Oct 22, 2011

कानून बनाम नीति - जन्नत की हकीकत ( अमरीका यात्रा के अनुभव )

कानून बनाम नीति ( अमरीका यात्रा के अनुभव )

आप हम सब जानते हैं कि भारत में सड़क पर घायल किसी व्यक्ति की सहायता करने में लोग इसलिए संकोच किया करते हैं कि कहीं पुलिस जाँच के नाम पर सहायता करने वाले को ही न फँसा दे किन्तु नैतिकता और मानवीयता यही कहती है कि सबसे पहले मनुष्य की जान बचाई जाए । उसके लिए कानून की धाराएँ जानने की प्रतीक्षा नहीं की जाए । आदमी की मृत्यु कानून के फैसले की प्रतीक्षा नहीं करेगी ।

हमारी नीति कथाओं में और संतों के जीवन के ऐसे अनेक उदहारण भरे पड़े हैं जहाँ मानव क्या, जीव मात्र की सेवा को ही सबसे बड़ी भक्ति, धर्म और नैतिकता माना गया है । एक प्रसिद्ध उदाहारण है भाई कन्हैया का है जो गुरु गोविन्द सिंह जी का सेवक था और उनके साथ रहता था । एक बार युद्ध में दौरान कुछ लोगों ने गुरु जी से शिकायत की- गुरुजी, कन्हैया घायल शत्रु सैनिकों को पानी पिलाता है । गुरु जी ने जब कारण पूछा तो कन्हैया ने उत्तर दिया- मुझे तो कोई शत्रु-मित्र नहीं दिखाई देता । मुझे तो प्यासे दिखाई देते है सो उन्हें पानी पिला देता हूँ ।

गुरुजी ने उसके सेवा-भाव और सच्चे मानव-धर्म के विवेक को समझ कर अपनी जेब से मरहम की एक डिबिया निकाली और कहा- भाई कन्हैया, जब किसी को पानी पिलाते हो तो उसके घावों पर यह मरहम भी लगा दिया करना ।

गुरु और उनके सेवक दोनों को ब्रह्मज्ञान था ।

यहाँ गत महिने एक स्थानीय रेडियो कार्यक्रम आ रहा था जिसमें बताया गया कि किस तरह पिछले १५ अगस्त को एक भारतीय इंजीनीयर टेनिस खेलते हुए हृदयाघात के कारण वहीं गिर गया । उसके साथियों ने तत्काल फोन किया और स्थानीय हस्पताल का हेलीकोप्टर आया और पाँच मिनट के भीतर उसका इलाज शुरु हो गया । हृदयाघात इतना गंभीर था कि यदि थोड़ा-सा भी विलंब हो जाता तो जीवन बचाना मुश्किल था । डाक्टरों ने एक नई तकनीक अपनाई कि उसके शरीर का तापमान इतना कम कर दिया कि उसके हृदय को पूर्ण विश्राम मिल गया उसके के बाद चिकित्सा की गई । मरीज बच गया । इस घटना के बाद उस व्यक्ति के मन में यहाँ की व्यवस्था के प्रति श्रद्धा होना स्वाभाविक है । मैं भी उस व्यक्ति से मिला । वह हमारी ही कोलोनी में रहता है और मूलतः केरल का रहने वाला है ।

 भारत से यहाँ अमरीका में पढ़ने के लिए आने वाले विद्यार्थियों को कुछ छात्रवृत्ति तो मिल जाती है मगर उन्हें अपने गुजारे के लिए वहीं कहीं आसपास कुछ न कुछ काम करना पड़ता है । चूँकि यहाँ छोटे-मोटे कामों के लिए भी दूर-दूर जाना पड़ता है जो कि पैदल संभव नहीं है । इसलिए ये छात्र आपस में मिलजुल कर कोई पुरानी कार खरीद लेते हैं । और उसीसे मौका लगने पर दूर-दूर तक घूमने के लिए भी निकल जाते हैं । दिन में विभिन्न दर्शनीय स्थानों को देखते हैं और रात में एक स्थान से दूसरे स्थान की लंबी यात्राएँ करते हैं । जवानी के जोश में थकान की भी परवाह नहीं करते ।

बेटे ने बताया कि उसके कुछ साथी एक बार कार से मिसिसिपी से न्यूयार्क जा रहे थे । रात में थके हुए और उनींदे होने के कारण कार चला रहे छात्र को झपकी आ गई और कार डिवाइडर ( सड़क विभाजक) से टकरा गई । ऐसे में इनके बस का तो कुछ नहीं था मगर पीछे से आ रहे किसी ट्रक वाले ने इस दुर्घटना को देख लिया और इमरजेंसी वालों को फोन किया । तत्काल एक हेलीकोप्टर आया और इन विद्यार्थियों को अस्पताल में भर्ती करवाया । सब की जान बच गई ।

 भारत में बड़े-बड़े आदमियों को मिलने वाली सुविधाओं की बात नहीं है । पर जब साधारण भारतीय लोगों के साथ ऐसी परिस्थिति में जो कुछ होता है उसकी कल्पना करके और उससे इन घटनाओं की तुलना करके शर्मिंदगी और दुःख दोनों होते हैं । और तब इस देश के प्रति मन भक्ति-भाव से भर उठता है ।


