Jan 19, 2011

महँगाई बढ़ने के 'मन' मोहक कारण

आदरणीय मनमोहन जी,
सत् श्री अकाल । आप महान अर्थशास्त्री हैं इसलिए अर्थ के बारे में जो कुछ कहते हैं उसमें कुछ न कुछ अर्थ अवश्य छुपा होता है । आपने एक बार कहा था- पैसे पेड़ों पर नहीं लगते । ठीक भी है, यदि पैसे पेड़ों पर लगते होते तो किसानों के पास पैसे होते । पैसे तो सत्ता की अमर बेल पर लगते हैं । मोबाइल और कम्प्यूटर में से निकलते हैं । स्पेक्ट्रम और कामनवेल्थ गेम्स में से निकलते हैं, क्रिकेट की फ्रेंचाइजी में से निकलते हैं । पर लोग हैं कि मेहनत मजदूरी में से पैसे निकालने की सोचते हैं । आपने लोगों की पैसे की इस ललक को पूरा करने के लिए नरेगा जैसी योजना चलाई और लोगों के पास इतना पैसा आ गया कि प्याज, दाल, अनाज खरीदने लगे । अब महँगाई तो बढ़नी ही थी । अरे, हजारों वर्षों से आधी और रूखी रोटी खाते आ रहे थे । अब भी अगर वैसे ही काम चलाते रहते तो क्या बिगड़ जाता ?

कहते हैं कि पैसा कमाना सरल है मगर उसे ढंग से खर्च करना आना बहुत मुश्किल है । भारत के इन परंपरागत गरीबड़ों के साथ यही मुसीबत है । जितना कमाते हैं उसका अधिकांश, यहाँ तक कि सारा का सारा खाने में खर्च कर देते हैं । सेठों, नेताओं, बड़े अधिकारियों को देखो, खाने पर आमदनी का दो प्रतिशत भी खर्च नहीं करते । अरे, शरीर तो नश्वर है, इसे पाल कर क्या होगा ? खाए-पिए का क्या है, गले से नीचे गया और मिट्टी । अब सांसदों को देखो, संसद की कैंटीन की बारह रुपए की सस्ती थाली खाकर काम चलाते हैं और इन मूर्खों को होटल का तीस रुपए का डोसा चाहिए, बाजार की सत्तर रुपए किलो की दाल चाहिए ।

उपभोक्ता-संस्कृति का सिद्धांत है कि जितना उपभोग होगा, अर्थव्यवस्था को उतनी ही गति मिलेगी । ठीक है उपभोग करो मगर इतनी तो अक्ल होनी चाहिए कि किसका उपभोग करो । आपने यह तो नहीं कहता कि सारा का सारा खाने में ही खर्च कर दो । पर इनको तो केवल तीन चीजें याद रहती हैं- नून, तेल, लकड़ी । अरे, इस उदारवादी, वैश्विक, मुक्त अर्थव्यवस्था ने कितनी चीजें उपलब्ध करवा दी हैं । मगर उनकी तरफ इन, नरेगा में सौ दिन काम करके चाँदी कूटने वाले, मूर्खों को इतना भी पता नहीं है कि इतने-इतने फीचर्स वाले मोबाइल हैंड सेट आने लगे हैं कि बस कुछ मत पूछो । दिन भर गाने सुनो, फोटो खेंचो, एस.एम.एस. करो, फोन पर ही ईमेल कर दो, खबरें पढ़ लो, एक रुपए से भी कम में देश में कहीं भी तीन मिनट बात करो जब कि एक लिफाफे का पाँच रुपया लगता है और पहुँचने की कोई गारंटी नहीं । कितने सस्ते कम्प्यूटर आ गए हैं, और दिल्ली में तो अब सुनते हैं कि इंटरनेट भी फ्री होने जा रहा है । सारे दिन सर्फिंग करे, ट्विट्टर पर टर्राएँ, फेस बुक पर जाएँ, फ्री में अखबार पढ़ें । और भी इतना कुछ है कम्प्यूटर पर कि बस देखते रहो खाने का तो समय ही नहीं बचेगा । एक से एक बड़े एल.सी.डी. टी.वी. आ गए हैं और उन पर सैंकडों चेनल । चेनल बदलने में ही सारा दिन निकल जाए । और चेनलों पर कैसे-कैसे सुन्दर-सुन्दर देवी-देवता विभिन्न रूपों में प्रकट होते हैं कि देखने से भूख भागे । और फिर दारू हैं, बीड़ी-सिगरेट हैं, कोकाकोला है, क्रिकेट है, चीयर लीडर्स हैं, सिनेमा है, नाच-गाना है, सांस्कृतिक कार्यक्रम हैं, फैशन शो हैं । इन्हें देखो, इनमें पैसा खर्च करो । कुछ मन के लिए भी खर्च करो । नेहरू जी ने एक बार कहा था कि यदि मेरे पास दो पैसे हों तो मैं एक पैसा गेहूँ और दूसरा पैसा गुलाब खरीदने में खर्च करूँगा । मगर ये हैं कि सौ रुपए रोजाना मिलने पर भी सारे के सारे इसी पापी पेट में भकोसने में खर्च करते हैं ।

महँगाई, भ्रष्टाचार और आतंकवाद तो ग्लोबल फिनोमिना हैं इसलिए इनको दूर करने में प्रशासन की शक्ति लगाने की बजाय मीडिया द्वारा जनता में यह चेतना जागृत की जाए कि वह अपने इस अनाप-शनाप पैसे को किस तरह समझदारी से खर्च करे ? जब तक यह मूर्ख जनता समझदार नहीं हो जाए तब तक आप एक काम करिए, इन लोगों को चिदम्बरम जी से एक बजट बनवा कर दे दीजिए कि ये किस प्रकार से अपना पैसा खर्च करें ?

१३-१-२०११

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