Aug 13, 2013

गरीबी : एक मानसिकता



जब से राहुल बाबा ने गरीबी को एक मानसिकता मानते हुए कहा है कि इसका रूपए या रोटी की कमी जैसी भौतिक स्थितियों से कोई संबंध नहीं है तब से लोग उनका मज़ाक उड़ा रहे हैं । अब ऐसे लोगों को कौन समझाए कि यह कितना गहरा और गतिशील आर्थिक दर्शन है । मुक्त अर्थव्यवस्था के गहरे पानी में पैठकर निकाला गया मोती है ।

कहते हैं जब संवत १९५६ में भारत में भयंकर अकाल पड़ा था तब लोग अपनी अंटी में रूपए दबाए हुए मँहगाई का रोना रोते-रोते भूखे मरते-मरते ही मर गए । अरे, जब तक पैसे थे तब तक मज़े से मालपुए खाते, उसके बाद उधार लेकर खाते, फिर भीख माँगकर खाते और जब भीख भी मिलनी बंद हो जाती तो चोरी करते, डाका डालते मगर खाते और ठाठ से खाते-पीते । 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्' नाम का भी तो कोई दर्शन है और इसी भारत का है । कुछ भिखारियों को देखिए- दिन भर भीख माँगते हैं लेकिन शाम को दारू पीकर फिल्म देखने जाते हैं । नरेन्द्र मोदी, नीतीश कुमार, सुशील मोदी, शरद यादव आदि के पास क्या कोई पैसे का अभाव है जो आधी-अधूरी दाढ़ी बनाते हैं । गरीबी की मानसिकता जो ठहरी । दाढ़ी बनाने में कंजूसी से कितना फर्क पड़ जाएगा । चार बाल उखाड़ने से क्या मुर्दे का वज़न कम हो जाता है ? लेकिन क्या किया जाए, हजार कोशिशों के बावजूद मन के अन्तरतम में घुसी गरीबी अपना असर दिखा ही देती है । वरना चिदम्बरम जी को देखिए, अरबों रूपए का घाटे का बजट बनाकर भी दिन में तीन बार दाढ़ी बनाते हैं ।

अमरीका एक धनवान देश इसलिए है कि वहाँ लोग कमाने से पहले खर्चने की सोचते हैं, कई-कई क्रेडिट कार्ड रखते हैं और जब तक कोई भी उन्हें उधार देता है, लेते चले जाते हैं और मज़े करते हैं । फूड-स्टाम्प से भोजन की बजाय दारू खरीद लेते हैं । जब अमरीका के ट्विन टावर पर हमला हुआ तो बुश साहब ने कहा था- जाओ, बाजारों में जाओ और खूब खर्चो क्योंकि आज अमरीका पर खतरा है । और एक हमारा देश है कि सारे दिन गरीबी का रोना रोता रहता हैं । जब-तब प्रधान मंत्री मितव्ययिता के उपदेश देते रहते हैं । चमड़ी जाय लेकिन दमड़ी न जाय । एक सेठ ने अपने मुनीम से पूछा- मुनीम जी, हिसाब लगाकर बताइए कि हमारे पास कितनी संपत्ति है ? मुनीम ने कहा- सेठ जी, यदि आपकी सात पीढ़ियाँ भी कभी कुछ न करे और खूब मज़े से रहें तो भी कोई कमी नहीं पड़ेगी । सेठ जी ने घबराकर कहा- तो मुनीम जी आठवीं पीढ़ी का क्या होगा ?

नेहरू जी जब प्रधान मंत्री नहीं बने थे और स्वतंत्रता के आन्दोलन में लगे हुए थे और आमदनी का कोई जारिया नहीं था तब भी दिन में एक बार दाढ़ी ज़रूर बनाते थे । कपड़े भी बढ़िया और टिपटॉप पहनते थे । और एक गाँधीजी को देखिए केवल धोती पहनते थे और वह भी आधी । जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने थे तब वे किसी भी लाभ के पद पर नहीं थे लेकिन दाढ़ी बनाने में कभी कंजूसी नहीं की और एक राहुल गाँधी हैं कि घर मे दो-दो सांसद हैं, और न बीवी-बच्चों का कोई खर्चा फिर भी दो पैसे बचाने के लिए समय पर दाढ़ी भी नहीं बनाते । अमिताभ बच्चन को देखिए, बहू बेटा हीरो-हीरोइन, खुद महानायक हैं, फिल्मों और विज्ञापन से नोट कूट रहे हैं, पत्नी सांसद फिर भी मियाँ कंजूस इतने कि आधी ही दाढ़ी बनाते हैं । मन के गरीब । उत्तराखंड के विपदाग्रस्त लोगों के लिए दान भी दिया तो क्या ? दो पुरानी कमीजें । हैसियत और नीयत में बहुत अंतर है । और हम जानते थे इनके पिताजी को, थे तो मास्टर लेकिन दिन में दो बार दाढ़ी बनाते थे और ठसके से रहते थे ।

