के देने



लेने के देने 

पचास रुपए का चारा खाकर पचास का ही दूध दे तो केवल गोबर और गौमूत्र के लिए तो कोई गाय पालने से रहा |ऐसे में गायों के थनों में दूध और तन पर मांस नहीं रहा तो सड़क के अलावा और कहाँ ठौर | गौशालाओं में गायें हैं लेकिन कागजों में | इसलिए  गायों की नियति केवल धक्के खाने से अधिक नहीं रह गई है |किसी और इलाके में कोई किसान क्या पता इन गायों को दो तिनके डालकर काम चला ले ? लेकिन उसे भी रास्ते में पता नहीं कौन गौतस्कर बताकर नाप दे |ऐसे में गायों की स्थिति बीमार, बेकार, बूढ़ी और निर्धन माँ जैसी हो रही है |

हाँ, बकरों और मुर्गों की अब भी पूछ है क्योंकि इन्हें लाते, ले जाते कोई  गाय सिद्ध नहीं कर सकता |राजस्थान से रोज दिल्ली के लिए सैंकड़ों ट्रक बकरे जाते हैं |इसलिए जिन घरों में भी बकरे होने की संभावना होती है, कसाई चक्कर लगा जाते हैं | 

आज हम और तोताराम जैसे ही बरामदे में बैठे थे एक सज्जन आगे से निकलते हुए हम दोनों की चर्चा सुनकर ठहर गए | हमारी चर्चा जैसा कि पाठक जानते हैं कौनसी 'राम-रहीम' की होती है |हमें तो 'राम' से भी 'आसा' नहीं रही |वही सरकार और सेवकों को लेकर रोना-धोना | वही चोर-उचक्कों की लम्पट लीलाएँ | 

हम इन्हें जानते हैं |पहले बकरे खरीद कर दिल्ली भिजवाया करते थे |आजकल  व्यापारी, समाजसेवक और  पोलिटीशियन तीनों का मुरब्बा हैं | हमने कहा- भैया, तुम्हें पता हैं, हम बकरी नहीं रखते इसलिए बकरे होने का सवाल ही नहीं है |जाओ, क्यों आपकी टाइम खोटी कर रहे हो ?

 बोला- आजकल हम बकरे नहीं खरीदते | हाँ, कोई छोटी-मोटी सरकार बिकाऊ हो तो बताना |चुनाव लड़ने की झंझट कौन करे |बड़ी माथाकूट है |हम तो जब जैसी ज़रूरत होती है, बनी बनाई सरकार ही खरीद लेते हैं | क्या करें, साला छोटा-मोटा धंधा भी सरकार जेब में हुए बिना नहीं चलता |

हमें बड़ा अजीब लगा | हमने कहा- तुम्हें शर्म नहीं आती |देश के लोकतंत्र का इस प्रकार मज़ाक उड़ाते |सरकारें छोटी हों या बड़ी,  सरकार होती हैं |वे बिकाऊ नहीं होतीं | जैसे कि प्रेमिका और प्रेमी बिकाऊ नहीं होते |सेवा की तरह प्रेम भी अमूल्य होता है |यह बात और है कि कुछ टुच्चे लोग, भले ही पचास करोड़ रुपए लगाएँ, लेकिन प्रेमिका की कीमत लगाने की हिमाकत करते हैं | 

बोला- मास्टर जी, लोकतंत्र के बारे में हमें मत समझाओ |आप तो पढ़े लिखे आदमी हो इसलिए कोई आपसे ऐसे मामलों में मगजपच्च्ची नहीं करता लेकिन हम तो बाज़ार में  बैठते हैं |सब चीजों के भाव जानते हैं |ये जो करोड़ों रुपए खर्च करके चुनाव लड़ते हैं तो क्या सेवा के लिए ? अरे सेवा ही करनी है तो कौन से हाथी-घोड़े जुतवाने हैं | लग जाओ, हर जगह सेवा का स्कोप है |और नहीं तो घर के आगे दो मटके पानी ही रख लो और पिलाओ आते-जाते लोगों को |असीस देंगे |लेकिन उसमें माल कहाँ ? 

आज हमारी औकात छोटी हैं इसलिए आपसे बात कर रहे हैं |नहीं तो इस समय कर्नाटक में होते |जहाँ सरकार की बोली लग रही है |सेवकों की आस्थाएँ नीलम हो रही हैं |काणे-खोड़ेे, लंगड़े-लूले, चोर-उचक्के, आरोपी-सज़ायाफ्ता सब निकल पड़े हैं भुवन मोहिनी के स्वयंवर में भाग्य आजमाने | और उचक रहे हैं बन्दर बने नारद जी की तरह | जो आम्बेडकर और गाँधी की कसमें खाते नहीं थकते थे उनकी करतूतें देखकर वे बेचारे, कहीं होंगे तो, सिर धुन रहे होंगे |

जनता की सेवा का ऐसा जुनून तो सतयुग में भी नहीं देखा गया होगा | अभक्ष्य खाने को तैयार हैं, अकरणीय करने को तैयार हैं, कैसे भी हो सेवा का अवसर चाहिए |सेवा मतलब कुर्सी | एक दिन का भी उपवास या एक रात का वियोग भी बर्दाश्त नहीं हो रहा है |

तोताराम ने कहा-भैय्या, तू कहीं और जा |इस प्रकार की बातें यहाँ मत कर |हम पेंशनर लोग हैं |किसी ने सुन लिया और बात ऊपर तक पहुँच गई तो मुश्किल हो जाएगी | सुना नहीं, दो-चार दिन पहले ही चेलेंज दिया गया है- 'लेने के देने पड़ जाएँगे' | और कुछ नहीं तो गैस वाली सब्सीडी और रेल में २५% वाली छूट ही छीन लेंगे |














पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)


(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

No comments:

Post a Comment