लागा झुलनिया का धक्का
आज जल्दी आँख खुल गई ।कोई पौने पाँच बजे थे । सोचा अब क्या सोएँगे । बरामदे में आ गए । अभी धुंधलका था, सामने के नगर परिषद के खंभे की लाइट खराब होने के कारण सड़क पर भी कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था । जब भी कोई मोटर साइकल वाला गुजरता तो आँखें चुँधियाती फिर कई देर तक तुलनात्मक रूप से और अधिक अँधेरा अनुभव होता ।
तभी देखा एक सामान्य सी आकृति चली आ रही है । पहचान पाने का तो सवाल ही नहीं लेकिन इतना तो दिखाई दे गया कि आकृति की पीठ पर एक सामान्य से कुछ बड़ा थैला है । कचरे में से पॉलीथिन, बोतलें बीनने वाले बच्चे और रेहड़ी वाले कबाड़ी भी इतनी जल्दी नहीं आते । नजदीक आने पर आकृति ने आवाज लगाई-
चीनी मंजा, छोटी आँख वाले गणेश जी, नई-पुरानी लड़ियाँ ----
यह रोज के सामान्य कबाड़ियों से भिन्न हाँक थी । और फिर नई लड़ियाँ कौन देगा, खराब होने पर भी आदमी सोचता है कि दस-बीस रुपए लगके ठीक हो जाए तो नई नहीं लानी पड़ेगी । वैसे भी कबाड़ी लोहा, प्लास्टिक, रद्दी कापी किताबें, अखबार की तो हाँक लगाते हैं लेकिन गणेश जी ! वो भी छोटी आँख वाले । अरे, गणेश जी तो गणेश जी होते हैं , मिट्टी के हों, गोबर के हों या प्लास्टर ऑफ पेरिस के हों या गणेश खैनी के रैपर पर छपे हों । ऐसे ही नालियों, किसी तालाब या नदी-सांद्र में फेंके जाते हैं । कोई इन्हें कबाड़ में लेने को नहीं आता जैसे कि सम्मान के बतौर भेंट में मिले मोमेंटों को कोई कबाड़ी फ्री में भी नहीं लेता । सर्दी में जलाने के काम आते हैं ।
नजदीक आकर उस आकृति ने आवाज लगाई- साहब, चीनी मंजा, छोटी आँख वाले गणेश जी हो तो ले आओ ।
हमने पूछा- किस भाव से लेते हो ?
आकृति बोली- भाव का क्या है । अब किसी चीज के कोई भाव नहीं हैं । सब कुछ बेभाव है । कोई फ्री में भी नहीं लेता लेकिन यह तो मैं हूँ जो फ्री में भी ले रहा हूँ । मैं तो इन्हें लेकर अपने खर्चे से दिल्ली पटककर आऊँगा ।
हमने कहा- दिल्ली जाने की क्या जरूरत है ? यहीं मंडी की दीवार के पास फेंक आएंगे ।
आकृति बोली- यह कबाड़ कूड़े की बात नहीं है । देश के स्वाभिमान की बात है । अब स्वदेशी से ही देश का स्वाभिमान और जान दोनों बचेंगे ।
हमनेकहा- तोताराम, हमने तुझे पहचान लिया है । सुन-
लागा झुलनिया का धक्का बलम अब बीजिंग पहुँच गए ।
बोला- तू गीत को गलत तरह से प्रस्तुत कर रहा है । झुलनिया के धक्के से बलम कलकत्ता पहुंचते हैं । बीजिंग नहीं ।
हमने कहा- ये अररिया, बेगूसराय वाले बलम नहीं हैं जो कलकत्ता से आगे पहुंचते ही नहीं । ये दिल्ली वाले तुम्हारे बलम हैं जो आजकल बीजिंग पहुँच रहे हैं । दिल्ली में नहीं मिलेंगे ।
बोला- बीजिंग वाले का तो वे नाम तक नहीं लेते हैं । छोटी आँख वाले कह कर इशारा करते हैं ।
हमने कहा- यह धक्का सुनहरे बालों वाली, युद्ध विराम करवाने वाली झुलनिया का लगा है ।
बोला- मास्टर, यह तो ठीक नहीं हुआ । अब जब यह बीजिंग वाली झुलनिया धक्का मारेगी तब हमारे बलम जी अमरीका पहुँच जाएंगे । ऐसे तो बारी बारी से धक्के लगते रहेंगे । बलम तो फुटबाल बन जाएंगे । प्याज और जूते दोनों खाने पड़ेंगे ।
हमने कहा- ज्यादा चालाक बनने वालों का यही हाल होता है । राजस्थानी में कहावत भी तो है-
जण जण को मन राखतां वेश्या रह गई बाँझ ।
बोला- तो ठीक है तू चाय बनवा । मैं इन्हें मंडी की दीवार के पास फेंककर आता हूँ ।
-रमेश जोशी
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