Oct 4, 2011

दो रोटी का सवाल

दो रोटी का सवाल/ जन्नत की हकीकत / अमरीका यात्रा के अनुभव

आदमी के साथ हर हालत में कोई न कोई सवाल जुड़ा ही रहता है । एक सवाल हल होता है तो दूसरा तैयार । 'गई खिज़ाँ तो बहारों ने परेशान किया' की तर्ज़ पर । मगर रोटी का सवाल उतना ही पुराना है जितनी कि कृषि-व्यवस्था । उससे पहले कोई और लोकप्रिय सवाल रहा होगा मगर यह तय है कि वह भी रहा होगा खाने से संबंधित ही । जिनके लिए खाने की समस्या नहीं है उनके सवालों में विविधता होती है जैसे कि अबकी बार ‘बिग बॉस’ का विजेता कौन बनेगा, या ऐश्वर्या के लड़का होगा या लड़की, जुड़वाँ होंगे या एक ही, लिज़ हर्ले की शेन वार्न से बात सगाई से आगे बढ़ेगी या नहीं, यदि शादी होगी तो कितने दिन चलेगी आदि-आदि या कि अमरीका में आजकल प्राइम टाइम पर चल रही 'क्यूटेस्ट कैट' प्रतियोगिता में कौन सी बिल्ली विजेता बनेगी ?

आजकल किसी न किसी रूप में रोटी से जुड़ा एक सवाल, योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दिए गए उस हलफनामे के बाद , जिस पर मनमोहन सिंह जी के हस्ताक्षर भी हैं और मोंटेक सिंह जी की सहमति भी और जिसमें कहा गया है कि शहर में रोजाना ३२ रु. और गाँव में २५ रु. रोज़ खर्च करने वाला गरीब नहीं माना जा सकता; उछल रहा है । वैसे जहाँ तक गरीब को अमीर मानने की बात है तो यह वास्तव में बहुत दुखदाई है । जब गरीब को धनवान कहा या माना जाए तो उसे अंदर से कितना दुःख होता है यह वही जानता है । पेट में चूहे कूद रहे हों और आप उस गरीब के सौभाग्य के गीत गाएँ तो कष्ट तो होगा ही । हाँ, धनवान को गरीब कहलाने में फायदा ज़रूर है । आयकर वालों की निगाह से बचेगा, चोरों का निशाना नहीं बनेगा, हो सकता है बी.पी.एल. कार्ड भी बन जाए । तभी तो धनवान अपने घरों के नाम 'भवन' नहीं बल्कि 'कुटीर' रखते हैं और अपने घर को 'गरीबखाना' कहते हैं ।

इस ३२-२५ रु. वाली बात को लेकर न जाने कौन-कौन ऐरे-गैरे लोग इन दोनों सज्जनों के पीछे पड़ गए । कइयों ने तो इन्हें ३२-३२ रु. के मनीआर्डर भी भेज दिए कि ३२ रु. रोज में काम चला कर दिखाओ । इन ३२ रु. भेजने वालों को पता नहीं कि सेवा करने वाले बहुत बुरे होते है । वे बिना एक पैसा लिए भी सेवा कर ही देते हैं । कई तो सेवा के इतने शौकीन होते हैं कि यदि सरकार चाहे तो वे उसे किसी भी पद पर देश की सेवा करने के लिए अपनी तरफ से पैसा तक देने को तैयार हैं । ३२ रु. तो बहुत बड़ी बात है, इन संतों ने तो दिल्ली के गुरुद्वारों में लंगर छककर, मुफ्त में देश की सेवा की है ।

