2025-02-03
तीरथपति आवहिं सब कोई
मानस के बालकाण्ड में है यह प्रसंग ।
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।
देव दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं।।
जब भी सूर्य किसी राशि में प्रवेश करता है तब संक्रांति होती है । इस प्रकार भारतीय संवत के अनुसार वर्ष में 12 राशियों की 12 संक्रांतियाँ होती हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मकर संक्रांति होती है ।जब सूर्य इस राशि में प्रवेश करता है तो सूर्य उत्तरायण हो जाता है अर्थात अब धरती का उत्तरी भाग सूर्य के निकट होगा और अब तक की भयंकर सर्दी कम होने लगेगी ।सृष्टि में नव जीवन के प्रतीक बसंत की कसमसाहट शुरू हो जाती है । अचानक शिराओं में रक्त की गति तीव्र हो जाती है ।
शीतकाल में सृष्टि शीत समाधि में चली जाती है । जीवन ठहर सा जाता है । पेड़-पौधे अपने पत्ते गिराकर, शृंगार त्यागकर नए उल्लास की प्रतीक्षा में समाधि लगाए जीवन की ऊष्मा की प्रतीक्षा करते हैं । पृथ्वी का दक्षिणी ध्रुव भी है और वह भी उत्तरी ध्रुव की तरह जीवन की ऊष्मा के लिए अपने ग्रह-नक्षत्रों के हिसाब से सूर्य के दक्षिणायन होने की प्रतीक्षा करता होगा । चूँकि तब हमें इस दक्षिणी भाग के बारे में इतना पता नहीं था । इसलिए हमने अपने उत्तरी गोलार्ध को चित्रित किया ।
क्रिश्चियन एरा (सन) में ईसा से पहले भारतीय संवत के दसवें महिने पौष की तरह दसवां महिना जनवरी ही हुआ करता था ।ईसा के जन्म के बाद से जनवरी को पहला महिना बना दिया गया अन्यथा जैसे चैत्र से भारतीय संवत शुरू होता है वैसे ही अप्रैल से नया वर्ष शुरू हुआ करता था । बसंत से बेहतर नए वर्ष की शुरुआत और कब से हो सकती है । बसंत, जब सृष्टि नए अँखुओं के रूप में रोमांचित हो उठती है ।
चूँकि इस्लामिक वर्ष चंद्रमा से संचालित होता है उसकी रमजान की आवृति बदलती रहती है । दिन-रात और ऋतुएँ सूर्य से तय होती हैं इसलिए संक्रातियों में अंतर नहीं आता ।
मानस में रामकथा के अनेक श्रोता-प्रस्तोता हैं । लोमश ऋषि काकभुशुंडी को सुनाते हैं, काकभुशुंडी गरुड जी को सुनाते हैं , याज्ञवल्क्य भारद्वाज को सुनाते हैं और शिव पार्वती को सुनाते हैं । वैसे सर्वाधिक प्रसिद्ध वाल्मीकि और तुलसी के अतिरिक्त अनेक भाषाओं में, बहुत से कवियों-लेखकों ने राम को आधार बनाकर रचनाएं की हैं । तभी मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं-
राम तुम्हारा नाम स्वयं ही काव्य है ।
कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है ॥
महर्षि भारद्वाज का आश्रम, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज शहर में था । यह आश्रम गंगा नदी के किनारे स्थित है । यह आश्रम, इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बालसन चौराहे के बीच में है ।
तुलसी की शुरू में उद्धृत पंक्तियों से पता चलता है कि यह सबका स्वतः स्फूर्त उत्सव था । इसमें कोई अपेक्षित या उपेक्षित नहीं था ।कोई विशिष्ट या कोई निकृष्ट नहीं है । हीनोपमा के लिए क्षमा सहित, जैसे कि वर्षा ऋतु में रोशनी के चारों तरफ मंडराने वाले असंख्य दीवाने पतंगे सहज रूप से निकल आते हैं जैसे सुबह सूरज, बसंत में नए पत्ते और बारिश होते ही मिट्टी से सोंधी गंध । अगर राम के समय बौद्ध,जैन,ईसाई,मुसलमान,सिक्ख होते तो तुलसी उनका भी समागम में स्वागत करते ।
यह अवसर अमृत की खोज का उत्सव भी है । वह अमृत जिसे अनादि काल में किसी शुभ संयोग में देव और दनुज दोनों ने सहमति, सहयोग और श्रम से हासिल किया था । सहमति, सहयोग और श्रम ही अमृत की खोज का मार्ग होता है । लेकिन ले भागा इन्द्र पुत्र जयंत । कोई कामधेनु, कोई कल्पवृक्ष, कोई ऐरावत, कोई उच्चैश्रवा, कोई लक्ष्मी, कोई कौस्तुभ मणि, कोई सारंग धनुष ले गया । भोले भण्डारी ने पिया हालाहल विष और दानवों के हिस्से आई वारुणी । इसी कारण तो समस्त पुराण इन दोनों के अनवरत संघर्ष से नहीं भरे पड़े हैं ?
