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Jan 14, 2012

सौदेबाजी की समझ


आदरणीय कलाम साहब,
आदाब । अखबार में आपका इंटरव्यू पढ़ा । आपने कहा कि यदि किसान समझदारी से सौदा कर सकें तो एफ. डी. आई. फायदेमंद हो सकती है मगर सौदा करने की समझ सभी में नहीं होती । सौदेबाजी के बारे में हमें अपनी माँ की एक बात याद आती है । उस समय के हमारे राजस्थान में लोग लकड़ियों में खाना पकाते थे । आजकल तो खैर पर्यावरण की रक्षा करने के चक्कर में सारे जंगल काट डाले गए । लकड़ी अनाज के भाव हो गई है । सर्दी में तापने के लिए सिगड़ी जलाने के लाले पड़ गए हैं । लकड़ी के कोयले तीस रुपए किलो हो गए हैं और बिजली का तो यह हाल है कि वह नेताओं के दर्शन की तरह दुर्लभ हो गई । और फिर हमारी हैसियत मुकेश अम्बानी की तरह तो है नहीं कि एक महिने में सत्तर लाख की बिजली फूँक सकें । सुना है सरकार ने जनता की सुरक्षा को दरकिनार करके परमाणु बिजली घर बनाने की ठान ली जब कि दुनिया के बहुत से उन्नतिशील देश परमाणु घरों को बंद करने की सोच रहे हैं । बिजली तो जिनको मिलनी हैं उन्हें ही मिलेगी । हाँ, कभी रेडियेशन हुआ तो ज़रूर ग़रीबों के हिस्से में भोपाल की गैस की तरह केवल मौत ही आ जाएगी ।

तो बात सौदेबजी की चल रही थी । उन दिनों किसान ऊँटों पर लकड़ी लाद कर बेचने के लिए आते थे । माँ ने एक लकड़ी वाले से मोल पूछा । वह उन लकड़ियों के पौने दो रुपए माँग रहा था । माँ को पौने दो रुपए ज्यादा लगे । उसने कहा- पौने दो रुपए तो नहीं देंगे यदि लेने हों तो दो रुपए दे सकते हैं । उसे क्या ऐतराज हो सकता था ? जैसे ही वह लकड़ी उतारने लगा, पिताजी आ गए । उन्होंने लकड़ी वाले को डाँटा और लकड़ी वापिस लदवा दीं । तो साहब भारतीय किसान की मोल भाव करने की क्षमता तो हमारी माँ की तरह है । वह बेचारे वालमार्ट और टारगेट से क्या खाकर मोल-भाव और सौदेबाजी करेगा ।

वह बेचारा पहले ही महँगी बिजली, महँगी खाद, बीज और कीटनाशक के चक्के में इतना खर्च कर चुका होता है कि उसे तो जल्दी से जल्दी अपनी फसल बेचने की फ़िक्र रहती है और इसी का फायदा बनिए, जमाखोर उठाते हैं । वही चीज यदि किसान दो महिने बाद लेने जाता है तो ड्योढे दामों में मिलती है । न किसान को फायदा और न ही उपभोक्ता को । बीच वाले मज़े करते हैं ।

आप सोच रहे होंगे कि बड़ी विदेशी दुकानें आने से उपभोक्ता को फायदा होगा । तो हो सकता है कि दो-चार प्रतिशत का फायदा शुरु-शुरु में हो जाए मगर अंत में ग्राहक जैसे अपने यहाँ के दुकानदारों की चालाकियों का शिकार होता है वैसे ही विदेशी दुकानदारों की चालाकी का शिकार होगा । अमरीका में इन्हीं बड़े-बड़े दुकानदारों का राज है । वहाँ भी हमने देखा है कि एक बार सेव की फसल बहुत अच्छी हुई । किसान पचास सेंट में सेव बेचने पर मज़बूर हो गया मगर दुकानों पर वही सेव दो डालर में बिक रहा था



एक बार इन्हीं बड़ी कंपनियों में से एक ने पंजाब में टमेटो कैचअप बनाने का कारखाना लगाने का प्रचार किया और कहा कि किसान टमाटर लगाएँ, उन्हें बहुत फायदा होगा । किसानों ने जम कर टमाटर लगाया और फिर कंपनी ने किसी बहाने से टमाटर खरीदने से मना कर दिया या कम ख़रीदा । गुस्साए किसानों ने टमाटर सड़कों पर फेंक दिया । इसी तरह से किसानों के मसीहा चरण सिंह के समय में भी ठीक भाव न मिलने पर किसानों ने गन्ना खेतों में ही जला दिया । कभी आपने किसानों के इस दर्द के बारे में सोचा है ?