इनसे ३२ रु. की बात करने वालों ने यह नहीं सोचा कि ये लोग बड़े अर्थशास्त्री हैं । मोंटेक सिंह जी राज्यों को योजना की राशि बाँटते हैं जो हजारों करोड़ में होती है । मनमोहन सिंह जी ने रिजर्व बैंक, वर्ल्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में काम किया है और अब भी अपने देश से अधिक, दुनिया के दूसरे देशों को अपने आर्थिक अनुभव और प्रतिभा का लाभ देकर उनकी अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए सारी दुनिया में घूमते फिर रहे हैं जिसमें कोई भी काम हजारों करोड़ से कम होता ही नहीं है । इन ३२-२५ रु. के पीछे पड़े लोगों को यह समझना चाहिए कि जो जैसा काम करने का अभ्यस्त होता है उसे वैसा ही काम दिया जाना चाहिए । अब कब्र खोदने वाले को आँखों के रेटिना का ऑपरेशन करने का काम दिया जाएगा तो यही होगा जो गरीबी-रेखा खींचने में हुआ । इन ३२ रु. भेजने वालों के पीछे तो आयकर विभाग के खोजी कुत्ते छोड़ दिए जाने चाहिएँ ।

वैसे इस मामले में चिंता करने की कोई बात नहीं है । अपने पास राहुल गाँधी जैसे ज़मीन और दलितों से जुड़े नेता उपलब्ध हैं जिन्होंने दलितों के यहाँ खाना खाकर देश की सेवा की है । वे जानते हैं कि वास्तव में भारत में एक व्यक्ति कितने रुपए में काम चला सकता है । वैसे यह बात और है कि गरीबी की सही रेखा तय होने के बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि कार्ड किसे मिलेगा और वह उस कार्ड का कितना लाभ उठ पाएगा ? जहाँ राशन कार्ड बनवाने, वोटर लिस्ट में नाम लिखवाने में ही सही आदमी को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह वही जानता हैं । हाँ, सुनते हैं, बँगला देश से आने वालों को इस काम में कोई परेशानी नहीं होती ।

यहाँ तक गाँवों में बी.पी.एल. कार्ड बनवाने के लिए अपने-अपने मापदंड हैं । उस व्यक्ति को गरीब से ज्यादा अपनी पार्टी का, अपनी जाति का या फिर किसी खास जाति का होना चाहिए । कभी-कभी तो बी.पी.एल. का कार्ड बनवा कर राशन की दुकान वाला ही अपने पास रख लेता है और कार्ड धारक को कुछ रुपए महिने के दे देता है, कुछ के कार्ड गिरवी रखे रहते हैं, कुछ दारू के बदले में अपना कार्ड बेच देते हैं । अधिकतर कार्डों पर मिलने वाले सामान का जिला मुख्यालय पर ही सौदा हो जाता है जिससे व्यर्थ के ट्रांसपोर्ट का खर्चा बच जाता है । अब गरीबी की नई परिभाषा से कितना और किसको फायदा होगा यह तो भगवान ही जाने मगर गाँवों में चुनावों में बढ़ते धन-बल से और सेवा के क्षेत्र में लोगों की बढती रुचि इस बात का प्रमाण है कि सेवा से मिलने वाला मेवा अब ऊपर से नीचे तक पहुँचने लगा है । लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए यह बहुत आवश्यक है । और हम देख रहे हैं कि आम आदमी भले की कुपोषित हो मगर लोकतंत्र अवश्य मज़बूत हो रहा है और मज़बूत भी इतना कि उसे आँख दिखाने वालों को रामलीला मैदान ही नहीं बल्कि अमरीका के 'वाल स्ट्रीट' तक में खुले आम गरिया सकता है ।

