Oct 12, 2017

हिटलर का ग्लोब



  हिटलर का ग्लोब 

ये बातें सन उन्नीस सौ पचास से पहले की हैं जब लोग पृथ्वी के आकार, उसके अपनी धुरी पर घूमते हुए सूरज के चारों ओर भी घूमने, दिन रात होने, ऋतुएँ बदलने, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, चन्द्रमा के घटते-बढ़ाते दिखने आदि के बारे में नितांत अन्धविश्वासी बातें किया करते थे | उन दिनों पिताजी हमारे लिए कलकत्ता से ग्लोब लेकर आए थे |उन्होंने हमें ये सब बातें ग्लोब की सहायता से, अँधेरे कमरे में टोर्च जलाकर प्रयोग द्वारा बहुत अच्छी तरह से समझाई थीं |यह बात और है कि प्रतीकों को न समझ पाने के कारण आज भी बहुत से पढ़े लिखे लोग अज्ञान और अंधविश्वास की बातें करते हैं |कुछ तो अपनी उस आस्था पर बात तक नहीं करना चाहते और अपनी अवैज्ञानिक आस्था पर चर्चा करने वाले लोगों का सिर फोड़ने तक को तैयार हो जाते हैं |

आज उस ग्लोब की स्थिति वर्तमान दुनिया जैसी हो गई है |वह अपने स्टेंड पर कायम नहीं रह पाता, यदि उसे अपने स्टेंड पर फिक्स कर दो तो घूमता नहीं, तब फिर दिन-रात न बदलने की समस्या आ जाती है |जहाँ उजाला वहाँ हमेशा उजाला और जहाँ अँधेरा वहाँ हमेशा के लिए अँधेरा |यह भी कोई बात हुई ? इसलिए हमने उस ग्लोब का उपयोग करना बंद कर दिया है |हमें ऐसी विषम दुनिया पसंद नहीं |

इस ग्लोब के अलावा हमने फिल्मों में भी ग्लोब देखा था जो दिन-रात, चन्द्रमा की कलाएँ, अक्षांस-देशांतर आदि समझाने के लिए नहीं बल्कि किसी सेना के उच्च अधिकारी द्वारा तनाव के क्षणों में घुमाने के काम आता था |वह दर्शकों की तरफ पीठ किए हुए खिड़की से बाहर देखता रहता था और फिर तनाव में ही अचानक मुड़ता था और ग्लोब को घुमाने लगता था |इसके बाद सैनिकों को मोर्चे की स्थिति समझाता था और फिर अंततः आक्रमण की आज्ञा देता था |स्कूलों में कुछ प्रधानाध्यापक भी ग्लोब को अपने ऑफिस में सजाते थे लेकिन उसका कोई सार्थक उपयोग होते हमने कभी नहीं देखा |

आज आते ही तोताराम ने हमसे उसी ग्लोब की माँग की |बोला- अगर ढंग से प्रस्तुतीकरण हो गया तो समझ ले, मालामाल हो जाएँगे |

हमने कहा- कबाड़ी तो इसके पाँच रुपए भी नहीं दे रहा था |वैसे तू इसे किसे बेचेगा ?

कहने लगा- मेरे वश का तो नहीं लेकिन दुनिया में चालकों और मूर्खों की कोई कमी नहीं है |खोजने वाले खोज ही लेते हैं |क्या पता, हमें भी कोई मिल जाए |अब देख, हिटलर का कोई ७५ साल पुराना ग्लोब और उसके हाथ का लिखा एक पत्र किसी अमरीकी ने ६५ हजार डालर (कोई ४०-४२ लाख रुपए) में ख़रीदे हैं  | 

हमने पूछा-लेकिन कोई इसका करेगा क्या ?

बोला- दुनिया में अकल के अंधों और गाँठ के पूरों को कमी थोड़े ही है |जिसने ख़रीदा है वह अपने से बड़े किसी और मूर्ख को भिड़ा देगा |कुछ लोगों  के पास इतना पैसा है कि उन्हें यही समझ में नहीं आता कि इस पैसे का क्या करें ? वे ऐसी ही उलटी-सीधी चीजों का संग्रह करते हैं | माल्या ने गाँधी का चश्मा, टीपू की तलवार आदि ख़रीदे कि नहीं ? 

हमने कहा- इसमें उसका क्या गया ? वह पैसा तो तेरे-मेरे जैसे भले लोगों का था जिसमें से कुछ माल्या खा गया, कुछ बैंक के अधिकारी और कुछ उसे राज्य सभा में भेजने वाले कांग्रेस और बीजेपी के नेता खा गए |अब करते रहो कूँजड़ियों वाली काँव-काँव |
वैसे तोताराम, इतने पैसे में तो हजारों इससे भी बड़े, कीमती ग्लोब आ सकते हैं |इसी ग्लोब में ऐसा क्या है ?

बोला- तेरी समझ में ये बातें नहीं आएँगीं |वस्तु के साथ एक विचार, एक इतिहास जुड़ा होता है |तभी तो गाँधी जी के जन्म स्थान पर, उस कमरे में खड़े होकर जाने कैसा कुछ होने लगता है |लगता है, जैसे गाँधी की आत्मा हममें प्रवेश कर रही है |पोरबंदर में रहते हुए तू तो सैंकड़ों बार वहाँ गया है |क्या पता, आज भी अमरीका में कोई  हिटलर की तरह इस ग्लोब को उसी की तरह घुमा देने का सपना देख रहा हो |भले ही संख्या में कम हों लेकिन आज भी वहाँ, कालों का वैसे ही संहार करने का इरादा रखने वाले लोग भी हैं जैसी निर्दयता से हिटलर ने यहूदियों का कत्लेआम किया था |

अब बता, मर्लिन मुनरो की पुरानी चड्डी-चोलियों का कोई क्या हारेगा ? लेकिन नीलाम होती हैं और लोग खरीदते भी है | चर्चिल के पीए हुए सिगार की भी तो नीलामी हुई थी |

हमने कहा- इसी प्रकार तो दुनिया में विचार समाप्त होता है तथा अंधविश्वास और मूर्तिपूजा शुरू होती है |हालाँकि दयानंद सरस्वती, कबीर, नानक आदि ने इसका निषेध किया था लेकिन लोग हैं कि उन्हीं की पादुकाओं का पूजन करने लगे |सो यही बात हिटलर या किसी और के साथ हो सकती है |मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले निरीश्वरवादी बुद्ध को लोगों ने मूर्ति में कैद कर दिया जैसे कि गाँधी जी के समस्त दर्शन को चश्मे और चश्मे को शौचालय में कैद कर दिया गया है |

यदि इसी तरह से योजनाबद्ध प्रचार तंत्र सक्रिय रहा तो गाँधी के स्वावलंबन, सादगी, समरसता, अपरिग्रह, अहिंसा, सत्य समाप्त हो जाएँगे |फिर कोई किसी बच्चे से पूछेगा तो वह इससे अधिक कुछ नहीं बता सकेगा- गाँधी माने चश्मा या गाँधी माने शौचालय |




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