सुनते हैं- हैदराबाद के निज़ाम बड़े कंजूस थे । जब भी उनके यहाँ कोई सिगरेट पीने वाला मेहमान आता था तो उसके जाने के बाद वे उसकी पी हुई सिगरेट के ठूँठे उठाकर पिया करते थे । चीनी आक्रमण के समय बहुत से गरीब-अमीर लोगों ने राष्ट्रीय रक्षा कोष में जी खोल कर चन्दा दिया लेकिन निज़ाम साहब ने क्या कहा- मैं गरीब आदमी हूँ , मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है । उस समय एक व्यक्ति ने उन्हें एक पैसे का मनीआर्डर भेजा था ।

हमारे ख्याल से भारत के लोगों की नीयत में ही गरीबी है । एक बार एक आदमी रोटी पर रोटी का ही एक टुकड़ा रखे हुए खाना खा रहा था । रोटी का कौर तोड़ता, रोटी पर रखे टुकड़े से छुआता, कौर को मुँह में रखता और फिर सी-सी करता । दूसरा आदमी उसे देख रहा था । उसे बहुत आश्चर्य हो रहा था । उसने रोटी खा रहे आदमी से पूछा- सी-सी क्यों कर रहे हो ? वह बोला- मिर्च बहुत तीखी है । उसने फिर पूछा- मिर्च तो कहीं दिखाई नहीं दे रही है । पहले वाला आदमी कहने लगा- सब्जी नहीं है इसलिए मैं मिर्च की कल्पना करते हुए रोटी खा रहा हूँ । दूसरे ने कहा- भले आदमी, जब कल्पना ही कर रहे हो तो मिर्च क्यों, रबड़ी की कल्पना करो । पहले ने कहा- नहीं, भाई, मैं गरीब आदमी हूँ । रबड़ी की कल्पना करने की मेरी हैसियत नहीं है । तो यह है वह गरीब मानसिकता जिसकी ओर राहुल बाबा संकेत कर रहे थे । सुनते हैं जय ललिता के पास दस हजार साड़ियाँ और साढ़े सात हजार सेंडिल हैं लेकिन इतनी कंजूस हैं कि कभी एक साथ दो साड़ियाँ और दो जोड़ी सेंडिल नहीं पहने ।

अब एक ऊँचे, सकारात्मक और धनवान मानसिकता वाले रईस का उदाहरण देखिए । एक बार एक बच्चा हाँफते हुए घर पहुँचा और अपने पिता से बोला- पिताजी, आज मैंने दो रूपए बचा लिए । पिता ने पूछा- कैसे ? बेटे ने उत्तर दिया- आज मैं, रिक्शे से घर आने की बजाय एक रिक्शे के पीछे-पीछे दौड़ता हुआ घर आ गया । खानदानी रईस पिता ने उसे एक झाँपड़ मारते हुए कहा- गधे के बच्चे, करवा दिया ना खानदान की इज्ज़त का कचरा । लोग क्या समझ रहे होंगे । अगर दौड़ना ही था तो कम से कम टेक्सी के पीछे तो दौड़ता । बचत भी की तो दो रूपए की । टेक्सी के पीछे भागता हुआ आता तो बीस रूपए बचते । करा दिया ना अठारह रूपए का नुकसान । हम खानदानी रईस हैं । कभी छोटी-मोटी बचतों के पीछे नहीं जाते ।

सो हमें चाहिए कि अपनी गरीबी वाली मानसिकता छोड़ें और टेक्सी के पीछे भाग-भाग कर अपना आर्थिक स्तर बढ़ाएं । गरीबी का रोना रो कर भावी प्रधान मंत्री को दुखी और देश को बदनाम न करें । इसी सकारात्मक और समृद्ध चिंतन के चलते सोचते हैं कि सत्रह हज़ार रूपए मासिक की इस मोटी पेंशन का आखिर करेंगे क्या ? कब तक बसों में धक्के खाकर गरीबी का नाटक करते रहेंगे । एक-दो प्लेन खरीद ही लें ।

७ अगस्त २०१३

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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