हम गणित में सदा से ही बहुत कमजोर रहे हैं इसलिए हम हर तरह के सवालों से घबराते रहे हैं । पहले आठवीं कक्षा के बाद हाई स्कूल (नवीं-दसवीं ) में ही वैकल्पिक विषय लेने होते थे । हमने अपने साथियों की देखा देखी वाणिज्य विषय ले लिया मगर हालत वही हुई जो होनी थी । किसी तरह राम-राम करके 'बही-खाता' में पचास में से अठारह नंबर आए । हमारे बही-खाता वाले गुरु जी ने कहा- बेटा, यह काम तेरे बस का नहीं है । तू हिंदी, अंग्रेजी, समाजशास्त्र विषय ले ले । भीम में दस हजार हाथियों की जगह नौ हज़ार हाथियों का बल भी लिख देगा तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, दोहा चौबीस की जगह तीस या बीस मात्रा का भी चलेगा मगर यदि जैसी बेलेंस शीट तू यहाँ बनाता है वैसी यदि कहीं नौकरी में बनाई तो जेल में जाएगा ।

हम भले ही अर्थशास्त्र या बही-खाते के विद्वान नहीं बने मगर हमने महँगाई और गरीबी को अपनी योग्यता से सदा ही मात दी है, उसे छकाया है । जितनी महँगाई बढ़ी हमने उतने ही अपने पाँव सिकोड़ लिए और अब कछुए की तरह अपने खोल में घुसे पड़े जीवन के दिन गिन रहे हैं मगर न तो सरकार को बदनाम किया और न ही अपने आत्मबल को कम होने दिया । इस काम में हमें कबीर जैसे महापुरुषों से हमेशा ही मदद मिली है । उन्होंने हमें सिखाया है-

आधी और रूखी भली सारी तो संताप ।
जो चाहेगा चूपड़ी तो बहुत करेगा पाप ।।
और हम संताप और पाप से बचते चले आ रहे हैं ।

इसी तरह से एक और कवि ने हमें तत्त्व ज्ञान दिया-

रूखी-सूखी खाय कर ठंडा पानी पी ।
देख पराई चूपड़ी क्यूँ ललचावे जी ।।

जैसे भारत महान है वैसे हमारे जैसे इसके निवासी भी महान हैं । अकाल, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कामचोरी, हजार वर्षों के लगातार अल्पसंख्यक और विदेशी शासन से शोषित होकर भी, किसी ज़माने की सोने की चिड़िया रहे इस देश का सामान्य आदमी किसी तरह अपने ईमान, अपनी इज्ज़त और अपनी इंसानियत को बचाने के लिए प्रयत्नशील है ।


वैसे जहाँ तक इस 'मनहूस दो रोटी के सवाल' की बात है तो हमें नहीं लगता कि इसका कुछ होगा भी क्या ? इस मामले में हमें एक अजीब संयोग देखिए कि अमरीका जैसे धनवान और आर्थिक महाशक्ति देश में भी 'दो रोटी का सवाल' 'वाल स्ट्रीट' के धरने में उठने लगा है । जिस दिन भारत में योजना आयोग का गरीबी की रेखा वाला मामला उछला उसी समय संयुक्त राज्य अमरीका में भी सी.एन.एन. में यह बहस चल रही थी कि फूड स्टाम्प के तीस डालर प्रति सप्ताह की राशि पर आश्रित व्यक्ति कैसे खाना खा सकता है ?

सी.एन.एन. की एक प्रोड्यूसर हैं शैला स्टीफन । उन्होंने अपने ब्लॉग में २१ सितम्बर २०११ को एक पोस्ट लिखी- 'कुड यू ईट ऑन ३० डालर अ वीक' ?

अमरीका में २०११ की जनगणना के अनुसार ४.६२ करोड़ लोग गरीब हैं । याहू के अनुसार यह संख्या ८ करोड़ है । ४.९९ करोड़ लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं है । ध्यान रहे, अमरीका में यदि स्वास्थ्य बीमा नहीं है तो इलाज़ एक बहुत बड़ी समस्या है । यहाँ इलाज़ में बीमा कंपनी वाले और अस्पताल वाले मिल कर खूब पैसा कमाते हैं । वे बिना बीमा वालों का इलाज़ करने में कोई रुचि नहीं लेते और यदि करते भी हैं तो इतना महँगा कि मरीज को बिना इलाज़ के मरना ही अधिक फायदे का काम लगता है ।