हमारे शेखावाटी में प्याज बहुत होता है । हमें याद है कि एक किसान मंडी में प्याज बेचने गया । वहाँ भाव पूछने पर पता लगा कि उस प्याज से तो ट्रेक्टर का भाड़ा भी नहीं निकलेगा । वह वहाँ से खिसक लिया । ट्रेक्टर वाला वापिस उसके घर पहुँचा और भाड़ा वसूल लिया । ऐसी ही समझदारी की सौदेबाजी हमारे नेता भी करते हैं । जब कभी फसल अच्छी हो जाती है तो सस्ते भावों में निर्यात कर देते हैं और फिर वही गेहूँ महँगे भाव से आयात कर लेते हैं । यह तो आप ही जानें कि यह मूर्खता है या घोटाला मगर ऐसा एक नहीं, कई बार हुआ । चाहें तो शरद पवार जी से पूछ लें । साधारण किसान का तो यही हाल है । बड़े किसान-नेताओं के फार्म हाउसों में ज़रूर इतना अनाज होता है कि वे उससे सैंकडों करोड़ का काला धन सफ़ेद कर लेते हैं ।

और फिर साहब, किसान का काम तो कच्चा काम होता है । यदि सब्जी को औने-पौने भाव में न बेचे तो शाम तक वह फेंकने लायक हो जाती है । दूध भी वह कौनसा दस पाँच दिन रख सकता है । यह कोई टेलीविजन, मोबाइल, कम्प्यूटर या कार तो है नहीं कि आज नहीं तो छः महिने बाद बेच दी । कौन से चूहे खा जाएँगे या सड़ गल जाएँगे । और यदि किसान फसल का स्टोक भी करे तो कितने दिन । यह तो सरकार की ही क्षमता है कि वह करोड़ों रुपए का अनाज सड़ा दे । किसान को तो रोज कुँवा खोदना और रोज पानी पीना है ।

आप सोचते होंगे कि बड़े विदेशी दुकानदारों को बुलाने से बिचौलिए खत्म हो जाएँगे । हो सकता है कि कुछ कम हो जाएँ मगर उपभोक्ताओं को कोई खास फायदा नहीं होने वाला है । यदि ऐसा होता तो अमरीका के किसान की हालत अब तक सुधर गई होती । मगर ऐसा नहीं है । किसान तो किसान है चाहे भारत का हो या अमरीका का । गरीब को तो स्वर्ग में भी बेगार ही मिलती है । एक बेगारी दलित के परेशान होकर कुँए में कूदने का किस्सा तो आपको मालूम ही होगा । वहाँ कुँए में मेंढक उसके सिर पर सवार हो गया और कहने लगा- मुझे मुफ्त में कुँए की सैर करा ।

यदि आप किसानों का दर्द दूर करना चाहते हैं तो एफ. डी.आई. का समर्थन करने की बजाय किसान को समय पर अच्छा बीज, खाद और कीटनाशक दिलवाने का प्रबंध करवाएँ । मंडी से बिचौलियों को दूर करें, भण्डारण की सुविधा दिलवाएँ और राजनीति को किसानों के हितों से खेलने से रोकें । किसान की सौदेबाजी के चक्कर में मत डालिए । उसकी जान तो खेती करने में ही निकल जाती है । सौदेबाजी तो नेताओं और व्यापारियों के बस का काम है जो जब चाहें लोकतंत्र को बचाने के नाम पर मंत्री पद का सौदा करते हैं या सरकारी कारखानों को सस्ते में खरीद लेते हैं ।

हमें आपकी ईमानदारी और योग्यता पर पूरा विश्वास है । आप भारत को २०२० तक विकसित करने का सपना देखने वाले हैं । विदेशी कंपनियों को देश के सिर पर बैठाने से कुछ नहीं होने वाला । विदेशी कंपनियों के यहाँ आने का परिणाम इतिहास का साधारण विद्यार्थी भी जानता है । अमरीका की हालत किसी और ने नहीं बल्कि उसी की बड़ी कंम्पनियों ने खराब की है । जो अपने देश के नहीं हुए वे आपके कैसे हो जाएँगे ?

३०-१२-२०११

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