२९ सितम्बर को संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिण-पूर्वी राज्य टेनेसी की ओबियन काउंटी (जिले) के साउथ फुल्टन कस्बे के पास के एक गाँव की घटना है । जीन क्रेनिक नाम के एक व्यक्ति का पौत्र घर का कुछ कूड़ा इकठ्ठा करके पास में ही जला रहा था । उस आग ने पता नहीं, कैसे घर को अपनी लपेट में ले लिया । यहाँ के घर लकड़ी के बने होते हैं । इसके कई कारण हैं - एक तो लकड़ी के घर सस्ते पड़ते हैं, दूसरे ऐसे घरों में, वातानुकूलन के नियमों के अनुसार ऊर्जा कम खर्च होती है ।

जीन क्रेनिक ने फायर ब्रिगेड वालों को फोन किया । तत्काल गाड़ी आ गई । घर बड़ी तेज़ी से जल रहा था और शीघ्र ही फायर ब्रिगेड वालों के देखते-देखते जल कर ख़ाक हो गया । घर का मालिक आग बुझाने के लिए गुहार लगाता मगर फायर ब्रिगेड वाले उस घर के आसपास तो पानी डालते पर जल रहे घर को नहीं बुझाया । दरअसल वे बगल वाले घर को जलने से बचा रहे थे । तो क्या कारण था कि उन्होंने जल रहे घर को नहीं बचाया ?

बात यह थी कि जल रहे घर के मालिक के आग से सुरक्षा के लिए करवाए गए बीमा की अवधि समाप्त हो गई थी इसलिए कानूनन उसे बुझाने की उनकी जिम्मेदारी नहीं थी बल्कि बीमा करवाए बगल वाले घर को बचाने की थी । मकान मालिक बीमा की किस्त मय-ब्याज के जमा करवाने तो तैयार था मगर उन्होंने उसकी एक नहीं सुनी गई ।

चिकित्सक, वकील और आग बुझाने वालों की एक शपथ भी होती है जो उन्हें कानूनी से ज्यादा मानवीय और नैतिक बनाने वाली होती है मगर इनकी मानवीयता और नैतिकता कहाँ चली गई ? हमने अपने बचपन में गाँव के आग की कई घटनाएँ देखी हैं जब खबर मिलते ही, बिना किसी के कहे और कोई पूछताछ किए, लोग ज़मीन से सौ फुट नीचे से बड़ी मुश्किल से खींचा गया अपना अमूल्य पानी लेकर दौड़ पड़ते थे । और इस घटना के समय पानी था, बुझाने वाले थे मगर बिना पैसे किसी को कुछ भी सेवा देने की, आग बुझाने वाली कंपनी के मालिक की तरफ से आज्ञा जो नहीं थी ।

भारत में तो फायर ब्रिगेड विभाग की तरफ से ऐसी कोई शर्त नहीं होती । कारण यह है कि यहाँ यह सेवा सरकारी है जिसमें लापरवाही हो सकती है किन्तु इस काम के लिए पैसे नहीं माँगे जा सकते । अमरीका कल्याणकारी राज्य नहीं है और यहाँ की लगभग सभी सेवाएँ ठेके पर निजी हाथों में हैं । उनका आदर्श सेवा नहीं, 'पहले पैसा फिर भगवान' है ।

आजकल 'वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करो' आन्दोलन के बारे में जब ओबामा से पूछा गया तो उन्होंने कहा था कि कोरपोरेट का लालच अनैतिक है मगर गैरकानूनी नहीं । क्या अर्थ है इसका ? जो नैतिक नहीं है, क्या वह कानून उचित है ? क्या उस कानून से उसे बनाने और बनवाने वालों के अलावा और किसी का भला हो सकता है ? और ऐसा कानून क्या सरकारों और निजी क्षेत्र की मिलीभगत नहीं माना जा सकता ? क्या सरकार का काम कानून में नैतिकता का समावेश करना नहीं है ? यदि यह काम सरकार नहीं करेगी तो कौन करेगा ? यदि नैतिकता की स्थापना नहीं हो सकती तो सरकार की आवश्यकता क्या है ? और उसके पदाधिकारियों को क्या अधिकार है जनता के टेक्स के धन से ऐश करने का ?

तुलसी कहते हैं-
राज नीति बिनु, धन बिनु धरमा । 
प्रभुहि समरपे बिनु सत्करमा । 

अर्थात् नीति बिना का राज्य, बिना धर्म का धन और बिना भगवान को समर्पित किया गया (सकाम) कर्म, व्यर्थ है ।

क्या सभ्य और सुसंस्कृत होने का दंभ भरनेवाले मानव समाज के सभी कर्मों और संस्थानों के कार्यों के मूल्यांकन का आधार नैतिकता नहीं होना चाहिए ?

लगता है, कहीं अमरीका जैसे तथाकथित विकसित देश के बारे में उपजी श्रद्धा कहीं भय में तो नहीं बदलने लगी ?

१५ अक्टूबर २०११


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

1 comment:

  1. पहले सद्दाम और अब गद्दाफी की हत्‍या देखकर तो यही लगता है कि सारी दुनिया अमेरिका के खौफ मे जीने को मजबूर है। अमेरिका में भी हर आदती डरा हुआ ही रहता है। मैं तो अक्‍सर कहती हूँ कि भारत में डर नाम की कोई चीज नहीं है जबकि अमेरिका में डर के अलावा कुछ नहीं है। शायद उनने भी यही सोच रखा हो कि भय बिन होऊ ना प्रीती। मेडीकल सुविधाए बेशक बहुत अच्‍छी हैं लेकिन सब इंशोरेंश कम्‍पनी के कारण सम्‍भव है।

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