अमरीका में ४ करोड़ लोग फूड स्टाम्प पर गुजर करते हैं मतलब कि इन्हें ३० डालर प्रति सप्ताह में अपना भोजन का खर्चा चलाना पड़ता है । इस शैला स्टीफन के ब्लॉग में कुछ बताते हैं कि उन्हें अपने बच्चों को खाना खिलाने के लिए कभी-कभी खुद को भूखा रखना पड़ता है । अपने महान देश की तरह यहाँ भी दुकानदार फ़ूड स्टाम्प पर मिलने वाली खाद्य वस्तुओं के स्थान पर सिगरेट और दारू भी सरलता से उपलब्ध करवा देते हैं जिससे गरीबी के बावज़ूद भविष्य उज्ज्वल दिखाई देने लगता है, भले ही कुछ देर के लिए ही सही । बहुत से लोग इसमें अपने अनुभव बताते हैं कि किस प्रकार इस राशि में भी काम चलाया जा सकता है ? इस बारे में जो एक राय सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी वह यह कि यदि लोग एक साथ मिलकर खाद्य सामग्री अधिक मात्रा में खरीद कर लाएँ और फिर घर पर खाना बनाएँ तो खाना सस्ता और पौष्टिक बनेगा तथा इससे मोटापा भी नहीं बढ़ेगा मगर यहाँ की कमज़ोर पारिवारिक व्यवस्था और बाज़ार से बना बनाया खाना खरीदकर खाने की संकृति ने न तो अधिकतर लोगों को खाना बनाना सीखने का अवसर दिया और न ही सहयोग की भावना विकसित होने का ।


अमरीका की एक और बहुत बड़ी समस्या है कि यहाँ बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित बाज़ार ने खतरनाक साजिश करके किसानों को इस कदर अपना बँधुआ गुलाम बना रखा है कि वे सीधे उपभोक्ताओं से संपर्क भी नहीं कर सकते । किसानों को बड़ी-बड़ी बीज, खाद, कीटनाशक आदि बनाने वाली कंपनियाँ इस तरह की शर्तों पर कर्ज़ा देती हैं कि उनके जाल से निकलना संभव नहीं है । किसानों को उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ही उनकी मनमानी शर्तों पर अपना माल बेचना पड़ता है । वे चाहें तो भी उपभोक्ताओं को अपनी तरफ से कोई माल नहीं बेच सकते । बाज़ार में कहीं भी आपको गेहूँ, चना, मक्का, सोयाबीन आदि अपने असली रूप में नहीं मिलेंगे । यदि कम्पनियाँ बेचेंगी भी तो वे मनमाने दामों पर और कुछ वेल्यू ऐड करके कि साधारण आदमी के लिए बहुत महँगा ही पड़े । तब गेहूँ का दाम आटे से भी ज्यादा देना पड़ेगा । मतलब कि उपभोक्ता को मूल वस्तु से दूर ही रखा जाएगा । यदि ऐसा न हो तो लोग शायद गेहूँ खरीद कर सस्ता दलिया और आटा बना लें, सोयाबीन खरीदकर अंकुरित कर लें और सस्ता प्रोटीन प्राप्त कर लें । चावल-दाल लाकर सस्ती खिचड़ी बना सकते हैं । इससे किसानों को भी फायदा हो सकता है और उपभोक्ताओं को भी सस्ता पड़ सकता है और तब शायद तीस डालर सप्ताह में भी लोग खाना खा सकें मगर बाज़ार ऐसा कभी नहीं होने देगा । उपभोक्ताओं और किसान का एक दूसरे से दूर रहना ही उसकी सफलता के लिए ज़रूरी है । और फिर बड़े-बड़े नेता कभी न कभी इन्हीं कंपनियों के कर्मचारी रह चुके हैं । अब भी उनके पास इन कंपनियों के शेयर हैं । और फिर हफ्ता भी मिलता हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।

