लेने के देने
पचास रुपए का चारा खाकर पचास का ही दूध दे तो केवल गोबर और गौमूत्र के लिए तो कोई गाय पालने से रहा |ऐसे में गायों के थनों में दूध और तन पर मांस नहीं रहा तो सड़क के अलावा और कहाँ ठौर | गौशालाओं में गायें हैं लेकिन कागजों में | इसलिए गायों की नियति केवल धक्के खाने से अधिक नहीं रह गई है |किसी और इलाके में कोई किसान क्या पता इन गायों को दो तिनके डालकर काम चला ले ? लेकिन उसे भी रास्ते में पता नहीं कौन गौतस्कर बताकर नाप दे |ऐसे में गायों की स्थिति बीमार, बेकार, बूढ़ी और निर्धन माँ जैसी हो रही है |
हाँ, बकरों और मुर्गों की अब भी पूछ है क्योंकि इन्हें लाते, ले जाते कोई गाय सिद्ध नहीं कर सकता |राजस्थान से रोज दिल्ली के लिए सैंकड़ों ट्रक बकरे जाते हैं |इसलिए जिन घरों में भी बकरे होने की संभावना होती है, कसाई चक्कर लगा जाते हैं |
आज हम और तोताराम जैसे ही बरामदे में बैठे थे एक सज्जन आगे से निकलते हुए हम दोनों की चर्चा सुनकर ठहर गए | हमारी चर्चा जैसा कि पाठक जानते हैं कौनसी 'राम-रहीम' की होती है |हमें तो 'राम' से भी 'आसा' नहीं रही |वही सरकार और सेवकों को लेकर रोना-धोना | वही चोर-उचक्कों की लम्पट लीलाएँ |
हम इन्हें जानते हैं |पहले बकरे खरीद कर दिल्ली भिजवाया करते थे |आजकल व्यापारी, समाजसेवक और पोलिटीशियन तीनों का मुरब्बा हैं | हमने कहा- भैया, तुम्हें पता हैं, हम बकरी नहीं रखते इसलिए बकरे होने का सवाल ही नहीं है |जाओ, क्यों आपकी टाइम खोटी कर रहे हो ?
बोला- आजकल हम बकरे नहीं खरीदते | हाँ, कोई छोटी-मोटी सरकार बिकाऊ हो तो बताना |चुनाव लड़ने की झंझट कौन करे |बड़ी माथाकूट है |हम तो जब जैसी ज़रूरत होती है, बनी बनाई सरकार ही खरीद लेते हैं | क्या करें, साला छोटा-मोटा धंधा भी सरकार जेब में हुए बिना नहीं चलता |
हमें बड़ा अजीब लगा | हमने कहा- तुम्हें शर्म नहीं आती |देश के लोकतंत्र का इस प्रकार मज़ाक उड़ाते |सरकारें छोटी हों या बड़ी, सरकार होती हैं |वे बिकाऊ नहीं होतीं | जैसे कि प्रेमिका और प्रेमी बिकाऊ नहीं होते |सेवा की तरह प्रेम भी अमूल्य होता है |यह बात और है कि कुछ टुच्चे लोग, भले ही पचास करोड़ रुपए लगाएँ, लेकिन प्रेमिका की कीमत लगाने की हिमाकत करते हैं |
बोला- मास्टर जी, लोकतंत्र के बारे में हमें मत समझाओ |आप तो पढ़े लिखे आदमी हो इसलिए कोई आपसे ऐसे मामलों में मगजपच्च्ची नहीं करता लेकिन हम तो बाज़ार में बैठते हैं |सब चीजों के भाव जानते हैं |ये जो करोड़ों रुपए खर्च करके चुनाव लड़ते हैं तो क्या सेवा के लिए ? अरे सेवा ही करनी है तो कौन से हाथी-घोड़े जुतवाने हैं | लग जाओ, हर जगह सेवा का स्कोप है |और नहीं तो घर के आगे दो मटके पानी ही रख लो और पिलाओ आते-जाते लोगों को |असीस देंगे |लेकिन उसमें माल कहाँ ?
आज हमारी औकात छोटी हैं इसलिए आपसे बात कर रहे हैं |नहीं तो इस समय कर्नाटक में होते |जहाँ सरकार की बोली लग रही है |सेवकों की आस्थाएँ नीलम हो रही हैं |काणे-खोड़ेे, लंगड़े-लूले, चोर-उचक्के, आरोपी-सज़ायाफ्ता सब निकल पड़े हैं भुवन मोहिनी के स्वयंवर में भाग्य आजमाने | और उचक रहे हैं बन्दर बने नारद जी की तरह | जो आम्बेडकर और गाँधी की कसमें खाते नहीं थकते थे उनकी करतूतें देखकर वे बेचारे, कहीं होंगे तो, सिर धुन रहे होंगे |
जनता की सेवा का ऐसा जुनून तो सतयुग में भी नहीं देखा गया होगा | अभक्ष्य खाने को तैयार हैं, अकरणीय करने को तैयार हैं, कैसे भी हो सेवा का अवसर चाहिए |सेवा मतलब कुर्सी | एक दिन का भी उपवास या एक रात का वियोग भी बर्दाश्त नहीं हो रहा है |
तोताराम ने कहा-भैय्या, तू कहीं और जा |इस प्रकार की बातें यहाँ मत कर |हम पेंशनर लोग हैं |किसी ने सुन लिया और बात ऊपर तक पहुँच गई तो मुश्किल हो जाएगी | सुना नहीं, दो-चार दिन पहले ही चेलेंज दिया गया है- 'लेने के देने पड़ जाएँगे' | और कुछ नहीं तो गैस वाली सब्सीडी और रेल में २५% वाली छूट ही छीन लेंगे |
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
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