शायद तभी ‘दिनकर’ के महाकाव्य ‘कुरुक्षेत्र’ में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं-
धर्मराज यह भूमि किसी की नहीं क्रीत है दासी
है जन्मना समान परस्पर इसके सभी निवासी
सबको मुक्त प्रकाश चाहिए सबको मुक्त समीरण
बाधा रहित विकास, मुक्त आशंकाओं से जीवन
लेकिन विघ्न अनेक अभी इस पथ पर अड़े हुए हैं
मानवता की राह रोककर पर्वत अड़े हुए हैं
न्यायोचित सुख सुलभ नहीं जब तक मानव-मानव को
चैन कहाँ धरती पर तब तक शांति कहाँ इस भव को
जब तक मनुज-मनुज का यह सुख भाग नहीं सम होगा
शमित न होगा कोलाह संघर्ष नहीं कम होगा
उसे भूल वह फँसा परस्पर ही शंका में भय मेंं
लगा हुआ केवल अपने में और भोग-संचय में
प्रभु के दिए हुए सुख इतने हैं विकीर्ण धरती पर
भोग सकें जो उन्हें जगत में, कहाँ अभी इतने नर
सब हो सकते तुष्ट एक-सा सब सुख पा सकते हैं
चाहें तो पल में धरती को स्वर्ग बना सकते हैं
तो जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, जब उत्तरायण होता है तब सभी अमृताभिलाषी तीर्थराज में आते हैं । तीर्थराज प्रयाग । जहाँ भी दो नदियाँ मिलती हैं वहाँ ‘प्रयाग’ होता है ।मिलना ही प्रयाग है । मिलना की मानवता का अमृत है । होने को तो और भी ‘प्रयाग’ हैं- विष्णु प्रयाग, कर्ण प्रयाग, नन्द प्रयाग, रुद्र प्रयाग और देव प्रयाग । ‘’प्रयागराज’ कुछ नहीं होता । फिर इलाहाबाद वाला प्रयाग ही तीर्थराज क्यों ? क्योंकि यहाँ अमृत कुम्भ छलका था । इसी तरह अमृत तो तीन और जगहों पर भी छलका था- हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में भी । क्योंकि यहाँ तीन नदियाँ मिलती हैं- गंगा, यमुना, सरस्वती ।सरस्वती लुप्त है । शायद तभी यज्ञ के अश्व की खोज में भटकते सगर के साठ हजार अविवेकी और अभिमानी पुत्रों ने समाधिस्थ कपिल ऋषि को चोर समझकर उनका अपमान किया और इसी अपराध में भस्म कर दिए गए ।
अन्य प्रयागों के होते हुए भी इलाहाबाद वाला प्रयाग ही तीर्थराज क्यों ? संभवतः विवेक के लिए सरस्वती की तलाश के कारण ।
क्या सरस्वती की तलाश इतनी कठिन और दुर्गम है ? यही गंगा के किनारे बैठ वह अछूत मोची तो कहता था-
मन चंगा तो कठौती में गंगा । उसकी दमड़ी तो खुद गंगा हाथ बढ़कर लेती थी । लेकिन रैदास को समझने के लिए सहज होना पड़ता है । सहज समाधि । जब साँस साँस सुमारिणी बन जाती है और मृगछाला सब की सब धरणी ।
और यहीं का झीनी झीनी चदरिया को ज्यों की त्यों धर देने वाला जुलाहा राम का अहसान न लेने के लिए काशी छोड़कर कर्मनाशा के तट पर बसे मगहर चला जाता है जहाँ मरने पर कहते हैं मोक्ष नहीं मिलता-
जो काशी तन तजे कबीरा रामहि कहा निहोरा ।
और वह इस घट, इसकी औकात और इसमें अमृत के निवास सब को जानता था-
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तत कहा गियानी
तभी कह सकता था-
हम न मरब मरिहैं संसारा ।
और तभी मीरा बाह्य अमृत की खोज में कहीं नहीं जाती-
मेरे पिया मेरे घट में बसत हैं ना कहुँ आती जाती ।
उसे किसी लक्जरी कॉटेज में कल्पवास और विशिष्ट सुरक्षा के बीच खुशामदी महामंडलेश्वरों द्वारा दिव्य अमृत-स्नान करवाए जाने की भी कोई जरूरत नहीं ।
इसी अमृत की खोज में
माघ मकरगत जब रवि होई
तीरथपतिहिं आव सब कोई
अमृत अपने ही घट में है । वह किसी जयंत के कब्जे में नहीं है । खोजें तो । कठौते में गंगा की तरह कुम्भ के जाम में फँसे बेहाल भटकते यात्री बनकर इलाहाबाद चौक के घरों-बाजारों, मस्जिदों-मदरसों में छलक जाता है ।
-रमेश जोशी
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