अमरीका में किसी भी देश से अधिक कृषि योग्य एवं सर्वाधिक उपजाऊ ज़मीन और पर्याप्त पानी है । यहाँ दुनिया में सबसे अधिक मक्का होता है जिसे खाने के अलावा जानवरों को खिलाने और ईंधन बनाने के काम में लिया जाता है । दुनिया का आधा सोयाबीन और दसवाँ भाग गेहूँ होता है जिसमें से खाने के बाद निर्यात किया जाता है । दुनिया का आधा सोना, दुगुनी चाँदी, सारी दुनिया जितना ताँबा, जस्ता और जिंक है । इतनी समृद्धि के बावज़ूद अमरीका में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अपराध और असंतोष है तो आखिर हुआ क्या ? क्या पिछले कुछ वर्षों से वहाँ की धरती ने फसलें उगाना बंद कर दिया या वहाँ के लोग आलसी हो गए या कोई अकाल पड़ गया, कोई प्राकृतिक विपदा आ गई ? ऐसा तो कुछ नहीं हुआ । तो फिर इसका कारण कहीं और है ।

अमरीका के पास दुनिया का दसवाँ हिस्सा पेट्रोल है मगर वह सारी दुनिया का एक चौथाई पेट्रोल काम में लेता है । विकासशील देशों में सस्ते मज़दूर मिलने के कारण यहाँ के उद्योगपतियों ने दूसरे देशों में कारखाने लगाए जिससे यहाँ के मज़दूर बेकार हो गए । बहुत अधिक मशीनीकरण के कारण बहुत कम लोगों को काम देकर, बहुत अधिक सामान तैयार होने लगा जिनमें अधिकतर सामान गैर-ज़रूरी है जिसका बिकना कठिन हो गया । इसे कारखाने मंदी कह कर मज़दूरों की छँटनी करने लगे जिससे और अधिक बेकारी फ़ैलने लगी । सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों से चुनाव में चंदा लेती है और वैसे भी उनकी शक्ति इतनी अधिक है कि सरकार को उसके विरुद्ध कोई भी जनहित का कदम उठाने में डर लगता है ।

इन 'फूड स्टाम्प' पर गुजारा करने वाले गरीब लोगों के लिए भी कार ज़रूरी है क्योंकि बाज़ार इतनी दूर-दूर हैं कि यदि किसी के पास पैसे हों लेकिन कार न हो तो खाना खरीदने के लिए बाज़ार भी नहीं जा सकता । क्या खाना न खरीद सकने वाले लोगों के लिए कार रखना संभव है ? जो ४.६२ करोड़ लोग गरीब हैं उनमें विवाहितों में गरीबी का प्रतिशत केवल ५.८% है जब कि तलाकशुदा लोगों में यह प्रतिशत २६ है । नस्ल के हिसाब से देखा जाए तो गोरों और एशिया के लोगों में गरीबी क्रमशः ८.६ और ९.८% है और इन्हीं नस्लों में एकल अर्थात तलाकशुदा परिवारों का प्रतिशत भी सबसे कम है । इसीलिए सुखमय पारिवारिक जीवन के कारण खर्चा कम होने से वे अपने बच्चों को शिक्षा भी अच्छी दिला सकते है । तभी इन्हीं दो नस्लों में शिक्षा का प्रतिशत भी सबसे अधिक है ।

इस प्रकार माना जा सकता है कि यदि पारिवारिक जीवन सुदृढ़ हो, घर पर खाना बने, शिक्षा हो, समझ, विवेक हो तो इस समस्या से किसी हद तक पार पाया जा सकता है । फिर भी सबसे अधिक आवश्यक यह है कि व्यक्ति की अनियंत्रित और अनावश्यक इच्छाओं पर नियंत्रण हो । समाज में संकल्प, सहयोग और संयम हो ।

आज भी अमरीका में जर्मन मूल का 'आमिश' नामक एक समाज है जो योरप में इसे धर्म के अंतर्गत जेकब अन्नान द्वारा शुरु की गई एक शाखा के अनुयायी हैं और वे १८वीं शताब्दी के शुरु में योरप के अन्य देशों के लोगों की तरह स्वीडन, जर्मनी आदि देशों से आकर अमरीका के ओहायो,आयोवा, पेंसिल्वेनिया,इलिनोय आदि राज्यों में बसे हैं । ये धन के लालच में नहीं बल्कि अपनी धार्मिक स्वतंत्रता को बचाने के लिए अमरीका आए थे । हालाँकि उनके समाज के कुछ सदस्य तथाकथित मुख्य धारा अर्थात सुविधाभोगी समाज का अंग बन जाते हैं फिर भी उस आमिश समाज के अधिकतर लोग आज भी अपने अलग-थलग इलाकों में रहते हैं, बहुत कम मशीनों का उपयोग करते हैं, कठिन श्रम करते हैं, बिना रासायनिकों के जैविक खेती करते हैं, धंधा बन चुकी डाक्टरी पद्धति से अपना इलाज़ भी नहीं करवाते । एक बार सरकार ने उन पर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाने के नाम पर टेक्स लगा दिया । बेचारों को टेक्स देना पड़ा मगर बाद में किसी ने जब मुक़दमा कर दिया कि जब ये आपकी इस सुविधा का लाभ ही नहीं उठाते तो फिर इनसे टेक्स क्यों लिया जाए तो फिर वह टेक्स वापिस किया गया । उनमें तलाक और यौन बीमारियाँ बहुत कम है । उनका पारिवारिक जीवन बहुत सुदृढ़ है । वे बहुत अच्छे कारीगर, ईमानदार और परिश्रमी लोग हैं । इसलिए वे तथाकथित सुविधासंपन्न शेष लोगों से अधिक स्वस्थ और सुखी हैं । उनमें न तो भुखमरी है, न बेरोज़गारी और न ही अपराध हैं । किसी भी काम के लिए यदि संभव हो तो लोग ही उन्हें लाते है क्योंकि उनके पास कारें नहीं हैं । उन्हें लाइए, उन्हें खाना खिलाइए । वे मन लगाकर सस्ते में काम करेंगे और फिर शाम को उन्हें वापिस उनके घर छोड़ आइए ।

आपको आज के अमरीका में भी ऐसे किसी समाज के होने पर आश्चर्य हो सकता है मगर यह सच है । और क्या यह सीधी, सरल और श्रमजीवी व्यवस्था इस कृत्रिम, शोषक, भूख और विषमता का सृजन करने वाली व्यवस्था में अनुकरणीय नहीं हो सकती ?

आप क्या सोचते हैं ?

२ अक्टूबर, २०११
गाँधी जयन्ती

रमेश जोशी

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

4 comments:

  1. यहां भी इसी प्रकार किसानों के लिये जाल तैयार किया जा रहा है. बेशक अमेरिका से अच्छी चीजें ग्रहण की जायें और खराब चीजों को छोड़ दिया जाये, लेकिन गरीबों की सुनता कौन है और सुने भी तो क्यों.

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  2. जहाँ सरकारी अनुदान पर २ रुपये किलो चावल मिल सकता है तो ३२ रूपये में तो मालामाल हुआ जा सकता है !
    वैसे यह ख़बर उहाँ तक पहुँच गई ?

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  3. बहुत अच्‍छी जानकारी। आमिष लोगों की तरह ही मेक्सिन भी सेवाएं देते हैं। दुनिया में परिवार संस्‍था समाप्‍त होना और भोगवाद बढने से गरीबी तो अपने पैर पसारेगी ही। अच्‍छा शोधपरक आलेखं

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  4. आधी और रूखी भली सारी तो संताप ।
    जो चाहेगा चूपड़ी तो बहुत करेगा पाप ।।

    बेहतरीन लेख.

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